महामना मदन मोहन मालवीय की जीवनी एवं निबंध;
Biography and Essay of Mahamana Madan Mohan Malaviya
भारत माता आदिकाल से ही महान आत्माओं को जन्म दे रही है और न जाने कितने कर्मवीरों और तपस्वियों को इसने जन्म देकर अपने आदर्श, चरित्र, त्याग और सेवा से संसार का मार्गदर्शन किया तथा उन्हें अंधकार से निकालकर ज्ञान का दीपक दिखाया है। भारत के ऐसे ही देव पुत्रों में से एक पत्रकार समाज सुधारक, देशभक्त, धार्मिक नेता और शिक्षाविद पं. मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर 1861 ई. को सूर्य कुण्ड या लालडिंग के कूंचा सांवल-दास मोहल्ले में बृजनाथ जी के घर संध्या को 6 बजकर 54 मिनट पर प्रयाग में हुआ। इनकी माता भूना देवी थी। बी.जे. अकद के कथानुसार - "यह भारत माता के लिए एक महत्त्वपूर्ण क्षण था, जब 25 दिसम्बर 1861 को इलाहाबाद में पं. बृजनाथ के घर एक नन्हें से बच्चे ने जन्म लिया था।" कौन जानता था कि वह छोटा-सा निर्बल बालक एक दिन देश की स्वतन्त्रता और आत्मनिर्भरता के लिए सिंह गर्जना करेगा। बचपन से ही इनके माता-पिता को ऐसा प्रतीत होता था कि भविष्य में यह बालक बहुत ही होनहार होगा। एक कहावत भी चरितार्थ है कि "होनहार बिखान के होत चिकने पात" मालवीय जी ने इस कहावत को अपने जीवन में चरितार्थ किया था। पाँच वर्ष की आयु से ही उनकी शिक्षा आरम्भ हुई थी। उस समय प्रयाग में अहिपापुर मौहल्ले में कोई पाठशाला न थी। लाला मनोहर दास रईस की कोठी के चबूतरे पर, जो तीन सवा तीन फीट चैड़ा और दस पन्द्रह फीट लम्बा था, उसी पर टाट बिछा कर एक गुरु जी लड़कों को पढ़ाया करते थे। उन्हें वहां से हरदेव जी की पाठशाला जिसका नाम धर्मोपदेश पाठशाला था। जहाँ से स्थायी रूप से मदन मोहन मालवीय जी ने अपना विद्याध्ययन शुरू किया था। मदन मोहन मालवीय जी ने संस्कृत काव्य, गीता एवं अन्य धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन किया था। इनमें से मालवीय जी को संस्कृत काव्य ने अधिक प्रभावित किया था। यह उनकी अमूल्य निधि थी।
महामना पंडित मदन मोहन मालवीय का एक सामाजिक-राजनीतिक सुधारक के रूप में ऐसे समय उदय हुआ जब पूरा देश विकट परिस्थितियों में गुजर रहा था। युगपुरुष महामना मदनमोहन मालवीय का जीवन अत्यंत उतार-चढ़ाव भरा रहा। गरीबी झेलते हुए उन्होंने न सिर्फ ज्ञानार्जन किया, बल्कि स्वयं को शिखर पर पहुंचाया। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कवि, शिक्षक, पत्रकार, वकील के रूप में ऐसी अमिट छाप छोड़ी, कि हर कोई आज भी उससे प्रेरणा ले रहा है। 15वीं सदी में वे उत्तर प्रदेश चले आए। मालवा का होने के कारण वे लोग मल्लई कहलाते थे, जो बाद में मालवीय हो गया। मालवीय जी की आरंभिक शिक्षा इलाहाबाद में पूरी हुई। उन्होंने मकरंद के नाम से 15 वर्ष की आयु में कविता लिखना आरंभ कर दिया था और सोलह सत्तरह वर्ष की आयु में उन्होंने एंट्रेंस की परीक्षा पास की। ऐंट्रस पास करने के बाद मालवीय जी म्योर सेंट्रल कालेज में पढ़ने लगे। परिवार के लिए कालेज की पढ़ाई का आर्थिक बोझ वहन करना कठिन था, पर माता ने कठिनाई सहकर, अपने जेवर गिरवी रखकर अपने बच्चे को पढ़ाने का निश्चय किया। प्रिंसीपल हैरिसन ने उन्हें एक मासिक वजीफा दिया। फिर भी मदनमोहन मालवीय को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। चाहे मालवीय जी के शिक्षा क्षेत्र में कितनी भी कठिनाई क्यों न आई हो, उन्होंने बैरिस्टर तक की शिक्षा ग्रहण की। विनोद: कालेज में एक बार आर्यनाटक मण्डली की ओर से 'शकुंतला' नाटक का अभिनय हुआ, इसमें मदन मोहन मालवीय को शकुन्तला का पार्ट दिया गया। परदा उठने पर प्रियम्वदा और अनुसूया सखियों के साथ शकुन्तला हाथ में घड़ा लिए रंगमंच पर आयी, तब दर्शक दंग रह गये। शृंगार और करुणा दोनों रसों के हाव-भाव दिखला कर शकुंतला के अभिनेता ने दर्शकों को मुग्ध कर दिया।
मालवीय जी का विवाह 16 वर्ष की आयु में उनके चाचा पंडित गजाधर प्रसाद जी के माध्यम से मिर्जापुर के पंडित नन्दलाल जी की कन्या कुनन देवी से हुआ। वे माता-पिता के दुलार में पली थी। लड़कपन में उन्हें किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव नहीं था। ससुराल की आर्थिक दशा ने उन्हें बड़े धैर्य और साहस से निर्धनता के कष्ट सहन करने को बाध्य किया। उन्हें आधा पेट खा कर संतोष करना पड़ता था। फटी धोतियों सी कर पहननी पड़ती थी। एक दिन बहुत वर्षों बाद मालवीय जी ने उनसे पूछा, तुमने अपनी सास से कभी खाने-पीने पहनने की शिकायत नहीं की? इस पर देवी जी ने उत्तर दिया, 'शिकायत करके क्या करती? वे कहाँ से देती? घर का कोना-कोना जितना वे जानती थी, उतना मैं भी जानती थी। मेरा दुख सुनकर वे रो देती और क्या करती?' देवी जी को धैर्य के साथ-साथ पतिदेव का स्नेह तथा भगवद्भक्ति के प्रति अनुराग भी प्राप्त था। जैसा कि मालवीय जी ने पंडित रामनरेश त्रिपाठी को बताया, पति पत्नी दोनों वैवाहिक जीवन के प्रारम्भ से ही रामकृष्ण के उपासक थे। दोनों कोई भी काम करते, चाहे दूध पीते, चाहे पानी पीते, रामकृष्ण का स्मरण किए बिना नहीं करते। पतिदेव की तरह पतिव्रता साध्वी ने भी भगवान की भक्ति में कई दोहे कहे थे, वे कहती थी- 'ऐसा कोई घर नहीं, जहां न मेरा राम।'
वर्ष 1868 में उन्होंने प्रयाग सरकारी हाई स्कूल से मैट्रिक परीक्षा पास की। इसके उपरान्त उन्होंने मायर सेंट्रल कालेज में प्रवेश लिया। कालेज में पढ़ाई करते हुए वर्ष 1880 में उन्होंने अपने गुरु पं॰ आदित्यराम भट्टाचार्य के नेतृत्व में हिंदू समाज नामक सामाजिक सेवा संघ स्थापित किया। वे स्कूल के साथ-साथ कालेज में भी कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेते रहे। उन्होंने लिखा है, "मैं एक गरीब ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ। इसलिए पढ़ाई का खर्च पूरा करने के लिए एक सेठ के छोटे बच्चे को पढ़ाने जाता था। धार्मिक भावों के प्रति मेरा रुझान बचपन से था। स्कूल जाने के पहले मैं रोज हनुमान जी के दर्शन करने जाता था।" वे भारतीय विद्यार्थी के मार्ग में आने वाली भावी मुसीबतों को जानते थे। उनका कहना था, "छात्रों की सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भूभाग में उन समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।"
भारतीय स्वातंत्रय आन्दोलन के इतिहास में महामना का व्यक्तित्व स्वतः साक्ष्य रूप में प्रत्येक आन्दोलन से संबंधित रहा है चाहे राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रश्न रहा हो अथवा अछूतोद्धार या दलित वर्ग की समस्या रही हो या हिन्दू-मुस्लिम एकता की। चाहे औद्योगिक, आर्थिक अथवा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का विषय रहा हो या राष्ट्रीय शिक्षा के उन्नयन का अथवा विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का। इन सभी क्षेत्रों में महामना एक सच्चे सिपाही की भाँति अग्रणी रहे हैं। पंडित मदन मोहन मालवीय महापुरुष और श्रेष्ठ आत्मा थे। उन्होंने समर्पित जीवन व्यतीत किया तथा धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक आदि बहुत से क्षेत्रों में अपने लोगों की उत्कृष्ट सेवाएं की। धमकियों से निडर और प्रलोभनों से अनाकृर्षित उन्होंने अन्याय और क्ररताओं से संघर्ष किया तथा साहस और दृढ़तापूर्वक अपने उद्देश्य की नैतिकता पर दृढ़विश्वास के साथ अपने देशवासियों के सामूहिक हित और उत्कर्ष के लिए 50 वर्ष से अधिक काम किया निःसंदेह उनका व्यक्तित्व उनकी महान् उपलब्धियों से कहीं अधिक प्रतिष्ठित था। वे आध्यात्मिक सद्गुणों नैतिक मूल्यों तथा सांस्कृतिक उत्कर्ष के असाधारण संश्लेषण थे।
मदनमोहन मालवीय जी का पूरा जीवन भले ही गरीबी में बीता हो लेकिन उसने कभी भी अपने मन में हीन भावना नहीं आने दी और सदा राजा कर्ण जैसी दानवीर की सोच रखी। अपने आप में यह बहुत बड़ी बात है कि अगर किसी के पास धन हो तो वह दान कर सकता है। उसमें कोई बड़ी बात नहीं लेकिन जो आदमी अपने परिवार को तीनों समय का भोजन भी पूर्णरूपेण न दे सके और वह आदमी फिर भी दानवीर की सोच रखता हो, यह सबसे बड़ी बात है। मालवीय जी ने चाहे विद्या का दान हो, चाहे किसी गरीब आदमी की मदद की बात हो, समाज उत्थान की बात हो, समाज की कुरीतियों की बात हो, किसी भी क्षेत्र में वे पीछे नहीं हटे। उन्होंने जी भरकर लोगों की मदद की।
मदन मोहन मालवीय को महामना की उपाधि किसने दी
महात्मा गाँधी का महामना के लिए बहुत आदर था और मदनमोहन का हृदय से सम्मान करते थे वह उनकी कोई बात नहीं टालते थे। उन्होंने ही मदनमोहन मालवीय को 'महामना' की उपाधि दी।। उन्होंने महामना के लिए लिखा- 'जब मैं अपने देश में कर्म करने के लिए आया तो पहले लोकमान्य तिलक के पास गया। वे मुझे हिमालय से ऊँचे लगे। मैंने सोचा हिमालय पर चढ़ना मेरे लिए संभव नहीं और मैं लौट आया। पिफर मैं गोखले के पास गया। वे मुझे सागर के समान गंभीर लगे। मैंने देखा कि मेरे लिया इतने गहराई में पैठना संभव नहीं और मैं लौट आया। अंत में मैं महामना मालवीय के पास गया। मुझे वे गंगा की धारा के समान पारदर्शी निर्मल लगे। मैंने देखा इस पवित्र धारा में स्नान करना मेरे लिये असंभव नहीं है। मालवीय ऐसे व्यक्तित्व की ही, मैं तलाश कर रहा था।'
मालवीय जी अहिंसा के प्रबल समर्थक महात्मा गांधी के श्रद्धा पात्र एवं नियम विधान के पाबंद थे। मालवीय जी उन चंद महापुरुषों में से थे, जिनके गांधी जी चरण स्पर्श करते थे। दोनों ही अपने सिद्धांतों पर अटल रहा करते थे और कभी-कभी इसके चलते उनमें वैचारिक मतभेद भी उत्पन्न हो जाते थे। परन्तु परस्पर सम्मान पर कायम उनके संबंधों में यह भी बाधक नहीं बना।
महामना ने अपनी वेशभूषा, व्यक्तित्व विचारों और अपने संपूर्ण जीवन से भारतीय संस्कृति और धर्म का जो आदर्श हमारे सामने प्रस्तुत किया है, उसका अनुसरण करना तो दूर रहा, आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण में हम ठीक उसकी विपरीत दिशा में पागलों की तरह भागकर अर्द्ध पतित हुए चले जा रहे हैं, जिसमें महामना द्वारा प्रतिपादित नैतिक और आध्यात्मिक जीवन मूल्यों को कोई स्थान नहीं है। महामना राष्ट्र की स्वतंत्रता के अडिग पुजारी, शिक्षा के अनन्य सेवक, कुशल पत्रकार एवं विधिवेत्ता तथा समस्त भारतीय समाज में चेतना का स्पफुर्लिंग प्रज्वलित करने वालों में प्रमुख कर्णधार थे। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने महामना के प्रति अपने उद्गार व्यक्त करते हुए लिखा है कि 'भारत को अभिमान तुम्हारा, तुम भारत के अभिमानी।' महामना ने भारतीय राजनीति के नीलाकाश पर अपने शुभ्र धवल व्यक्तित्व की पुनीत आभा से विराट भास्कर की भाँति दिप्ती बिखेरी थी। धर्म, समाज, राजनीति सभी क्षेत्रों में अजातशत्रु महामना का व्यक्तित्व निष्कलंक था। वे जब तक जिये मनसा, वाचा, कर्मणा जनता की सेवा की। 'सागरः सागरोयम' भाँति उनका व्यक्तित्व अनुपमेय था। 28 दिसम्बर 1886 को कलकत्ता के टाउन हाल में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन की अध्यक्षता ब्रिटिश संसद के प्रथम भारतीय सांसद दादा भाई नैरोजी ने की। महामना की आयु तब केवल 25 वर्ष की थी और इस अधिवेशन में अपने प्रथम भाषण में उन्हेांने अपने श्रोताओं को मंत्रामुग्ध कर दिया। उनके भाषण के बारे में कांग्रेस के संस्थापक ए.ओ.ह्यूम ने 1886 की रिपोर्ट में लिखा, 'जिस भाषण को श्रोताओं ने अत्यन्त उत्साह से सुना, संभवतः वह भाषण पं. मदन मोहन मालवीय का था जो एक उच्च जातीय ब्राह्माण थे और जिनके मोहक सुकुमार और गौर वर्ण व्यक्तित्व तथा विद्वतापूर्ण संबोधन ने सभी को आकर्षित किया।' दादा भाई का कहना था, 'भारत माता की आवाज इस युवक की आवाज में स्वयं प्रतिध्वनित हो गई है।' सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने कहा, 'यह भाषण मेरे सुने गये भाषणों में सर्वश्रेष्ठ है।'
पंडित मदन मोहन मालवीय के महान योगदान
देश की दशा, प्रारम्भिक जीवन, राजनीतिक जागृति
19वीं सदी में भारतीय सभ्यता के मूल मूल्यों का पतन हो रहा था और अज्ञानता के कारण देश में अन्धविश्वास, कन्या वध, बाल विवाह, सती प्रथा, विधवाओं की दयनीय दशा, नर बली, छुआछूत सरीखी कुप्रथाएँ समाज को खोखला किए जा रही थी। 1857 के पश्चात् तो भारत में जैसे उथल-पुथल-सी मच गई थी। आतंक और दमन के बादल आकाश में मंडराए हुए थे। अंग्रेजों का विचार था अब भारत में सिर उठाने वाला कोई नहीं रहा। उनका ऐसा सोचना किसी सीमा तक उचित भी था, क्योंकि उन्होंने देश भक्तों को जिस प्रकार से कुचला, फांसी पर लटकाया और खून की नदियाँ बहाई उसका उदाहरण विश्व इतिहास में नहीं मिलता। फिर भी ब्रिटिश सरकार के न चाहते हुए भी बदलती परिस्थितियों के फलस्वरूप भारतवासियों के रहन-सहन, वेशभूषा और विचारधारा में काफी परिवर्तन आ गया था। ऐसे समय में पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म हुआ।
मालवीय जी का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान
अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में मालवीय जी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान शिक्षा के क्षेत्र में रहा। मालवीय जी के अनुसार जनता की बदहाली का कारण अशिक्षा है। 20वीं सदी के पहले दशक में उन्होंने विशेष रूप से हिंदुओं के लिए तथा सामान्य रूप से सभी के लिए एक ऐसा हिंदु विश्वविद्यालय बनाने का निर्णय लिया जहां हिंदु धर्म और संस्कृति के अलावा प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान की उच्च शिक्षा प्रदान की जा सके और जो भारत की प्राचीन गुरुकुल पद्धति को आधुनिक रूप से आगे बढ़ाए। इसके लिए उन्होंने स्वयं ही धन एकत्रित करने का बीड़ा उठाया। विश्वविद्यालय के लिए हिंदुओं की आस्था नगरी वाराणसी को चुना गया। वाराणसी के तत्कालीन नरेश ने इस कार्य के लिए 1,300 एकड़ भूमि उन्हें दान में दी। मालवीय जी भारत के कोने-कोने में घूम कर विश्वविद्यालय के लिए धन एकत्रित करते रहे। इसलिए उन्हें भारत का भिक्षु सम्राट कहा जाने लगा। उनके अथक परिश्रम के कारण 04 फरवरी, 1916 को वसंत पंचमी के दिन बनारस हिंदु विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर भवन की नींव तत्कालीन भारत के वाइस राय लार्ड हार्डिंग द्वारा रखी गई। विश्वविद्यालय का नाम बनारस हिंदू विश्वविद्यालय रखा गया। लगभग तीन दशक तक कुलपति के रूप में उन्होंने विश्वविद्यालय का मार्गदर्शन किया। मदन मोहन मालवीय जी ने काशी हिंदु विश्वविद्यालय के रूप में देश में पहली बार एक पूर्ण आवासीय विश्वविद्यालय की स्थापना की पहल की। जिस तरह से नालंदा एवं तक्षशिला विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व करता है। इसके एक ही परिसर में कला, विज्ञान, वाणिज्य, कृषि विज्ञान, तकनीकी, संगीत और ललित कलाओं की पढ़ाई संभव हुई।
मालवीय जी का उदार हिंदुत्व किसी धर्म या समुदाय का विरोधी नहीं था। हिंदू जागरण के अग्रणी नायक के रूप में उनका नाम प्रसिद्ध है। लेकिन वह सभी धर्मों और समुदायों की अधिकार रक्षा के प्रति सजग भी रहे। हिंदू महासभा से जुड़े होने पर भी वे मुस्लिम लीग के अधिवेशन में भी भाग लेते थे। हिंदुओं की जाति-वर्ण संबंधी रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए उन्होंने दलितों को मंत्र दीक्षा देने का ऐतिहासिक कार्य भी किया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में उन्होंने छात्रों को निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की। मालवीय जी का उदार हिंदुत्व किसी धर्म या समुदाय का विरोधी नहीं था। हिंदू जागरण के अग्रणी नायक के रूप में उनका नाम प्रसिद्ध है। लेकिन वह सभी धर्मों और समुदायों की अधिकार रक्षा के प्रति सजग भी रहे। हिंदू महासभा से जुड़े होने पर भी वे मुस्लिम लीग के अधिवेशन में भी भाग लेते थे। हिंदुओं की जाति-वर्ण संबंधी रूढ़ियों पर प्रहार करते हुए उन्होंने दलितों को मंत्र दीक्षा देने का ऐतिहासिक कार्य भी किया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में उन्होंने छात्रों को निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था की।
मालवीय जी ने संस्कृत में एम.ए. की परीक्षा पास करके अपने पिता की तरह धर्म प्रचार में अपना जीवन लगा देना चाहते थे ओर इसलिए उन्होंने अपने चचेरे भाई जय गोविन्द जी के आग्रह पर भी गवर्नमैंट स्कूल में अध्यापक का काम करने से इन्कार कर दिया। पर जब उनकी माता को इसका पता चला और वे उनसे कहने आई, तब उनकी सभी कल्पनाएँ माँ के आँसुओं में डूब गई ओर वे नौकरी करने के लिए राजी हो गए। 40 रुपए के मासिक वेतन पर उन्होंने गवर्नमैंट हाई स्कूल में, जहां उन्होंने पढ़ा था, अध्यापक की नौकरी कर ली। बाद में उनका मासिक वेतन 60 रुपए हो गया। इस आमदनी का अधिकांश भाग वे अपनी माता को परिवार के भरणपोषण के लिए दे देते थे। दो रुपए मासिक वे अपनी धर्मपत्नी को उसके निजी खर्च के लिए देते थे और बाकी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में तथा सार्वजनिक कार्यों के लिए खर्च कर देते थे।
मालवीय जी का कहना था कि पुरुषों की शिक्षा से स्त्रियों की शिक्षा कहीं अधिक अर्थवान है। उन्होंने कहा था, "स्त्रियां हमारे भावी राजनीतिज्ञों, विद्वानों, तत्वज्ञानियों, व्यापार तथा कला-कौशल के नेताओं की प्रथम शिक्षिका है। उनकी शिक्षा का प्रभाव भारत के भावी नागरिकों की शिक्षा पर विशेष रूप से पड़ेगा।" उनका मानना था कि पुरुषों की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण स्त्रियों की शिक्षा है, क्योंकि वे ही देश की भावी संतानों की माताएं हैं।
मालवीय जी सफल अध्यापक सिद्ध हुए। वे अपने पठनीय विषय को भली-भांति तैयार करके उसे बहुत रोचक ढंग से पढ़ाते थे तथा सदा विद्यार्थियों के प्रति स्नेह-भावना बनाए रखते थे। उनके एक प्रसिद्ध नागरिक छात्र का कहना है कि छात्रों के ऊपर उनकी स्नेहपूर्ण कृपा का, कोमल व्यवहार का, वाणी कि माधुर्य का तथा उनके आकर्षक व्यक्तित्व का बहुत प्रभाव था। सभी उनका सम्मान करते थे।
सार्वजनिक कार्य
प्रोफेसर आदित्य राम भट्टाचार्य के प्रोत्साहन से मालवीय जी ने सन 1880 में ही सार्वजनिक कार्यों में सक्रिय योगदान करना प्रारम्भ कर दिया था। उन्होंने अपने गुरु के आदेश पर 'प्रयाग हिन्दू समाज' नाम की संस्था के संचालन में काफी काम किया। पंडित बालकृष्ण भट्ट के सम्पादकत्व में प्रकाशित होने वाले पत्र में मालवीय जी ने धार्मिक और सामाजिक विषयों पर लेख लिखने प्रारम्भ किए। उन्होंने सन् 1882 में स्वयं स्वदेशी का व्रत लेकर उसका प्रचार करना शुरू कर दिया। इसी समय उनके कतिपय मित्रों ने देशी तिजारत कम्पनी खोली, जो कई वर्ष तक चलती रही। इस काम में वे अपने मित्रों को यथासम्भव परामर्श और सहयोग देते रहे। सन् 1884 में पंडित आदित्यराम भट्टाचार्य ने 'इडियन युनियन' के नाम से अंग्रेजी में एक साप्ताहिक निकालना प्रारम्भ किया। इसके सम्पादक का सारा भार उन्हें ही वहन करना पड़ता था। इसे देखकर उनके आदेश पर मालवीय जी ने उसके सम्पादन का बहुत कुछ भार अपने ऊपर ले लिया।
नागरी लिपि हिंदी के अथक साधक
मालवीय जी ने हिंदी साहित्य की भी सेवा की। तब वे मकरंद और झक्कड़ सिंह उपनाम से लिखते थे। उनका कथन था कि "जहां लोग हिंदी जानते हैं वहां आपस में हिंदी में वार्तालाप न करना देशद्रोह के समान अपराध है।" आधुनिक काल में हिंदी के निर्माण और विकास का सर्वाधिक श्रेय स्वामी दयानन्द, महात्मा गांधी और मदनमोहन मालवीय को दिया जाता है। मालवीय जी की मातृभाषा हिंदी थी। देश की एकता के लिए उन्होंने प्राचीन वैदिक संस्कृति और आर्य भाषा हिंदी को सम्बल दिया। वर्ष 1919 में मुम्बई में राष्ट्रभाषा के संबंध में उन्होंने कहा था, "वह कौन-सी भाषा है, जो वृन्दावन, बद्रीनारायण, द्वारका, जगन्नाथपुरी इत्यादि चारों धामों तक एक समान धार्मिक यात्रियों को सहायता देती है? वह एक हिंदी भाषा है। लिंग्वा फ्रेंका, लिंग्वा फ्रेंका ही क्यों लिंग्वा इंडिका है। गुरु नानकजी लंका, तिब्बत, मक्का और मदीना, चीन इत्यादि सब देशों में गये। वहां उन्होंने किस भाषा में उपदेश दिया था? यही हिंदी भाषा थी। इससे जान पड़ता है कि उस समय भी हिंदी भाषा राष्ट्रभाषा थी, और उसका सार्वजनिक प्रचार था।" मालवीय जी हिंदु और मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। उनका कहना था, "हम दोनों में जितना ही बैर या विरोध या अनेकता रहेगी, उतने ही हम दुर्बल रहेंगे। इसीलिए जो जाति इन्हें परस्पर लड़ाने का प्रयत्न करती है, वह देश की शत्रु है।" उनका कहना था, "हिंदु और मुसलमान दोनों ही साम्प्रदायिकता से दूर रहें और अपने धर्म के साथ-साथ देश की उपासना करें।"
उन्होंने अनेक संगठनों की स्थापना की तथा सनातन धर्म के हिंदू विचारों को प्रोत्साहन देने तथा भारत को सशक्त और दुनिया का विकसित देश बनाने के लिए उच्च स्तर की पत्रिकाओं का संपादन भी किया। उन्होंने प्रयाग हिंदू समाज की स्थापना की और समकालीन मुद्दों और देश की समस्याओं पर अनेक लेख लिखे। वर्ष 1884 में "हिंदी-उद्धारिणी-प्रतिनिधि-मध्य-सभा" प्रयाग में खुली। इसका उद्देश्य नागरिकों को उसका अधिकार दिलाया था। मालवीय जी ने इसमें दिल खोलकर काम किया, व्याख्यान दिये, लेख लिखे और अपने मित्रों को भी इस काम में भाग लेने के लिए उत्प्रेरित किया। मालवीय जी ने अपने ही देश में विदेशी भाषाओं के स्थान पर नागरी को समुचित स्थान दिलाने का प्रयास में हिंदी का प्रचलन अपने ही प्रदेश में आरंभ किया।
मालवीय जी के सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान वर्ष 1886 में कोलकाता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे वार्षिक अधिवेशन से हुई। वहां उन्होंने जो भाषण दिया, उससे कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह प्रभावित हुए। वे 'हिन्दुस्तान' नामक एक साप्ताहिक समाचार पत्र निकालते थे। इसे वे दैनिक बनाना चाहते थे। उन्होंने मालवीय जी से इसका संपादक बनने का प्रस्ताव रखा। मालवीय जी बेहद स्वाभिमानी थे और अपने सिद्धांत के साथ समझौता नहीं करते थे। उन्होंने अपनी कुछ शर्तों सहित इसे स्वीकार किया।
वे एक प्रखर पत्रकार थे और हिंदी पत्रकारिता करते हुए उन्होंने राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम किया। मालवीय जी को हिंदी के अखबारों का जनक कहना भी अतिशयोक्ति न होगी। कालाकांकर के हिंदुस्तान का संपादन करने के बाद प्रयाग से वर्ष 1907 में प्रकाशित "अभ्युदय" व उसके बाद "मर्यादा" ने अपने समाचार पत्र संपादकीय से जो अतिशय सफलता पाई वह बाद में प्रकाशित होने वाले अन्य समाचार पत्रों के लिए मार्गदर्शक बनी। वर्ष 1909 में उन्होंने 'लीडर" नामक समाचार पत्र का प्रकाशन आरंभ किया और वर्ष 1924 से 1946 तक दिल्ली से प्रकाशित हिन्दुस्तान टाइम्स से भी संबद्ध रहे। साथ ही "किसान" और "मर्यादा" नामक पत्रों का संपादन किया। "लीडर" के हिंदी संस्करण "भारत" और "हिन्दुस्तान टाइम्स" का हिंदी संस्करण "हिन्दुस्तान" निकला।
राष्ट्रभाषा हिंदी और देवनागरी लिपि के प्रति उनका अटूट प्रेम था। मालवीय जी के प्रयास से सन् 1896 में सर एण्टनी मेकडानल ने प्रान्तीय सरकार की सन् 1877 की वह आज्ञा वापस ले ली, जिसने सरकारी दफ्तर में दस रुपए या उससे अधिक की नौकरी पाने के लिए उर्दू या फारसी में एंग्लो-वर्नाकुलर मिडिल परीक्षा पास करना अनिवार्य बना दिया था। मालवीय जी के प्रयास से 2 मार्च सन् 1898 को अयोध्या नरेश महाराज प्रताप नारायण सिंह, माण्डा के राजा राम प्रताप सिंह, आवागढ़ के राजा बलवंत सिंह, पंडित सुन्दरलाल तथा मालवीय जी का एक डेपूटेशन सर एण्टोनी मेकडसलसे, जो उस समय उनके प्रान्त के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे, मिले और मालवीय जी ने उसकी ओर से नागरी लिपि के संबंध में प्रार्थना पत्र उन्हें पेश किया। सर एण्टोनी ने प्रार्थना पत्र पर विचार करने का वादा किया और 14 अप्रेल सन् 1900 ई. को अदालतों में फारसी लिपि के साथ नागरी लिपि के भी चलन की आज्ञा जारी कर दी। वे हिंदी में भाषण दिया करते थे। मालवीय जी ने काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। वे अंतिम क्षणों तक इसका मार्ग दर्शन करते रहे। वर्ष 1910 में मालवीय के सहयोग से इलाहाबाद में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की नींव पड़ी। वे अखिलभारतीय सनातन धर्म महासभा के संस्थापक व आजीवन अध्यक्ष रहे। उन्होंने संगीत विद्या को भी कोठे की चारदिवारियों से बाहर निकाल कर पहली बार काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रतिष्ठापित किया। वर्ष 1919 में, प्रयाग में कुंभ के पावन अवसर पर उन्होंने श्रद्धालुओं की सेवा के लिए प्रयाग सेवा समिति की शुरुआत की। मालवीय जी स्वदेशी आंदोलन की भी नींव डालने वालों में अग्रणी थे। वर्ष 1881 में उन्होंने देशी तिजारत कंपनी का गठन किया। इसके बाद 1907 में उन्होंने इंडियन इंडस्ट्रियल कांफ्रेंस का भी आयोजन किया।
इस दशक में उनका महत्त्वपूर्ण कार्य अदालतों में देवनागरी लिपि के प्रयोग को सरकार द्वारा स्वीकृत कराना था। इसके लिए उन्हें लगातार तीन वर्ष तक कठिन परिश्रम करके एक प्रार्थना पत्र तैयार करना पड़ा। इस प्रार्थना पत्र में उन्होंने बहुत से विद्वानों और प्रकाशकों के विचारों तथा बहुत से तथ्यों के आधार पर नागरी लिपि के दावों को सिद्ध करने का प्रयत्न किया। उन्होंने बताया कि प्रोफेसर मोनिपर विलियम्स, सर आइजैक पिटमैन, चीफ जस्टिस अर्सकिन पेरी जैसे विद्वान नागरी लिपि की सर्वांगपूर्णता स्वीकार करते थे। उन्होंने यह भी बताया कि इन अक्षरों की मनोहरता, सुन्दरता, स्पष्टता, पूर्णता और शुद्धता निर्विवाद है। प्रार्थना पत्र में यह भी बताया गया कि 'यदि यह भी मान लिया जाए कि फारसी में अधिक शीघ्रता से काम चलता है' तो भी नागरी के गुणों तथा स्वत्वों को भुलाया नहीं जा सकता। बहुत से प्रमाणों से हिन्दी भाषा की व्यापकता को सिद्ध करते हुए प्रार्थनापत्र में कहा गया कि हिन्दी ही उत्तर भारत की भाषा है और नागरी अक्षरों का प्रचार पश्चिम तौर प्रान्त और अवध (मौजूदा उत्तर प्रदेश) में शिक्षा के प्रसार के लिए नितान्त आवश्यक है।
भारती भवन पुस्तकालय, प्रयाग म्यूनिस्पैलिटी छात्रावास का निर्माण आदि में मालवीय जी का भरपूर सहयोग रहा। मुसलमानों ने सरकार की आज्ञा का विरोध करते हुए मालवीय जी पर साम्प्रदायिकता का दोष लगाया और नागरी लिपि तथा हिन्दी की तरह-तरह से हिजो की। पर एक दिन मालवीय जी ने एक अरबी की नजीर नागरी लिपि में लिख कर हाइकोर्ट में पढकरर इस तरह ठीक-ठीक सुनाई कि मौलवी जामिन अला, जो कि मशहूर वकील थे, मुकदमा खत्म होने पर उनसे कोर्ट के बरामदे में मिले और उनका हाथ पकड़कर कहने लगे- "पंडित साहब, आज मैं नागरी अक्षरों की उमदगी का कायल हो गया, लेकिन मैं पब्लिक में यह नहीं कहूँगा।"
प्रयाग के सांस्कृतिक जीवन की अभिवृद्धि के लिए मालवीय जी ने बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन को हिन्दी साहित्य सम्मेलन के कार्यालय को प्रयाग में स्थापित कर उसका संचालन करने को प्रोत्साहित किया। ठण्डन जी से मालवीय जी के बहुत ही मधुर संबंध थे। वे तो एक प्रकार से टण्डन जी के राजनीतिक गुरु थे। उन्हीं से टण्डन जी ने विद्यार्थी जीवन में सार्वजनिक सेवा की प्रथम प्रेरणा प्राप्त की थी। टण्डन जी संयमी, दृढ़प्रतिज्ञ, कर्तव्य परायण, निस्पृही राष्ट्रसेवी थे। किसानों के प्रति उनकी विशेष सहानुभूति थी। वे स्वतन्त्रता संग्राम के वीर सेनानी और नायक थे। जमींदारों की लूटखसोट के प्रतिरोध के लिए किसानों का संगठन तथा किसान आन्दोलन का नेतृत्व उनके राजनीतिक क्रियाकलापों का महत्त्वपूर्ण अंग था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तो वे प्राण ही थे। वे ही उसके प्रमुख कर्ता-धर्ता थे। उन्होंने स्वतंत्र भारत में कांग्रेस के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया।
भारतीय समाज एवं दलित
मालवीय जी दलितों के मंदिरों में प्रवेश निषेध की बुराई के विरोध में संपूर्ण राष्ट्र में आंदोलन चलाया। 1 अगस्त, 1936 को काशी में महात्मा गांधी के एक वर्षीय हरिजनोद्धार कार्यक्रम के समापन पर आयोजित सभा में मालवीय जी ने एक रूढ़िवादी विद्वान के भाषण के जवाब में अपने भाषण में कहा, "मेरी समझ में नहीं आता कि करोड़ो गरीब हिंदुओं को धर्माचरण और देवदर्शन से वंचित रखना कौन-सा धर्म है। यह वही काशी नगरी है, जहां रैदास और कबीर जैसे भक्त हुए हैं, जहां स्वयं शंकर भगवान ने चांडाल का वेष धरकर भगवान शंकराचार्य को सब जीवों की एकता का उपदेश दिया। उस नगरी में एक विद्वान धर्माचार्य कैसे इतने बड़े अधर्म की बात कहता है? कैसे वह भगवान को भक्त से दूर रखने का साहस करता है। कैसे वह छुआछूत के नाम पर पवित्र राम-नाम और शिव का नाम लेने से उन्हें रोकता है, जिसके उच्चारण से उन्हें मुक्ति मिलती है?"
दलित अर्थात "जिसका दमन किया गया हो" जातियों की श्रेणी में वे जातियाँ आती है जो वर्ण व्यवस्था में सबसे निचली पायदान पर थी तथा जिनका विभिन्न प्रकार से सामाजिक, आर्थिक शोषण सदियों से होता चला आ रहा है। संवैधानिक भाषा में इन्हें अनुसूचित जाति कहा गया। भारत की जनसंख्या में 16 प्रतिशत दलित है। पिछले 6-7 दशको में दलित पद का अर्थ काफी बदल गया है। विभिन्न समाज सुधारकों व नेताओं के प्रयास एवं आन्दोलनों के पश्चात् यह शब्द हिन्दू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित हजारों वर्षो से अस्पृश्य समझी जाने वाली तमाम जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयोग होता है। अपनी सभ्यता के इतिहास में भारत ने अनेक महापुरुषों को जन्म दिया है जिन्होंने अपने विचारों को आचरण में उतार कर मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया इन्हीं महापुरुषों के श्रेणी में एक अतुल्यनीय नाम श्री महामना मदन मोहन मालवीय जी का भी है जिन्होंने सामाजिक शोषण, दलितों की समाज में स्थिति तथा उनके उत्थान के विषयों में कई प्रयास कियें। इस प्रपत्र के माध्यम से मालवीय जी के द्वारा दलित उत्थान में किये प्रयासों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
दलित से अभिप्राय, उन लोगों से है जिन्हें जाति या वर्णगत भेदभाव के कारण सदियों से स्वस्थ एवं समुन्नत सामाजिक जीवन से वंचित, तिरस्कृत और समाज के हाशिये पर रखकर अपेक्षित जीवन जीने के लिए विवश रखा गया है। इतिहास के पन्ने को पलटने से यह साफ पता चलता है कि भारतीय सभ्यता के निर्माता वैदिक जन थे, वैदिक काल में समस्त मानव जीवन को एक व्यवस्था में सुन्दर समाज में बांधने के लिए चार आश्रमों की व्यवस्था की गयी इन्हीं चार आश्रमों की तरह चार वर्णों को भी बांटा गया-
- ब्राह्मण - समाज को शिक्षा प्रदान करे।
- क्षत्रिय - समाज की रक्षा करे।
- वैश्य - व्यापार तथा वस्तु की पूर्ति।
- शूद्र - सेवा का कार्य।
वेदकाल से ही जाति तथा प्रथा जैसी बुराई का प्रारम्भ हो चुका था जो मनुस्मृति काल में पनपकर विकसित हो गया। मनुस्मृति में सभी शूद्रों - अछूत जातियों के साथ पशुवत व्यवहार करने की व्यवस्था की गयी है। हिन्दू समाज व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था के उल्लंघन पर निम्न वर्ण के लोगों के लिए हिन्दू मानस दण्ड का विधान मनुस्मृति में है। आज भी वह विधान गाँवों में हिन्दुओं के निजी कानून के रूप में व्यवहार में है जो कि कितने हिंसक और क्रुरतम आदेश है। वर्ण व्यवस्था भारतीय समाज का सबसे बड़ा अभिशाप रहा इसके क्रम में दलितों का जो स्थान था, वह पशु से भी गया गुजरा था। दलित जीवन की भयावह पीड़ा ने प्राचीन काल से ही अकांक्षी और संवेदन शील समाज सुधारकों का ध्यान अपनी ओर खींचा। महावीर स्वामी, महात्मा बुद्ध, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, राजा राममोहन राय, महात्मा ज्योतिबा फूले, नारायण गुरू, महात्मा गाँधी एवं डा0 बाबा साहब अम्बेडकर आदि ने अछूतों की स्थितों को समझ्ाने की कोशिश की और उसे बदलने का भी संघर्ष किया।
दलित समाज का उत्थान
प्राचीन काल में कार्य अनुसार वर्ण व्यवस्था का प्रादुर्भाव हुआ, यह व्यवस्था केवल कार्य विभाजन पर आधारित थी किन्तु जनसंख्या विस्फोट औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की तीव्र होती प्रक्रिया के पश्चात कार्य विभाजन के सिद्धांत में अनवरत परिवर्तन परिलक्षित हो रहे है।
हम शनैः शनैः वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल और अब तक का लम्बा सफर तय कर आये है परन्तु अभी तक रूढ़िवादी प्राचीन परम्पराओं को अपने से दूर नहीं कर पाये। न तो इसमें अपेक्षित परिवर्तन मध्यकाल में आया और न ही आधुनिक काल, जबकि इस अन्तराल में अनेक महान सामाजिक चिन्तन वादियों का उदय हुआ, फिर भी इस समस्या को जिस सीमा तक दूर करना चाहिए था, दूर नहीं कर पाये। अपवादों को छोड़कर चिन्तनवादी परिवर्तन करने की दिशा में असफल रहें। भारत के संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण के समय देश के कमजोर अथवा दलित वर्ग का विशेष ध्यान रखा और उनके विकास और उत्थान के लिए संविधान में अनेक प्रावधान किये।
मालवीय जी एवं दलित चिंतन
आचरण का उपदेश वचनों के आदेश से अधिक प्रभावशाली होता है, अपने एक गीता प्रवचन में पूज्य महामना ने यह बात कही थी; सन्दर्भ भगवान श्री कृष्ण थे, जिनका पृथ्वी पर अवतार अपने आचरण का उपदेश देने के लिए हुआ था। अपने सभ्यता- इतिहास में भारत ने अनेक महापुरुषों को जन्म दिया है जिन्होंने अपने विचारों को आचरण में उतार कर मानवता के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किये। मालवीय जी को महामना की उपाधि उनके विराट हृदय और मानवीय संवेदना युक्त आचरण के लिए मिला था, उनके हृदय में दलित, स्त्री और समाज के कमजोर तबके इंसानों के प्रति अपार करुणा थी।
हिन्दू समाज की सनातन वर्ण व्यवस्था के अनुयायी होते हुए भी उनका साफ मानना था कि अस्पृश्यता हिन्दू समाज व्यवस्था का अंग नहीं है और जाति व्यवस्था और छुआछूत दोनो अलग-अलग बातें है। ऐसी कुरीति प्राचीन भारत में कभी नहीं रही इस समस्या के मूल में धर्म की रूढ़िवादी व्याख्या और अहंकारी सामंती प्रवृत्ति को जिम्मेदार ठहराते हुए उनका साफ मानना था कि जब तक दलितों की सामाजिक स्तर पर स्वीकार्यता नहीं होगी तब तक छुआछूत की समस्या दूर नहीं हो सकती। वे अस्पृश्यता को शास्त्रविध घोषित करते हुए आजीवन रूढ़िवादी विद्वानों को शास्त्रार्थ की चुनौती देते रहें और उनके बताये गये धर्मग्रन्थों से ही श्लोकों, उक्तियों, प्रमाणों, वचनों आदि को उद्धृत करके उन्हें निरुत्तर करते रहें। मालवीय जी अपने वचनों में कहते थे- " शुद्ध स्त्री और निर्बल, ईश्वर के हृदय में बसते है जबकी अन्य धार्मिक उनकी कृपा के पात्र होते है।"
एक बार एक सभा में मालवीय जी से "समाज में शूद्रों का स्थान" विषय पर सीधा प्रश्न हुआ तो उन्होंने उत्तर दिया कि यदि शूद्र प्रभु चरण से उत्पन्न है और हम उनके चरणों की पूजा करते है, चरणामृत लेते है, तो शूद्रों को तिरस्कृत व उपेक्षित करने का कोई औचित्य नहीं है। सभी वर्गों को अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करना चाहिए। इससे सामंजस्य और सद्भाव बढ़ेगा।
वर्ण व्यवस्था एवं मालवीय जी
वर्ण के विषय में मालवीय जी का विचार स्पष्ट था। वह जन्म के आधार पर पैतृक कर्म या प्रकृति को वर्ण व्यवस्था का आधार मानते थे। उनके अनुसार यदि ब्राह्मण के गुण शूद्र में पाये जाये तो वह शूद्र नहीं है और यदि ब्राह्मण के गुण नहीं पाये जाये तो वह ब्राह्मण नहीं हैं अतः उदाहरण देते हुए मालवीय जी ने कर्म के आधार पर वर्णों के सामाजिक महत्व को स्वीकार किया है उनके अनुसार मनुष्य पुण्य कर्म से वर्ण के उत्कर्ष को तथा पाप कर्म से वर्ण के अपकर्ष को प्राप्त होता है। मालवीय जी वर्णों के गुण के अनुसार ऊपर उठना उच्च वर्ण में स्वीकार करते थे। मालवीय जी ने कहा था- "हमारे वेद पुकार-पुकार कर कहते है कि हमारी हिन्दू जाति के अन्दर सब जातियाँ अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र एक ही शरीर के अंग है अतः सबसे प्रेम करना चाहिए। मालवीय जी वर्णो में गतिशीलता-सिद्धांत के समर्थक थे। उन्होंने कहा था कि मैं मनुष्यता का पूजक हूँ। मनुष्यत्व के आगे मैं जात-पात को नहीं मानता। उनका कहना था कि गरीब की सेवा करनी चाहिए द्वेष नहीं। उनके अनुसार- शीलं प्रधानं पुरूषे अर्थात् शील ही मनुष्य में प्रधान है। शीलं परंभूषणम् अर्थात् शील ही मनुष्य का सबसे उत्तम आभूषण है। शील सम्पन्न मनुष्य ही अपने जीवन का समुचित उत्कर्ष तथा समाज की सेवा कर सकता है।
दलित हजारों वर्षों तक अस्पृश्य या अछूत समझे जाने वाली उन तमाम शोषित जातियों के लिए सामूहिक रूप से प्रयुक्त होता है जो कि हिन्दू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर स्थित है। आज दलितों को भारत में जो भी अधिकार मिले है उसकी पृष्ठभूमि इसी शासन की देन थी। भारत में दलितों के उद्धार के लिए कदम उठाने वालो में विभिन्न समाज सुधारकों का नाम आता है मालवीय जी का अपने मानवीय मूल्यों की वजह से समाज में अलग स्थान रखते है मालवीय जी ने समय समय पर दलितों के उत्थान के लिए विभिन्न आवश्यक कदम उठाये। शिक्षा, धर्म, अस्पृश्यता आदि क्षेत्र में दलितों की समस्या का कैसे निष्कारण हो इसका उचित प्रयास किया। इनके सार्थक प्रयासों से दलित के प्रति सामाजिक बुराइयों में अधिकाधिक सुधार द्रष्टव्य है।
मालवीय जी और स्वतन्त्रता आन्दोलन
भारत की स्वतन्त्रता के वीर सेनानियों एवं देश के निर्माताओं में मालवीय जी का स्थान बहुत ऊंचा रहेगा। वे भारत की स्वतन्त्रता के लिए लड़े और इस विश्वास के साथ लड़े कि उसे अपने जीवन में ही प्राप्त कर लेंगे। लेकिन अपने जीवन काल में प्राप्त नहीं कर सके काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, जिसे उनके महत्तम कार्यों में से एक समझा जाता है। वस्तुतः एक ऐसी अनुल्लंघनीय दीवार है, जो उनके विविध विषयों के व्यापक कार्य क्षेत्र पर दर्शकों की दृष्टि पड़ने नहीं देती। उनमें एक महापुरुष के व्यापक गुणों का अद्भुत एवं दुर्लभ सामंजस्य था। यह भी सही है कि ऊपर देखने पर भारतीय स्वतन्त्रता के भवन में मालवीय जी हाथ उतना अधिक प्रत्यक्ष नहीं दिखलाई पड़ता, जितना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी या नेता जी सुभाष चंद्र बोस का, क्योंकि नींव तो किसी को दिखलायी नहीं देती, किन्तु बिना नींव के भवन की कल्पना भी तो असम्भव है। इसी बात को लक्ष्य कर नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने एक बार नवयुवकों को आह्वान करते हुए कहा था- "आज जिस अग्नि के चंदन की लकड़ी का काम किया है, इसे कभी मत भूलना। नेहरू जी ने लगभग इसी प्रकार के भाव व्यक्त किए थे- "भारतीय स्वतन्त्रता का जो शानदार भवन आज खड़ा हुआ है, नींव से लेकर ऊपर तक उसकी रचना मालवीय जी के हाथों हुई है। वर्ष-प्रतिवर्ष, ईंट पर ईंट, पत्थर पर पत्थर रखते हुए भारतीय स्वतन्त्रता के इस आधुनिक विशाल भवन का निर्माण उन्होंने किया था। वह असाधारण रूप से महापुरुष थे।
मालवीय जी कानून के भी अच्छे जानकार थे। वर्ष 1891 में वह बैरिस्टर बने और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत आरंभ की। वकालत के दौरान उन्हें गरीबों का वकील कहा जाता था। वह झूठा मुकदमा नहीं लेते थे। इन दिनों उन्होंने कई महत्वपूर्ण मुकदमों में पैरवी भी की। वर्ष 1913 में उन्होंने वकालत छोड़ दी थी लेकिन ब्रिटिश राज से आजादी के लिए राष्ट्र की सेवा करने का फैसला लिया। लेकिन जब गोरखपुर के ऐतिहासिक चैरीचैरा कांड में 170 लोगों को फांसी की सजा हुई तब इलाहाबाद हाइकोर्ट में मालवीय जी ने अपनी बहस से इनमें से 150 लोगों को फांसी के फंदे से बचा लिया।वे निःसंदेह अजातशत्रु थे।
मालवीय जी हिंदु और मुस्लिम एकता के पक्षधर थे। उनका कहना था, "हम दोनों में जितना ही बैर या विरोध या अनेकता रहेगी, उतने ही हम दुर्बल रहेंगे। इसीलिए जो जाति इन्हें परस्पर लड़ाने का प्रयत्न करती है, वह देश की शत्रु है।" उनका कहना था, "हिंदु और मुसलमान दोनों ही साम्प्रदायिकता से दूर रहें और अपने धर्म के साथ-साथ देश की उपासना करें।" स्वतंत्रता के कुछ माह पूर्व 12 नवम्बर, 1946 को मालवीय जी का निधन हो गया। उनकी मृत्यु को राष्ट्रीय क्षति बताते हुए महात्मा गांधी ने कहा, "मालवीय जी ने देश को अपनी महान सेवाएं प्रदान की। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि हिंदु विश्वविद्यालय की स्थापना उनकी सबसे महान सेवा व उपलब्धि रही। यह कार्य उन्हें प्राणों से भी प्रिय था, जिसके लिए उन्होंने अथक प्रयास किए। सभी जानते हैं कि मालवीय जी को भिक्षु सम्राट के नाम से जाना जाता है। ईश्वर की कृपा से उन्होंने स्वयं के लिए कोई इच्छा नहीं की अतः उन्हें कभी किसी चीज का अभाव भी नहीं रहा। उक्त कार्य को उन्होंने अपना कर्तव्य माना और स्वेच्छा से भिक्षु भी बने। इसीलिए ईश्वर ने भी उनके पात्र को सदा जरूरत से ज्यादा भरे रखा।" इस दृष्टि से भारत के इस लोकतांत्रिक युग के लिए मालवीय जी का व्यक्तिक और सार्वजनिक जीवन लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं के लिए अवश्य ही अनुकरणीय है। उनकी तत्परता, दृढ़ता, भद्रता तितिक्षता और कर्तव्य-परायणता तथा निर्भीकता और निस्वार्थ सेवा भावना का अनुकरण अवश्य ही इस देश के लोकतांत्रिक जीवन को ऊँचा उठा सकता है। इस तरह मालवीय जी का जीवन आज भी हमारे लिए उतना ही प्रासंगिक है, जितना वह स्वतन्त्रता से पहले था।
Madan Mohan Malaviya Slogans/मदन मोहन मालवीय जी के नारे
Hindi – सत्यमेव जयते. English – Satyameva Jayate.
Madan Mohan Malaviya Images/ मदन मोहन मालवीय जी के चित्र
महामना मदन मोहन मालवीय के दुर्लभ चित्र