मुस्लिमो के उत्‍थान से अल्‍ला‍ह नाराज नही होगें



आज की परिस्थितियों में यह देखने में आता है कि जो व्‍यक्ति हिन्दू हितों की बात करता है उसे साम्‍प्रदायिक कहा जाता है किन्तु मुस्लिम चोला ओड़ते ही सब धर्मनिर्पेक्ष ताकत हो जाते है। यह कहना गलत न होगा कि मऊ दंगों में जो कुछ मुस्लिमों ने किया उसे तत्कालीन मुलायम प्रशासन का मौन समर्थन प्राप्त था। किन्तु मुस्लिम वोट बैंक के आड़ में मुलायम यह भूल गये कि वोट बैंक से ज्यादा उनके वे यादव समाज के लोग जो सुबह घर से दूध लेकर निकले थे किंतु शाम को उनकी लाशे घर पहुँची। आज जिस मुख्तार अंसारी को मुलायम ने समर्थन दिया था, वो आज मायावती के तलवे चाट रहा है। राजनीति में कोई अपना नही होता है, मुलायम भी यादव समाज के अपने नहीं हुए। हो सकता है मित्र अभिषेक को यह बाते बुरी लग रही हो।

तत्कालीन परिस्थितियों किसी मीडिया वाले को बोलने की हिम्मत नहीं हुई कि किस प्रकार मऊ दंगे में सत्ता के संरक्षण में मुख्तार का दंगाई चेहरा भी देखने को मिला। इस दौर में अकेले गाजीपुर में दो दर्जन से ज्यादा मुख्तार विरोधियों की हत्या हुई। तब कौन मरा था ?

हर वर्ष गुजरात दंगों की बर्थडे पर मीडिया वाले पहुँच जाते है मुस्लिमों के परिवारों का दर्द देश के सामने दिखाने को किन्तु आज तक किसी ने मऊ और गाजीपुर के हिन्दू पीड़ित घरों में किसी ने झांकने की कोशिश की ? इसकी जरूरत इसलिए नहीं पड़ी क्योंकि हिन्दू तो कभी वोट बैंक रहा ही नही। कांग्रेस पडि़तो को ले गई, भाजपा बनियो को, सपा यादव छत्रिय और हरिजन मायावती की संपत्ति है। इसलिये उनके वोट की कीमत नहीं है। 20% मुस्लिम आज 80% हिन्दू वोट पर भारी पड़ते है। यह परिवर्तन लाना ही होगा।

तुष्टिकरण की नीति बदलना होगा, चाहे हिंदू हो मुसलमान, जिसे भारत में रहना होगा उसे भारतवासी बनकर ही रहना होगा। यह कैसी नीति है कि भारत माता की जय या वंदे मातरम बोलने में मुस्लिम धर्म का वजूद खतरे में पड़ जाता है? जो धर्म मातृभूमि की इबादत करने को नाजायज ठहराता हो, उस धर्म की मानसिकता को भली भांति से समझा जा सकता है। मुस्लिम समाज अपना उत्थान तभी कर सकता है जबकि वह फतवों की जकड़ से निकल सके। नहीं तो हर दिन नये नये शोध समाने आते है- कि कंडोम का प्रयोग नाजायज है, नसबंदी करवाने से अल्लाह रूठ जायेगा। इन फतवों से ऊब कर अल्लाह तो अल्लाह मुस्लिमों की किस्मत भी रूठ गई। जो विकास के मार्ग में रुके पड़े है। मुस्लिमो को विकसित और विकासशील मुस्लिम देशो से सीख लेनी चाहिए, जो कंडोम का उपयोग कर रहे है और नसबंदी भी करवा रहे है, और उनसे अल्लाह भी खुश है और उसकी किसमत भी जिससे वे तो वे उनका देश भी उन्नति कर रहा है।


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उत्‍तर प्रदेश सरकार का मंत्री निकला मेरा सहपाठी है, 2 माह के लिये परीक्षा निरस्‍त



अत्यंत हर्ष का विषय है, कि गिरीश बिल्लोरे '' मुकुल'' की तरफ से दिनांक 14 को आयोजित ''बावरे फकीरा'' सीडी एल्बम के विमोचन का कार्यक्रम आयोजित कर रहे है। जब श्री गिरीश जी ने इस कार्यक्रम की सूचना मुझे दी, मुझे बहुत ही अच्छा लगा। मै स्वयं इस कार्यक्रम का हिस्सा बनना चाह रहा था किन्तु मेरी परीक्षा 17 मार्च से प्रारंभ होने को थी किन्तु मुझे आज ही पता चला कि मेरी परीक्षाएं अब स्थगित होकर 18 मई को प्रारंभ होगी। खबर है कि उत्तर प्रदेश सरकार का कोई मंत्री मेरा सहपाठी है और चुनाव के चलते वो परीक्षा देने में असमर्थ है इस लिये विश्वविद्यालय प्रशासन को यह निर्णय लेना पड़ा। भला हो मंत्री का कि कल तक मेरे हाथ में किताब थी आज कीबोर्ड है। :) जब परीक्षा देने जाऊँगा तो मुंह से निकलेगा सत्यानाश हो मंत्री का की मई-जून की गर्मी में पेपर देना पड़ा रहा है। 



जब मेरी श्री गिरीश जी से बात हुई थी तो उन्होंने मुझे इस विमोचन कार्यक्रम में मुझे हार्दिक निमत्रित किया। उनका निमंत्रण मेरे लिये आदेश के समान था किन्‍तु जब मैने अपनी परिस्थिति उनके सामने रखी तो उन्‍होने कहा कि तुम्‍हारा काम ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण है, आप उसे करों। साथ ही साथ उन्होने मुझे आदेश दिया कि मै महाशक्ति व महाशक्ति समूह के पाठकों को इस कार्यक्रम का खुला आमंत्रण दूँ ताकि वो इस कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज करा कर, कार्यक्रम की शोभा में चार-चाँद लगाये।
यह कार्यक्रम तथा ''बावरे फकीरा'' कई मायनों में महत्‍वपूर्ण है। बावरे फकीरा की सीडी में आवाज दिया है, उभरते सितारे आभास जोशी जो कई टैलेंट हंट प्रतियोगिता में सहभागिता की थी। इस सीडी के बारे में यह भी बताना चाहूंगा कि यह पूरा काम निस्वार्थ भाव से विकलांग बच्‍चों के सहायतार्थ आयोजित किया जा रहा है। इस सीडी से प्राप्त संपूर्ण धन इन बच्‍चों के ऊपर खर्च किया जायेगा।

खैर, आप सभी कार्यक्रम के अंग बने, और कार्यक्रम को सफल बनाये, अगर मै अब भी कोई ट्रेन या बस पकडूँगा तब पर भी नहीं पहुंच पाउंगा। कार्यक्रम की सफलता के की कामना करता हूँ, और आग्रह करता हूँ कि कल्याणार्थ सीडी को एक बार जरूर सुने।



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पैमाने पर दोहरे मापदंड कितने सही ?



आज टहलते-घूमते डॉक्टर कविता वाचक्नवी के एक ब्लॉग बालसभा पर पहुँचना हुआ। उनका एक लेख मेरे एक लेख को लेकर लिखा गया था। लेखो पर प्रतिक्रियात्‍मक लेख प्राप्‍त होना बहुत कम लोगो को नसीब होता है। मेरे पिछले लेख पिता बच्‍चे को मार दे तो यह भी मीडिया की खबर होती है मैने सम्‍पूर्ण बाते इकोनामिक्‍स टाईम्स से साभार लिया था। सिर्फ मैने इतना अपनने मन से लिखा था। नोट : इस पोस्‍ट को बाल हिंसा के सर्मथन के रूप में न देखा जाये, हमें न पता था कि पुत्र और पिता के रिश्‍तो में मीडिया भूमिका अहम हो जायेगी। जो भी इस पोस्‍ट को पढ़ रहा होगा, कभी न कभी वह अपने पिता-माता-भाई से मार न खाया हो। अगर खाया भी होगा तो शायद ही आज उस मार की किसी को खुन्‍नस होगी ?
 
मै मारपीट तथा हिंसा वृत्ति का समर्थन नही कर रहा किन्तु एक यर्थात बात सामने रखना चाह रहा था। आज अगर उस लड़के की पिटाई हुई तो सिर्फ मीडिया के कारण। क्योंकि उसने मीडिया के सम्मुख आने का मना कर रहा था। कविता जी के ब्लॉग पर भी एक टिप्पणी पढ़ने को मिली वह भी मजेदार थी। यहाँ मजा लेना मेरा मकसद नहीं था। बात को हकीकत तक ले जाना था। आज देश में बच्‍चो के साथ क्‍या क्‍या हो रहा है उससे किसी को सरोकार नहीं होता, किन्तु वही अगर किसी सेलिब्रिटी के बच्चे या सेलिब्रिटी बच्‍चे की बात आती है तो पूरा मीडिया झूम उठता है। आखिर सामान्‍य बच्चे की चिंता मीडिया को क्यो नही होती है ? क्योंकि उससे मीडिया को पब्लिसिटी जो नही मिलती है।

उस लेख से मेरा तात्पर्य यही था कि पिता-पुत्र का कोई रिश्ता दुश्मनी का नही होता जो तत्काल में मीडिया ने उस मामले में प्रस्तुत किया था। आज बाल श्रम की बात होती है तो फिल्‍म और टेलीविजन पर काम करने वाले बच्‍चो पर यह क्यों लागू नहीं होता है? आखिर इन बच्चों को मीडिया को भी कमाना रहता है। बालिका वधू के हर एपिसोड की कहानी हर न्‍यूज चैनल पर प्रकाशित होती है और तो और उनके इंटरव्‍यूह का भी घंटों लाइव प्रसारण किया जाता है। क्या सिर्फ होटल और घर में काम करने वाले बच्चो के लिये ही बाल श्रम कानून है। मीडिया और व्यावहारिकता में इसकी दोहरी नीतियों का विश्लेषण होना चाहिये। भावुक होना ही नहीं जागृत होना भी जरूरी है।


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पिता बच्‍चे को मार दे तो यह भी मीडिया की खबर होती है



इनकी किस्मत में आई चांदनी पर फिर से स्लम का अंधेरा छाने लगा है। गुरुवार को ही ऑस्कर समारोह से घर लौटने वाले अजहरुद्दीन को उसके बाप ने मामूली सी बात पर पिटाई कर दी । स्लमडॉग में यंग हीरो का रोल करने वाला 10 साल का अजहर मुंबई में धारावी के स्लम इलाके में रहता है। लॉस एंजेलिस में स्लमडॉग को 8 ऑस्कर पुरस्कार मिले हैं। अजहर भी इस समारोह में शामिल होने के लिए वहां पहुंचा था।

गुरुवार को ही घर लौटे अजहर को उस दिन मीडिया के लोगों, मित्रों और पड़ोसियों ने घेर रखा। जबकि लॉस एंजेलिस से लंबी यात्रा कर लौटा अजहर थक गया था और आराम करना चाहता था। इसी कारण वह शुक्रवार को स्कूल भी नहीं गया। पर शुक्रवार को भी मीडिया के लोग और कुछ अन्य लोग उससे मिलना चाहते थे। वे उसके घर आने लगे, जबकि अजहर सोना चाहता था।

उसके पिता 45 साल के मोहम्मद इस्माइल को यह बात नागवार गुजर रही थी। उसे यह लग रहा है कि अजहर ही उन्हें इस स्लम से बाहर निकालने की टिकट है। लेकिन जब अजहर लोगों से मिलने नहीं निकला और उसने जोर से चिल्ला कर यह कहा कि अभी वह किसी से मिलना नहीं चाहता तो उन्होंने अजहर की जमकर लात-घूंसों से पिटाई कर दी।

सबके सामने पिटता अजहर रोता-चिल्लाता हुआ घर के अंदर भागा। पर घर के अंदर भी बाप ने उसे दो-चार हाथ जड़ दिए। हालांकि बाद में टीबी के मरीज इस्माइल ने अपने इस व्यवहार के लिए अजहर से माफी मांगी। उन्होंने कहा, मैं अजहर से बहुत प्यार करता हूं। मुझे उस पर गर्व है। बस मैं पता नहीं कैसे कुछ देर के लिए अपना आपा खो बैठा था।

जिस दिन अजहर मुंबई लौटा था, उस दिन भी अजहर के पिता कई बातों पर नाराज होते रहे। अजहर को जिस कार में बैठाया गया था, उसमें उन्हें जगह नहीं मिल पाई थी तो वह कार की छत पर ही बैठ गए थे।

अजहर की पिटाई की खबर फोटो सहित इंग्लैंड के सन अखबार में छपी है। इस बात पर वहां हंगामा मचा हुआ है। लोगों और मानवाधिकार संस्थाओं ने इस बात पर बवाल मचाना शुरू कर दिया है।

नोट : इस पोस्ट को बाल हिंसा के समर्थन के रूप में न देखा जाए, हमें न पता था कि पुत्र और पिता के रिश्‍तो में मीडिया भूमिका अहम हो जाएगी। जो भी इस पोस्ट को पढ़ रहा होगा, कभी न कभी वह अपने पिता-माता-भाई से मार न खाया हो। अगर खाया भी होगा तो शायद ही आज उस मार की किसी को खुन्नस होगी ?





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ऐसा दर्द न दे भगवान



आज हमारे दादा जी आए थे, वे रिश्ते में नहीं थे किन्तु किसी रिश्ते में वे कम भी नहीं थे। करीब 2 हफ्ते पूर्व भी वे हमारे यहाँ आये थे किन्तु एक दुखद समाचार के साथ दादी जी के निधन की सूचना को लेकर। ये वो दादी है जब मै कानपुर में था और मेरी उम्र करीब 2 साल से कम उम्र का था तब से मुझे पाला और उनकी गोद में खेला जब तक कि वह कानपुर में रही। कानपुर में ही वे विधवा हो गई थी इनका एक पुत्र था वह भी स्वर्ग सिधार चुका था। मोहल्ले भर के बच्चे उनके पास पहुंच जाते थे, सुबह भगवान के भोग का खाना मुझे ही नसीब होता था। करीब 5 साल की उम्र तक उनका मेरा साथ रहा। फिर उन्हें अपनी एकाकी जीवन में रंग भरने को इलाहाबाद के दो पुत्र के पिता से विवाह कर लिया, ये वही दादा जी है।

कानपुर के सम्बन्ध इलाहाबाद में भी कायम रहा और इसी सम्बन्ध के कारण दादाजी ने दादी की तेरहवीं की सूचना देने आये थे। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट थी किन्तु आंखों में पानी भी था। दादा जी की उम्र करीब 65-70 की बीच होगी। ये उम्र होती है जब व्‍यक्ति को अपने जीवन साथी की सबसे ज्‍यादा कमी खलती है। दादा से मैने पूछा तबीयत ठीक है, उनका इनता ही करना था तबीयत तो चली गई बेटवा..... उनके ये शब्द बहुत कुछ कह रहे थे।

आज उनका फिर आना हुआ, हमारी अम्मा जी से मिले और अपने दुख सुख की बात की। उनका ये शब्द आज फिर हृदय को कष्ट दे रहे थे। वकीलाईन (हमारी अम्मा जी को) अब हम आपको किस मुँह से बुलाएंगे, जिसके सहारे हम आपको बुला पाते थे वो तो चला गया। पता नहीं अब वो सम्मान हम दे पाएंगे भी कि नहीं,। उनका प्रत्यक्ष अपनी बहू की ओर ध्यान दिलाना था। शायद दादी के जाने के बाद वे उससे संतुष्ट नहीं थे। जो कुछ भी था वो दूसरी पत्नी थी किन्तु जीवन संगिनी थी, ये अपने पुत्र (खून) बधू है किन्तु वह आज सफेद हो रहा है। एक ही संसार में एक सिक्के के दो पहलू होते है, गैर अपने बन जाते है और अपने गैर।


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