भारत के अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान



जन्म:- भारत के अन्तिम प्रतापी हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान तृतीय, का जन्म गुजरात के अन्हिलवाड़ा नामक स्थान पर दिनांक 7 जून, 1166 ज्येष्ठ कृष्ण 12 वि. स. 1223 को हुआ था। उनके पिता का सोमेश्वर चौहान और माता का नाम कमला देवी कर्पूरी देवी तंवर था, जो कि अजमेर के सम्राट थे। कमला देवी की बड़ी बहिन सुर सुन्दरी, कनौज के राजा विजयपाल जयचन्द राठौड़ की पत्नी थी। पृथ्वीराज के जन्म के समय ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि पृथ्वीराज बड़े-बड़े राजाओं का घमण्ड चूर करेगा और कई राजाओं को जीतकर दिल्ली पति चक्रवर्ती सम्राट बनेगा।

पृथ्वीराज चौहान की फोटो
पृथ्वीराज चौहान की फोटो  
बाल्यकाल:- जब पृथ्वीराज 11 वर्ष के थे, तब उनके पिता सोमेश्वर का वि.स. 1234 में देहांत हो गया। इस प्रकार 14 वर्ष की आयु में इनका राजतिलक कर उन्हें राजगद्दी पर आसीन किया गया। पृथ्वीराज की आयु कम होने के कारण उनकी माता ने प्रधानमंत्री केमास की देखरेख में राज्य का कार्यभार संभाला और पुत्र को शिक्षित किया। पृथ्वीराज ने 25 वर्ष की आयु तक कुलगुरू आचार्य से 64 कलाओं, 14 विद्याओं और गणित, युद्ध-शास्त्र, तुरंग विद्या, चित्रकला, संगीत, इंद्रजाल, कविता, वाणिज्य, विनय तथा विविध देशो की भाषाओं का ज्ञात प्राप्त किया। पृथ्वीराज को शब्द-भेदी धनुर्विद्या उनके गुरू ने देकर आशीर्वाद दिया था कि ‘‘इस शब्द-भेदी बाण-विद्या से तुम विश्व में एक मात्र योद्धा कहलाओगे और धनुर्विद्या में कोई तुम्हारा मुकाबला नहीं कर पाएगा और तुम चक्रवर्ती सम्राट कहलाओगे।’’ इस प्रकार ज्योतिषियों की भविष्यवाणी के तदनुसारसार पृथ्वीराज ने अपने दरबार के 150 सामंतों के सहयोग से छोटी सी उम्र में दिग्विजय का बीड़ा उठाया और चारों दिशाओं के राजाओं पर विजय प्राप्त कर चक्रवर्ती सम्राट बन गया।
युवावस्था:- पृथ्वीराज को कविता में रूचि थी। उनके दरबार में कश्मीरी पंडित कवि जयानक, विद्यापति गौड़, वणीश्वर जर्नादन, विश्वरूप प्रणभनाथ और पृथ्वी भट्ट जिसे चंद्रबरदायी कहते थे, उच्च कोटि के कवि थे। पत्राचार और बोल-चाल की भाषा संस्कृत थी। उज्जैन और अजमेर के सरस्वती कण्ठ भरण विद्यापीठ से उत्तीर्ण छात्र प्रकाण्ड पण्डित माने जाते थे। पृथ्वीराज के नाना अनंगपाल तंवर दिल्ली के राजा थे, और उनके कोई संतान नहीं होने के कारण पृथ्वीराज को 1179 में दिल्ली की राजगद्दी मिली। अनंगपाल ने अपने दोहित्र पृथ्वीराज को शास्त्र सम्मत युक्ति के अनुसार उत्तराधिकारी बनाने हेतु अजमेर के प्रधानमंत्री कैमास को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने यह लिखा कि ‘‘मेरी पुत्री का पुत्र पृथ्वीराज 36 कुलों में श्रेष्ठ चौहान वंश का सिरमौर है। मैं वृद्धावस्था के कारण उसे उत्तरदायित्व देकर भगवत् स्मरण को जाना चाहता हॅूं, तद्नुसार व्यवस्था करावें।’’ इस प्रकार हेमन्त ऋतु के आरम्भ में वि.स. 1229 मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी गुरूवार को पृथ्वीराज का दिल्लीपति घोषित करते हुए राजतिलक किया गया। दिल्ली में पृथ्वीराज ने एक किले का निर्माण करवाया जो ‘‘राय पिथौरा किले’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

