कब्ज के प्रमुख कारण, लक्षण और उपचार



कब्ज पाचन तंत्र की उस स्थिति को कहते हैं जिसमें कोई व्यक्ति का मल बहुत कड़ा हो जाता है तथा मलत्याग में कठिनाई होती है। कब्ज आमाशय की स्वाभाविक परिवर्तन की वह अवस्था है, जिसमें मल निष्कासन की मात्रा कम हो जाती है, मल कड़ा हो जाता है, उसकी आवृत्ति घट जाती है या मल निष्कासन के समय अत्यधिक बल का प्रयोग करना पड़ता है। पेट में शुष्क मल का जमा होना ही कब्ज है। यदि कब्ज का शीघ्र ही उपचार नहीं किया जाये तो शरीर में अनेक विकार उत्पन्न हो जाते हैं। कब्जियत का मतलब ही प्रतिदिन पेट साफ न होने से है। एक स्वस्थ व्यक्ति को दिन में दो बार यानी सुबह और शाम को तो मल त्याग के लिये जाना ही चाहिये। दो बार नहीं तो कम से कम एक बार तो जाना आवश्यक है। नित्य कम से कम सुबह मल त्याग न कर पाना अस्वस्थता की निशानी है।

 प्रमुख कारण
  1. अल्पभोजन ग्रहण करना।
  2. आँत, लिवर और तिल्ली की बीमारी।
  3. कंपवाद (पार्किंसन बीमारी)
  4. कम चलना या काम करना ; किसी तरह की शारीरिक मेहनत न करना; आलस्य करना; शारीरिक काम के बजाय दिमागी काम ज्यादा करना।
  5. कम रेशायुक्त भोजन का सेवन करना ; भोजन में फायबर (Fibers) का अभाव।
  6. कुछ खास दवाओं का सेवन करना
  7. कैल्सियम और पोटैशियम की कम मात्रा
  8. गरिष्ठ पदार्थों का अर्थात देर से पचने वाले खाद्य पदार्थों का सेवन ज्यादा करना।
  9. चाय, कॉफी बहुत ज्यादा पीना। धूम्रपान करना व शराब पीना।
  10. ज्यादा उपवास करना।
  11. थायरॉयड हार्मोन का कम बनना
  12. दु:ख, चिन्ता, डर आदि का होना।
  13. बगैर भूख के भोजन करना।
  14. बड़ी आंत में घाव या चोट के कारण (यानि बड़ी आंत में कैंसर)
  15. बदहजमी और मंदाग्नि (पाचक अग्नि का धीमा पड़ना)।
  16. भोजन करते वक्त ध्यान भोजन को चबाने पर न होकर कहीं और होना।
  17. भोजन खूब चबा-चबाकर न करना अर्थात् जबरदस्ती भोजन ठूंसना। जल्दबाजी में भोजन करना।
  18. मधुमेह के रोगियों में पाचन संबंधी समस्या
  19. शरीर में पानी का कम होना
  20. सही समय पर भोजन न करना।
लक्षण
  1. चक्कर आना
  2. चहरे पर दाने
  3. जी मिचलाना
  4. पेट में लगातार परिपूर्णता
  5. बहती नाक
  6. भूख में कमी
  7. मुँह में अल्सर
  8. लेपित जीब
  9. सरदर्द
  10. सासों की बदबू
उपचार
  1. 20 ग्राम त्रिफला रात को आधा लीटर पानी में भिगोकर रख दीजिए। सुबह उठने के बाद शौच जाने से पहले त्रिफला को छानकर उस पानी को पी लीजिए। इससे कुछ ही दिनों में कब्ज की शिकायत दूर हो जाएगी।
  2. अंजीर को रात भर पानी में डालकर भिगोकर रखें, इसके बाद सुबह उठकर इसको खाने से कब्ज की शिकायत दूर होती है।
  3. अंजीर पका हो या सूखा, जुलाब की तरह काम करता है, क्योंकि इसमें फाइबर की मात्रा काफी ज्यादा होती है।
  4. अमरूद के गूदे और बीज में फाइबर की उचित मात्रा होती है। इसके सेवन से खाना जल्दी पच जाता है और एसिडिटी से राहत मिलती है। साथ ही, पेट भी साफ हो जाता है। अमरूद पेट के साथ-साथ शरीर के इम्यून सिस्टम को भी मजबूतकरता है, जिससे रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ती है।
  5. अरंडी के तेल को सदियों से कब्ज से राहत पाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। कब्ज खत्म करने के साथ यह पेट के कीड़े भी नष्टकरता है। खाली अरंडी के तेल को पीने से बेहतर रहेगा कि इसे रात को सोने से पहले दूध में मिलाकर पिएं। एक चम्मच से ज्यादा न डालें। इससे अगले दिन पेट साफ रहेगा।
  6. अलसी के बीज में भी फाइबर की मात्रा अधिक होती है इसलिए यह कब्ज जैसी बीमारी से राहत देता है। अच्छे रिजल्ट के लिए अलसी के बीज को सुबह कॉर्नफ्लेक्स के साथ मिलाकर खा सकते हैं या फिर मुट्ठी भर अलसी के बीज को गर्म पानी के साथ सुबह खा सकते हैं। फाइबर आपकी खुराक में जरूर होना चाहिए। इससे कब्ज जैसी परेशानी से दूर रहेंगे। अलसी के बीज कब्ज के साथ-साथ डायबिटीज, हृदय रोग, मोटापे और कैंसर के खतरे को कम करता है।
  7. एक गिलास गुनगुने पानी में नींबू और नमक मिलाकर सुबह खाली पेट पिएं। इससे आंतों में से शरीर का बेकार तत्त्व साफ होता है। इसके लिए एक गिलास गर्म पानी में एक छोटा चम्मच नींबू का रस मिलाएं और फिर चुटकी भर नमक मिलाकर इस जूस को सुबह फ्रेश होने से पहले पिएं। इससे शरीर का टॉक्सिन भी बाहर हो जाते हैं।
  8. कच्चा पालक खाने या पालक के रस के सेवन से भी कब्ज समाप्त होता है। एक गिलास पालक का रस रोज पीने से पुरानी से पुरानी कब्ज भी मिट जाती है।
  9. कब्ज के रोगी को दिन मे 4 से 5 लीटर पानी अवश्य ही पीना चाहिए।
  10. कब्ज में गरिष्ठ, बासी व बाजार के खुले, तले भुने खाद्य पदार्थों से दूर रहे। चाय, कॉफी, धूम्रपान व नशीली वस्तुओं से भी दूर रहे।
  11. कब्ज से बचने के लिए सूर्योदय से पूर्व बिस्तर अवश्य ही छोड़ दें। सुबह कुछ देर टहलने, नियमित व्यायाम व योगासन की अवश्य ही आदत डालें।
  12. कब्ज से राहत पाने के लिए एक गिलास दूध में अंजीर के कुछ टुकड़ों को उबालें और इसे रात को सोने से पहले पिएं। ध्यान रहे, गर्म दूध ही पिएं।
  13. किशमिश को पानी में कुछ देर तक भिगोकर रखे, इसके बाद इसे पानी से निकालकर खा लीजिए। नियमित रूप से इसका सेवन करने से जल्द ही कब्ज दूर हो हो जाता है।
  14. किशमिश फाइबर से भरपूर होती है और कुदरती जुलाब की तरह काम करती है। मुट्ठी भर किशमिश को रात भर पानी में भिगोकर रख दें और सुबह इसे खाली पेट खाएं। गर्भवती महिलाओं को होने वाली कब्ज के लिए यह बिना किसी साइड इफेक्ट की दवा है। किशमिश ऊर्जा बूस्टर की तरह होती है, इसलिए यह किसी भी प्रकार के ऊर्जा ड्रिंक्स से बेहतर होती है।
  15. जीरा, हल्दी और अजवाइन को अपने खाने में शामिल करें। इसका इस्तेमाल छौंक लगाने में या चटनी बनाने में किया जा सकता है। इससे शरीर की पाचन क्रिया सुधरती है।
  16. त्रिफला पाउडर आंवला, हरीतकी और विभीतकी औषधियों के चूर्ण से बनता है। इससे पाचन क्रिया संतुलित रहती है और कब्ज जैसी दिक्कतों से राहत मिलती है। त्रिफला पाउडर को गुनगुने पानी या शहद के साथ पाउडर मिक्स करके खा सकते हैं। इस मिक्सचर को रात में सोने से पहले या सुबह खाली पेट खाने से कब्ज में तुरंत राहत मिलती है। यह पूरी तरह से औषधियों से बना है, इसलिए यह एंटीबायोटिक दवाइयों से कहीं बेहतर है।
  17. दूध या पानी के साथ रात में सोते वक्त इसबगोल की भूसी लेने से भी कब्ज शीघ्र ही समाप्त होता है।
  18. दो से तीन सूरजमुखी के बीजों को कुछ अलसी के बीज, तिल और कसे हुए बादाम के साथ मिलाकर पाउडर बना लें। अब एक हफ्ते तक रोज एक बड़ा चम्मच इस मिक्सचर को खाएं। यह मिश्रण सिर्फ कब्ज की बीमारी को ही दूर नहींकरता, बल्कि आंतों की दीवार को भी पुनर्निमितकरता है।
  19. पका हुआ बेल कब्ज के लिये बहुत ही लाभदायक है। इसे पानी में उबालकर, मसल कर इसका रस निकालकर लगातार 15 दिन तक पियें। कब्ज दूर हो जाएगी।
  20. पालक में पेट साफ करने, हानिकारक टॉक्सिन को आंतों से बाहर करने जैसे गुण होते हैं। इसलिए लगभग 100 मि.ली. पालक का जूस बराबर मात्रा में पानी के साथ मिलाकर दिन में दो बार पिएं। यह घरेलू उपाय पुराने कब्ज को भी दूर कर देता है।
  21. प्रतिदिन अमरूद, पपीता, नींबू और अंगूर को अपने आहार में शामिल करें इससे भी कब्ज में बहुत फायदा होता है।
  22. प्रतिदिन प्रातःकाल बिना कुछ खाए चार पाँच दाने काजू, 5 दाने मुनक्का के साथ खाने से भी कब्ज में अवश्य ही लाभ होता है।
  23. रात को सोते समय एक गिलास दूध में 1-2 चम्मच घी मिलाकर पीने से भी कब्ज रोग का समाप्त होता है।
  24. रात को सोने से पहले एक चम्मच शहद को एक गिलास पानी के साथ मिलाकर नियमित रूप से पीने से कब्ज बिल्कुल दूर हो जाता है।
  25. रोज कम से कम आठ गिलास पानी जरूर पीएं। ध्यान रखें, रात को सोने से पहले और सुबह उठते ही एक गिलास गर्म पानी जरूर पिएं।
  26. संतरा सिर्फ विटामिन सी का ही मुख्य स्रोत नहीं है, बल्कि इसमें फाइबर की भरपूर मात्रा होती है। रोज सुबह-शाम एक-एक संतरा खाने से कब्ज जैसी बीमारी में राहत मिलती है।
  27. सुबह उठने के बाद नींबू के रस को काला नमक मिलाकर गुनगुने पानी के साथ सेवन करने से पेट साफ रहता है।
  28. हर रोज रात में हर्र के बारीक चूर्ण को कुनकुने पानी के साथ लेने से कब्ज दूर होता है।


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औद्योगिक श्रमिक और उनकी समस्याएं



Industrial Workers and Their Problems


औद्योगिक श्रमिक का अर्थ
श्रमिक से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो किसी उद्योग में कौशलपूर्ण या कौशल रहित पर्यवेक्षकीय तकनीकी तथा लिपिकीय सम्बन्धी कार्य भाड़े या पुरस्कार भाड़े या पुरस्कार पर कार्य करने के लिए नियोजित है चाहे उसके लिए नियोजन की शर्ते स्पष्ट हो या अस्पष्ट हो। अधिनियम के अन्तर्गत कर्मकार की परिभाषा में ऐसे व्यक्ति आते है जिन्हें किसी विवाद के कारण पद्मुक्त कर दिया गया हो। भारत में अनेक संवैधानिक उपबन्धों के उपरान्त आजादी के 60 वर्षों के पश्चात भी उनका शोषण अपने चरम पर विद्यमान है तथा श्रमिक अपने सामाजिक तथा आर्थिक स्तर को जिविकोपार्जन से उपर नही उठा पा रहा है। भारत जैसे विकासशील देश में यह समस्या विकराल रूप में विद्यमान है तथा सरकारों द्वारा बनाये गये कानून मात्र हाथी के दाँत के समान ही रह गये है। श्रमिकों की खराब स्थिति के कारणों में अशिक्षा प्रमुख है जो विशेष रूप से अनुसूचित जाति एवं जनजाति जैसी सामाजिक आर्थिक दृष्टि से वर्गों में व्याप्त है। ये लोग विकास की मुख्य धारा से कटे रहते है। इनको गुजर रहे पलो के सामने आने वाले कल की चिन्ता नही रहती है तथा आवश्यकता के काल से ही ये लोग उद्योग में आ जाते है। श्रमिक के संदर्भ में कविवर जयशंकर प्रसाद जी ने कहा है श्रमिक गरीब पैदा होता और गरीब मर भी जाता है। आने वाली अगली पीढ़ी को वह मात्र भूख व कर्ज देकर मरता है।
जनसंख्या की बढ़ोत्तरी भी श्रमिकों की निम्न स्थिति का परिणाम है। भारत में जनसंख्या बढ़ोत्तरी का जो अनुपात है शायद वह निकट भविष्य में भी हमारे उद्योगों की विकास दर से कोसो आगे रहेगी जिस कारण से रोजगार के अवसर सृजित हो पाना असम्भव हो जायेगा, जिसके कारण अर्थशास्त्र के नियम, मांग और आपूर्ति का अनुपात हमेशा बना रहेगा जिससे आर्थिक स्तर को उठाना असम्भव हो जायेगा। भारत एक वृहद देश है तथा भाषा और संस्कृति तथा भौगोलिक भिन्नताओं के कारण भारत संघ के कई राज्य जहाँ प्रतिव्यक्ति आय अत्यधिक है तो वही उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पूर्वोत्तर राज्यों में प्रतिव्यक्ति आय अत्यन्त न्यून है। इसके कारण भी मजदूरी के दरों में भारी अन्तर है। क्षेत्रीय व सामाजिक असन्तोष भी श्रमिक जीवन की दयनीय स्थिति का एक कारण है। उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे राज्यों में जनसंख्या घनत्व ज्यादा है तथा प्रतिव्यक्ति आय कुछ क्षेत्रों को अपवादस्वरूप छोड़ दिया जाय तो निम्न स्तर पर है या सरकारी मानकों के अनुसार गरीबी रेखा के नीचे है। जिस कारण काम धन्धों की तलाश में लोग अन्य राज्यों में पलायन कर रहे है, जिन राज्यों में यहाँ के लोग पलायन कर रहे है उन उद्योग धन्धों तथा कल-कारखानों में मजदूरी दर न्यूनतम है जिस कारण उन क्षेत्रों के मूल निवासियों को काम व रोजगार के अवसर समाप्त हो जा रहे है, इस कारण वहाँ के लोगों में द्वेष तथा उग्रता जन्म ले रही है।
सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार व उदासीनता श्रमिक की खराब स्थिति में महत्वपूर्ण योगदान देती है। यद्यपि श्रमिकों के कल्याणार्थ बहुत से श्रम विधायन का परिणयन किया गया है परन्तु उनका अनुपालन न हो पाने के कारण समाज में तथा उद्योगों में भ्रष्टाचार व्याप्त है एवं श्रमिकों का उत्पीड़न निरन्तर होता रहता है। अधिकारियों द्वारा उद्योगों बुनियादी सुविधाओं के प्रति भी उदासीन रवैया अपनाया जाता है तथा मौके पर जाँच इत्यादि कराने पर सुविधाओं को बढ़ा-चढ़ा कर रखा जाता है। श्रमिकों में मजबूत संगठन का अभाव पाया जाता है। फुटमत का व्याप्त होना वैचारिकी तथा अन्य मतभेदों के कारण एक मजबूत संगठन का हमेशा अभाव बना रहता है। इस कारण भी वे लोग उद्योगपतियों तक अपनी बुनियादी आवश्यकताओं को नही रख पाते है।
इन्ही सब कारणों से भारत में आजादी के बाद अनेक विधायनों के निर्माण के बाद भी श्रमिकों की आर्थिक व सामाजिक दशाओं में सुधार नही हो पा रहा है। यद्यपि भारतीय श्रम में भी श्रम की समान विशेषताएं पायी जाती है परन्तु भारतीय परिवेश के प्रभाव से यहाँ के श्रमिकों की कुछ अपनी निजी विशेषताएं जिनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार किया जा सकता है:- प्रवासी प्रवृत्ति, एकता का अभाव, अनियमित उपस्थिति, असानता एवं अशिक्षा, भाग्यवादिता, गरीबी तथा रहन-सहन की निम्न स्तर, भारतीय श्रमिकों की पूर्ति उद्योगों की, आवश्यकतानुसार न होना, सामाजिक व धार्मिक दृष्टिकोण, दोषपूर्ण श्रम संघवाद, कार्य क्षमता का निम्न स्तर तथा न्यून गतिशीलता इत्यादि

औद्योगिक श्रमिकों की समस्या
कोई भी संगठन (व्यापारिक या औद्योगिक) अपने विकास के लिए चार बातों का सहारा लेता है: मनुष्य, मुद्रा, मशीन तथा माल। इन चार तत्वों के सामूहिक स्वरूप में भली-भांति कार्य करने पर ही व्यवसाय की सफलता निर्भर करती है।
कुछ समय पूर्व तक मानव तत्व अर्थात श्रम को अधिक महत्व नही दिया जाता था, जबकि अब यह अनुभव किया जाता है कि मशीन, माल, मुद्रा के व्यवस्थापन के साथ मानव तत्व की व्यवस्था भी अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि मानवीय सम्बन्धों का अध्ययन जो कि श्रम के क्रम-विक्रय एवं कार्य निष्पादन पर ध्यान केन्द्रित करता है, प्रत्येक राष्ट्र में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुका है। इसके साथ ही श्रमिकों को नियोजित करने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न प्रयास किये गये, जिसमें औद्योगिक नीति के साथ-साथ श्रम सन्नीयम स्थापित किये गये। इसके उपरान्त भी श्रमिक जीवन में सुधार एवं कार्य सन्तुष्टि के लक्षण को तठस्थ रूप से प्राकल्पित नही किया जा सकता है। श्रमिकों की समस्याएं आज भी विभिन्न प्रकार से उद्योग नियोजन के प्रति द्वेष के रूप में दिखलाई पड़ती है। इनकी समस्याओं को कुछ बिन्दुओं में इस प्रकार से स्पष्ट की जा सकती है -
उष्ण जलवायु:- भारत में औद्योगिक केन्द्रों में कार्यशील श्रमिक, अधिकांशतः रोजगार की तलाश में अंचलों से आकर अस्थाई रूप से कार्य करते है। वे गाँव से अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ पाते। बदले हुए पर्यावरण में स्वयं को पूर्णतः समायोजित करने के लिए उनको किसी प्रकार के साधन एवं सुविधा प्राप्त नहीं हो पाती। परिणामतः उनका ध्यान अधिकांशतः गाँव पर ही लगा रहता है तथा पूरी तन्मयता के साथ वे अपना कार्य नही कर पाते है।
मजदूरी की समस्या:- भारत में औद्योगिक श्रमिकों की मजदूरी का निर्धारण समान रूप से नही किया गया। मजदूरी की अस्पष्ट परिभाषा के परिणामस्वरूप श्रमिकों स्थिति दयनीय होती चली गयी। ‘प्रो0 वेन्ह्म और जीड’ ने मजदूरी शब्द का प्रयोग संकुचित अर्थ में किया है। बाद में मजदूरी की परिभाषा को विस्तृत रूप प्रदान किया गया। मार्शल और सेलिगमैन की परिभाषा इसी प्रकार की है। औद्योगिक संगठनों द्वारा अधिकांशतः मौद्रिक मजदूरी प्रदान की जाती है जबकि कार्य अभिप्रेरणा के साथ-साथ कार्य सन्तुष्टि एवं श्रमिक सुधार जैसे संदर्भों में न्यायिक रूप से उन समस्त सुविधाएं कार्य के अनन्तर अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होती है जिससे मजदूरी को वास्तविक स्वरूप प्रदान किया जा सके। इस प्रकार से वास्तविक मजदूरी के अन्तर्गत नगद मजदूरी के साथ अन्य सुविधाएं सम्मिलित है। वास्तविक मजदूरी को एडम ‘स्मिथ’, ‘मार्शल’, प्रो0 टामस, प्रो0 सेलिगमैन आदि ने परिभाषित करने का प्रयास किया है जिसमें सामान्य रूप से वास्तविक मजदूरी में दो तथ्य जुड़ जाते है - नगद मजदूरी जिससे वस्तुएं व सेवाएं खरीदी जा सकती है। दूसरा तथ्य नगद मजदूरी के अतिरिक्त उसे जो अन्य सुविधाएं प्राप्त होती है, वास्तविक मजदूरी के कुछ निर्धारक है जिसमें मुद्रा, क्रय शक्ति, अन्य सुविधाएं, अतिरिक्त आय प्राप्त करने के श्रोत, कार्य का स्वभाव, कार्य की दशाएं, कार्य की अवधि, कार्य की नियमितता, भविष्य में उन्नति की आशा, व्यवसायिक, प्रशिक्षण का समय और लागत, आश्रितों को रोजगार, सामाजिक सम्मान, व्यापार की दशाएं इत्यादि।

श्रमिकों की सन्तुष्टि जैसे अन्वेषणों में मजदूरी आधारभूत तथ्य है। वास्तविक मजदूरी ही उद्योगों और श्रमिकों के बीच सन्तुलित सम्बन्धों का निर्धारण है। कार्य का प्राचीन सिद्धान्त तो ‘सुख और कष्ट’ पर आधारित है जबकि आज इसका मात्र ऐतिहासिक महत्व ही रह गया है। धीरे-धीरे आर्थिक प्रलोभनों ने श्रमिकों को काम करने के लिए अधिक प्रेरित किया। व्यापारवादी युग के अनन्तर कुछ इस प्रकार की धारणा अधिक प्रबल हो गयी थी कि मनुष्य से यदि काम न लिया जाये तो वह आवश्यक रूप से वह आलसी और सुस्त हो जाये। श्रम को भूखे न रहने का प्रलोभन मात्र ही काफी था। ऐडम स्मिथ ने अपने शास्त्रीय सिद्धान्त के अन्तर्गत श्रमिकों को एक आर्थिक व्यक्ति का स्वरूप प्रदान किया अतः आप यह मानकर आगे बढ़े कि धन श्रमिकों को अपनी सुस्ती तथा कार्य के प्रति होने वाले कष्ट के प्रति विजय प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित एवं प्रेरित करता है। इसी धारणा के अन्तर्गत आपने काम करने वाले व्यक्तियों के मनोवैज्ञानिक पसन्दगी अथवा नापसन्दगी को भी महत्व प्रदान किया।

प्रेरणा के सीमान्त उपयोगिता सिद्धान्त ने व्यक्ति को कार्य तथा गैर कार्य के बीच विभेदीकरण के लिए विवश किया। उपयोगिता के सिद्धान्त में सम्पूर्ण श्रमिक प्रेरणा को एक विवेकतापूर्ण का स्तर दिया और यह आवश्यक हो गया कि यह हिसाब लगाया जाय कि किस प्रकार ‘सर्वाधिकता’ का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। इस सिद्धान्त ने श्रम की अनुपयोगिता तथा धन की उपयोगिता के पक्ष पर अधिक बल दिया। यद्यपि धन स्वयं कोई उपयोगिता नही है वस्तुओं तथा सेवाओं के प्रति यह एक सामाजिक शक्ति माना जाता है। ‘मिजेज’ ने यह कहा है कि वे सारी वस्तुएं जिन्हें हम धन के रूप में मूल्यांकित नही कर सकते है विवेकहीन है। सभी व्यक्ति जो काम करते है आजकल अधिकांश रूप से आर्थिक या मौद्रिक उद्देश्य से प्रेरित होते है और इसलिए उŸापादको को यह आवश्यकता पड़ती है कि वे अधिकतम मजदूरी एवं कार्य के प्रति अधिकतम सन्तुष्टि दोनों को ही प्रबन्ध नियन्त्रण के द्वारा भलि प्रकार सन्तुलित कर सके।
सामान्यतः धन ही एक ऐसा कारक है, या दूसरे शब्दों में आर्थिक प्रलोभन ही ऐसा आधार है जिसे लेकर मनुष्य अपनी अधिकांश क्रियाएं करता है। अतएव आर्थिक प्रलोभनों के माध्यम से ही श्रमिकों को प्रेरित कर सकते है। धन ही आधुनिक युग में श्रमिक जीवन के आर्थिक पक्ष या जीवित रहने से सम्बन्धित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। श्रमिकों की मजदूरी की समस्या एवं सुधार जैसे प्रयासों का ऐतिहासिक विवरण श्रमिकों स्थिति को परिलक्षित करता है। श्रमिक प्रेरणा में आर्थिकी के महत्व को जेम्स फ्रेजर के मानवशास्त्रीय सिद्धान्त के आधार भी समझा जा सकता है। फ्रेजर ने जटिल प्रतिमानों के निर्माण में भी विनिमय प्रक्रियाओं अर्थात आर्थिक प्रलोभनों को ही महत्वपूर्ण माना है। यद्यपि इस प्रकार के सिद्धान्तों में परिवर्तन लाने का प्रयास भी किया गया जिसमें मैलिनोवस्की मांस, स्ट्रेस आदि सम्बन्धित है।


संविदा (ठेका) के आधार पर सेवारत श्रमिक
कई उद्योग धंधों में ठेके के श्रमिक भी अत्यधिक मात्रा में पाये जाते हैं। पिछले युद्ध की आकस्मिक आवश्यकताओं के कारण इस प्रणाली को बहुत प्रोत्साहन मिला। अनेक उद्योग अथवा औद्योगिक संस्थान कुछ विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करने के ठेके, ठेकेदारों को दे देते हैं और उसके बदले में उन्हें एक मुश्त रकम अदा कर देते हैं। ठेकेदार जो कि व्यक्ति या फर्म या कोई वरिष्ठ श्रमिक भी हो सकता है, स्वयं श्रमिकों को काम पर लगाता है। इन श्रमिकों के सम्बन्ध में इस उद्योग की कोई प्रत्यक्ष जिम्मेदारी नहीं होती जो कि ठेकेदार को काम देता है। इस प्रकार ठेके के श्रमिकों व प्रत्यक्ष रूप से भर्ती किये गये श्रमिकों के बीच अंतर के दो मुख्य आधार होते हैं, एक तो मुख्य औद्योगिक संस्थान से उनके रोजगार सम्बन्ध और दूसरे उनकी मजदूरी के भुगतान की रीति । प्रत्यक्ष रूप से भर्ती किये गये श्रमिकों के नाम, औद्योगिक संस्थान की वेतन, नामावली या उपस्थिति नामावली में अंकित किये जाते हैं और वे प्रत्यक्ष रूप से मजदूरी प्राप्त करते हैं किन्तु इसके विपरीत ठेके के श्रमिकों के नाम न तो वेतन नामावली में अंकित होते हैं और न उन्हें उद्योग द्वारा प्रत्यक्ष रूप से मजदूरी का ही भुगतान किया जाता है।
अहमदाबाद के सूती कपड़े के उद्योग धंधों में अधिकतर ठेके के ही श्रमिक पाये जाते हैं। ठेके के श्रमिकों की कार्य को जल्दी समाप्त करने के लिये कुछ श्रमिकों की एकाएक आवश्यकता आ पड़ती है। श्रमिक कई बार मिलते भी नहीं हैं। हमारे देश में रोजगार के दफ्तरों की स्थापना हुये भी बहुत दिन नहीं हुये हैं। कारखानों में पर्यवेक्षण कर्मचारियों की भी कमी रही है। इन अनेक कारणों से ठेके के श्रमिकों को ही काम पर लगाना अधिक सुविधाजनक रहता है। यह प्रथा इसलिये बराबर रही क्योंकि ठेके के श्रमिकों को लगाने में मिल मालिकों को अनेक लाभ होते हैं। जब मालिक कुछ विशेष कार्यों को सम्पन्न करने का ठेका दे देते हैं तो ऐसा करने से उन्हें न तो श्रमिक रखने पड़ते हैं, न ही पूंजी निवेश. करना पड़ता है और न संयंत्रों की स्थापना ही करनी पड़ती है। इससे वे बंधी लागत को कम करने में समर्थ हो जाते हैं। उन्हें न तो प्रत्यक्ष रूप से मजदूरों की नियुक्ति करनी पड़ती है और न श्रमिकों को किसी प्रकार के लाभ या कल्याणकारी सुविधाएं ही देनी होती हैं। एक प्रकार से वे श्रमिकों को किसी प्रकार से श्रमिकों से सम्बन्धित सभी चिंताओं से मुक्त रहते हैं। कुछ किस्म के कार्यों में उदाहरणतः लोक कर्म विभाग तथा निर्माण के कार्यों में ठेके के श्रमिकों की प्रथा अत्यधिक सुविधाजनक रहती है।
इस प्रथा के पक्ष में चाहे जितने भी तर्क क्यों न दिये जायें, यह स्पष्ट है कि इस प्रथा से लाभ के स्थान पर हानियां ही अधिक हैं। अधिकांश श्रम सम्बन्धी कानून ठेके के श्रमिकों पर लागू नहीं होते और जिन श्रम कानूनों का विस्तार ठेके के श्रमिकों तक कर दिया गया है वे भी ठेके के श्रमिकों की प्रकृति के कारण समुचित रूप से लागू नहीं हो पाते। अधिकांश ठेकेदार अपने श्रमिकों के प्रति अपना कोई नैतिक दायित्व नहीं मानते और उनकी असहाय स्थिति का अनुचित लाभ उठाते हैं। ठेकेदार अपना ठेका सबसे कम बोली पर पाता है। इसलिये वह श्रमिकों को कम से कम मजदूरी देने का प्रयत्न करता है। इस प्रथा का एक अन्य दोष यह है कि मालिकों पर ठेके के श्रमिक के कल्याण कार्यों का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता। ठेके की भर्ती की प्रणाली तो मध्यस्थ श्रमिकों में से ही होती है परन्तु ठेकेदार तो बिल्कुल बाहरी व्यक्ति होता है।
राष्ट्रीय श्रम आयोग (1969) ने भी ठेके की श्रम प्रणाली के अनेक दोषों का उल्लेख किया था। आयोग के अनुसार-"प्रत्यक्ष रूप से भर्ती किये गये श्रमिकों और ठेके के श्रमिकों की मजदूरियों एवं कार्यों की दशाओं में भारी अन्तर पाया जाता है। विभिन्न उद्योगों के लिये जिन मजदूरी परिषदों का गठन किया गया था, उन्होंने भी प्रत्यक्ष रूप से भर्ती किये गये श्रमिकों, दोनों के ही लिये मजदूरी की समान दरें लागू करने की सिफारिश की है। परन्तु इन सिफारिशों की लागू करने की कारगर मशीनरी उपलब्ध न होने के कारण ठेके के श्रमिकों को साधरणतः उन दरों से नीची दरों पर मजदूरी दी जाती है जो कि उसी उद्योग के नियमित श्रमिकों के लिये निर्धारित की गयी है। प्रायः यह भी होता है कि मूल पारिश्रमिक के अतिरिक्त ठेके के श्रमिकों को अन्य कोई भुगतान प्राप्त होता ही नहीं।" आयोग का कहना है कि ठेके के श्रमिकों को कार्य की दशायें बिल्कुल भी संतोषजनक नहीं हैं। उनके काम करने के घंटे बड़े अनियमित तथा लम्बे होते हैं। जिस अवधि का भुगतान उन्हें किया जाता है वह एक दिन से लेकर छ:-छ: माह तक की होती हैं। उनकी नौकरी की सुरक्षा की भी कोई व्यवस्था नहीं होती और ठेके के समाप्ति के साथ ही उनकी नौकरी भी समाप्त हो जाती है। ठेके के श्रमिकों . को मजदूरी के साथ छुट्टियां देने के की कोई व्यवस्था नहीं होती। मकान सम्बन्धी सुविधाओं के मामले में भी ठेके के श्रमिकों के साथ सीधी भर्ती वाले श्रमिकों जैसा व्यवहार नहीं किया जाता। ठेके के श्रमिकों को कर्मचारी राज्य बीमा योजना तथा कर्मचारी भविष्य निधि अधिनियम के अन्तर्गत प्राप्त होने वाले लाभ भी इसलिए नहीं मिल पाते क्योंकि वे इससे संबंधित कुछ प्रारम्भिक शर्तों को पूरा नहीं करते। यदि ठेकेदार अपने श्रमिकों को अग्रिम धन के अलावा श्रमिकों की और कोई भुगतान प्राप्त नहीं होता। अतः आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि "यहाँ तक कि सर्वश्रेष्ठ फर्मों में जो ठेके के श्रमिक लगे होते हैं उनके कार्यों की दशाओं के दृष्टिकोण से भी यदि हम देखे तो हमारे विचार से यह अत्यंत आवश्यक है कि यदि कहीं ठेके के श्रमिकों को काम पर लगाना जरूरी हो तो उससे सम्बन्धित दृढ़ एवं कठोर कानून बनाया जाना चाहिए। किन्तु सरकार की सामान्य नीति यही होना चाहिये कि ठेके के श्रमिकों की प्रथा को शनैः शनैः समाप्त कर दिया जाये। कुछ अनिवार्य कारणों से यदि कहीं से इसी जारी रखना भी पड़े तो ठेके के श्रमिकों को भी वैसी ही सुविधायें उपलब्ध करायी जानी चाहिये, जैसे कि नियमित श्रमिकों को प्राप्त होती है। विभिन्न समितियों, जांचों तथा सम्मेलनों द्वारा ठेके के श्रम प्रणाली के जिन दोषों का उल्लेख किया गया, उनको दृष्टिगत रखते हुये राष्ट्रीय श्रम आयोग की रिर्पोट से पहले की इस प्रथा में सुधार करने के लिये और जहाँ भी व्यवहारिक था वहाँ इसको समाप्त करने के लिये कदम उठाये गये थे। फैक्टरी अधिनियम (1948) खान अधिनियम (1952) के अन्तर्गत श्रमिक की जो परिभाषा दी गयी थी उसके क्षेत्र का विस्तार करके उसमें ठेके के श्रमिक को भी सम्मिलित किया गया था। कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम (1948) के अन्तर्गत जो स्वास्थ्य बीमा सम्बन्धी लाभ प्रदान किये जाते हैं उनका विस्तार ठेके के श्रमिकों तक ही सीमित कर दिया था। न्यूनतम मजदूरी अधिनियम (1948) कुछ अनुसूचित रोजगारों के ठेके के श्रमिकों पर भी लागू होने लगा था। श्रमिक क्षतिपूर्ति अधिनियम ठेके के श्रमिकों पर पहले ही लागू हो चुका था। फिर भी ठेके के श्रम प्रणाली में जो दोष विद्यमान थे वे बराबर जारी रहे। इसका कारण यह था कि ठेके के श्रमिकों के बारे में जो अधिनियम बनाए गए थे। मालिक उनकी धाराओं से अपने को किसी न किसी प्रकार बचा लेते थे। सरकार द्वारा सन् 1970 में ठेका श्रमिक (नियमन व उन्मूलन) बिल पास किया गया।

ठेका श्रमिक (उन्मूलन) अधिनियम 1970
इस अधिनियम को बनाने का यह उद्देश्य है कि कुछ ऐसे वर्गों एवं क्षेत्रों में ठेके की श्रम प्रणाली को समाप्त किया जाये जिन्हें कि निर्धारित कसौटियों के संदर्भ में संबंधित सरकार सुनिश्चित करें और जहाँ ऐसा उन्मूलन या समाप्ति सम्भव न हो वहाँ ठेके के श्रमिकों सेवा की शर्तों का नियमन किया जाये । इसमें जहाँ ठेके के श्रमिकों को लगाने वाले संस्थानों के रजिस्ट्रेशन तथा ठेकेदारों द्वारा लाइसेंस लेने की व्यवस्था है वहाँ त्रिदलीय प्रगति की ऐसी सलाहकार परिषदों की भी व्यवस्था की गयी है जिसमें कि विभिन्न हितों का प्रतिनिधित्व हो और जो कानून को लागू करने के सम्बन्ध में केन्द्र व राज्य सरकारों को परामर्श दें। फिर जनवरी 1992 में केन्द्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया गया। ठेके के श्रमिकों के लिये पाने के पानी तथा प्राथमिक चिकित्सा की सुविधाओं एवं कुछ मामलों में, विश्रामगृहों व जलपान गृहों जैसी मूलभूत कल्याणकारी सुविधाओं की व्यवस्था एवं उनके संचालन को अधिनियम के अन्तर्गत अनिवार्य बनाया गया है। जहाँ ठेकेदारों द्वारा ये सुविधायें नहीं दी जायेंगी, वहाँ ठेकेदारों द्वारा ये सुविधायें नहीं दी जायेंगी, वहाँ इन सुविधाओं को ठेकेदारों के दायित्व पर मुख्य नियोक्ता द्वारा प्रदान किये जाने की व्यवस्था की गयी है। ठेकेदारों को लाइसेंस इसी शर्त पर दिये जायेंगे कि वे श्रमिकों के लिये आवश्यक सेवाओं एवं काम की संतोषजनक दशाओं की व्यवस्था करें तथा उन्हें उचित मजदूरी दें। अधिनियम में इस बात की भी व्यवस्था की गयी है कि मजदूरियों का सही ढंग से भुगतान न होने की दशा में श्रमिकों की सुरक्षा प्रदान की जाये। यदि ठेकेदार निश्चित समय में मजदूरी का भुगतान करने में असमर्थ रहता है अथवा कम भुगतान करता है। यह तो मुख्य नियोक्ता या मालिक का दायित्व होगा कि वह ठेकेदारों द्वारा नियुक्ति किये गये श्रमिकों को यथास्थिति पूर्ण मजदूरी का अथवा अविशिष्ट मजदूरी का भुगतान करें और इस प्रकार दिये गये धन को या तो ठेके के अधीन ठेकेदारों को दी जाने वाली रकम में से काट लें अथवा ठेकेदारों को दिये गये ऋण के रूप में उससे वसूल कर लें।

गोरखपुर श्रम संस्था
गोरखपुर श्रम शब्द का प्रयोग उत्तर प्रदेश के उन पूर्वी जिलों के श्रमिकों के लिये किया गया था जहाँ के श्रमिक व्यापक गरीबी के कारण पीढ़ियों से देश के विभिन्न भागों को प्रवास कर रहे थे। ऐसे फालतू श्रमिकों को शीघ्र काम उपलब्ध कराये जाने की दृष्टि से गोरखपुर में एक भर्ती डिपो 1942 में खोला गया जिसका उद्देश्य यह था कि लड़ाई से .संबंधित सामान बनाने के लिये जो संस्थाएं थीं उनमें श्रमिकों की कमी न रहे। इस डिपो ने शीघ्र ही एक बड़ी संस्था का रूप धारण कर लिया और इसके द्वारा लगभग 50 हजार श्रमिक भर्ती होने लगी। इस संस्था का नाम गोरखपुर श्रम संस्था पड़ गया। स्थानीय श्रमिकों की कमी के कारण यह संस्था उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, बंगाल और मध्य प्रदेश की कोयले की खानों के लिये भी श्रमिकों की पूर्ति करने लगी। लड़ाई समाप्त होने पर भी खान उद्योग की प्रार्थना पर यह कोयले की खानों के लिये श्रमिकों की पूर्ति करती रही, परन्तु भर्ती का व्यय अब खान उद्योग वहन करने लगा। इस प्रकार यह एक खान मालिकों का संगठन बन गया जिसका नाम कोयला क्षेत्र भर्ती संगठन पड़ गया। सन् 1973 में कोयला खानों का राष्ट्रीयकरण हो जाने के फलस्वरूप, आकस्मिक श्रमिक नियमित श्रमिकों में बदल गये और गोरखपुर श्रम संस्था से आकस्मिक श्रमिकों की माँग काफी घट गयी। इन परिवर्तित परिस्थितियों में गोरखपुर श्रम संस्था 1 अप्रैल, 1976 से केन्द्रीय रोजगार दफ्तर (श्रम) गोरखपुर के रूप में परिवर्तित हो गयी।

औद्योगिक संस्थानों में श्रमिकों के स्थायीकरण की समस्या
श्रमिकों की भर्ती नियमित करने के लिये कुछ कारखानों ने बदली के श्रमिकों के नियंत्रण की नीति अपनाई है। इस योजना को बदली नियंत्रण प्रथा अथवा श्रमिकों का स्थायीकरण करते हैं। इस योजना को दो उद्देश्यों से अपनाया गया है। प्रथम बदली के श्रमिकों को रोजगार को नियमित बनाना और दूसरा श्रमिकों की भर्ती में मध्यस्थों के प्रभाव को मिटाना। इस योजना के अंतर्गत प्रत्येक माह की पहली तारीख को कुछ चुने हुए लोगों को एक विशेष कार्ड दिया जाता है। जिन्हें प्रतिदिन प्रातःकाल के मिल फाटक पर हाजिरी देनी होती है। अस्थायी रिक्त श्रमिक पर्याप्त होते हैं। किसी अन्य श्रमिकों को भर्ती नहीं किया जा सकता और रिक्त स्थानों की पूर्ति प्रावस्था के अनुसार की जाती है। इस कार्य के लिये एक रजिस्टर रखा जाता है। पंजीकृत श्रमिकों को सेवा प्रमाणपत्र दिये जाते हैं और नौकरी कर चुकने की अवधि का विचार रखा जाता है। राष्ट्रीय श्रम आयोग ने भी कम कुशल श्रमिकों के मामले में तथा ऐसे मामलों में जहां विशिष्ट श्रेणियों के श्रमिकों की मांग अनिश्चित तथा अधिक हो, स्थायीकरण तथा बदली नियंत्रण जैसी प्रथाओं की सिफारिश की और 1983 में केन्द्र सरकार के उद्यमों से कहा गया था कि नैमित्तिक श्रमिकों के बारे में वे आदर्श स्थायी आदेशों के लागू करें।
जनवरी 1950 में छंटनी के श्रमिकों को नियमित करने तथा श्रमिकों के स्थायीकरण के लिये उत्तर प्रदेश की सरकार द्वारा एक योजना बनायी गयी थी। यह योजना पहले छ: माह फिर 1 वर्ष तक चलाने का विचार था, परन्तु इसी सफलता को देखकर इसको जारी रखने का निश्चय किया गया। प्रयोगात्मक रूप से यह योजना कानपुर में आरम्भ की गयी और रोजगार दफ्तर के चार उप कार्यालय खोले गये। किन्तु इस योजना को 1 जुलाई, 1954 से समाप्त करने का निर्णय किया गया। उत्तर प्रदेश बदली श्रमिक रोजगार अधिनियम 1978 के अंतर्गत अब प्रत्येक मालिक के लिये यह अनिवार्य कर दिया गया है कि आरक्षित श्रेणी के श्रमिकों का एक रजिस्टर बनायें और मई 1984 में रेलमंत्री ने संसद में घोषित किया कि रेलवे में नैमित्तिक श्रमिकों की भर्ती पर रोक लगायी जायेगी तथा नैमित्तिक श्रमिकों की समस्याओं को निपटाने के लिये तथा उन्हें नियमित रोजगार में रख पाने के लिये पृथक कोष्ठ बनाया जायेगा।


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कहानी एवं उपन्यास में अंतर



गद्य साहित्य की अनेक विधाओं में कहानी और उपन्यास का विशेष महत्व है। कारण समस्त विधाओं में सबसे पहले कहानी का प्रदुर्भाव हुआ, दादी, नानी, परदादी, परनानी और उनसे भी पहले की कई पीढ़ियों में इस विधा का जन्म हुआ था जब संभवतः विज्ञान के कोई भी ऐसे संसाधन आमजन को उपलब्ध नहीं थे जिससे वे अपना मनोरंजन कर सकें। अतः कल्पनालोक में खोकर बुनी गई कथा, कहानियां ही व्यक्ति के मनोरंजन का प्रमुख साधन बनी।
जिन्हें केवल श्रवणेन्द्रियों के बल व्यक्ति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तातंरित करती रही। जब एक कहानी के आसपास और भी कई सह-कहानियाँ बुनती और जुड़ती चली गईं तो कहानी का क्षेत्र व्यापक बन गया। निःसंदेह इसे कंठस्थ रख पाना आसान नहीं था किन्तु जब तक टंकण और मुद्रण व्यवस्था लोगों को उपलब्ध हुई और इन कहनियों के व्यापक स्वरूप को सहेज पाना आसान हुआ। जिसे उपन्यास विधा के रूप में जाना गया। ये सच है कि उपन्यास कहानी का ही विस्तृत रूप है किन्तु कहानी और उपन्यास के अंतर को हम प्रेमचंद के इन शब्दों बेहतर समझ सकते है - "गल्प (कहानी) वह रचना है जिसमें जीवन के किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है उसे चित्र, उसकी शैली, उसका कथाविन्यास सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं। उपन्यास की भांति उसमें मानव जीवन का संपूर्ण तथा वृहद रूप दिखाने का प्रयास नहीं किया जाता न ही उसमें उपन्यास की भांति सभी रसों का समिश्रण होता है। वह ऐसा रमणीय उद्यान नहीं जिसमें भांति-भांति के फूल बेल-बूटे सजे हुए हैं, अपितु एक गमला है जिसमें एक ही पौधे का माधुर्य अपने समुन्नत रूप में दृष्टिगोचर होता है।"

तथ्यों के आधार पर कहानी और उपन्यास के अंतर को हम इस तरह स्पष्ट कर सकते हैं- 
  1. कथानक के आधार पर -‘कथानक को हम एक नींव कह सकते है जिसके बल पर संपूर्ण कहानी या उपन्यास रूपी भवन टिका होता है। कहानी में कथानक की अनिवार्य शर्त नहीं होती किन्तु उपन्यास में कथानक की प्रधानता होती हैं। कहानी में जीवन की एक ही घटना का वर्णन होने से इसका स्वरूप छोटा होता है वहीं उपन्यास में संपूर्ण जवीन की व्याख्या होती है। एक मुख्य घटना से जुड़ी कई अन्य घटनाएं, उपन्यास की पृष्ठभूमि को विस्तृत बनाते हैं। मानव जीवन के छोटे से छोटे जीवन व्यापार का इसमें समावेश किया जाता है।
    कहानी में जहाँ जीवन के एक अंग का वर्णन होता है वहीं उपन्यास में कई अन्य गौण कथाएं भी सम्मिलित होती है। हम कह सकते हैं कि कहानी जीवन का एक बिंदु है तो उपन्यास एक गहरी सरिता है। कहानी में पाठक केवल एक ही कथा का आनंद ले पाता है वहीं उपन्यास में पाठक को कई कथाओं का आनंद मिलता है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि उपन्यास में कथानक जहाँ साध्य के रूप में प्रयुक्त होता है, वहीं कहानी में वह साधन बन जाता है।
  2. चरित्र-चित्रण के आधार पर - कथानक की ही तरह चरित्र-चित्रण की दृष्टि से भी कहानी और उपन्यास में पर्याप्त अंतर है। प्रथम उपन्यास का क्षेत्र काफी विस्तृत है क्योंकि यह जीवन की संपूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करता है तो जाहिर है यह एक दीर्घकालीन एवं विशाल स्वरूप की रचना है। कारण मानव जीवन की संपूर्ण यात्रा में उसका संबंध कई चरित्रों से पड़ता है। इस दृष्टि से उपन्यास में कई चरित्रों का समायोजन होता है वहीं कहानी जीवन के एक छोटे से अंश को प्रस्तुत करती है इसलिए एक संक्षेप परिवेश में जाहिर है मानव अपेक्षाकृत कम लोगों से ही जुड़ पाता है इसलिए इसमें पात्रों की संख्या भी सीमित ही होगी।
    इस संबंध में स्वयं प्रेमचंद का कथन दृष्टव्य है - "मैं उपन्यास को मानव चरित्र का चित्र मात्र समझता हूं। मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उनके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मुख्य उद्देश्य है। वहीं कहानी में बहुत विश्लेषण की गुंजाइश नहीं होती। यहाँ हमारा उद्देश्य संपूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं, वरन उसके चरित्र के एक अंग को दिखाना है।"
  3. कथोपकथन के आधार पर - कहानी की परिधि उपन्यास से अपेक्षाकृत छोटी होती है सीमित पात्र एवं छोटे प्रसंगों एवं जीवन की छोटी सी किसी घटना का वर्णन होने के कारण जाहिर है पात्रों के बीच संवादों की गुंजाइश भी कम होती है। दो-तीन पात्रों के बीच के कथानक की अवधि लगभग 10 मिनट में समाप्त हो जाती है। कारण कहानीकार किसी एक लक्ष्य को लेकर चलता है लक्ष्यपूर्ण होते ही कहानी का अंत हो जाता है।
    वहीं उपन्यास जैसा कि एक दीर्घकालीन रचना है। संपूर्ण जीवन चक्र में कई घटनाएं घटित होती है निरंतर नवीन संपर्क स्थापित होते हैं। संवाद उनका प्रमुख माध्यम होता है क्योंकि कथानक को पात्र नहीं संवाद ही आगे बढ़ाते हैं। अतः उपन्यास में संवादों की एक लंबी श्रृंखला होती है। उपन्यासकार का यह दायित्व होता है कि वह अपने संवादों को गढ़ते समय भाषा, शैली व रोचकता का पूर्ण ध्यान रखे। यं संवाद ही किसी भी कथानक को प्राणवान बनाते हैं।
  4. शिल्पविधान के आधार पर - शिल्पविधान की दृष्टि से कहानी और उपन्यास का अपना-अपना विधान होता है। उपन्यास के कथानक में कथा का आदि, मध्य और अंत गठित होता है। विस्तृत स्वरूप होने से उपन्यास में भूमिका की गुंजाइश होती हैं, कहानी के आधार पर उपन्यास की रचना उतनी कठिन नहीं जितनी उपन्यास से कहानी का निर्माण करना है। जबकि कहानी की बात करें तो उसका कोई निश्चित प्रारंभ और अंत नहीं होता। जीवन के किसी भी एक क्षेत्र से घटना चुनकर कथाकर उसे कहानी का स्वरूप दे सकता है। अर्थात् कहानी पर कोई प्रतिबंध नहीं होता वह कहीं बीच से उठाई जा सकती है। आधुनिक कहानी एवं लघु कथा के दौर में तो कहानी का आरंभ ही चरम सीमा से होता है। साथ ही प्राचीन काल में जहाँ कथा का समापन दुखांत सुखांत या प्रसादांत होता था किन्तु आज कथा पाठक के मन में उत्सुकता छोड़ देती है, कई बार कथाकार कहानी का समापन पाठक की कल्पना पर छोड़ देता है।
  5. देशकाल और वातावरण के आधार पर - उपन्यास एक ऐसा वातायन है, जिसके रास्ते पर हम बहती हुई चेतना के प्रवाह का अवलोकन करते हैं। कहानी एक सूक्ष्म दर्शक यंत्र है जिसके नीचे मानवीय रूपक के दृश्य खुलते है। सीमित क्षेत्र, सीमित पात्र तथा लघु अवधि में देश काल और वातावरण भी सीमित होता है। उदाहरण के लिए "कफन अथवा पूस की एक रात" कहानी जिनका परिदृश्य केवल एक कथानक के लिए निर्मित होता है, पूस की ठंड, रात का समय अथवा एक छोटे से गांव में अलाप में आलू भूंजते पिता-पुत्र के आसपास ही कथा समाप्त हो जाती है। किन्तु गबन को देखें तो जालपा का बचपन जहाँ गुजरा वह परिवेश फिर ससुराल, फिर कलकत्ता इन सबके आस-पास के वातावरण को जोड़कर उपन्यासकार ने उपन्यास की रचना की। वहाँ के संस्कार, संस्कृति, खान-पान, लोगों के जीने का तरीका सभी का समावेश उपन्यास में देखने को मिलता है।
  6. भाषा शैली के आधार पर - कहानी का उद्देश्य किसी एक घटना को निरूपित करना होता है। विशेष क्षेत्र, विशिष्ट समाज अथवा समूह के बीच घटने वाली एक छोटी से घटना को चित्रित करने हेतु कहानीकार को किसी विशेष भाषा ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। वह केवल क्षेत्र विशेष के बारे में अध्ययन एवं अनुभव के आधार पर कहानी की सर्जना कर सकता है। वहीं उपन्यास की रचना करने से पहले उपन्यासकार को अपने पात्र के जीवन में आए समस्त घटनाक्रम को, उस वातावरण तथा वहाँ की भाषा शैली को जानना बहुत आवश्यक है। जितने अधिक चरित्र उनके अनुसार उतनी ही भाषा शैली, संवादों की रचना में उपन्यासकार को एक विशेष कौशल की आवश्यकता होती है। वातावरण एवं पात्रों के अनुरूप बिंब एवं प्रतीकों की रचना ये सब मिलकर ही किसी उपन्यास की रोचकता को बढ़ाते हैं। किन्तु कहानी में कहानीकार को अपेक्षाकृत कम श्रम की आवश्यकता होती है। उदाहरण गबन में रमानाथ, जालपा, देवीदीन, दयानाथ, रतन, इन्दुभूषण, जोहरा आदि पात्रों के लिए उनके अनुरूप संवाद तैयार करने हेतु उपन्यास को इन समस्त चरित्रों के आचार, व्यवहार, विचार एवं भाषा का अध्ययन करना होता है। निःसंदेह कहानी अथवा उपन्यास दोनों में ही भाषा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और एक लेखक का गंभीर दायित्व भी।
  7. उद्देश्य के आधार पर - जिस तरह एक समझदार व्यक्ति जीवन में कोई भी कार्य बिना उद्देश्य के नहीं करता उसी तरह एक लेखक कोई भी रचना बिना उद्देश्य के नहीं रचता । फिर चाहे वह कहानी हो या उपन्यास ।उद्देश्य की दृष्टि से इनमें अंतर हो सकता है जैसे कहानी की रचना ही किसी एक उद्देश्य को दृष्टि के रखकर की जाती हैं फिर चाहे वह पुरस्कार कहानी में नारी के निश्छल प्रेम को दर्शाना हो या छोटा जादूगर में एक बालक के स्वाभिमान को दर्शाना हो या फिर ईदगाह में बालक का दादी के प्रति प्रेम, कफन में निष्ठुरता की पराकष्ठा ही क्यों न हो। वही उपन्यास में एक प्रधान घटना के साथ कई अन्य गौण घटनाएं भी जुड़ी होती हैं लेखक का उद्देश्य प्रत्येक घटना से कोई न कोई संकेत पाठकों तक पहुँचाना होता है। फिर वह गबन की मुख्य घटना नारी की आभूषणप्रियता हो, रतन की बेमेल विवाह एवं वैधव्य की समस्या हो, रमानाथ के मिथ्या आडम्बर की हो, जोहरा के प्रति समाज का उपेक्षापूर्ण व्यवहार हो, पुलिस की कुटनीति हो अथवा स्वतंत्रता सेनानियों की अनदेखी पीड़ा है। लेखक प्रत्येक घटना को क्रम से पिरोते हुए कहानी अथवा उपन्यास की रचना करता है । यदि घटना पाठकों पर अपना प्रभाव छोड़ती है तथा अपने उद्देश्य की सार्थकता को सिद्ध करती है तो वह कहानी और उपन्यास की सफलता साबित करती है।


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