आयु वृद्धि के साथ रोग से छुटकारा प्राप्त करने का मंत्र



आयु वृद्धि के साथ रोग से छुटकारा प्राप्त करने का मंत्र

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
हवन विधि - जप के समापन के दिन हवन के लिए बिल्वफल, तिल, चावल, चन्दन, पंचमेवा, जायफल, गुगुल, करायल, गुड़, सरसों धूप, घी मिलाकर हवन करें।रोग शान्ति के लिए, दूर्वा,गुरूच का चार इंच का टुकड़ा,घी मिलाकर हवन करें। श्री प्राप्ति के लिए बिल्व फल,कमल बीज,तथा खीर का हवन करे। ज्वर शांति में अपामार्ग, मृत्यु भय में जायफल एवं दही,शत्रु निवारण में पीला सरसों का हवन करें। हवन के अंत में सूखा नारियल गोला में घी भरकर खीर के साथ पूर्णाहुति दें। इसके बाद तर्पण,मार्जन करे। एक कांसे,पीतल की थाली में जल, गो दूध मिलाकर अंजली से तर्पण करे। मंत्र के दशांश हवन, उसका दशांश तर्पण, उसका दशांश मार्जन,उसका दशांश का शिवभक्त और ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए। तर्पण,मार्जन में मूल मंत्र के अंत मे तर्पण में "तर्पयामी" तथा मार्जन मे "मार्जयामि" लगा लें। अब इसके दशांश के बराबर या 1, 3, 5, 9, 11 ब्राह्मणों और शिव भक्तों को भोजन कर आशीर्वाद ले। जप से पूर्व कवच का पाठ भी किया जा सकता है,या नित्य पाठ करने से आयु वृद्धि के साथ रोग से छुटकारा मिलता है।


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यौन पहचान - Sexual Identity



पुरुष, महिला के रूप में स्वयं की सबसे आंतरिक अवधारणा, दोनों या दोनों का मिश्रण - व्यक्ति खुद को कैसे समझते हैं और वे खुद को क्या कहते हैं। किसी की लिंग पहचान जन्म के समय सौंपे गए उनके लिंग से समान या अलग हो सकती है। लोग स्वाभाविक रूप से लिंग पहचान, अभिव्यक्ति, कामुकता और रोमांटिक झुकाव की एक अविश्वसनीय विविधता में आते हैं। फिर भी संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई स्थानों पर, लोगों को अक्सर उनके यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान के आधार पर भेदभाव और यहां तक कि हिंसा का सामना करना पड़ता है।
अपनी यौन पहचान की खोज करने वाले युवाओं के लिए, अपने माता-पिता के पास आना अक्सर सबसे बड़ी बाधा होती है। दूसरी तरफ, उन लोगों से स्वीकृति और समर्थन प्राप्त करना जिनकी वे परवाह करते हैं, बड़ी राहत और ताकत का स्रोत हो सकता है। यौन अभिविन्यास इस बारे में है कि आप किसके प्रति आकर्षित हैं और किसके साथ संबंध बनाना चाहते हैं। यौन अभिविन्यास में समलैंगिक, समलैंगिक, सीधे, उभयलिंगी और अलैंगिक शामिल हैं।
Sexual Identity
  1. होमोसेक्‍सुअलटी (Homosexuality) समान लिंग के अन्य व्यक्तियों के प्रति आकर्षण के पैटर्न का वर्णन करती है। Lesbian शब्द का उपयोग आमतौर पर समलैंगिक महिलाओं को संदर्भित करने के लिए किया जाता है, और Gay शब्द का उपयोग आमतौर पर समलैंगिक पुरुषों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है, हालांकि होमोसेक्‍सुअलटी का उपयोग कभी-कभी महिलाओं को संदर्भित करने के लिए भी किया जाता है।
  2. उभयलिंगीता (Bisexuality) पुरुषों और महिलाओं दोनों के प्रति आकर्षण के एक पैटर्न का वर्णन करती है, या एक से अधिक सेक्स या लिंग के लिए। एक उभयलिंगी पहचान आवश्यक रूप से दोनों लिंगों के लिए समान यौन आकर्षण के बराबर नहीं है; आमतौर पर, जिन लोगों के पास एक लिंग के लिए दूसरे पर एक अलग लेकिन अनन्य यौन प्राथमिकता नहीं होती है, वे खुद को उभयलिंगी के रूप में भी पहचानते हैं।
  3. अलैंगिकता (Asexuality) दूसरों के प्रति यौन आकर्षण की कमी, या यौन गतिविधि में कम या अनुपस्थित रुचि या इच्छा है। इसे अलैंगिक उप-पहचान के व्यापक स्पेक्ट्रम को शामिल करने के लिए अधिक व्यापक रूप से वर्गीकृत किया जा सकता है। अलैंगिकता यौन गतिविधि से दूर रहने और ब्रह्मचर्य से अलग है
  4. रोमांटिकतावाद (Aromanticism) को "दूसरों के प्रति बहुत कम या कोई रोमांटिक भावना नहीं होना: बहुत कम या कोई रोमांटिक इच्छा या आकर्षण का अनुभव करना" के रूप में परिभाषित किया गया है
  5. पैनसेक्सुअलिटी (Pansexuality) लोगों के प्रति आकर्षण का वर्णन करती है, चाहे उनकी सेक्स या लिंग पहचान कुछ भी हो। पैनसेक्सुअल लोग खुद को लिंग-अंधे के रूप में संदर्भित कर सकते हैं, यह कहते हुए कि लिंग और सेक्स दूसरों के लिए उनके रोमांटिक या यौन आकर्षण में कारक नहीं हैं। पैनसेक्सुअलिटी को कभी-कभी एक प्रकार की उभयलिंगीता माना जाता है।
  6. बहुलैंगिकता (Polysexuality) को "कई अलग-अलग प्रकार की कामुकता को शामिल करने या विशेषता रखने" के रूप में परिभाषित किया गया है, और कई, लेकिन सभी नहीं, लिंगों के लिए यौन आकर्षण के रूप में।   जो लोग इस शब्द का उपयोग करते हैं, वे उभयलिंगी शब्द के प्रतिस्थापन के रूप में ऐसा कर सकते हैं, यह मानते हुए कि उभयलिंगी डिकोटोमी को पुनर्जीवित करता है। प्रमुख एकेश्वरवादी धर्म आम तौर पर बहुलैंगिक गतिविधि को प्रतिबंधित करते हैं, लेकिन कुछ धर्म इसे अपनी प्रथाओं में शामिल करते हैं। बहुलैंगिकता को उभयलिंगीता के लिए एक और शब्द भी माना जाता है, हालांकि उभयलिंगी के विपरीत, पॉलीसेक्सुअल आवश्यक रूप से एक ही लिंग के लोगों के प्रति आकर्षित नहीं होते हैं।
  7. सैपियोसेक्सुअलिटी (Sapiosexuality) किसी अन्य व्यक्ति की बुद्धि के प्रति आकर्षण का वर्णन करती है। उपसर्ग सैपियो- लैटिन से "मेरे पास स्वाद है" या "मेरे पास ज्ञान है" के लिए आता है और किसी व्यक्ति की प्राथमिकताओं, प्रवृत्तियों और सामान्य ज्ञान को संदर्भित करता है। सैपियोसेक्सुअल-पहचान करने वाले व्यक्ति समलैंगिक, सीधे या उभयलिंगी भी हो सकते हैं। यह यौन अभिविन्यास नहीं है। इसने पहली बार 2014 में मुख्यधारा का ध्यान आकर्षित किया जब डेटिंग वेबसाइट Ok Cupid ने इसे कई नए यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान विकल्पों में से एक के रूप में जोड़ा। लगभग 0.5% ओकेक्यूपिड उपयोगकर्ता सैपियोसेक्सुअल के रूप में पहचान करते हैं, और यह 31-40 वर्ष की आयु के लोगों में सबसे आम था। महिलाओं को पुरुषों की तुलना में सैपियोसेक्सुअल के रूप में पहचानने की अधिक संभावना है। आलोचकों ने जवाब दिया कि सैपियोसेक्सुअलिटी "संभ्रांतवादी," "भेदभावपूर्ण" और "दिखावटी" है।
  8. संबंध अराजकता (Relationship Anarchy) बहुपत्नी और अराजक सिद्धांतों को जोड़ती है। इसके अभ्यास में कोई मानदंड नहीं है, लेकिन पश्चिमी संबंध मानदंडों की आलोचना, भागीदारों पर मांगों और अपेक्षाओं की अनुपस्थिति, और दोस्ती और रोमांटिक रिश्तों के पदानुक्रमित मूल्य के बीच अंतर की कमी की ओर जाता है।
  9. विषमलैंगिकता (Heterosexuality) विपरीत लिंग के व्यक्तियों के प्रति आकर्षण के एक पैटर्न का वर्णन करती है। सीधे शब्द का उपयोग आमतौर पर विषमलैंगिकों को संदर्भित करने के लिए किया जाता है। विषमलैंगिक अब तक का सबसे बड़ा यौन पहचान समूह है।


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भीष्म द्वादशी महत्व, पूजन विधि एवं मंत्र




भीष्म द्वादशी माघ मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को आती है। मान्यता है कि इस दिन व्रत करने से उत्तम संतान की प्राप्ति होती है और यदि संतान है तो उसकी प्रगति होती है। इसके साथ ही सभी मनोकामनाएं पूर्ण होकर सुख-समृद्धि मिलती है। भीष्म द्वादशी को गोविंद द्वादशी भी कहते हैं। धर्म एवं ज्योतिष के अनुसार माघ मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी का व्रत किया जाता है। इसे गोविंद द्वादशी भी कहते हैं। इस दिन खास तौर पर भगवान विष्णु का पूजन तिल से किया जाता है तथा पवित्र नदियों में स्नान व दान करने का नियम है। इनसे मनुष्य को शुभ फलों की प्राप्ति होती है। हमारे धार्मिक पौराणिक ग्रंथ पद्म पुराण में माघ मास के महात्म्य का वर्णन किया गया है, जिसमें कहा गया है कि पूजा करने से भी भगवान श्रीहरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। अत: सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान अवश्य ही करना चाहिए। महाभारत में उल्लेख आया है कि जो मनुष्य माघ मास में तपस्वियों को तिल दान करता है, वह कभी नरक का दर्शन नहीं करता। माघ मास की द्वादशी तिथि को दिन-रात उपवास करके भगवान माधव की पूजा करने से मनुष्य को राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। अतः इस प्रकार माघ मास के स्नान-दान की अपूर्व महिमा है। यह भी मान्यता है कि भीष्म द्वादशी का व्रत करने से सभी मनोकामना पूरी होती हैं। शास्त्रों में माघ मास की प्रत्येक तिथि पर्व मानी गई है। यदि असक्त स्थिति के कारण पूरे महीने का नियम न निभा सके तो उसमें यह व्यवस्था भी दी है कि 3 दिन अथवा 1 दिन माघ स्नान का व्रत का पालन करें। इतना ही नहीं इस माह की भीष्म द्वादशी का व्रत भी एकादशी की तरह ही पूर्ण पवित्रता के साथ चित्त को शांत रखते हुए पूर्ण श्रद्धा-भक्ति से किया जाता है तो यह व्रत मनुष्य के सभी कार्य सिद्ध करके उसे पापों से मुक्ति दिलाता है। अत: इस दिन के पूजन-अर्चन का बहुत अधिक महत्व है।

भीष्म द्वादशी की पौराणिक कथा
भीष्म द्वादशी के बारे में प्रचलित एवं पौराणिक कथा के अनुसार राजा शांतनु की रानी गंगा ने देवव्रत नामक पुत्र को जन्म दिया और उसके जन्म के बाद गंगा शांतनु को छोड़कर चली जाती हैं, क्योंकि उन्होंने ऐसा वचन दिया था। शांतनु गंगा के वियोग में दुखी रहने लगते हैं। परंतु कुछ समय बीतने के बाद शांतनु गंगा नदी पार करने के लिए मत्स्यगंधा नाम की कन्या की नाव में बैठते हैं और उसके रूप-सौंदर्य पर मोहित हो जाते हैं।
राजा शांतनु कन्या के पिता के पास जाकर उनकी कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखते हैं। परंतु मत्स्यगंधा के पिता राजा शांतनु के समक्ष एक शर्त रखते हैं कि उनकी पुत्री को होने वाली संतान ही हस्तिनापुर राज्य की उत्तराधिकारी बनेगी, तभी यह विवाह हो सकता है। यही (मत्स्य गंधा) आगे चलकर सत्यवती नाम से प्रसिद्ध हुई।
राजा शांतनु यह शर्त मानने से इनकार करते हैं, लेकिन वे चिंतित रहने लगते हैं। देवव्रत को जब पिता की चिंता का कारण मालूम पड़ता है तो वह अपने पिता के समक्ष आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेते हैं। पुत्र की इस प्रतिज्ञा को सुनकर राजा शांतनु उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान देते हैं। इस प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत, भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए।
जब महाभारत का युद्ध होता है तो भीष्म पितामह कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ रहे होते हैं और भीष्म पितामह के युद्ध कौशल से कौरव जीतने लगते हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण एक चाल चलते हैं और शिखंडी को युद्ध में उनके समक्ष खड़ा कर देते हैं। अपनी प्रतिज्ञा अनुसार शिखंडी पर शस्त्र न उठाने के कारण भीष्म युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग देते हैं। जिससे अन्य योद्धा अवसर पाते ही उन पर तीरों की बौछार शुरू कर देते हैं। महाभारत के इस महान योद्धा ने शर शय्या पर शयन किया।
इसलिए कहा जाता है कि सूर्य दक्षिणायन होने के कारण शास्त्रीय मतानुसार भीष्म ने अपने प्राण नहीं त्यागे और सूर्य के उत्तरायण होने पर अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उन्होंने अष्टमी को अपने प्राण त्याग दिए थे। उनके पूजन के लिए माघ मास की द्वादशी तिथि निश्चित की गई है, इसलिए इस तिथि को भीष्म द्वादशी कहा जाता है। भगवान ने यह व्रत भीष्म पितामह को बताया था और उन्होंने इस व्रत का पालन किया था, जिससे इसका नाम भीष्म द्वादशी पडा। यह व्रत एकादशी के ठीक दूसरे दिन द्वादशी को किया जाता है। यह व्रत समस्त बीमारियों को मिटाता है। इस उपवास से समस्त पापों का नाश होकर मनुष्य को अमोघ फल की प्राप्ति होती है।

भीष्म द्वादशी व्रत का महत्व
माघ माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी के नाम से जाना जाता है। इस द्वादशी को गोविंद द्वादशी भी कहते हैं। इस व्रत को करने वालों को संतान की प्राप्ति होकर समस्त धन-धान्य, सौभाग्य का सुख मिलता है। पद्म पुराण में माघ मास के महात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है कि पूजा करने से भी भगवान श्री हरि को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि माघ महीने में स्नान मात्र से होती है। इसलिए सभी पापों से मुक्ति और भगवान वासुदेव की प्रीति प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य को माघ स्नान करना चाहिए। इस दिन सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प लें। भगवान विष्णु जी की केले के पत्ते, पंच मृत, सुपारी, पान, तिल, मौली, रोली, कुमकुम, फल आदि से पूजन करें। पूजन के लिए दूध, शहद, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत का प्रसाद बनाकर भगवान को भोग लगाएं तथा भीष्म द्वादशी की कथा सुनें अथवा पढ़ें। इस दिन विष्णु जी के साथ देवी लक्ष्मी का पूजन तथा स्तुति करें और पूजन के पश्चात चरणामृत एवं प्रसाद का वितरण करें। ब्राह्मणों को भोजन कराकर दान में दक्षिणा एवं तिल अवश्य दें। ब्राह्मण भोजन के बाद ही स्वयं भोजन करें। इस दिन 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः' का जाप किया जाना चाहिए। इस दिन भगवान विष्णु के साथ मां लक्ष्मी की आराधना करनी चाहिए ताकि यह व्रत सफल हो सकें।

पूजा विधि
  • भीष्म द्वादशी की सुबह स्नान आदि करने के बाद व्रत का संकल्प लें।
  • भगवान की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंच मृत, सुपारी, पान, तिल, मौली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग करें।
  • पूजा के लिए दूध, शहद केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत तैयार कर प्रसाद बनाएं व इसका भोग भगवान को लगाएं।
  • इसके बाद भीष्म द्वादशी की कथा सुनें।
  • देवी लक्ष्मी समेत अन्य देवों की स्तुति करें तथा पूजा समाप्त होने पर चरणामृत एवं प्रसाद का वितरण करें।
  • ब्राह्मणों को भोजन कराएं व दक्षिणा दें।
  • ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें और सम्पूर्ण घर-परिवार सहित अपने कल्याण धर्म, अर्थ, मोक्ष की कामना करें।
भीष्म द्वादशी के व्रत से होती से संतान की उन्नति और मिलता है सौभाग्य
पितामह भीष्म महाभारत के एक प्रमुख पात्र थे। भीष्म का बचपन में नाम देवव्रत था और वो राजा शांतनु की रानी गंगा के सुपुत्र थे। देवव्रत के जन्म के साथ ही उनकी माता उनको छोड़कर चली गई थी। इस कारण महाराज शांतनु हमेशा दुखी रहते थे। तभी महाराज शांतनु एक मत्स्यगंधा नाम की कन्या को दिल दे बैठे। महाराज शांतनु ने मत्स्यगंधा के पिता के सामने उससे विवाह का प्रस्ताव रखा। तब मत्स्यगंधा के पिता ने कहा कि विवाह इसी शर्त पर होगा कि मत्स्यगंधा की संतान हस्तिनापुर राज्य के सिंहासन पर बैठेगी। शांतनु ने ऐसा वचन देने से इंकार कर दिया, लेकिन मत्स्यगंधा उनके दिल में बसी हुई थी इसलिए वो उसको लेकर परेशान रहने लगे। देवव्रत को जब पिता की इस चिंता का पता चला तो उन्होंने अपने पिता के सामने आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प ले लिया। पुत्र के इस तरह से प्रतिज्ञा लेने पर पिता शांतनु ने उनको इच्छा-मृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।

मान्यता
मान्यता है कि भीष्म द्वादशी का व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। भीष्म द्वादशी पर भगवान विष्णु के साथ मां लक्ष्मी की आराधना करें। ब्राह्मणों को भोजन कराएं व सामर्थ्य के अनुसार दक्षिणा दें। इस दिन स्नान-दान करने से सुख-सौभाग्य, धन-संतान की प्राप्ति होती है। ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करें। इस उपवास से समस्त पापों का नाश होता है। भीष्म द्वादशी का उपवास संतोष प्रदान करता है।


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