धोखा - इन्टरनेट का बंदा हिन्दू से मुसलमान हो गया
अगर हम हिन्दी ब्लागर से अतिरिक्त आर्कुट और याहू चैट मैसेंजर की बात करे तो यहाँ पर बात बिल्कुल भिन्न हो जाती है। आर्कुट के जरिये सर्व श्री दिल्ली में , आलोक सिंह, सुरेन्द्र सुमन और इलाहाबाद में आशुतोष मिश्र तथा चन्द्र वैभव सिंह आदि से भी मिला जो बाद में ब्लॉगर बने मित्रों से मिलना हुआ है, आज इलाहाबाद में अनेको आर्कुट दोस्तों से व्यक्तिगत मिलना हो चुका है लगभग उन्हीं से मिलना हुआ जो अपने विचार के होने के कारण अपने आप आत्मीय सम्बन्ध की संरचना कर देते है।
याहू चैट का उपयोग मै कम ही करता हूँ किन्तु आज से दो वर्ष पूर्व त्रिपुरा के त्रिपुरा निवासी एक सज्जन से मेरी मित्रता हुई और हम तब से लगातार संपर्क मे थे, हाल मे 6 माह पूर्व कालका ट्रेन से कोलकाता से शिमला की ओर सपरिवार जा रहे थे उन्होंने कहा भाई अगर हो सकेगा तो मिलने की कोशिश होगी, और इसी के साथ उनसे तथा उनके परिवार से मिलना हुआ। यह तक इंटरनेट की दुनिया के किसी इंसान के साथ मिलना आज तक सुखद ही रहा किन्तु होली के 2 दिन पूर्व याहू के एक मित्र ने मुझे सुचित किया कि मै इलाहाबाद आ रहा हूँ, इलाहाबाद घूमना चाहता हूँ, मैने भी कहा कि आओ अगर मेरे पास समय होगा तो जरूर घुमा दूंगा। मै उसे पिछले 2 माह से संपर्क में था, अपना नाम मणि भूषण पांडेय बताया था, मैने पूछा कि यह तुम्हारा वास्तविक नाम है तो उसने हाँ मे उत्तर दिया। इन दो माहो मे काफी घनिष्ठता भी आ गई थी, दोस्ती भी ऐसी चीज होती है जो एक दूसरे को नजदीक ले ही आती है। मै कभी भी सच्चाई छुपाने की कोशिश नहीं करता हूँ, कम से कम जिनसे मिला जा सकता है उनसे तो कभी नही।
वो लड़का इलाहाबाद जंक्शन पर मुझे मिलता है, एक दिन पूर्व ही मैंने इलाहाबाद से कोलकाता तक की शाम की रिजर्वेशन टिकट मैंने ले रखा था, मेरे पास इलाहाबाद घूमने के लिये 6-8 घंटे थे, मै अपने घर मे बता दिया था कि मै अमुक दोस्त को इलाहाबाद घूमने के लिए ले जा रहा हूँ। उसके बैग में लॉक नहीं था सो उसे हम लॉकर रूम मे नही रख सकते थे, मैंने उसके बैग को अपने एक दोस्त के घर रखवा दिया और संगम की ओर निकल दिये। उसने मुझे पहले ही बता दिया था कि वह स्नान नहीं करेगा इसलिये मै घर से ही स्नान करने निकला था ताकि मंदिर आदि में दर्शन कर सकूं, वह इलाहाबाद के सभी प्रमुख देव स्थानों पर गया किंतु कहीं दर्शन नहीं किया।
करीब 12 बज चुके थे, अब हमारे बीच विभिन्न मुद्दो पर चर्चा भी हो चुकी थी, तभी किसी बात पर धर्म की बात भी शुरू हुई। तो उसके मुंह से यह शब्द सुनकर कि मै मुसलमान हूँ और मेरा नाम जहांगीर खान है, मै हतप्रभ हुआ। यह सुनना बहुत ही कठिन था क्योंकि जिसे मै दो माह से अच्छी तरह से जान रहा हूँ वो मुझे ऐसी बात बताये तो हतप्रभ होना स्वाभाविक भी था। मैंने उसे बहुत डांटा, मन था कि दो चार ठो रसीद भी दूँ किन्तु अतिथि समझ कर मै उसके साथ कोई भी दुराभाव नही करना चाहता था। मुझे दुख इस बात का था कि उसने मिलने तक झूठ का सहारा लेता रहा, जब आप किसी से मिल रहे हो तो निश्चित रूप से आपको अपनी वास्तविक स्थिति के साथ मिलना चाहिये।
मै बहुत ही ज्यादा परेशान था क्योंकि उस यह एक बात मुझे झकझोर के रख दी। वो 5 मिनट से हिन्दू से मुसलमान बन सकता था तो उसके आतंकी होने सम्भावना भी हो सकती थी। मैने जिस घर में विश्वास के साथ उसका समान रखवाया था, अगर उसके समान में कुछ भी हो सकता था। मैंने कभी किसी के विश्वास से खेलने की कोशिश नहीं किया। इस वाकये के बाद तो किसी भी इंटरनेट के बंदे से मिलने से डर लगता है, आज नाम कुछ हो और कुछ देर बाद बोले मै ओसामा हूँ। किसी के बारे में कुछ भी अनुमान लगा लेना उचित नहीं है। अब जिससे भी मिला बहुत अच्छा व्यवहार मिला किन्तु इस प्रकार की घटना मन में संशय उत्पन्न कर जाती है।
ऐसा ही दिल्ली में एक मित्र है जिन्होंने 2007 आर्कुट पर एक लड़की के साथ शादी की किन्तु वह शादी बहुत दिनों तक नहीं चल सका और वह विवाह तलाक में पणित हो गया। इस प्रकार की घटनाएं एक तरफ तो अविश्वास पैदा करती है और एक बार भी अविश्वास सभी के प्रति अविश्वास की धारणा बना देती है और 1-2 वर्ष पूर्व मुम्बई में कौशांबी हत्या कांड भी इंटरनेट और याहू आर्कुट की ही देन रही है।
मै तो अब स्वयं सावधानी रखेंगे आप भी रखे क्योंकि दुनिया में अच्छे लोग है तो बुरे भी बहुत ज्यादा है, दोस्ती यारी में समझदारी भी आवश्यक है।
Share:
महाशक्ति को अब बंद कर दिया जाये ?
पिछले 13 दिनों में मेरे ब्लाग पर निम्न स्थिति रही थी, पिछले 2 दिनों में काफी कमी आयी। मुझे प्रतीत हुआ कि यह मेरी नहीं बल्कि यह सभी जगह की समस्या थी।
यदि यह सिर्फ मेरे पास दिक्कत है तो मै इसे ठीक करने का प्रयास करूँगा यदि स्थायी समस्या है तो फिर पाठक न आये तो लिखने से क्या फायदा और सही समय है कि महाशक्ति को अब बंद कर दिया जाये ?
आज बज पर भरपूर बज-बजाने का मौका मिला और इसकी त्वरित उपयोगिता समझ में आई
Share:
सम्भूति एवं असम्भूति : सम्बन्ध या द्वंद्व
(ईशावास्योपनिषद मे विद्या और अविद्या के साथ-साथ सम्भूति एवं असम्भूति पर काफी विस्तृत चर्चा की जा सकती है। मैं अपना सम्भूति एवं असम्भूति की विषय समस्या पर अपना (विद्यार्थी) दृष्टिकोण रख रहा हूँ।)
सम्भूति कार्य प्रकृति और असम्भूति कारण स्वरूप प्रकृति को कहते हैं। असम्भूति अर्थात अव्यक्त प्रकृति के उपासक घोर अंधकार मे प्रवेश करते है तथा जो सम्भूति अर्थात हिरण्यगर्भ नामक कार्य ब्रम्ह की उपासना करते है वह उनसे भी अधिक घोर अंधकार मे प्रवेश करते है। कार्यो की बीज रूप अव्यक्त प्रकृति का सूचक है असम्भूति पद और कार्य ब्रह्म हिरण्यगर्भ के लिये प्रस्तुत है सम्भूति पद। विद्या तथा विद्यापद के समान ही सम्भूति तथा असम्भूति शब्द भी एक दूसरे के विपरीत रूप मे मंत्र मे प्रयुक्त है। ईशावास्योपनिषद का यह मंत्र यह कहता है कि जो उस सम्भूति अर्थात अव्यक्त प्रकृति की वन्दना मे रत है, जो दृश्य मान विकृति अर्थात जगत के मूल कारण प्रकृति मे लीन है, वे अंधकार मे प्रवेश करते है अव्यक्त प्रकृति का सरलतम उदाहरण है इन्द्रियां। जिन पुरुषों की इन्द्रियां बर्हिमुखी है प्रकृति के उपासक अंधकार मे मूर्च्छालीन रहते है। इन्द्रियो की साधना के लिये चित्त की विवेक शून्यता अनिवार्य है, विवेकशून्यता की यह स्थिति ही अंधकार की उपलक्षिका है। जो पुरूष आत्मा के रहस्य को नही जानते है फलेच्छा के अवशिष्ट रहने से संसार मे अनासक्त भी नही है, अवाश्यकतानुसार स्पृहाभाव से कर्तव्य का निर्वाह कर रहे है, उनके चित्त की ब्रह्म मे सुस्थिरताके लिये सूक्ष्म एवं स्थूल प्रकृति की उपासना को हेय कहा गया है।
सम्भूति अर्थात हिरण्यगर्भ कार्य ब्रह्म की उपासना अणिमादि अष्ट सिद्धियों की अलौकिक सामर्थ्य प्रदान कर अहंकार की उत्पत्ति करती है अहंकार की भूख अनन्त होती है जो कभी समाप्त नहीं होती है। इस अहंकार की इच्छा पूर्ति के लिये व्यक्ति महान्धकार मे उतर जाता चला जाता है। इन्द्रियों पर संयम कर लेने वाला व्यक्ति भी अहंकार की सूक्ष्म उपासना में लिप्त रहता है। अहंकार स्वनिर्मित होता है उनसे मुक्त होना अत्यंत कठिन है, इन्द्रियां प्रकृति प्रदत्त होती है अपेक्षाकृत सरलता से मुक्ति दे देती है इन्द्रियों की उपासना को कम करने का अर्थ है कि इन्द्रियां न्यूनतम आवश्यकता पर ठहर जाये और अहंकार की उपासना को कम करने का तात्पर्य है कि अहंकार शून्य आ जाए। जो न अहंकार की उपासना करता है और न ही इन्द्रियों कि वह प्रकाश में प्रवेश करता है अर्थात वह आत्मा के सन्निकट हो जाता है।
निष्काम कर्म तथा आसक्ति सक पराङ्मुख जो जन केवल सम्भूति सम्भव होना अर्थात उत्पत्ति को ही प्राथमिकता देते है, जीवन की अनिवार्यताओं से अधिक अनिवार्यताओं से अधिक के अर्जन में ही सुख मानते है, जिनकी मानसिक भूख सदा अतृप्त रहती है, गर्व के कारण जो दुर्लभ मानव जीवन का मूल्य न समझ कर अभिमान वश उसे व्यर्थ कर देतें है, हृदय में श्रद्धा और संयम का अभाव होने के कारण वे लोक सेवा और शास्त्र ज्ञान दोनों से संपृक्त रहते हैं, वे मिथ्याभिमानी जन विनाश शील देवताओं की उपासना करने वाले की अपेक्षा अधिक घोर अंधकार में प्रवेश करते है।
असंभूति (असंभव) अर्थात विनाश शील शरीर को प्रधान देने वाले जन मृत्यु से भी भयभीत रहते है। इस लोक और परलोक की भोग सामाग्रियों में आसक्त रहकर योगक्षेम में व्यस्त रहते है इच्छा की प्रबलता से भोगो की प्राप्ति के लिए देवतादि अधिकारियों की प्रशन्नता मनाते हैा पूर्ति के अभाव मे शोक करते है, और कार्य पद्धति में परिवर्तन न करके भाग्य को दोष देते है। वे मूढ ब्यथ्क्ति अशंम्भूति अर्थात विनाश शीलत्व को प्राप्त् होते रहते है। वे अविनाशत्व के महत्व को न समझते हुये मरण मे आसन्न रहते है वे शरीर की मृत्यु पर आत्मा की मृत्यु को समझने लगते है।
कुछ भाष्यकारों के मत में असम्भूति पद वैयक्तिक का पोषक है तथा सम्भूति पद समष्टि वाद का। इसमें एक तो वैयक्तिक स्वतंत्रता की घोषणा करता है तो दूसरा संघ शक्ति की, सबके कल्याण की। व्यष्टि कल्याण मे ही समष्टि सुख की सिद्धि है व्यष्टि से ही समष्टि का प्रवेश द्वार खुलता है। समाज की सुख शान्ति वैयक्तिक अभ्युदय का कारण बनती है और व्यक्तिगत संतुष्टि सामूहिकता को बन्धुत्व भाव को सबल करती है आत्मसंतोष और प्राणि मात्र के हित की भावना से सम्पूरित समाज मोक्ष का वास्तविक प्रतिरूप बन जाता है। सत्य तो यह है कि उपनिषद को न तो मात्र ज्ञान इष्ट है और न केवल कर्म। ज्ञान और कर्म का संतुलित प्रयोक्ता पुरुष अमृतत्व का भागी होता है। न केवल जन्म का प्राधान्य है न मृत्यु का ये जीवन के दो महत्वपूर्ण छोर है दोनो के प्रति समन्वय दृष्टि सदा अपेक्षित है। न केवल व्यष्टि वाद समाज का हित साध सकता है न समष्टि वाद, आपसी सहायता से एक सुखी स्वस्थ मानव समाज की कल्पना आकार लेती है। जीवन के रहस्य को ग्रहण करने वाला अमृत का अधिकारी होता है।
सम्भूति अर्थात कार्यब्रह्म की उपासना से प्राप्त होने वाला अणिमादि ऐश्वर्य रूप पृथक ही फल का व्याख्यान किया गया है तथा असम्भूति अर्थात अव्यक्त प्रकृति की उपासना से अन्य ही फल बताया गया है। जिसे अन्धतम: प्रविशन्ति आदि वाक्य से कहा गया है तथा पौराणिक जन जिसे प्रकृतिलय कहते है ऐसा हमने धीरो अर्थात बुद्धिमानो का वचन सुना है जिन्होंने हमने धीरो अर्थात बुद्धिमानो का वचन सुना है जिन्होंने हमसे उन व्यक्त और अव्यक्त अपासनाओ का फल व्याख्यान किया था।
जो पुरूष असम्भूति और विनाश इन दोनो की उपासना के समुच्च को जानता है वह जिनके कार्य का धर्म विनाश है दस धर्मी के साथ धर्म के अभेद सम्बन्ध से उसे विनाश कहा गया उस विनाश की उपासना से अधर्म तथा कामना आदि दोषो से उत्पन्न हुये अनैश्वर्यरूप मृत्यु को प्राप्त करके हिरण्यगर्भ की उपासना से अणिमादि ऐश्वर्य की प्राप्ति का फल ही मिलता है, अत: उससे अनैश्वर्य आदि मृत्यु को पार करके असंभूति अव्यक्त की उपासना से अमृत को प्राप्त कर लेता है।
‘सम्भूतिं च विनाशं च’ इस पद स्वरूप प्रकृतिलयरूप फल को बताने बाली श्रुति के अनुरोध से अवर्ण के लोभ पूर्वक निदेष को समझना चाहिये अर्थात असम्भूति को ही सम्भूति कहा गया है।
Share:
ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह
Share:
चर्च बना ''चकलाघर''- ईसाई पादरी ने युवती से किया बलात्कार
Share:
साबरमती के संत तूने सच मे कर दिया कमाल..
भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई 1857 और उससे भी पहले छोटी मोटे तौर पर लड़ी जा रही थी, शहीद मंगल पांडेय, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई और अनगिनत ऐसे लोगों ने अपने जान की परवाह न करते हुये भारत माता को आजाद करने के लिये हर सम्भव प्रहार किया। गांधी जी के भारत आने के बाद की परिस्थिति दूसरी थी, गांधी जी 1915 में भारत आये और 1916 से विभिन्न आंदोलनों में भाग लिया। आज हम अपने बच्चों तो जो पढ़ा रहे हे कि हमें आजादी बिना खड्ग और ढाल के मिली है इससे तो यही सिद्ध करना चाहते है कि गांधी से पहले स्वतंत्रता के नाम पर सिर्फ मजाक हो रहा था? और गांधी जी के आने के बाद यथावत स्वतंत्रता की लड़ाई बिना खड्ग और ढाल के लड़ी गई ?
जो सम्मान गांधी का हो रहा है उसी प्रकार का सम्मान हर स्वतंत्रता सेनानी के साथ होना चाहिये। अगर इतिहासकारों की माने तो गांधी युग न होता तो 20 साल पहले भारत आजाद हो चुका होता और भारत विभाजन की नौबत ही नहीं आती। गांधी जी का यह गुणगान सिर्फ गांधी वादियो को ही सुहा सकता है, उन्हें ही इसे गाना चाहिये। अगर देश की आत्मा के साथ यह गान बहुत बड़ा मजाक है। यह गाना तो सीधे सीधे यही कह रहा है कि गांधी बाबा एक तरफ और सारे शहीद क्रान्तिकारी एक तरफ और तब पर भी गांधी भारी ? क्या यही सही है ?
Share:
स्वामी विवेकानंद का चिंतन : बौद्धिक विकास एवं बौद्धिक ज्ञान (जन्मदिन पर)
स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, देशप्रेम और विश्व बंधुत्व की जीवंत प्रतिमा थे, जिन्होंने विश्व में गहन आध्यात्मिकता और मानव मूल्यों के भारतीय दर्शन की स्थापना की। युवा नरेन्द्र अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस की उस रहस्यमयी ऊर्जा के समन्वय थे, जाे भारतीय ऋषियों ने युगों से विश्व विरासत की उदात्त भावना के परिपेक्ष्य में अपने शिष्यों को विरासत में दी है। ऊर्जा और अध्यात्म धमर् और समाज संस्कृति और समन्वय का ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में ही नहीं मिलता जो स्वामी जी के विराट व्यक्तित्व में समाहित रहा है।स्वामी विवेकानंद ने मात्र 38 वर्ष की आयु में विश्व भ्रमण कर 11 सितम्बर 1893 के Parliament of Religions में शिकागो में उद्बोधन दिया, वह हमेशा विश्व इतिहास की धरोहर रहेगा, जिसमें उन्होंने My American brothers and sisters सम्बोधन से प्रारंभ कर अपनी और भारतीय संस्कृति की महान परंपरा को प्रमाणित रूप से विश्व के सामने रखकर वास्तव में धर्म के प्रति विश्व चेतना को झकझोर कर धर्म के वास्तविक मूल्यों की स्थापित किया। यह उद्बोधन गरीबी, शोषण, गुलामी और अज्ञान की जंजीरों में जकड़े तत्कालीन भारत की उस असीम ऊर्जा का एक अंश था, जिसमें मानवीय मूल्यों, आदर्शों और समन्वय की उदात्त भारतीय परम्परा को पहली बार सारगर्भित रूप में विश्व के समक्ष प्रस्तुत किया। स्वामी जी की अल्प आयु में इस विराट विद्वत्ता को देख कर सारा विशेष, विशेष कर पश्चिम का तथाकथित अभिजात्य वर्ग हतप्रभ रहा है।
स्वामी विवेकानंद का दर्शन भारत को उसके पुरातन मूल्यों से अवगत करा कर विश्व गुरु के रूप में स्थापित करने का अतुलनीय प्रयास था। उन्होंने अनेक देशों में भ्रमण कर अपने जीवन दर्शन, धर्म, अध्यात्म के ज्ञान से पश्चिम के विचारों को और विद्वानों के बीच उपेक्षित और निम्नतर समझे जाने वाले भारत की कीर्ति ध्वजा विश्व भर में स्थापित की। पूरे भारत का भ्रमण कर उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, अज्ञान, अशिक्षा, नारी उत्पीड़न, परतंत्रता जैसे समकालिक विषयों पर अपनी ओजस्वी वाणी से जनमानस में नई चेतना और ऊर्जा का संचार किया, जिसकी परिणिति आगे भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भी देखने को मिलती है। कविवर रवीन्द्र ने प्रसिद्ध फ्रेंच उपन्यासकार रमण राॅलेन से कहा था "If you went to know India study Vivekanand" स्वामी के विराट व्यक्तित्व को नमन करता यह वक्तत्व विश्व की दो महान विभूतियों का उनके प्रति असीम सम्मान का
परिचालक है। उनकी अलौकिक वाक्शक्ति ने उन्हें एक प्रभावशाली वक्ता, कवि, लेखक और चिंतक के रूप में स्थापित किया। ‘‘बर्तमान भारत‘‘ उनका प्रसिद्ध बंगाली निबंध 1899 में उद्बोधन नामक बंगाली पत्रिका में प्रकाशित हुआ तथा उनके निबंधों का संग्रह 1905 में पुस्तक के रूप में संग्रहित है। अपने जीवनकाल में उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की जिसके आधार पर हम कह सकते है कि एक कमंडल, दो वस्त्र एक मृगछाल धारण करने वाला युवा संन्यासी विश्व को इतनी सम्पत्ति दे गया है, जिससे युगों युगों तक भावी पीढ़ियां आलोकित होती रहेगी। अक्टूबर 1892 में पहली बार पूना में लोकमान्य तिलक की स्वामी जी से भेंट हुई जो इतने प्रभावित हुए कि उन्हें 10 दिनों तक अपने घर ले गये।
स्वामी विवेकानंद का उद्भव 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में उस समय हुआ जब भारत में हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही प्रमुख समुदाय अंग्रेजों के सामने झुक चुके थे। ब्रिटिश राज एक औपनिवेशिक राज्य था जिसका उद्देश्य भारत का शोषण तथा भारतीयों को अंग्रेजी शिक्षा तथा पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगना था। उस समय भारतीय समाज में शिक्षा की दशा बहुत खराब थी। राधा मुखर्जी के अनुसार ‘‘भारत में शिक्षा की व्यवस्था मात्र शिक्षा प्रचार के लिए नहीं बल्कि धर्म के एक अंग के रूप में की गई थी। हिन्दू समाज सुधार तथा राष्ट्र निर्माण के लिए विवेकानंद शिक्षा के प्रचार को आवश्यक मानते थे, शिक्षा के संबंध में उनकी धारणाएं बड़ी वैज्ञानिक थी। उनके अनुसार वेदान्त दर्शन मानता है कि प्रत्येक बालक में ‘‘असीम ज्ञान और विकास की सम्भावना होती है। परन्तु उसे इन शक्तियों का पता नहीं होता है, केवल शिक्षा द्वारा उसे उसकी प्रतीति कराई जा सकती है और उसके विकास में सहायता की जा सकती है। वे कहते थे कि राष्ट्र को ऐसे मनुष्यों की आवश्यकता है जो अपने उद्देश्य की पूर्ति करने हेतु समुद्र तल की तह में जाने तथा साक्षात मृत्यु का भी सामना करने में सक्षम हो। उनके अनुसार हम मनुष्य बनाने वाला धर्म ही चाहते हैं तथा सभी क्षेत्रों में समाज एवं राष्ट्र का निर्माण सम्भव होगा। मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही चाहते है। विवेकानंद यह मानते कि ‘‘धर्म शिक्षा का मेरूदण्ड है।’’ लेकिन यह धर्म वह है जो ‘‘सर्वधर्मसम्मत’’ हो।
विवेकानंद ने वेदान्त दर्शन में शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहाः- ‘‘शिक्षा द्वारा मनुष्य का निर्माण किया जाता है । समस्त अध्ययनों का अन्तिम लक्ष्य मनुष्य का विकास करना है ताकि मनुष्य की संकल्पशक्ति का प्रवाह संगठित होकर प्रभावोत्पादक बन सके।’’ उन्होंने शिक्षा के द्वारा जिस ‘‘सर्वांगीण विकास’’ के लक्ष्य की ओर संकेत किया था वह शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिसका प्रयोजन ‘मानव निर्माण’ ‘चरित्र निर्माण’ और जीवन निर्माण हो। उनका कहना था कि हमें उन विचारों को अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है जो जीवन निर्माण तथा चरित्र निर्माण में सहायक हो। उनके अनुसार ‘‘यदि तुम केवल पांच परखे हुए विचार आत्मसात कर उसके अनुसार अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर लेते हो तो तुम एक पूरे ग्रन्थ को कंठस्थ करने वाले की अपेक्षा अधिक शिक्षित हो।’’ विवेकानंद अपनी बात के पक्ष में शंकराचार्य को उद्धृत करते है जिसके अनुसार हर व्यक्ति ‘‘अनन्त ज्ञान से युक्त है।’’ परन्तु अविद्या एवं अज्ञान के कारण वह इस ‘‘अनंत ज्ञान, दिव्य दृष्टि एवं अनन्त शक्ति’’ को पहचान नहीं पाता तथा अपने को अज्ञानी, सीमित दृष्टि वाला तथा निर्बल पाता है। शिक्षा ही मनुष्य को ‘‘सच्चे ज्ञान’’ की ओर प्रेरित करती है।
विवेकानन्द तथ्यात्मक ज्ञान अथवा सूचना को शिक्षा नहीं मानते थे। उन्होंने एक स्थान पर कहा :- ‘‘विदेशी भाषा में दूसरे के विचारों को रटकर अपने मस्तिष्क में उन्हें ठूंस कर और विश्वविद्यालय की कुछ पदवियां प्राप्त कर तुम अपने को शिक्षित समझते हो, क्या यही शिक्षा है। इन विचारों से स्पष्ट है कि वे पाश्चात्य प्रणाली से संतुष्ट नहीं थे लेकिन उनका अभिप्राय यह भी नहीं था कि वे आधुनिक शिक्षा के पूर्णतः खिलाफ थे बल्कि वे ऐसी शिक्षा चाहते थे, जिसमें व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो। उन्होंने शारीरिक शिक्षा के साथ-साथ संपूर्ण बौद्धिक विकास पर भी बल दिया। उनका मानना था कि ‘‘बुद्धि से ही ज्ञान और ज्ञान से भक्ति तथा योग संभव है।’’ बौद्धिक विकास एवम् बौद्धिक ज्ञान के लिए गणित, विज्ञान, धर्मशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र तथा तकनीकी आदि सभी विषयों का अध्ययन करना चाहिए क्योंकि इनके ज्ञान से देश को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। वे कहते थे कि राष्ट्र को ऐसे मनुष्यों की आवश्यकता है जो अपने उद्देश्य की पूर्ति करने हेतू समुद्र तल की तह में जाने तथा साक्षात मृत्यु का भी सामना करने में सक्षम हो। उनके अनुसार हम मनुष्य बनाने वाला धर्म ही चाहते है तथा सभी क्षेत्रों में समाज एवं राष्ट्र का निर्माण सम्भव होगा। मनुष्य बनाने वाली शिक्षा ही चाहते है। विवेकानंद यह मानते कि ‘‘धर्म शिक्षा का मेरूदण्ड है।’’ लेकिन यह धर्म वह है जो ‘‘सर्व धर्म सम्मत’’ हो। उनका मानना था कि धर्म आधारित शिक्षा से ही उन्होंने शिक्षित एवं प्रबुद्धजनों के उपनिषदों को ‘आदर्श ग्रंथ’ घोषित किया। उन्होंने कहा ‘‘उपनिषदों के सत्य’’ तुम्हारे सामने है, उन्हें अपनाओं और उनकी उपलब्धि कर उन्हें कार्य रूप में परिणति करो। लेकिन विवेकानंद कोरी बौद्धिक शिक्षा के भी पक्षधर नहीं थे। वे कहते थे कि पाश्चात्य सभ्यता की बुराइयों में एक बुराई यह भी है कि वहां ‘‘हृदय की परवाह न करते हुए केवल बौद्धिक शिक्षा ही दी जाती थी।’’ लेकिन ऐसी शिक्षा मनुष्य को ‘‘दस गुणा अधिक स्वार्थो’’ बना देती है। उनके शब्दों में जब हृदय तथा मस्तिष्क में द्वन्द्व उपस्थित हो, उस समय हृदय का ही अनुसरण करना चाहिए। हृदय ही हमें उस उच्चतम राज्य में ले जाता है जहां बुद्धि कभी नहीं पहुंच सकती है। उसे अन्तः प्रेरणा कहते हैं। अतः सदैव हृदय का ही संस्कार करो। हृदय में ही ईश्वर बोला करता है। विवेकानंद का कहना था कि ‘‘अपने चरित्र का निर्माण करो और अपने प्रकृति स्वरूप को उसी ज्योतिर्मय, उज्जवल, नित्य शुद्ध स्वरूप को प्रकाशित करो तथा प्रत्येक में उसी आत्मा को जगाओ। उन्होंने यूरोप में अनेक नगरों की यात्रा की ओर देखा की वहां गरीबों की सुविधा व सुख के लिए शिक्षा का प्रबंध करने की कोशिश की जाती थी, उसे देखकर उनके मन में अपने देश के गरीबों की दुर्दशा का दृश्य आ जाता था और उनकी आंखों से आंसू झलकने लगते थे। उनको गरीबों के उत्थान की बहुत चिंता थी। देश की शिक्षा व्यवस्था में विवेकानंद प्रादेशिक भाषाओं के साथ-साथ संस्कृत भाषा की शिक्षा देने के पक्ष में भी थे। उनके अनुसार ‘‘संस्कृत में पठित होने से ही भारत में सम्मान होगा तुम्हारे विरुद्ध कोई कुछ कहने का साहस नही करेगा, अतः इसे पढ़ो और जानो। इसके साथ-साथ वे अंग्रेजी शिक्षा के भी उतने ही पक्ष में थे क्योंकि वे जानते थे कि इसके द्वारा ही वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्रों में विदेशों में हुए अनुसंधान को जाना जा सकता है। विवेकानन्द शिक्षा व्यवस्था में ‘राष्ट्रीय भावना’ को भी स्थान देने के पक्ष में थे । वे कहते थे -‘‘गर्व से कहो कि मैं भारतवासी हूं हर भारतवासी मेरा भाई है। तुम यह चिल्लाकर कहो कि ज्ञानी-अज्ञानी भारतवासी सभी मेरे भाई है। तुम पुकारते हुए यह कहो कि भारतवासी मेरे प्राण है, भारत के देवी-देवता मेरे ईश्वर है। भारत का समाज मेरे बाल्यकाल का झूला, यौवन की फुलवारी तथा बुढ़ापे की काशी है। भाई कहो कि भारत की मिट्टी मेरा स्वर्ग है।’’
स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा को नए समाज तथा राष्ट्र के निर्माण हेतु काफी महत्वपूर्ण माना। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य भारत के लिए ‘‘श्रेष्ठ मनुष्यों का निर्माण है।’’उन्होंने अपने मिशनरियों को अपनी तमाम शिक्षण संस्थाओं में उसी प्रकार की शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर प्रयास किया। सन् 1893 को शिकागो, अमेरिका में सर्वधर्म सम्मेलन में गये, उन्होंने अमेरिका, इंग्लैंड जैसे पाश्चात्य देशों में वैदिक सांस्कृतिक दिग्विजय कर भारत लौटे। यहां आकर उन्होंने 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और 4 जुलाई 1902 को यह युवा ऊर्जा उसी विश्व पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ कर परम तत्व में लीन हो गई और दे गई विश्व को ऐसी अमर धरोहर जो युगों युगों तक विश्व को केवल मार्गदर्शन करती रहेगी। ऐसे व्यक्तित्व सार्वभौमिक सर्वकालिक और कालजयी है, जो ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम‘‘ की उदात्त भावना से मानव मात्र के कल्याण के लिए अवतरित होते हैं। उनका निर्वाण भी एक अलौकिक घटना थी, जब 9 जुलाई 1902 की सुबह 9.10 बजे पर उन्होंने देह त्याग कर ध्यान में रहते हुए ‘‘महा समाधि‘‘ में प्रवेश किया।
- प्रेरक प्रसंग - एक वेश्या ने स्वामी विवेकानंद को कराया संन्यासी एहसास
- स्वामी विवेकानन्द की एक आकंक्षा
- स्वामी विवेकानंद के अनमोल वचन
- स्वामी विवेकानंद का चिंतन : बौद्धिक विकास एवम् बौद्धिक ज्ञान
- स्वामी विवेकानंद जयंती (राष्ट्रीय युवा दिवस) पर एक प्रेरक प्रसंग
- स्वामी विवेकानंद की परीक्षा
- निबंध एवं जीवनी स्वामी विवेकानंद
Share:
भारतीय संसद - राष्ट्रपति, राज्यसभा और लोकसभा
Share:
कुत्ते का 'रेप करने वाले' को नहीं मिली जमानत (वयस्क पोस्ट)
एक सज्जन कहते है कि - यह कोई नयी बात नहीं है,, मेरे कुछ हरियाणा के दोस्त बताते है कि नयी उमर में मादा डंकी के साथ सेक्स करने पर पिंपल्स नहीं निकलते , इसलिए यह हरियाणा में काफ़ी प्रचलित है अब पता नही कि कितना सही है वैसे मैने सुना है कि शेर के साथ सेक्स करने के एड्स और हाथी के साथ कैंसर भी ठीक हो जाता है, कोई रोगी हो और किसी मे इनसे सेक्स करने बूता हो सच्चाई का पता चले। :)
खैर आप उस खबर को पढ़ये और आनंद लीजिए और शर्म आये तो मन ही मन अथवा खुल कल हँस लीजिए!
यह रही नवभारत टाइम्स की खबर
यह अपने आप में अनोखा होने के साथ-साथ भारतीय कानून-कायदे के इतिहास में इस तरह का शायद पहला मामला है। कुत्ते का बलात्कार करने के आरोप में 30 अगस्त से जेल में बंद मुंबई के टैक्सी ड्राइवर की जमानत याचिका सेशन कोर्ट ने खारिज हो गई है। आरोपी ड्राइवर का तर्क है कि उसे बेल दे दी जानी चाहिए क्योंकि पुलिस पीड़ित का बयान रेकॉर्ड नहीं कर सकी है।
एक महिला द्वारा अपने पालतू कुत्ते से बलात्कार की शिकायत दर्ज कराए जाने के बाद मुंबई पुलिस ने काफी पसोपेश के बाद ताड़देव से आरोपी टैक्स ड्राइव महेश कामत को गिरफ्तार कर लिया था। कुत्ते का मेडिकल कराने के बाद पुलिस ने पुलिस ने कामत के खिलाफ धारा-377 ( अप्राकृतिक सेक्स का मामला) और जानवरों के खिलाफ क्रूरता रोकने के कानून के तहत मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी।
इस मामले लगभग पिछले एक महीने से जेल में बंद कामत का तर्क है कि उन पर जानवरों के खिलाफ क्रूरता का मामला नहीं बनता है क्योंकि जिस कुत्ते के बलात्कार का आरोप है वह पालतू नहीं है। कामत का यह भी कहना है कि पूरे मामले में उन्हें गलत तरीके से फंसाया गया है।
कोर्ट ने कामत की याचिका को खारिज करते हुए कहा कि उसके खिलाफ काफी सबूत हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि कामत के ऊपर जिस अपराध का आरोप है वह इलाके के लोगों को व्यथिक करने वाला है और यह जानवरों के खिलाफ क्रूरता भी है।
इस मामले में सबूत के तौर पर पुलिस के पास कुत्ते की मेडिकल रिपोर्ट और कुत्ते की मालकिन होने का दावा करने वाली एकमात्र गवाह का बयान है। इस मामले में पीड़ित का बयान दर्ज करना पुलिस के लिए टेढ़ी खीर है। पुलिस और कानून विशेषज्ञों का मानना है कि केवल सबूतों के आधार पर मामला चलाने का यह शायद पहला उदाहरण होगा। इसलिए पुलिस ने इस मामले में कामत को कोर्ट में घेरने के लिए डीएनए और फॉरेन्सिक सबूत भी जुटाए हैं।
वैसे इस पोस्ट मे कुछ भी वयस्क श्रेणी वाला तत्व नही है किन्तु ब्लाग जगत मे भुकुटी तानने वालो की कमी नही है, सो चेतावनी दे दे रहा हूँ। :)
Share: