“राष्ट्राय स्वाहा, इदं राष्ट्राय इदं न मम” पूज्य श्री गुरूजी का राष्ट्र को समर्पित यह मंत्र आज के समय में संघ और अनुषांगिक संगठनों के नीति-निर्देशकों द्वारा हृदय से अंगीकार किया जा रहा है या सिर्फ स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं के लिये ही उपदेश मात्र ही है।
संघ और अनुषांगिक संगठनों की परिपाटी हमेशा से यह सीख देती रही है कि “तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा” अर्थात त्याग पूर्वक भोग करो। क्या आज के परिवेश में संघ और अनुषांगिक संगठनों के लोग जो कि जिम्मेदार संगठन और सरकारी पदों परिस्थिति है उनके द्वारा इन मंत्रों को आत्मसात किया जा रहा है?
कहा जाता है कि अच्छे समय में अर्जित लाभ का संकलन विपरीत काल की निधि होती है। आज के समय में जो निधियां राष्ट्र के लिये संकलित होनी चाहिये ताकि विपरीत काल में संगठन उसका सही समायोजन राष्ट्रहित में कर सके किंतु यह प्रक्रिया न स्थापित होकर सिर्फ स्वान्त: सुखाय की परियोजना का क्रियान्वयन होगा जिसमे व्यक्ति विशेष द्वारा अपने लिए कार्य किया जा रहा है।
कही न कही अपने संगठन में कुछ ऐसे दोष आ रहे है हम हम और परायों में उस समय अंतर करना भूल है। जब हम सत्ता में होते है तो सत्ता में लाने वाले शिवाजी और महाराणा प्रताप कार्यकर्ताओं को भूल जाते है और जयचंद और मीर जाफर जैसों को ज्यादा प्रासंगिक स्वीकार कर लेते है। उनकी व्यक्ति विशेष की चाटुकारिता के पुरस्कार स्वरूप सरकारी पदों से भी नवाज दिया जाता है किंतु ऐसे में समय में संगठन सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने वाला शिवाजी और महाराणा प्रताप जैसे कार्यकर्ताओं के बारे में भूल जाता है कि उनके घर में रोटी बन रही है या नहीं और शिवाजी और महाराणा प्रताप जैसे कार्यकर्ता तब याद आते है जब सत्ता काल बीत जाता है और चाटुकारिता करने वाले लोग फिर से लाभ पाने के लिए नये रैन बसेरा चुन लेते है।
ऐसे लोग विपरीत समय में अपनी विचारधारा के विपरीत ही नजर आएंगे और संगठन की स्थिति उस टिड्डा और चींटी की कहानी के टिड्डे की भांति होगी जो सुख के दिनों में ऐश किया और विपरीत काल में भूखे मर गया।
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