घर या दुकान में श्री गणेश की स्थापना करते वक़्त ध्यान रखे ये बातें



सभी देवी देवताओं में भगवान गणेश प्रथम पूजनीय माने जाते है। इसलिए घर हो या दुकान सभी जगह श्री गणेश की मूर्ति या फोटो रखी जाती है। वास्तु में भी भगवान गणेश का बहुत महत्व है। अगर भगवान गणेश की मूर्ति या तस्वीर से जुड़ी बातों का ध्यान रखा जाए तो घर के सभी वास्तु दोष खत्म हो जाते हैं। घर में हमेशा सुख-शांति और खुशहाली बनी रहती है। आइए जानते है भगवान श्री गणेश की मूर्ति या प्रतिमा स्थापित करते वक़्त किन बातों का ध्यान रखे –
  • दक्षिण दिशा की ओर न हो श्री गणेश का मुंह - श्रीगणेश की मूर्ति या तस्वीर लगाते समय इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखें कि भगवान का मुंह नैर्त्रत्य कोण यानी दक्षिण दिशा की ओर न हों। इससे घर-दूकान पर विपरीत प्रभाव पड़ता है।
  • किस जगह कैसी मूर्ति रखना होगा शुभ - घर में भगवान गणेश की बैठी मुद्रा में और दुकान या ऑफिस में खड़े गणपति की मूर्ति या तस्वीर रखना बहुत ही शुभ माना जाता है।
  • मूर्ति रखते समय ध्यान रखें ये बात - घर या दुकान में गणेश मूर्ति रखते समय ध्यान रखें की उनके दोनों पैर ज़मीन का स्पर्श करते हुए हों। इससे कामों में स्थिरता और सफलता आती है।
  • ख़ास होती है सिंदूरी रंग की प्रतिमा - सर्व मंगल की कामना करने वालों को सिंदूरी रंग के गणपति की आराधना करनी चाहिए। ऐसा करने से सभी मनोकामनाएं जल्दी पूरी होती है।
  • किस ओर हो श्रीगणेश की सूंड - श्रीगणेश की मूर्ति या चित्र में इस बात का ध्यान रखें की उनकी सूंड बाएं हाथ की और घुमी हुई हो। दाएं हाथ की और घुमी हुई सूंड वाले गणेश जी हठी होते हैं।
  • श्री गणेश के साथ जरूर हो ये दो चीज़ें - घर में श्री गणेश का चित्र लगाते समय ध्यान रखें कि चित्र में मोदक और चूहा अवश्य हो। इससे घर में बरकत रहती है।
  • मेन गेट पर इस तरह लगाएं श्रीगणेश की तस्वीर - घर के मेन गेट पर गणपति की दो मूर्ति या चित्र लगाने चाहिए। उन्हें ऐसे लगाएं कि दोनों गणेशजी की पीठ मिली रहे। ऐसा करने से सभी वास्तु दोष खत्म हो जाते है।
  • इस तरह कर सकते है वास्तु दोष का अंत - घर का जो हिस्सा वास्तु के अनुसार सही न हो, वहां घी मिश्रित सिंदूर से श्रीगणेश स्वरूप स्वास्तिक दीवार पर बनाने से वास्तु दोष का प्रभाव कम होने लगता है।
  • सुख-शांति के लिए घर लाए सफ़ेद मूर्ति - घर या दुकान में सुख-शांति, समृद्धि की इच्छा रखने वालों को सफ़ेद रंग के विनायक की मूर्ति या तस्वीर लगानी चाहिए।
  • घर में यहां जरूर लगाएं श्रीगणेश का चित्र - घर के ब्रह्म स्थान यानी केंद्र में और पूर्व दिशा में मंगलकारी श्री गणेश की मूर्ति या चित्र जरूर लगाना चाहिए। ऐसा करना बहुत ही शुभ माना जाता है।


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भगवान विष्णु के 24 अवतार (24 incarnations of Lord Vishnu)



हिन्दू धर्म के अनुसार विष्णु 'परमेश्वर' के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। भगवान विष्णु सृष्टि के पालन हार हैं। संपूर्ण विश्व श्री विष्णु की शक्ति से ही संचालित है। वे निर्गुण, निराकार तथा सगुण साकार सभी रूपों में व्याप्त हैं। ईश्वर के ताप के बाद जब जल की उत्पत्ति हुई तो सर्वप्रथम भगवान विष्णु का सगुण रूप प्रकट हुआ। विष्णु की सहचारिणी लक्ष्मी है। विष्णु की नाभि से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। आदित्य वर्ग के देवताओं में विष्णु श्रेष्ठ हैं। और भी कई विष्णु हैं। विष्णु का अर्थ- विष्णु के दो अर्थ है- पहला विश्व का अणु और दूसरा जो विश्व के कण-कण में व्याप्त है।

विष्णु की लीला: भगवान विष्णु के वैसे तो 24 अवतार है किंतु मुख्यतः: 10 अवतार को मान्यता है। विष्णु ने मधु कैटभ का वध किया था। सागर मंथन के दौरान उन्होंने ही मोहिनी का रूप धरा था। विष्णु द्वारा असुरेन्द्र जालंधर की स्त्री वृंदा का सतीत्व अपहरण किया गया था।

विष्णु का स्वरूप: क्षीर सागर में शेषनाग पर विराजमान भगवान विष्णु अपने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए होते हैं। उनके शंख को 'पाञ्चजन्य' कहा जाता है। चक्र को 'सुदर्शन', गदा को 'कौमोदकी' और मणि को 'कौस्तुभ' कहते हैं। किरीट, कुण्डलों से विभूषित, वनमाला तथा कौस्तुभमणि को धारण करने वाले, कमल नेत्र वाले भगवान श्रीविष्णु देवी लक्ष्मी के साथ निवास करते हैं।

विष्णु मंत्र: पहला मंत्र- ॐ नमो नारायण। श्री मन नारायण नारायण हरि हरि। दूसरा मंत्र- ॐ भूरिदा भूरि देहिनो, मा दभ्रं भूर्या भर। भूरि घेदिन्द्र दित्ससि। ॐ भूरिदा त्यसि श्रुत: पुरूत्रा शूर वृत्रहन्। आ नो भजस्व राधसि।

विष्णु का निवास: क्षीर सागर में। विष्णु पुराण के अनुसार यह पृथ्वी सात द्वीपों में बंटी हुई है- जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और पुष्करद्वीप। ये सातों द्वीप चारों ओर से सात समुद्रों से घिरे हैं। ये सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए बने हैं, और इन्हें घेरे हुए सातों समुद्र हैं। दुग्ध का सागर या क्षीर सागर शाकद्वीप को घेरे हुए है। इस सागर को पुष्कर द्वीप घेरे हुए है।

भगवान विष्णु के नाम: भगवान श्रीविष्णु ही नारायण कहे जाते हैं। वे ही श्रीहरि, गरुड़ध्वज, पीताम्बर, विष्वक्सेन, जनार्दन, उपेन्द्र, इन्द्रावरज, चक्रपाणि, चतुर्भुज, लक्ष्मीकांत, पद्मनाभ, मधुरिपु, त्रिविक्रम,शौरि, श्रीपति, पुरुषोत्तम, विश्वम्भर, कैटभजित, विधु, केशव, शालीग्राम आदि नामों से भी जाना जाता है।

विष्णु के अवतार: शास्त्रों में विष्णु के 24 अवतार बताए हैं, लेकिन प्रमुख दस अवतार माने जाते हैं- मतस्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बु‍द्ध और कल्कि। 24 अवतारों का क्रम निम्न है-1.आदि परषु, 2.चार सनतकुमार, 3.वराह, 4.नारद, 5.नर-नारायण, 6.कपिल, 7दत्तात्रेय, 8.याज्ञ, 9.ऋषभ, 10.पृथु, 11.मतस्य, 12.कच्छप, 13.धनवंतरी, 14.मोहिनी, 15.नृसिंह, 16.हयग्रीव, 17.वामन, 18.परशुराम, 19.व्यास, 20.राम, 21.बलराम, 22.कृष्ण, 23.बुद्ध और 24.कल्कि।


ऐसा कहा जाता है कि जब जब पृथ्वी पर कोई संकट आता है तो भगवान अवतार लेकर उस संकट को दूर करते है। भगवान शिव और भगवान विष्णु ने अनेको बार पृथ्वी पर अवतार लिया है। आज हम आपको भगवान विष्णु के 24 अवतारों के बारे में बताएँगे। इन में से 23 अवतार अब तक पृथ्वी पर अवतरित हो चुके है जबकि 24 वा अवतार 'कल्कि अवतार' के रूप में होना बाकी है। इन 24 अवतार में से 10 अवतार विष्णु जी के मुख्य अवतार माने जाते है। यह है मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, वराह अवतार, नृसिंह अवतार, वामन अवतार, परशुराम अवतार, राम अवतार. कृष्ण अवतार, बुद्ध अवतार, कल्कि अवतार। 

