आदित्यस्य नमस्कारं ये कुर्वन्ति दिने दिने।
जन्मान्तरसहस्रेषु दारिद्र्यं नोपजायते ।।
अर्थ : जो लोग सूर्य को प्रतिदिन नमस्कार करते हैं, उन्हें सहस्रों जन्म दरिद्रता प्राप्त नहीं होती।सूर्य-नमस्कार को सर्वांग व्यायाम भी कहा जाता है, समस्त यौगिक क्रियाओं की भाँति सूर्य-नमस्कार के लिये भी प्रातः काल सूर्योदय का समय सर्वोत्तम माना गया है। सूर्य नमस्कार सदैव मंत्र के साथ खुली हवादार जगह पर कम्बल का आसन बिछा खाली पेट अभ्यास करना चाहिये।इससे मन शांत और प्रसन्न हो तो ही योग का सम्पूर्ण प्रभाव मिलता है।
सूर्य नमस्कार पद्धति में आवश्यक नियम एवं सावधानियां
- 5 प्रकार के नियमों ( शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान ) का पालन करना चाहिए।
- 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे सूर्य नमस्कार नहीं करें।
- अधिक उच्च रक्तचाप, हृदय रोग तथा ज्वर की अवस्था में सूर्य नमस्कार नहीं करना चाहिए।
- व्यवस्थित दिनचर्या, मिथ्या आहार-विहार का सेवन नहीं करना चाहिए।
- अष्टांग योग में वर्णित 5 प्रकार के यम ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह ) का पालन करना चाहिए।
- खुले स्थान पर शुद्ध सात्विक, निर्मल स्थान पर, प्राकृतिक वातावरण में (शुद्ध जलवायु) सूर्य नमस्कार करना चाहिए।
- चाय, कॉफी, तम्बाकू, शराबादि, मादक द्रव्य एवं मांसाहारी तथा तामसिक आहार सेवन नहीं करना चाहिए।
- जहां तक संभव हो सूर्य नमस्कार प्रातःकाल 6-7 बजे के बीच करना चाहिए।
- ज्वर, तीव्र रोग या ऑपरेशन के बाद 4-5 दिन तक सूर्य नमस्कार नहीं करना चाहिए।
- प्रदूषण स्थान पर सूर्य नमस्कार नहीं करना चाहिए।
- प्रातः शौच के पश्चात् स्नानोपरान्त सूर्य नमस्कार करना चाहिये।
- भोजन सात्विक, हल्का-सुपाच्य करना चाहिए।
- सूर्य नमस्कार के समय ढी़ले कपड़े पहनने चाहिए।
- सूर्य नमस्कार के समय मन चंचल नहीं हो, उसे एकाग्र करना चाहिए।
- सूर्य नमस्कार के समय शरीर पर पुरूष लंगोट, जांघिया अथवा ढ़ीले वस्त्र पहनकर करना चाहिए।
- सूर्य नमस्कार खाली पेट प्रातः एवं सायं करना चाहिए।
- सूर्य नमस्कार निश्चित समय पर, नियमित रूप से, भूखे पेट ही करना चाहिए।
- सूर्य नमस्कार पद्धति में स्थान, काल, परिधान, आयु संबंधी आवश्यक नियमों का वर्णन किया जा रहा है।
- सूर्य नमस्कार प्रतिदिन नियमपूर्वक मंत्रोच्चारण सहित करना चाहिए।
- सूर्य नमस्कार में श्वास हमेशा नासिका से ही लेना चाहिए।
- सूर्य नमस्कार विद्युत का कुचालक चटाई, कम्बल या दरी पर करना चाहिए।
- सूर्य नमस्कार सदैव सूर्य की ओर मुँह करके करना चाहिए।
- स्त्रियों में मासिक धर्म में 6 दिन तक, 4 माह का गर्भ होने पर व्यायाम बंद करें एवं प्रसव के 4 माह बाद पुनः शुरू कर सकते हैं।
सूर्य नमस्कार तेरह बार करना चाहिए और प्रत्येक बार सूर्य मंत्र के उच्चारण से विशेष लाभ होता है, वे सूर्य मंत्र निम्न है- 1. ॐ मित्राय नमः, 2. ॐ रवये नमः, 3. ॐ सूर्याय नमः, 4.ॐ भानवे नमः, 5.ॐ खगाय नमः, 6. ॐ पूष्णे नमः,7. ॐ हिरण्यगर्भाय नमः, 8. ॐ मरीचये नमः, 9. ॐ आदित्याय नमः, 10.ॐ सवित्रे नमः, 11. ॐ अर्काय नमः, 12. ॐ भास्कराय नमः, 13. ॐ सवितृ सूर्यनारायणाय नमः
- ॐ मित्राय नमः ( सबके मित्र को प्रणाम ) -नमस्कारासन ( प्रणामासन) स्थिति में समस्त जीवन के स्त्रोत को नमन किया जाता है। सूर्य समस्त ब्रह्माण्ड का मित्र है, क्योंकि इससे पृथ्वी समेत सभी ग्रहों के अस्तित्व के लिए आवश्यक असीम प्रकाश, ताप तथा ऊर्जा प्राप्त होती है। पौराणिक ग्रंथों में मित्र कर्मों के प्रेरक, धरा-आकाश के पोषक तथा निष्पक्ष व्यक्ति के रूप में चित्रित किया है। प्रातः कालीन सूर्य भी दिवस के कार्यकलापों को प्रारम्भ करने का आह्वान करता है तथा सभी जीव-जन्तुओं को अपना प्रकाश प्रदान करता है।
- ॐ रवये नमः ( प्रकाशवान को प्रणाम ) - “रवये“ का तात्पर्य है जो स्वयं प्रकाशवान है तथा सम्पूर्ण जीवधारियों को दिव्य आशीष प्रदान करता है। तृतीय स्थिति हस्तउत्तानासन में इन्हीं दिव्य आशीषों को ग्रहण करने के उद्देश्य से शरीर को प्रकाश के स्रोत की ओर ताना जाता है।
- ॐ सूर्याय नमः ( क्रियाओं के प्रेरक को प्रणाम ) -यहाँ सूर्य को ईश्वर के रूप में अत्यंत सक्रिय माना गया है। प्राचीन वैदिक ग्रंथों में सात घोड़ों के जुते रथ पर सवार होकर सूर्य के आकाश गमन की कल्पना की गई है। ये सात घोड़े परम चेतना से निकलने वाल सप्त किरणों के प्रतीक है। जिनका प्रकटीकरण चेतना के सात स्तरों में होता है - भू (भौतिक), - भुवः (मध्यवर्ती, सूक्ष्म ( नक्षत्रीय), स्वः ( सूक्ष्म, आकाशीय), मः ( देव आवास), जनः (उन दिव्य आत्माओं का आवास जो अहं से मुक्त है), तपः (आत्मज्ञान, प्राप्त सिद्धों का आवास) और सप्तम् (परम सत्य)। सूर्य स्वयं सर्वोच्च चेतना का प्रतीक है तथा चेतना के सभी सात स्वरों को नियंत्रित करता है। देवताओं में सूर्य का स्थान महत्वपूर्ण है। वेदों में वर्णित सूर्य देवता का आवास आकाश में है उसका प्रतिनिधित्त्व करने वाली अग्नि का आवास भूमि पर है।
- ॐ भानवे नमः ( प्रदीप्त होने वाले को प्रणाम ) -सूर्य भौतिक स्तर पर गुरू का प्रतीक है। इसका सूक्ष्म तात्पर्य है कि गुरू हमारी भ्रांतियों के अंधकार को दूर करता है - उसी प्रकार जैसे प्रातः वेला में रात्रि का अंधकार दूर हो जाता है। अश्व संचालनासन की स्थिति में हम उस प्रकाश की ओर मुँह करके अपने अज्ञान रूपी अंधकार की समाप्ति हेतु प्रार्थना करते हैं।
- ॐ खगाय नमः ( आकाशगामी को प्रणाम ) -समय का ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्राचीन काल से सूर्य यंत्रों (डायलों ) के प्रयोग से लेकर वर्तमान कालीन जटिल यंत्रों के प्रयोग तक के लंबे काल में समय का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आकाश में सूर्य की गति को ही आधार माना गया है। हम इस शक्ति के प्रति सम्मान प्रकट करते हैं जो समय का ज्ञान प्रदान करती है तथा उससे जीवन को उन्नत बनाने की प्रार्थना करते हैं।
- ॐ पूष्णे नमः ( पोषक को प्रणाम ) -सूर्य सभी शक्तियों का स्त्रोत है। एक पिता की भाँति वह हमें शक्ति, प्रकाश तथा जीवन देकर हमारा पोषण करता है। साष्टांग नमस्कार की स्थिति में हमें शरीर के सभी आठ केंद्रों को भूमि से स्पर्श करते हुए उस पालनहार को अष्टांग प्रणाम करते हैं। तत्त्वतः हम उसे अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को समर्पित करते है तथा आशा करते हैं कि वह हमें शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करें।
- ॐ हिरण्यगर्भाय नमः (स्वर्णिम विश्वात्मा को प्रणाम) हिरण्यगर्भ, स्वर्ण के अंडे के समान सूर्य की तरह देदीप्यमान, ऐसी संरचना है जिससे सृष्टिकर्ता ब्रह्म की उत्पत्ति हुई है। हिरण्यगर्भ प्रत्येक कार्य का परम कारण है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड, प्रकटीकरण के पूर्व अन्तर्निहित अवस्था में हिरण्यगर्भ के अन्दर निहित रहता है। इसी प्रकार समस्त जीवन सूर्य (जो महत् विश्व सिद्धांत का प्रतिनिधित्व करता है ) में अन्तर्निहित है। भुजंगासन में हम सूर्य के प्रति सम्मान प्रकट करते है तथा यह प्रार्थना करते है कि हममें रचनात्मकता का उदय हो।
- ॐ मरीचये नमः ( सूर्य रश्मियों को प्रणाम ) -मरीच ब्रह्मपुत्रों में से एक है। परन्तु इसका अर्थ मृग मरीचिका भी होता है। हम जीवन भर सत्य की खोज में उसी प्रकार भटकते रहते हैं जिस प्रकार एक प्यासा व्यक्ति मरूस्थल में ( सूर्य रश्मियों से निर्मित ) मरीचिकाओं के जाल में फँसकर जल के लिए मूर्ख की भाँति इधर-उधर दौड़ता रहता है। पर्वतासन की स्थिति में हम सच्चे ज्ञान तथा विवके को प्राप्त करने के लिए नतमस्तक होकर प्रार्थना करते हैं जिससे हम सत् अथवा असत् के अन्तर को समझ सकें।
- ॐ आदित्याय नमः ( अदिति-सुत को प्रणाम) -विश्व जननी ( महाशक्ति ) के अनंत नामों में एक नाम अदिति भी है। वहीं समस्त देवों की जननी, अनंत तथा सीमारहित है। वह आदि रचनात्मक शक्ति है जिससे सभी शक्तियाँ निःसृत हुई हैं। अश्व संचालनासन में हम उस अनन्त विश्व-जननी को प्रणाम करते हैं।
- ॐ सवित्रे नमः ( सूर्य की उद्दीपन शक्ति को प्रणाम ) -सवित्र उद्दीपक अथवा जागृत करने वाला देव है। इसका संबंध सूर्य देव से स्थापित किया जाता है। सावित्र उगते सूर्य का प्रतिनिधि है जो मनुष्य को जागृत करता है और क्रियाशील बनाता है। “सूर्य“ पूर्ण रूप से उदित सूरज का प्रतिनिधित्व करता है। जिसके प्रकाश में सारे कार्य कलाप होते है। सूर्य नमस्कार की हस्तपादासन स्थिति में सूर्य की जीवनदायिनी शक्ति की प्राप्ति हेतु सवित्र को प्रणाम किया जाता है।
- ॐ अर्काय नमः ( प्रशंसनीय को प्रणाम ) -अर्क का तात्पर्य है - ऊर्जा। सूर्य विश्व की शक्तियों का प्रमुख स्त्रोत है। हस्तउत्तानासन में हम जीवन तथा ऊर्जा के इस स्त्रोत के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते है।
- ॐ भास्कराय नमः ( आत्मज्ञान-प्रेरक को प्रणाम ) -सूर्य नमस्कार की अंतिम स्थिति प्रणामासन (नमस्कारासन) में अनुभवातीत तथा आध्यात्मिक सत्यों के महान प्रकाशक के रूप में सूर्य को अपनी श्रद्धा समर्पित की जाती है। सूर्य हमारे चरम लक्ष्य-जीवन मुक्ति के मार्ग को प्रकाशित करता है। प्रणामासन में हम यह प्रार्थना करते हैं कि वह हमें यह मार्ग दिखाएं। इस प्रकार सूर्य नमस्कार पद्धति में बारह मंत्रों का अर्थ सहित भावों का समावेश किया जा रहा है।
- ॐ सवितृ सूर्यनारायणाय नमः
सूर्य नमस्कार कैसे करे (How to do Surya Namaskar)
सूर्य नमस्कार को उनके विभिन्न स्थितियों के माध्यम से समझ और जान सकते है
- प्रथम स्थिति- स्थित प्रार्थनासन -सूर्य-नमस्कार की प्रथम स्थिति स्थितप्रार्थनासन की है।सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाएं।अब दोनों हथेलियों को परस्पर जोड़कर प्रणाम की मुद्रा में हृदय पर रख लें।दोनों हाथों की उँगलियाँ परस्पर सटी हों और अँगूठा छाती से चिपका हुआ हो। इस स्थिति में आपकी केहुनियाँ सामने की और बाहर निकल आएँगी।अब आँखें बन्द कर दोनों हथेलियों का पारस्परिक दबाव बढ़ाएं । श्वास-प्रक्रिया निर्बाध चलने दें।
- द्वितीय स्थिति - हस्तोत्तानासन या अर्धचन्द्रासन -प्रथम स्थिति में जुड़ी हुई हथेलियों को खोलते हुए ऊपर की ओर तानें तथा सांस भरते हुए कमर को पीछे की ओर मोडें।गर्दन तथा रीढ़ की हड्डियों पर पडने वाले तनाव को महसूस करें।अपनी क्षमता के अनुसार ही पीछे झुकें और यथासाध्य ही कुम्भक करते हुए झुके रहें।
- तृतीय स्थिति - हस्तपादासन या पादहस्तासन -दूसरी स्थिति से सीधे होते हुए रेचक (निःश्वास) करें तथा उसी प्रवाह में सामने की ऒर झुकते चले जाएँ । दोनों हथेलियों को दोनों पँजों के पास जमीन पर जमा दें। घुटने सीधे रखें तथा मस्तक को घुटनों से चिपका दें यथाशक्ति बाह्य-कुम्भक करें। नव प्रशिक्षु धीरे-धीरे इस अभ्यास को करें और प्रारम्भ में केवल हथेलियों को जमीन से स्पर्श कराने की ही कोशिश करें।
- चतुर्थ स्थिति- एकपादप्रसारणासन -तीसरी स्थिति से भूमि पर दोनों हथेलियां जमाये हुए अपना दायाँ पाँव पीछे की ओर फेंके। इस प्रयास में आपका बायां पाँव आपकी छाती के नीचे घुटनों से मुड़ जाएगा,जिसे अपनी छाती से दबाते हुए गर्दन पीछे की ओर मोड़कर ऊपर आसमान की ओर देखें।दायाँ घुटना जमीन पर सटा हुआ तथा पँजा अंगुलियों पर खड़ा होगा। ध्यान रखें, हथेलियां जमीन से उठने न पायें।श्वास-प्रक्रिया सामान्य रूप से चलती रहे।
- पंचम स्थिति- भूधरासन या दण्डासन -एकपादप्रसारणासन की दशा से अपने बाएँ पैर को भी पीछे ले जाएँ और दाएँ पैर के साथ मिला लें ।हाथों को कंधों तक सीधा रखें । इस स्थिति में आपका शरीर भूमि पर त्रिभुज बनाता है , जिसमें आपके हाथ लम्बवत् और शरीर कर्णवत् होते हैं।पूरा भार हथेलियों और पँजों पर होता है। श्वास-प्रक्रिया सामान्य रहनी चाहिये अथवा कोहनियों को मोड़ कर पूरे शरीर को भूमि पर समानांतर रखना चाहिए। यह दण्डासन है।
- षष्ठ स्थिति - साष्टांग प्रणिपात -पंचम अवस्था यानी भूधरासन से साँस छोड़ते हुए अपने शरीर को शनैः शनैः नीचे झुकायें। केहुनियाँ मुड़कर बगलों में चिपक जाना चाहिए। दोनों पंजे, घुटने, छाती, हथेलियाँ तथा ठोढी जमीन पर एवं कमर तथा नितम्ब ऊपर उठा होना चाहिये । इस समय 'ॐ पूष्णे नमः ' इस मंत्र का जप करना चाहिये । कुछ योगी मस्तक को भी भूमि पर टिका देने को कहते हैं।
- सप्तम स्थिति - सर्पासन या भुजङ्गासन -छठी स्थिति में थोड़ा सा परिवर्तन करते हुए नाभि से नीचे के भाग को भूमि पर लिटा कर तान दें। अब हाथों को सीधा करते हुए नाभि से ऊपरी हिस्से को ऊपर उठाएं। श्वास भरते हुए सामने देखें या गर्दन पीछे मोड कर ऊपर आसमान की ओर देखने की चेष्टा करें । ध्यान रखें, आपके हाथ पूरी तरह सीधे हो या यदि कोहनी से मुडे हो तो केहुनियाँ आपकी बगलों से चिपकी हों।
- अष्टम स्थिति- पर्वतासन -सप्तम स्थिति से अपनी कमर और पीठ को ऊपर उठाइए, दोनों पँजों और हथेलियों पर पूरा वजन डालकर नितम्बों को पर्वतशृङ्ग की भाँति ऊपर उठा दें तथा गर्दन को नीचे झुकाते हुए अपनी नाभि को देखें।
- नवम स्थिति - एकपादप्रसारणासन (चतुर्थ स्थिति) -आठवीं स्थिति से निकलते हुए अपना दायां पैर दोनों हाथों के बीच दाहिनी हथेली के पास लाकर जमा दें। कमर को नीचे दबाते हुए गर्दन पीछे की ओर मोड़कर आसमान की ओर देखें ।बायाँ घुटना जमीन पर टिका होगा।
- दशम स्थिति – हस्तपादासन -नवम स्थिति के बाद अपने बाएं पैर को भी आगे दाहिने पैर के पास ले आए । हथेलियां जमीन पर टिकी रहने दें । साँस बाहर निकालकर अपने मस्तक को घुटनों से सटा दें । ध्यान रखें, घुटने मुडें नहीं, भले ही आपका मस्तक उन्हें स्पर्श न करता हो।
- एकादश स्थिति - ( हस्तोत्तानासन या अर्धचन्द्रासन ) -दशम स्थिति से श्वास भरते हुए सीधे खड़े हों। दोनों हाथों की खुली हथेलियों को सिर के ऊपर ले जाते हुए पीछे की ओर तान दें ।यथा सम्भव कमर को भी पीछे की ओर मोडें।
ग्यारहवीं स्थिति से हाथों को आगे लाते हुए सीधे हो जाएँ । दोनों हाथों को नमस्कार की मुद्रा में वक्षस्थल पर जोड़ लें । सभी उँगलियाँ परस्पर जुड़ी हुई तथा अँगूठा छाती से सटा हुआ । कोहनियों को बाहर की तरफ निकालते हुए दोनों हथेलियों पर पारस्परिक दबाव दें।
सूर्य नमस्कार के लाभ Benefits of Sun Salutation (Surya Namaskar)
"आदित्यस्य नमस्कारान् ये कुर्वन्ति दिने दिने ।
आयुः प्रज्ञा बलं वीर्यं तेजस्तेषां च जायते।।
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
सूर्यपादोदकं तीर्थं जठरे धारयाम्यहम्।।"
अर्थात् जो प्रतिदिन सूर्य नमस्कार करते हैं उनकी आयु, बुद्धि, बल, वीर्य एवं तेज (ओज) बढ़ता है। अकाल मृत्यु नहीं होती है तथा सभी प्रकार की व्याधियों का नाश होता है। सूर्य नमस्कार एक सम्पूर्ण व्यायाम है।सूर्य नमस्कार के 51 लाभ
- आँखों की रोशनी बढ़ती है।
- आत्मविश्वास में वृद्धि, व्यक्तित्व विकास में सहायक है।
- इसका नियमित अभ्यास करने वाले व्यक्ति को हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप, मधुमेह, गठिया, कब्ज जैसी समस्याओं के होने की आशंका बेहद कम हो जाती है।
- इसके अभ्यास से रक्त संचालन तीव्र होता है तथा चयापचय की गति बढ़ जाती है, जिससे शरीर के सभी अंग सशक्त तथा क्रियाशील होते हैं।
- इसके अभ्यास से शरीर की लोच शक्ति में आश्चर्यजनक वृद्धि होती है। प्रौढ़ तथा बूढे़ लोग भी इसका नियमित अभ्यास करते हैं तो उनके शरीर की लोच बच्चों जैसी हो जाती है।
- इसके नियमित अभ्यास से मोटापे को दूर किया जा सकता है और इससे दूर रहा भी जा सकता है।
- कमर लचीली होती है और रीढ़ की हड्डी मजबूत होती है।
- कशेरुक व कमर लचीली बनती है।
- कार्य करने में कुशलता एवं रूचि बढ़ती है।
- क्रोध पर काबू रखने में मददगार होता है।
- गले के रोग मिटते है एवं स्वर अच्छा रहता है।
- चेहरा तेजस्वी, वाणी सुमधुर एवं ओजस्वी होती है।
- त्वचा रोग होने की संभावना समाप्त हो जाती है।
- धातुक्षीणता में लाभदायक है।
- नलिका विहीन ग्रंथियों की क्रियाशीलता सामान्य एवं संतुलित रहती है।
- पचनक्रिया में सुधार होता है।
- पाचन सम्बन्धी समस्याओं, अपच, कब्ज, बदहजमी, गैस, अफारे तथा भूख न लगने जैसी समस्याओं के समाधान में बहुत ही उपयोगी भूमिका निभाता है।
- पेट के पास की वसा (चर्बी) घट कर भार मात्रा (वजन) कम होती है जिससे मोटे लोगों के वजन को कम करने में यह बहुत ही मददगार होता है।
- पैरों एवं भुजाओं की मांसपेशियों को सशक्त करता है। सीने को विकसित करता है।
- फुफ्फुसों की कार्य क्षमता बढ़ती है।
- बालों को सफेद होने झड़ने व रूसी से बचाता है।
- बाहें व कमर के स्नायु बलवान हो जाते हैं।
- मधुमेह, मोटापा, थायराइड आदि रोगों में विशेष लाभदायक है।
- मन की एकाग्रता बढ़ती है।
- मानसिक तनाव, अवसाद, एंग्जायटी आदि के निदान के साथ क्रोध, चिड़चिड़ापन तथा भय का भी निवारण करता है।
- मानसिक शांति एवं बल, ओज एवं तेज की वृद्धि करता है।
- मोटी कमर को पतली एवं लचीली बनाता है।
- यह शरीर के सभी अंगों, मांसपेशियों व नसों को क्रियाशील करता है।
- रक्त परिभ्रमण सम्यक् होता है, जिससे मुँह की कांति एवं शोभा बढ़ती है।
- रक्त संचार की गति तेज होने से विजातीय तत्त्व शरीर से बाहर निकलते हैं।
- रज-वीर्य, दोषों को मिटाता है, महिलाओं में मासिक धर्म को नियमित करता है।
- रीढ़ की सभी वर्टिब्रा को लचीला, स्वस्थ एवं पुष्ट करता है।
- वात, पित्त तथा कफ को संतुलित करने में मदद करता है। त्रिदोष निवारण में मदद करता है।
- शरीर एवं मन दोनों स्वस्थ बनते हैं।
- शरीर की अतिरिक्त चर्बी को घटाता है।
- शरीर की अनावश्यक मेद (चर्बी) कम होती है।
- शरीर की सभी महत्वपूर्ण ग्रंथियों, जैसे पिट्यूटरी, थायराइड, पैराथायराइड, एड्रिनल, लिवर, पैंक्रियाज, ओवरी आदि ग्रंथियों के स्राव को संतुलित करने में मदद करता है।
- शरीर के सभी अंगों को पोषण प्राप्त होता है।
- शरीर के सभी संस्थान, रक्त संचरण, श्वसन, पाचन, उत्सर्जन, नाड़ी तथा ग्रंथियों को क्रियाशील एवं सशक्त करता है।
- शरीर में खून का प्रवाह तेज होता है जिससे ब्लड प्रेशर की बीमारी में आराम मिलता है।
- सभी महत्वपूर्ण अवयवों में रक्त संचार बढ़ता है।
- सामाजिक कार्यों में रूचि बढ़ती है, मनोऽवसाद दूर होकर उमंग एवं उत्साह बढ़ता है।
- सूर्य नमस्कार का असर दिमाग पर पड़ता है और दिमाग ठंडा रहता है।
- सूर्य नमस्कार शरीर के समस्त अंग-प्रत्यंग बलिष्ट एवं निरोग होते हैं।
- सूर्य नमस्कार से मेरुदण्ड एवं कमर लचीली बनती है। उदर, आंत्र, आमाशय, अग्नाशय, हृदय, फुफ्फुस सहित सम्पूर्ण शरीर को स्वस्थ बनाता है।
- सूर्य नमस्कार से विटामिन-डी मिलता है जिससे हड्डियां मजबूत होती हैं।
- स्मरण शक्ति तेज होती है।
- स्मरण शक्ति तथा आत्म शक्ति में वृद्धि करता है।
- हाथ-पैर-भुजा, जंघा-कंधा आदि सभी अंगों की मांसपेशियाँ पुष्ट एवं सुन्दर होती है।
- हृदय की मांसपेशियाँ एवं रक्त वाहिनियों स्वस्थ होती हैं।
- हृदय व फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है।
कैसा हो क्रम -सूर्य नमस्कार गतिशील आसन माना जाता है। इसका अभ्यास आसनों के अभ्यास के पूर्व करना चाहिए। इससे शरीर सक्रिय हो जाता है, नींद, आलस्य व थकान दूर हो जाती है।
सावधानी भी है जरूरी -क्षमता से अधिक चक्रों का अभ्यास या शरीर पर अनावश्यक ज़ोर डालने का प्रयास बिल्कुल न करें। रोग से ग्रसित लोग योग्य मार्गदर्शन में प्रयास करें।
एकाग्रता का ध्यान रखें -श्वास-प्रश्वास एवं शरीर के दबाव बिन्दु पर एकाग्रता बनाए रखें।
सीमाएं भी जानें
- इसका अभ्यास सभी आयु वर्ग के लोग अपनी क्षमता का ध्यान रखते हुए कर सकते हैं। पादहस्तासन का अभ्यास साइटिका, स्लिप डिस्क तथा स्पॉन्डिलाइटिस के रोगी कदापि न करें।
- फ्रोजन शोल्डर की समस्या से ग्रस्त लोग पर्वतासन, अष्टांग नमस्कार तथा भुजंगासन का अभ्यास न करें।
- महिलाएं मासिक धर्म एवं गर्भधारण के दिनों में इसका अभ्यास न करें।
- उच्च रक्तचाप तथा हृदय रोगी इसका अभ्यास योग्य मार्गदर्शन में करें।
- बच्चों को इसका अभ्यास उचित मार्गदर्शन में कराए ताकि कोई नुकसान न हो।
- इसके अभ्यास के लिए सुबह का समय चुनें ताकि खाली पेट कर पाए और अभ्यास करने के आधे घंटे बाद ही खाए।
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