पृथ्वीराज चौहान के विवाह:-
प्रथम विवाह - पृथ्वीराज चौहान का प्रथम विवाह बाल्यकाल में ही नाहर राय प्रतिहार परमार की पुत्री से होना निश्चित हो गया था, परन्तु बाद में नाहर राय ने अपनी पुत्री का विवाह पृथ्वीराज के साथ करने से मना कर दिया। इस पर पृथ्वीराज ने संदेश भिजवाया कि यदि यह विवाह नहीं हुआ तो युद्ध होगा और क्षत्रिय परम्परानुसार हम कन्या का हरण करके विवाह करने को बाध्य होंगे। नाहर राय ने पृथ्वीराज की बात नहीं मानी और दोनों के बीच युद्ध हुआ जिसमें नाहर राय की पराजय हुई तथा पृथ्वीराज ने कन्या का हरण कर विवाह किया।
द्वितीय विवाह - पृथ्वीराज का दूसरा विवाह आबू के परमारों के यहां हुआ, राजकुमारी का नाम ‘‘इच्छानी’’ था। तृतीय विवाह -पृथ्वीराज का तीसरा विवाह चन्दपुण्डीर की पुत्री से हुआ।
चर्तुथ विवाह - पृथ्वीराज का चौथा विवाह दाहिमराज दायमा की पुत्री से हुआ और इसी रानी से पृथ्वीराज को रयणसीदेव पुत्ररत्न प्राप्त हुआ।
पंचम विवाह- पृथ्वीराज का पांचवा विवाह राजा पदमसेन यादव की पुत्री पदमावती से हुआ। पदमावती एक दिन बाग में विहार कर रही थी, तभी उसने वहाँ पर बैठे हुए एक शुक सुवा तोता को पकड़ लिया। वह सुवा पृथ्वीराज चौहान के राज्य का था और शास्त्रवेता होने के कारण उसकी वाणी पर राजकुमारी मुग्ध हो गई तथा वह शुक को अपने पास रखने लगी। उस शुक ने राजकुमारी को पृथ्वीराज चौहान की वीरता एवं शौर्य की कहानी सुनाई, जिसके कारण राजकुमारी पृथ्वीराज चौहान पर मोहित हो गई तथा उस शुक के साथ ही पृथ्वीराज को यह संदेश भिजवाया कि ‘‘आप कृष्ण की भांति रूकमणी जैसा हरण पर मेरे साथ पाणिग्रहण करो, मैं आपकी भार्या हॅू।’’ इस प्रकार पृथ्वीराज का पाचवा विवाह हुआ।
षष्ठम् विवाह- पृथ्वीराज चौहान का छठा विवाह देवगिरी के राजा तवनपाल यादव की पुत्री शशिवृता के साथ हुआ। तनवपाल यादव की रानी ने पृथ्वीराज के पास संदेश भिजवाया कि ‘‘हमारी पुत्री शशिवृता ने आपको परिरूप में वरण करने का निश्चिय किया है। उसकी सगाई कन्नोज के राज जयचन्द राठौड़ के भाई वीरचन्द के साथ हुई है, परन्तु कन्या उसे स्वीकार नहीं करती है, अस्तु आप आकर उसका युक्ति-बुद्धि से वरण करें।’’
सप्तम विवाह - पृथ्वीराज का सातवां विवाह सारंगपुर मालवाद्ध के राजा भीम परमार की पुत्री इन्द्रावती के साथ खड़ग विवाह हुआ। जब पृथ्वीराज विवाह हेतु सारंगपुर आ रहे थे, तब दूत से खबर मिली कि पाटण के राजा भोला सालंकी ने चित्तौड़ पर हमला कर दिया है। यह समाचार पाकर पृथ्वीराज ने अपनी सैन्य शक्ति के साथ चित्तौड़ की ओर प्रयाण किया और सामंतों से मंत्रणा विवाह हेतु अपना खड़ग आमेर के राजा पजवनराय कछवाहा के साथ सारंगपुर भिजवा दिया। निश्चित दिन राजकुमारी इन्द्रावती का पृथ्वीराज के खड़ग से विवाह की रस्म पूरी हुई।
अष्ठम विवाह- कांगड़ के युद्ध के पश्चात जालंधर नरेश रघुवंश प्रतिहार हमीर की पुत्री के साथ पृथ्वीराज का आठवां विवाह सम्पन्न हुआ।
नवम् विवाह:- पृथ्वीराज का नवां विवाह पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की कहानी के रूप में मशहूर है, कन्नोज के राजा जयचन्द राठौड़ की पुत्री संयोगिता थी । संयोगिता अपने मन में पृथ्वीराज को अपना पति मान चुकी थी और उसने पृथ्वीराज को स्वयंवर में आकर वरण करने का संदेश भिजवाया था। संयोगिता के विवाह हेतु राजा जयचन्द ने स्वयंवर का आयोजन किया था, जिसमें कई राजा-महाराजाओं को निमंत्रित किया गया, लेकिन पृथ्वीराज से मन-मुटाव नाराजगी के कारण उनको निमंत्रण नहीं भिजवाया गया और उपस्थिति के रूप में द्वारपाल के पास पृथ्वीराज की प्रतिमा लगवा दी। स्वयंवर में राजकवि क्रमानुसार उपस्थित राजाओं की विरूदावली बखानते हुए चल रहा था और संयोगिता भी आगे बढ़ती रही। इस प्रकार सभी राजाओं के सामने से गुजरने के बावजूद किसी भी राजा के गले में संयोगिता ने वरमाला पहनाकर अपना पति नहीं चुना और द्वारपाल के पास पृथ्वीराज की प्रतिमा के गले में वरमाला डालकर पृथ्वीराज को अपना पति चुन लिया। संयोगिता के इस कृत्य से जयचन्द बहुत क्रोधित हुआ और दूसरी वरमाला संयोगिता के हाथ में देकर पुनः सभी राजाओं की विरूदावलियों के बखान के साथ संयोगिता को स्वयंवर पाण्डाल में घुमाया गया फिर भी संयोगिता ने पृथ्वीराज के गल्ले में ही अपनी वरमाला पहनाकर अपना पति चुना। इस प्रकार यह क्रम तीसरी बार भी चलाया गया और उसका वही परिणाम हुआ। तभी पृथ्वीराज ने जो कि अपने अंगरक्षकों के साथ उसकी प्रतिमा के पास खड़ा था संयोगिता को उठाकर अपने घोड़े पर बिठा लिया और वहां से चल निकला। जयचन्द ने भी अपने सैनिक पृथ्वीराज संयोगिता के पीछे लगा दिए और बीच रास्ते में पृथ्वीराज और जयचन्द के सैनिकों के बीच युद्ध हुआ जिसमें पृथ्वीराज की विजय हुई और वह संयोगिता को लेकर दिल्ली पहुंच गया। बाद में जयचन्द ने कुल-पुरोहितों को यथोचित भेंट के साथ दिल्ली भिजवाकर पृथ्वीराज और संयोगिता का विधिवत विवाह करवाया और यह संयोगिता के लिए यह संदेश भिजवाया कि ‘‘हे प्यारी पुत्री तुझे वीर चौहान को समर्पित करते हुए दिल्ली नगर में अपनी प्रतिष्ठा दान में अर्पित करता हॅूं।’’

आल्हाखंड में राजकुमारी संयोगिता का अपहरण का वर्णन -

आगे आगे पृथ्वीराज हैं, पाछे चले कनौजीराय।
कबहुंक डोला जैयचंद छिने, कबहुंक पिरथी लेय छिनाय।
जौन शूर छीने डोला को, राखे पांच कोस पर जाय।
कोस पचासक डोला बढ़िगो, बहुतक क्षत्री गये नशाय।
लडत भिडत दोनो दल आवैं, पहुंचे सौरां के मैदान ।
राजा जयचंद नें ललकारो, सुनलो पृथ्वीराज चौहान।
डोला ले जई हौ चोरी से, तुम्हरो चोर कहे हे नाम।
डोला धरि देउ तुम खेतन में, जो जीते सो लय उठाय।
इतनी बात सुनि पिरथी नें , डोला धरो खेत मैदान।
हल्ला हवईगो दोनों दल में, तुरतै चलन लगी तलवार।
झुरमुट हवईग्यो दोनों दल को, कोता खानी चलै कटार।
कोइ कोइ मारे बन्दूकन से, कोइ कोइ देय सेल को घाव।
भाल छूटे नागदौनी के, कहुं कहुं कडाबीन की मारू।
जैयचंद बोले सब क्षत्रीन से, यारो सुन लो कान लगाय।
सदा तुरैया ना बन फुलै, यारों सदा ना सावन होय।
सदा न माना उर में जनि हे, यारों समय ना बारम्बार।
जैसे पात टूटी तरुवर से, गिरी के बहुरि ना लागै डार।
मानुष देही यहु दुर्लभ है, ताते करों सुयश को काम।
लडिकै सन्मुख जो मरिजैहों, ह्वै है जुगन जुगन लो नाम।
झुके सिपाही कनउज वाले, रण में कठिन करै तलवार।
अपन पराओ ना पहिचानै, जिनके मारऊ मारऊ रट लाग।
झुके शूरमा दिल्ली वाले, दोनों हाथ लिये हथियार।
खट खट खट खट तेग बोलै, बोले छपक छपक तलवार।
चले जुन्नबी औ गुजराती, उना चले विलायत वयार।
कठिन लडाई भई डोला पर, तहं बही चली रक्त की धार।
उंचे खाले कायर भागे, औ रण दुलहा चलै पराय।
शूर पैंतीसक पृथीराज के, कनउज बारे दिये गिराय।
एक लाख झुके जैचंद कें, दिल्ली बारे दिये गिराय।
ए॓सो समरा भयो सोरौं में, अंधाधु्ंध चली तलवार।
आठ कोस पर डोला पहुंचै, जीते जंग पिथोरा राय।


पृथ्वीराज चौहान व राजकुमारी संयोगिता का अमर-प्रेम
पृथ्वीराज चौहान व राजकुमारी संयोगिता का अमर-प्रेम

  
पृथ्वीराज की बहिन पृथा का विवाह:- अजमेर के राजा सोमेश्वर ने अपने पौत्र दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान और भाई कान्त चौहान की सम्पति से राजकुमारी पृथा का विवाह चित्तौड़गढ़ के रावल समर विक्रमसिंह गहलोत के साथ वैशाख मास की पंचमी रविवार को सम्पन्न किया।

पृथ्वीराज द्वारा निम्नलिखित युद्ध किये गए:-

प्रथम युद्ध:- पृथ्वीराज ने प्रथम युद्ध 1235 में अपने प्रधानमंत्री और माता के निर्देशन में चालुक्य भीम द्वारा नागौर पर हमला करने के कारण लड़ा और उसमें विजयी हुए।
दितीय युद्ध:- राज्य सिंहासन पर बैठते ही मात्र 14 वर्ष की आयु में पृथ्वीराज से गुड़गांव पर नागार्जुन ने अधिकार के लिये विद्रोह किया था, उसमें वि.स. 1237 में विजय प्राप्त की।
तृतीय युद्ध:- वि.स. 1239 में अलवर रेवाड़ी, भिवानी आदि क्षेत्रों में मदानकों ने विद्रोह किया, इस विद्रोह को दबाकर विजय प्राप्त की।
चर्तुथ युद्ध:- वि. स. 1239 में ही महोबा के चंदेलवंशी राजा परमार्दिदेव (परिमालद्ध पर आक्रमण कर उस युद्ध में विजय प्राप्त कर उसके राज्य को अपने अधीन किया।
पंचम युद्ध:- कर्नाटक के राजा वीरसेन यादव को जीतने के लिये पृथ्वीराज ने उस पर हमला करके उसे अपने अधीन कर लिया और दक्षिण के सभी राजा इस युद्ध के बाद उसके अधीन हो गए। सब राजाओं ने मिलकर इस विजय पर पृथ्वीराज को कई चीजें भेंट की।
षष्ठम् युद्ध:- पृथ्वीराज ने कांगड़ा नरेश भोटी भान को कहलवाया कि वह उसकी अधीनता स्वीकार कर लें, परन्तु भोटी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस कारण पृथ्वीराज ने कांगड़ा पर हमला किया, जिसमें भोटी भान मारा गया। भान के पश्चात उसका साथी वीर पल्हन जो शिशुपाल का वंशज था, एक लाख सवार और एक लाख पैदल सेना लेकर पृथ्वीराज से युद्ध करने आया। इस पर पृथ्वीराज ने मुकाबला करने के लिए जालंधर नरेश रघुवंश प्रतिहार हमीर को कांगड़ा राज्य का प्रशासन सौंपा। दोनों की संयुक्त सेनाओं ने वीर पल्हन को बन्दी बनाकर कांगड़ा में चौहान राज्य स्थापित किया। बाद में पृथ्वीराज ने हमीर को ही कांगड़ा का राजा बना दिया, जिसने पहले ही पृथ्वीराज की अधीनता स्वीकार कर रखी थी। हमीर ने अपनी कन्या का विवाह पृथ्वीराज से कर पारीवारिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये।
पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच शत्रुता एवं युद्ध:-
मोहम्मद गौरी की चित्ररेखा नामक एक दरबारी गायिका रूपवान एवं सुन्दर स्त्री थी। वह संगीत एवं गान विद्या में निपुण, वीणा वादक, मधुर भाषिणी और बत्तीस गुण लक्षण बहुत सुन्दर नारी थी। शाहबुदीन गौरी का एक कुटुम्बी भाई था ‘‘मीर हुसैन’’ वह शब्दभेदी बाण चलाने वाला, वचनों का पक्का और संगीत का प्रेमी तथा तलवार का धनी था। चित्ररेखा गौरी को बहुत प्रिय थी, किन्तु वह मीर हुसैन को अपना दिल दे चुकी थी और हुसैन भी उस पर मंत्र-मुग्ध था। इस कारण गौरी और हुसैन में अनबन हो गई। गौरी ने हुसैन को कहलवाया कि ‘‘चित्ररेखा तेरे लिये काल स्वरूप है, यदि तुम इससे अलग नहीं रहे तो इसके परिणाम भुगतने होंगें।’’ इसका हुसैन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ और वह अनवरत चित्ररेखा से मिलता रहा। इस पर गौरी क्रोधित हुआ और हुसैन को कहलवाया कि वह अपनी जीवन चाहता है तो यह देश छोड़ कर चला जाए, अन्यथा उसे मार दिया जाएगा। इस बात पर हुसैन ने अपी स्त्री, पुत्र आदि एवं चित्ररेखा के साथ अफगानिस्तान को त्यागकर पृथ्वीराज की शरण ली, उस समय पृथ्वीराज नागौर में थे। शरणागत का हाथ पकड़कर सहारा और सुरक्षा देकर पृथ्वी पर धर्म-ध्वजा फहराना हर क्षत्रिय का धर्म होता है। इधर मोहम्मद गौरी ने अपने शिपह-सालार आरिफ खां को मीर हुसैन को मनाकर वापस स्वदेश लाने के लिए भेजा, किन्तु हुसैन ने आरिफ को स्वदेश लौटने से मना कर दिया। इस प्रकार पृथ्वीराज द्वारा मीर हुसैन को शरण दिये जाने के कारण मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज के बीच दुश्मनी हो गई।
पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच 18 बार युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को 17 बार परास्त किया। जब-जब भी मोहम्मद गौरी परास्त होता, उससे पृथ्वीराज द्वारा दण्ड-स्वरूप हाथी, घोड़े लेकर छोड़ दिया जाता । मोहम्मद गौरी द्वारा 15वीं बार किये गए हमले में पृथ्वीराज की ओर से पजवनराय कछवाहा लड़े थे तथा उनकी विजय हुई। गौरी ने दण्ड स्वरूप 1000 घोड़ और 15 हाथी देकर अपनी जान बचाई। कैदखाने में पृथ्वीराज ने गौरी को कहा कि ‘‘आप बादशाह कहलाते हैं और बार-बार प्रोढ़ा की भांति मान-मर्दन करवाकर घर लौटते हो। आपने कुरान शरीफ और करीम के कर्म को भी छोड़ दिया है, किन्तु हम अपने क्षात्र धर्म के अनुसार प्रतिज्ञा का पालन करने को प्रतिबद्ध हैं। आपने कछवाहों के सामने रणक्षेत्र में मुंह मोड़कर नीचा देखा है।’’ इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान ने उदारवादी विचारधारा का परिचय देते हुए गौरी को 17 बार क्षमादान दिया। चंद्रवरदाई कवि पृथ्वीराज के यश का बखान करते हुए कहते हैं कि ‘‘हिन्दु धर्म और उसकी परम्परा कितनी उदार है।’’
18वीं बार मोहम्मद गौरी ने और अधिक सैन्य बल के साथ पृथ्वीराज चौहान के राज्य पर हमला किया, तब पृथ्वीराज ने संयोगिता से विवाह किया ही था, इसलिए अधिकतर समय वे संयोगिता के साथ महलों में ही गुजारते थे। उस समय पृथ्वीराज को गौरी की अधिक सशक्त सैन्य शक्ति का अंदाज नहीं था, उन्होंने सोचा पहले कितने ही युद्धों में गौरी को मुंह की खानी पड़ी है, इसलिए इस बार भी उनकी सेना गौरी से मुकाबला कर विजयश्री हासिल कर लेगी। परन्तु गौरी की अपार सैन्य शक्ति एवं पृथ्वीराज की अदूरदर्शिता के कारण गौरी की सेना ने पृथ्वीराज के अधिकतर सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और कई सैनिकों को जख्मी कर दिल्ली महल पर अपना कब्जा जमा कर पृथ्वीराज को बंदी बना दिया। गौरी द्वारा पृथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले जाया गया और उनके साथ घोर अभद्रतापूर्ण व्यवहार किया गया। गौरी ने यातनास्वरूप पृथ्वीराज की आँखे निकलवा ली और ढ़ाई मन वजनी लोहे की बेड़ियों में जकड़कर एक घायल शेर की भांति कैद में डलवा दिया। इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली में मुस्लिम शासन की स्थापना हुई और हजारों क्षत्राणियों ने पृथ्वीराज की रानियों के साथ अपनी मान-मर्यादा की रक्षा हेतु चितारोहण कर अपने प्राण त्याग दिये।
इधर पृथ्वीराज का राजकवि चन्दबरदाई पृथ्वीराज से मिलने के लिए काबुल पहुंचा। वहां पर कैद खाने में पृथ्वीराज की दयनीय हालत देखकर चंद्रवरदाई के हृदय को गहरा आघात लगा और उसने गौरी से बदला लेने की योजना बनाई। चंद्रवरदाई ने गौरी को बताया कि हमारे राजा एक प्रतापी सम्राट हैं और इन्हें शब्दभेदी बाण (आवाज की दिशा में लक्ष्य को भेदनाद्ध चलाने में पारंगत हैं, यदि आप चाहें तो इनके शब्दभेदी बाण से लोहे के सात तवे बेधने का प्रदर्शन आप स्वयं भी देख सकते हैं। इस पर गौरी तैयार हो गया और उसके राज्य में सभी प्रमुख ओहदेदारों को इस कार्यक्रम को देखने हेतु आमंत्रित किया। पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पहले ही इस पूरे कार्यक्रम की गुप्त मंत्रणा कर ली थी कि उन्हें क्या करना है। निश्चित तिथि को दरबार लगा और गौरी एक ऊंचे स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ बैठ गया। चंद्रवरदाई के निर्देशानुसार लोहे के सात बड़े-बड़े तवे निश्चित दिशा और दूरी पर लगवाए गए। चूँकि पृथ्वीराज की आँखे निकाल दी गई थी और वे अंधे थे, अतः उनको कैद एवं बेड़ियों से आजाद कर बैठने के निश्चित स्थान पर लाया गया और उनके हाथों में धनुष बाण थमाया गया। इसके बाद चंद्रवरदाई ने पृथ्वीराज के वीर गाथाओं का गुणगान करते हुए बिरूदावली गाई तथा गौरी के बैठने के स्थान को इस प्रकार चिन्हित कर पृथ्वीराज को अवगत करवाया:-
‘‘चार बांस, चैबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण, ता ऊपर सुल्तान है, चूके मत चौहान।।’’
अर्थात् चार बांस, चैबीस गज और आठ अंगुल जितनी दूरी के ऊपर सुल्तान बैठा है, इसलिए चौहान चूकना नहीं, अपने लक्ष्य को हासिल करो।
इस संदेश से पृथ्वीराज को गौरी की वास्तविक स्थिति का आंकलन हो गया। तब चंद्रवरदाई ने गौरी से कहा कि पृथ्वीराज आपके बंदी हैं, इसलिए आप इन्हें आदेश दें, तब ही यह आपकी आज्ञा प्राप्त कर अपने शब्द भेदी बाण का प्रदर्शन करेंगे। इस पर ज्यों ही गौरी ने पृथ्वीराज को प्रदर्शन की आज्ञा का आदेश दिया, पृथ्वीराज को गौरी की दिशा मालूम हो गई और उन्होंने तुरन्त बिना एक पल की भी देरी किये अपने एक ही बाण से गौरी को मार गिराया। गौरी उपर्युक्त कथित ऊंचाई से नीचे गिरा और उसके प्राण पंखेरू उड़ गए। चारों और भगदड़ और हा-हाकार मच गया, इस बीच पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई ने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार एक-दूसरे को कटार मार कर अपने प्राण त्याग दिये। आज भी पृथ्वीराज चौहान और चंद्रवरदाई की अस्थियां एक समाधी के रूप में काबुल में विद्यमान हैं। इस प्रकार भारत के अन्तिम हिन्दू प्रतापी सम्राट का 1192 में अन्त हो गया और हिन्दुस्तान में मुस्लिम साम्राज्य की नींव पड़ी। चंद्रवरदाई और पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला हुआ था कि अलग नहीं किया जा सकता। इस प्रकार चंद बरदाई की सहायता से से पृथ्वीराज के द्वारा गोरी का वध कर दिया गया। अपने महान राजा पृथ्वीराज चौहान के सम्मान में रचित पृथ्वीराज रासो हिंदी भाषा का पहला प्रामाणिक काव्य माना जाता है। अंततोगत्वा पृथ्वीराज चौहान एक पराजित विजेता कहा जाना अतिशयोक्ति न होगा।

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सफलता की सीढ़ी है- दृढ़ संकल्प



एक कक्षा में ऐसा विद्यार्थी था, जो मासिक परीक्षा में मुश्किल से उत्तीर्ण होता था। वार्षिक परीक्षा में जब उसे सर्वप्रथम स्थान मिला, तब लोग आश्चर्य चकित रह गए कि इतना अयोग्य विद्यार्थी प्रथम कैसे आया? जरूर इसने नकल की होगी।
इस प्रकरण की छान-बीन करने के लिए कालेज ने एक जांच समिति नियुक्त की। समिति द्वारा उस विद्यार्थी की मौखिक परीक्षा में भी उसने बहुत अच्छे अंक प्राप्त किए थे। अब पूरे कालेज में उसकी ही चर्चा थी। एक मित्र के पूछने पर अपनी गौरवपूर्ण सफलता का रहस्य बताते हुए उस विद्यार्थी ने कहा- ‘‘मैंने संकल्प कर लिया था कि मैं वार्षिक परीक्षा में अवश्य सर्वप्रथम स्थान प्राप्त करूंगा। मैंने जी लगाकर मेहनत की, कठिनाइयों से निराश नहीं हुआ और मनोयोग पूर्वक अपने अध्ययन में जुटा रहा। मेरी सफलता मेरे दृढ़ संकल्प का ही परिणाम है।’’
वास्तव में सच्चाई यही है निरन्तर प्रयत्न और परिश्रम जिनका मूल मंत्र होता है, उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं होता, यदि हम जीवन में अपना लक्ष्य प्राप्त करना चाहते है, अपनी मंजिल पाना चाहते हैं तो संकल्पशील होना आवश्यक है।


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हनुमान जयंती पर विशेष : राम काज करिबे को आतुर



हनुमान जयंती पर विशेष : राम काज करिबे को आतुर

एक बार भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न तीनों भाइयों ने माता सीता जी से मिलकर विचार किया कि हनुमान जी हमें राम जी की सेवा करने का मौका ही नहीं देते, पूरी सेवा अकेले ही किया करते हैं। अतः अब रामजी की सेवा का पूरा काम हम ही करेंगे, हनुमान जी के लिये कोई भी काम नहीं छोड़ेंगे। ऐसा विचार करके उन्होंने सेवा का पूरा काम आपस में बाँट लिया। जब हनुमान जी सेवा के लिये सामने आये, तब उनको रोक दिया और कहा कि आज से प्रभु की सेवा बाँट दी गयी है, आपके लिये कोई सेवा नहीं है। हनुमान जी ने देखा कि भगवान को जम्हाई आने पर चुटकी बजाने की सेवा किसी ने भी नहीं ली है। अतः उन्होनें यही सेवा अपने हाथ में ले ली। यह सेवा किसी के ख्याल में नहीं आयी थी। हनुमान जी में प्रभु की सेवा करने की लगन थी। जिसमें लगन होती है, उसको कोई न कोई सेवा मिल ही जाती है। अब हनुमान जी दिन भर राम जी के सामने ही बैठे रहे और उनके मुख की तरफ देखते रहे क्योंकि रामजीको कब जम्हाई आ जाये जब रात हुई तब भी हनुमान जी उसी तरह बैठे रहे। भरत आदि सभी भाइयों ने हनुमान जी से कहा कि रात में आप यहाँ नहीं बैठ सकते, अब आप चले जायॅं। हनुमान जी बोले कैसे चला जाउॅं, रात को न जाने कब राम जी को जम्हाई आ जाय! जब बहुत आग्रह किया, तब हनुमान जी वहाँ से चले गये और छत पर जाकर बैठ गये। वहाँ बैठकर उन्होंने लगातार चुटकी बजाना शुरू का दिया, क्योंकि रामजी को न जाने कब जम्हाई आ जाय! यहाँ रामजी को ऐसी जम्हाई आयी कि उनका मुख खुला ही रह गया, बन्द हुआ ही नहीं! यह देखकर सीता जी बड़ी व्याकुल हो गयीं कि न जाने रामजी को क्या हो गया है! भरत आदि सभी भाई आ गये। वैद्यों को बुलाया गया तो वे भी कुछ कर ही नहीं सके। वशिष्ठ जी आये तो उनको आश्चर्य हुआ कि ऐसी चिन्ता जनक स्थिति में हनुमान जी दिखायी नहीं दे रहे है। और सब तो यहाँ है और हनुमान जी कहाँ है। खोज करने पर हनुमान जी छत पर बैठे चुटकी बजाते हुए मिले। उनको बुलाया गया और वे राम जी के पास आये तो चुटकी बजाना बन्द करते ही राम जी का मुख स्वाभाविक स्थिति में आ गया! अब सबकी समझ में आया कि यह सब लीला हनुमान जी के चुटकी बजाने के कारण ही थी। भगवान ने यह लीला इसलिये की थी कि जैसे भूखे को अन्न देना ही चाहिये, ऐसे ही सेवा के लिये आतुर हनुमान जी को सेवा का अवसर देना चाहिये, बन्द नहीं करना चाहिये। फिर भरत आदि भाइयों ने ऐसा आग्रह नहीं रखा।


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कछवाहा (कछवाह) क्षत्रिय सूर्यवंशी राजपूत राजवंश



कछवाहा (कछवाह) क्षत्रिय सूर्यवंशी राजपूत राजवंश
Kachwaha (Kachwaha) Kshatriya Suryavanshi Rajput Dynasty

Kachwaha logo

कछवाहा क्षत्रिय सूर्यवंशी
गोत्र - गौतम, मानव मानव्य (राजस्थान में) पहले कश्यप गोत्र था, प्रवर - गौतम (उ०प्र० में) वशिष्ठ, वार्हस्पत्य मानव, कुलदेवी - जमुआय (दुर्गा - मंगला)/ जमवाय माता, वेद - सामवेद, शाखा - कौथुमी (उ० प्र० में) तथा माध्यन्दिनी (राजस्थान में), सूत्र - गोभिल,गृहसूत्र, निशान - पचरंगा ध्वज (पहले सफ़ेद ध्वज था जिसमे कचनार का वृक्ष था), नगाड़ा - यमुना प्रसाद, नदी - सरयू, छत्र - श्वेत, वृक्ष - वट (बड़), पक्षी - कबूतर, धनुष - सारंग, घोडा - उच्चैश्रव, इष्ट- रामचन्द्र, प्रमुख गद्दी - नरवरगढ़ और जयपुर, गायत्री - ब्रम्हायज्ञोपवीत, पुरोहित - खांथडिया पारीक (राजस्थान में) पहले गंगावत थे।
कछवाहा अयोध्या राज्य के सूर्यवंश की एक शाखा है। कुश के एक वंशज कुरम हुए, जिनके कुछ वंशज कच्छ चले गए और कछवाहे कहे जाने लगे जिसके नाम पर कछवाहा कूर्मवंशी भी कहलाये। नरवरगढ़ और ग्वालियर के राजाओं के मिले कुछ संस्कृत शिलालेखों में इन्हे कच्छपघात या कच्छपारी कहा गया है। जनरल कन्निंघम इन शिलालेखों को मान्यता देते हुए कहता है की कच्छपघात या कच्छपारी या कच्छपहन का एक ही अर्थ है - कछुओं को मारने वाला। कुछ लोगों का अनुमान है कछवाहों की कुलदेवी का नाम पहले कछवाही (कच्छपवाहिनी) था जिसके कारण ही इस वंश का नाम कछवाहा पड़ा।
उपरोक्त सभी मत मनगढंत है क्यूंकि कछुवे मारना राजपूतों के लिए कोई गौरव की बात नहीं है जो कि इनके नाम का कारण बनता। कुशवाहा नाम भी कछवाहों के किसी प्राचीन शिलालेख या ग्रन्थ में नहीं मिलता। वास्तव में ये भगवन राम के द्वितीय पुत्र कुश के ही वंशज हैं। कर्नल टॉड शैरिंग, इलियट व क्रुक ने भी इसी मत को मान्यता दी है। राम के बाद कुश ने अपनी राजधानी कुशावती को बनाया था, परन्तु किसी दुःस्वप्न का विचार आने पर उन्होंने उसे छोड़ फिर अयोध्या को अपनी राजधानी बना लिया था। अयोध्या का इन्होने ही पुनरुद्वार किया था। (रघुवंश, सर्ग 16) इसके अंतिम राजा सुमित्र के पुत्र कूर्म तथा कूर्म के पुत्र कच्छप हुए। कच्छप के पिता कूर्म के कारण ही कछवाहों की एक उपाधि कूर्म भी है।
कछवाहे पहले परिहारों के सामंत के रूप में रहे थे, परन्तु परिहारों के निर्बल हो जाने पर ये स्वतंत्र शासक बन गए। ग्वालियर का वि. सं. 977 और 1034 का शिलालेख के अनुसार लक्ष्मण के पुत्र वज्रदामा कछवाहा ने विजयपाल प्रहार से ग्वालियर का दुर्ग छीनकर वहां के स्वतंत्र स्वामी बन गए। वज्रदामा के पुत्र कीर्तिराज के वंशज तो क्रमशः मूलदेव, देवपाल, पधपाल और महापाल, कुतुबुद्दीन ऐबक के शासन काल तक ग्वालियर के राजा बने रहे और छोटे पुत्र सुमित्र के वंशज क्रमशः मधु, ब्रम्हा, कहान, देवानिक, ईशसिंह - ईश्वरीसिंह, सोढदेव, दैहलराय (दुर्लभराज या ढोला राय हुए। जिनकी एक रानी का नाम मरवण था।) ढोला राय दौसा (जयपुर) के बडगूजर क्षत्रियों के यहाँ ब्याहे गए परन्तु विश्वासघात करके उन्होंने दौसा और फिर आसपास के बड़गुजरों को वहां से निकालकर स्वयं वहां के राजा बन गए। इस तरह सारे ढूंढाड़ (वर्तमान जयपुर) के स्वामी बन गए। इनके पुत्र काकिलदेव ने वि. सं. 1207 में मीणों से आमेर छीनकर उसे अपनी राजधानी बना ली।

इस वंश के 26वें शासक जयसिंह ने जयगढ़ दुर्ग बनवाया था। 28वें शासक जयसिंह को सवाई की उपाधि से विभूषित किया गया। अतः इनके बाद के सारे शासक सवाई उपाधि धारण करते थे।यह नरेश बड़े ही विद्वान तथा ज्योतिषी थे। जयपुर नगर इन्ही का कीर्ति स्तम्भ है। यहाँ की वेधशाला के अतिरिक्त इन्होने दिल्ली, मथुरा, उज्जैन और बनारस में पांच वेधशालाएं स्थापित की। सवाई माधोसिंह ने सवाई माधोपुर नगर बसाया था।
  1. राजस्थान में जयपुर, अलवर और लावा
  2. उड़ीसा में मोरभंज, ढेंकानाल नरलगिरी, बखद के ओंझर
  3. मध्यप्रदेश में मैहर
  4. उत्तरप्रदेश में जिला सुल्तानपुर में अमेठी, रामपुरा, कछवाहाघार और ताहौर, जिला मैनपुरी में देवपुरा, करोली, कुठोद, कुदरी, कुसमर, खुडैला, जरवा, मरगया, मस्था, जिला जालौन में खेतड़ी, पचवेर, गवार, मालपुरा, मुल्लान, राजपुर, राजोर, वगुरु, सावर आदि।
इसके अतिरिक्त जम्मू और कश्मीर तथा पूँछ की रियासतें। इनके अतिरिक्त अब ये एटा, इटावा, आजमगढ़, जौनपुर, फर्रुखाबाद। बिहार के भागलपुर, सहरसा, पूर्णाया, मुज़्ज़फ़रपुर आदि जिलों में बस्ते हैं।

नरवर के कछवाहे या नरुके कछवाहे/ राजावत
उदयकर्ण की तीसरी रानी के बड़े पुत्र नृसिंह, जो आमेर के सिंहासन पर बैठे, के वंशज राजावत या नरुके कहलाते हैं। अब ये उ. प्र. के खीरी, लखीमपुर, गोंडा आदि जिलों में तथा नेपाल में कहीं कहीं बस्ते हैं। रियासतें - अलवर और लावा

शेखावत
आमेर नरेश उदयकर्णजी के छोटे पुत्र बाला को आमेर से 12 गाँवों का बरवाड़ा मिला था। उनके 12 पुत्रों में बड़े मोकल थे और उनके पुत्र थे शेखा जिनसे कछवाहों की प्रसिद्द शाखा शेखावत चली। मोकल को कई वर्षों तक पुत्र नहीं हुआ। उन्होंने कई महात्माओं की सेवा की। चैतन्य स्वामी के दादा गुरु माधव स्वामी के आशीर्वाद से उनके पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम शेखा रखा। इनका जन्म वि. सं. (ई. 1433) में हुआ। उदयकर्णजी के दूसरे पुत्र बालाजी के पुत्र का नाम राव शेखाजी था। राव शेखाजी के वंशज शेखावत कहलाये। जिला अलवर में ये बड़ी मात्रा में रहते हैं। यह क्षेत्र शेखावाटी भी कहलाता है। ठिकाने - खेतड़ी, सीकर, मंडावा, मुकुंदगढ़, नवलगढ़।

घोड़ेवाहे कछवाहा
गोत्र - कश्यप / कोशल्य या मानव्य, वर - कश्यप, वत्सार, नैध्रुव, वेद - यजुर्वेद, शाखा - वाजसनेयि, माधयंदिन, सूत्र - पारस्कर, गृहसूत्र, कुलदेवी - दुर्गा
अल्लाउद्दीन ख़िलजी के शासनकाल में आमेर के दो राजकुमार ज्वालामुखी देवी (कांगड़ा) की पूजा करने गए थे। वापसी में वे सेना सहित सतलज नदी के किनारे बैठ गए। बाद में अल्लाउद्दीन ख़िलजी ने इनके 18 लड़कों को एक दिन में उनके घोड़ों की पहुँच तक का क्षेत्र देना मंज़ूर किया। इस तरह इन्होने सतलज रावी नदियों के दोनों ओर और चण्डीगढ से लेकर शेखपुरा बख़नौर (जालंधर) तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। घोड़ों की पहुँच तक का क्षेत्र अधिकृत करने से ही ये घोड़े वाले क्षत्रिय कहलाते हैं। चमकौर, बलाचौर, जांडला, राहों, गढ़ शंकर आदि इनके 18 भाइयों की अलग अलग गद्दियां थीं। इनके राजा की उपाधि राय थी। अब ये पंजाब के रोपड़, लुधियाना, जालंधर, होशियारपुर आदि जिलों में बस्ते हैं।

कुश भवनिया (कुच भवनिया) कछवाहे
गोत्र - शांडिल्य, प्रवर - शांडिल्य, असित, देवल, वेद - सामवेद, शाखा - कौथुमी, सूत्र - गोभिल, गृहसूत्र, कुलदेवी - नंदी माता
इसे कुशभो वंश भी कहा जाता है। भगवान राम के पुत्र कुश ने गोमती नदी किनारे सुल्तानपुर में एक नगर बसाया था जिसे कुशपुर या कुशभवनपुर कहते हैं। यहाँ निवास करने के कारण ही ये क्षत्रिय उक्त नाम से प्रसिद्ध हुए। इस क्षेत्र में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम आज भी खंडहर अवस्था में विद्यमान है। जिससे उक्त मत प्रमाणित होता है। अब ये बिहार के आरा, छपरा, गया तथा पटना जिलों में मिलते हैं।

नन्दबक या नादवाक क्षत्रिय सूर्यवंशी (कछवाह की शाखा)
गोत्र - कश्यप, प्रवर - कश्यप, अप्यसार, नैध्रुव, वेद - यजुर्वेदए शाखा - वाजसनेयि, माधयंदिनए त्र - पारस्कर, गृहसूत्र, कुलदेवी - दुर्गा, नानरव (अलवर) से कुछ कछवाहे क्षत्रिय उत्तर प्रदेश में जा बसे थे। ये नन्दबक कछवाहे कहलाते हैं। अब ये क्षत्रिय जौनपुर, आजमगढ़, मिर्ज़ापुर तथा बलिया जिलों में बस्ते हैं।

झोतियाना या जोतियाना (झुटाने) कछवाहा की शाखा, सूर्यवंशी क्षत्रिय
गोत्र - कश्यप, प्रवर - कश्यप, अप्यसार, नैध्रुव, वेद - सामवेद, शाखा - कौथुमी, सूत्र - गोभिल, गृहसूत्र, झोटवाड़ा (जयपुर) से आने के कारण ये जोतियाना या झुटाने कहे जाने लगे। मुजफ्फरपुर और मेरठ जिले में इनके २४ गांव हैं।

मौनस क्षत्रिय सूर्यवंशी (कछवाहा की शाखा)
गोत्र - मानव/मानव्य, शेष प्रवर आदि कछवाहों के समान ही है। इनकी 13वीं शताब्दी में आमेर (जयपुर) से आना और मिर्ज़ापुर और बनारस जिलों के कुछ गाँवों में जाकर बसना बतलाते हैं। अब ये जिला मिर्ज़ापुर, बनारस, जौनपुर तथा इलाहबाद में बस्ते हैं।

पहाड़ी सूर्यवंशी कछवाहे
गोत्र - शोनक, प्रवर - शोनक, शुनक, गृहमद, वेद - यजुर्वेद,शाखा - वाजसनेयी, माध्यन्दिन, सूत्र - पारस्कर, गृहसूत्र, कश्मीर के कछवाहा

जम्मू-कश्मीर को स्वतंत्र राज्य बनाने का श्रेय वीर शिरोमणि महाराजा गुलाब सिंह को जाता है। उन्होंने इस सम्पूर्ण प्रदेश को एक सूत्र में बांधकर सिख राज्य काल में एक छत्र स्वतंत्र शासन किया था। महाराजा गुलाब सिंह के पूर्वज आमेर (जयपुर) के कछवाहा वंश के थे।
मुगल काल में कश्मीर एक मुसलमान वंश के अधिकार में था। इ 1586 में सुल्तान युसूफ खान के विरुद्ध आमेर के राजा भगवंत दास को बादशाह अकबर ने भेजा, उन्होंने 28 मार्च 1586 इ. सुलतान युसूफ खान को लाकर बादशाह के सामने उपस्थित कर दिया। उस आक्रमण में राजा भगवंत दास के साथ उनके काका जगमाल के पुत्र रामचन्द्र भी थे। कश्मीर को साम्राज्य में मिलाकर बादशाह ने रामचन्द्र कछवाहा को कश्मीर में ही जागीर दी तथा नियुक्त किया। इस प्रकार कश्मीर के कछवाहा वंश के रामचंद्र प्रवर्तक हुए।
रामचन्द्र के पिता जगमाल आमेर नरेश राजा पृथ्वीराज के पुत्र थे। रामचंद्र ने अपनी कुलदेवी जमवाय माता के नाम पर जम्मू शहर बसाया। यह डोगरा प्रदेश होने के कारण इन्हे डोगरा भी कहा जाने लगा। वैसे ये जगमालोत कछवाहा हैं। रामचन्द्र के बाद सुमेहल देव, संग्राम देव, हरि देव, पृथ्वी सिंह, गजे सिंह, ध्रुव देव, सूरत सिंह, जोरावर सिंह, किशोर सिंह और गुलाब सिंह हुए।
गुलाब सिंह के बाद रणवीर सिंह, प्रताप सिंह, हरी सिंह और कर्ण सिंह कश्मीर के शासक हुए। भारत के स्वतंत्र होने के बाद कर्ण सिंह को कश्मीर का सदर ए रियासत बनाया गया। इसके बाद कर्ण सिंह केंद्रीय मंत्री परिषद में स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधान मंत्रित्व काल में मंत्री रहे। ये बड़े विद्वान हैं और इन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं।


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नवदुर्गास्तोत्रम NAVDURGA




।।  ॐ ऐं ह्री क्लीं चामूण्डायै विच्चे ।।

मार्कण्डेयपुराणे देवी माहात्म्ये देवि कवचे

...........|| नवदुर्गास्तोत्रम ||..............

ॐ प्रथमं शैलपुत्रीति द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चंद्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम।।

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठम कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रिश्च महागौरीति चाष्टमम।।

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना।।

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे ।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ता: शरणम गता: ।।

न तेषां जायते किश्चिदशुभं रणसङ्कटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदु:खभयं नहि ।।

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धि:प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशी रक्षशे नात्रशंशय: ।।

ॐ तत्सत


माता के उक्त नौ रूपों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं ---
  1. शैलपुत्री - पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण मां दुर्गा को शैलपुत्री कहा जाता है।
  2. ब्रह्मचारिणी - ब्रह्मचारिणी अर्थात जब उन्होंने तपश्चर्या द्वारा शिव को पाया था।
  3. चंद्रघंटा - चंद्रघंटा अर्थात जिनके मस्तक पर चंद्र के आकार का तिलक है।
  4. कुष्मांडा - ब्रह्मांड को उत्पन्न करने की शक्ति प्राप्त करने के बाद उन्हें कुष्मांडा कहा जाने लगा। उदर से अंड तक वे अपने भीतर ब्रह्मांड को समेटे हुए हैं। इसीलिए कुष्मांडा कहलाती हैं।
  5. स्कंदमाता - उनके पुत्र कार्तिकेय का नाम स्कंद भी है, इसीलिए वे स्कंद की माता कहलाती हैं।
  6. कात्यायनी - यज्ञ की अग्नि में भस्म होने के बाद महर्षि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्होंने उनके यहां पुत्री रूप में जन्म लिया था, इसीलिए वे कात्यायनी कहलाती हैं।
  7. कालरात्रि - मां पार्वती देवी काल अर्थात हर तरह के संकट का नाश करने वाली हैं, इसीलिए कालरात्रि कहलाती हैं।
  8. महागौरी - माता का वर्ण पूर्णत: गौर अर्थात गौरा (श्वेत) है, इसीलिए वे महागौरी कहलाती हैं।
  9. सिद्धिदात्री - जो भक्त पूर्णत: उन्हीं के प्रति समर्पित रहता है, उसे वे हर प्रकार की सिद्धि दे देती हैं, इसीलिए उन्हें सिद्धिदात्री कहा जाता है।

जय माँ भवानी...












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श्री दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्त्रोतम्



शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने ।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती ।।

ऊँ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी ।
आर्या दुर्गा जय चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी ।।

पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघंटा महातपाः ।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः ।।

सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी ।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्या-भव्या सदागतिः ।।

शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा ।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ।।

अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती ।
पट्टाम्बरपरिधाना कलमञ्जीररञ्जिनी ।।

अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी ।
वनदुर्गा च मातंगी मतंगमुनिपूजिता ।।

ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा ।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरूषाकृतिः ।।

विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा ।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना ।।

निशुम्भ-शुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी ।
मधुकैटभहन्त्री च चण्ड-मुण्डविनाशिनी ।।

सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी ।
सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा ।।

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी ।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः ।।

अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा ।
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला ।।

अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी ।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी ।।

शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी ।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी ।।

य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम् ।
नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति ।।

धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च ।
चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम् ।।

कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम् ।
पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम् ।।

तस्य सिद्घिर्भवेद् देवि ! सर्वैः सुरवरैरपि ।
राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात् ।।

गोरोचना-लक्तक-कुंकुमेन सिन्दूर-कर्पूर-मधुत्रयेण ।
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः ।।

भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्र शतभिषां गते ।
विलिख्य प्रपठेत् स्त्रोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम् ।।

।। जय माँ भवानी ।।



नोट ► ये तन्त्रोक्त पाठ स्त्रियों के लिये विशेष है
विशेषतः ये अमावस्या की मध्य रात्रि में मां भगवती का पूजन करें उसके बाद इसका 108 बार पाठ करके लाभ उठा सकती हैं








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अष्टम स्वरुप महागौरी Eighth Form of Goddess- MahaGauri Stuti Mantra



श्वेते वृषे समारूढा: श्वेताम्बरधरा शुचि:।
महागौरी शुभम दद्यान्महदेवप्रमोददा ।।
Shwete Vrashe Samarudhah Shwetambar-dhara Shuchi।
Mahagauri Shubham Dadhyanmahdev-pramodada ।।
Representing Calmness and absolute innocence, this form of goddess represents the parvati aspect of the Great Goddess.
The eighth manifestation of Great Goddess Durga is MahaGauri. The white goddess, the fairness of her being is constantly compared to the conch, moon and kund flowers. All her adornments, clothes and jewelery are always white. She is always envisaged and worshiped as an 8-years old.
Due to Intense and prolonged nature of her arduous tapasya, the body of Sati was shriveled and blackened. When Shiva was moved bu her devotion, he consented to take sati as his consort and bathed her body with the waters of the celestial river Ganga and immediately her body became dazzling white and returned to the fresh vitality of 8-years old, the age at which possibly the goddess as a young girl heard the words of Narada muni, which moved her to seek the most perfect of bride-grooms, Shiva as her consort.
Mahagauri holds in 2 of her hands the Trishool and Damroo, symbols most closely associated with Lord Shiva. The benign goddess symbolizes the purity of childlike innocence as well as the unwavering determination needed to fulfill her arduous meditation.


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सातवीं शक्ति माँ कालरात्रि 7th Form of Goddess - Kaalratri Mata



माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। माँ की नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ (गदहा) है। ये ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है। माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम 'शुभंकारी' भी है। अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।
या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और कालरात्रि के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे पाप से मुक्ति प्रदान कर।

जय त्वं देवि चामुंडे जय भूतार्तिहारिणी !
जय सर्वगते देवि कालरात्रि नामोSस्तु ते !!
Jaya-Twam Devi Chamunde Jaya Bhootartihaarini !
Jaya Sarwagate-Devi KaalRaatri Namostute !!
Meaning -
देवि चामुंडे ! तुम्हारी जय हो ! सम्पूर्ण प्राणियों की पीड़ा हरने वाली देवि ! तुम्हारी जय हो ! सब में व्याप्त रहने वाली देवि ! तुम्हारी जय हो ! कालरात्रि ! तुम्हे नमस्कार है !!

Despite her terrifying appearance, she is also known as Shubhankari because she is the unparalleled granter of boons and harbinger of success.
The terrible and terrifying energy of goddess Durga is manifested on the seventh day in the form of Kaalratri. Armed with Khadag apart from brandishing the scythe like weapon, Kaalratri is also a 4 armed goddess like Katyayani, her 2 bare hands are also composed in mudras of Var (blessing) and Abhay (Fearlessness).
She is also the most powerful force of protection, a goddess who protects all her devotees from all kinds of harm - physical and metaphysical.


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छठ रूप माँ कात्यायनीSixth Form of Goddess- Katyayani Stuti Mantra



माँ दुर्गा के छठे रूप को माँ कात्यायनी के नाम से पूजा जाता है. महर्षि कात्यायन की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर उनकी इच्छानुसार उनके यहां पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं. महर्षि कात्यायन ने इनका पालन-पोषण किया तथा महर्षि कात्यायन की पुत्री और उन्हीं के द्वारा सर्वप्रथम पूजे जाने के कारण देवी दुर्गा को कात्यायनी कहा गया.
देवी कात्यायनी अमोद्य फलदायिनी हैं इनकी पूजा अर्चना द्वारा सभी संकटों का नाश होता है, माँ कात्यायनी दानवों तथा पापियों का नाश करने वाली हैं. देवी कात्यायनी जी के पूजन से भक्त के भीतर अद्भुत शक्ति का संचार होता है. इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा चक्र’ में स्थित रहता है. योग साधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. साधक का मन आज्ञा चक्र में स्थित होने पर उसे सहजभाव से मां कात्यायनी के दर्शन प्राप्त होते हैं. साधक इस लोक में रहते हुए अलौकिक तेज से युक्त रहता है.
माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यन्त दिव्य और स्वर्ण के समान चमकीला है. यह अपनी प्रिय सवारी सिंह पर विराजमान रहती हैं. इनकी चार भुजायें भक्तों को वरदान देती हैं, इनका एक हाथ अभय मुद्रा में है, तो दूसरा हाथ वरदमुद्रा में है अन्य हाथों में तलवार तथा कमल का फूल है.

चंद्र्हासुज्ज्वलकरा शार्दुलवरवाहना !
कात्यायनी शुभम दध्यादेवी दानवघातिनी !!
ChandrhaasujjwalKara Shaardulvar-wahana !
Katyayani dadhyadevi Daanavghaatini !!

Meaning -
चन्द्र को उज्जवल करने वाली. सिंह के वाहन वाली , दानव का नाश करने वाली कात्यायनी देवी को प्रणाम !!
Explanation-
The origins of Katyayani goddess are closely linked to bloodline of the sage KAT who beget the saint Katya as his son. Eventually famous saint katyayan was born in this line. It was his desire that goddess be born in his house as his daughter. The world meanwhile was reeling under tyrannies of demon mahishasur. The goddess appealed by the trinity of Brahma, Vishnu, Shiva born on 4th Navratra. Goddess accepted the ritual worship of katayayan rishi for 3days and on the tenth day Durga slew the demon Mahishasur. Goddess was born in Katayan's house so she adopted the name Katyayani.
Katyayani devi is depicted as a four armed goddess astride a lion. She holds a sword in one hand, a lotus in another, and remaining 2 hands are composed in mudras of blessing and the mudra of fearlessness, the blessing extended to all of katyayani's devotees.
As a potent force and facet of female energy, Katyayani claims as her own the Ajna or Agya Chakra. Symbolized by a lotus with 2 petals, this chakra is also known as third eye chakra.


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