  1. श्री सनकादि मुनि - धर्म ग्रंथों के अनुसार सृष्टि के आरंभ में लोक पितामह ब्रह्मा ने अनेक लोकों की रचना करने की इच्छा से घोर तपस्या की। उनके तप से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तप अर्थ वाले सन नाम से युक्त होकर सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार नाम के चार मुनियों के रूप में अवतार लिया। ये चारों प्राकट्य काल से ही मोक्ष मार्ग परायण, ध्यान में तल्लीन रहने वाले, नित्य सिद्ध एवं नित्य विरक्त थे। ये भगवान विष्णु के सर्वप्रथम अवतार माने जाते हैं। 
  2. वराह अवतार - धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु ने दूसरा अवतार वराह रूप में लिया था। वराह अवतार से जुड़ी कथा इस प्रकार है- पुरातन समय में दैत्य हिरण्याक्ष ने जब पृथ्वी को ले जाकर समुद्र में छिपा दिया तब ब्रह्मा की नाक से भगवान विष्णु वराह रूप में प्रकट हुए। भगवान विष्णु के इस रूप को देखकर सभी देवताओं व ऋषि-मुनियों ने उनकी स्तुति की। सबके आग्रह पर भगवान वराह ने पृथ्वी को ढूंढना प्रारंभ किया। अपनी थूथनी की सहायता से उन्होंने पृथ्वी का पता लगा लिया और समुद्र के अंदर जाकर अपने दांतों पर रखकर वे पृथ्वी को बाहर ले आए। जब हिरण्याक्ष दैत्य ने यह देखा तो उसने भगवान विष्णु के वराह रूप को युद्ध के लिए ललकारा। दोनों में भीषण युद्ध हुआ। अंत में भगवान वराह ने हिरण्याक्ष का वध कर दिया। इसके बाद भगवान वराह ने अपने खुरों से जल को स्तंभित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया। 
  3. नारद अवतार - धर्म ग्रंथों के अनुसार देवर्षि नारद भी भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। शास्त्रों के अनुसार नारद मुनि, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से देवर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते हैं। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में देवर्षि नारद को भगवान का मन भी कहा गया है। श्रीमद्भागवतगीता के दशम अध्याय के 26वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है- देवर्षीणाम्चनारद:। अर्थात देवर्षियों में मैं नारद हूं। 
  4. नर-नारायण - सृष्टि के आरंभ में भगवान विष्णु ने धर्म की स्थापना के लिए दो रूपों में अवतार लिया। इस अवतार में वे अपने मस्तक पर जटा धारण किए हुए थे। उनके हाथों में हंस, चरणों में चक्र एवं वक्ष:स्थल में श्रीवत्स के चिन्ह थे। उनका संपूर्ण वेष तपस्वियों के समान था। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु ने नर-नारायण के रूप में यह अवतार लिया था। 
  5. कपिल मुनि - भगवान विष्णु ने पांचवा अवतार कपिल मुनि के रूप में लिया। इनके पिता का नाम महर्षि कर्दम व माता का नाम देवहूति था। शरशैया पर पड़े हुए भीष्म पितामह के शरीर त्याग के समय वेदज्ञ व्यास आदि ऋषियों के साथ भगवा कपिल भी वहां उपस्थित थे। भगवान कपिल के क्रोध से ही राजा सगर के साठ हजार पुत्र भस्म हो गए थे। भगवान कपिल सांख्य दर्शन के प्रवर्तक हैं। कपिल मुनि भागवत धर्म के प्रमुख बारह आचार्यों में से एक हैं। 
  6. दत्तात्रेय अवतार - धर्म ग्रंथों के अनुसार दत्तात्रेय भी भगवान विष्णु के अवतार हैं। इनकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है- एक बार माता लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती को अपने पातिव्रत्य पर अत्यंत गर्व हो गया। भगवान ने इनका अहंकार नष्ट करने के लिए लीला रची। उसके अनुसार एक दिन नारद जी घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों को बारी-बारी जाकर कहा कि ऋषि अत्रि की पत्नी अनुसूइया के सामने आपका सतीत्व कुछ भी नहीं। तीनों देवियों ने यह बात अपने स्वामियों को बताई और उनसे कहा कि वे अनुसूइया के पातिव्रत्य की परीक्षा लें।
    तब भगवान शंकर, विष्णु व ब्रह्मा साधु वेश बनाकर अत्रि मुनि के आश्रम आए। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। तीनों ने देवी अनुसूइया से भिक्षा मांगी मगर यह भी कहा कि आपको निर्वस्त्र होकर हमें भिक्षा देनी होगी। अनुसूइया पहले तो यह सुनकर चौंक गई, लेकिन फिर साधुओं का अपमान न हो इस डर से उन्होंने अपने पति का स्मरण किया और बोला कि यदि मेरा पातिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छ:-छ: मास के शिशु हो जाएं।
    ऐसा बोलते ही त्रिदेव शिशु होकर रोने लगे। तब अनुसूइया ने माता बनकर उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया और पालने में झूलाने लगीं। जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियां व्याकुल हो गईं। तब नारद ने वहां आकर सारी बात बताई। तीनों देवियां अनुसूइया के पास आईं और क्षमा मांगी। तब देवी अनुसूइया ने त्रिदेव को अपने पूर्व रूप में कर दिया। प्रसन्न होकर त्रिदेव ने उन्हें वरदान दिया कि हम तीनों अपने अंश से तुम्हारे गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ। 
  7. यज्ञ - भगवान विष्णु के सातवे अवतार का नाम यज्ञ है। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान यज्ञ का जन्म स्वायम्भुव मन्वन्तर में हुआ था। स्वायम्भुव मनु की पत्नी शतरूपा के गर्भ से आकूति का जन्म हुआ। वे रुचि प्रजापति की पत्नी हुई। इन्हीं आकूति के यहां भगवान विष्णु यज्ञ नाम से अवतरित हुए। भगवान यज्ञ के उनकी धर्मपत्नी दक्षिणा से अत्यंत तेजस्वी बारह पुत्र उत्पन्न हुए। वे ही स्वायम्भुव मन्वन्तर में याम नामक बारह देवता कहलाए। 
  8. भगवान ऋषभदेव - भगवान विष्णु ने ऋषभदेव के रूप में आठवा अवतार लिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार महाराज नाभि की कोई संतान नहीं थी। इस कारण उन्होंने अपनी धर्मपत्नी मेरुदेवी के साथ पुत्र की कामना से यज्ञ किया। यज्ञ से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और उन्होंने महाराज नाभि को वरदान दिया कि मैं ही तुम्हारे यहां पुत्र रूप में जन्म लूंगा। वरदान स्वरूप कुछ समय बाद भगवान विष्णु महाराज नाभि के यहां पुत्र रूप में जन्मे। पुत्र के अत्यंत सुंदर सुगठित शरीर, कीर्ति, तेल, बल, ऐश्वर्य, यश, पराक्रम और शूरवीरता आदि गुणों को देखकर महाराज नाभि ने उसका नाम ऋषभ (श्रेष्ठ) रखा। 
  9. आदिराज पृथु - भगवान विष्णु के एक अवतार का नाम आदिराज पृथु है। धर्म ग्रंथों के अनुसार स्वायम्भुव मनु के वंश में अंग नामक प्रजापति का विवाह मृत्यु की मानसिक पुत्री सुनीथा के साथ हुआ। उनके यहां वेन नामक पुत्र हुआ। उसने भगवान को मानने से इंकार कर दिया और स्वयं की पूजा करने के लिए कहा। तब महर्षियों ने मंत्र पूत कुशों से उसका वध कर दिया। तब महर्षियों ने पुत्रहीन राजा वेन की भुजाओं का मंथन किया, जिससे पृथु नाम पुत्र उत्पन्न हुआ। पृथु के दाहिने हाथ में चक्र और चरणों में कमल का चिह्न देखकर ऋषियों ने बताया कि पृथु के वेष में स्वयं श्रीहरि का अंश अवतरित हुआ है। 
  10. मत्स्य अवतार - पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु ने सृष्टि को प्रलय से बचाने के लिए मत्स्यावतार लिया था। इसकी कथा इस प्रकार है- कृतयुग के आदि में राजा सत्यव्रत हुए। राजा सत्यव्रत एक दिन नदी में स्नान कर जलांजलि दे रहे थे। अचानक उनकी अंजलि में एक छोटी सी मछली आई। उन्होंने देखा तो सोचा वापस सागर में डाल दूं, लेकिन उस मछली ने बोला- आप मुझे सागर में मत डालिए अन्यथा बड़ी मछलियां मुझे खा जाएंगी। तब राजा सत्यव्रत ने मछली को अपने कमंडल में रख लिया। मछली और बड़ी हो गई तो राजा ने उसे अपने सरोवर में रखा, तब देखते ही देखते मछली और बड़ी हो गई।
    राजा को समझ आ गया कि यह कोई साधारण जीव नहीं है। राजा ने मछली से वास्तविक स्वरूप में आने की प्रार्थना की। राजा की प्रार्थना सुन साक्षात चार भुजाधारी भगवान विष्णु प्रकट हो गए और उन्होंने कहा कि ये मेरा मत्स्यावतार है। भगवान ने सत्यव्रत से कहा- सुनो राजा सत्यव्रत! आज से सात दिन बाद प्रलय होगी। तब मेरी प्रेरणा से एक विशाल नाव तुम्हारे पास आएगी। तुम सप्त ऋषियों, औषधियों, बीजों व प्राणियों के सूक्ष्म शरीर को लेकर उसमें बैठ जाना, जब तुम्हारी नाव डगमगाने लगेगी, तब मैं मत्स्य के रूप में तुम्हारे पास आऊंगा।
    उस समय तुम वासुकि नाग के द्वारा उस नाव को मेरे सींग से बांध देना। उस समय प्रश्न पूछने पर मैं तुम्हें उत्तर दूंगा, जिससे मेरी महिमा जो परब्रह्म नाम से विख्यात है, तुम्हारे हृदय में प्रकट हो जाएगी। तब समय आने पर मत्स्य रूप धारी भगवान विष्णु ने राजा सत्यव्रत को तत्वज्ञान का उपदेश दिया, जो मत्स्यपुराण नाम से प्रसिद्ध है। 
  11. कूर्म अवतार - धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुए) का अवतार लेकर समुद्र मंथन में सहायता की थी। भगवान विष्णु के कूर्म अवतार को कच्छप अवतार भी कहते हैं। इसकी कथा इस प्रकार है- एक बार महर्षि दुर्वासा ने देवताओं के राजा इंद्र को श्राप देकर श्रीहीन कर दिया। इंद्र जब भगवान विष्णु के पास गए तो उन्होंने समुद्र मंथन करने के लिए कहा। तब इंद्र भगवान विष्णु के कहे अनुसार दैत्यों व देवताओं के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने के लिए तैयार हो गए। समुद्र मंथन करने के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी एवं नागराज वासुकि को नेती बनाया गया। देवताओं और दैत्यों ने अपना मतभेद भुलाकर मंदराचल को उखाड़ा और उसे समुद्र की ओर ले चले, लेकिन वे उसे अधिक दूर तक नहीं ले जा सके। तब भगवान विष्णु ने मंदराचल को समुद्र तट पर रख दिया। देवता और दैत्यों ने मंदराचल को समुद्र में डालकर नागराज वासुकि को नेती बनाया। किंतु मंदराचल के नीचे कोई आधार नहीं होने के कारण वह समुद्र में डूबने लगा। यह देखकर भगवान विष्णु विशाल कूर्म (कछुए) का रूप धारण कर समुद्र में मंदराचल के आधार बन गए। भगवान कूर्म की विशाल पीठ पर मंदराचल तेजी से घुमने लगा और इस प्रकार समुद्र मंथन संपन्न हुआ।  
  12. भगवान धन्वन्तरि - धर्म ग्रंथों के अनुसार जब देवताओं व दैत्यों ने मिलकर समुद्र मंथन किया तो उसमें से सबसे पहले भयंकर विष निकला जिसे भगवान शिव ने पी लिया। इसके बाद समुद्र मंथन से उच्चैश्रवा घोड़ा, देवी लक्ष्मी, ऐरावत हाथी, कल्प वृक्ष, अप्सराएं और भी बहुत से रत्न निकले। सबसे अंत में भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। यही धन्वन्तरि भगवान विष्णु के अवतार माने गए हैं। इन्हें औषधियों का स्वामी भी माना गया है।
  13. मोहिनी अवतार - पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के मोहनी अवतार की कथा इस प्रकार है- धर्म ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान सबसे अंत में धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर निकले। जैसे ही अमृत मिला अनुशासन भंग हुआ। देवताओं ने कहा हम ले लें, दैत्यों ने कहा हम ले लें। इसी खींचातानी में इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। सारे दैत्य व देवता भी उसके पीछे भागे। असुरों व देवताओं में भयंकर मार-काट मच गई।
    देवता परेशान होकर भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लिया। भगवान ने मोहिनी रूप में सबको मोहित कर दिया किया। मोहिनी ने देवता व असुर की बात सुनी और कहा कि यह अमृत कलश मुझे दे दीजिए तो मैं बारी-बारी से देवता व असुर को अमृत का पान करा दूंगी। दोनों मान गए। देवता एक तरफ तथा असुर दूसरी तरफ बैठ गए। फिर मोहिनी रूप धरे भगवान विष्णु ने मधुर गान गाते हुए तथा नृत्य करते हुए देवता व असुरों को अमृत पान कराना प्रारंभ किया । वास्तविकता में मोहिनी अमृत पान तो सिर्फ देवताओं को ही करा रही थी, जबकि असुर समझ रहे थे कि वे भी अमृत पी रहे हैं। इस प्रकार भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार लेकर देवताओं का भला किया।
  14. भगवान नृसिंह - पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार की कथा इस प्रकार है-  भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर दैत्यों के राजा हिरण्यकशिपु का वध किया था। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- धर्म ग्रंथों के अनुसार दैत्यों का राजा हिरण्यकशिपु स्वयं को भगवान से भी अधिक बलवान मानता था। उसे मनुष्य, देवता, पक्षी, पशु, न दिन में, न रात में, न धरती पर, न आकाश में, न अस्त्र से, न शस्त्र से मरने का वरदान प्राप्त था। उसके राज में जो भी भगवान विष्णु की पूजा करता था उसको दंड दिया जाता था। उसके पुत्र का नाम प्रहलाद था। प्रह्लाद बचपन से ही भगवान विष्णु का परम भक्त था। यह बात जब हिरण्यकशिपु का पता चली तो वह बहुत क्रोधित हुआ और प्रह्लाद को समझाने का प्रयास किया, लेकिन फिर भी जब प्रह्लाद नहीं माना तो हिरण्यकशिपु ने उसे मृत्युदंड दे दिया।
    हर बार भगवान विष्णु के चमत्कार से वह बच गया। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका, जिसे अग्नि से न जलने का वरदान प्राप्त था, वह प्रह्लाद को लेकर धधकती हुई अग्नि में बैठ गई। तब भी भगवान विष्णु की कृपा से प्रहलाद बच गया और होलिका जल गई। जब हिरण्यकशिपु स्वयं प्रह्लाद को मारने ही वाला था तब भगवान विष्णु नरसिंह का अवतार लेकर खंबे से प्रकट हुए और उन्होंने अपने नाखूनों से हिरण्यकशिपु का वध कर दिया। 
  15. वामन अवतार - सतयुग में प्रहलाद के पौत्र दैत्यराज बलि ने स्वर्गलोक पर अधिकार कर लिया। सभी देवता इस विपत्ति से बचने के लिए भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने कहा कि मैं स्वयं देवमाता अदिति के गर्भ से उत्पन्न होकर तुम्हें स्वर्ग का राज्य दिलाऊंगा। कुछ समय पश्चात भगवान विष्णु ने वामन अवतार लिया। एक बार जब बलि महान यज्ञ कर रहा था तब भगवान वामन बलि की यज्ञशाला में गए और राजा बलि से तीन पग धरती दान में मांगी। राजा बलि के गुरु शुक्राचार्य भगवान की लीला समझ गए और उन्होंने बलि को दान देने से मना कर दिया। लेकिन बलि ने फिर भी भगवान वामन को तीन पग धरती दान देने का संकल्प ले लिया। भगवान वामन ने विशाल रूप धारण कर एक पग में धरती और दूसरे पग में स्वर्ग लोक नाप लिया। जब तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान नहीं बचा तो बलि ने भगवान वामन को अपने सिर पर पग रखने को कहा। बलि के सिर पर पग रखने से वह सुतललोक पहुंच गया। बलि की दानवीरता देखकर भगवान ने उसे सुतललोक का स्वामी भी बना दिया। इस तरह भगवान वामन ने देवताओं की सहायता कर उन्हें स्वर्ग पुन: लौटाया। 
  16. हयग्रीव अवतार - धर्म ग्रंथों के अनुसार एक बार मधु और कैटभ नाम के दो शक्तिशाली राक्षस ब्रह्माजी से वेदों का हरण कर रसातल में पहुंच गए। वेदों का हरण हो जाने से ब्रह्माजी बहुत दु:खी हुए और भगवान विष्णु के पास पहुंचे। तब भगवान ने हयग्रीव अवतार लिया। इस अवतार में भगवान विष्णु की गर्दन और मुख घोड़े के समान थी। तब भगवान हयग्रीव रसातल में पहुंचे और मधु-कैटभ का वध कर वेद पुन: भगवान ब्रह्मा को दे दिए। 
  17. श्रीहरि अवतार - धर्म ग्रंथों के अनुसार प्राचीन समय में त्रिकूट नामक पर्वत की तराई में एक शक्तिशाली गजेंद्र अपनी हथिनियों के साथ रहता था। एक बार वह अपनी हथिनियों के साथ तालाब में स्नान करने गया। वहां एक मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया और पानी के अंदर खींचने लगा। गजेंद्र और मगरमच्छ का संघर्ष एक हजार साल तक चलता रहा। अंत में गजेंद्र शिथिल पड़ गया और उसने भगवान श्री हरि का ध्यान किया। गजेंद्र की स्तुति सुनकर भगवान श्रीहरि प्रकट हुए और उन्होंने अपने चक्र से मगरमच्छ का वध कर दिया। भगवान श्री हरि ने गजेंद्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया। 
  18. परशुराम अवतार - हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के प्रमुख अवतारों में से एक थे। भगवान परशुराम के जन्म के संबंध में दो कथाएं प्रचलित हैं। हरिवंश पुराण के अनुसार उन्हीं में से एक कथा इस प्रकार है- प्राचीन समय में महिष्मती नगरी पर शक्तिशाली हैययवंशी क्षत्रिय कार्तवीर्य अर्जुन(सहस्त्रबाहु) का शासन था। वह बहुत अभिमानी था और अत्याचारी भी। एक बार अग्निदेव ने उससे भोजन कराने का आग्रह किया। तब सहस्त्रबाहु ने घमंड में आकर कहा कि आप जहां से चाहें, भोजन प्राप्त कर सकते हैं, सभी ओर मेरा ही राज है। तब अग्निदेव ने वनों को जलाना शुरु किया। एक वन में ऋषि आपव तपस्या कर रहे थे। अग्नि ने उनके आश्रम को भी जला डाला। इससे क्रोधित होकर ऋषि ने सहस्त्रबाहु को श्राप दिया कि भगवान विष्णु, परशुराम के रूप में जन्म लेंगे और न सिर्फ सहस्त्रबाहु का नहीं बल्कि समस्त क्षत्रियों का सर्वनाश करेंगे। इस प्रकार भगवान विष्णु ने भार्गव कुल में महर्षि जमदग्रि के पांचवें पुत्र के रूप में जन्म लिया। 
  19. महर्षि वेदव्यास - पुराणों में महर्षि वेदव्यास को भी भगवान विष्णु का ही अंश माना गया है। भगवान व्यास नारायण के कलावतार थे। वे महाज्ञानी महर्षि पराशर के पुत्र रूप में प्रकट हुए थे। उनका जन्म कैवर्तराज की पोष्यपुत्री सत्यवती के गर्भ से यमुना के द्वीप पर हुआ था। उनके शरीर का रंग काला था। इसलिए उनका एक नाम कृष्णद्वैपायन भी था। इन्होंने ही मनुष्यों की आयु और शक्ति को देखते हुए वेदों के विभाग किए। इसलिए इन्हें वेदव्यास भी कहा जाता है। इन्होंने ही महाभारत ग्रंथ की रचना भी की। 
  20. हंस अवतार - एक बार भगवान ब्रह्मा अपनी सभा में बैठे थे। तभी वहां उनके मानस पुत्र सनकादि पहुंचे और भगवान ब्रह्मा से मनुष्यों के मोक्ष के संबंध में चर्चा करने लगे। तभी वहां भगवान विष्णु महा हंस के रूप में प्रकट हुए और उन्होंने सनकादि मुनियों के संदेह का निवारण किया। इसके बाद सभी ने भगवान हंस की पूजा की। इसके बाद महा हंस रूपधारी श्री भगवान अदृश्य होकर अपने पवित्र धाम चले गए। 
  21. श्रीराम अवतार - त्रेतायुग में राक्षसराज रावण का बहुत आतंक था। उससे देवता भी डरते थे। उसके वध के लिए भगवान विष्णु ने राजा दशरथ के यहां माता कौशल्या के गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लिया। इस अवतार में भगवान विष्णु ने अनेक राक्षसों का वध किया और मर्यादा का पालन करते हुए अपना जीवन यापन किया। पिता के कहने पर वनवास गए। वनवास भोगते समय राक्षसराज रावण उनकी पत्नी सीता का हरण कर ले गया। सीता की खोज में भगवान लंका पहुंचे, वहां भगवान श्रीराम और रावण का घोर युद्ध जिसमें रावण मारा गया। इस प्रकार भगवान विष्णु ने राम अवतार लेकर देवताओं को भय मुक्त किया। 
  22. श्रीकृष्ण अवतार - द्वापरयुग में भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण अवतार लेकर अधर्मियों का नाश किया। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म कारागार में हुआ था। इनके पिता का नाम वसुदेव और माता का नाम देवकी था। भगवान श्रीकृष्ण ने इस अवतार में अनेक चमत्कार किए और दुष्टों का सर्वनाश किया। कंस का वध भी भगवान श्रीकृष्ण ने ही किया। महाभारत के युद्ध में अर्जुन के सारथि बने और दुनिया को गीता का ज्ञान दिया। धर्मराज युधिष्ठिर को राजा बना कर धर्म की स्थापना की। भगवान विष्णु का ये अवतार सभी अवतारों में सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
  23. बुद्ध अवतार - धर्म ग्रंथों के अनुसार बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध भी भगवान विष्णु के ही अवतार थे परंतु पुराणों में वर्णित भगवान बुद्धदेव का जन्म गया के समीप कीकट में हुआ बताया गया है और उनके पिता का नाम अजन बताया गया है। यह प्रसंग पुराण वर्णित बुद्धावतार का ही है।
    एक समय दैत्यों की शक्ति बहुत बढ़ गई। देवता भी उनके भय से भागने लगे। राज्य की कामना से दैत्यों ने देवराज इंद्र से पूछा कि हमारा साम्राज्य स्थिर रहे, इसका उपाय क्या है। तब इंद्र ने शुद्ध भाव से बताया कि सुस्थिर शासन के लिए यज्ञ एवं वेद विहित आचरण आवश्यक है। तब दैत्य वैदिक आचरण एवं महायज्ञ करने लगे, जिससे उनकी शक्ति और बढऩे लगी। तब सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। तब भगवान विष्णु ने देवताओं के हित के लिए बुद्ध का रूप धारण किया। उनके हाथ में मार्जनी थी और वे मार्ग को बुहारते हुए चलते थे। इस प्रकार भगवान बुद्ध दैत्यों के पास पहुंचे और उन्हें उपदेश दिया कि यज्ञ करना पाप है। यज्ञ से जीव हिंसा होती है। यज्ञ की अग्नि से कितने ही प्राणी भस्म हो जाते हैं। भगवान बुद्ध के उपदेश से दैत्य प्रभावित हुए। उन्होंने यज्ञ व वैदिक आचरण करना छोड़ दिया। इसके कारण उनकी शक्ति कम हो गई और देवताओं ने उन पर हमला कर अपना राज्य पुन: प्राप्त कर लिया। 
  24. कल्कि अवतार - धर्म ग्रंथों के अनुसार कलयुग में भगवान विष्णु कल्कि रूप में अवतार लेंगे। कल्कि अवतार कलियुग व सतयुग के संधिकाल में होगा। यह अवतार 64 कलाओं से युक्त होगा। पुराणों के अनुसार उत्तरप्रदेश के मुरादाबाद जिले के शंभल नामक स्थान पर विष्णुयशा नामक तपस्वी ब्राह्मण के घर भगवान कल्कि पुत्र रूप में जन्म लेंगे। कल्कि देवदत्त नामक घोड़े पर सवार होकर संसार से पापियों का विनाश करेंगे और धर्म की पुनःस्थापना करेंगे।


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शास्त्रोक्त धर्म




स्वयम्भू मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो , दशकं धर्म लक्षणम् ॥
( धृति (धैर्य) , क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना) , दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना) , अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरङ्ग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग) , विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा) , सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ न करना चाहिये - यह धर्म की कसौटी है।

श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि , परेषां न समाचरेत् ॥
(धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये । )



धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः ।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यः मानो धर्मो हतोवाधीत् ॥
(धर्म उसका नाश करता है जो उसका (धर्म का ) नाश करता है | धर्म उसका रक्षण करता है जो उसके रक्षणार्थ प्रयास करता है | अतः धर्म का नाश नहीं करना चाहिए | ध्यान रहे धर्म का नाश करने वाले का नाश, अवश्यंभावी है।)

इन लेखो का भी अवलोकन करें 


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अमरूद के औषधीय प्रयोग



अमरूद भ्रम, मूर्च्छा, कृमि, तृषा, शोष, श्रम तथा जलन (दाह) नाशक है। गर्मी के तमाम रोगों में जामफल खाना हितकारी है। यह शक्तिदायक, सत्त्वगुणी एवं बुद्धिवर्धक है, अतः बुद्धिजीवियों के लिए हितकर हैं। अमरूद एक बहुत ही मीठा, स्वादिष्ट, रसीला एवं पौष्टिक फल है। अमरूद को अफ्रीका का सेब भी कहा जाता है। अमरूद का पका हुआ फल खाने में उपयोग किया जाता है, कच्चे फलों को उसके तीखे स्वाद के कारण खाया नहीं जाता है। अमरूद में संतरा व नींबू की तुलना में 4 से 10 गुना अधिक विटामिन-सी पाया जाता है।

अमरूद का वैज्ञानिक नाम सिडियम गुआवा (Psidium guajava) है। कई लोगों का मानना है कि एक अमरूद को कभी बांटना नहीं चाहिए। अगर कोई व्यक्ति एक अमरूद खा रहा है, तो उसे पूरा खाना दें। ऐसा माना जाता है कि पूरे अमरूद में एक बीज ऐसा होता है, जो इम्युनिटी सिस्टम को बेहतर करता है और सर्दी -जुकाम से बचाता है। हालांकि, अमरूद से इम्युनिटी सिस्टम बेहतर होने की बात तो ठीक है, लेकिन बीज वाली बात का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

अमरूद कई तरह के होते हैं, जैसे – अमरूद सेब (apple guava), इलाहाबादी सफेदा अमरूद, लाल गूदेवाला, चित्तीदार आदि। सिर्फ किस्में ही नहीं, बल्कि अमरूद के अलग-अलग भाषा में नाम भी अलग-अलग हैं, जैसे – अंग्रेजी में गुआवा (guava), बंगाली में पेयारा व मराठी में पेरू आदि। आइये जानते है अमरूद के औषधीय गुण:-

शक्ति (ताकत) और वीर्य की वृद्धि के लिए
  • अच्छी तरह पके नरम, मीठे अमरूदों को मसलकर दूध में फेंट लें और फिर छानकर इनके बीज निकाल लें। आवश्यकतानुसार शक्कर मिलाकर सुबह नियमित रूप से 21 दिन सेवन करना धातुवर्द्धक होता है।
पेट दर्द
  • नमक के साथ पके अमरूद खाने से आराम मिलता है।
  • अमरूद के पेड़ के कोमल 50 ग्राम पत्तों को पीसकर पानी में मिलाकर छानकर पीने से लाभ होगा।
  • अमरूद के पेड़ की पत्तियों को बारीक पीसकर काले नमक के साथ चाटने से लाभ होता है।
  • अमरूद के फल की फुगनी (अमरूद के फल के नीचे वाले छोटे पत्ते) में थोड़ा-सी मात्रा में सेंधानमक को मिलाकर गुनगुने पानी के साथ पीने से पेट में दर्द समाप्त होता है।
  • यदि पेट दर्द की शिकायत हो तो अमरूद की कोमल पित्तयों को पीसकर पानी में मिलाकर पीने से आराम होता है। अपच, अग्निमान्द्य और अफारा के लिए अमरूद बहुत ही उत्तम औषधि है। इन रोगों से पीड़ित व्यक्तियों को 250 ग्राम अमरूद भोजन करने के बाद खाना चाहिए। जिन लोगों को कब्ज न हो तो उन्हें खाना खाने से पहले खाना चाहिए।
अमरूद खाने के लाभ बताइए

बवासीर (पाइल्स)
  • सुबह खाली पेट 200-300 ग्राम अमरूद नियमित रूप से सेवन करने से बवासीर में लाभ मिलता है।
  • पके अमरुद खाने से पेट का कब्ज खत्म होता है, जिससे बवासीर रोग दूर हो जाता है।
  • कुछ दिनों तक रोजाना सुबह खाली पेट 250 ग्राम अमरूद खाने से बवासीर ठीक हो जाती है। बवासीर को दूर करने के लिए सुबह खाली पेट अमरूद खाना उत्तम है।
  • मल-त्याग करते समय बांयें पैर पर जोर देकर बैठें। इस प्रयोग से बवासीर नहीं होती है और मल साफ आता है।"
सूखी खांसी
  • गर्म रेत में अमरूद को भूनकर खाने से सूखी, कफयुक्त और काली खांसी में आराम मिलता है। यह प्रयोग दिन में तीन बार करें।
  • एक बड़ा अमरूद लेकर उसके गूदे को निकालकर अमरूद के अंदर थोड़ी-सी जगह बनाकर अमरूद में पिसी हुई अजवायन तथा पिसा हुआ कालानमक 6-6 ग्राम की मात्रा में भर देते हैं। इसके बाद अमरूद में कपड़ा भरकर ऊपर से मिट्टी चढ़ाकर तेज गर्म उपले की राख में भूने, अमरूद के भुन जाने पर मिट्टी और कपड़ा हटाकर अमरूद पीसकर छान लेते हैं। इसे आधा-आधा ग्राम शहद में मिलाकर सुबह-शाम मिलाकर चाटने से सूखी खांसी में लाभ होता है।"
अमरूद खाने के फायदे बताएं

दांतों का दर्द
  • अमरूद की कोमल पत्तियों को चबाने से दांतों की पीड़ा (दर्द) नष्ट हो जाती है।
  • अमरूद के पत्तों को दांतों से चबाने से आराम मिलेगा।
  • अमरूद के पत्तों को जल में उबाल लें। इसे जल में फिटकरी घोलकर कुल्ले करने से दांतों की पीड़ा (दर्द) नष्ट हो जाती है।
  • अमरूद के पत्तों को चबाने से दांतों की पीड़ा दूर होती है। मसूढ़ों में दर्द, सूजन और दातों में दर्द होने पर अमरूद के पत्तों को उबालकर गुनगुने पानी से कुल्ले करें।"
आधाशीशी (आधे सिर का दर्द)
  • आधे सिर के दर्द में कच्चे अमरूद को सुबह पीसकर लेप बनाएं और उसे मस्तक पर लगाएं।
  • सूर्योदय के पूर्व ही सवेरे हरे कच्चे अमरूद को पत्थर पर घिसकर जहां दर्द होता है, वहां खूब अच्छी तरह लेप कर देने से सिर दर्द नहीं उठने पाता, अगर दर्द शुरू हो गया हो तो शांत हो जाता है। यह प्रयोग दिन में 3-4 बार करना चाहिए।"

अमरूद खाने के फायदे बताएं
जुकाम
  • रुके हुए जुकाम को दूर करने के लिए बीज निकला हुआ अमरूद खाएं और ऊपर से नाक बंदकर 1 गिलास पानी पी लें। जब 2-3 दिन के प्रयोग से स्राव (बहाव) बढ़ जाए, तो उसे रोकने के लिए 50-100 ग्राम गुड़ खा लें। ध्यान रहे- कि बाद में पानी न पिएं। सिर्फ 3 दिन तक लगातार अमरूद खाने से पुरानी सर्दी और जुकाम दूर हो जाती है।
  • लंबे समय से रुके हुए जुकाम में रोगी को एक अच्छा बड़ा अमरूद के अंदर से बीजों को निकालकर रोगी को खिला दें और ऊपर से ताजा पानी नाक बंद करके पीने को दें। 2-3 दिन में ही रुका हुआ जुकाम बहार साफ हो जायेगा। 2-3 दिन बाद अगर नाक का बहना रोकना हो तो 50 ग्राम गुड़ रात में बिना पानी पीयें खा लें"
मलेरिया
  • मलेरिया बुखार में अमरूद का सेवन लाभकारी है। नियमित सेवन से तिजारा और चौथिया ज्वर में भी आराम मिलता है।
  • अमरूद और सेब का रस पीने से बुखार उतर जाता है।
  • अमरूद को खाने से मलेरिया में लाभ होता है।"
भांग का नशा
  • 2-4 अमरूद खाने से अथवा अमरूद के पत्तों का 25 ग्राम रस पीने से भांग का नशा उतर जाता है।

मानसिक उन्माद (पागलपन)
  • सुबह खाली पेट पके अमरूद चबा-चबाकर खाने से मानसिक चिंताओं का भार कम होकर धीरे-धीरे पागलपन के लक्षण दूर हो जाते हैं और शरीर की गर्मी निकल जाती है।
  • 250 ग्राम इलाहाबादी मीठे अमरूद को रोजाना सुबह और शाम को 5 बजे नींबू, कालीमिर्च और नमक स्वाद के अनुसार अमरूद पर डालकर खा सकते हैं। इस तरह खाने से दिमाग की मांस-पेशियों को शक्ति मिलती है, गर्मी निकल जाती है, और पागलपन दूर हो जाता है। दिमागी चिंताएं अमरूद खाने से खत्म हो जाती हैं।"
पेट में गड़-बड़ी होने पर
  • अमरूद की कोंपलों को पीसकर पिलाना चाहिए।
ठंडक के लिए
  • अमरूद के बीजों को निकालकर पीसें और लड्डू बनाकर गुलाब जल में शक्कर के साथ पियें।
अमरूद का मुरब्बा
  • अच्छी किस्म के तरोताजा बड़े-बड़े अमरूद लेकर उसके छिलकों को निकालकर टुकड़े कर लें और धीमी आग पर पानी में उबालें। जब अमरूद आधे पककर नरम हो जाएं, तब नीचे उतारकर कपड़े में डालकर पानी निकाल लें। उसके बाद उससे 3 गुना शक्कर लेकर उसकी चासनी बनायें और अमरूद के टुकड़े उसमें डाल दें। फिर उसमें इलायची के दानों का चूर्ण और केसर इच्छानुसार डालकर मुरब्बा बनायें। ठंडा होने पर इस मुरब्बे को चीनी-मिट्टी के बर्तन में भरकर, उसका मुंह बंद करके थोड़े दिन तक रख छोड़े। यह मुरब्बा 20-25 ग्राम की मात्रा में रोजाना खाने से कोष्ठबद्धता (कब्जियत) दूर होती है।
आंखों के लिए
  • अमरूद के पत्तों की पोटली बनाकर रात को सोते समय आंख पर बांधने से आंखों का दर्द ठीक हो जाता है। आंखों की लालिमा, आंख की सूजन और वेदना तुरंत मिट जाती है।
  • अमरूद के पत्तों की पुल्टिस (पोटली) बनाकर आंखों पर बांधने से आंखों की सूजन, आंखे लाल होना और आंखों में दर्द करना आदि रोग दूर होते हैं।


अमरूद खाने के फायदे बताएं
कब्ज
  • 250 ग्राम अमरूद खाकर ऊपर से गर्म दूध पीने से कब्ज दूर होती है।
  • अमरूद के कोमल पत्तों के 10 ग्राम रस में थोड़ी शक्कर मिलाकर प्रतिदिन केवल एक बार सुबह सेवन करने से 7 दिन में अजीर्ण (पुरानी कब्ज) में लाभ होता है।
  • अमरूद को नाश्ते के समय काली मिर्च, काला नमक, अदरक के साथ खाने से अजीर्ण, गैस, अफारा (पेट फूलना) की तकलीफ दूर होकर भूख बढ़ जाएगी। नाश्ते में अमरूद का सेवन करें। सख्त कब्ज में सुबह-शाम अमरूद खाएं।
  • अमरूद को कुछ दिनों तक नियमित सेवन करने से 3-4 दिन में ही मल शुद्धि होने लग जाती है। कोष्ठबद्धता मिटती है एवं कब्जियत के कारण होने वाला आंखों की जलन और सिर दर्द भी दूर होता है।
  • अमरूद खाने से आंतों में तरावट आती है और कब्ज दूर हो जाता है। इसे खाना खाने से पहले ही खाना चाहिए, क्योंकि खाना खाने के बाद खाने से कब्ज करता है। कब्ज वालों को सुबह के समय नाश्ते में अमरूद लेना चाहिए। पुरानी कब्ज के रोगियों को सुबह और शाम अमरूद खाना चाहिए। इससे पेट साफ हो जाता है।
  • अमरूद खाने से या अमरूद के साथ किशमिश के खाने से कब्ज की शिकायत नहीं रहती है।
कुकर खांसी, काली खांसी (हूपिंग कफ)
  • एक अमरूद को भूभल (गर्म रेत या राख) में सेंककर खाने से कुकर खांसी में लाभ होता है। छोटे बच्चों को अमरूद पीसकर अथवा पानी में घोलकर पिलाना चाहिए। अमरूद पर नमक और कालीमिर्च लगाकर खाने से कफ निकल जाती है। 100 ग्राम अमरूद में विटामिन-सी लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग से लगभग आधा ग्राम तक होता है। यह हृदय को बल देता है। अमरूद खाने से आंतों में तरावट आती है। कब्ज से ग्रस्त रोगियों को नाश्ते में अमरूद लेना चाहिए। पुरानी कब्ज के रोगियों को सुबह-शाम अमरूद खाना चाहिए। इससे दस्त साफ आएगा, अजीर्ण और गैस दूर होगी। अमरूद को सेंधानमक के साथ खाने से पाचन शक्ति बढ़ती है।
  • एक कच्चे अमरूद को लेकर चाकू से कुरेदकर उसका थोड़ा-सा गूदा निकाल लेते हैं। फिर इस अमरूद में पिसी हुई अजवायन तथा पिसा हुआ कालानमक 6-6 ग्राम की मात्रा में लेकर भर देते हैं। इसके बाद अमरूद पर कपड़ा लपेटकर उसमें गीली मिट्टी का लेप चढ़ाकर आग में भून लेते हैं पकने के बाद इसके ऊपर से मिट्टी और कपड़ा हटाकर अमरूद को पीस लेते हैं। इसे आधा-आधा ग्राम की मात्रा में शहद के साथ मिलाकर सुबह-शाम रोगी को चटाने से काली खांसी में लाभ होता है।
  • एक अमरूद को गर्म बालू या राख में सेंककर सुबह-शाम 2 बार खाने से काली खांसी ठीक हो जाती है।

रक्तविकार के कारण फोड़े-फुन्सियों का होना
  • 4 सप्ताह तक नित्य प्रति दोपहर में 250 ग्राम अमरूद खाएं। इससे पेट साफ होगा, बढ़ी हुई गर्मी दूर होगी, रक्त साफ होगा और फोड़े-फुन्सी, खाज-खुजली ठीक हो जाएगी।

पुरानी सर्दी
  • 3 दिनों तक केवल अमरूद खाकर रहने से बहुत पुरानी सर्दी की शिकायत दूर हो जाती है।
पुराने दस्त
  • अमरूद की कोमल पित्तयां उबालकर पीने से पुराने दस्तों का रोग ठीक हो जाता है। दस्तों में आंव आती रहे, आंतों में सूजन आ जाए, घाव हो जाए तो 2-3 महीने लगातार 250 ग्राम अमरूद रोजाना खाते रहने से दस्तों में लाभ होता है। अमरूद में-टैनिक एसिड होता है, जिसका प्रधान काम घाव भरना है। इससे आंतों के घाव भरकर आंते स्वस्थ हो जाती हैं।
कफयुक्त खांसी
  • एक अमरूद को आग में भूनकर खाने से कफयुक्त खांसी में लाभ होता है।

मस्तिष्क विकार
  • अमरूद के पत्तों का फांट मस्तिष्क विकार, वृक्क प्रवाह और शारीरिक एवं मानसिक विकारों में प्रयोग किया जाता है।

आक्षेपरोग
  • अमरूद के पत्तों के रस या टिंचर को बच्चों की रीढ़ की हड्डी पर मालिश करने से उनका आक्षेप का रोग दूर हो जाता है।
हृदय
  • अमरूद के फलों के बीज निकालकर बारीक-बारीक काटकर शक्कर के साथ धीमी आंच पर बनाई हुई चटनी हृदय के लिए अत्यंत हितकारी होती है तथा कब्ज को भी दूर करती है।
हृदय की दुर्बलता
  • अमरूद को कुचलकर उसका आधा कप रस निकाल लें। उसमें थोड़ा-सा नींबू का रस डालकर पी जाए।
  • अमरूद में विटामिन-सी होता है। यह हृदय में नई शक्ति देकर शरीर में स्फूर्ति पैदा करता है। इसे दमा व खांसी वाले न खायें।
खांसी और कफ विकार
  •  यदि सूखी खांसी हो और कफ न निकलता हो तो, सुबह ही सुबह ताजे एक अमरूद को तोड़कर, चाकू की सहायता के बिना चबा-चबाकर खाने से खांसी 2-3 दिन में ही दम तोड़ देती है।
  • अमरूद का रस भवक यन्त्र द्वारा निकालकर उसमें शहद मिलाकर पीने से भी सूखी खांसी में लाभ होता है।
  • यदि बलगम खूब पड़ता हो और खांसी अधिक हो, दस्त साफ न हो हल्का बुखार भी हो तो अच्छे ताजे मीठे अमरूदों को अपनी इच्छानुसार खायें।
  • यदि जुकाम की साधारण खांसी हो तो अधपके अमरूद को आग में भूनकर उसमें नमक लगाकर खाने से लाभ होता है।
वमन (उल्टी)
  • अमरूद के पत्तों के 10 ग्राम काढ़े को पिलाने से वमन या उल्टी बंद हो जाती है।

तृष्ण (अधिक प्यास लगना)
  • अमरूद के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर पानी में डाल दें। कुछ देर बाद इस पानी को पीने से मधुमेह (शूगर) या बहुमूत्र रोग के कारण तृष्ण में उत्तम लाभ होता है।
अतिसार (दस्त)
  • बच्चे का पुराना अतिसार मिटाने के लिए इसकी 15 ग्राम जड़ को 150 ग्राम पानी में ओटाकर, जब आधा पानी शेष रह जाये तो 6-6 ग्राम तक दिन में 2-3 बार पिलाना चाहिए।
  • कच्चे अमरूद के फल उबालकर खिलाने से भी अतिसार मिटता है।
  • अमरूद की छाल व इसके कोमल पत्तों का 20 मिलीलीटर क्वाथ पिलाने से हैजे की प्रारिम्भक अवस्था में लाभ होता है।
प्रवाहिका 
  • अमरूद का मुरब्बा प्रवाहिका एवं अतिसार में लाभदायक है।
गुदाभ्रंश (गुदा से कांच का निकलना)
  • बच्चों के गुदभ्रंश रोग पर इसकी जड़ की छाल का काढ़ा गाढ़ा-गाढ़ा लेप करने से लाभ होता है।
  • तीव्र अतिसार में गुदाभ्रंश होने पर अमरूद के पत्तों की पोटली बनाकर बांधने से सूजन कम हो जाती है और गुदा अंदर बैठ जाता है।
  • आंतरिक प्रयोग के लिए अमरूद और नागकेशर दोनों को महीन पीसकर उड़द के समान गोलियां बनाकर देनी चाहिए।
  • अमरूद के पेड़ की छाल, जड़ और पत्ते, बराबर-बराबर 250 ग्राम लेकर पीसकर रख लें तथा 1 किलो पानी में उबालें, जब आधा पानी शेष रह जायें, तब इस काढ़े से गुदा को बार-बार धोना चाहिए और उसे अंदर धकेलें। इससे गुदा अंदर चली जायेगी।
  • अमरूद के पेड़ की छाल 50 ग्राम, अमरूद की जड़ 50 ग्राम और अमरूद के पत्ते 50 ग्राम को मिलाकर कूटकर 400 ग्राम पानी में मिलाकर उबाल लें। आधा पानी शेष रहने पर छानकर गुदा को धोऐं। इससे गुदाभ्रंश (कांच निकलना) ठीक होता है।
  • अमरूद के पत्तों को पसकर इसके लुगदी (पेस्ट) गुदा को अंदर कर मलद्वार पर बांधने से गुदा बाहर नहीं निकलता है।
घुटनों के दर्द में
  • अमरूद के कोमल पत्तों को पीसकर गठिया के वेदना युक्त स्थानों पर लेप करने से लाभ होता है।

बुखार
  • अमरूद के कोमल पत्तों को पीस-छानकर पिलाने से ज्वर के उपद्रव्य दूर होते है।
विदाह (पित्त की जलन) में 
  • अमरूद के बीज निकालकर पीसकर गुलाब जल और मिसरी मिला कर पीने से अत्यंत बढ़े हुए पित्त और विदाह की शांति होती है।
भांग या धतूरे का नशा
  • अमरूद के पत्तों के स्वरस को भरपेट पिलाने से या अमरूद खाने से भांग, धतूरा आदि का नशा दूर हो जाता है।

पेट की गैस बनना
  • अदरक का रस एक चम्मच, नींबू का रस का आधा चम्मच और शहद को डालकर खाने से पेट की गैस में धीरे-धीरे लाभ होता हैं।

दस्त
  • अमरूद के पेड़ की कोमल नई पत्तियों को पानी में उबालकर, छानकर थोड़ी-थोड़ी-सी मात्रा में पकाकर पीने से अतिसार का आना रुक जाता है।
  • अमरूद में मिश्री डालकर या अमरूद और मिश्री का सेवन करने से दस्त का आना बंद हो जाता हैं।
  • अमरूद के पेड़ की 10 पत्तियां, नींबू की 2 पत्तियां, तुलसी की 3 पत्तियों को बराबर मात्रा में लेकर एक कप पानी में डालकर काढ़ा बनाकर पीने से राहत मिलती है।

मुंह का रोग और मुंह के छाले
  • मुंह के रोग में जौ, अमरूद के पत्ते एवं बबूल के पत्ते। इस सबको जलाकर इसके धुंए को मुंह में भरने से गला ठीक होता है तथा मुंह के दाने नष्ट होते हैं।
  • रोजाना भोजन करने के बाद अमरूद का सेवन करने से छाले में आराम मिलता है। 
  • अमरूद के पत्तों में कत्था मिलाकर पान की तरह चबाने से मुंह के छाले ठीक हो जाते हैं।
अग्निमान्द्यता (अपच) के लिए
  • अमरूद के पेड़ की 2 पत्तियों को चबाकर पानी के साथ सेवन करने से आराम होता हैं।
प्यास अधिक लगना
  • अमरूद, लीची, शहतूत व खीरा खाने से प्यास का अधिक लगना बंद हो जाता है।
मधुमेह के रोग
  • पके अमरूद को आग में डालकर उसे निकाल लें, और उसका भरता बना लें, उसमें अवश्कतानुसार नमक, कालीमिर्च, जीरा, मिलाकर सेवन करें। इससे मधुमेह रोग से लाभ होता है।

योनि की जलन और खुजली
  • अमरूद के पेड़ की जड़ को पीसकर 25 ग्राम की मात्रा में लेकर 300 ग्राम पानी में डालकर पका लें, फिर इसी पानी को साफ कपड़े की मदद से योनि को साफ करने से योनि में होने वाली खुजली समाप्त हो जाती है।
गठिया रोग
  • गठिया के दर्द को सही करने के लिए अमरूद की 5-6 नई पत्तियों को पीसकर उसमें जरा-सा काला नमक डालकर प्रतिदिन सेवन करने से रोगी को लाभ मिलता है।
फोड़े-फुंसियों के लिए
  • अमरूद की थोड़ी सी पत्तियों को लेकर पानी में उबालकर पीस लें। इस लेप को फुंसियों पर लगाने से लाभ होता है।
विसर्प-फुंसियों का दल बनना
  • 4 हफ्तों तक रोजाना दोपहर में 250 ग्राम अमरूद खाने से पेट साफ होता है, पेट की गर्मी दूर होती है, खून साफ होता है जिससे फुंसिया और खुजली भी दूर हो जाती है।


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अकरकरा के औषधीय प्रयोग



अकरकरा (Anacyclus pyrethrum) का पौधा अल्जीरिया में सबसे अधिक मात्रा में पैदा होता है। भारत में यह कश्मीर, आसाम, बंगाल के पहाड़ी क्षेत्रों में, गुजरात और महाराष्ट्र आदि की उपजाऊ भूमि में कहीं-कहीं उगता है। वर्षा के शुरू में ही इसका झाड़ीदार पौधा उगना प्रारंभ हो जाता है। अकरकरा का तना रोए दार और ग्रंथि युक्त होता है। अकरकरा की छाल कड़वी और मटमैले रंग की होती है। इसके फूल पीले रंग के गंध युक्त और मुंडक आकर में लगते हैं। जड़ 8 से 10 सेमी लंबी और लगभग 1.5 सेमी चौड़ी तथा मजबूत और मटमैली होती है।
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विभिन्न भाषाओं में नाम
  1. संस्कृत - आकारकर, आकल्लक
  2. हिंदी - अकरकरा
  3. मराठी - अक्कलकरा
  4. गुजराती - अकोरकरो
  5. बंगाली आकरकरा।
  6. फारसी वेश्वतर्खून, कोही।
  7. अरबी आकिकिहां, अदुक लई।
  8. पंजाबी - अकरकरा।
  9. अंग्रेजी पेलिटरी।
  10. लैटिन एनासाइक्लस पाइरेथ्रम।
रंग : अकरकरा ऊपर से काला और अंदर से सफेद होता है।
स्वाद : इसका स्वाद तेज, चरपरा, ठंडा, चुनचुनाहट पैदा करने वाला होता है।
प्रकृति : अकरकरा की प्रकृति गर्म और खुश्क होती है।
गुण : अकरकरा कड़वी, रूक्ष, तीखी, प्रकृति में गर्म तथा कफ और वात नाशक है। इसके अलावा यह कामोत्तेजक (सेक्स उत्तेजना को बढ़ाने वाला), धातुवर्द्धक (वीर्य को बढ़ाने वाला), रक्तशोधक (खून को साफ करने वाला), शोथहर (सूजन को कम करने वाला), मुंह दुर्गंध नाशक (मुंह की बदबू) को नष्ट करना), दन्त रोग, हृदय की दुर्बलता (दिल की कमजोरी), बच्चों के दांत निकलने के समय के रोग, तुतलाहट, हकलाहट, रक्त संचार (शरीर में खून के बहाव) को बढ़ाने में भी गुणकारी हैं।
हानिकारक प्रभाव : अकरकरा का बाह्य प्रयोग अधिक मात्रा में करने से त्वचा का रंग लाल हो जाता है तथा उस पर जलन होती है। यदि इसका सेवन आन्तरिक रूप से अधिक किया गया हो तो इससे- नाड़ी की गति बढ़ना, दस्त लगना, जी मिचलाना, उबकाई आना, बेहोशी छाना, रक्तपित्त आदि दुष्प्रभाव पैदा हो जाते हैं। फेफड़ों के लिए भी यह हानिकारक होता है, क्योंकि इससे उनकी गति बढ़ जाती है।

Akarkara Herb Is Beneficial For Many Diseases

विभिन्न रोगों में अकरकरा से उपचार
Akarkara Powder Benefits in Hindi
  1. अर्दित (मुंह टेढ़ा होना) होने पर - उसी के साथ अकरकरा का 100 मिलीलीटर काढ़ा मिलाकर पिलाने से अर्दित मिटता है। अकरकरा का चूर्ण और राई के चूर्ण को शहद में मिलाकर जिह्वा पर लेप करने से अर्धांगवात मिटती है।
  2. खांसी - अकरकरा का 100 मिलीलीटर का काढ़ा बनाकर सुबह-शाम पीने से पुरानी खांसी मिटती है। अकरकरा के चूर्ण को 3-4 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से यह बलपूर्वक दस्त के रास्ते कफ को बाहर निकाल देती है।
  3. गर्भनिरोधक - अकरकरा को दूध में पीसकर रूई लगाकर तीन दिनों तक योनि में लगातार रखने से 1 महीने तक गर्भ नहीं ठहरता है।
  4. गले का रोग - अकरकरा चूर्ण की लगभग 1 ग्राम का चौथाई भाग से लगभग आधा ग्राम की मात्रा में फंकी लेने से बच्चों और गायकों (सिंगर) का स्वर सुरीला हो जाता है। तालू, दांत और गले के रोगों में इसके कुल्ले करने से बहुत लाभ होता है।
  5. गृध्रसी (सायटिका) - अकरकरा की जड़ को अखरोट के तेल में मिलाकर मालिश करने से गृध्रसी मिटती है।
  6. जीभ के विकार के कारण हकलापन - अकरकरा की जड़ के चूर्ण को काली मिर्च व शहद के साथ 1 ग्राम की मात्रा में मिलाकर जीभ पर मालिश करने से जीभ का सूखापन और जड़ता दूर होकर हकलाना या तोतलापन कम होता है। इसे 4-6 हफ्ते प्रयोग करें।
  7. जुकाम के कारण सिर दर्द - अकरकरा को दांतों के बीच दबाने से जुकाम का सिर दर्द दूर हो जाता है।
  8. ज्वर (बुखार) होने पर - अकरकरा की जड़ के चूर्ण को जैतून के तेल में पकाकर मालिश करने से पसीना आकर ज्वर उतर जाता है। अकरकरा 10 ग्राम को 200 मिलीलीटर पानी में काढ़ा बना लें। इस काढ़े में 5 मिलीलीटर अदरक का रस मिलाकर लेने से सन्निपात ज्वर में लाभ मिलता है। अकरकरा 10 ग्राम और चिरायता 10 ग्राम लेकर कूटकर पीसकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण में से 3 ग्राम चूर्ण पानी के साथ लेने से बुखार समाप्त होता है।
  9. तुतलापन, हकलाहट- अकरकरा और काली मिर्च बराबर लेकर पीस लें। इसकी एक ग्राम की मात्रा को शहद में मिलाकर सुबह-शाम जीभ पर 4-6 हफ्ते नियमित प्रयोग करने से पूरा लाभ मिलेगा। अकरकरा 12 ग्राम, तेजपत्ता 12 ग्राम तथा काली मिर्च 6 ग्राम पीसकर रखें। 1 चुटकी चूर्ण प्रतिदिन सुबह-शाम जीभ पर रखकर जीभ को मलें। इससे जीभ के मोटापे के कारण उत्पन्न तुतलापन दूर होता है।
  10. दमा (श्वास) होने पर - अकरकरा के कपड़छन चूर्ण को सूंघने से श्वास का अवरोध दूर होता है। लगभग 20 ग्राम अकरकरा को 200 मिलीलीटर जल में उबालकर काढ़ा बनाएं और जब यह काढ़ा 50 मिलीलीटर की मात्रा में शेष रह जाये तो इसमें शहद मिलाकर अस्थमा के रोगी को सेवन करने से अस्थमा रोग ठीक हो जाता है।
  11. दांत रोग- अकरकरा को सिरके में पीसकर दुखते दांत पर रखकर दबाने से दर्द में लाभ होता है। अकरकरा और कपूर को बराबर की मात्रा में पीसकर नियमित रूप से सुबह-शाम मंजन करते रहने से सभी प्रकार के दांतों की पीड़ा दूर हो जाती है।
  12. दांतों में दर्द - अकरकरा को बारीक पीसकर पाउडर बना लें। उसके पाउडर में लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग नौसादर, लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग अफीम और लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग कपूर को मिलाकर मिश्रण बना लें। इस मिश्रण को दांतों के बीच के खाली जगहों को भरें। इससे दांतों का दर्द ठीक होता है तथा मसूढ़ों से खून आना बंद हो जाता है। अकरकरा का बारीक चूर्ण बनाकर मसूढ़ों पर मालिश करने से व खोखले दांतों की जड़ में लगाने से कीड़े नष्ट होकर दर्द खत्म हो जाता है। अकरकरा व कपूर के चूर्ण को रूई में लपेटकर लौंग के तेल में भिगो लें। इसे दर्द वाले दांत के नीचे दबाकर रखें तथा मुंह का राल (लार) बाहर गिरने दें। इससे दांत का तेज दर्द जल्द ठीक होता है। गर्मी के कारण दांतों में दर्द रहता हो तो अकरकरा, तज और मस्तांगी को बराबर मात्रा में लें। इन सबको पीस-छानकर प्रतिदिन दांतों पर मलें। इससे रोग में जल्द आराम मिलता है। अकरकरा और कपूर दोनों बराबर लेकर पीसकर मंजन करने से सभी प्रकार की दांतों की पीड़ा मिटती है। अकरकरा की जड़ के काढ़े से कुल्ला करने से दांतों का दर्द दूर होता है और हिलते हुए दांत जम जाते हैं। अकरकरा की जड़ को दांतों पर मलने से दांतों का दर्द दूर होता है।
  13. दिमाग को तेज करने के लिए - अकरकरा और ब्राह्मी समान मात्रा में लेकर चूर्ण बनायें, इसको आधा चम्मच नियमित सेवन करने से बुद्धि तेज होती है|
  14. नपुंसकता (नामर्दी) होने पर- अकरकरा का बारीक चूर्ण शहद में मिलाकर शिश्न (पुरुष लिंग) पर लेप करके रोजाना पान के पत्ते लपेटने से शैथिल्यता (ढीलापन) दूर होकर वीर्य बढेगा। अकरकरा 2 ग्राम, जंगली प्याज 10 ग्राम इन दोनों को पीसकर लिंग पर मलने से इन्द्री कठोर हो जाती है। 11 या 21 दिन तक यह प्रयोग करना चाहिए।
  15. नाक के रोग - अकरकरा के चूर्ण को नाक से सूंघने से बंध-रोग (नाक से छींक न आना) दूर हो जाता है।
  16. पक्षाघात (लकवा) - अकरकरा की सूखी डंडी महुए के तेल में मिलाकर मालिश करने से लकवा दूर होता है। अकरकरा की जड़ को बारीक पीसकर महुए के तेल में मिलाकर मालिश करने से पक्षाघात में लाभ होता है। अकरकरा की जड़ का चूर्ण लगभग आधा ग्राम की मात्रा में शहद के साथ सुबह-शाम चाटने से पक्षाघात (लकवा) में लाभ होता है।
  17. पेट के रोग - छोटी पीपल और अकरकरा की जड़ का चूर्ण बराबर की मात्रा में पीसकर आधा चम्मच शहद के साथ सुबह-शाम, भोजन के बाद सेवन करते रहने से पेट सम्बंधी अनेक रोग दूर हो जाते है।
  18. पेट में पानी का भरना (जलोदर) - अकरकरा का चूर्ण सुबह और शाम पीने से जलोदर में लाभ होता है।
  19. वाजीकरण - अकरकरा, सफेद मूसली और असगंध सभी को बराबर मात्रा में लेकर पीस लें, इसे 1-1 चम्मच की मात्रा में सुबह-शाम एक कप दूध के साथ नियमित लें।
  20. बालाचार, बालग्रह - अकरकरे को धागे में बांधकर बच्चे के गले में पहनाने से मिर्गी, आक्षेप आदि रोग ठीक हो जाते हैं।
  21. मंदाग्नि - शुंठी का चूर्ण और अकरकरा दोनों की 1-1 ग्राम मात्रा को मिलाकर फंकी लेने से मंदाग्नि और अफारा दूर होता है। 20 शरीर की शून्यता और आलस्य होने पर - अकरकरा के 1 ग्राम चूर्ण को 2-3 पीस लौंग के साथ सेवन करने से शरीर की शून्यता और इसकी जड़ के 100 मिलीलीटर काढ़े पीने से आलस्य मिटता है।
  22. मसूड़ों का रोग - अकरकरा के पत्तों को पानी में उबालकर प्रतिदिन गरारे करें। यह मुंह के सभी रोग को नष्ट करती है।
  23. मस्तक की पीड़ा में - अकरकरा की जड़ को पीसकर मस्तक पर हल्का गर्म लेप करने से मस्तक की पीड़ा मिटती है। अकरकरा को दांतों के बीच में रखने से प्रतिश्याय (जुकाम) से होने वाला सिर दर्द मिटता है। इसको चबाने से लार छूटकर दाढ़ की पीड़ा मिट जाती है।
  24. सिक-धर्म की अनियमितता - अकरकरा का काढ़ा बनाकर पीने से मासिक-धर्म समय पर होता है।
  25. मिरगी (अपस्मार) - अकरकरा को सिरके में पीसकर शहद के साथ मिलाकर जिस दिन मिरगी न आये उस दिन रोगी को चटाने से मिर्गी आना बंद हो जाता है। अकरकरा, ब्राह्मी और शंखाहुली का काढ़ा बनाकर मिर्गी के रोगी को देने से मिर्गी आना बंद हो जाती है। 15 ग्राम पिसा हुआ अकरकरा और 30 ग्राम बीज निकले हुए मुनक्का को मिलाकर उसकी चने के आकार के बराबर की गोलियां बनाकर छाया में सुखा लें। इसे सुबह और शाम को एक-एक गोली लेने से और पिसे हुए अकरकरा को नाक में सूंघने से मिरगी का रोग पूरी तरह से ठीक हो जाता है। ब्राह्मी के साथ इसका काढ़ा बना करके पिलाने से मिर्गी में लाभ होता है। अकरकरा को बारीक पीसकर थोड़ा-सा शहद मिलाकर सूंघने से मिर्गी दूर होती है।
  26. मुख दुर्गंध (मुंह से बदबू आने पर) - अकरकरा, माजूफल, नागरमोथा, भुनी हुई फिटकरी, काली मिर्च, सेंधा नमक सबको बराबर मिलाकर बारीक पीस लें। इस मिश्रण से प्रतिदिन मंजन करने से दांत और मसूड़ों के सभी विकार दूर होकर दुर्गन्ध मिट जाती है।
  27. शीतपित्त - अकरकरा को कूट-पीसकर चूर्ण बना लें। इसे 3 ग्राम की मात्रा में पानी के साथ खाने से शीत पित्त का विकार दूर होता है।
  28. सफेद दाग (श्वेत कुष्ठ) - अकरकरा के पत्तों का रस निकालकर श्वेत कुष्ठ पर लगाने से कुष्ठ थोड़े समय में ही अच्छा हो जाता है।
  29. सिर के दर्द में- यदि सर्दी के कारण से सिर में दर्द हो तो अकरकरा को मुंह में दांतों के नीचे दबायें रखें। इससे शीघ्र लाभ होगा। बादाम के हलवे के साथ आधा ग्राम अकरकरा का चूर्ण सुबह-शाम सेवन करने से लगातार एक समान बने रहने वाला सिर दर्द ठीक हो जाता है। अकरकरा को जल में पीसकर गर्म करके माथे पर लेप करने से सिर का दर्द ठीक हो जाता है।
  30. हिचकी - एक ग्राम अकरकरा का चूर्ण 1 चम्मच शहद के साथ चटाएं।
  31. हृदय रोग - अर्जुन की छाल और अकरकरा का चूर्ण दोनों को बराबर मिलाकर पीसकर दिन में सुबह और शाम आधा-आधा चम्मच की मात्रा में खाने से घबराहट, हृदय की धड़कन, पीड़ा, कंपन और कमजोरी में लाभ होता है। कुलंजन, सोंठ और अकरकरा की लगभग 1 ग्राम का चौथाई भाग मात्रा को 400 मिलीलीटर पानी में उबालें, जब यह 100 मिलीलीटर की मात्रा में शेष बचे तो उतारकर ठंडा कर लें। फिर इसे पीने से हृदय रोग मिटता है।
  32. काली मिर्च और लंबी काली मिर्च के साथ अकरकरा की जड़ का पाउडर सामान्य सर्दी ठीक करने में मददगार होता है। इसमें एंटीवायरल गुण होते हैं जो फ्लू के सभी लक्षणों को कम करता है और नाक बंद होने को कम करता है।
  33. करकरा, माजूफल, नागरमोथा, फूली हुई फिटकरी, काली मिर्च, सेंधा नमक बराबर की मात्रा में मिलाकर पीस लें। इससे नियमित मंजन करते रहने से दांत और मसूड़ों के समस्त विकार दूर होकर दुर्गंध मिट जाती है।
  34. अकरकरा नपुंसकता और इरेक्टाइल डिस्फंक्शन के इलाज के लिए बेहतर उपाय है और इससे ब्लड प्रेशर भी नहीं बढ़ता है। इसके अलावा साइलेंडाफील की तुलना में इसके कम दुष्प्रभाव हैं। इसे अकेले उपयोग किए जाने पर कुछ सप्ताह के बाद अकरकरा की प्रभाविता कम हो जाती है।
  35. सेक्सुअल समस्याओं दूर करने का रामबाण इलाज है अकरकरा, अकरकरा इच्छा को उत्तेजित करता है और जननांगों की ओर खून के बहाव को बढ़ाता है। अकरकरा कामोत्तेजक, कामेच्छा उत्तेजना और स्पर्मेटोजेनिक क्रियाएं होती है। यह एंड्रोजन के स्राव को प्रभावित करता है और उसके बनने को बढ़ाता है। अकरकरा प्रजनन क्षमता को बढ़ाता है। स्पर्म की संख्या बढ़ाता है और पुरुषों की कामेच्छा में बेहतर सुधार लाता है।
  36. अकरकरा जेनिटल्स में खून के प्रवाह को बढ़ाता है। जिससे कामेच्छा बढ़ जाती है। इजेकुलेशन में देरी होती है और पुरुषों की कामेच्छा में कमी को ठीक करता है। यह वीर्य के रिटेंशन को भी तेज करता है।
अकरकरा के नुकसान
अकरकरा बहुत ही लाभदायक जड़ी बूटी है। लेकिन असावधानी और बिना जानकारी इसका उपयोग करने से कुछ दुष्प्रभाव हो सकते हैं। जैसे- अत्यधिक लार गिरना, मुंह में छाला, जलन महसूस होना, सीने की जलन, एसिडिटी।


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