सनातन धर्म के धर्मग्रंथ





सनातन धर्म के धर्मग्रंथ
।ॐ।। वेद 'विद' शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ज्ञान या जानना, ज्ञाता या जानने वाला; मानना नहीं और न ही मानने वाला। सिर्फ जानने वाला, जानकर जाना-परखा ज्ञान। अनुभूत सत्य। जाँचा-परखा मार्ग। इसी में संकलित है 'ब्रह्म वाक्य'।

वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई.पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।

वेद को 'श्रुति' भी कहा जाता है। 'श्रु' धातु से 'श्रुति' शब्द बना है। 'श्रु' यानी सुनना। कहते हैं कि इसके मन्त्रों को ईश्वर (ब्रह्म) ने प्राचीन तपस्वियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था जब वे गहरी तपस्या में लीन थे। सर्वप्रथम ईश्वर ने चार ऋषियों को इसका ज्ञान दिया:- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य।

वेद वैदिककाल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले छह-सात हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है। विद्वानों ने संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद इन चारों के संयोग को समग्र वेद कहा है। ये चार भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहे जाते हैं। बाकी ग्रन्थ स्मृति के अंतर्गत आते हैं।

संहिता : मन्त्र भाग। वेद के मन्त्रों में सुंदरता भरी पड़ी है। वैदिक ऋषि जब स्वर के साथ वेद मंत्रों का पाठ करते हैं, तो चित्त प्रसन्न हो उठता है। जो भी सस्वर वेदपाठ सुनता है, मुग्ध हो उठता है।

ब्राह्मण : ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों की चर्चा है। वेदों के मंत्रों की व्याख्या है। यज्ञों के विधान और विज्ञान का विस्तार से वर्णन है। मुख्य ब्राह्मण 3 हैं : (1) ऐतरेय, ( 2) तैत्तिरीय और (3) शतपथ।

आरण्यक : वन को संस्कृत में कहते हैं 'अरण्य'। अरण्य में उत्पन्न हुए ग्रंथों का नाम पड़ गया 'आरण्यक'। मुख्य आरण्यक पाँच हैं : (1) ऐतरेय, (2) शांखायन, (3) बृहदारण्यक, (4) तैत्तिरीय और (5) तवलकार।

उपनिषद : उपनिषद को वेद का शीर्ष भाग कहा गया है और यही वेदों का अंतिम सर्वश्रेष्ठ भाग होने के कारण वेदांत कहलाए। इनमें ईश्वर, सृष्टि और आत्मा के संबंध में गहन दार्शनिक और वैज्ञानिक वर्णन मिलता है। उपनिषदों की संख्या 1180 मानी गई है, लेकिन वर्तमान में 108 उपनिषद ही उपलब्ध हैं। मुख्य उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वर। असंख्य वेद-शाखाएँ, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं। वर्तमान में ऋग्वेद के दस, कृष्ण यजुर्वेद के बत्तीस, सामवेद के सोलह, अथर्ववेद के इकतीस उपनिषद उपलब्ध माने गए हैं।

वैदिक काल :
प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था। दरअसल वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई.पू. से मानी है। अर्थात यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: माना यह जाता है कि पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्‍वेद, यजुर्वेद व सामवेद जि‍से वेदत्रयी कहा जाता था। मान्यता अनुसार वेद का वि‍भाजन राम के जन्‍म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि‍ अथर्वा द्वारा कि‍या गया।

दूसरी ओर कुछ लोगों का यह मानना है कि कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया। इन चारों प्रभागों की शिक्षा चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी। उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनि को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्‍य नहीं नकारा जा सकता कि कृष्ण के आज से 5112 वर्ष पूर्व होने के तथ्‍य ढूँढ लिए गए हैं।
वेद के विभाग चार हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गति‍शील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।

ऋग्वेद : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। इसमें 10 मंडल हैं और 1,028 ऋचाएँ। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियाँ और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें 5 शाखाएँ हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन।

यजुर्वेद : यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में 1975 मन्त्र और 40 अध्याय हैं। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मन्त्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं कृष्ण और शुक्ल।

सामवेद : साम अर्थात रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इसमें 1875 (1824) मन्त्र हैं। ऋग्वेद की ही अधिकतर ऋचाएँ हैं। इस संहिता के सभी मन्त्र संगीतमय हैं, गेय हैं। इसमें मुख्य 3 शाखाएँ हैं, 75 ऋचाएँ हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है।

अथर्ववेद : थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कम करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। अथर्ववेद में 5987 मन्त्र और 20 कांड हैं। इसमें भी ऋग्वेद की बहुत-सी ऋचाएँ हैं। इसमें रहस्यमय विद्या का वर्णन है।

उक्त सभी में परमात्मा, प्रकृति और आत्मा का विषद वर्णन और स्तुति गान किया गया है। इसके अलावा वेदों में अपने काल के महापुरुषों की महिमा का गुणगान व उक्त काल की सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थिति का वर्णन भी मिलता है।

छह वेदांग : (वेदों के छह अंग)- (1) शिक्षा, (2) छन्द, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) ज्योतिष और (6) कल्प।

छह उपांग : (1) प्रतिपदसूत्र, (2) अनुपद, (3) छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), (4) धर्मशास्त्र, (5) न्याय तथा (6) वैशेषिक। ये 6 उपांग ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसे ही षड्दर्शन कहते हैं, जो इस तरह है:- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत।

वेदों के उपवेद : ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

आधुनिक विभाजन : आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों का विभाजन कुछ इस प्रकार किया गया- (1) याज्ञिक, (2) प्रायोगिक और (3) साहित्यिक।

वेदों का सार है उपनिषदें और उपनिषदों का सार 'गीता' को माना है। इस क्रम से वेद, उपनिषद और गीता ही धर्मग्रंथ हैं, दूसरा अन्य कोई नहीं। स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत समझाया गया है। वाल्मिकी रामायण और महाभारत को इतिहास तथा पुराणों को पुरातन इतिहास का ग्रंथ माना है। विद्वानों ने वेद, उपनिषद और गीता के पाठ को ही उचित बताया है।

ऋषि और मुनियों को दृष्टा कहा गया है और वेदों को ईश्वर वाक्य। वेद ऋषियों के मन या विचार की उपज नहीं है। ऋषियों ने वह लिखा या कहा जैसा कि उन्होंने पूर्णजाग्रत अवस्था में देखा, सुना और परखा।

मनुस्मृति में श्लोक (II.6) के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है। वेद किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच, जात-पात, महिला-पुरुष आदि के भेद को नहीं मानते। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्‍भगवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41) में मिलता है।

श्लोक : श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।
तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृति‌र्त्वरा॥
भावार्थ : अर्थात जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात की मान्य होगी।-वेद व्यास
प्रकाश से अधिक गतिशील तत्व अभी खोजा नहीं गया है और न ही मन की गति को मापा गया है। ऋषि-मुनियों ने मन से भी अधिक गतिमान किंतु अविचल का साक्षात्कार किया और उसे 'वेद वाक्य' या 'ब्रह्म वाक्य' बना दिया।।। ॐ ।|


Share:

अच्युताष्टकं (Achyutashtakam by Adi Shankara - Sanskrit Stuti)



Achyutashtakam by Adi Shankara - Sanskrit Stuti

अच्युतं केशवं राम नारायणं कृष्ण दामोदरं वासुदेवं हरिम् ।
श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं जानकीनायकं रामचन्द्रं भजे ॥१॥
Achyutham kesavam rama narayanam,
Krishna damodharam vasudevam harim,
Sreedharam madhavam gopika vallabham,
Janaki nayakam ramachandram Bhaje
I sing praise of Ramachandra, Who is known as Achyuta (infallible), Keshav, Raam, Narayan, Krishna, Damodara, Vasudeva, Hari, Shridhara (possessing Lakshmi), Madhava, Gopikavallabha (Dearest of Gopika), and Janakinayaka (Lord of Janaki or Sita).||1||

अच्युतं केशवं सत्यभामाधवं माधवं श्रीधरं राधिकाराधितम् ।
इन्दिरा मन्दिरं चेतसा सुन्दरं देवकीनन्दनं नन्दनं संदधे ॥२॥
Achyutham kesavam sathya bhamadhavam,
Madhavam sreedharam radhika aradhitham,
Indira mandiram chethana sundaram,
Devaki nandanam nandhajam sam bhaje
I offer a salute with my hands together to Achyuta, Who is known as Keshav, Who is the consort of Satyabhama (Krishna), Who is known as Madhav and Shridhar, Who is longed-for by Radhika, Who is like a temple of Lakshmi (Indira), Who is beautiful at heart, Who is the son of Devaki, and Who is the Dear-One of all.||2||

विष्णवे जिष्णवे शङ्खिने चक्रिणे रुक्मिनी रागिने जानकी जानये ।
वल्लवी वल्लभायाऽर्चितायात्मने कंस विध्वंसिने वंशिने ते नमः ॥३॥
Vishnava jishnave sankhine chakrine,
Rukhmani ragine janaki janaye,
Vallavi vallabha yarchidha yathmane,
Kamsa vidhvamsine vamsine the nama.
Salutations for Vishnu, Who conquers everyone, Who holds a conch-shell and a discus, Who is the affectionate of Rukmini (Krishna), Who is the consort of only Janaki (Raam), Who is the Dear-One of cowherdesses, Who is offered [in sacrifices], Who is the Atman, Who is the destroyer of Kansa, and Who plays the flute (Krishna).||3||

कृष्ण गोविन्द हे राम नारायण श्रिपते वासुदेवाचित श्रिनिधे ।
अच्युतानन्त हे माधवाधोक्षज द्वारका नायक द्रौपदी रक्षक ॥४॥
Krishna govinda he rama narayana,
Sree pathe vasu deva jitha sree nidhe,
Achyuthanantha he madhava adhokshaja,
Drowpadhi rakshaka , pathu maam sarvadha
O Krishna! O Govinda! O Raam! O Narayan! O Shripati! O Vasudeva, Who attained the Lakshmi! O Achyuta, Who is immeasurable! O Madhav! O Adhokshaja! O Leader of Dvarika! O the protector of Draupadi!¹||4||

राक्षसक्षोभितः सीतयाशोभितो दण्डकारण्य भू पुण्यता कारणः ।
लक्ष्मणेनान्वितो वानरैः सेवितोऽगस्त्संपूजितो राघवः पातु माम् ॥५॥
Rakshasa kshobitha seethaya shobitho,
Danda karanya bhoo punyatha karana,
Lakshmanananvitho vanarai ssevitho,
Agasthya sampoojitho raghava pathu maam.
Raghav, Who upsetted the demons, Who adorned Sita, Who is the cause of purification of the forest called Dandaka, Who was accompanied by Lakshman, Who was served by monkeys, and Who was revered by Agastya, save me.||5||

धेनुकारिष्टकोऽनिष्टकृद् द्वेषिणां केशिहा कंसहृद् वंशिकावादकः ।
पूतनाकोपकः सूरजा खेलनो बाल गोपालकः पातु माम् सर्वदा ॥६॥
Dheenu karishtako anishta krudwesinaam,
Kesiha kamsa hrud vamsika vaadhana,
Poothana nasana sooraja khelano,
Bala gopalaka pathu maam sarvadha.
Baby Gopal (Krishna), Who destroyed the disguised Dhenuka and Arishtak demons, Who slayed Keshi, Who killed Kansa, Who plays the flute, and Who got angry on Putana², save me always.||6||

विद्युदुद्धयोतवान प्रस्फुरद्वाससं प्रावृडम्भोदवत् प्रोल्लसद्विग्रहम् ।
वन्यया मालया शोभितोरस्थलं लोहितांघ्रिदूयं वारिजाक्षं भजे ॥७॥
Vidhyu dudhyothavath prasphura dwasasam,
Prouda bodhaval prollasad vigraham,
Vanyaya Malaya shobhi thora sthalam,
Lohinthangri dwayam vareejaksham bhaje.
I sing praise of the Lotus-Eyed Lord, Who is adorned by a shiny lightening like yellow robe, Whose body is resplending like a cloud of the rainy-season, Who is adorned by a forest-garland at His chest, and Who has two feet of copper-red color.||7||

कुञ्चितैः कुन्तलैर्भ्राजिमानाननं रत्नमौलिं लसत् कुण्डलं गण्डयोः ।
हारकेयूरकं कङ्कण प्रोज्ज्वलं किङ्किणी मञ्जुलं श्यामलं तं भजे ॥८॥
Kanchithai kundalai braja maanananam,
Rathna moulim lasad kundalam gandayo,
Haara keyuragam kankana projwalam,
Kinkini manjula syamalam tham bhaje.
I sing praise of that Shyam, Whose face is adorned by falling locks of curly tresses, Who has jewels are forehead, Who has shiny earrings on the cheeks, Who is adorned with a garland of the Keyur flower, Who has a shiny bracelet, and Who has a melodious anklet.||8||


अच्युतस्याष्टकं यः पठेदिष्टदं प्रेमतः प्रत्यहं पूरुषः सस्पृहम् |
वृत्ततः सुंदरं कर्तृ विश्वंभरं तस्य वश्यो हरिर्जायते सत्वरम् ||९||
||इति श्रीशंकराचार्यविरचितमच्युताष्टकं संपूर्णम् ||

**********

अच्युतं केशवं रामनारायणं कृष्णदामोदरं वासुदेवं हरिम् ||
श्रीधरं माधवं गोपिकावल्लभं जानकीनायकं रामचन्द्रं भजे ||१||
अच्युतं केशवं सत्यभामाधवं माधवं श्रीधरं राधिकाराधितम् ||
इन्दिरामन्दिरं चेतसा सुन्दरं देवकीनन्दनं नन्दनं संदधे ||२||
विष्णवे जिष्णवे शङ्खिने चक्रिणे रुक्मिनीरागिणे जानकीजानये ||
वल्लवीवल्लभायाऽर्चितायात्मने कंसविध्वंसिने वंशिने ते नमः ||३||
कृष्ण गोविन्द हे राम नारायण श्रीपते वासुदेवाजित श्रीनिधे ||
अच्युतानन्त हे माधवाधोक्षज द्वारकानायक द्रौपदीरक्षक ||४||
राक्षसक्षोभितः सीतया शोभितो दण्डकारण्यभूपुण्यताकारणः ||
लक्ष्मणेनान्वितो वानरैः सेवितोऽगस्त्यसंपूजितो राघवः पातु माम् ||५||
धेनुकारिष्टकोऽनिष्टकृद्द्वेषिणां केशिहा कंसहृद्वंशिकावादकः ||
पूतनाकोपकः सूरजाखेलनो बालगोपालकः पातु माम् सर्वदा ||६||
विद्युदुद्धयोतवानप्रस्फुरद्वाससं प्रावृडम्भोदवत्प्रोल्लसद्विग्रहम् ||
वन्यया मालया शोभितोरःस्थलं लोहितांघ्रिद्वयं वारिजाक्षं भजे ||७||
कुञ्चितैः कुन्तलैर्भ्राजमानाननं रत्नमौलिं लसत् कुण्डलं गण्डयोः ||
हारकेयूरकं कङ्कणप्रोज्ज्वलं किङ्किणीमञ्जुलं श्यामलं तं भजे ||८||
अच्युतस्याष्टकं यः पठेदिष्टदं प्रेमतः प्रत्यहं पूरुषः सस्पृहम् |
वृत्ततः सुंदरं कर्तृ विश्वंभरं तस्य वश्यो हरिर्जायते सत्वरम् ||९||
||इति श्रीशंकराचार्यविरचितमच्युताष्टकं संपूर्णम् ||
*************
Achyutashtakam by Adi Shankara - Sanskrit Stuti


Share:

अयोध्या मसले की जड़ नेहरु



अयोध्या मसले की जड़ नेहरु
नेहरु की विखंडनकारी महत्वाकांक्षा यही बताती है कि १९४९ में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री गोविन्द वल्लभ पंत रामलला की मूर्ति जन्मभूमि पर रखवाने के पक्ष में थे वही नेहरु उस स्थान से मूर्तियों को हटवाने की बात कह रहे थे। देश के दो दिग्गजों के मध्य दोहरी कशमकश का परिणाम यह हुआ कि फैजाबाद के तत्कालीन जिलाधिकारी के. के. नायर को इस्तीफा देना पड़ा, वास्तव में नेहरु कभी चाहते ही नहीं थे, कि राम जन्मभूमि पर रामलला विराजमान हो। जैसा कि राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल के प्रयास से गुजरात के सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार कि तर्ज पर अयोध्या के विवाद को भी समाप्त किया जा सकता था। इतिहास गवाह रहा है कि अयोध्या, कश्मीर, पाकिस्तान और तिब्बत जैसे मुद्दों पर जहां कही भी नेहरु ने अपने दूषित हाथ डाले वे मुद्दे आज भी आज भी एक ज्वलंत समस्याएं बनी हुई है।


Share:

कष्टों को हरने वाला नवग्रह पीड़ाहर स्तोत्र अर्थ सहित




ग्रहों से होने वाले कष्टों और दुखों को दूर करने के लिए नवग्रह पीड़ाहर स्तोत्र का पाठ अत्यंत लाभदायक है। इसमें सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु ग्रहों से क्रमश: एक-एक श्लोक के द्वारा पीड़ा अर्थात कष्टों को दूर करने की प्रार्थना की गई है -


ग्रहाणामादिरात्यो लोकरक्षणकारक:।
विषमस्थानसम्भूतां पीड़ां हरतु मे रवि: ।।1।।

रोहिणीश: सुधा‍मूर्ति: सुधागात्र: सुधाशन:।
विषमस्थानसम्भूतां पीड़ां हरतु मे विधु: ।।2।।

भूमिपुत्रो महातेजा जगतां भयकृत् सदा।
वृष्टिकृद् वृष्टिहर्ता च पीड़ां हरतु में कुज: ।।3।।

उत्पातरूपो जगतां चन्द्रपुत्रो महाद्युति:।
सूर्यप्रियकरो विद्वान् पीड़ां हरतु मे बुध: ।।4।।

देवमन्त्री विशालाक्ष: सदा लोकहिते रत:।
अनेकशिष्यसम्पूर्ण:पीड़ां हरतु मे गुरु: ।।5।।

दैत्यमन्त्री गुरुस्तेषां प्राणदश्च महामति:।
प्रभु: ताराग्रहाणां च पीड़ां हरतु मे भृगु: ।।6।।

सूर्यपुत्रो दीर्घदेहा विशालाक्ष: शिवप्रिय:।
मन्दचार: प्रसन्नात्मा पीड़ां हरतु मे शनि: ।।7।।

अनेकरूपवर्णेश्च शतशोऽथ सहस्त्रदृक्।
उत्पातरूपो जगतां पीडां पीड़ां मे तम: ।।8।।

महाशिरा महावक्त्रो दीर्घदंष्ट्रो महाबल:।
अतनुश्चोर्ध्वकेशश्च पीड़ां हरतु मे शिखी: ।।9।।


Navagraha Peeda Hara Stotram in Hindi हिन्दी भावार्थ -
  1. सूर्य : ग्रहों में प्रथम परिगणित, अदिति के पुत्र तथा विश्व की रक्षा करने वाले भगवान सूर्य विषम स्थानजनित मेरी पीड़ा का हरण करें ।।1।।
  2. चंद्र : दक्षकन्या नक्षत्र रूपा देवी रोहिणी के स्वामी, अमृतमय स्वरूप वाले, अमतरूपी शरीर वाले तथा अमृत का पान कराने वाले चंद्रदेव विषम स्थानजनित मेरी पीड़ा को दूर करें ।।2।।
  3. मंगल : भूमि के पुत्र, महान् तेजस्वी, जगत् को भय प्रदान करने वाले, वृष्टि करने वाले तथा वृष्टि का हरण करने वाले मंगल (ग्रहजन्य) मेरी पीड़ा का हरण करें ।।3।।
  4. बुध : जगत् में उत्पात करने वाले, महान द्युति से संपन्न, सूर्य का प्रिय करने वाले, विद्वान तथा चन्द्रमा के पुत्र बुध मेरी पीड़ा का निवारण करें ।।4।।
  5. गुरु : सर्वदा लोक कल्याण में निरत रहने वाले, देवताओं के मंत्री, विशाल नेत्रों वाले तथा अनेक शिष्यों से युक्त बृहस्पति मेरी पीड़ा को दूर करें ।।5।।
  6. शुक्र : दैत्यों के मंत्री और गुरु तथा उन्हें जीवनदान देने वाले, तारा ग्रहों के स्वामी, महान् बुद्धिसंपन्न शुक्र मेरी पीड़ा को दूर करें ।।6।।
  7. शनि : सूर्य के पुत्र, दीर्घ देह वाले, विशाल नेत्रों वाले, मंद गति से चलने वाले, भगवान् शिव के प्रिय तथा प्रसन्नात्मा शनि मेरी पीड़ा को दूर करें ।।7।।
  8. राहु : विविध रूप तथा वर्ण वाले, सैकड़ों तथा हजारों आंखों वाले, जगत के लिए उत्पातस्वरूप, तमोमय राहु मेरी पीड़ा का हरण करें ।।8।।
  9. केतु : महान शिरा (नाड़ी)- से संपन्न, विशाल मुख वाले, बड़े दांतों वाले, महान् बली, बिना शरीर वाले तथा ऊपर की ओर केश वाले शिखास्वरूप केतु मेरी पीड़ा का हरण करें।।9।।


Share:

श्री नृसिंहपञ्चामृतस्तोत्रम्



“हिरणा.किसना गोविन्दा प्रहलाद भजे“ के उद्घोष से समूचे वातावरण को गुंजायमान करते हुए आप सब को नरसिंह भगवान की जयंती की शुभकामनाये ...आज ही के दिन भगवान से इस सृष्टि पर अवतरित होकर हरी के द्रोही हिरनकश्यप का वध किया था ..



श्री नृसिंहपञ्चामृतस्तोत्रम्
(श्रीरामकृतम्)

अहॊबिलं नारसिंहं गत्वा रामः प्रतापवान् ।
नमस्कृत्वा श्रीनृसिंहं अस्तौषीत् कमलापतिम् ॥ १ ॥

गॊविन्द कॆशव जनार्दन वासुदॆव
विश्वॆश विश्व मधुसूदन विश्वरूप ।
श्री पद्मनाभ पुरुषोत्तम पुष्कराक्ष
नारायणाच्युत नृसिंह नमॊ नमस्तॆ ॥ २ ॥

देवाः समस्ताः खलु यॊगिमुख्याः
गन्धर्व विद्याधर किन्नराश्च ।
यत्पादमूलं सततं नमन्ति
तं नारसिंहं शरणं गतॊऽस्मि ॥ ३ ॥

वॆदान् समस्तान् खलु शास्त्रगर्भान्
विद्याबलॆ कीर्तिमतीं च लक्ष्मीम् ।
यस्य प्रसादात् सततं लभन्तॆ
तं नारसिंहं शरणं गतॊऽस्मि ॥ ४ ॥

ब्रह्मा शिवस्त्वं पुरुषॊत्तमश्च
नारायणॊऽसौ मरुतां पतिश्च ।
चन्द्रार्क वाय्वग्नि मरुद्गणाश्च
त्वमॆव तं त्वां सततं नतॊऽस्मि ॥ ५ ॥

स्वप्नॆऽपि नित्यं जगतां त्रयाणाम्
स्रष्टा च हन्ता विभुरप्रमॆयः ।
त्राता त्वमॆकस्त्रिविधॊ विभिन्नः
तं त्वां नृसिंहं सततं नतॊऽस्मि ॥ ६ ॥

राघवॆणकृतं स्तॊत्रं पञ्चामृतमनुत्तमम् ।
पठन्ति यॆ द्विजवराः तॆषां स्वर्गस्तु शाश्वतः ॥ ७ ॥


Share: