ताजमहल एक शिव मंदिर - Taj Mahal Real History In Hindi



Taj Mahal: A Temple Palace in Hindi 
Taj Mahal: A Temple Palace in Hindi
 
आगरा के ताजमहल का सच संपूर्ण विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने वाले श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक "Tajmahal is a Hindu Temple Palace" और "Taj Mahal: The True Story" में 100 से भी अधिक प्रमाण और तर्को का हवाला देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है और ताज महल स्टोरी के सच को प्रस्तुत किया कि ताजमहल मकबरा नही एक शिव मंदिर है। श्री पी.एन. ओक साहब को उस इतिहासकार के रूप मे जाना जाता है जो भारत के विकृत इतिहास को पुर्नोत्थान और सही दिशा में ले जाने का काम किया है। मुगलो और अग्रेजो के समय मे जिस प्रकार भारत के इतिहास के साथ जिस प्रकार छेड़छाड़ की गई और आज वर्तमान तक मे की जा रही है, उसका विरोध और सही प्रस्तुति कारण करने वाले प्रमुख इतिहासकारो में पुरूषोत्तम नाथ ओक (Historian Purushottam Nath Oak) साहब का नाम लिया जाता है। ओक साहब ने ताजमहल की भूमिका, इतिहास और पृष्ठभूमि से लेकर सभी का अध्ययन किया और छायाचित्रों छाया चित्रों के द्वारा उसे प्रमाणित करने का सार्थक प्रयास किया। श्री ओक के इन तथ्यो पर आज सरकार और प्रमुख विश्वविद्यालय आदि मौन जबकि इस विषय पर शोध किया जाना चाहिये और सही इतिहास से देश और समाज को अवगत कराना चाहिये। किंतु दुःख की बात तो यह है कि आज तक उनकी किसी भी प्रकार से आधिकारिक जाँच नहीं हुई। यदि ताजमहल के शिव मंदिर होने में सच्चाई है तो भारतीयता के साथ बहुत बड़ा अन्याय है। आज भी हम जैसे विद्यार्थियों को झूठे इतिहास की शिक्षा देना स्वयं शिक्षा के लिये अपमान की बात है, क्योंकि जिस इतिहास से हम सबक सीखने की बात कहते है यदि वह ही गलत हो, इससे बड़ा राष्ट्रीय शर्म और क्‍या हो सकता है ? आखिर क्यों ताजमहल की असलियत को देश से छुपाया जा रहा है? इतने मजबूत तथ्यों और तर्कों के बाद भी ताजमहल के सही इतिहास से देश को क्यों वंचित रखा जा रहा है?

A Complete Full and Real Story of Tajmahal
"ताजमहल में शिव का पाँचवा रूप अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर विराजित है"
A Complete Full and Real Story of Tajmahal

वर्तमान लेख प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम नाथ ओक के तर्कों पर आधारित ताज महल के बारे में जानकारी भरा लेख है जिसमे प्रो. ओक. साहब ने बहुत सी आकृतियों और शिल्प सम्बन्धी विसंगतियों को इंगित करते हैं जो शिव मंदिर के पक्ष में विश्वास का समर्थन करते हैं। प्रो. ओक के अनुसार ताजमहल विशाल मकबरा न होकर विशेषतः हिंदू शिव मंदिर है और आज भी ताजमहल के बहुत से कमरे शाहजहाँ के काल से बंद पड़े हैं, जो आम जनता की पहुँच से दूर हैं। प्रो. ओक. ने यह भी जोर देकर कहते हैं कि हिंदू मंदिरों में ही पूजा एवं धार्मिक संस्कारों के लिए भगवान शिव की मूर्ति ,त्रिशूल, कलश और ॐ आदि वस्तुएँ प्रयोग की जाती हैं। ताज महल के सम्बन्ध में यह आम किवदंती प्रचलित है कि ताजमहल के अन्दर मुमताज की कब्र पर सदैव बूँद-बूँद कर पानी टपकता रहता है, यदि यह सत्य है तो पूरे विश्व मे किसी भी कब्र पर बूँद बूँद कर पानी नही टपकाया जाता, जबकि प्रत्येक हिंदू शिव मंदिर में ही शिवलिंग पर बूँद-बूँद कर पानी टपकने की व्यवस्था की जाती है, फिर ताजमहल (मकबरे) में बूँद बूँद कर पानी टपकने का क्या मतलब? इस बात का तोड़ आज तक नहीं खोजा जा सका है।

वर्तमान ताजमहल का फोटो

 
ताजमहल की सच्चाई की कहानी
राजनीतिक भर्त्सना के डर से इंदिरा सरकार ने ओक की सभी पुस्तकें स्टोर्स से वापस ले लीं थीं और इन पुस्तकों के प्रथम संस्करण को छापने वाले संपादकों को भयंकर परिणाम भुगत लेने की धमकियां भी दी गई थीं। प्रो. पी. एन. ओक के अनुसंधान को गलत सिद्ध करने का केवल एक ही रास्ता है कि वर्तमान केन्द्र सरकार बंद कमरों को संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षण में खुलवाए और अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों को छानबीन करने दे!
पी. एन. ओक. को छोड़ कर किसी ने कभी भी इस कथन को चुनौती नहीं दी कि "ताजमहल शाहजहां ने बनवाया था" प्रो. ओक. अपनी पुस्तक "TAJ MAHAL - THE TRUE STORY" द्वारा इस बात में विश्वास रखते हैं कि सारा विश्व इस धोखे में है कि खूबसूरत इमारत ताजमहल को मुगल बादशाह शाहजहाँ ने बनवाया था। ओक कहते हैं कि ताजमहल प्रारम्भ से ही बेगम मुमताज का मकबरा न होकर,एक हिंदू प्राचीन शिव मन्दिर है जिसे तब तेजो महालय कहा जाता था। अपने अनुसंधान के दौरान ओक ने खोजा कि इस शिव मन्दिर को शाहजहाँ ने जयपुर के महाराज जयसिंह से अवैध तरीके से छीन लिया था और इस पर अपना कब्ज़ा कर लिया था।

शाहजहाँ के दरबारी लेखक "मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी" ने अपने "बादशाहनामा" में मुग़ल शासक बादशाह का संपूर्ण वृतांत 1000 से ज़्यादा पृष्ठों मे लिखा है, जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का उल्लेख है कि, शाहजहाँ की बेगम मुमताज-उल-ज़मानी जिसे मृत्यु के बाद, बुरहानपुर मध्य प्रदेश में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके 6 माह बाद तारीख़ 15 ज़मदी-उल- अउवल दिन शुक्रवार,को अकबराबाद आगरा लाया गया फ़िर उसे महाराजा जय सिंह से लिए गए, आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारतें आलीशान) मे पुनः दफनाया गया,लाहौरी के अनुसार राजा जय सिंह अपने पुरखों कि इस आली मंजिल से बेहद प्यार करते थे ,पर बादशाह के दबाव मे वह इसे देने के लिए तैयार हो गए थे। इस बात कि पुष्टि के लिए यहाँ ये बताना अत्यंत आवश्यक है कि जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनो आदेश अभी तक रखे हुए हैं जो शाहजहां द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा जयसिंह को दिए गए थे। शाहजहाँ की बेगम अर्जुमंद बानो (मुमताज) बुरहानपुर (म0प्र0) में 14वें बच्चे के जन्म के समय मरी। उसे वहीं दफना दिया गया था। फिर आगरा में उसकी कब्र कहां से आ गयी? और एक नहीं, दो कब्रें। एक ऊपर एक नीचे। एक को असली और दूसरी को नकली कहते हैं, जबकि वे दोनों ही नकली हैं। मुस्लिम समाज में कब्र खोदना कुफ्र है, और शाहजहाँ यह काम कर अपनी बेगम को जहन्नुम में भेजना कैसे पसंद कर सकता था?

 
इसी प्रकार ताजमहल का मूल नाम तेजोमहालय है, जो भगवान शंकर का मंदिर था। यह मुग़लों के चाकर राजा जय सिंह के वीर पूर्वजों ने बनवाया था, पर शाहजहाँ ने दबाव डालकर जय सिंह से इसे ले लिया। फिर कुरान की आयतें खुदवा कर और नकली कब्रें बनाकर उसे प्रेम का प्रतीक घोषित कर दिया। नकली कब्रें जानबूझ कर वहीं बनाई गयीं, जहां शिवलिंग स्थापित था, ताकि भविष्य में भी उसे हटाकर कभी असलियत सामने न आ सके। ताजमहल में नीचे की ओर अनेक कमरे हैं, जिन्हें खोला नहीं जाता। कहते हैं कि वहां वे सब देव प्रतिमाएं रखी हैं, जिन्हें मंदिर से हटा दिया गया था। कार्बन डेटिंग के आधार पर इसे 1,400 साल पुराना बताया गया है, पर इस सच को सदा छुपाया जाता है। ताज महल का रहस्य आज तक जनता छिपा है औरछिपाया जा रहा है।
 

 

ताजमहल की सच्चाई, रहस्य और इतिहास की कहानी
यह यक्ष प्रश्न है कि ताज महल किसने और कब बनवाया था ? और इसके उत्तर मे हमे हमेशा यह बताया गया कि आगरे के ताजमहल को शाहजहां ने बनवाया है अपितु सच्चाई यह है कि आगरा को प्राचीनकाल में अंगिरा कहते थे, क्योंकि यह ऋषि अंगिरा की तपोभूमि थी। अंगिरा ऋषि भगवान शिव के उपासक थे। बहुत प्राचीन काल से ही आगरा में 5 शिव मंदिर बने थे। यहां के निवासी सदियों से इन 5 शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करते थे। लेकिन अब कुछ सदियों से बालेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल 4 ही शिव मंदिर शेष हैं। 5वें शिव मंदिर को सदियों पूर्व कब्र में बदल दिया गया। स्पष्टतः वह 5वां शिव मंदिर आगरा के इष्ट देव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही हैं, जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे। तेजोमहालय को नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था, क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। यह मंदिर विशालकाय महल क्षेत्र में था। इतिहासकार ओक की पुस्तक अनुसार ताजमहल के हिन्दू निर्माण का साक्ष्य देने वाला काले पत्थर पर उत्कीर्ण एक संस्कृत शिलालेख लखनऊ के वास्तु संग्रहालय के ऊपर तीसरी मंजिल में रखा हुआ है। यह सन् 1155 का है। उसमें राजा परमर्दिदेव के मंत्री संलक्षण द्वारा कहा गया है कि 'स्फटिक जैसा शुभ्र इन्दुमौलीश्‍वर (शंकर) का मंदिर बनाया गया। (वह इतना सुंदर था कि) उसमें निवास करने पर शिवजी को कैलाश लौटने की इच्छा ही नहीं रही। वह मंदिर आश्‍विन शुक्ल पंचमी, रविवार को बनकर तैयार हुआ।
ताजमहल के उद्यान में काले पत्थरों का एक मंडप था, यह एक ऐतिहासिक उल्लेख है। उसी में वह संस्कृत शिलालेख लगा था। उस शिलालेख को कनिंगहम ने जान-बूझकर वटेश्वर शिलालेख कहा है ताकि इतिहासकारों को भ्रम में डाला जा सके और ताजमहल के हिन्दू निर्माण का रहस्य गुप्त रहे। आगरे से 70 मिल दूर बटेश्वर में वह शिलालेख नहीं पाया गया अत: उसे बटेश्वर शिलालेख कहना अंग्रेजी षड्‍यंत्र है। शाहजहाँ ने तेजोमहल में जो तोड़ फोड़ और हेराफेरी की, उसका एक सूत्र सन् 1874 में प्रकाशित भारतीय पुरातत्व विभाग (आर्किओलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) के वार्षिक वृत्त के चौथे खंड में पृष्ठ 216 से 17 पर अंकित है। उसमें लिखा है कि हाल में आगरे के वास्तु संग्रहालय के आंगन में जो चौखुंटा काले बसस्ट का प्रस्तर स्तम्भ खड़ा है वह स्तम्भ तथा उसी की जोड़ी का दूसरा स्तंभ उसके शिखर तथा चबूतरे सहित कभी ताजमहल के उद्यान में प्रस्थापित थे। इससे स्पष्ट है कि लखनऊ के वास्तु संग्रहालय में जो शिलालेख है वह भी काले पत्थर का होने से ताजमहल के उद्यान मंडप में प्रदर्शित था।
हिन्दू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाए जाते हैं। ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है, जो कि शिव मंदिर के लिए एक उपयुक्त स्थान है। शिव मंदिर में एक मंज़िल के ऊपर एक और मंज़िल में दो शिवलिंग स्थापित करने का हिंदुओं में रिवाज था, जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर में देखा जा सकता है। ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर की मंजिल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज का बताया जाता है। जिन संगमरमर के पत्थरों पर कुरान की आयतें लिखी हुई हैं उनके रंग में पीलापन है जबकि शेष पत्थर ऊंची गुणवत्ता वाले शुभ्र रंग के हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कुरान की आयतों वाले पत्थर बाद में लगाए गए हैं। ताज के दक्षिण में एक प्राचीन पशुशाला है। वहां पर तेजोमहालय की पालतू गायों को बांधा जाता था। मुस्लिम कब्र में गाय कोठा होना एक असंगत बात है। ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेश द्वार हैं, जो कि हिन्दू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है। ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है। हिन्दू मंदिरों के लिए गूँज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है। बौद्ध काल में इसी तरह के शिव मंदिरों का अधिक निर्माण हुआ था। ताजमहल का गुम्बज कमल की आकृति से अलंकृत है। आज हजारों ऐसे हिन्दू मंदिर हैं, जो कि कमल की आकृति से अलंकृत हैं। ताजमहल के गुम्बज में सैकड़ों लोहे के छल्ले लगे हुए हैं जिस पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा पाता है। इन छल्लों पर मिट्टी के आलोकित दीये रखे जाते थे जिससे कि संपूर्ण मंदिर आलोकमय हो जाता था। ताजमहल की चारों मीनारें बाद में बनाई गईं।
इतिहासकार ओक के अनुसार ताज एक सात मंजिला भवन है। शहज़ादे औरंगज़ेब के शाहजहाँ को लिखे पत्र में भी इस बात का विवरण है। भवन की चार मंज़िलें संगमरमर पत्थरों से बनी हैं जिनमें चबूतरा, चबूतरे के ऊपर विशाल वृत्तीय मुख्य कक्ष और तहखाने का कक्ष शामिल है। मध्य में दो मंज़िलें और हैं जिनमें 12 से 15 विशाल कक्ष हैं। संगमरमर की इन चार मंजिलों के नीचे लाल पत्थरों से बनी दो और मंज़िलें हैं, जो कि पिछवाड़े में नदी तट तक चली जाती हैं। सातवीं मंज़िल अवश्य ही नदी तट से लगी भूमि के नीचे होनी चाहिए, क्योंकि सभी प्राचीन हिन्दू भवनों में भूमिगत मंज़िल हुआ करती है। नदी तट के भाग में संगमरमर की नींव के ठीक नीचे लाल पत्थरों वाले 22 कमरे हैं जिनके झरोखों को शाहजहाँ ने चुनवा दिया है। इन कमरों को, जिन्हें कि शाहजहाँ ने अतिगोपनीय बना दिया है, भारत के पुरातत्व विभाग द्वारा तालों में बंद रखा जाता है। सामान्य दर्शनार्थियों को इनके विषय में अंधेरे में रखा जाता है। इन 22 कमरों की दीवारों तथा भीतरी छतों पर अभी भी प्राचीन हिन्दू चित्रकारी अंकित हैं। इन कमरों से लगा हुआ लगभग 33 फुट लंबा गलियारा है। गलियारे के दोनों सिरों में एक-एक दरवाज़े बने हुए हैं। इन दोनों दरवाजों को इस प्रकार से आकर्षक रूप से ईंटों और गारे से चुनवा दिया गया है कि वे दीवार जैसे प्रतीत हों।
स्पष्टत: मूल रूप से शाहजहाँ द्वारा चुनवाए गए इन दरवाज़ों को कई बार खुलवाया और फिर से चुनवाया गया है। सन् 1934 में दिल्ली के एक निवासी ने चुनवाए हुए दरवाज़े के ऊपर पड़ी एक दरार से झांककर देखा था। उसके भीतर एक वृहत कक्ष और वहां के दृश्य को देखकर वह हक्का-बक्का रह गया तथा भयभीत-सा हो गया। वहां बीचोंबीच भगवान शिव का चित्र था जिसका सिर कटा हुआ था और उसके चारों ओर बहुत सारी मूर्तियों का जमावड़ा था। ऐसा भी हो सकता है कि वहां पर संस्कृत के शिलालेख भी हों। यह सुनिश्चित करने के लिए कि ताजमहल हिन्दू चित्र, संस्कृत शिलालेख, धार्मिक लेख, सिक्के तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं जैसे कौन-कौन-से साक्ष्य छुपे हुए हैं, उसकी सातों मंजिलों को खोलकर साफ-सफाई कराने की नितांत आवश्यकता है। फ्रांसीसी यात्री बेर्नियर ने लिखा है कि ताज के निचले रहस्यमय कक्षों में गैर मुस्लिमों को जाने की इजाज़त नहीं थी, क्योंकि वहां चौंधिया देने वाली वस्तुएँ थीं। यदि वे वस्तुएँ शाहजहाँ ने खुद ही रखवाई होती तो वह जनता के सामने उनका प्रदर्शन गौरव के साथ करता, परंतु वे तो लूटी हुई वस्तुएँ थीं और शाहजहाँ उन्हें अपने खजाने में ले जाना चाहता था इसीलिए वह नहीं चाहता था कि कोई उन्हें देखे। नदी के पिछवाड़े में हिन्दू बस्तियां, बहुत से हिन्दू प्राचीन घाट और प्राचीन हिन्दू शव दाह गृह हैं। यदि शाहजहाँ ने ताज को बनवाया होता तो इन सबको नष्ट कर दिया गया होता। प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम ओक के अनुसार बादशाहनामा, जो कि शाहजहाँ के दरबार के लेखा-जोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग 1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिए जयपुर के महाराजा जय सिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्बज) लिया गया, जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।
जयपुर के पूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किए गए शाहजहाँ के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फरमानों (नए क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिए घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया। ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुए शिलालेख में वर्णित है कि शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज महल को दफ़नाने के लिए एक विशाल इमारत बनवाई जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। प्रोफ़ेसर ओक लिखते हैं कि शहज़ादे औरंगज़ेब द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृत्तांतों में दर्ज किया गया है जिनके नाम 'आदाब-ए-आलमगिरी', 'यादगारनामा' और 'मुरुक्का-ए-अकबराबादी' (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज के सात मंजिला लोकप्रिय दफन स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगज़ेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिए फरमान जारी किया और बादशाह से सिफारिश की कि बाद में और भी विस्तार पूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाए। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहजहाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।
शाहजहाँ के दरबारी लेखक मुल्ला अब्दुल हमीद लाहौरी ने अपने 'बादशाहनामा' में मुगल शासक बादशाह का संपूर्ण वृत्तांत 1000 से ज्यादा पृष्ठों में लिखा है जिसके खंड एक के पृष्ठ 402 और 403 पर इस बात का उल्लेख है कि शाहजहाँ की बेगम मुमताज-उल-मानी जिसे मृत्यु के बाद बुरहानपुर (मध्य प्रदेश) में अस्थाई तौर पर दफना दिया गया था और इसके 6 माह बाद तारीख 15 मदी-उल-अउवल दिन शुक्रवार को अकबराबाद आगरा लाया गया फिर उसे महाराजा जय सिंह से लिए गए आगरा में स्थित एक असाधारण रूप से सुंदर और शानदार भवन (इमारतें आलीशान) में पुनः दफनाया गया। लाहौरी के अनुसार राजा जयसिंह अपने पुरखों की इस आलीशान मंज़िल से बेहद प्यार करते थे, पर बादशाह के दबाव में वे इसे देने के लिए तैयार हो गए थे। इस बात की पुष्टि के लिए यहां यह बताना अत्यंत आवश्यक है कि जयपुर के पूर्व महाराज के गुप्त संग्रह में वे दोनों आदेश अभी तक रखे हुए हैं, जो शाहजहाँ द्वारा ताज भवन समर्पित करने के लिए राजा जय सिंह को दिए गए थे।

श्री पी.एन. ओक का दावा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है। इस संबंध में उनके द्वारा दिये गये तर्कों का हिंदी रुपांतरण इस प्रकार है। सर्वप्रथम ताजमहल के नाम के सम्बन्ध में श्री ओक साहब ने कहा कि-
  • शाहजहाँ और यहां तक कि औरंगज़ेब के शासनकाल तक में भी कभी भी किसी शाही दस्तावेज़ एवं अखबार आदि में ताजमहल शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।
  • ताजमहल शब्द के अंत में आये 'महल' मुस्लिम शब्द है ही नहीं, अफग़ानिस्तान से लेकर अल्जीरिया तक किसी भी मुस्लिम देश में एक भी ऐसी इमारत नहीं है जिसे कि महल के नाम से पुकारा जाता हो।
  • साधारणतः समझा जाता है कि ताजमहल नाम मुमताज महल, जो कि वहां पर दफनाई गई थी, के कारण पड़ा है। यह बात कम से कम दो कारणों से तर्कसम्मत नहीं है - पहला यह कि शाहजहाँ के बेगम का नाम मुमताज महल था ही नहीं, उसका नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था और दूसरा यह कि किसी इमारत का नाम रखने के लिय मुमताज़ नामक औरत के नाम से "मुम" को हटा देने का कुछ मतलब नहीं निकलता।
  • चूँकि महिला का नाम मुमताज़ था जो कि ज़ अक्षर मे समाप्त होता है न कि ज में (अंग्रेजी का Z न कि J), भवन का नाम में भी ताज के स्थान पर ताज़ होना चाहिये था (अर्थात् यदि अंग्रेजी में लिखें तो Taj के स्थान पर Taz होना था जैसा कि उर्दू में ज के लिए J नही Z का उपयोग किया जाता है)।
  • शाहजहाँ के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख 'ताज-ए-महल' के नाम से किया है जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम तेजोमहालय से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहजहाँ और औरंगज़ेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुये उसके स्थान पर पवित्र मकब़रा शब्द का ही प्रयोग किया है।
  • मक़बरे को कब्रगाह ही समझना चाहिये, न कि महल, इस प्रकार से समझने से यह सत्य अपने आप समझ में आ जायेगा कि हुमायुँ, अकबर, मुमताज़, एतमातुद्दौला और सफ़दरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिंदू महलों या मंदिरों में दफ़नाया गया है।
  • यदि ताज का अर्थ कब्रिस्तान है तो उसके साथ महल शब्द जोड़ने का कोई तुक ही नहीं है। ताजमहल शब्द का प्रयोग मुग़ल दरबारों में कभी किया ही नहीं जाता था, ताजमहल के विषय में किसी प्रकार की मुग़ल व्याख्या ढूंढना ही असंगत है। 'ताज' और 'महल' दोनों ही संस्कृत मूल के शब्द हैं।
 
श्री ओक साहब ने इसको मंदिर कहे जाने की बातो को तर्कसंगत तरीके से बताया है वह निम्न है-
  • ताजमहल शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द तेजोमहालय शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वर महादेव प्रतिष्ठित थे।
  • संगमरमर की सीढ़ियाँ चढ़ने के पहले जूते उतारने की परंपरा शाहजहाँ के समय से भी पहले की थी जब ताज शिव मंदिर था। यदि ताज का निर्माण मक़बरे के रूप में हुआ होता तो जूते उतारने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि किसी मक़बरे में जाने के लिये जूता उतारना अनिवार्य नहीं होता।
  • देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित पच्चीकारी की गई है। इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज़ के मक़बरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भ गृह है।
  • संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिंदू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।
  • ताजमहल के रख-रखाव तथा मरम्मत करने वाले ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कि प्राचीन पवित्र शिव लिंग तथा अन्य मूर्तियों को चौड़ी दीवारों के बीच दबा हुआ और संगमरमर वाले तहखाने के नीचे की मंजिलों के लाल पत्थरों वाले गुप्त कक्षों, जिन्हें कि बंद (seal) कर दिया गया है, के भीतर देखा है।
  • भारतवर्ष में 12 ज्योतिर्लिंग है। ऐसा प्रतीत होता है कि तेजोमहालय उर्फ ताजमहल उनमें से एक है जिसे कि नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। जब से शाहजहाँ ने उस पर कब्ज़ा किया, उसकी पवित्रता और हिंदुत्व समाप्त हो गई।
  • वास्तुकला की विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में 'तेज-लिंग' का वर्णन आता है। ताजमहल में 'तेज-लिंग' प्रतिष्ठित था इसलिये उसका नाम तेजोमहालय पड़ा था।
  • आगरा नगर, जहां पर ताजमहल स्थित है, एक प्राचीन शिव पूजा केन्द्र है। यहां के धर्मावलम्बी निवासियों की सदियों से दिन में पाँच शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करने की परंपरा रही है विशेष कर श्रावन के महीने में। पिछले कुछ सदियों से यहां के भक्तजनों को बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल चार ही शिव मंदिरों में दर्शन-पूजन उपलब्ध हो पा रही है। वे अपने पाँचवे शिव मंदिर को खो चुके हैं जहां जाकर उनके पूर्वज पूजा पाठ किया करते थे। स्पष्टतः वह पाँचवाँ शिवमंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही है जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।
  • आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है। जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं। The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे। अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे। इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था।
ओक साहब ने भारतीय प्रामाणिक दस्तावेज़ों द्वारा इसे मकबरा मानने से इंकार कर दिया है
  • बादशाहनामा, जो कि शाहजहाँ के दरबार के लेखाजोखा की पुस्तक है, में स्वीकारोक्ति है (पृष्ठ 403 भाग-1) कि मुमताज को दफ़नाने के लिये जयपुर के महाराजा जय सिंह से एक चमकदार, बड़े गुम्बद वाला विशाल भवन (इमारत-ए-आलीशान व गुम्ब़ज) लिया गया जो कि राजा मानसिंह के भवन के नाम से जाना जाता था।
  • ताजमहल के बाहर पुरातत्व विभाग में रखे हुये शिलालेख में वर्णित है कि शाहजहाँ ने अपनी बेग़म मुमताज़ महल को दफ़नाने के लिये एक विशाल इमारत बनवाया जिसे बनाने में सन् 1631 से लेकर 1653 तक 22 वर्ष लगे। यह शिलालेख ऐतिहासिक घपले का नमूना है। पहली बात तो यह है कि शिलालेख उचित व आधिकारिक स्थान पर नहीं है। दूसरी यह कि महिला का नाम मुमताज़-उल-ज़मानी था न कि मुमताज़ महल। तीसरी, इमारत के 22 वर्ष में बनने की बात सारे मुस्लिम वर्णनों को ताक में रख कर टॉवेर्नियर नामक एक फ्रांसीसी अभ्यागत के अविश्वसनीय रुक्के से येन केन प्रकारेण ले लिया गया है जो कि एक बेतुकी बात है।
  • शहजादा औरंगजेब के द्वारा अपने पिता को लिखी गई चिट्ठी को कम से कम तीन महत्वपूर्ण ऐतिहासिक वृतान्तों में दर्ज किया गया है, जिनके नाम 'आदाब-ए-आलमगिरी', 'यादगारनामा' और 'मुरुक्का-ए-अकब़राबादी' (1931 में सैद अहमद, आगरा द्वारा संपादित, पृष्ठ 43, टीका 2) हैं। उस चिट्ठी में सन् 1662 में औरंगज़ेब ने खुद लिखा है कि मुमताज़ के सात मंजिला लोकप्रिय दफ़न स्थान के प्रांगण में स्थित कई इमारतें इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उनमें पानी चू रहा है और गुम्बद के उत्तरी सिरे में दरार पैदा हो गई है। इसी कारण से औरंगजेब ने खुद के खर्च से इमारतों की तुरंत मरम्मत के लिये फरमान जारी किया और बादशाह से सिफ़ारिश की कि बाद में और भी विस्तार पूर्वक मरम्मत कार्य करवाया जाये। यह इस बात का साक्ष्य है कि शाहजहाँ के समय में ही ताज प्रांगण इतना पुराना हो चुका था कि तुरंत मरम्मत करवाने की जरूरत थी।
  • जयपुर के भूतपूर्व महाराजा ने अपनी दैनंदिनी में 18 दिसंबर, 1633 को जारी किये गये शाहजहाँ के ताज भवन समूह को मांगने के बाबत दो फ़रमानों (नये क्रमांक आर. 176 और 177) के विषय में लिख रखा है। यह बात जयपुर के उस समय के शासक के लिये घोर लज्जाजनक थी और इसे कभी भी आम नहीं किया गया।
  • राजस्थान प्रदेश के बीकानेर स्थित लेखागार में शाहजहाँ के द्वारा (मुमताज़ के मकबरे तथा कुरान की आयतें खुदवाने के लिये) मरकाना के खदानों से संगमरमर पत्थर और उन पत्थरों को तराशने वाले शिल्पी भिजवाने बाबत जयपुर के शासक जयसिंह को जारी किये गये तीन फ़रमान संरक्षित हैं। स्पष्टतः शाहजहाँ के ताजमहल पर ज़बरदस्ती कब्ज़ा कर लेने के कारण जय सिंह इतने कुपित थे कि उन्होंने शाहजहाँ के फरमान को नकारते हुये संगमरमर पत्थर तथा (मुमताज़ के मकब़रे के ढोंग पर कुरान की आयतें खोदने का अपवित्र काम करने के लिये) शिल्पी देने के लिये इंकार कर दिया। जय सिंह ने शाहजहाँ की मांगों को अपमानजनक और अत्याचार युक्त समझा। और इसीलिये पत्थर देने के लिये मना कर दिया साथ ही शिल्पियों को सुरक्षित स्थानों में छुपा दिया।
  • शाहजहाँ ने पत्थर और शिल्पियों की मांग वाले ये तीनों फ़रमान मुमताज़ की मौत के बाद के दो वर्षों में जारी किया था। यदि सचमुच में शाहजहाँ ने ताजमहल को 22 साल की अवधि में बनवाया होता तो पत्थरों और शिल्पियों की आवश्यकता मुमताज़ की मृत्यु के 15-20 वर्ष बाद ही पड़ी होती।
  • किसी भी ऐतिहासिक वृतान्त में ताजमहल, मुमताज़ तथा दफ़न का कहीं भी जिक्र नहीं है। न ही पत्थरों के परिमाण और दाम का कहीं जिक्र है। इससे सिद्ध होता है कि पहले से ही निर्मित भवन को कपट रूप देने के लिये केवल थोड़े से पत्थरों की जरूरत थी। जय सिंह के सहयोग के अभाव में शाहजहाँ संगमरमर पत्थर वाले विशाल ताजमहल बनवाने की उम्मीद ही नहीं कर सकता था।
 
विदेशी और यूरोपीय अभ्यागतों के अभिलेख द्वारा मत स्‍पष्‍ट करना
  • टॉवेर्नियर, जो कि एक फ्रांसीसी जौहरी था, ने अपने यात्रा संस्मरण में उल्लेख किया है कि शाहजहाँ ने जानबूझ कर मुमताज़ को 'ताज-ए-मकान', जहाँ पर विदेशी लोग आया करते थे जैसे कि आज भी आते हैं, के पास दफ़नाया था ताकि पूरे संसार में उसकी प्रशंसा हो। वह आगे और भी लिखता है कि केवल चबूतरा बनाने में पूरी इमारत बनाने से अधिक खर्च हुआ था। शाहजहाँ ने केवल लूटे गये तेजोमहालय के केवल दो मंजिलों में स्थित शिवलिंगों तथा अन्य देवी देवता की मूर्तियों के तोड़ फोड़ करने, उस स्थान को कब्र का रूप देने और वहाँ के महराबों तथा दीवारों पर कुरान की आयतें खुदवाने के लिये ही खर्च किया था। मंदिर को अपवित्र करने, मूर्तियों को तोड़ फोड़ कर छुपाने और मकब़रे का कपट रूप देने में ही उसे 22 वर्ष लगे थे।
  • एक अंग्रेज अभ्यागत पीटर मुंडी ने सन् 1632 में (अर्थात् मुमताज की मौत को जब केवल एक ही साल हुआ था) आगरा तथा उसके आसपास के विशेष ध्यान देने वाले स्थानों के विषय में लिखा है जिसमें के ताज-ए-महल के गुम्बद, वाटिकाओं तथा बाजारों का जिक्र आया है। इस तरह से वे ताजमहल के स्मरणीय स्थान होने की पुष्टि करते हैं।
  • डी लॉएट नामक डच अफसर ने सूचीबद्ध किया है कि मानसिंह का भवन, जो कि आगरा से एक मील की दूरी पर स्थित है, शाहजहाँ के समय से भी पहले का एक उत्कृष्ट भवन है। शाहजहाँ के दरबार का लेखाजोखा रखने वाली पुस्तक, बादशाहनामा में किस मुमताज़ को उसी मानसिंह के भवन में दफ़नाना दर्ज है।
  • बेर्नियर नामक एक समकालीन फ्रांसीसी अभ्यागत ने टिप्पणी की है कि गैर मुस्लिम लोगों का (जब मानसिंह के भवन को शाहजहाँ ने हथिया लिया था उस समय) चकाचौंध करने वाली प्रकाश वाले तहखानों के भीतर प्रवेश वर्जित था। उन्होंने चांदी के दरवाजों, सोने के खंभों, रत्नजटित जालियों और शिवलिंग के ऊपर लटकने वाली मोती के लड़ियों को स्पष्टतः संदर्भित किया है।
  • जॉन अल्बर्ट मान्डेल्सो ने (अपनी पुस्तक `Voyages and Travels to West-Indies' जो कि John Starkey and John Basset, London के द्वारा प्रकाशित की गई है) में सन् 1638 में (मुमताज़ के मौत के केवल 7 साल बाद) आगरा के जन-जीवन का विस्तृत वर्णन किया है परंतु उसमें ताजमहल के निर्माण के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि सामान्यतः दृढ़तापूर्वक यह कहा या माना जाता है कि सन् 1631 से 1653 तक ताज का निर्माण होता रहा है।
 

ताज के गुम्मद पर स्थापित कलश किसके ऊपर नारियल की आकृति बनी है


संस्कृत शिलालेख द्वारा ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन

एक संस्कृत शिलालेख भी ताज के मूलतः शिव मंदिर होने का समर्थन करता है। इस शिलालेख में, जिसे कि गलती से बटेश्वर शिलालेख कहा जाता है (वर्तमान में यह शिलालेख लखनऊ अजायबघर के सबसे ऊपर मंजिल स्थित कक्ष में संरक्षित है) में संदर्भित है, "एक विशाल शुभ्र शिव मंदिर भगवान शिव को ऐसा मोहित किया कि उन्होंने वहाँ आने के बाद फिर कभी अपने मूल निवास स्थान कैलाश वापस न जाने का निश्चय कर लिया।"
शाहजहाँ के आदेशानुसार सन् 1155 के इस शिलालेख को ताजमहल के वाटिका से उखाड़ दिया गया। इस शिलालेख को 'बटेश्वर शिलालेख' नाम देकर इतिहासज्ञों और पुरातत्वविज्ञों ने बहुत बड़ी भूल की है क्योंकि क्योंकि कहीं भी कोई ऐसा अभिलेख नहीं है कि यह बटेश्वर में पाया गया था।
वास्तविकता तो यह है कि इस शिलालेख का नाम 'तेजोमहालय शिलालेख' होना चाहिये क्योंकि यह ताज के वाटिका में जड़ा हुआ था और शाहजहाँ के आदेश से इसे निकाल कर फेंक दिया गया था।
शाहजहाँ के कपट का एक सूत्र Archaeological Survey of India Reports (1874 में प्रकाशित) के पृष्ठ 216-217, खंड 4 में मिलता है जिसमें लिखा है, great square black balistic pillar which, with the base and capital of another pillar....now in the grounds of Agra,...it is well known, once stood in the garden of Tajmahal".

थॉमस ट्विनिंग की अनुपस्थित गजप्रतिमा के सम्‍बन्‍ध में कथन

ताज के निर्माण के अनेक वर्षों बाद शाहजहाँ ने इसके संस्कृत शिलालेखों व देवी-देवताओं की प्रतिमाओं तथा दो हाथियों की दो विशाल प्रस्तर प्रतिमाओं के साथ बुरी तरह तोड़ फोड़ करके वहाँ कुरान की आयतों को लिखवा कर ताज को विकृत कर दिया, हाथियों की इन दो प्रतिमाओं के सूंड आपस में स्वागत द्वार के रूप में जुड़े हुये थे, जहाँ पर दर्शक आजकल प्रवेश की टिकट प्राप्त करते हैं वहीं ये प्रतिमाएँ स्थित थीं। थॉमस ट्विनिंग नामक एक अंग्रेज (अपनी पुस्तक "Travels in India A Hundred Years ago" के पृष्ठ 191 में) लिखता है, "सन् 1794 के नवम्बर माह में मैं ताज-ए-महल और उससे लगे हुये अन्य भवनों को घेरने वाली ऊँची दीवार के पास पहुँचा। वहाँ से मैंने पालकी ली और..... बीचोबीच बनी हुई एक सुंदर दरवाजे जिसे कि गजद्वार ('COURT OF ELEPHANTS') कहा जाता था की ओर जाने वाली छोटे कदमों वाली सीढ़ियों पर चढ़ा।"
  • कुरान की आयतों के पैबन्द - ताजमहल में कुरान की 14 आयतों को काले अक्षरों में अस्पष्ट रूप में खुदवाया गया है किंतु इस इस्लाम के इस अधिलेखन में ताज पर शाहजहाँ के मालिकाना ह़क होने के बाबत दूर दूर तक लेशमात्र भी कोई संकेत नहीं है। यदि शाहजहाँ ही ताज का निर्माता होता तो कुरान की आयतों के आरंभ में ही उसके निर्माण के विषय में अवश्य ही जानकारी दिया होता।
  • शाहजहाँ ने शुभ्र ताज के निर्माण के कई वर्षों बाद उस पर काले अक्षर बनवाकर केवल उसे विकृत ही किया है ऐसा उन अक्षरों को खोदने वाले अमानत ख़ान शिराज़ी ने खुद ही उसी इमारत के एक शिलालेख में लिखा है। कुरान के उन आयतों के अक्षरों को ध्यान से देखने से पता चलता है कि उन्हें एक प्राचीन शिव मंदिर के पत्थरों के टुकड़ों से बनाया गया है।
  •  वैज्ञानिक पद्धति कार्बन 14 द्वारा जाँच - ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े के एक अमेरिकन प्रयोगशाला में किये गये कार्बन 14 जाँच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहजहाँ के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वी सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों के द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिये दूसरे दरवाजे भी लगाये गये हैं, ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात् शाहजहाँ के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था। 

बनावट तथा वास्तुशास्त्रीय तथ्य द्वारा जॉच
  • ई.बी. हॉवेल, श्रीमती केनोयर और सर डब्लू.डब्लू. हंटर जैसे पश्चिम के जाने माने वास्तुशास्त्री, जिन्हें कि अपने विषय पर पूर्ण अधिकार प्राप्त है, ने ताजमहल के अभिलेखों का अध्ययन करके यह राय दी है कि ताजमहल हिंदू मंदिरों जैसा भवन है। हॉवेल ने तर्क दिया है कि जावा देश के चांदी सेवा मंदिर का ground plan ताज के समान है।
  • चार छोटे छोटे सजावटी गुम्बदों के मध्य एक बड़ा मुख्य गुम्बद होना हिंदू मंदिरों की सार्वभौमिक विशेषता है। चार कोणों में चार स्तम्भ बनाना हिंदू विशेषता रही है। इन चार स्तम्भों से दिन में चौकसी का कार्य होता था और रात्रि में प्रकाश स्तम्भ का कार्य लिया जाता था। ये स्तम्भ भवन के पवित्र अधिसीमाओं का निर्धारण का भी करती थीं। हिंदू विवाह वेदी और भगवान सत्य नारायण के पूजा वेदी में भी चारों कोणों में इसी प्रकार के चार खम्भे बनाये जाते हैं।
  • ताजमहल की अष्टकोणीय संरचना विशेष हिंदू अभिप्राय की अभिव्यक्ति है क्योंकि केवल हिंदुओं में ही आठ दिशाओं के विशेष नाम होते हैं और उनके लिये खगोलीय रक्षकों का निर्धारण किया जाता है। स्तम्भों के नींव तथा बुर्ज क्रमशः धरती और आकाश के प्रतीक होते हैं। हिंदू दुर्ग, नगर, भवन या तो अष्टकोणीय बनाये जाते हैं या फिर उनमें किसी न किसी प्रकार के अष्टकोणीय लक्षण बनाये जाते हैं तथा उनमें धरती और आकाश के प्रतीक स्तम्भ बनाये जाते हैं, इस प्रकार से आठों दिशाओं, धरती और आकाश सभी की अभिव्यक्ति हो जाती है जहाँ पर कि हिंदू विश्वास के अनुसार ईश्वर की सत्ता है।
  • ताजमहल के गुम्बद के बुर्ज पर एक त्रिशूल लगा हुआ है। इस त्रिशूल का का प्रतिरूप ताजमहल के पूर्व दिशा में लाल पत्थरों से बने प्रांगण में नक्काशा गया है। त्रिशूल के मध्य वाली डंडी एक कलश को प्रदर्शित करता है जिस पर आम की दो पत्तियाँ और एक नारियल रखा हुआ है। यह हिंदुओं का एक पवित्र रूपांकन है। इसी प्रकार के बुर्ज हिमालय में स्थित हिंदू तथा बौद्ध मंदिरों में भी देखे गये हैं। ताजमहल के चारों दशाओं में बहुमूल्य व उत्कृष्ट संगमरमर से बने दरवाज़ों के शीर्ष पर भी लाल कमल की पृष्ठभूमि वाले त्रिशूल बने हुये हैं। सदियों से लोग बड़े प्यार के साथ परंतु गलती से इन त्रिशूलों को इस्लाम का प्रतीक चांद-तारा मानते आ रहे हैं और यह भी समझा जाता है कि अंग्रेज शासकों ने इसे विद्युत चालित करके इसमें चमक पैदा कर दिया था। जबकि इस लोकप्रिय मानना के विरुद्ध यह हिंदू धातुविद्या का चमत्कार है क्योंकि यह जंगरहित मिश्रधातु का बना है और प्रकाश विक्षेपक भी है। त्रिशूल के प्रतिरूप का पूर्व दिशा में होना भी अर्थसूचक है क्योंकि हिंदुओं में पूर्व दिशा को, उसी दिशा से सूर्योदय होने के कारण, विशेष महत्व दिया गया है. गुम्बद के बुर्ज अर्थात (त्रिशूल) पर ताजमहल के अधिग्रहण के बाद 'अल्लाह' शब्द लिख दिया गया है जबकि लाल पत्थर वाले पूर्वी प्रांगण में बने प्रतिरूप में 'अल्लाह' शब्द कहीं भी नहीं है।
अन्‍य असंगतियां
  • शुभ्र ताज के पूर्व तथा पश्चिम में बने दोनों भवनों के ढांचे, माप और आकृति में एक समान हैं और आज तक इस्लाम की परंपरानुसार पूर्वी भवन को सामुदायिक कक्ष (community hall) बताया जाता है जबकि पश्चिमी भवन पर मस्जिद होने का दावा किया जाता है। दो अलग-अलग उद्देश्य वाले भवन एक समान कैसे हो सकते हैं? इससे सिद्ध होता है कि ताज पर शाहजहाँ के अधिपत्य हो जाने के बाद पश्चिमी भवन को मस्ज़िद के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आश्चर्य की बात है कि बिना मीनार के भवन को मस्ज़िद बताया जाने लगा। वास्तव में ये दोनों भवन तेजोमहालय के स्वागत भवन थे।
  • उसी किनारे में कुछ गज की दूरी पर नक्कारख़ाना है जो कि इस्लाम के लिये एक बहुत बड़ी असंगति है (क्योंकि शोरगुल वाला स्थान होने के कारण नक्कारख़ाने के पास मस्ज़िद नहीं बनाया जाता)। इससे इंगित होता है कि पश्चिमी भवन मूलतः मस्जिद नहीं था। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों में सुबह शाम आरती में विजयघंट, घंटियों, नगाड़ों आदि का मधुर नाद अनिवार्य होने के कारण इन वस्तुओं के रखने का स्थान होना आवश्यक है।
  • ताजमहल में मुमताज़ महल के नकली कब्र वाले कमरे की दीवालों पर बनी पच्चीकारी में फूल-पत्ती, शंख, घोंघा तथा हिंदू अक्षर ॐ चित्रित है। कमरे में बनी संगमरमर की अष्टकोणीय जाली के ऊपरी कठघरे में गुलाबी रंग के कमल फूलों की खुदाई की गई है। कमल, शंख और ॐ के हिंदू देवी-देवताओं के साथ संयुक्त होने के कारण उनको हिंदू मंदिरों में मूलभाव के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।
  • जहाँ पर आज मुमताज़ का कब्र बना हुआ है वहाँ पहले तेज लिंग हुआ करता था जो कि भगवान शिव का पवित्र प्रतीक है। इसके चारों ओर परिक्रमा करने के लिये पाँच गलियारे हैं। संगमरमर के अष्टकोणीय जाली के चारों ओर घूम कर या कमरे से लगे विभिन्न विशाल कक्षों में घूम कर और बाहरी चबूतरे में भी घूम कर परिक्रमा किया जा सकता है। हिंदू रिवाजों के अनुसार परिक्रमा गलियारों में देवता के दर्शन हेतु झरोखे बनाये जाते हैं। इसी प्रकार की व्यवस्था इन गलियारों में भी है।
  • ताज के इस पवित्र स्थान में चांदी के दरवाजे और सोने के कठघरे थे जैसा कि हिंदू मंदिरों में होता है।
  • संगमरमर के अष्टकोणीय जाली में मोती और रत्नों की लड़ियाँ भी लटकती थीं। ये इन ही वस्तुओं की लालच थी जिसने शाहजहाँ को अपने असहाय मातहत राजा जयसिंह से ताज को लूट लेने के लिये प्रेरित किया था।
  • पीटर मुंडी, जो कि एक अंग्रेज था, ने सन् में, मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही चांदी के दरवाजे, सोने के कठघरे तथा मोती और रत्नों की लड़ियों को देखने का जिक्र किया है। यदि ताज का निर्माण काल 22 वर्षों का होता तो पीटर मुंडी मुमताज़ की मौत के एक वर्ष के भीतर ही इन बहुमूल्य वस्तुओं को कदापि न देख पाया होता। ऐसी बहुमूल्य सजावट के सामान भवन के निर्माण के बाद और उसके उपयोग में आने के पूर्व ही लगाये जाते हैं। ये इस बात का इशारा है कि मुमताज़ का कब्र बहुमूल्य सजावट वाले शिव लिंग वाले स्थान पर कपट रूप से बनाया गया।
  • मुमताज़ के कब्र वाले कक्ष फर्श के संगमरमर के पत्थरों में छोटे छोटे रिक्त स्थान देखे जा सकते हैं। ये स्थान चुगली करते हैं कि बहुमूल्य सजावट के सामान के विलोप हो जाने के कारण वे रिक्त हो गये।
  • मुमताज़ की कब्र के ऊपर एक जंजीर लटकती है जिसमें अब एक कंदील लटका दिया है। ताज को शाहजहाँ के द्वारा हथिया लेने के पहले वहाँ एक शिव लिंग पर बूंद बूंद पानी टपकाने वाला घड़ा लटका करता था।
  • ताज भवन में ऐसी व्यवस्था की गई थी कि हिंदू परंपरा के अनुसार शरद पूर्णिमा की रात्रि में अपने आप शिव लिंग पर जल की बूंद टपके। इस पानी के टपकने को इस्लाम धारणा का रूप दे कर शाहजहाँ के प्रेमाश्रु बताया जाने लगा।

ताजमहल में खजाने वाला कुआँ

  • तथाकथित मस्जिद और नक्कारखाने के बीच एक अष्टकोणीय कुआँ है जिसमें पानी के तल तक सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। यह हिंदू मंदिरों का परंपरागत खजाने वाला कुआँ है। खजाने के संदूक नीचे की मंजिलों में रखे जाते थे जबकि खजाने के कर्मचारियों के कार्यालय ऊपरी मंजिलों में हुआ करता था। सीढ़ियों के वृतीय संरचना के कारण घुसपैठिये या आक्रमणकारी न तो आसानी के साथ खजाने तक पहुँच सकते थे और न ही एक बार अंदर आने के बाद आसानी के साथ भाग सकते थे, और वे पहचान लिये जाते थे। यदि कभी घेरा डाले हुए शक्तिशाली शत्रु के सामने समर्पण की स्थिति आ भी जाती थी तो खजाने के संदूकों को पानी में धकेल दिया जाता था जिससे कि वह पुनर्विजय तक सुरक्षित रूप से छुपा रहे। एक मकबरे में इतना परिश्रम करके बहुमंजिला कुएँ बनाना बेमानी है। इतना विशाल दीर्घाकार कुआँ किसी कब्र के लिये अनावश्यक भी है।
  • मुमताज के दफ़न की तारीख अविदित होना - यदि शाहजहाँ ने सचमुच ही ताजमहल जैसा आश्चर्यजनक मकब़रा होता तो उसके तामझाम का विवरण और मुमताज के दफ़न की तारीख इतिहास में अवश्य ही दर्ज हुई होती। परंतु दफ़न की तारीख कभी भी दर्ज नहीं की गई। इतिहास में इस तरह का ब्यौरा न होना ही ताजमहल की झूठी कहानी का पोल खोल देती है।
  • यहाँ तक कि मुमताज़ की मृत्यु किस वर्ष हुई यह भी अज्ञात है। विभिन्न लोगों ने सन् 1629,1630, 1631 या 1632 में मुमताज़ की मौत होने का अनुमान लगाया है। यदि मुमताज़ का इतना उत्कृष्ट दफ़न हुआ होता, जितना कि दावा किया जाता है, तो उसके मौत की तारीख अनुमान का विषय कदापि न होता। 5000 औरतों वाली हरम में किस औरत की मौत कब हुई इसका हिसाब रखना एक कठिन कार्य है। स्पष्टतः मुमताज़ की मौत की तारीख़ महत्वहीन थी इसलिये उस पर ध्यान नहीं दिया गया। फिर उसके दफ़न के लिये ताज किसने बनवाया?
  • आधारहीन प्रेमकथाएँ - शाहजहाँ और मुमताज़ के प्रेम की कहानियाँ मूर्खतापूर्ण तथा कपटजाल हैं। न तो इन कहानियों का कोई ऐतिहासिक आधार है न ही उनके कल्पित प्रेम प्रसंग पर कोई पुस्तक ही लिखी गई है। ताज के शाहजहाँ के द्वारा अधिग्रहण के बाद उसके अधिपत्य दर्शाने के लिये ही इन कहानियों को गढ़ लिया गया।कीमत - शाहजहाँ के शाही और दरबारी दस्तावेज़ों में ताज की कीमत का कहीं उल्लेख नहीं है क्योंकि शाहजहाँ ने कभी ताजमहल को बनवाया ही नहीं। इसी कारण से नादान लेखकों के द्वारा ताज की कीमत 40 लाख से 9 करोड़ 17 लाख तक होने का काल्पनिक अनुमान लगाया जाता है।


निर्माणकाल

  • ताज का निर्माणकाल 10 से 22 वर्ष तक के होने का अनुमान लगाया जाता है। यदि शाहजहाँ ने ताजमहल को बनवाया होता तो उसके निर्माणकाल के विषय में अनुमान लगाने की आवश्यकता ही नहीं होती क्योंकि उसकी प्रविष्टि शाही दस्तावेज़ों में अवश्य ही की गई होती।


भवननिर्माणशास्त्री
  • ताज भवन के भवननिर्माणशास्त्री (designer, architect) के विषय में भी अनेक नाम लिये जाते हैं जैसे कि ईसा इफेंडी जो कि एक तुर्क था, अहमद़ मेंहदी या एक फ्रांसीसी, आस्टीन डी बोरडीक्स या गेरोनिमो वेरेनियो जो कि एक इटालियन था, या शाहजहाँ स्वयं।
  • नदारद दस्तावेज़ ऐसा समझा जाता है कि शाहजहाँ के काल में ताजमहल को बनाने के लिये 20 हजार लोगों ने 22 साल तक काम किया। यदि यह सच है तो ताजमहल का नक्शा (design drawings), मज़दूरों की हाजिरी रजिस्टर (labour muster rolls), दैनिक खर्च (daily expenditure sheets), भवन निर्माण सामग्रियों के खरीदी के बिल और रसीद (bills and receipts of material ordered) आदि दस्तावेज़ शाही अभिलेखागार में उपलब्ध होते। वहाँ पर इस प्रकार के कागज का एक टुकड़ा भी नहीं है।
  • अतः ताजमहल को शाहजहाँ ने बनवाया और उस पर उसका व्यक्तिगत तथा सांप्रदायिक अधिकार था जैसे ढोंग को समूचे संसार को मानने के लिये मजबूर करने की ज़िम्मेदारी चापलूस दरबारी, भयंकर भूल करने वाले इतिहासकार, अंधे भवननिर्माणशस्त्री, कल्पित कथा लेखक, मूर्ख कवि, लापरवाह पर्यटन अधिकारी और भटके हुये पथप्रदर्शकों (guides) पर है।
  • शाहजहाँ के समय में ताज के वाटिकाओं के विषय में किये गये वर्णनों में केतकी, जै, जूही, चम्पा, मौलश्री, हारश्रिंगार और बेल का जिक्र आता है। ये वे ही पौधे हैं जिनके फूलों या पत्तियों का उपयोग हिंदू देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना में होता है। भगवान शिव की पूजा में बेल पत्तियों का विशेष प्रयोग होता है। किसी कब्रगाह में केवल छायादार वृक्ष लगाये जाते हैं क्योंकि श्मशान के पेड़ पौधों के फूल और फल का प्रयोग को वीभत्स मानते हुये मानव अंतरात्मा स्वीकार नहीं करती। ताज के वाटिकाओं में बेल तथा अन्य फूलों के पौधों की उपस्थिति सिद्ध करती है कि शाहजहाँ के हथियाने के पहले ताज एक शिव मंदिर हुआ करता था।
  • हिंदू मंदिर प्रायः नदी या समुद्र तट पर बनाये जाते हैं। ताज भी यमुना नदी के तट पर बना है जो कि शिव मंदिर के लिये एक उपयुक्त स्थान है।
  • मोहम्मद पैगम्बर ने निर्देश दिये हैं कि कब्रगाह में केवल एक कब्र होना चाहिये और उसे कम से कम एक पत्थर से चिन्हित करना चाहिये। ताजमहल में एक कब्र तहखाने में और एक कब्र उसके ऊपर के मंज़िल के कक्ष में है तथा दोनों ही कब्रों को मुमताज़ का बताया जाता है, यह मोहम्मद पैगंबर के निर्देश के निन्दनीय अवहेलना है। वास्तव में शाहजहाँ को इन दोनों स्थानों के शिवलिंगों को दबाने के लिये दो कब्र बनवाने पड़े थे। शिव मंदिर में, एक मंजिल के ऊपर एक और मंज़िल में, दो शिव लिंग स्थापित करने का हिंदुओं में रिवाज था जैसा कि उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर और सोमनाथ मंदिर, जो कि अहिल्याबाई के द्वारा बनवाये गये हैं, में देखा जा सकता है।
  • ताजमहल में चारों ओर चार एक समान प्रवेशद्वार हैं जो कि हिंदू भवन निर्माण का एक विलक्षण तरीका है जिसे कि चतुर्मुखी भवन कहा जाता है।

हिंदू गुम्बज के सम्‍बन्‍ध मे तर्क

  • ताजमहल में ध्वनि को गुंजाने वाला गुम्बद है। ऐसा गुम्बज किसी कब्र के लिये होना एक विसंगति है क्योंकि कब्रगाह एक शांतिपूर्ण स्थान होता है। इसके विरुद्ध हिंदू मंदिरों के लिये गूंज उत्पन्न करने वाले गुम्बजों का होना अनिवार्य है क्योंकि वे देवी-देवता आरती के समय बजने वाले घंटियो, नगाड़ों आदि के ध्वनि के उल्लास और मधुरता को कई गुना अधिक कर देते हैं।
  • ताजमहल का गुम्बज कमल की आकृति से अलंकृत है। इस्लाम के गुम्बज अनालंकृत होते हैं, दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित पाकिस्तानी दूतावास और पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के गुम्बज उनके उदाहरण हैं।
  • ताजमहल दक्षिणमुखी भवन है। यदि ताज का संबंध इस्लाम से होता तो उसका मुख पश्चिम की ओर होता।
  • कब्र दफनस्थल होता है न कि भवन
  • महल को कब्र का रूप देने की गलती के परिणामस्वरूप एक व्यापक भ्रामक स्थिति उत्पन्न हुई है। इस्लाम के आक्रमण स्वरूप, जिस किसी देश में वे गये वहाँ के, विजित भवनों में लाश दफन करके उन्हें कब्र का रूप दे दिया गया। अतः दिमाग से इस भ्रम को निकाल देना चाहिये कि वे विजित भवन कब्र के ऊपर बनाये गये हैं जैसे कि लाश दफ़न करने के बाद मिट्टी का टीला बना दिया जाता है। ताजमहल का प्रकरण भी इसी सच्चाई का उदाहरण है। (भले ही केवल तर्क करने के लिये) इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज़ की लाश दफ़नाई गई न कि लाश दफ़नाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया।
  • ताज एक सातमंजिला भवन है। शाहज़ादा औरंगज़ेब के शाहजहाँ को लिखे पत्र में भी इस बात का विवरण है। भवन के चार मंज़िल संगमरमर पत्थरों से बने हैं जिनमें चबूतरा, चबूतरे के ऊपर विशाल वृतीय मुख्य कक्ष और तहखाने का कक्ष शामिल है। मध्य में दो मंजिलें और हैं जिनमें 12 से 15 विशाल कक्ष हैं। संगमरमर के इन चार मंजिलों के नीचे लाल पत्थरों से बने दो और मंजिलें हैं जो कि पिछवाड़े में नदी तट तक चली जाती हैं। सातवीं मंजिल अवश्य ही नदी तट से लगी भूमि के नीचे होनी चाहिये क्योंकि सभी प्राचीन हिंदू भवनों में भूमिगत मंजिल हुआ करती है।
  • नदी तट से भाग में संगमरमर के नींव के ठीक नीचे लाल पत्थरों वाले 22 कमरे हैं जिनके झरोखों को शाहजहाँ ने चुनवा दिया है। इन कमरों को जिन्हें कि शाहजहाँ ने अतिगोपनीय बना दिया है भारत के पुरातत्व विभाग के द्वारा तालों में बंद रखा जाता है। सामान्य दर्शनार्थियों को इनके विषय में अंधेरे में रखा जाता है। इन 22 कमरों के दीवारों तथा भीतरी छतों पर अभी भी प्राचीन हिंदू चित्रकारी अंकित हैं। इन कमरों से लगा हुआ लगभग 33 फुट लंबा गलियारा है। गलियारे के दोनों सिरों में एक एक दरवाज़े बने हुये हैं। इन दोनों दरवाज़ों को इस प्रकार से आकर्षक रूप से ईंटों और गारा से चुनवा दिया गया है कि वे दीवाल जैसे प्रतीत हों।
  • स्पष्तः मूल रूप से शाहजहाँ के द्वारा चुनवाये गये इन दरवाज़ों को कई बार खुलवाया और फिर से चुनवाया गया है। सन् 1934 में दिल्ली के एक निवासी ने चुनवाये हुये दरवाज़े के ऊपर पड़ी एक दरार से झाँक कर देखा था। उसके भीतर एक वृहत कक्ष (huge hall) और वहाँ के दृश्य को‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍‍ देख कर वह हक्का-बक्का रह गया तथा भयभीत सा हो गया। वहाँ बीचोबीच भगवान शिव का चित्र था जिसका सिर कटा हुआ था और उसके चारों ओर बहुत सारे मूर्तियों का जमावड़ा था। ऐसा भी हो सकता है कि वहाँ पर संस्कृत के शिलालेख भी हों। यह सुनिश्चित करने के लिये कि ताजमहल हिंदू चित्र, संस्कृत शिलालेख, धार्मिक लेख, सिक्के तथा अन्य उपयोगी वस्तुओं जैसे कौन कौन से साक्ष्य छुपे हुये हैं उसके के सातों मंजिलों को खोल कर उसकी साफ सफाई करने की नितांत आवश्यकता है।
  • अध्ययन से पता चलता है कि इन बंद कमरों के साथ ही साथ ताज के चौड़ी दीवारों के बीच में भी हिंदू चित्रों, मूर्तियों आदि छिपे हुये हैं। सन् 1959 से 1962 के अंतराल में श्री एस.आर. राव, जब वे आगरा पुरातत्व विभाग के सुपरिन्टेन्डेंट हुआ करते थे, का ध्यान ताजमहल के मध्यवर्तीय अष्टकोणीय कक्ष के दीवार में एक चौड़ी दरार पर गया। उस दरार का पूरी तरह से अध्ययन करने के लिये जब दीवार की एक परत उखाड़ी गई तो संगमरमर की दो या तीन प्रतिमाएँ वहाँ से निकल कर गिर पड़ीं। इस बात को खामोशी के साथ छुपा दिया गया और प्रतिमाओं को फिर से वहीं दफ़न कर दिया गया जहाँ शाहजहाँ के आदेश से पहले दफ़न की गई थीं। इस बात की पुष्टि अनेक अन्य स्रोतों से हो चुकी है। जिन दिनों मैंने ताज के पूर्ववर्ती काल के विषय में खोजकार्य आरंभ किया उन्हीं दिनों मुझे इस बात की जानकारी मिली थी जो कि अब तक एक भूला बिसरा रहस्य बन कर रह गया है। ताज के मंदिर होने के प्रमाण में इससे अच्छा साक्ष्य और क्या हो सकता है? उन देव प्रतिमाओं को जो शाहजहाँ के द्वारा ताज को हथियाये जाने से पहले उसमें प्रतिष्ठित थे ताज की दीवारें और चुनवाये हुए कमरे आज भी छुपाये हुए हैं।
शाहजहाँ के पूर्व के ताज के संदर्भ
  • स्पष्टतः के केन्द्रीय भवन का इतिहास अत्यंत पेचीदा प्रतीत होता है। शायद महमूद गज़नी और उसके बाद के मुस्लिम प्रत्येक आक्रमणकारी ने लूट कर अपवित्र किया है परंतु हिंदुओं का इस पर पुनर्विजय के बाद पुनः भगवान शिव की प्रतिष्ठा करके इसकी पवित्रता को फिर से बरकरार कर दिया जाता था। शाहजहाँ अंतिम मुसलमान था जिसने तेजोमहालय उर्फ ताजमहल के पवित्रता को भ्रष्ट किया।
  • विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक 'Akbar the Great Moghul' में लिखते हैं, "बाबर ने सन् 1630 आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई"। वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था।
  • बाबर की पुत्री गुलबदन 'हुमायूँनामा' नामक अपने ऐतिहासिक वृतांत में ताज का संदर्भ 'रहस्य महल' (Mystic House) के नाम से देती है।
  • बाबर स्वयं अपने संस्मरण में इब्राहिम लोधी के कब्ज़े में एक मध्यवर्ती अष्टकोणीय चारों कोणों में चार खम्भों वाली इमारत का जिक्र करता है जो कि ताज ही था। ये सारे संदर्भ ताज के शाहजहाँ से कम से कम सौ साल पहले का होने का संकेत देते हैं।
  • ताजमहल की सीमाएँ चारों ओर कई सौ गज की दूरी में फैली हुई है। नदी के पार ताज से जुड़ी अन्य भवनों, स्नान के घाटों और नौका घाटों के अवशेष हैं। विक्टोरिया गार्डन के बाहरी हिस्से में एक लंबी, सर्पीली, लताच्छादित प्राचीन दीवार है जो कि एक लाल पत्थरों से बनी अष्टकोणीय स्तंभ तक जाती है। इतने वस्तृत भूभाग को कब्रिस्तान का रूप दे दिया गया।
  • यदि ताज को विशेषतः मुमताज़ के दफ़नाने के लिये बनवाया गया होता तो वहाँ पर अन्य और भी कब्रों का जमघट नहीं होता। परंतु ताज प्रांगण में अनेक कब्रें विद्यमान हैं कम से कम उसके पूर्वी एवं दक्षिणी भागों के गुम्बजदार भवनों में।
  • दक्षिणी की ओर ताजगंज गेट के दूसरे किनारे के दो गुम्बजदार भवनों में रानी सरहंडी ब़ेगम, फतेहपुरी ब़ेगम और कु. सातुन्निसा को दफ़नाया गया है। इस प्रकार से एक साथ दफ़नाना तभी न्यायसंगत हो सकता है जबकि या तो रानी का दर्जा कम किया गया हो या दर्जा बढ़ाया गया हो। शाहजहाँ ने अपने वंशानुगत स्वभाव के अनुसार ताज को एक साधारण मुस्लिम कब्रिस्तान के रूप में परिवर्तित कर के रख दिया क्योंकि उसने उसे अधिग्रहित किया था (ध्यान रहे बनवाया नहीं था)।
  • शाहजहाँ ने मुमताज़ से निकाह के पहले और बाद में भी कई और औरतों से निक़ाह किया था, अतः मुमताज़ को कोई ह़क नहीँ था कि उसके लिये आश्चर्यजनक कब्र बनवाया जावे।
  • मुमताज़ का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था और उसमें ऐसा कोई विशेष योग्यता भी नहीं थी कि उसके लिये ताम-झाम वाला कब्र बनवाया जावे।
  • शाहजहाँ तो केवल एक मौका ढूंढ रहा था कि कैसे अपने क्रूर सेना के साथ मंदिर पर हमला करके वहाँ की सारी दौलत हथिया ले, मुमताज़ को दफ़नाना तो एक बहाना मात्र था। इस बात की पुष्टि बादशाहनामा में की गई इस प्रविष्टि से होती है कि मुमताज़ की लाश को बुरहानपुर के कब्र से निकाल कर आगरा लाया गया और 'अगले साल' दफ़नाया गया। बादशाहनामा जैसे आधिकारिक दस्तावेज़ में सही तारीख के स्थान पर 'अगले साल' लिखने से ही जाहिर होता है कि शाहजहाँ दफ़न से संबंधित विवरण को छुपाना चाहता था।
  • विचार करने योग्य बात है कि जिस शाहजहाँ ने मुमताज़ के जीवनकाल में उसके लिये एक भी भवन नहीं बनवाया, मर जाने के बाद एक लाश के लिये आश्चर्यमय कब्र कभी नहीं बनवा सकता।
  • एक विचारणीय बात यह भी है कि शाहजहाँ के बादशाह बनने के तो या तीन साल बाद ही मुमताज़ की मौत हो गई। तो क्या शाहजहाँ ने इन दो तीन साल के छोटे समय में ही इतना अधिक धन संचय कर लिया कि एक कब्र बनवाने में उसे उड़ा सके?
  • जहाँ इतिहास में शाहजहाँ के मुमताज़ के प्रति विशेष आसक्ति का कोई विवरण नहीं मिलता वहीं शाहजहाँ के अनेक औरतों के साथ, जिनमें दासी, औरत के आकार के पुतले, यहाँ तक कि उसकी स्वयं की बेटी जहांआरा भी शामिल है, के साथ यौन संबंधों ने उसके काल में अधिक महत्व पाया। क्या शाहजहाँ मुमताज़ की लाश पर अपनी गाढ़ी कमाई लुटाता?
  • शाहजहाँ एक कृपण सूदखोर बादशाह था। अपने सारे प्रतिद्वंदियों का कत्ल करके उसने राज सिंहासन प्राप्त किया था। जितना खर्चीला उसे बताया जाता है उतना वो हो ही नहीं सकता था।
  • मुमताज़ की मौत से खिन्न शाहजहाँ ने एकाएक ताज बनवाने का निश्चय कर लिया। ये बात एक मनोवैज्ञानिक असंगति है। दुख एक ऐसी संवेदना है जो इंसान को अयोग्य और अकर्मण्य बनाती है।
  • शाहजहाँ यदि मूर्ख या बावला होता तो समझा जा सकता है कि वो मृत मुमताज़ के लिये ताज बनवा सकता है परंतु सांसारिक और यौन सुख में लिप्त शाहजहाँ तो कभी भी ताज नहीं बनवा सकता क्योंकि यौन भी इंसान को अयोग्य बनाने वाली संवेदना है।
  • सन् 1973 के आरंभ में जब ताज के सामने वाली वाटिका की खुदाई हुई तो वर्तमान फौवारों के लगभग छः फुट नीचे और भी फौवारे पाये गये। इससे दो बातें सिद्ध होती हैं। पहली तो यह कि जमीन के नीचे वाले फौवारे शाहजहाँ के काल से पहले ही मौजूद थे। दूसरी यह कि पहले से मौजूद फौवारे चूँकि ताज से जाकर मिले थे अतः ताज भी शाहजहाँ के काल से पहले ही से मौजूद था। स्पष्ट है कि इस्लाम शासन के दौरान रख रखाव न होने के कारण ताज के सामने की वाटिका और फौवारे बरसात के पानी की बाढ़ में डूब गये थे।
  • ताजमहल के ऊपरी मंज़िल के गौरवमय कक्षों से कई जगह से संगमरमर के पत्थर उखाड़ लिये गये थे जिनका उपयोग मुमताज़ के नकली कब्रों को बनाने के लिये किया गया। इसी कारण से ताज के भूतल के फर्श और दीवारों में लगे मूल्यवान संगमरमर के पत्थरों की तुलना में ऊपरी तल के कक्ष भद्दे, कुरूप और लूट का शिकार बने नजर आते हैं। चूँकि ताज के ऊपरी तलों के कक्षों में दर्शकों का प्रवेश वर्जित है, शाहजहाँ के द्वारा की गई ये बरबादी एक सुरक्षित रहस्य बन कर रह गई है। ऐसा कोई कारण नहीं है कि मुगलों के शासन काल की समाप्ति के 200 वर्षों से भी अधिक समय व्यतीत हो जाने के बाद भी शाहजहाँ के द्वारा ताज के ऊपरी कक्षों से संगमरमर की इस लूट को आज भी छुपाये रखा जावे।
  • फ्रांसीसी यात्री बेर्नियर ने लिखा है कि ताज के निचले रहस्यमय कक्षों में गैर मुस्लिमों को जाने की इजाज़त नहीं थी क्योंकि वहाँ चौंधिया देने वाली वस्तुएँ थीं। यदि वे वस्तुएँ शाहजहाँ ने खुद ही रखवाये होते तो वह जनता के सामने उनका प्रदर्शन गौरव के साथ करता। परंतु वे तो लूटी हुई वस्तुएँ थीं और शाहजहाँ उन्हें अपने खजाने में ले जाना चाहता था इसीलिये वह नहीं चाहता था कि कोई उन्हें देखे।
  • ताज की सुरक्षा के लिये उसके चारों ओर खाई खोद कर की गई है। किलों, मंदिरों तथा भवनों की सुरक्षा के लिये खाई बनाना हिंदुओं में सामान्य सुरक्षा व्यवस्था रही है।
  • पीटर मुंडी ने लिखा है कि शाहजहाँ ने उन खाइयों को पाटने के लिये हजारों मजदूर लगवाये थे। यह भी ताज के शाहजहाँ के समय से पहले के होने का एक लिखित प्रमाण है।
  • नदी के पिछवाड़े में हिंदू बस्तियाँ, बहुत से हिंदू प्राचीन घाट और प्राचीन हिंदू शव-दाह गृह है। यदि शाहजहाँ ने ताज को बनवाया होता तो इन सबको नष्ट कर दिया गया होता।
  • यह कथन कि शाहजहाँ नदी के दूसरी तरफ एक काले पत्थर का ताज बनवाना चाहता था भी एक प्रायोजित कपोल कल्पना है। नदी के उस पार के गड्ढे मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा हिंदू भवनों के लूटमार और तोड़फोड़ के कारण बने हैं न कि दूसरे ताज के नींव खुदवाने के कारण। शाहजहाँ, जिसने कि सफेद ताजमहल को ही नहीं बनवाया था, काले ताजमहल बनवाने के विषय में कभी सोच भी नहीं सकता था। वह तो इतना कंजूस था कि हिंदू भवनों को मुस्लिम रूप देने के लिये भी मज़दूरों से उसने सेंत मेंत में और जोर जबर्दस्ती से काम लिया था।
  • न तो संगमरमर के पत्थरों पर कुरान की आयतें लिखी हुई हैं उनके रंग में पीलापन है जबकि शेष पत्थर ऊँची गुणवत्ता वाले शुभ्र रंग के हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि कुरान की आयतों वाले पत्थर बाद में लगाये गये हैं।
  • कुछ कल्पनाशील इतिहासकारों तो ने ताज के भवननिर्माणशास्त्री के रूप में कुछ काल्पनिक नाम सुझाये हैं पर और ही अधिक कल्पनाशील इतिहासकारों ने तो स्वयं शाहजहाँ को ताज के भवननिर्माणशास्त्री होने का श्रेय दे दिया है जैसे कि वह सर्वगुणसम्पन्न विद्वान एवं कला का ज्ञाता था। ऐसे ही इतिहासकारों ने अपने इतिहास के अल्पज्ञान की वजह से इतिहास के साथ ही विश्वासघात किया है वरना शाहजहाँ तो एक क्रूर, निरंकुश, औरतखोर और नशेड़ी व्यक्ति था और भी कई भ्रमित करने वाली लुभावनी बातें बना दी गई हैं। कुछ लोग विश्वास दिलाने की कोशिश करते हैं कि शाहजहाँ ने पूरे संसार के सर्वश्रेष्ठ भवननिर्माणशास्त्रियों से संपर्क करने के बाद उनमें से एक को चुना था। तो कुछ लोगों का यह विश्वास है कि उसने अपने ही एक भवननिर्माणशास्त्री को चुना था। यदि यह बातें सच होती तो शाहजहाँ के शाही दस्तावेज़ों में इमारत के नक्शों का पुलिंदा मिला होता। परंतु वहाँ तो नक्शे का एक टुकड़ा भी नहीं है। नक्शों का न मिलना भी इस बात का पक्का सबूत है कि ताज को शाहजहाँ ने नहीं बनवाया।
  • ताजमहल बड़े बड़े खंडहरों से घिरा हुआ है जो कि इस बात की ओर इशारा करती है कि वहाँ पर अनेक बार युद्ध हुये थे।
  • ताज के दक्षिण में एक प्राचीन पशुशाला है। वहाँ पर तेजोमहालय के पालतू गायों को बांधा जाता था। मुस्लिम कब्र में गाय कोठा होना एक असंगत बात है।
  • ताज के पश्चिमी छोर में लाल पत्थरों के अनेक उपभवन हैं जो कि एक कब्र के लिया अनावश्यक है।
  • संपूर्ण ताज में 400 से 500 कमरे हैं। कब्र जैसे स्थान में इतने सारे रहाइशी कमरों का होना समझ के बाहर की बात है।
  • ताज के पड़ोस के ताजगंज नामक नगरीय क्षेत्र का स्थूल सुरक्षा दीवार ताजमहल से लगा हुआ है। ये इस बात का स्पष्ट निशानी है कि तेजोमहालय नगरीय क्षेत्र का ही एक हिस्सा था। ताजगंज से एक सड़क सीधे ताजमहल तक आता है। ताजगंज द्वार ताजमहल के द्वार तथा उसके लाल पत्थरों से बनी अष्टकोणीय वाटिका के ठीक सीध में है।
  • ताजमहल के सभी गुम्बजदार भवन आनंददायक हैं जो कि एक मक़बरे के लिय उपयुक्त नहीं है।
  • आगरे के लाल किले के एक बरामदे में एक छोटा सा शीशा लगा हुआ है जिससे पूरा ताजमहल प्रतिबिंबित होता है। ऐसा कहा जाता है कि शाहजहाँ ने अपने जीवन के अंतिम आठ साल एक कैदी के रूप में इसी शीशे से ताजमहल को देखते हुये और मुमताज़ के नाम से आहें भरते हुये बिताया था। इस कथन में अनेक झूठ का संमिश्रण है। सबसे पहले तो यह कि वृद्ध शाहजहाँ को उसके बेटे औरंगज़ेब ने लाल किले के तहखाने के भीतर कैद किया था न कि सजे-धजे और चारों ओर से खुले ऊपर के मंज़िल के बरामदे में। दूसरा यह कि उस छोटे से शीशे को सन् 1930 में इंशा अल्लाह ख़ान नामक पुरातत्व विभाग के एक चपरासी ने लगाया था केवल दर्शकों को यह दिखाने के लिये कि पुराने समय में लोग कैसे पूरे तेजोमहालय को एक छोटे से शीशे के टुकड़े में देख लिया करते थे। तीसरे, वृद्ध शाहज़हाँ, जिसके जोड़ों में दर्द और आँखों में मोतियाबिंद था घंटो गर्दन उठाये हुये कमजोर नजरों से उस शीशे में झाँकते रहने के काबिल ही नहीं था जब लाल किले से ताजमहल सीधे ही पूरा का पूरा दिखाई देता है तो छोटे से शीशे से केवल उसकी परछाईं को देखने की आवश्यकता भी नहीं है। पर हमारी भोली-भाली जनता इतनी नादान है कि धूर्त पथप्रदर्शकों (guides) की इन अविश्वास पूर्ण और विवेकहीन बातों को आसानी के साथ पचा लेती है।
  • ताजमहल के गुम्बज में सैकड़ों लोहे के छल्ले लगे हुये हैं जिस पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान जा पाता है। इन छल्लों पर मिट्टी के आलोकित दिये रखे जाते थे जिससे कि संपूर्ण मंदिर आलोकमय हो जाता था।
  • ताजमहल पर शाहजहाँ के स्वामित्व तथा शाहजहाँ और मुमताज़ के अलौकिक प्रेम की कहानी पर विश्वास कर लेने वाले लोगों को लगता है कि शाहजहाँ एक सहृदय व्यक्ति था और शाहजहाँ तथा मुमताज़ रोम्यो और जूलियट जैसे प्रेमी युगल थे। परंतु तथ्य बताते हैं कि शाहजहाँ एक हृदयहीन, अत्याचारी और क्रूर व्यक्ति था जिसने मुमताज़ के साथ जीवन भर अत्याचार किये थे।
  • विद्यालयों और महाविद्यालयों में इतिहास की कक्षा में बताया जाता है कि शाहजहाँ का काल अमन और शांति का काल था तथा शाहजहाँ ने अनेकों भवनों का निर्माण किया और अनेक सत्कार्य किये जो कि पूर्णतः मनगढ़ंत और कपोल कल्पित हैं। जैसा कि इस ताजमहल प्रकरण में बताया जा चुका है, शाहजहाँ ने कभी भी कोई भवन नहीं बनाया उल्टे बने बनाये भवनों का नाश ही किया और अपनी सेना की 48 टुकड़ियों की सहायता से लगातार 30 वर्षों तक अत्याचार करता रहा जो कि सिद्ध करता है कि उसके काल में कभी भी अमन और शांति नहीं रही।
  • जहाँ मुमताज़ का कब्र बना है उस गुम्बज के भीतरी छत में सुनहरे रंग में सूर्य और नाग के चित्र हैं। हिंदू योद्धा अपने आपको सूर्यवंशी कहते हैं अतः सूर्य का उनके लिये बहुत अधिक महत्व है जबकि मुसलमानों के लिये सूर्य का महत्व केवल एक शब्द से अधिक कुछ भी नहीं है। और नाग का संबंध भगवान शंकर के साथ हमेशा से ही रहा है।

झूठे दस्तावेज़

ताज के गुम्बज की देखरेख करने वाले मुसलमानों के पास एक दस्तावेज़ है जिसे के वे "तारीख-ए-ताजमहल" कहते हैं। इतिहासकार एच.जी. कीन ने उस पर 'वास्तविक न होने की शंका वाला दस्तावेज़' का मुहर लगा दिया है। कीन का कथन एक रहस्यमय सत्य है क्योंकि हम जानते हैं कि जब शाहजहां ने ताजमहल को नहीं बनवाया ही नहीं तो किसी भी दस्तावेज को जो कि ताजमहल को बनाने का श्रेय शाहजहाँ को देता है झूठा ही माना जायेगा।
पेशेवर इतिहासकार, पुरातत्ववेत्ता तथा भवनशास्त्रियों के दिमाग में ताज से जुड़े बहुत सारे कुतर्क और चतुराई से भरे झूठे तर्क या कम से कम भ्रामक विचार भरे हैं। शुरू से ही उनका विश्वास रहा है कि ताज पूरी तरह से मुस्लिम भवन है। उन्हें यह बताने पर कि ताज का कमलाकार होना, चार स्तंभों का होना आदि हिंदू लक्षण हैं, वे गुणवान लोग इस प्रकार से अपना पक्ष रखते हैं कि ताज को बनाने वाले कारीगर, कर्मचारी आदि हिंदू थे और शायद इसलिये उन्होंने हिंदू शैली से उसे बनाया। पर उनका पक्ष गलत है क्योंकि मुस्लिम वृतान्त दावा करता है कि ताज के रूपांकक (designers) बनवाने वाले शासक मुस्लिम थे, और कारीगर, कर्मचारी इत्यादि लोग मुस्लिम तानाशाही के विरुद्ध अपनी मनमानी कर ही नहीं सकते थे।

ताजमहल में कलश की आकृति

इस्लाम का मुख्‍य काम भारत को लूटना मात्र था, उन्होने तत्कालीन मन्दिरो अपना निशाना बनया, वास्तव में ताजमहल तेजोमहल शिव मन्दिर है। हिन्दू मंदिर उस समय अपने ऐश्वर्य के चरम पर रहे थे। इसी प्रकार आज का ताजमहल नाम से विख्यात तेजोमहाजय को भी अपना निशाना बनाया। मुस्लिम शासकों ने देश के हिंदू भवनों को मुस्लिम रूप देकर उन्हें बनवाने का श्रेय स्वयं ले लिया इस बात का ताज एक आदर्श उदाहरण है।

ताजमहल में ॐ की आकृति लिए के फूल
 
चित्रों के झरोखे मे तर्क जिनके आधार पर काफी सच्चाई ओक साहब ने हमारे सामने रखी है -जो ताजमहल नही तेजोमहालय : एक प्राचीन शिव मंदिर तथ्यों के साथ रखी गयी है।

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Taj Mahal Ki Is Sankshipt Kahani Ko Hindi Me लाने मे मेरा योगदान उतना ही है जितना कि रामसेतु के निर्माण में गिलहरी का था, श्रेय मूल लेखक श्री ओक साहब तथा अन्य प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से लगे सभी इतिहास प्रेमियों को।

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अमिताभ बच्चन और रेखा कब होगे साथ साथ



अमिताभ बच्चन और रेखा की जोड़ी को कौन भूला होगा ? मिस्टर नटवरलाल, सुहाग, मुकद्दर का सिकन्दर और राम बलराम जैसी सुपरहिट फिल्मों में अभिनय के द्वारा इस जोड़ी ने 70 के दशक में युवाओं के दिलो पर अमिट छाप छोड़ी थी। आज भी अमिताभ और रेखा की रोमांटिक जोड़ी को याद किया जाता है, आज मै भी इस जोड़ी को याद करते हुए इस लेख को लिखने को प्रेरित हुआ।

प्‍यार


अमिताभ-रेखा की अन्तिम फिल्‍म सिलसिला को कौन भूल सकता है, इस फिल्म के सभी गाने सदाबहार थे किन्‍तु देखा एक ख्वाब तो ये सिलसिले हुए गाना आज भी युवाओ के साथ-साथ प्रौढ़ो को भी मद्मस्‍त कर देता है, तो अमिताभ की आवाज़ में गाया गया रंग बरसे भींगे चुनरवाली गाना होली के पर्व पर सर्वाधिक पंसद किये जाने वाले गीतो में से एक होना है। अमिताभ और रेखा के बीच यह अन्तिम फिल्‍म थी। इस फिल्म की कहानी ने अमिताभ और रेखा के प्रेम को ऐसी हवा दी कि दोनो ने अपने चाहने वालो को ऐसा अभिशाप दिया कि आज भी उनके चाहने वाले इस सदमे से बाहर नही निकल पाये, वह था फिर दोबारा एक साथ काम न करने का।

कहा जा रहा है कि रेखा अपनी मांग में अमिताभ के नाम का सिंदूर लगाती हैं। यह कहना है 'बिग बॉस' के कंटेस्टेंट पुनीत इस्सर की पत्नी दीपाली इस्सर का। दीपाली ने हाल ही में दिए अपने एक इंटरव्यू में कहा कि बॉलिवुड की सुपरस्टार रेखा अमिताभ बच्चन के नाम का सिंदूर लगाती हैं। वैसे बॉलिवुड में इस बात को लेकर चर्चा तो काफी पुरानी है, लेकिन इस तरह खुलकर बात करने की हिम्मत किसी ने नहीं की। लोगों ने इससे पहले भी यह जानने की कोशिश जरूर की है कि रेखा आखिर सिंदूर क्यों लगाती हैं? ...और आखिरकार यह मान लिया गया कि शायद इसलिए कि यह रेखा का स्टाइल स्टेटमेंट है और उनकी पर्सनैलिटी पर यह सूट होता है।

'बिग बॉस 8' के दौरान 'बिग बॉस' के घर अपनी फिल्म का प्रमोशन करने पहुंचीं रेखा ने पुनीत इस्सर से बातें नहीं की थीं और उन्हें इग्नोर करने की कोशिश करती दिखीं थीं। दरअसल फिल्म 'कुली' की शूटिंग के दौरान अमिताभ बच्चन को चोटें आईं थीं। कहा जाता है कि इस सीन में पुनीत इस्सर को अमिताभ बच्चन पर हमला करना था, जिस दौरान बिग बी को चोटें आईं और इसके लिए रेखा आज भी पुनीत को दोषी मानती हैं।


दरार


आज भी इन दोनो की भूमिकाओं वाली फिल्‍मो को देखने के लिये हर फिल्‍म प्रेमी इंतजार कर रहा है। चाहे वह फिल्‍म अलादीन मे रेखा की भूमिका की जो अफवाह साबित हुई और चाहे वाल्‍ट डिजनी की फिल्‍म 'मर्म योगी' में रेखा और अमिताभ को लेने की बात हो रही है, अब यह कितना सही है यह वक्त ही बतायेगा। इच्‍छा तो आपकी भी होगी कि एक बार फिर से अमिताभ और रेखा एक साथ हो, इच्‍छा तो मेरी भी है पर क्‍या यह पूरी होगी ?

रेखा और अमिताभ हिन्दी सिनेमा के दो ऐसे नाम हैं जिन्हें आज भी लोग एक साथ अभिनय करते हुए देखना चाहते हैं। एक-दूसरे से प्यार करने के कारण दोनों हमेशा सुर्खियों में बने रहे।
 

70 के दशक में अमिताभ और रेखा की जोड़ी परदे पर हिट थी। दोनों में गजब केमिस्ट्री के कारण इनके अफेयर की चर्चा हर ओर होने लगी थी।
 

कहते हैं सच्चा प्यार आपकी जिंदगी बना देता है, शायद रेखा की जिंदगी में भी कुछ ऐसा ही हुआ। फिल्म 'सिलसिला' रेखा और अमिताभ के प्यार और दर्द की कहानी बयान करती है।

अस्सी दशक की यह मशहूर जोड़ी अगर एक बार फिर पर्दे पर आ जाए तो बॉलीवुड में धूम मच जाएगी। यह मशहूर जोड़ी अगर एक बार फिर पर्दे पर आ जाए तो बॉलीवुड में धूम मच जाएगी।


रेखा ने बहुत सी शानदार फिल्मों में काम किया लेकिन जिन फिल्मों में रेखा का जादू सर चढ़ कर बोला वह थीं उमराव जान, खूबसूरत, सिलसिला, मुकद्दर का सिकंदर, खूब भरी मांग, खिलाड़ियों का खिलाड़ी।

साल 1981 की फिल्म सिलसिला ने बॉलीवुड में एक अनोखे प्यार का सिलसिला छेड़ दिया। रेखा और अमिताभ दोनों की प्रेम कहानी पीढि़यों तक एक खामोश प्यार की मिसाल बन गई। वैसे अमिताभ ने एक अच्छे पति का फर्ज निभाया और अपने अधूरे प्यार को भूला दिया। लेकिन आज भी दोनों एक-दूसरे की सलामती के लिए चुपके से दुआ मांगते हैं।
अमिताभ बच्चन और रेखा की सुपरहिट फिल्मे दो अनजाने (1976)
अमिताभ बच्चन और रेखा ने पहली बार 'दो अनजाने' फिल्म में एकसाथ काम किया था। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अच्छी रही थी। इसमें अमिताभ-रेखा पति-पत्नी की भूमिका में थे। अमिताभ एक लविंग हस्बैंड के रोल में थे, तो रेखा का किरदार एक ऐसी पत्नी का था, जो करियर और पैसों की खातिर अपने पति और बच्चे को छोड़कर चली जाती है।
मुकद्दर का सिकंदर (1978)
अमिताभ और रेखा की दूसरी ब्लॉकबस्टर फिल्म थी मुकद्दर का सिंकदर। फिल्म शोले और बॉबी के बाद 70 के दशक की तीसरी सबसे बड़ी हिट थी।
सुहाग (1979)
दोनों की एक और बॉक्स ऑफिस हिट। बिग बी और रेखा की यह फिल्म 1979 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी। फिल्म में एक शराबी की भूमिका में अमिताभ और तवायफ की भूमिका में रेखा थीं। इन दोनों की रोमांटिक जोड़ी ने दर्शकों को खूब लुभाया।

मिस्टर नटवरलाल (1979)
1979 में ही दोनों की एक और फिल्म मिस्टर नटवरलाल आई। यह फिल्म ऐक्शन-कॉमेडी थी।


 
सिलसिला (1981)
हिंदी फिल्मों के चाहने वालों को इस फिल्म के बारे में बताने की कोई जरूरत नहीं है। फैन्स जानते हैं कि 'सिलसिला' को अमिताभ और रेखा की लव स्टोरी के लिए आज भी याद किया जाता है। फिल्म में अमिताभ की 'लव लाइफ' रेखा और 'लाइफ लाइन' यानी जया दोनों थीं। रेखा के साथ जब-जब अमिताभ के रोमांस की चर्चा होती है तो इस फिल्म का नाम जरूर लिया जाता है।

अमिताभ बच्चन की नायिकाएँ जिनके अभिनय को काफी सराहा गया
अमिताभ-जया बच्चन
कई लोगों को मानना है कि जया बच्चन के साथ अमिताभ ने अपने जीवन की श्रेष्ठ फिल्में की हैं। साथ काम करते हुए दोनों में रोमांस हुआ और जया बच्चन रील लाइफ से निकलकर रियल लाइफ में भी अमिताभ की नायिका बनी। बंसी बिरजू, शोले, मिली, अभिमान, चुपके-चुपके, सिलसिला, जंजीर, एक नजर और कभी खुशी कभी गम जैसी यादगार फिल्में दोनों ने दी। जया बच्चन उन चुनिंदा नायिकाओं में से एक हैं, जिन्हें अमिताभ के रहते हुए भी जोरदार भूमिका निभाने को मिली।‘सिलसिला’ में रेखा और जया दोनों अमिताभ की नायिकाएँ थीं।


अमिताभ-राखी
राखी अमिताभ की नायिका भी बनी और बाद में माँ भी। दोनों की साथ की गई फिल्मों को ज्यादा सफलता तो नहीं मिली, लेकिन उनकी जोड़ी को खासा सराहा गया। दोनों का रोमांस परदे पर खामोशी के साथ पेश किया गया। बेमिसाल, त्रिशूल, कभी-कभी, काला पत्थर, बरसात की एक रात, कस्मे-वादे और जुर्माना में दोनों साथ नजर आएँ। ‘शक्ति’ में राखी ने अमिताभ की माँ की भूमिका अदा की थी।

अमिताभ-परवीन बॉबी
ग्लैमरस परवीन बॉबी 8 फिल्मों में अमिताभ की नायिका बनीं और दोनों की जोड़ी को भी दर्शकों ने खूब पसंद किया। दीवार, खुद्दार, शान, दो और दो पाँच, महान, मजबूर, कालिया और अमर अकबर एंथोनी में दोनों साथ दिखाई दिए। इनमें से पाँच फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सुपरहिट रहीं। बाद में परवीन बॉबी बीमार हो गई और दोनों की जोड़ी टूट गई। अपने जीवन के आखिरी दिनों में परवीन ने अमिताभ पर कई गंभीर आरोप लगाए थे, परंतु बिग-बी ने परवीन की मानसिक स्थिति को देख चुप रहना ही बेहतर समझा।

अमिताभ-ज़ीनत अमान
परवीन की तरह ज़ीनत अमान को अमिताभ की फिल्मों में ग्लैमर बढ़ाने के लिए लिया जाता था, क्योंकि अमिताभ की फिल्मों में नायिकाओं को करने को कुछ खास नहीं रहता था। द ग्रेट गैम्बलर, डॉन, लावारिस, दोस्ताना, पुकार और महान में दोनों साथ दिखाई दिए।

अमिताभ-जयाप्रदा
जया नाम की नायिका के साथ अमिताभ की जोड़ी दूसरी बार जमी। परवीन बॉबी, जीनत अमान और राखी जैसी नायिकाओं का जादू ढल गया तो जयाप्रदा ने अमिताभ के साथ जोड़ी जमाई। शराबी, गंगा जमुना सरस्वती, आखिरी रास्ता, जादूगर, इंद्रजीत और आज का अर्जुन में अमिताभ और जयाप्रदा साथ नजर आएँ। इनमें से तीन फिल्में सुपरहिट हुईं और तीन सुपरफ्लॉप।

अमिताभ-हेमा मालिनी
सत्ते पे सत्ता, देश प्रेमी, नास्तिक, नसीब, बाबुल और बागबाग में स्वप्न सुंदरी हेमा मालिनी अमिताभ की नायिका बनीं। जिसमें से तीन फिल्म सफल रही। हेमा मालिनी ने अमिताभ के बजाय धर्मेन्द्र को ज्यादा प्राथमिकता दी, इसलिए दोनों ने कम फिल्मों में साथ काम किया। हेमा मालि नी ‘गहरी चाल’ में की अमिताभ की बहन बनी थीं।

'बिग बी के साथ शाम बिताने के लिए फिल्म शेड्यूल बदलवाना चाहती थीं रेखा'
बॉलीवुड एक्टर रंजीत उर्फ गोपाल बेदी ने एक्ट्रेस रेखा के बारे में नया खुलासा किया है। एक लीडिंग मीडिया हाउस को दिए इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि कैसे अमिताभ बच्चन के साथ शाम गुजारने के लिए वे अपनी फिल्म के शेड्यूल को चेंज कराना चाहती थीं। रंजीत के अनुसार, वे रेखा, धर्मेंद्र और जया प्रदा को अपनी फिल्म 'कारनामा' के लिए साइन कर चुके थे, लेकिन रेखा ने साइनिंग अमाउंट लौटाकर फिल्म छोड़ दी। वे कहते हैं, "फिल्म का पूरा फर्स्ट शेड्यूल शाम को शिफ्ट कर दिया था। एक दिन रेखा का कॉल आया और उन्होंने मुझसे शेड्यूल सुबह करने की गुजारिश की, क्योंकि उन्हें अमिताभ के साथ शाम बितानी थी। मैंने फिल्म डिले कर दी और धर्मेंद्र अपने अन्य कमिटमेंट्स को पूरा करने में लग गए। धर्मेंद्र ने मुझे रेखा की जगह अनिता राज का नाम सुझाया था। बाद में मैंने 'कारनामा' फराह, किमी काटकर और विनोद खन्ना के साथ बनाई। 1990 में जब यह फिल्म रिलीज हुई तो इसने एवरेज बिजनेस किया।" बता दें कि उस दौर में बिग बी और रेखा की अफेयर ने खूब सुर्खियां बटोरी थीं। हालांकि, उनका यह प्यार शादी की दहलीज तक नहीं पहुंच सका।

'किसिंग' सीन की वजह से चर्चा में आईं थी रेखा, मांग में सिंदूर भरकर कर दिया था सबको हैरान
आज बॉलीवुड की खूबसूरत और सदाबाहर अभिनेत्री रेखा-अमिताभ के प्यार का ऐलान तो नहीं हुआ मगर ये प्रमे कहानी जमाने भर में सुर्खियों में रही है। इस इश्क की ना जाने कितनी कहानियां हवाओं में तैरती रहीं। ये मोहब्बत का वो सिलसिला है जिसका जादू गुजरता वक्त भी कम नहीं कर सका. अमिताभ बच्चन रेखा और मोहबब्त का वो सिलसिला 25 साल पहले शुरू हुआ था। इनकी बेपनाह मोहब्बत, इनकी उलझने और आखिरकार समाज के बंधनों के सामने समझौता करती फिल्मी किरदारों को देखकर लगा कि ये सिर्फ फिल्म की कहानी नहीं बल्कि दिल से निकली एक आवाज है।
क्या वाकई में अमिताभ रेखा की लव स्टोरी वाकई में थी? कोई कहता है कि ये मोहब्बत की दास्तान हकीकत नहीं थी तो कुछ लोगों के पास इस प्रेम कहानी के दिलचस्प किस्से हैं। पहली बार ये दोनों 'दो अनजाने' में नजर आए थो जो 1976 में रिलीज हुई थी। इस फिल्म की शूटिंग के वक्त ये दोनों एक दूसरे से अनजाने थे। रेखा से मुलाकात से पहले 1973 में अमिताभ-जया से शादी कर चुके थे। अमिताभ उस समय स्टार बन चुके थे तब तक ना तो रेखा डिमांड में थी और ना ही लोग उनके दिवाने थे।रेखा खबरों में रहती थीं लेकिन गलत वजह से रेखा विश्वजीत के साथ किसिंग सीन की वजह से चर्चा में रहीं। इसकी तस्वीरें मैगजीन के कवर पेज पर छपी थीं। इसके अलावा रेखा का नाम किरण कुमार के साथ भी जुड़ा. 1973 में खबर आई कि रेखा ने विनोद मेहरा से शादी कर ली। ये बात उन्होंने कभी कबूली नहीं बाद में इनका तलाक भी हुआ। इसके बाद 'दो अनजाने' के सेट पर अमिताभ की एंट्री हुई। इसके बाद रेखा के लिए सब कुछ बदल गया। रेखा बदलने लगीं। अमिताभ की शख्सियत उनके काम को देखकर.रेखा काम को संजीदगी से लेने लगीं। अमिताभ ने उन पर जादू सा कर दिया था।
घूम फिर कर ही सही लेकिन दिल की बात जुबां पर आ ही गई। एक इंटरव्यू में रेखा ने खुद बताया, 'मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा, काम को लेकर मेरा नजरिया ही बदल गया. अब फिल्म का सेट मेरे लिए खेल का मैदान नहीं रहा। ये बदलाव अविश्वसनीय था। कई बार तो बैठकर सोचती थी कि क्या ये सच में हो रहा है. उस लड़की को पता ही नहीं था कि पेशेवर होना क्या होता था।' ये फिल्म कामयाब रही और फिल्म इंडस्ट्री को एक सुपरहिट जोड़ी मिल गई. इसके बाद कभी फिल्म के सेट पर तो कभी बाद में बातें और मुलाकातें होने लगीं। इसके बाद 1977-79 तक 'मुकद्दर का सिकंदर', गंगा की सौगंध और मिसटर नटवर लाल की कामयाबी ने इनकी जोड़ी का डंका बजा दिया। रील लाइफ की ये खूबसूरत केमिस्ट्री अब रियल लाइफ में नजर आने लगी थी ऋषि कपूर और नीतू की शादी में पहुंची रेखा को अचानक मांग में सिंदूर भरे देखकर लोग हैरान हो गए. चुपके-चुपके लोग ये भी बातें करने लगे कि क्या अमिताभ और रेखा ने शादी कर ली। उस रात की तस्वीरें कई मैगजीन्स में छपीं। लेकिन इन सवालों के जवाब में रेखा ने कभी कुछ खुलकर नहीं कहा और ये राज-राज ही रह गया।


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What an Idea- जब यूपी से 4 मुख्यमंत्री निकल सकते है तो भारत से 10-12 प्रधानमंत्री निकल जाये तो क्‍या बुरा है ?



आंध्र प्रदेश के विभाजन की बात उठी ही थी कि हमारी बुआ मायावती ने उत्तर प्रदेश को चिन्‍दी चिन्‍दी करने की ठान ली। सरपट कलम लेकर बुंदेलखंड और हरित प्रदेश नाम के नये राज्य की चिट्ठी प्रधानमंत्री को लिख डाली। चूंकि कांग्रेस भी नये राज्य का सारा श्रेय खुद लेना चाहती थी तो इसलिये दोनो अर्जियो को रद्दी की टोकरी में डाल दिया। प्रधानमंत्री के चपरासी ने उस टोकरी को खाली भी न कर पाया था कि हमारी गजगामिनी बुआ मायावती ने पूर्वांचल वाली चिट्ठी भी प्रधानमंत्री को भेज दिया, यह भी नहीं सोचा कि पूर्व की चिट्ठी का क्या हश्र हुआ था।
मायावती जी हरित प्रदेश, बुंदेलखंड और पूर्वांचल के जब अलग हो जाएंगे तो उत्‍तर प्रदेश बचेगा ही कहाँ ? मायावती का तर्क है कि राज्‍य काफी बड़ा और विकास होने में काफी दिक्कतें आती है। पूर्वांचल और हरित प्रदेश में आय का काफी अंतर दिखता है। अन्तर तो भारत के अन्‍य राज्‍यों में भी दिखाई पड़ रहा है, गुजरात, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों की विकास दर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड और उड़ीसा आदि से बहुत ज्यादा है। कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों की अलग अलग स्थिति है। मायावती 2.50 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल वाले राज्य को संभालने में दिक्कत महसूस कर रही है, अच्छा है कि हमारे प्रधानमंत्री के मन में 32 लाख किमी वाले भारत को चला पाने में दिक्कत महसूस नहीं कर रहे है। मायावती की स्थिति मनमोहन सिंह की होती तो अब वो भी भारत को कई भागों में बढ़ाने की मांग कर चुके होते है।
मायावती की सोच के हिसाब से भारत को भी कई देशों के बांट देना चाहिये क्योंकि आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से भारत में उत्तर प्रदेश से ज्यादा भिन्नता है कि तो मांग के हिसाब से भारत को भी बांट देना चाहिए, मनमोहन जी हमारी राय पर भी विचार कीजियेगा, अगर 2.50 लाख वर्ग किमी के उत्तर प्रदेश में 5 नये मुख्यमंत्री के सपने देखे जा सकते है तो 32 लाख वर्ग किमी के भारत में 10-12 प्रधानमंत्री और निकल जाये तो क्या बुरा होगा ?


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राष्ट्र का संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ



राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ जिसे आर.एस.एस (R.S.S.) जाना जाता है मुझे नहीं लगता कि किसी को संघ की पहचान बताने की जरूरत है। आज यह कहना ही उचित होगा कि इसके आलोचक ही इसकी मुख्य पहचान है। जब आलोचक संघ की कटु आलोचना करते नजर आते है तब तब संघ और मजबूत होता हुआ दिखाई पड़ता है। छद्म धर्मनिरपेक्षवादी लोगों को यही लगता है कि भारत उन्हीं के भरोसे चल रहा होता है किन्तु जानकर भी पागलों की भांति हरकत करते है जैसे उन्हें पता ही न हो कि संघ की वास्तविक गतिविधि क्या है ?
राष्ट्र का संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
संघ के बारे थोड़ा बताना चाहूंगा उन धर्मनिरपेक्ष बंदरों को जो अपने आकाओ के इशारे पर नाचने की हमेशा नाटक करते रहते है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना सन् 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के दिन मोहिते के बाड़े नामक स्थान पर डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार उपाख्य डॉक्टर जी ने की थी। संघ के 5 स्वयंसेवकों के साथ शुरू हुई विश्व की पहली शाखा आज 50 हजार से अधिक शाखाओं में बदल गई और ये 5 स्‍वयंसेवक आज करोड़ो स्वयंसेवक के रूप में हमारे सामने है। संघ की विचारधारा में राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, हिंदू राष्ट्र, राम जन्मभूमि, अखंड भारत, समान नागरिक संहिता जैसे विजय है जो देश की समरसता की ओर ले जाता है। कुछ लोग संघ की सोच को राष्ट्र विरोधी मानते है क्योंकि उनका काम ही है यह मानता, नही मानेगे तो उनकी राजनीतिक गतिविधि खत्म हो जाती है।
राष्ट्र का संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ की हमेशा अवधारणा रही है कि 'एक देश में दो प्रधान, दो विधान, दो निशान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे' बात सही भी है। जब समूचे राष्ट्र और राष्ट्र के नागरिकों को एक सूत्र में बांधा गया है तो धर्म के नाम पर कानून की बात समझ से परे हो जाती है, संघ द्वारा समान नागरिक संहिता की बात आते ही संघ को सांप्रदायिक होने की संज्ञा दी जाती है। अगर देश के समस्त नागरिकों के लिये एक नियम की बात करना साम्प्रदायिकता है तो मेरी नजर में इस साम्प्रदायिकता से बड़ी देशभक्ति और नहीं हो सकती है।


राष्ट्र का संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
संघ ने हमेशा कई मोर्चों पर अपने आपको स्थापित किया है। राष्ट्रीय आपदा के समय संघ कभी यह नहीं देखता कि किसकी आपदा मे फसा हुआ व्यक्ति किस धर्म का है। आपदा के समय संघ केवल और केवल राष्ट्र धर्म का पालन करता है कि आपदा मे फसा हुआ अमुक भारत माता का बेटा है। गुजरात में आये भूकम्प और सुनामी जैसी घटनाओं के समय सबसे आगे अगर किसी ने राहत कार्य किया तो वह संघ का स्वयंसेवक था। संघ के प्रकल्पों ने देश को नई गति दी है, जहाँ दीन दयाल शोध संस्थान ने गांवों को स्वावलंबी बनाने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई है। संघ के इस संस्‍थान ने अपनी योजना के अंतर्गत करीब 80 गांवों में यह लक्ष्य हासिल कर लिया और करीब 500 गांवों तक विस्तार किए जाने हैं। दीन दयाल शोध संस्थान के इस प्रकल्प में संघ के हजारों स्‍वयंसेवक बिना कोई वेतन लिए मिशन मानकर अपने अभियान में लगे है। सम्पूर्ण राष्ट्र में संघ के विभिन्न अनुषांगिक संगठनो राष्ट्रीय सेविका समिति, विश्व हिंदू परिषद, भारतीय जनता पार्टी, बजरंग दल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, राष्ट्रीय सिख संगत, भारतीय मजदूर संघ, हिंदू स्वयंसेवक संघ, हिन्दू विद्यार्थी परिषद, स्वदेशी जागरण मंच, दुर्गा वाहिनी, सेवा भारती, भारतीय किसान संघ, बालगोकुलम, विद्या भारती, भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम सहित ऐसे संगठन कार्यरत है जो करीब 1 लाख प्रकल्पो को चला रहे है।
संघ की प्रार्थना भी भारत माता की शान को चार चाँद लगता है, संघ की प्रार्थना की एक एक लाईन राष्‍ट्र के प्रति अपनी सच्‍ची श्रद्धा प्रस्‍तुत करती है मेरी पोस्‍ट मुस्लिम भाई मै आप से अभिभूत हूँ पर संघ की प्रार्थना और उसके अर्थ को पढ़ा जा सकता है। संघ का गाली देने से संघ का कुछ बिगड़ने वाला नही है अप‍ितु गंदे लोगो की जुब़ान की गन्‍दगी ही परिलक्षित होती है।
राष्ट्र का संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

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आज मुम्‍बई या है पर हम भोपाल क्‍यो भूल रहे है ?



भोपाल झीलो के शहर की पहचाना जाता है किन्‍तु आज भोपाल की जो सबसे बड़ी पहचान है वह है भोपाल गैस कांड। भोपाल गैस कांड को आज 25 वर्ष हो गये है, यह विश्व की वह शर्मनाक घटना है जिसमें यूनियन कार्बाइड फ़ैक्टरी से मिथाइल आइसोसाइनाइड लीक होने परिणाम स्‍वरूप 25 हजार लोग मारे गये थे तथा आज तक करीब 5 लाख से अधिक लोग इससे दुष्‍परिणाम प्रभावित हुये थे।

विश्व की बड़ी औद्योगिक त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार मानी जाने वाली यूनियन कार्बाइड फैक्‍ट्री आज भले ही अस्तित्‍व मे न हो किन्‍तु इस घटना ने उसे लोगो के आक्रोश पटल पर हमेशा जिन्‍दा रखा है, ज्ञात हो कि यूनियन कार्बाइड को 2001 मे अमरीकी कंम्पनी डाउ कैमिकल्स ने ख़रीद लिया था और इसके साथ ही साथ डाउ कैमिकल्स ने 25 हजार लोगो के मौत की जिम्‍मेवारी और 5 लाख से ज्‍यादा घायलो की बद्दुआएं।

आज भी भोपाल गैस कांड के भुक्‍त भोगियों को न्‍याय नही मिल पा रहा है, इसके पीछे दोषी कौन है ? हमारी व्यवस्था कि, हमारी सरकारो की इच्‍छा शक्ति की या हमारी स्वयं की। आज हम मुम्बई हमले को बड़ी तत्परता से याद करते है करना भी चाहिये किन्‍तु ऐसे राष्ट्रीय बहस के मुद्दे की अनदेखी किया जाना, इस घटना के पीड़ितों के साथ सबसे बड़ा अन्याय है।


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351 पोस्‍टो में यादो के झरोखे से झाकती 25 पोस्‍टे



1 जुलाई 2006 से आज तक हमने करीब 351 लेख महाशक्ति ब्लॉग पर लिखे, और इन पोस्टो में 25 पोस्‍ट ऐसी रही जो कमेंट से महरूम रही। 14 मई 2008 के बाद ऐसी कोई पोस्ट नही नही जो टिप्पणी न प्राप्त कर सकी। कल अनायास ही ब्लॉग हिस्ट्री देखने बैठा था लगा कि क्यों न इस पोस्ट को भी याद कर लिया जाये।
किसी पोस्ट का सर्वश्रेष्ठ कहा जाये या नही ब्लॉग लेखकों में इसको लेकर मतभेद होगा किन्तु जहाँ तक मै मानता हूँ कि इन 25 पोस्ट में सबसे अच्छी पोस्ट भी है, उस समय मुझे बहुत दुख हुआ था कि वह टिप्‍पणी प्राप्‍त नही कर सकी थी।
वह दौर ऐसा था जिसमें टिप्‍पणी की अपेक्षा करना बहुत कठिन था, नारद जो आज इतिहास बन गया है, सभी पोस्‍टो की जानकारी के लिये उस पर निर्भर करते थे, आप परिदृश्य बिल्कुल बदल गया है, पोस्ट को पढने के नये नये तरीके सामने आ गये है। उस समय तो हमे पोस्टिंग करनी भी नही आती थी कई पोस्‍ट तो हमने बिना शीर्षक के किये थे।
जन्‍मदिन 24 नम्वम्‍बर को बीत गया, महाशक्ति समूह, जबलपुर परिवार, ब्‍लाग परिवार की सनेह बधाईयाँ और शुभकामनाऍं मिली, आर्कुट, फेसबुक और फोन आदि पर भी मित्रो ने अपार प्रेम दिया। वाकई बहुत अच्‍छा लगा। सभी को हृदय से धन्‍यवाद देता हूँ।
ये 25 पोस्‍टे निम्‍न है, जो टिप्‍पणी प्राप्‍त न कर सकी और इन 25 में क्रमांक 6, 9, 10,11,21 और 22 नम्‍बर की पोस्‍टे मैने बहुत ही मन से लिखी थी। तब टिप्‍पणी न मिलने पर हमने पोस्‍ट में लिखा था कि जब टिप्‍पणी न मिले तो समझना चाहिये कि पोस्‍ट इतनी अच्‍छी थी कि उसमें टिप्‍पणी करने लायक ही कुछ नही था।



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ऊपर वाला “खुदा” है तो देर से अंधेर भली



muslim women violence

एक बात से तो कोई इन्‍कार नही कर सकता है कि भारत मे सुनामी और भूकंप आने पर इतना हल्‍ला नही मचता है जितना कि फतवा जारी होने पर, जैसे फतवा न हो गया अल्‍लाह की जुलाब की घुट्टी हो गई पीते ही दस्‍त शुरू। आज के समय में यही देखने पर लग रहा है कि यह कैसा दकियानूसी समुदाय है, जो फतवों पर जीता है। फतवा अरबी का लफ्ज़ है। इसका मायने होता है- किसी मामले में आलिम ए दीन की शरीअत के मुताबिक दी गयी राय होती है जिसे स्‍वीकार करना या न करना राय मागने वाले पर ही निर्भर करता है पर भारत में इसे अल्‍लाह की वाणी जैसा महत्‍व दिया जा रहा है। फतवा कोई मांगता है तो दिया जाता है, फतवा जारी नहीं होता है। हर उलेमा जो भी कहता है, वह भी फतवा नहीं हो सकता है। फतवे के साथ एक और बात ध्‍यान देने वाली है कि हिन्‍दुस्‍तान में फतवा मानने की कोई बाध्‍यता नहीं है। फतवा महज़ एक राय है। मानना न मानना, मांगने वाले की नीयत पर निर्भर करता है। लेकीन हिन्दुस्तान मे फतवा मुस्लमाने के लिये हिन्दुस्तान का संविधान से भी ज्यादा महत्वपुर्ण है

muslim women violence 

21 शताब्दी मे कुछ जारी फतवे और इस्लामिक न्यायिक निर्णयों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि इस्लाम में अल्लाह, मुहम्मद साहब, फतवा और पुरुषों के अलावा कोई भी चीज पाक नही है। गुनाह अगर पुरुष करता है तो स्त्री पर थोप दिया जाता है कि अमुक स्त्री के आकर्षण के कारण पुरुष की नीयत खराब हो गई तो इसमें पुरुष की क्या दोष है ? इसे कहते है खुदा का न्याय।

एक कहावत है कि ऊपर वाले के यहाँ देर है अंधेर नही, यदि ऊपर खुदा ही बैठा है तो देर से अंधेर ही भली जो स्त्रियों को दोयम दर्जे पर स्थापित करता है और कही बलात्कार की शिकार लड़की को 200 कोड़े तो कहीं पैंट पहनने पर मारे गए 40 कोड़े और तो और मस्जिद में नमाज अदा करने पर महिलाओं को फतवा जारी कर दिया जाता है। आपको हाल की कुछ खबरों की ओर ले जाता हूँ -बलात्कार की शिकार लड़की को 200 कोड़े मारने की सजा जेद्दाह : जेद्दाह में एक सऊदी अदालत ने पिछले साल सामूहिक बलात्कार की शिकार लड़की को 90 कोड़े मारने की सजा दी थी। उसके वकील ने इस सजा के खिलाफ अपील की तो अदालत ने सजा बढ़ा दी और हुक्म दिया: '200 कोड़े मारे जाएं।' लड़की को 6 महीने कैद की सजा भी सुना दी। अदालत का कहना है कि उसने अपनी बात मीडिया तक पहुंचाकर न्याय की प्रक्रिया पर असर डालने की कोशिश की। कोर्ट ने अभियुक्तों की सजा भी दुगनी कर दी। इस फैसले से वकील भी हैरान हैं। बहस छिड़ गई है कि 21वीं सदी में सऊदी अरब में औरतों का दर्जा क्या है? उस पर जुल्म तो करता है मर्द, लेकिन सबसे ज्यादा सजा भी औरत को ही दी जाती है।

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महिलाओं को पैंट पहनने पर मारे गए 40 कोड़े!खार्तूम। सूडान में कुछ महिलाओं को पैंट पहनना काफी महंगा पड़ गया। दरअसल कुछ सूडानी महिलाएं पैंट पहनकर रेस्टोरेंट में खाना खाने गई थीं। तभी वहां पर करीब 30 की संख्या में पुलिसकर्मी पहुंचे और इन्हें गिरफ्तार कर लिया। इन महिलाओं को 40-40 कोड़े लगाने का आदेश दिया गया।
वेबसाइट ‘डेलीमेल डॉट को डॉट यूके’ के मुताबिक ये महिलाएं देश की राजधानी खार्तूम के एक रेस्टोरेंट में बैठी थीं तभी अचानक पुलिस वहां पहुंची और 13 महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया। कुछ महिलाओं ने तो गलती मानते हुए माफी मांग ली तो उन्हें 10 कोड़े लगाकर छोड़ दिया गया लेकिन कुछ ऐसी थी जिन्होंने अपनी गलती स्वीकार नहीं की तो उन्हें 40 कोड़ों की सजा दी गई।
मालूम हो कि गिरफ्तार की गई महिलाओं में से एक लुबना अहमद अल-हुसैन नाम की एक पत्रकार भी थी। उसने बताया कि कैसे पुलिस ने बिना सूचना के बिल्डिंग पर धावा बोल पैंट पहने महिलाओं को गिरफ्तार कर लिया। उस पत्रकार महिला ने बताया कि मैंने पैंट पहनी थी और मेरी तरह 10 महिलाओं ने भी पैंट पहनी थी। लुबना अहमद एल-हुसैन काफी जानीमानी रिपोर्टर हैं और सूडानी अखबार में कॉलम भी लिखती हैं। ये देश दो भागों में बंटा है। खार्तूम में मुसलमान हैं और दक्षिण में ईसाई हैं। जिन महिलाओं को दोषी पाया गया वो ज्यादातर दक्षिण से थीं। वहां पर गैर मुसलमान भी शरिया कानून का विरोध नहीं कर सकते। 

मस्जिद में नमाज अदा करने पर महिलाओं को मिला फतवा गुवाहाटी (टीएनएन)
असम के हाउली टाउन में कुछ महिलाओं के खिलाफ फतवा जारी किया गया क्योंकि उन्होंने एक मस्जिद के भीतर जाकर नमाज अदा की थी। असम के इस मुस्लिम बाहुल्य इलाके की शांति उस समय भंग हो गई , जब 29 जून शुक्रवार को यहां की एक मस्जिद में औरतों के एक समूह ने अलग से बनी एक जगह पर बैठकर जुमे की नमाज अदा की। राज्य भर से आई इन महिलाओं ने मॉडरेट्स के नेतृत्व में मस्जिद में प्रवेश किया। इस मामले में जमाते इस्लामी ने कहा कि कुरान में महिलाओं के मस्जिद में नमाज पढ़ने की मनाही नहीं है। जिले के दीनी तालीम बोर्ड ऑफ द कम्युनिटी ने इस कदम का विरोध करते हुए कहा कि इस तरीके की हरकत गैरइस्लामी है। बोर्ड ने मस्जिद में महिलाओं द्वारा नमाज करने को रोकने के लिए फतवा भी जारी किया। 

कम कपड़े वाली महिलाएं लावारिस गोश्त की तरह
मौलवी मेलबर्न (एएनआई) : एक मौलवी के महिलाओं के लिबास पर दिए गए बयान से ऑस्ट्रेलिया में अच्छा खासा विवाद उठ खड़ा हुआ है। मौलवी ने कहा है कि कम कपड़े पहनने वाली महिलाएं लावारिस गोश्त की तरह होती हैं , जो ' भूखे जानवरों ' को अपनी ओर खींचता है। रमजान के महीने में सिडनी के शेख ताजदीन अल-हिलाली की तकरीर ने ऑस्ट्रेलिया में महिला लीडर्स का पारा चढ़ा दिया। शेख ने अपनी तकरीर में कहा कि सिडनी में होने वाले गैंग रेप की वारदातों के लिए के लिए पूरी तरह से रेप करने वालों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। 500 लोगों की धार्मिक सभा को संबोधित करते हुए शेख हिलाली ने कहा , ' अगर आप खुला हुआ गोश्त गली या पार्क या किसी और खुले हुए स्थान पर रख देते हैं और बिल्लियां आकर उसे खा जाएं तो गलती किसकी है , बिल्लियों की या खुले हुए गोश्त की ?'

कामकाजी महिलाएं पुरुषों को दूध पिलाएं : फतवा
काहिरा : मिस्र में पिछले दिनों आए दो अजीबोगरीब फतवों ने अजीब सी स्थिति पैदा कर दी है। ये फतवे किसी ऐरे-गैरे की ओर से नहीं बल्कि देश के टॉप मौलवियों की ओर से जारी किए जा रहे हैं।
देश के बड़े मुफ्तियों में से एक इज्ज़ात आतियाह ने कुछ ही दिन पहले नौकरीपेशा महिलाओं द्वारा अपने कुंआरे पुरुष को-वर्करों को कम से कम 5 बार अपनी छाती का दूध पिलाने का फतवा जारी किया। तर्क यह दिया गया कि इससे उनमें मां-बेटों की रिलेशनशिप बनेगी और अकेलेपन के दौरान वे किसी भी इस्लामिक मान्यता को तोड़ने से बचेंगे।

गले लगाना बना फतवे का कारण
इस्लामाबाद (भाषा) : इस्लामाबाद की लाल मस्जिद के धर्मगुरुओं ने पर्यटन मंत्री नीलोफर बख्तियार के खिलाफ तालिबानी शैली में एक फतवा जारी किया है और उन्हें तुरंत हटाने की मांग की है। बख्तियार पर आरोप है कि उन्होंने फ्रांस में पैराग्लाइडिंग के दौरान अपने इंस्ट्रक्टर को गले लगाया। इसकी वजह से इस्लाम बदनाम हुआ है। 

फतवा: ससुर को पति पति को बेटा
एक फतवा की शिकार मुजफरनगर की ईमराना भी हुई। जो अपने ससुर के हवस का शिकार होने के बाद उसे अपने ससुर को पति और पति को बेटा मानने को कहा और ऐसा ना करने पे उसे भी फतवा जारी करने की धमकी मिली।
मौत का फतवा और तस्लीमा नसरीन बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तस्लीमा नसरीन इस समय दुनिया की सबसे विवादित और चर्चित लेखिका हैं। बांग्लादेश में तो उनकी हत्या का फ़तवा इस्लामी कट्टरपंथियों ने तभी जारी कर दिया था जब उन्होंने ‘लज्जा’ नामक उपन्यास लिखा था। जान बचाने के लिए उन्हें अपना देश छोड़कर नॉर्वे में शरण लेनी पड़ी थी. यह वर्ष 1993 की बात है।
देश में इससे ज्यादा स्तब्ध कर देने वाली घटना और क्‍या हो सकती है जब किसी की हत्या के लिये फतवा दिया जाता है। ऐसा ही तस्लीमा के विरोध की कमान एक भारतीय इमाम ने किया था। ये कोलकाता की टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम हैं और इनका नाम एसएसएनआर बरकती है। बरकती ने तस्लीमा की हत्या का फ़तवा जारी किया था । यह वही है जिन्‍होने तस्लीमा नसरीन का मुँह काला किए जाने और जूतों की माला पहनाए जाने का फ़तवा जारी किया था और इस बार की तरह ही 50 हज़ार रुपयों का इनाम भी घोषित किया था।
जब तस्‍लीमा का मुँह काला किया गया तो मानवाधिकारी कहाँ थे? भारत की सरकार भी पुरुषार्थ रूप को त्याग कर अपनी नई भूमिका में आ जाती है। भारत सरकार भी चीन को धमकी दे सकती है पर मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ कार्यवाही नही कर सकती है। भारत सरकार भी जानती है कि कि चीन हमला करेगा तो सेना देखेगी और मुसलमान जब हमला करेगा तो देखना तो हमें ही पड़ेगा।
जब खुले आज ऐसे फतवे दिये जाते है तो समाज के वे तथाकथित सेक्युलर किन्नर फौज का भी पता नही चलता है कि वे किस दरबे में घुसी हुई है जो मोदी को गरियाने में आगे रहते है, उनके मुँह से मोदी के लिये ऐसी बद्दुआ निकलती है जैसा कि किन्नरों के सम्बन्ध में विख्यात है। इन सेक्‍युलर वेश्याओं के भली तो रेड लाइट एरिया की वेश्‍या है जो अपना धंधा हिंदू मुसलमान देख कर तो नहीं करती। उनका का तो सिर्फ धंधा करना होता है।



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अल्लाह की शक्ति का अतिक्रमण करता भारतीय संविधान, कठमुल्लों फतवा जारी करो



मुस्लिमों द्वारा वन्दे मातरम् को लेकर जो गंदा खेल खेला जा रहा है, उसके पीछे देश के एकीकृत ढाचे को तोड़ने की मंशा दिखाई देती है। वन्दे मातरम् कोई गीत मात्र नहीं है बल्कि देश की आजादी के समय स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में जोश भर देने वाला मंत्र था, जिसे गर्व से हिन्दू भी गाता था और मुसलमान भी और इसके साथ साथ स्वतंत्रता की लडाई लड़ने वाला हर भारतीय ने इसे स्वाभिमान के साथ स्वीकार किया। वंदे मातरम बोलते समय भगत सिंह अशफाक उल्ला के स्वर एक साथ फूटते थे और सीना चौड़ा कर अग्रेजो बत्तीसी तोड़ने की माद्दा रखते थे। ये असर थ वन्दे मातरम् का।
अल्लाह की शक्ति का अतिक्रमण करता भारतीय संविधान, कठमुल्लों फतवा जारी करो
 
कल सुरेश जी का लेख इस्लाम के "सच्चे" फ़ॉलोअर्स से आपका परिचय बहुत जरूरी है को मैने पढ़ा और वकाई इस्‍लाम के बारे में ऐसी बात जानने को मिली जिसकी जिन्दा ही की जानी चाहिये। इस्‍लामकि खलीफाओ की दादागीरि सिर्फ महिलाओ पर ही होती है। 112 का बुड्डा 17 साल की लड़की से शादी कर रहा है। और भी ऐसी बातें आप सुरेश जी के लेख में बेहतर पढ़ सकते है।

आज कुछ तुगलकी मुसलमान, ये कह रहे है कि वन्देमातरम गाने से वे नापाक हो जाएंगे तो वे कब का नापाक हो चुके है, जितनी बार वन्देमातरम का विरोध करते है उतनी बार ही भारत माता को प्रणाम भी करते है। देश का हर प्रकार के भोजन मे वंदे मातरम का गान गूँज रहा है और इसे मुसलमान भी खा रहे और और हिन्दू भी। आज मुसलमान हिंदुओं के साथ रह रहे है, जबकि इस्लाम मे कहा गया है जहाँ भी मूर्तिपूजक मिले उन्हें मार डालो, जब तक कि वे अल्‍लाह की पनाह मे न आ जाये। अरे नामकूलो 80 करोड़ हिन्दुओ के साथ रह कर अल्‍लाह के नियम को तुम कब का तोड़ चुके हो, तुम अल्लाह के गुनहगार हो गये हो, तुम न तो 80 करोड़ हिन्दुओ के मार सके और न ही उन्हें अल्लाह का गुलाम बना सके। अल्लाह के प्रति तुम लोग कितना अनैतिक काम किये जा रहे है, तब पर अल्लाह तुम पर रहम किये हुये है, तुम्हे हूरो से बद्दुआये नहीं दिलवा रहा, तुम गर्व से वंदे मातरम् गाओ, इस पर भी अल्लाह नाराज नही होगा।

यार तुम्हारा अल्लाह न हो गये हो गये छुई-मुई जब देखो तब किसी न किसी बात से नाराज हो जाते है कभी महिलाओ द्वारा पुरूष से सेक्‍स से इंकार करने पर भी अल्लाह नाराज हो जाता है तो कभी वंदे मातरम गाने से, अल्लाह को सर्वशक्तिमान बने रहने दो छुई-मुई मत बनाओ, अगर तुम लोग अल्लाह को छुई-मुई बनाओ के तो जरूर अल्लाह नाराज हो जायेगा।

हिन्‍दी चिट्ठकारी मे एक सनकी महाराज है, जब सनक सवार होती है तो एक घटिया पोस्‍ट डाल देते है अब वो कर रहे है कि देशभक्ति जताने के लिए मुसलमान 'वन्दे-मातरम्' के मुहताज नहीं है। अब वो देश भक्ति की बात भी करते है और अल्लाह भक्ति की भी जबकि उनके अनुसार इस्लाम सिर्फ अल्लाह की भक्ति की बात ही करता है। बन्देमातरम् गाकर देशभक्ति नही कर सकते तो गोलियों के दम देश से देश भक्ति न करो। वन्दे मारम् न गाने की बात अब हम पाकिस्‍तानी से सीखेगे वो हमे बतायेगा कि हम वन्दे मातरम् क्‍यो न गाये। जिस बड़े विद्वान डॉ. जाकिर अब्दुल करीम नाइक की बात हो रही है उसे मुसलमानों ने ही पिछले साल इलाहाबाद और लखनऊ मे घुसने नही दिया, इसलिए कि खुद मुसलमान इससे नफरत करते है।


आज सरकार और उनके गृह मंत्री के सामने यह सब हो रहा है और लज्जाहीन गृहमंत्री अपने सामने होने की बात से इंकार कर रहे है इससे ज्यादा शर्म की बात और क्‍या हो सकती है? कांग्रेसी नीति देश तोड़ो राज करो की नीति थी, आखिर कांग्रेस पैदाइश तो है अंग्रेजो की ही। गृहमंत्री को बाबरी ढांचा याद आता है गुजरात याद आ जाता है किन्तु वो कांग्रेसियो द्वारा सिखों पर हमले को वो भूल जाते है, आखिर क्यों ? क्योंकि खुद के दामन पर दाग आता है। जब तक देश में देश विरोधी शक्तियाँ सत्ता मे रहेगी 20 करोड़ मुस्लिम अल्पसंख्यक रहेंगे और 2 करोड़ सिखों के साथ अन्याय किया जाता रहेगा।

आज वंदे मातरम गलत है तो कल को भारत के संविधान के खिलाफ फतवा जारी हो सकता है क्योंकि संविधान सभी को समानता का अधिकार देता है चाहे वो पुरुष हो या स्त्री पर इस्लाम की किताबो में लिखा है कि एक पुरूष की बयान दो महिलाओ के बराबर होती है। इस्लाम की कुछ ऐसी बातें जिसे संविधान प्रतिरोध करता है-
एक रखैल अपने मालिक की सम्पत्ति है, वह उसको कोड़े मार सकता है और बेच सकता है ।

भारतीय सविधान के अनुसार ऐसा कृत्‍य अपराध होगा।
वह एक बलात पत्नी है और वह अपने मालिक को उसकी इच्छानुसार उसके साथ संभोग करने से इंकार नहीं कर सकती, नही वह वहाँ से भाग सकती थी क्योकि भगोड़े दासों से संबंधित कानून वस्तुत: बहुत कठोर था।

महिला आयोग ही दंडा लेकर पीछे पड़ जायेगी।
यदि कोई स्त्री अपने पति से बुलाए जाने पर शय्या पर न आए तो वह फरिश्तों की बद्दुआओं का निशाना बन जाती है । यदि वह अपने पति की शय्या त्याग कर चली जाती है तो भी ठीक ऐसा ही होगा । ( बोखारी, खण्ड 7 पृष्ठ 93 )

आज के समय में स्त्रियाँ चाहे बद्दुआओं का निशाना बने या न बने, ऐसा कृत्‍य करने वाले इस्लामिक पुरूषो को महिला आयोग जरूर बद्दुआओं के शिकार हो जाएंगे।
फिर जब हराम के महीने बीत जाएं, तो 'मुशरिकों'* को जहाँ कहीं पाओ कत्ल करो, और पकड़ो, और उन्हें घेरो, और घात की जगह उनकी ताक में बैठो । फिर यदि वे ' तौबा ' कर लें नमाज कायम करें, और जकात दें, तो उनका मार्ग छोड़ दो । नि: सन्देह अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दया करने वाला है । *मूर्तिपूजको (कुरान - '10 पार: 9 शूर: 5 वीं आयत)

ये भारतीय दंड संहिता की धाराओ का उल्‍लंघन करती है।
ये तो कुछ ही बाते है जो भारतीय संविधान की भावना का अतिक्रमण करने है और भारतीय संविधान इसका अतिक्रमण करता है। इस लहजे से जब वंदेमातरम से अल्लाह नाराज हो जाता है तो भारतीय संविधान द्वारा अल्लाह के पावर में हस्तक्षेप कैसे अल्लाह और उनके कठमुल्ले कैसे बर्दाश्त कर सकते है? फतवा तो संविधान के खिलाफ होना चाहिए। मुसलमानों का संविधान के प्रति फतावा जरूरी भी है, क्योंकि देशभक्ति जताने के लिये बंदेमातरम) जरूरी नही है उसी प्रकार मुस्लिमों के अनुसार देश में रहने के लिये संविधान भी जरूरी नही है। वैसे भी संविधान गैर इस्‍लामिक हो गया है, और मुस्लिमों के लिये भारत उनका कब रहा ही है जो वो संविधान से बंधे रहे?
और अंत में आज मुझे अपने हिन्दू होने और कहने पर गर्व है कि मै सूर्य, पृथ्वी, जल, वायु या प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किसी के भी प्रति कृतज्ञता प्रकट कर सकता हूँ, जिससे हमें कुछ मिल रहा है हमारा धर्म हमें यही सिखाता भी है। क्योंकि हमारा ईश्वर छुई-मुई जो नही है, कि छूने से ही मुरझा जाये।


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क्‍या भारत में रणजी का सिर्फ मजाक भर ही है ?




मै भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच चल रहे क्रिकेट की बात नही कर रहा हूँ। मै आज बात करने जा रहा हूँ, मुम्बई और पंजाब के बीच खेले जा रहे रणजी किक्रेट मैच की। मै रणजी की बात कर रहा हूँ, मुझे मूर्ख ही कहा जाएगा क्योंकि भारत में रणजी की बात करने वाले को मूर्ख ही कहा जाता है। वो भी तब जबकि भारत और ऑस्ट्रेलिया के बीच वनडे मैच आ रहा हो और भारत के सामने 350 रनों का विशाल लक्ष्य हो।
जिसे जो कहना हो कहे पर मै तो बात आज रणजी की ही करूँगा। आज पेपर में कल के मुंबई और पंजाब खेल खत्म होने पर खबर थी - पंजाब का पलटवार शीर्षक था पंजाब ने मुंबई के 244 के स्कोर पर सात विकेट ले लिए थे और पंजाब 14 रनों की बढ़त पर था। पर आज के तीसरे दिन जब मुम्बई न बैटिंग 244 के स्कोर पर सात पर शुरू की तो 471 के स्कोर पर 9 विकेट पर मुंबई को घोषित करनी पड़ी, अर्थात 7 और 8 वें विकेट की साझेदारी में कुल 227 रन बने, वाकई है न किक्रेट अनिश्चितता का खेल ? नौवें नंबर पर बैटिंग करने उतरे रमेश पोवार ने शतक लगा कर 125 पर नाबाद रहे।
रणजी के खेल के प्रति न तो बीसीसीआई अपनी रूच‍ि दिखाती है और न ही सरकार, यही कारण है कि रणजी जैसे घरेलू महत्‍पूर्ण मैच के खिलाडियो के प्रदर्शन का नकार दिया जाता है। चेतेश्‍वर पुजारा ने रणजी ट्राफी के नौ मैच में 82.36 की औसत से 906 रन बनाए जिसमें चार शतक शामिल हैं। चोपड़ा ने रणजी और विजय हजारे दोनों में 60 से अधिक औसत से रन बनाए लेकिन यह चयनकर्ताओं का ध्यान खींचने के लिए पर्याप्त नहीं था। गुजरात के पार्थिव पटेल ने तो विकेट के आगे और विकेट के पीछे दोनों भूमिकाओं में प्रभावशाली प्रदर्शन किया है। 
भारत के वर्तमान समय के सबसे ज्यादा विकेट लेने वाले गेंदबाज अजीत अगरकर को भी लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है, जबकि वो अपने 300 वे विकेट से मात्र 12 विकेट दूर है, और लगातार रणजी में उम्दा प्रदर्शन कर रहे है। गुजरात के स्पिनर मोहनीश परमार [पिछले रणजी सत्र में 42 विकेट], ने अपने प्रदर्शन से कई पूर्व क्रिकेटरों को कायल बनाया लेकिन वह भी बालाजी [36 विकेट] और सिद्धार्थ त्रिवेदी [34 विकेट] की तरह चयनकर्ताओं को प्रभावित नहीं कर पाए। आखिर ये क्रिकेटर लगातार अच्छा प्रदर्शन कर रहे है तो भी उन्हें राष्ट्रीय टीम में जगह क्यो नही मिल रही है ?
क्‍या भारत में रणजी का सिर्फ मजाक भर ही है ?
 


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