एक तरफ राष्ट्रीय आंदोलन अपनी तीव्रता पर था और दूसरी तरफ सांप्रदायिकता की आग चारों ओर फैल रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में जिला गाजीपुर उत्तर प्रदेश के 'बुधही' नामक गाँव में सैयद मासूम रज़ा का जन्म हुआ। बुधही मासूम रज़ा का ननिहाल था। ददिहाल के गाँव का नाम है- गंगौली, जो कि ग़ाज़ीपुर शहर से लगभग 12 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। वास्तव में मासूम रज़ा के दादा आजमगढ़ स्थित 'ठेकमा बिजौली' नामक गाँव के निवासी थे। दादी गंगौली के राजा मुनीर हसन की बहन थी। वह राही के दादा के संग गंगौली में ही बस गई थीं। तदुपरांत धीरे-धीरे परिवार में गंगौली का रंग रचता-बसता गया। मासूम रज़ा की निगाहें गंगौली में ही खुली, 'ठेकमा बिजौली' से कोई संबंध नहीं रहा।
मासूम रज़ा के पिता श्री बशीर हसन आब्दी, गाजीपुर जिला कचहरी के प्रसिद्ध वकील थे, इसलिए पूरे परिवार का रहना-सहना और शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई ! परंतु मोहर्रम और ईद के कारण आब्दी परिवार गंगौली से जुड़ा हुआ था। श्री बशीर हसन आब्दी के वर्षों तक गाजीपुर में एक ख्याति प्राप्त वकील के रूप में कार्य करने के कारण परिवार में सुख-वैभव की कोई कमी नहीं थी। इसलिए मासूम रज़ा का बचपन बिना किसी कष्ट के व्यतीत हुआ। परिवार भी भरा-पूरा था। बड़े भाई मूनिस रज़ा के अलावा दो भाई एवं दो बहनें थी। मासूम रज़ा के बाल्यकाल में चंचलता अपेक्षाकृत अधिक थी, इसलिए घर के बड़े-बूढ़ों के साथ-साथ के भाई-बहनों को भी अपनी छेड़-छाड़ के द्वारा तंग करते रहते थे। पारिवारिक परंपरा के अनुसार पहले बिस्मिल्लाह के साथ मासूम की शिक्षा-दीक्षा प्रारंभ हुई। प्रारंभ में पढ़ाई-लिखाई में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए अपने मौलवी मुनव्वर साहब की पिटाई से बचने के लिए उन्हें अक्सर अपने जेब खर्च की इकन्नी दे देनी पड़ती थी। अभी मासूम रज़ा की शिक्षा सुचारू रूप से प्रारंभ भी नहीं हुई थी कि परिवार के सदस्यों ने यह महसूस करना शुरू किया कि मासूम लंगड़ाता है। प्रारंभ में लगड़ेपन को उनकी उद्दंडता समझकर नजर अंदाज कर दिया गया, लेकिन कुछ दिनों के पश्चात स्थिति की गंभीरता को ध्यान में रखकर जब परीक्षण पर परीक्षण प्रारंभ हुआ तो पता चला कि मासूम रज़ा को बोन टी. बी. है।
टी. बी. की बीमारी ने मासूम रज़ा के जीवन को एक नया मोड़ प्रदान किया। साथ ही उनकी संवेदनाओं को गहराई तक छोड़ते हुए उनके भविष्य के साहित्यकार जीवन की पृष्ठभूमि के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बीमारी के कारण उन्हें फिल्म देखने का शौक भी पूरा करने का भी मौका मिला। दोस्तों, हवेलियों-मवालियों के साथ पालकी पर बैठ कर फिल्म देखने जाते। शायद बीमार मासूम का मन फिल्मों से बहल जाये, संभवतः इसी कारण परिवार के बड़े-बूढ़ों ने उन्हें फिल्म देखने से रोकने के बजाय बढ़ावा ही दिया। उनके फिल्मी जीवन के प्रेरणा-स्रोत के रूप में उनके बचपन के फिल्म के शौक ने अवश्य कहीं-न-कहीं पृष्ठभूमि का कार्य किया।
अपनी उदासी और सूनेपन को दूर करने में फिल्म इत्यादि से असफल हो अंत में 'हसरत' या फिर अन्य उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं की शरण में जाना पड़ता। परिवार के घरेलू कार्यों के लिए अली हुसैन साहब थे, जिन्हें सब कल्लू काका कहा करते थे। उनका अन्य कार्यों के अतिरिक्त एक प्रिय कार्य था किस्सागोई। कल्लू काका 'तिलिस्मे होशरूबा' सुनाने बैठ जाते। धीरे-धीरे अन्य बच्चों का मन उकता जाता, लेकिन मासूम रजा कभी नहीं थकते थे। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख कर देना आवश्यक है कि प्रेमचंद भी बचपन में तिलिस्मे होशरूबा के दीवाने थे। बाद में मासूम रज़ा द्वारा किये गये शोध कार्य 'तिलिस्मे होशरूबा में वहजती अनासिर' के प्रेरणा-स्रोत के रूप में उनके द्वारा बचपन में तिलिस्मे होशरूबा के किस्से को बार-बार सुनने की उत्कंठा को रेखांकित किया जा सकता है।
अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रवेश से पहले मासूम रज़ा ने किसी भी शिक्षण-संस्थान से औपचारिक रूप में शिक्षा नहीं प्राप्त की। बीमारी के कारण टांगे पहले टेढ़ी हो चुकी थीं। डॉक्टरों ने निरंतर इलाज की सलाह दी थी, इसलिए प्राइवेट परीक्षाओं के द्वारा धीरे-धीरे शिक्षा का क्रम आगे बढ़ता रहा। साथ ही उनके लिए गाजीपुर में एक कोआपरेटिव स्टोर खुलवा दिया गया। पर अब तक उनके आगामी जीवन की भूमिका के रूप में साहित्य ने अपनी जड़ों के लिए जमीन तैयार कर ली थी, अतः दुकान में मन लगाना आसान कार्य नहीं था।
मासूम रज़ा की शादी के साथ जीवन में उथल-पुथल एवं परिवर्तनों का एक नया दौर प्रारंभ हुआ साहित्य का बीज मासूम रज़ा के मस्तिष्क में पहले ही अपना स्थान बना चुका था, लेकिन उनकी वैचारिक दृढ़ता को दिशा प्रदान करने में शादी एवं उससे उत्पन्न स्थितियों का महत्वपूर्ण योगदान है। उनकी शादी उत्तर प्रदेश के जिला फैजाबाद (वर्तमान में अंबेडकर नगर) की टांडा तहसील में स्थित गाँव कलापुर के एक खानदानी व्यक्ति, जो कि पेशे से पोस्ट मास्टर की पुत्री मेहरबानो से संपन्न हुई। मेहरबानों एक पारंपरिक रूढ़िवादी परिवार से आयी थी, रंग-रूप भी औसत था जबकि मासूम रज़ा का घर बहुत हद तक रूढ़ि-मुक्ति एवं आधुनिक विचार वाला था। घर के स्वच्छंद एवं स्वतंत्र वातावरण का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उनके घर में बड़े भाई मूनिस रज़ा प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे, तो पिता श्री बशीर हसन आब्दी कांग्रेसी थे।
कुछ साल तक मेहरबानो ने मासूम रज़ा के परिवार में अपना जीवन बड़ी कठिनाइयों के बीच व्यतीत किया। मासूम रज़ा के साथ ही उन्होंने प्राइवेट हाई स्कूल की परीक्षा पास की, पर उनको वहाँ फूटी आँख भी पसंद नहीं किया गया। सैयद जुहेर अहमद जैदी ने लिखा है कि, “एक सूत्र के अनुसार मासूम अत्यधिक क्रोध में आकर उस अबला को खूब पीटा करते थे।” संभवत्त: कम आयु में विवाह हो जाने, विकलांग होने और निरंतर बीमार रहने का प्रभाव उनके वैवाहिक जीवन पर पड़ा और आगे चलकर मासूम रज़ा का मेहरबानो से तलाक हो गया।
जीवन के छिट-पुट इन अंधेरे पक्षों एवं दुखद घटनाओं के अतिरिक्त उनके बचपन से ही, उनकी विरोधी प्रवृत्तियों का स्वर सकारात्मक रहा है। मासूम रजा पर बड़े भाई मूनिस रज़ा का बहुत प्रभाव था। यही कारण है कि मूनिस रजा के साथ-साथ मासूम रज़ा पर प्रगतिशील विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप उनकी विरोधी प्रकृति प्रगतिशील विचारधारा के माध्यम से समाज के निम्न वर्ग को स्वर प्रदान करती हुई साहित्य के माध्यम से मुखरित हुई।
मासूम रज़ा का बचपन विशिष्ट सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं के बीच बीता, जहाँ सलाम और आदाब 'खालिस' (नस्लीय शुद्धता) पर आधारित था, परंतु इन रूढ़ियों को तोड़ने का प्रण मासूम ने जैसे बचपन से ही कर लिया था। धर्म और रोजी-रोटी के आपसी संबंधों की समझ संभवत: उन्हें बचपन से ही हो गयी थी। मासूम का बचपन जहाँ बीता वहाँ राकी, जुलाहों और सैयदों में अंतर तो था ही, उत्तर पट्टी के सैयदों में भी फर्क था। अहीर और चमारों की बस्तियाँ गाँव से दूर थी । मीर साहबानो के सामने सब निम्न थे, ऐसी दोनों पक्षों की धारणा थी कि मीर साहबानों के बच्चों को सख्त हिदायत थी कि नीचे समझे जाने वाले वर्ग के बच्चों के साथ खेलना तो क्या उनके साथ बातचीत भी नहीं करना चाहिए, परंतु मासूम ने कबड्डी का खेल उनके साथ खेलते हुए पहली बार इस परंपरा को क्रांतिकारी ढंग से तोड़ा।
सन् 1948 तक मासूम रजा 'राही' उपनाम से उर्दू शायरी में प्रवेश पा चुके थे। धीरे-धीरे उनकी प्रतिभा से डॉ० एजाज़ हुसैन जैसे विद्वान भी प्रभावित होने लगे। उनकी साहित्यिक गतिविधियों का क्षेत्र विस्तृत होने लगा। एक-एक करके डॉ. अजमल अजमली, श्री मुजाविर हुसैन (इब्ने सईद), श्री जमाल रिज़वी (शकील जमाली), मसूद अख्तर जमाल, खामोश गाजीपुरी, तेग इलाहाबादी, असरार जैसे नवोदित शायरों के साथ-साथ बलवंत सिंह और फिराक गोरखपुरी जैसे स्थापित लोगों से उनका संपर्क होने लगा। इन मिलने-जुलने वाले अधिकांश साहित्यकारों का रुझान प्रगतिशील विचारों के प्रति थी। राही मासूम रजा का प्रगतिशील विचारधारा से पहले ही संबंध था, फलत: इन लोगों के संपर्क में आने के पश्चात उनके विचारों को और अधिक बल प्राप्त हुआ। स्वाभाविक रूप से उनकी दृष्टि भी साफ हुई। सब लोगों ने डॉ. एजाज़ हुसैन के संरक्षण में मिलकर “नकहत' क्लब की स्थापना किया। इसके गोरखपुर में होने वाले पहले अधिवेशन के साथ ही नियमित रूप से राही ने इसकी गतिविधियों में हिस्सा लेना प्रारम्भ दिया था। पटना के सम्मेलन तक राही मंझ चुके थे। आजमगढ़ का सम्मेलन होते-होते उनकी शायरी प्रसिद्धि के शिखर को छूने लगी थी। इसी बीच कथा-साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने उर्दू के उपन्यास 'मुहब्बत के सिवा' के साथ प्रवेश किया पर वो एक रोमानी उपन्यास साबित हुआ। शायरी के समानांतर मुहब्बत के सिवा की तर्ज पर उन्होंने बहुत सारे उपन्यासों की रचना की। उपन्यासकार के रूप में उन्होंने 'शाहिद अख्तर' नाम अपनाया।
राही का इलाहाबाद में प्रगतिशील साहित्यकार वर्ग से जुड़ना स्वाभाविक था, क्योंकि साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव उन पर गाजीपुर में ही पड़ चुका था, परंतु गैर प्रगति वादियों से भी उन्हें कोई परहेज नहीं था। इलाहाबाद का तत्कालीन साहित्य संसार प्रतिवादियों के अतिरिक्त कांग्रेसी, महासभाई इत्यादि सभी विचारधारा के साहित्यकारों का गढ़ था। 'परिमल' नामक संस्था से बच्चन एवं धर्मवीर भारती इत्यादि हिंदी कवि सक्रिय थे। प्रत्येक विचारधारा के साहित्यकारों एवं संस्थाओं से संपर्क में आने के कारण उन्हें एक विस्तृत साहित्यिक फलक मिला, जहां उनकी प्रतिभा प्रस्फुटित हुई। 'हिंदोस्तां की मुकद्दस जीम, जैसे मेले में तन्हा हो नाजनी' नज़्म ने पहली बार उनकी इलाहाबाद के बाहर के साहित्यकारों के बीच प्रसिद्धि का कारण बनी।
डॉ० एजाज़ हुसैन के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका “कारवाँ' में उनकी नज्में और लेख प्रकाशित होते रहे। 'फसाना' दिल्ली से प्रकाशित होती थी, उसमें भी राही का प्रकाशन लगभग नियमित था। राही मासूम रज़ा के तेवर बचपन से ही तेज़ थे, यही उनके साहित्यिक जीवन में स्पष्ट बयानी, दो टूक जवाब की प्रवृत्ति के रूप में और भी अधिक मुखरित हुई। राही मासूम रज़ा के जीवन का यह वह काल था जब भारत का विभाजन तो हो चुका था, लेकिन उसका प्रभाव अब तक था। सामाजिक विघटन, सांप्रदायिकता की सड़ांध अब भी वातावरण में बाकी थी। लेकिन इस विघटन और सड़ांध के प्रभाव से, गंगा की गोद में पल-बढ़ कर बढ़े हुए राही दूर रहे। फिर भी वे कहीं-न-कहीं से टूटने लगे थे। टूटने का कारण भी अपनों के बीच ही अजनबीपन का एहसास पैदा होना।
साहित्यिक गतिविधियों के बीच ही राही ने उर्दू में बी. ए. के समकक्ष परीक्षा पास कर ली थी। देश विभाजन के कारण डॉ. मुस्तफा, जिनके यहाँ वह रहते थे, भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गये। फलस्वरूप राही का मन इलाहाबाद से उचाट हो गया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनके बड़े भाई मूनिस रजा और दो छोटे भाई पहले से ही थे। मूनिस रज़ा की प्रेरणा से उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एम. ए. उर्दू में प्रवेश ले लिया। एम. ए. में प्रवेश से पहले ही उनका “रक्से मय' 'मौजे सबा” “नया साल' 'अजनबी शहर अजनबी रास्ते' इत्यादि काव्य संग्रह उर्दू में प्रकाशित हो चुके थे। जिस काल में अलीगढ़ में राही मासूम रज़ा आये, वह समय अलीगढ़ की साहित्यिक गतिविधियों के लिए महत्वपूर्ण रहा है। अनेक लेखक एवं शायरों की गतिविधियों प्रगतिशील झंडे के तले सक्रिय थी। राही को यहाँ मार्ग ढूँढने में कोई कठिनाई नहीं हुई। दूसरी तरफ 'उर्दू-ए-मुअल्ला' नामक कैंप भी था जिसके संचालक आले अहमद सुरूर एवं शहाब जैसे साहित्यकार थे।
अलीगढ़ आने से पहले ही राही के पास अपना एक निश्चित दृष्टिकोण था। बचपन से ही उनके अंदर “ईगो' की भावना भी विद्यमान थी, यहाँ के वातावरण ने उसे और अधिक पहले पलने बढ़ने का अवसर प्रदान किया। इसलिए उन्हें अकेलेपन एवं लोगों से अलगाव का एहसास होता था। अलीगढ़ में राही द्वारा अपने से सबको कमतर समझने का कारण भी था। जब तक साहित्यकार में प्रतिस्पर्धा की भावना हो उसका साहित्य तभी तक जीवित रह सकता है, जब वह ऐसे नये सवाल लेकर आये जिसका जवाब दूसरे साहित्यकार के पास न हो और वे सवाल साहित्य को झिंझोड़ने की क्षमता रखते हों। राही भी नये तेवर और नये सवालों के साथ साहित्य को झिंझोड़ रहे थे। राही रास्ते की खोज में लग गये। भाषिक सीमाओं तो तोड़ती हुई राही की खोजी प्रवृत्ति, उन्हें कला के एक दूसरे क्षेत्र 'फिल्म' तक घसीट ले गयी।
फिल्मों के प्रति अनुराग राही के अंदर बचपन से ही था। अलीगढ़ में एम. ए. के बाद शोध-कार्य में लग गये, परंतु उनका बहुमुखी व्यक्तित्व सक्रिय रहा। साहित्यिक गतिविधियों के अतिरिक्त राही विश्वविद्यालय के नाट्य मंच से भी कुछ दिन तक जुड़े रहे। राही के द्वारा नाटक 'एक पैसे का सवाल है बाबा” भी उस जमाने में अत्यधिक चर्चित हुआ। अलीगढ़-प्रवास काल में ही उनका संपर्क प्रसिद्ध अभिनेता भारत भूषण के भाई रमेश चंद्र से रहा। उनके साथ राही सन् 1963 में बंबई भी जा चुके थे। राही के फिल्मों के प्रति लगाव की पृष्ठभूमि के रूप में उनकी रंगमंचीय सक्रियता एवं रमेश चंद्र के संर्पक ने कार्य किया। दूसरी तरफ उनके निजी जीवन की उथल-पुथल ने भी उन्हें फिल्मों की तरफ जाने के लिए मजबूर कर दिया।
अलीगढ़ में राही को एक शायर के रूप में लोकप्रियता तो मिल ही चुकी थी किन्तु आधा गांव की लोकप्रियता ने उनके जीवन में एक नयी हलचल उत्पन्न कर दी। यह उपन्यास नागरी लिपि में प्रकाशित हुआ था। पहले के उपन्यास के लिए अपनाये गये नाम 'शाहिद अख्तर' को छोड़कर इस उपन्यास पर लेखक के नाम के स्थान 'राही' मासूम रजा लिखा गया। इसकी रचना 1964 ई0 में हुई। शोध समाप्त करने के बाद राही उर्दू विभाग में प्रवक्ता हो गये। कुछ ही दिनों बाद संपर्क एक अन्य महिला श्रीमती नैयर से हो गया। दोनों लोगों ने दिल्ली जाकर शादी कर ली। इस विवाह के कारण ही उनकी नौकरी छूट गई। उनके स्थान पर एक अन्य शोधार्थी अतीक अहमद सिद्दीकी की नियुक्ति कर दी गयी। राही का दिल टूट गया। दिल्ली में उन्हें आकाशवाणी से नौकरी का निमंत्रण मिला। लेकिन उन्होंने आकाशवाणी की नौकरी अस्वीकार करके, बंबई जाकर सिनेमा-संसार में भाग्य आजमाने का निर्णय किया। सन् 1968 से राही बम्बई रहने लगे थे। वह अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे, जिससे उनकी जीविका की समस्या हल होती थी। राही अपने सांप्रदायिकता-विरोध तथा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण वहाँ अत्यंत लोकप्रिय हो गए। बंबई रहकर उन्होंने 300 फिल्मों की पटकथा और संवाद लिखे तथा दूरदर्शन के लिए 100 से अधिक धारावाहिक लिखे, जिनमें 'महाभारत” और “नीम का पेड़" अविस्मरणीय हैं। राही ने प्रसिद्ध टीवी सीरियल 'महाभारत' की स्क्रिप्ट भी लिखी। सन् 1977 में आलाप', 1979 में “गोलमाल', 1980 में 'हम पाँच', 'जुदाई' और 'कर्ज', 1991 में 'लम्हें' तथा 1992 में 'परंपरा' आदि फिल्मों के संवाद उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त है सन् 1979 में 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' फिल्म के लिए राही को बॉलीवुड का प्रतिष्ठित फिल्म फेयर बेस्ट डायलाग अवार्ड भी मिला। बंबई में रहते हुए राही लगातार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट तथा नियमित स्तंभ भी लिखा करते थे, जो व्यक्ति, राष्ट्रीयता, भारतीय संस्कृति और समाज, धार्मिकता तथा मीडिया के विभिन्न आयामों पर केंद्रित रही। अपने समय में राही भारतीय साहित्य और संस्कृति के एक अप्रतिम प्रतिनिधि हैं। उनका पूरा साहित्य हिंदुस्तान की साझा विरासत का तथा भारत की राष्ट्रीय एकता का प्रबल समर्थक है। बंबई फिल्मी जीवन के संघर्ष में लगे राही के अंदर का साहित्यकार संघर्ष करता हुआ साहित्य-यात्रा के अनेक पड़ावों को तय करता रहा। 5 मार्च सन् 1992 में बंबई में ही राही ने इस नश्वर संसार से आखिरी विदाई ली।
कृतित्व - राही ने साहित्य में कदम 1945 में रखा। तब उन्होंने विधिवत उर्दू में शायरी आरंभ की। 1966 तक आते उनके 4 काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे- 'नया साल', 'मौजे गुल, मौजे सबा, 'रक़्से मय', 'अजनबी शहर अजनबी रास्ते' । बाद में 'शीशे के मकांवाले' तथा 'मैं एक फेरीवाला' दो काव्य-संग्रह और प्रकाशित हुए। 1857 पर लिखा उनका एक महाकाव्य 'क्रांति-कथा : 1857' हिंदी-उर्दू दोनों में प्रकाशित है। सन् 1966 में गाजीपुर के परमवीर चक्र विजेता शहीद अब्दुल हमीद पर उनकी जीवनी 'छोटे आदमी की बड़ी कहानी' प्रकाशित हुआ। उनका अंतिम काव्य-संग्रह 'ग़रीबे शहर' सन् 1993 में प्रकाशित हुआ।
सन् 1964 ई0 में जब राही मासूम रज़ा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू प्रवक्ता पद के लिए तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप अयोग्य ठहराये गये, तो राही के भीतर का रचनाकार साहित्यिक तलवार लेकर बीच चौराहे पर खड़ा हो गया और ऐसा प्रतीत हुआ कि यह रचनाकार उर्दू साहित्य के महंतों के ही रक्त का प्यासा नहीं है, बल्कि उर्दू की विशिष्ट सामंती मानसिकता को भी सिरे से कत्ल कर देना चाहता है। उसकी आक्रोश पूर्ण दृष्टि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, उर्दू और मुस्लिम समाज की ज़मींदारी मनोवृत्ति के विरुद्ध सशक्त मोर्चा बनाने के लिए उसे तत्पर हुई। राही का प्रथम उपन्यास आधा गांव इसी आक्रोश के नतीजे में हिंदी में लिखा गया। वैसे तो राही के पास उर्दू कविता का सशक्त माध्यम था, किंतु कविता के पाठक सीमित थे, फिर कविता का फलक राही के आक्रोश को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं था।
आधा गाँव' का रचना काल सन् 1964 ई0 के आस-पास का है। इस समय तक राही को हिंदी लिखने का ठीक-ठाक अभ्यास नहीं था। राही ने अपने दृढ़ संकल्प और लगन से न केवल हिंदी सीखी, बल्कि हिंदी में निरंतर लिखने का निश्चय कर लिया। उनके भीतर की आत्मा ने उनके इस निर्णय को अद्भुत शक्ति प्रदान की। इसी अद्भुत निर्णय का परिणाम था- आधा गाँव'। महाभारत जैसे अत्यंत लोकप्रिय टी. वी. सीरियल के पटकथा और संवाद लिखकर भी राही को अपार सफलता मिली। आधा गाँव' के बाद राही की अन्य उपन्यासिक कृतियाँ कालक्रम के अनुसार इस प्रकार आती हैं- 'टोपी शुक्ला (1968), हिम्मत जौनपुरी' 1969), ओस की बूंद” (1970), 'दिल का सादा काग्रज' (1973), 'सीन 75' (1977), 'कटरा बी आर्जू' 1978), 'असंतोष के दिन' (1986), तथा “नीम का पेड़' ।
राही की मृत्यु के बाद उनके मित्र और साथी तथा हिंदी के सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी समीक्षक प्रो. कुँवर पाल सिंह ने उनकी अप्रकाशित रचनाओं को छह पुस्तकों में संपादित करके प्रकाशित कराया है। पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं- 'क्रांति कथा : 1857', “लगता है बेकार गये हम”, 'खुदा हाफिज कहने का मोड़', 'सिनेमा, समाज और संस्कृति', 'राही का रचना संसार' तथा राही मासूम रजा से दोस्ती'। अभिनव कृदम' पत्रिका ने भी राही विशेषांक नवंबर 2001-अक्टूबर 2002 निकाला, जिसमें राही के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पर्याप्त सामग्री है। इन सभी संपादित पुस्तकों में विभिन्न विषयों पर लेख, भाषण, संस्मरण और पत्र संकलित हैं।
Share: