पत्नी पर होने वाली निर्दयता के विरुद्ध उपबंध - Provisions against the cruelty towards wife



पत्‍नी पर होने वाली निर्दयता जो कि पति द्वारा या उसके नातेदार (Relatives) द्वारा होती थी, को रोकने के लिए धारा 498A में प्रावधान किये गये हैं। जिसके अनुसार जो कोई किसी स्त्री का पति अथवा पति का नातेदार होते हुए उस स्त्री के साथ निर्दयतापूर्वक व्यवहार करेगा उसे तीन वर्ष तक की अवधि के कारावास से दण्डित किया जा सकेगा और वह जुर्माना के लिए भी दायी होगा।

वजीर चन्द्र बनाम हरियाणा राज्य (AIR 1989 S.C. 378) के मामले में नववधू के पति, सास, ससुर, द्वारा कार-बार दहेज की वस्तुओं की मांग की जाने लगी। उच्चतम न्यायालय ने उन्हें उपर्युक्त धारा के तहत दोषी ठहराया।

परन्तु बालकृष्ण नायडू बनाम राज्य (AIR 1992 S.C. 1581) के मामले में पत्‍नी के संतान नहीं होने के कारण यदि उसे परेशान किया जाता है तो मामला इस धारा की परिधि में नहीं आकर धारा 304 या अन्य किसी संबंधित धारा में आयेगा।




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दहेज मृत्यु - Dowry Death



दहेज से मृत्यु भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 ख के अन्तर्गत दहेज से मृत्यु के सम्बन्ध में प्रावधान है। यह प्रावधान दहेज निषेध (संशोधन) अधिनियम, 1986 की धारा 10 द्वारा भारतीय दण्ड संहिता में निविष्ट किया गया है। यह धारा यह प्रावधान करती है-

धारा 304 (ख). जहाँ किसी, स्त्री की मृत्यु-उसके विवाह होने के सात वर्ष के अन्दर जलने या किसी शारीरिक क्षति होने अथवा सामान्य परिस्थितियों के अंतर्गत जैसी मृत्यु होती है, उससे अन्यथा प्रकार से होती है और यह दिखाया जाता है कि अपनी मृत्यु के तुरंत पूर्व वह अपने पति या अपने पति के किसी संबंधी की निर्दयता या प्रताड़ना का शिकार बनी थी अथवा ऐसी मृत्यु दहेज की किसी मांग के सम्बन्ध में हुई थी तो ऐसी मृत्यु दहेज से मृत्यु ऐसे पति या सम्बन्धी द्वारा कारित हुई समझी जाएगी।

रविन्द्र त्रिम्बक बनाम महाराष्ट्र राज्य [(1996) 4 S.C.C. 148] के मामले में 25,000 रु० की दहेज मांग पूरी न होने पर पत्नी को मार डाला। उच्चतम न्यायालय ने भी निर्धारित किया कि यह दहेज मृत्यु है, इस पर रोक लगने के लिए कठोर सजा देनी चाहिए। क्योंकि यह समाज में घृणित अपराध है।




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नमामि शमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं - शिव रुद्राष्टकम



Shiv Rudrashtkam - Namami Shamishan

शिव रुद्राष्टकम
नमामि शमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजेहं॥1॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतोहं॥2॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं। मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा। लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥3॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालं।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥4॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं। अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।
त्रय: शूल निर्मूलनं शूलपाणिं। भजेहं भवानीपतिं भावगम्यं॥5॥

कलातीत कल्याण कल्पांतकारी। सदासज्जनानन्ददाता पुरारी।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी। प्रसीद-प्रसीद प्रभो मन्मधारी॥6॥

न यावद् उमानाथ पादारविंदं। भजंतीह लोके परे वा नराणां।
न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं। प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥7॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां। नतोहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं।
जराजन्म दु:खौघ तातप्यमानं। प्रभो पाहि आपन्न्मामीश शम्भो ॥8॥

" रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये।
ये पठन्ति नरा भक्तया तेषां शम्भु: प्रसीदति॥ "


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