राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अन्दर से जानो



 राष्ट्रवाद के प्रकाश पुंज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अन्दर से जानो

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को कुछ लोग श्रद्धा भाव से देखते हैं, तो कुछ भय और विरोध से। अधिकांश शहरी हिन्दू होंगे कभी न कभी संघ की शाखा में जा चुके हैं। फिर भी संघ के बारे में भ्रम अधिक हैं, जिसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला तो विरोधियों द्वारा योजनाबद्ध रीति से फैलाया गया मायाजाल, तथा दूसरा संघ द्वारा प्रसिद्धि से दूर रहने की नीति, पर अब संघ ने अपने प्रचारतंत्र को ठीक किया है। फिर भी यह निश्चित है कि संघ को केवल पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर नहीं समझा जा सकता, इसके लिए तो उसके पास आना होगा।
राष्ट्रवाद के प्रकाश पुंज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अन्दर से जानो 
स्थापना एवं उद्देश्यः संघ की स्थापना 1925 की विजयादशमी पर प्रसिद्ध क्रान्तिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी डा0 केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। उनका मत था कि अंग्रेजों के चले जाने से ही भारत की दुर्दशा समाप्त नहीं होगी। इसके लिए राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने वाले हिन्दू युवकों को टोली हर गांव-शहर में खड़ी करनी होगी। इसीलिए उन्होंने संघ की स्थापना की। 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' का अर्थ हैः अपनी इच्छा से राष्ट्र की सेवा करने वाले लोगों का समूह। ऐसे ही हिन्दू का अर्थ है भारत को अपना सर्वस्व मानने वाला व्यक्ति, चाहे उसकी पूजा पद्धति कुछ भी हो।
शाखाः संघ का प्रमुख आधार है, शाखा। स्वयंसेवक किसी भी मैदान में प्रतिदिन सुबह-शाम अथवा रात्रि में एक घंटे के लिए आकर अपनी आयु व क्षमता के अनुसार सामूहिक रूप से कुछ शारीरिक व बौद्धिक कार्यक्रम करते हैं। इसे ही शाखा कहते हैं।

स्वयंसेवकः शाखा में आने वाले को ‘स्वयंसेवक‘ कहा जाता है, चाहे उसकी आयु, जाति, आर्थिक या शैक्षणिक स्थिति कुछ भी हो। सरसंघचालक से लेकर किसी गांव या बस्ती की शाखा पर आने वाला कक्षा चार-पांच में पढ़ने वाला छात्र, सब पहले स्वयंसेवक हैं, बाद में कुछ और। स्वयंसेवक का अर्थ है- 'अपनी इच्छा से राष्ट्र की सेवा में लगा रहने वाला।'

कार्यक्रमः एक घंटे की शाखा में प्रायः 40-50 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। अनेक स्थानों पर एक ही शाखा में अलग-अलग आयु-वर्ग के स्वयंसेवक आते हैं, वहां उनकी अवस्था के अनुसार दो-तीन ‘गण‘ बना दिये जाते हैं। बाल-किशोर एवं युवा स्वयंसेवक मुख्यतः खेल, नियुद्ध, दंड संचालन, सूर्य नमस्कार आदि करते हैं। शाखा के अन्तिम 14-20 मिनट में संस्कारप्रद मानसिक कार्यक्रम होते हैं। इनमें देशभक्तिपूर्ण गीत का गायन, सामायिक विषय पर चर्चा, किसी महापुरूष के वाक्य, श्लोक या सुभाषित का स्मरण एवं उनका विश्लेषण, प्रश्नोत्तर आदि प्रमुख हैं।

भगवाध्वज एवं प्रार्थनाः संघ ने अपने गुरू-स्थान पर भारतीय संस्कृति के प्रतीक परमपवित्र भगवाध्वज को रखा है। संघ की शाखा तथा अन्य सभी गतिविधियां इसकी छत्रछाया में ही सम्पन्न होती हैं। कार्यक्रमों की समाप्ति भगवाध्वज के सम्मुख खड़े होकर प्रार्थना के बाद होती है। यह संस्कृत में भारतमाता की वंदना है, जो ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे‘ से प्रारम्भ होकर ‘भारतमाता की जय‘ पर समाप्त होती है।
भगवा ध्वज

अन्य कार्यक्रमः शाखा के अतिरिक्त समय में भी संस्कार जगाने तथा गुणसंवर्धन करने वाले अनेक कार्यक्रम होते हैं। जैसे- सहभोजः इसमें सब स्वयंसेवक अपने-अपने घर से भोजन लाते हैं। सबका भोजन एक स्थान पर मिला दिया जाता है। कुछ देर तक गीत-कविता, अंत्याक्षरी-प्रश्नमंच आदि मनोरंजक एवं ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रमों के बाद सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं, किसके घर का भोजन किसने किया, यह पता ही नहीं लगता। परस्पर स्नेह तथा समरसता जाग्रत करने में यह कार्यक्रम अतुलनीय है।

वनविहारः इसमें सब स्वयंसेवक अपने नगर-गांव से दूर जाकर खेलकूद आदि के बाद ‘सहभोज‘ करते हैं। कभी-कभी वहीं भोजन बनाते हैं या फिर सब आपस में शुल्क एकत्र कर कुछ खानपान सामग्री मंगा लेते हैं।

शिविरः प्रायः दो-तीन दिन के शिविर बाल एवं तरूण विद्यार्थियों, व्यावसायियों, अवकाश प्राप्त स्वयंसेवकों के लिए अलग-अलग होते हैं। इनमें विभिन्न प्रकार की शारीरिक-मानसिक प्रतियोगिताओं द्वारा स्वयंसेवक की प्रतिभा को उभारने का प्रयास किया जाता है। शिविर में सब तरह की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति वाले स्वयंसेवक आते हैं, पर सब एक साथ भूमि पर सोते, खाते-पीते तथा खेलते हैं। इनमें भाग लेने के लिए गणवेश, किराया, भोजन शुल्क आदि सब अपनी जेब से भरते हैं।

गणवेशः शाखा में तो स्वयंसेवक किसी भी निक्कर में आ सकता है, पर कुछ कार्यक्रमों में गणवेश अनिवार्य होता है। इसमें पूरी बांहों की एक जेब वाली सफेद कमीज, खाकी निकर, चमड़े की लाल पेटी का हुआ करता था अब सिंथेटिक की पेटी का उपयोग होने लगा है, खाकी मोजे, चमड़े या प्लास्टिक के काले फीते वाले जूते तथा काली टोपी होती है। प्रायः ऐसे कार्यक्रमों में कंधे तक की लाठी भी सब लाते हैं।

प्रशिक्षण वर्गः समय-समय पर नये कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण हेतु वर्गों का आयोजन होता है। एक सप्ताह के वर्ग को ‘प्राथमिक शिक्षा वर्ग‘ कहते हैं, इनका आयोजन दोे-तीन जिलों को मिलाकर किया जाता है। तीन सप्ताह के वर्ग के ‘संघ शिक्षा वर्ग‘ कहते हैं। ये प्रायः 20-25 जिलों के बीच मई-जून के अवकाश में होता है। प्रथम और द्वितीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग अपने प्रान्त में ही होते हैं, जबकि ‘तृतीय वर्ष‘ का वर्ग पूरे देश का एक साथ नागपुर में होता है, इसकी अवधि एक मास की होती है।

संगठन संरचना:
संघ की संगठनात्मक रचना हिन्दू परिवार जैसी है। एक शाखा के क्षेत्र को तीन-चार भागों में बांट देते हैं, जिसे ‘गट‘ तथा इसके प्रमुख को ‘गटनायक‘ कहते हैं, यह संघ की पहली इकाई है। शाखा के शारीरिक कार्यक्रमों को कराने के लिए 15-20 स्वयंसेवकों की कई टोलियां बनाते हैं, इन्हें ‘गण‘ तथा इनके प्रमुख को ‘गणशिक्षक‘ कहते हैं। शाखा लगाने वाला ‘मुख्यशिक्षक‘ तथा उनके ऊपर ‘कार्यवाह‘ होता है। नगर की तीन-चार शाखाओं या ग्रामीण क्षेत्र में न्यायपंचायत को कार्य देखने वाले को ‘मंडल कार्यवाह‘ तथा इसी प्रकार ‘नगर कार्यवाह‘ या ग्रामीण क्षेत्र में खंड, तहसील और जिला कार्यवाह होते हैं। नगर, खंड, तहसील तथा इसके ऊपर के स्तर पर ‘संघचालक‘ भी होते हैं, इनकी भूमिका परिवार के मुखिया जैसी, जबकि कार्यवाह की भूमिका मुख्य कर्ताधर्ता की होती है। जिला तथा उससे ऊपर के संघचालकों का प्रति तीन वर्ष बाद चुनाव होता है। ये अन्य प्रतिनिधियों के साथ मिलकर ‘सरकार्यवाह‘ को चुनते हैं। वर्तमान सरकार्यवाह श्री भैया जी जोशी हैं। ‘सरसंघचालक‘ की भूमिका परिवार के मुखिया की भांति ‘मार्गदर्शक एवं परामर्शदाता‘ की होती है, प्रायः संघचालक प्रमुख कार्यकर्ताओं के परामर्श से इनका मनोनयन करते हैं, वर्तमान में श्री मोहन जी भगवत पर यह दायित्व है। संघचालक तथा कार्यवाह के साथ खंड से लेकर अ0भा0 स्तर तक शारीरिक, बौद्धिक, सेवा तथा व्यवस्था प्रमुखों की टोली होती है। जिले में एक प्रचार प्रमुख भी होता हैं ये सब परस्पर विचार-विमर्श से अपने क्षेत्र के कार्य को गति एवं स्थायित्व प्रदान करते हैं।

प्रचारकः संघकार्य के विस्तार में प्रचारकों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। अनेक युवा स्वयंसेवक अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद 2-3 वर्ष का समय देते हैं। इन्हीं ही ‘प्रचारक‘ कहते हैं। इनको कोई वेतन आदि नहीं मिलता, पर योगक्षेम की न्यूनतम आवश्यकताएं संगठन पूर्ण करता है। सामान्यतः प्रचारक स्वयंसेवक-परिवारों में ही भोजन करते हैं, निर्धारित समय के बाद ये घर लौटकर सामान्य कामकाज में लग जाते हैं। प्रचारक अपनी कार्य-अवधि में अविवाहित रहते हैं। अब बड़ी संख्या में अवकाश प्राप्त ‘वानप्रस्थी‘ कार्यकर्ता‘ भी पूरा समय देकर काम करने लगे हैं।

आर्थिक व्यवस्था : 
संघकार्य के संचालन में होने वाले सम्पूर्ण व्यय का आधार ‘श्री गुरूदक्षिणा‘ है। वर्ष में एक बार सब स्वयंसेवक अपनी शाखा के अनुसार एकत्र होकर कुछ राशि भगवद्ध्वज के सम्मुख अर्पण करते हैं। यह राशि एक लिफाफे में रखकर अर्पण की जाती है, जिससे किसी के मन में हीनता या बड़प्पन का भाव उत्पन्न न हो। उस शाखा के तीन-चार प्रमुख कार्यकर्ता इसका हिसाब रखते हैं। संघ के कार्यक्रम, कार्यालय की व्यवस्था, प्रचारकों के प्रवास... आदि इससे पूरे होते हैं।

संघ और सेवाकार्यः
स्वयंसेवक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते समाजसेवा में स्वाभाविक रूप से लगे रहते हैं। गत 15-20 वर्ष से इन सेवाकार्य को व्यवस्थित रूप दिया गया है। हिन्दू समाज के उपेक्षित, वंचित एवं निर्धन वर्ग की सेवार्थ 50,000 से भी अधिक सेवाकेन्द्र चलाये जा रहे हैं। प्रतिवर्ष इनकी संख्या बढ़ रही है। इनके संचालन के लिए 'सेवा भारती' आदि अनेक पंजीकृत संस्थाएं हैं। शाखा के प्राप्त संस्कारों के कारण बाढ़, भूकम्प, तूफान, चक्रवात, दुर्घटना आदि प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं में स्वयंसेवक सेवाकार्य में सबसे आगे तथा सबसे देर तक लगे दिखायी देते हैं।

संघ और विविध कार्य :  स्वयंसेवकों में अपनी रूचि, प्रवृत्ति तथा सामाजिक आवश्यकता के अनुसार अनेक संगठन बनाये गये हैं। मजदूर-किसान, विद्यार्थी-नारी, धर्म-कला, शिक्षा-वनवासी, उपभोक्ता-सहकारिता, अर्थनीति-राजनीति, साहित्य-इतिहास...., अर्थात समाज के प्रायः सभी क्षेत्रों में स्वयंसेवक काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं तो इन क्षेत्रों में काम करने वाले अन्य संगठनों से वे बहुत आगे भी हैं। इनका संविधान, कार्यविधि, अर्थव्यवस्था, कार्यालय आदि अलग होते हैं, फिर भी वैचारिक आधर पर ये संघ से जुड़े रहते हैं।

संघ का विरोध क्यों : एक सामाजिक संगठन होने के बावजूद अनेक लोग इसका विरोध करते हैं। मुख्यतः यह विरोध कम्युनिस्टों तथा कांग्रेस की ओर से होता है। कम्युनिस्टों के विरोध का आधार तो स्पष्ट है। कांग्रेस ने 1947 के बाद चाहा कि संघ उसकी युवा शाखा बन जाये, पर संघ ने यह स्वीकार नहीं किया। तब से नेहरू जी संघ के विरोधी बने गये। दूसरी ओर संघ ने अपनी बहुआयामी गतिविधियों से धर्मान्तरण को काफी मात्रा में रोका है तथा जो हिन्दू किसी कारण से धर्मान्तरित हो गये थे, उन्हें वापस लाने की प्रक्रिया भी तेजी से चलायी है। ईसाई तथा मुस्लिम संस्थाएं इस कारण संघ को शत्रु मानती हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से सम्बंधित अन्य लेख


Share:

रत्नों का हमारे जीवन में महत्व तथा धारण के प्रभाव



आज के इस वैज्ञानिक युग में रत्नों के धारण के प्रभाव को सभी विद्वानों ने सर्वसहमति से मान लिया है। रत्न शब्द का अर्थ है अनुपम वस्तु। अर्थात् किसी विषय वस्तु या व्यक्ति को उनके गुणों के आधार पर हम रत्न शब्द से संबोधित करते है।
ज्योतिष की दृष्टि में पूरा सौरमण्डल सूर्य की अस्तित्व की वजह से माना गया है। इसलिये सभी ग्रह सूर्य को केन्द्र मानकर परिक्रमा कर रहे है। सूर्य , सात घोडो के रथ पर विद्यमान है। और ये सात घोडे सूर्य की किरणों में स्थित सात रंगो का प्रतिनिधित्व करते है। सौरमण्डल में स्थित ग्रह भी रंगो के प्रतीक है। सूर्य की किरणे जब पृथ्वी पर पडती है तो ग्रहो के प्रतीक रंगो का प्रभाव किरणो के द्वारा व रत्नों के माध्यम से हमारे षरीर पर पडता है। रत्नों में प्रकाश किरणो को अवशोषित करके परावर्तित करने की प्रबल शक्ति होती है। रत्नों का मूल्य प्रकाश किरणों के इस अवशोषण व परावर्तन की शक्ति के अनुसार होता है अर्थात रत्नों की गुणवत्ता जितनी अधिक होगी वह उतना ही अधिक मूल्यवान व प्रभावशाली होगा । रत्नों की कार्यप्रणाली व हमारे शरीर तथा व्यक्तित्व पर रत्नों का प्रभाव पडने का मुख्य कारण यही है कि हमारा शरीर पंचतत्वों (आकाश , पृथ्वी , जल , वायु एवं प्रकाश) से बना हुआ है और इसमें मुख्य रुप से सप्त चक्र (मूलाधार , स्वाधिष्ठान , मणिपुर , अनाहत , विशुद्धि , आज्ञा व सहस्त्र नार) विभाजित है। रत्नों के धारण करने से हमारे शरीर में पंचतत्वों व सप्तचक्रो के संतुलन में मदद मिलती है और इस प्रकार हमारा व्यक्तित्व बेहतर होता है तथा भविष्य में हम विशेष धनात्मक उर्जा के साथ सफलता पाते है।

हाथ में अॅंगूठी जड़कर जो रत्न पहना जाता है वह पांचो तत्वों को प्रभावित करता है। हमारे हाथ की पाॅच अंगुलियां पांच तत्वों की प्रतीक ही नहीं बल्कि इनका प्रत्यक्षतः संबंध है। अंगूठा आकाश तत्व , तर्जनी वायु तत्व , मध्यमा तैजस तत्व , अनामिका जल तत्व , कनिष्ठका पृथ्वी तत्व से संबंधित है। हाथ की दूसरी विशेषता यह है कि यह सारे शरीर से सम्पर्क में रहते है।अतः यह निष्कर्ष निकालना कि बुध ग्रह (जो पृथ्वी प्रधान है) का रत्न पन्ना कनिष्ठा में धारण करना युक्तियुक्त है। अपनी विभिन्न प्रकार की समस्याओं को दूर करने हेतु हम ज्योतिष शास्त्र का सहारा भी लेते है। इस शास्त्र में पूजा पाठ व विभ्न्नि प्रकार के टोने टोटके के अलावा रत्नों के माध्यम से भी हम समस्याओं का निराकरण कर सकते है। रत्नों का महत्व हमारे जन्मपत्री में स्थित ग्रहों की स्थिति के आधार पर देखा जाता है। अर्थात् व्यक्ति को कौन सा रत्न पहनना चाहिये यह जानना बहुत आवष्यक है। जन्मपत्री में कमजोर ग्रहों को बल देने के लिये विभिन्न राशियों के व्यक्तियों के लिये अलग - अलग रत्न महत्व रखते है।
रत्नों को पहनने के बाद उनका प्रभाव निम्न बातो पर निर्भर करता है।
1. सही रत्न का चुनाव
2 रत्नों की शुद्धता
3. सही वार व सही विधि द्वारा उचित अंगली में पहनने हेतु ज्ञान का होना।

मुख्य रुप से संस्थान की जिम्मेदारी होती है कि वो अपने ग्राहक को उचित सलाह व विस्तृत विधि का वर्णन करे व उचित रत्न दे। यदि आप दोषपूर्ण रत्न धारण करते है। व उचित विधि का पालन नहीं करते है तो रत्न का प्रभाव गलत पड सकता है। इसके अलावा यह जानना बहुत जरुरी है कि किसी भी प्रकार की पूजा या रत्नों के द्वारा समस्याओं के निराकरण का महत्व व सही प्रभाव तभी सामने आता है जब आप पूर्ण विश्वास व श्रद्धा रखते है।पूजा , रत्न , रुद्राक्ष , तन्त्र , मंत्र आदि सभी अपने-अपने क्षेत्र में उचित सफलता देने में सक्षम होते है बशर्ते कि आपने श्रद्धा व विश्वास के साथ उचित विधि विधान का ध्यान रखा है। यहा हम यह सलाह देना चाहेंगे कि अपनी समस्याओं के निराकरण के लिये तंत्र शास्त्र का प्रयोग जहा तक संभव हो न करे या बहुत सोच - समझकर किसी ज्ञानी तांत्रिक के मार्गदर्शन में ही करे।

रत्नों की उत्पति दो प्रकार से मानी गयी है, 1. खनिज रत्न व 2. जैविक रत्न

खनिज रत्न पृथ्वी के गर्भ में होने वाली रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरुप उत्पन्न तत्वों से होते है। उदाहरण के लिये हीरा , माणिक , पन्ना , नीलम , पुखराज , गोमेद व लसुनिया। जैविक रत्न समुद्र मे स्थित जीवों के द्वारा उत्पन्न होते है। जैसे -मूंगा व मोती उपरोक्त 9 रत्नों के अलावा इन रत्नों के उपरत्न भी पाये जाते है। जिनका प्रभाव उनसे संबंधित राशियों के अनुसार पडता है। रत्नों को उनकी पारदर्शिता , चमक , रंग कठोरता के मापदण्ड के द्वारा परखा जाता है। कुछ रत्न या उपरत्न अपारदर्शी भी होते है।



Share:

निबंध एवं जीवनी स्वामी विवेकानंद



स्वामी विवेकानंद हिंदी में (Swami Vivekananda In Hindi)
स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, देशप्रेम और विश्व बंधुत्व की जीवंत प्रतिमा थे, जिन्होंने विश्व में गहन आध्यात्मिकता और मानव मूल्यों के भारतीय दर्शन की स्थापना की। युवा नरेन्द्र अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस की उस रहस्यमयी ऊर्जा के समन्वय थे, जा भारतीय ऋषियों ने युगों से विश्व विरासत की उदात्त भावना के परिपेक्ष्य में अपने शिष्यों को विरासत में दी है। ऊर्जा और अध्यात्म धर्म और समाज संस्कृति और समन्वय का ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में ही नहीं मिलता जो स्वामी जी के विराट व्यक्तित्व में समाहित रहा है। स्वामी विवेकानन्द के पिता श्री विश्वनाथ दत्त और दादा दुर्गाचरण दत्त थे। उनके पिता अंग्रेजी और फारसी भाषा के विद्वान थे। उन्हें बाइबिल और फारसी के कवि फाजिल के शेरों की बहुत अच्छी जानकारी थी। वह कलकत्ता के हाईकोर्ट में एक सफल बैरिस्टर थे। स्वामी विवेकानंद के बाबा फारसी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वह 50 वर्ष की उम्र में सन्यासी हो गये थे। स्वामी विवेकानन्द अपने पिता की मृत्यु के कुछ दिन बाद ही रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बन गये थे।
स्वामी विवेकानंद


स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था। उनका बचपन का नाम नरेन्द्र था। नरेन्द्र की माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। वह बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति की सद्गृहस्थ महिला थीं। वे अत्यन्त बुद्धिमान और तेजस्विनी थीं। वह बहुत जल्दी ही अपने संपर्क में आने वाले लोगों को प्रभावित कर देती थीं। उन्हें रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक ग्रन्थों का अच्छा ज्ञान था। दोनों ग्रन्थ उन्होंने कंठस्थ ही कर रखे थे। नरेन्द्र को अंग्रेजी की प्रारंभिक शिक्षा अपनी मां से ही मिली। उन्होंने भी मां की तरह कई धार्मिक ग्रन्थों के प्रसंग याद कर रखे थे। वह घर पर ही ध्यान में तल्लीन हो जाते। एक दिन तो घर वालों ने कमरे का दरवाजा तोड़कर उन्हें जोर से हिलाया तब उनका ध्यान टूटा।

माता उनकी चंचलता देखकर कह उठतीं- मैंने शिवजी से पुत्र मांगा था, उन्होंने यह भूत भेज दिया। वही भूत आगे चलकर देश-विदेश में हिन्दू राष्ट्र और संस्कृति का कितना बड़ा नाम कर गया यह सारी दुनिया जानती है। उन्हें पशु-पंक्षियों और प्राकृतिक दृश्यों से बड़ा लगाव था। छह वर्ष की अवस्था में उन्हें पाठशाला भेजा गया। अगले वर्ष पंडित ईश्वर चन्द्र विद्यासागर द्वारा स्थापित मैट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट में प्रवेश दिलाया गया। वे हाजिर जबाब थे। उन्हें तलवारबाजी, लाठीचालन, कुश्ती, नौका और कई तरह के खेल पसन्द थे। पाक विद्या अर्थात् रसोई के कार्य में भी वे बड़ी रूचि लेते थे। सन् 1877 ई0 में वह कक्षा 3 के विद्यार्थी थे। पिता को किसी कार्यवश रायपुर जाना पड़ा। नरेन्द्र भी उनके साथ थे जिस कारण उनकी स्कूली शिक्षा बाधित हो गयी। दो वर्ष बाद वे कलकत्ता लौटे। उनकी कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए ही उन्हें पुनः प्रवेश मिल सका लेकिन इससे भी बड़े आश्चर्य की बात थी कि उन्होंने तीन वर्ष का पाठ्यक्रम मात्र एक वर्ष में ही पूरा कर लिया। कालेज प्रवेश परीक्षा में वे विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण हुए। इस अवधि में उनकी ध्यान और साधना काफी बढ़ गई थी। उन्हें प्रेसीडेन्सी कालेज में प्रवेश मिला। वहां के प्रधानाचार्य डब्लूडब्लू हेस्टी ने एक बार कहा था- ’’मैंने सुदूर देशों का भ्रमण किया है लेकिन कहीं भी नरेेंद्र जैसा प्रतिभावान और संभावनाओं से भरा शिष्य नहीं देखा।

जान स्टुअर्ट मिल, ह्यूम और हर्बर्ट स्पेन्सर के अध्ययन से उनके विचारों में काफी बड़ा परिवर्तन आया। उन पर ब्रह्म समाज के नेता केशव चन्द्र सेन का बड़ा प्रभाव था। सत्य को जानने की तीव्र आकांक्षा से वे ब्रह्म समाजी नेता महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर के पास भी गये। जब उन्होंने देवेन्द्र नाथ ठाकुर से पूछा- क्या आपने ईश्वर को देखा है? यह सुनकर वे सकते में आ गये। उन्होंने नरेंद्र को रामकृष्ण परमहंस के पास भेजा। रामकृष्ण हुगली जिले के छोटे से गांव में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में पुजारी थे। उन्होंने कई धर्मों का ज्ञान प्राप्त किया था। नरेन्द्र ने अपने कालेज के प्रधानाचार्य विलियम हेस्टी से उनका उल्लेख सुना था। जब वह विलियम वर्डस्वर्थ की कविता का भावार्थ समझा रहे थे।
रामकृष्ण परमहंस नरेन्द्र से कुछ इस तरह मिले जैसे पूर्व परिचित हों और लम्बे अरसे से उनकी बाट देख रहे हों। रामकृष्ण से जब उन्होंने ईश्वर क¨ देखने की बात पूछी तो उन्होंने कहा- ’’ठीक ऐसे ही देखा है जैसे मैं तुझसे बात कर रहा हूं।’’ नरेन्द्र इस घटना के एक महीने बाद पुनः दक्षिणेश्वर आये तो रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें छू दिया। उनके स्पर्श मात्र से उनके अन्दर की अभिनव अनुभूति जाग गयी। फिर नरेन्द्र का हफ्ते-पन्द्रह दिन में आना-जाना होता रहा। इसी बीच, 1884 में नरेन्द्र के पिता की हृदयगति रुक जाने से मृत्यु हो गयी। छह-सात लोगों के भरण-पोषण का भार अब उन्हीं पर आ गया। पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की और लाॅ कालेज में प्रवेश लिया। अत्यन्त धनी बाप के बेटे को गरीब की तरह बिना जूते के मोटे कपड़े पहने भूखे पेट ही कालेज जाना पड़ता था। नरेन्द्र और रामकृष्ण की निकटता बढ़ती गयी।

1885 में रामकृष्ण परमहंस को गले का कैंसर हुआ। उन्हें श्याम पुकुर से काशीपुर के उद्यान भवन में लाया गया। एक दिन रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें निर्देश दिया- मैं तेरे संरक्षण में इन लोगों को छोड़ता हूं। देखना मेरे चले जाने के बाद यह साधना-भजन छोड़कर कहीं घर वापस न जायें। 16 अगस्त 1886 को श्री रामकृष्ण ने महासमाधि ली। उसके बाद नरेन्द्र ने वराहनगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की जिसे बाद में रामकृष्ण मठ में बदल दिया गया। उन्होंने एक दिन विरजा होम संस्कार कर ब्रह्मचर्य और त्याग का व्रत लिया। 1888 तक वह वराहनगर में ही रहे उसके बाद कलकत्ता छोड़ वाराणसी, अयोध्या, लखनऊ, आगरा, वृन्दावन और हाथरस होकर हिमालय की यात्रा को चले गये। हाथरस रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर शरदचंद्र गुप्त से उनकी भेंट हुयी जिन्हें उन्होंने प्रथम शिष्य बनाया और सदानन्द नाम दिया। एक वर्ष के उपरान्त वह गाजीपुर में पवहारी बाबा से मिले। 1890 में वह वापस वराह नगर पहुंचे। उनके गुरुभाई स्वामी अखंण्डानन्द तभी तिब्बत यात्रा से लौटे थे।
फरवरी 1891 में स्वामीजी एकांगी हो गये और दो वर्ष तक परिव्राजक के रूप में भ्रमण करते रहे। इस बीच वह राजपूताने की यात्रा पर निकले और इसी दौरान अलवर के महाराजा मंगल सिंह से भी मिले। महाराजा मूर्ति पूजा पर विश्वास नहीं करते थे लेकिन स्वामी विवेकानन्द से हुयी वार्ता के बाद उनकी आंखें खुल गयीं। खेतड़ी के महाराजा उनसे पहले ही शिक्षा ले चुके थे। एक दिन संध्या को एक नर्तकी महाराज का मनोरंजन कर रही थी। महाराज ने स्वामी जी को भी आने का निमंत्रण दिया लेकिन उन्होंने आने से इन्कार कर दिया। यह सूचना जब नर्तकी को मिली तो वह सूरदास का एक पद गाने लगी- ’’प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो’’। नर्तकी के भावपूर्ण स्वर सुनकर स्वामीजी बाहर निकल आये और उन्होंने कहा कि इस घटना ने मेरी आंखों से पर्दा हटा दिया है। हम सभी ईश्वर की अभिव्यक्ति हैं। मैं किसी की निन्दा नहीं कर सकता। वे खेतड़ी महाराज के साथ जयपुर गये अ©र फिर राजपूताना होते हुए बम्बई और दक्षिण भारत की यात्रा की। वह 23 दिसम्बर 1892 को कन्याकुमारी पहुंचे। वहां वह तीन दिन तक सुदीर्घ और गंभीर समाधि में रहे।

वहां से वापस लौटकर स्वामीजी आबू रोड़ में अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानन्द और स्वामी तूर्यानन्द से मिले। उन्होंने उन दोनों से कहा- ’’मैं सारे भारत में घूमा हूं। देश की दरिद्रता और दुखों को देखकर मेरे आंसू नहीं रुक पाते। अब मैं इनकी मुक्ति के लिये अमेरिका जा रहा हूं। इकत्तीस मई 1893 को वह बम्बई से अमेरिका के लिये रवाना हुये। उन्होंने लंका, पनामा, सिंगापुर, हांगकांग, कैन्टान, नागाशाकी, ओसाका, क्योटो, टोक्यो, योकोहामा होते हुए जुलाई के अन्त में शिकागो पहुंचे। उन्होंने रास्ते में चीन और जापान के मंदिरों में भारत के धार्मिक प्रभावों के अवशेष देखे। चीन में संस्कृत पाण्डुलिपि देखकर वह आश्चर्यचकित थे, जापान में उन्हें बंग्ला लिपि में संस्कृत मंत्रों को देखकर अचरज हुआ। शिकागो पहुंचने के कुछ दिन पश्चात् उन्होंने विश्व धर्म मेले के सूचना विभाग में सम्पर्क किया तो पता चला कि सितम्बर के प्रथम सप्ताह में धर्म सम्मेलन शुरू होगा। उसमें हिस्सा लेने के लिए समुचित परिचय पत्र होना आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति उस सम्मेलन में ऐसे ही शामिल नहीं हो सकता। उन्होंने मद्रास के एक मित्र को तार भेजकर सहायता की मांग की लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी।
शिकागो की अपेक्षा बोस्टन कम खर्चीला था इसलिए स्वामी विवेकानन्द बोस्टन के लिए रवाना हुए। रास्ते में उनकी भेंट अमेरिकन महिला से हुयी जिसने उन्हें अपने घर रहने का निमन्त्रण दिया। उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में यूनानी विभाग के प्रोफेसर जेएच राइट का परिचय दिया। श्री राइट का एक मित्र डा. बोरोज धर्म संसद प्रतिनिधि चयन समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने एक पत्र देकर स्वामीजी को उनके पास भेजा। उन्होंने पत्र में लिखा-’’यह एक ऐसा मनुष्य है जो हमारे सब प्रोफेसरों को मिला देने पर उनसे कहीं अधिक विद्वान है।’’ उन्होंने स्वामी जी को शिकागो का टिकट भी खरीदकर दिया। जब वह शिकागो पहुंचे तो समिति का पता उनके हाथ से खो गया। वे थक कर चकनाचूर हो गये। इस हताशा के क्षण में श्रीमती जार्ज डब्लू ह्वेल से उनका परिचय हुआ। ह्वेल ने स्वामीजी को धर्म महासभा के कार्यालय में पहुंचाया। उन्हें प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार कर लिया गया। स्वामीजी धर्म सम्मेलन के प्रतिनिधियों के साथ ठहरा दिये गये।

कोलम्बस हाल में 11 सितम्बर 1893 को धर्म संसद आरम्भ हुयी उसमें 120 करोड़ मानवों के धार्मिक विश्वासों के प्रतिनिधि विराजमान थे। रोमन कैथोलिक चर्च के सर्वोच्च धार्मिक नेता कार्डीनल गिब्बन्स के दोनों ओर प्रतिनिधियों को बैठाया गया जिनमें प्रताप चन्द्र मजूमदार, बम्बई से ब्रह्म समाज के प्रतिनिधि नगरकर, लंका के बौद्ध प्रतिनिधि धर्मपाल, जैनियों के प्रतिनिधि महात्मा गांधी, श्रीमती ऐनी बीसेन्ट के साथ श्री चक्रवर्ती थियोसाॅफिकल सोसाइटी के प्रतिनिधि थे। उन्हीं के बीच स्वामी विवेकानन्द भी शामिल हुए। तीसरे पहर स्वामी विवेकानन्द को अध्यक्ष के जोर देने पर खड़ा होना पड़ा। उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया- ’’अमेरिका निवासी बहनो और भाइयो!’’ इसके बाद स्वामी विवेकानन्द बोल न सके। समूचा सभास्थल तालियों से गडगडा उठा। स्वामी विवेकानन्द के सम्बोधन पर सभी श्रोता मन्त्रमुग्ध थे। उनसे पूर्व इतना हृदयस्पर्शी सम्बोधन कोई धर्म प्रतिनिधि नहीं दे सका था। देर तक सभा स्थल हर्षोल्लास से भरा हुआ था। लगभग पांच मिनट तक स्वामी विवेकानन्द ने बोलने की कोशिश की लेकिन खुशी के शोर में उनकी आवाज कोई सुन न सका।
Swami Vivekananda
स्वामी जी ने विश्व के युवाओं को सहिष्णुता की शिक्षा दी। उन्होंने दो श्लोकों का उद्धरण देते हुए कहा कि यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना है तो वह किसी देश-काल की सीमा में नहीं रह सकता। वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा जिसका उपदेश सूर्य, कृष्ण, ईसा और दूसरे धर्मगुरुओं ने समय-समय पर दिया है। उन्होंने अन्त में शुद्धता, पवित्रता, दयाशीलता, उन्नत चरित्र तथा गरीबों और असहायों पर दया की शिक्षा दी। अमेरिका के समाचार पत्रों में स्वामी विवेकानन्द पूरी तरह से छा गये थे। किसी समाचार पत्र ने उन्हें मशीहा तो किसी ने उन्हें ऋषि की संज्ञा दी। दि न्यूयार्क हेरल्ड ने ‘धर्म महासभा के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति‘ की संज्ञा दी। उसने लिखा- ऐसे ज्ञानी देश में मिशनरियों को भेजना कितनी मूर्खता की बात है।

स्वामी विवेकानन्द की सफलता के समाचार शीघ्र ही भारत के सभी शहरों में पहुंच गये। मद्रास से अल्मोड़ा, कलकत्ता से बम्बई, सभी भारतीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने स्वामी विवेकानन्द की सफलता की चर्चा की। वराह नगर रामकृष्ण मठ के सन्यासियों को भी यह समाचार मिला तो उनके आनन्द की सीमा न रही। इस धर्म सम्मेलन के बाद स्वामीजी अमेरिका के विभिन्न विद्यापीठों, संस्कृति केन्द्रों के प्रवास पर गये। उन्होंने ब्रूकलिन एथिकल एसोसिएशन के निमंत्रण पर आध्यात्मिक प्रकाश का मार्गदर्शन किया। जिज्ञासुओं को राजयोग और ज्ञानयोग का अभ्यास कराया। वह यूरोप और जर्मनी की यात्राओं पर भी गये जहां उन्होंने कई केन्द्र स्थापित कर अपने वेदान्त आन्दोलन का आरम्भ किया। 1895 में वह इंग्लैण्ड गये और लगभग डेढ़ वर्ष यूरोपीय संस्कृति के केन्द्र पेरिस में अजायबघर, गिरजाघर, केथेड्रल, आर्ट गैलरी और कला सम्पदा देखकर खूब मुग्ध हुए।

लंदन में उनकी भेंट मार्गेट नोबल से हुयी जो बाद में भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुयीं। स्वामीजी ने अपने गुरुभाई स्वामी शारदानन्द को लन्दन का काम सौंपकर पुनः अमेरिका का रुख किया जिन्हें बाद में न्यूयार्क बुला लिया गया था। 30 दिसम्बर 1896 को स्वामी जी स्वदेश के लिए रवाना हुए। लगभग 15 दिन बाद वह लंका के समुद्रतट पर पहुंचे। कोलम्बो पहुंचने पर धार्मिक स्त्रोतों, ध्वजाओं और पताकाओं के साथ जयघोष से उनका स्वागत किया गया। वे वहां 10 दिन रहे। फिर वे मद्रास पहुंचे जहां उनका बड़े धर्मगुरू की तरह स्वागत किया गया। उन्होंने वहीं विश्व के युवाओं का आह्वान किया - ’’उठो, जागो और ध्येय की प्राप्ति तक रुको मत। आत्मा अनन्त, सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ है। यदि सारी दुनिया हाथ में नंगी तलवार लेकर तुम्हारे विरोध में खड़ी हो जाये तो भी तुम जिसे सत्य समझते हो, उसे पूरा करने का साहस करो।’’ 28 फरवरी 1897 को वराहनगर रामकृष्ण मठ की ओर से स्वामी विवेकानन्द का अभिनन्दन किया गया जिसकी अध्यक्षता राजा विनय कृष्ण देव बहादुर ने की।

स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवनकाल में वेलूर मठ की स्थापना के अलावा अमरनाथ, अल्मोड़ा जैसे सुदूर हिमालय क्षेत्रों की यात्राएं भी कीं। वह दूसरी विदेश यात्रा पर 20 जून 1899 को रवाना हुए। अमेरिका में स्वामी तूर्यानन्द को ले जाकर वहां के कार्य को पुनः गति प्रदान की। वे न्यूयार्क के निकट मांट क्लेयर में रूक गये। स्वामी विवेकानन्द ने केलीफोर्निया, सान फ्रान्सिस्को, ओकलैण्ड, अलॅमेडा आदि स्थानों पर नये केन्द्र खोले। जुलाई 1900 में वे पेरिस पहुंचे जहां कांग्रेस आॅफ दि हिस्ट्री रिलीजन्स में शामिल हुए। लगभग तीन महीने पेरिस में रहकर विएना, कुस्तुन्तुनिया, एथेन्स और  मिस्र होते हुए वे दिसम्बर में मातृभूमि वापस आ गये। सन् 1901 में वह पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा पर गये। अगले वर्ष उन्होंने बनारस की यात्रा की। स्वामी विवेकानन्द ने 39 वर्ष की अवस्था में देहत्याग कर दिया।

स्वामी विवेकानंद पर अन्य लेख और जानकारियां 


Share:

बाल शहीद वीर हकीकत राय दे दी जान पर धर्म नहीं छोड़ा



जिन दिनों श्री गुरू हरि राय साहब स्यालकोट (पँजाब) पहुँचे, वहाँ भाई नंदलाल क्षेत्री गलोटियां खुरद क्षेत्रों में निवास करते थे। उन्हाेंने गुरूदेव का भव्य स्वागत किया और उनसे सिक्खी धरण की । इनके सुपुत्रा श्री बाघमल जी, स्थानीय हुक्मरान अमीर बेग के पास एक अधिकारी के रूप में कार्यरत हुए, आगामी समय में श्री बाघमल की सुपत्नि श्रीमती गौरा जी ने एक बालक को जन्म दिया, जिसका नाम हकीकत राय रखा गया। हकीकत राय बहुत प्रतिभाशाली और साहसी युवक निकला। इसकी माता ने इसे सिक्ख गुरूजनों के जीवन वृतान्त सुना-सुना कर आत्मगौरव से जीना सीखा दिया था। सिक्खी तो घर में थी परन्तु पंजाब सरकार के सिक्ख विरोधी अभियानों के कारणहकीकत राय केश धरण न कर सका। इसके पीछे राजनीतिक दबाव अथवा सामाजिक विवशता थी परन्तु उसका मन सदैव गुरू चरणों से जुड़ा रहता था। इस परिवार में सिक्खी के वातावरण को देखते हुए बटाला नगर जिला गुरदासपुर के निवासी सरदार किशन सिंह जी ने अपनी सुपुत्राी का विवाह हकीकत राय से कर दिया । उन दिनों केशधरी युवक दल खालसा के सदस्य बन चुके थे अथवा शहीद कर दिये गये थे। अतः विवशता के कारण सरदार किशन सिंह जी ने हकीकत राय को अपनी सुपुत्राी के लिए उचित वर समझा।
बाल शहीद वीर हकीकत राय दे दी जानपर धर्म नहीं छोड़ा
बाल शहीद वीर हकीकत राय दे दी जानपर धर्म नहीं छोड़ा
हकीकत राय का जन्म सन् 1724 ईस्वी में हुआ था। इन्हें इनके पिता बाघमल जी ने उच्च शिक्षा दिलवाने के विचार से, सन् 1741 में मौलवी अब्दुल हक के मदरसे में भेज दिया । वहाँ हकीकत राय अपने सहपाठियों से बहुत मिलजुल कर शिक्षा ग्रहण करते थे, वैसे भी बहुत नम्र स्वभाव और मधुर भाषी होने के कारण लोकप्रिय थे। परन्तु एक दिन ‘भइया दूज के दिन’ वह अपने माथे पर तिलक लगवा कर मदरसे पहुँच गये। मुसलमान विद्यार्थियों ने उनकी खिल्ली उड़ाई और बहुत अभद्र व्यंग्य किये। इस पर हकीकत राय ने बहुत तर्कसंगत उत्तर दिये। जिसे सुनकर सभी विद्यार्थी निरूत्तर हो गये । परन्तु बहुमत मुसलमान विद्यार्थियों का था। अतः वे हिन्दू विद्यार्थी से नीचा नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने हीनभावना के कारण मौलवी को बीच में घसीटा और इस्लाम का पक्ष प्रस्तुत करने को कहा - मौलवी ने एक विचार गोष्ठि का आयोजन कर दिया। दोनों पक्षों में जम कर बहस हुई और एक दूसरों की त्राुटियों को लक्ष्य बना कर आरोप लगाए गये, इन खामियों के कारण बात लांछन तक पहुँच गई। मुस्लिम विद्यार्थियों का पक्ष बहुत कमजोर रहा। वे पराजित हो गये परन्तु उनके स्वाभिमान को बहुत ठेस पहुँची, अतः वे हठध्र्मी करने लगे कि हकीकत राय उनसे माफी माँगे परन्तु हकीकत राय ने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया। इस पर मुस्लिम विद्यार्थियों ने दबाव बनाने के लिए अपनी अपनी पगडि़यां उतार कर मौलवी के समक्ष रख दी और कहा - हकीकत राय को पैगम्बरों के अपमान करने का दण्ड मिलना चाहिए। हकीकत राय का तर्क था कि मैंने कोई झूठ नहीं कहा और मैंने कोई अपराध नहीं किया जो सत्य था, उसकी ही व्याख्या की है। यह बातें सभी को स्वीकार करनी चाहिए। इस पर मौलवी भी दुविधा में पड़ गया, उसने मुस्लिम विद्यार्थियों के दबाव में इस कांड का निर्णय करने के लिए शाही काज़ी के सम्मुख प्रस्तुत किया।
शाही काज़ी ने घटनाक्रम को जाँचा तो वह आग बबूला हो गया। उसका विचार था जब हम सत्ता में हैं तो इन हिन्दू लोगों कि यह हिम्मत कि हमारे पैगम्बरों पर लांछन लगाये। अतः उसने हकीकत राय को गिरफ्रतार करवा कर कारावास में डलवा दिया और उस पर दबाव बनाया कि वह इस्लाम स्वीकार कर ले। परन्तु हकीकत राय किसी और मिट्टी का बना हुआ था, वह अपने विश्वास से टस से मस नहीं हुआ। स्थानीय प्रशासक अमीर बेग तक जब यह बात पहुँची तो उसने विद्यार्थियों का मन-मुटाव कह कर हकीकत राय को हरजाना (आर्थिक दण्ड) लगाकर छोड़ने का आदेश दिया परन्तु शाही मौलवी ने उसे इस न्याय के लिए लाहौर भेज दिया।
उन दिनों लाहौर के घर घर शहीद मनी सिंह, महताब सिंह, बोता सिंह, गरर्जा सिंह इत्यादि की ध्र्म प्रति निष्ठा और उनके बलिदान की चर्चाएं हो रही थी। ऐसे में हकीकत राय के मन में ध्र्म के प्रति आत्म बलिदान देने की इच्छा बलवती हो गई। घर से चलते समय उसकी माता औरपत्नि ने उन्हें विशेष रूप से प्रेरित किया कि ध्र्म के प्रति सजग रहना है, पीठ नहीं दिखानी है और गुरूदेव के आदेशों से बेमुख नहीं होना, भले ही अपने प्राणों की आहुति ही क्यों न देनी पड़े।
लाहौर के शाही काज़ी के पास जब यह मुकद्दमा पहुँचा तो उसने भी स्यालकोट के काज़ी का ज्यों का त्यों फैसला रखा, उसने कह दिया कि पैगम्बर साहब की शान में गुस्ताखी (अवज्ञा) करने वाले को इस्लाम कबूलना होगा, नहीं तो मृत्यु दण्ड निश्चित ही है। इस पर लाहौर नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति दीवान सूरत सिंह, लाला दरगाही मल्ल तथा जमांदार कसूर बेग इत्यादि लोगों ने राज्यपाल जक्रिया खान से कहा कि वह हकीकत राय को छोड़ दे परन्तु वह उन दिनों काजि़यों के चक्र में फँस कर हठध्र्मी पर अड़ा हुआ था, अतः उसने किसी की भी सिफारिश नहीं मानी और इस्लाम कबूल करने अथवा मृत्यु दण्ड का आदेश बरकरार रखा।
उन दिनों कई केशाधरी सिक्ख कैदी भी मृत्यु दण्ड की प्रतीक्षा में जक्रिया खान की जेलों में बन्द पड़े थे। उनसे प्रेरणा पाकर हकीकत राय का मनोबल बढ़ता ही चला गया, वह मृत्यु दण्ड का समाचार सुनकर भेड़ों की तरह भयभीत होकर भैं-भैं न करके शेरों की तरह गर्जना करने लगा । 
इस प्रकार वीर योद्धा 18 वर्षीय हकीकत राय को सन् 1742 ईस्वी की बसन्त पंचमी वाले दिन लाहौर के नरवास चैक में तलवार के एक झटके से शहीद कर दिया गया। 
जब इस निर्दोष युवक की हत्या की सूचना दल खालसा में पहुँची तो उनहोंने सभी अपराधियों की सूची तैयार कर ली और समय मिलते ही स्यालकोट पहुँचकर छापामार युद्ध कला से उन दोषियों को चुन चुन कर मौत के घाट उतार दिया ।



Share:

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग - सर्वोच्च न्यायलय या संसद



Suprme Court of India
 
न्यायपालिका अपनी स्वतंत्रता की बात करती है और कहती है कि उसके आलावा अगर जजों की नियुक्ति कोई और संस्था करेगी तो न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर कुठाराघात होगा. आखिर लोकतंत्र में सर्वोच्च कौन है? जनता द्वारा चुनी गयी संसद अथवा संसद द्वारा बनाए गए संविधान से न्यायपालिका. न्यायपालिका स्वयं अपने हितों के लिए "उत्कृष्ट और निष्पक्ष जज" कैसे साबित हो सकती है? जब न्यायपालिका में बैठे लोगों के हित स्वयं इस मामले में निहित है तो न्यायपालिका कैसे स्वतंत्र हो कर फैसला दे सकती है?

किसी भी संविधान संशोधन को तब तक असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता जबकि वह संशोधन संविधान की प्रस्तावना या जनता को प्राप्त मूल अधिकार का अतिक्रमण न करता हो. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग किसी भी प्रकार से जनता के मूलअधिकार को छेड़ नहीं रहा था और न ही संविधान की प्रस्तावना के. सुप्रीम कोर्ट का वर्तमान फैसला सिर्फ न्यायपालिका के अपने हितों के संरक्षण करने का उपबंध मात्र है..

हर व्यक्ति अपने मामले में सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीश होता है उसी प्रकार न्यायपालिका ने साबित कर दिया कि वह अपने मामले में सर्वश्रेष्ठ जज है. न्यायपालिका को अब न लोकतंत्र की चिंता है और न ही संविधान की और न ही संसद की, सर्वविदित है कि अपने हितों की रक्षा में आदमी अंधा हो कर काम करता है उससे इन्साफ की उम्मीद नहीं कर सकते है..


Share: