इलाहाबाद उच्च न्यायालय का इतिहास



इलाहाबाद उच्च न्यायालय का इतिहास

सन् 1834 से 1861 के बीच की अवधि में अर्थात भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम के लागू होने से पहले भारत में दो प्रकार के न्यायालय कार्यरत थे। वह थे सम्राट के न्यायालय और कंपनी के न्यायालय, जिनके अधिकार क्षेत्र भिन्न थे और जिन्होंने दोहरी न्याय प्रणाली को जन्म दिया था। इन दो प्रकार के न्यायालयों को एकीकृत करने के प्रयास सन् 1861 के बहुत पहले ही प्रारंभ हो गये थे। सन् 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी को भंग कर दिया गया और ब्रिटिश साम्राज्ञी द्वारा भारत के शासन को प्रत्यक्ष रूप से संभालने की नीति ने दो प्रकार के न्यायालयों के एकीकरण की समस्या का निराकरण बहुत आसान कर दिया। सभी लोगों पर लागू होने वाली भारतीय दंड संहिता तथा दीवानी और आपराधिक प्रक्रिया संहिताऍं पारित की गई तथा तत्कालीन उच्चतम न्यायालयों और सदर अदालतों का समामेलन न्यायिक प्रशासन में एकरूपता लागू करने का अगला कदम था। इस लक्ष्य की प्राप्ति ब्रिटिश संसद द्वारा सन् 1861 में पारित भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम (24 और 25 विक्टो0 C 104) द्वारा हुई, जिससे ब्रिटेन की महारानी को उच्चतम न्यायालयों तथा सदर अदालतों को समाप्त करने और उनकी जगह बम्बई,कलकत्ता एवं मद्रास की तीनों प्रेसीडेंसियों में एक-एक उच्च न्यायालय जिसे प्रेसीडेंसी नगरों तथा मोफस्सिल के भी सभी न्यायालयों में सर्वोच्च होना था, के गठन का अधिकार दिया गया । उक्त विधेयक पेश करने के समय सर चार्ल्स वुड ने ब्रिटिश संसद में कहा था कि संपूर्ण देश में केवल एक सर्वोच्च न्यायालय होगा तथा दो के बजाय केवल एक अपील न्यायालय होगा और चूंकि कनिष्ठ न्यायालयों में न्यायिक प्रशासन उन निर्देशों पर आधारित होता है जो उनके द्वारा ऊपर की अदालतों में भेजी गई अपीलों का निस्ताररण करते समय जारी किये जाते है, अत: मुझे आशा है कि इस प्रकार गठित उच्चतर न्यायालय सामान्य रूप से पूरे भारत में न्यायिक प्रशासन में सुधार लाऍंगे।
इसी अधिनियम की धारा 16 के द्वारा क्राउन को ब्रिटिश भारत में किसी अन्य उच्च न्यायालय का गठन करने का अधिकार भी दिया गया था। उक्त धारा के द्वारा प्रदत्त शक्तियों के आधार पर क्राउन ने लेटर्स पेटेंट के द्वारा फोर्ट विलियम की प्रेसीडेंसी के उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के लिये एक उच्च न्यायालय का गठन सन् 1966 में आगरा में किया। इसे उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के लिए उच्च न्यायालय की संज्ञा दी गयी जिसके मुख्य न्यायाधीश सर वाल्टर मॉर्गन तथा अन्य पांच न्यायाधीशों के नामों का उल्लेख स्वयं चार्टर में था। उच्च न्यायालय का गठन अभिलेख न्यायालय के रूप में किया गया था (खंड-1) । इसकी स्थापना के साथ ही आगरा प्रदेश में पिछले 35 वर्षो से कार्य कर रही सदर दीवानी अदालत और सदर निजाम अदालत को समाप्त कर दिया गया और उच्च न्यायालय अपने लेटर्स पेटेंट और उक्त अधिनियम की धारा 16 और 9 के आधार पर सभी अपीलीय और प्रशासनिक शक्तियों से सम्पन्न हो गया तथा अन्य न्यायालयों के प्राधिकार और अधिकारिताऍं समाप्त हो गयीं। अपने लेटर्स पेटेंट द्वारा उच्च न्यायालय कुछ विशेष मामलों में उन शक्तियों और प्राधिकारों से भी सम्पन्न किया गया जो कलकत्ता उच्च न्यायालय के पास थीं। इन विशेष मामलों में शामिल थे वकीलों के विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाहियॉं (खंड-18), अवयस्कों एवं भ्रान्तचित्त व्यक्तियों के अधिकारों का संरक्षण (खंड-12), वसीयतयुक्त और वसीयत विहीन मामलों में उत्तराधिकार (खंड-25) तथा वैवाहिक मामले (खंड-26)। हालांकि विवाह विषयक अधिकारिता का प्रयोग इस उच्च न्यायालय द्वारा ब्रिटिश महारानी की ईसाई प्रजा के लिए ही किया जा सकता था।
इस उच्च न्यायालय को दीवानी मामलों में मौलिक क्षेत्राधिकार नहीं दिया गया था तथा लेटर्स पेटेंट खंड 15 के द्वारा इसे प्रदत्त सामान्य आरंभिक आपराधिक अधिकारिता भी उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के निवासी यूरोपीय ब्रिटिश प्रजाजन तक ही सीमित थी जो इस उच्च न्यायालय की स्थापना के पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय की सामान्य आरंभिक आपराधिक अधिकारिता के अधीन रहे थे। अपनी सामान्य आरंभिक आपराधिक अधिकारिता का प्रयोग करते हुए उच्च न्यायालय विधि के सम्यक अनुक्रम में अपने समक्ष लाए गए उपर्युक्त किसी भी व्यक्ति के संबंध में परीक्षण कर सकता था (खंड-16) और इस शक्ति के अंतर्गत उच्च न्यायालय उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों से बाहर के निवासी यूरोपीय-ब्रिटिश प्रजाजन के विषय में भी विचारण कर सकता था किन्तु उच्च न्यायालय को दिवालिया प्रकृति के वादों तथा नौसेना विधि से संबंधित वादों के श्रवण का अधिकार नहीं था।
अपनी असाधारण आरंभिक सिविल अधिकारिता (खंड-9) के रूप में उच्च न्यायालय को यह अधिकार दिया गया था कि वह किसी भी दीवानी मामले को अपने किसी अधीनस्थ न्यायालय से हटाकर उस पर स्वयं विचारण करके निर्णीत कर सकता था। उसे अपनी अपीलीय अधिकारिता के प्रयोग के अंतर्गत सदर अदालतों की तरह अपने अपीली अधिकारिता क्षेत्र में आने वाले न्यायालयों के निर्णयों के विरूद्ध अपीलें सुनने के लिए प्राधिकृत किया गया था। (खण्ड 11 एवं 50) इसके दो न्यायाधीशों की खंडपीठ के सम्मुख अपने ही न्यायालय के एकल न्यायाधीश द्वारा निर्णीत सिविल मामलों की अपीलों पर सुनवाई हो सकती थी (खंड-10)। उच्च न्यायालय को अपने अधीनस्थ आपराधिक न्यायालयों के निर्णयों के संबंध में निर्देश न्यायालय तथा पुनरीक्षण न्यायालय भी बनाया गया (खंड-21)। इसे किसी भी आपराधिक मामले या अपील को एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय में स्थानांतरित करने की शक्ति भी दी गई (खंड-21)। किन्तु सन् 1950 तक इस उच्च न्यायालय के पास रिट याचिका जारी करने की शक्ति नहीं थी क्योंकि न तो यह सर्वोच्च न्यायालय का उत्तराधिकारी था और न ही यह शक्ति इसे लेटर्स पेटेंट या सन् 1877 के अधिनियम विनिर्दिष्ट अनुतोष की धारा 45 द्वारा प्रदान की गई थी।
इस न्यायालय द्वारा असाधारण आरंभिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में लागू की जाने वाली साम्या विधि (equity) वही थी जो इसके अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा लागू की जाती थी (खंड-13) और इसकी सिविल अपीलीय अधिकारिता के प्रयोग में लागू की जाने वाली साम्याविधि और शुद्ध अंतःकरण (good conscience) की विधि को ठीक वैसा ही होना था जैसी कि वह अधीनस्थ न्यायालयों के कार्य में प्रयुक्त होती थी (खंड-14)। अंग्रेजी विधि भारत में स्वयमेव लागू नहीं होती थी। अपितु वह यहां साम्या और शुद्ध अंतःकरण के नियमों को उपलब्ध कराकर प्रयुक्त होती थी और वह भी तब जब भारतीय समाज और परिस्थितियों के संदर्भ में उसे उपयोगी पाया जाता था।
उच्च न्यायालय को आरंभिक फौजदारी न्यायालय एवं अपीलीय पुनरीक्षण तथा निर्देश न्यायालय के रूप में अपनी अधिकारिता के प्रयोग क्रम में किसी अपराध के लिए व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता के प्रावधानों के अंतर्गत दंडित करने के लिए आदेशित किया गया था (खंड-23) इसके अतिरिक्त यह भी आदेशित किया गया था कि अपनी असाधारण आरंभिक फौजदारी अधिकारिता (खंड-15) के प्रयोग क्रम में उच्च न्यायालय द्वारा विचारित सभी फौजदारी मामलों में कार्यवाहियों का नियमन लेटर्स पेटेंट वर्ष 1866 के प्रकाशन के ठीक पहले कलकत्ता उच्च न्यायालय में उपयोग की जाने वाली ‘आपराधिक प्रक्रिया और प्रचलन’ के अनुसार किया जाएगा और अन्य सभी आपराधिक मामलों में कार्यवाहियों का नियमन दंड प्रक्रिया संहिता 1861 या ऐसी अन्य विधियों द्वारा होगा जो सपरिषद गवर्नर जनरल द्वारा इस उद्देश्य से निर्मित की गई हैं अथवा भविष्य में निर्मित होंगी (खंड-29)।
भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 की धारा 15 द्वारा (24 और 25 विक्टो0C 104) और भारत शासन अधिनियम 1915 के द्वारा उच्च न्यायालयों को अपनी अपीलीय अधिकारिता से संबंधित सभी न्यायालयों पर अधीक्षण की शक्ति से संपन्न बनाया गया और उस सीमा तक विवरणियां मँगाने, किसी वाद या अपील को एक अधीनस्थ न्यायालय से दूसरे में स्थानांतरित करने तथा ऐसे न्यायालयों की कार्यवाहियों और परिपाटी को नियमित करने के लिए सामान्य नियम बनाने और जारी करने तथा प्रारूप विहित करने की शक्ति उन्हें दी गई। दीवानी मामलों के स्थानांतरण की उस शक्ति को छोड़कर, जो सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 24 में समाविष्ट हैं, उच्च न्यायालयों की यह शक्तियां भारत शासन अधिनियम 1935 (धारा 224) तथा भारत के संविधान (अनुच्छेद 227) द्वारा आगे भी जारी रहीं।
उत्तरी-पश्चिमी प्रदेशों के लिए उच्च न्यायालय का स्थान सन् 1869 में आगरा से इलाहाबाद स्थानांतरित कर दिया गया और सन् 1919 में 11 मार्च को जारी एक पूरक लेटर्स पेटेंट द्वारा इसका पदनाम बदलकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय (द हाई कोर्ट आफ जुडीकेचर ऐट इलाहाबाद) कर दिया गया। यही पदनाम आज तक प्रयुक्त हो रहा है।
अवध में सन् 1856 में एक न्यायिक आयुक्त और एक वित्तीय आयुक्त की नियुक्ति की गई थी। सन् 1856 से 1863 की अवधि में सर्व श्री ओमानी, कैम्पबेल और कूपर ने क्रमश: न्यायिक आयुक्त के रूप में कार्य किया। न्यायिक आयुक्त का न्यायालय सन् 1865 के सी.पी. कोर्ट~स ऐक्ट द्वारा पुनर्गठित किया गया और इसकी धारा 25 के द्वारा इसे अवध तक विस्तृत किया गया। तत्पश्चात यह पुन: सन् 1871 के अधिनियम सं0 XXXII द्वारा गठित किया गया। इस अधिनियम की धारा 23 और 24 के अनुसार किसी अपील पर निर्णय करते समय संशय की स्थिति उत्पन्न होने पर अवध के न्यायिक आयुक्त को ऐसे मामलों का विचारण हेतु इलाहाबाद उच्च न्यायालय को निर्देशित करना पड़ता था तथा मामले के अभिलेख तथा उससे संबंधित सभी कार्यवाहियों का ब्यौरा भी उच्च न्यायालय को प्रेषित करना पड़ता था।तब उच्च न्यायालय इस पर इस प्रकार सुनवाई करके, मानो यह वहीं प्रस्तुत किया गया हो, अपने निर्णय की एक प्रति अवध के न्यायिक आयुक्त को भेजता था जो इसके बाद मामले का निपटारा उसी निर्णय के अनुरूप कर देता था। सन् 1885 के अधिनियम सं0 IV, सन् 1891 के अधिनियम सं0 XIV तथा सन् 1897 के अधिनियम XVI के प्रावधानों के अनुसार अपर न्यायिक आयुक्तों की नियुक्तियां भी की गई।
अवध में न्यायिक आयुक्त का न्यायालय लगभग 70 वर्षो तक सर्वोच्च अपीलीय न्यायालय के रूप में कार्यरत रहा। हालॉंकि इस प्रांत में भू-राजस्व निर्धारण के मामलों में सन् 1865 के अवध राजस्व न्यायालय अधिनियम की धारा 2-3 के अधीन वित्तीय आयुक्त ने सर्वोच्च न्यायालय के रूप में कार्य किया तथा ऐसे मामलों में उस समय न्यायिक आयुक्त की कोई अधिकारिता नहीं थी, किन्तु सन् 1871 के अधिनियम सं0 XXXII की धारा 84 के वित्तीय आयुक्त का पद समाप्त कर दिया गया तथा ऐसे सारे मामले फिर से न्यायिक आयुक्त को सौंप दिये गए।
अवध मुख्य न्यायालय (चीफ कोर्ट)
अवध न्यायिक आयुक्त के न्यायालय के स्थान पर लखनऊ में अवध मुख्य न्यायालय (चीफ कोर्ट) की स्थापना 2 नवम्बर सन् 1929 को की गई। इस बार ऐसा लेटर्स पेटेंट द्वारा नहीं बल्कि भारत शासन अधिनियम 1919 की धारा 80-ए (3) के अनुसार गवर्नर जनरल की पूर्व अनुमति से उत्तर प्रदेश विधान सभा द्वारा अधिनियमित अवध दीवानी न्यायालय अधिनियम सं0 IV, सन् 1925 के द्वारा किया गया। इस न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और चार अवर न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान था। सन् 1945 में अवर न्यायाधीशों की संख्या पांच कर दी गयी। वर्ष 1929 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्रीमान न्यायमूर्ति स्टुअर्ट को अवध मुख्य न्यायालय का पहला मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। इस न्यायालय को पांच लाख रूपया एवं उससे अधिक राशि के वादों की सुनवाई करने के लिए साधारण आरंभिक अधिकारिता से सम्पन्न किया गया था और इसे अवध में उद~भूत होने वाले दीवानी और फौजदारी मामलों के लिए उच्चतम अपीलीय और पुनरीक्षण न्यायालय घोषित किया गया था। इसकी साधारण आरंभिक दीवानी अधिकारिता को सन् 1939 के उ0प्र0 अधिनियम सं0 IX द्वारा समाप्त कर दिया गया तथा यहॉं विचाराधीन आरंभिक वाद और तत्सम्बन्धी कार्यवाहियों को संबंधित जिला न्यायाधीश को स्थानान्तरित कर दिया गया।
सन् 1911 के उच्च न्यायालय अधिनियम के अंतर्गत प्रत्येक उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की अधिकतम संख्या को 16 से बढ़ाकर 20 कर दिया गया जिसमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल था तथा न्यायाधीशों को भारत के राजस्व से वेतन देने का प्रावधान किया गया।
वर्ष 1915 में भारत शासन अधिनियम को ब्रिटिश संसद द्वारा भारत के शासन और उच्च न्यायालयों संबंधी तत्कालीन संविधियों को पुन: अधिनियमित एवं समेकित करने के लिए पारित किया गया। सन् 1861 तथा सन् 1911 के उच्च न्यायालय अधिनियमों के प्रावधानों को इसमें पुन: अधिनियमित किया गया।जिसके अनुसार प्रत्येक उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा सम्राट द्वारा निर्धारित संख्या में नियुक्त अन्य न्यायाधीश होते थे। उच्च न्यायालय में न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए योग्यताऍं भी निर्धारित की गईं। उच्च न्यायालयों को आरंभिक और अपीलीय अधिकारिता दी गई जिसमें खुले समुद्र में किये गये अपराधों से संबंधित अधिकारिता भी शामिल थी। उन्हें अभिलेख न्यायालय घोषित किया गया तथा न्यायालय के कार्यो को नियमित करने के लिए नियम बनाने की शक्ति भी दी गई। किन्तु राजस्व मामलों में किसी आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग करने या स्थानीय प्रचलन और परंपरा के अनुसार राजस्व एकत्र करने के लिए की गई किसी कार्यवाही को अमान्य करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं दिया गया। उसके पास सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर पर्यवेक्षण की निहित शक्तियां थीं।
ब्रिटिश संसद ने भारत शासन अधिनियम 1935 को अधिनियमित करते हुए भारत की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यकलाप को नियमित करने के लिए एक नया विधान दिया। अधिनियम में उच्च न्यायालयों की स्थापना, अधिकारिता और शक्तियों को नियमित करने वाले कई प्रावधान थे। इस अधिनियम के उच्च न्यायालयों से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान संक्षेप में इस प्रकार बताए जा सकते हैं--
  1. सन् 1935 के अधिनियम में प्रावधान किया गया कि प्रत्येक उच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश और कुछ अन्य न्यायाधीश होंगे जिनकी नियुक्ति समय-समय पर सम्राट द्वारा की जाएगी। सन् 1911 के अधिनियम के उस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया जिसमें न्यायाधीशों की अधिकतम संख्या 20 निश्चित की गई थी तथा सन् 1935 के अधिनियम ने सपरिषद सम्राट को समय-समय पर प्रत्येक उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या निश्चित करने की शक्ति प्रदान की।
  2. तत्कालीन उच्च न्यायालयों की अधिकारिता, इनमें विधिक प्रशासन तथा न्यायाधीशों की शक्तियां सन् 1935 के अधिनियम में भी वैसी ही बनी रहीं जैसी वे इसके पहले थीं। सन् 1915 में किसी राजस्व संबंधी मामले को संज्ञान में लेने की तीन प्रेसिडेंसी उच्च न्यायालयों की आरंभिक अधिकारिता पर जो प्रतिषेध आरोपित किया गया था, उसे जारी रखा गया।
  3. सन् 1935 के अधिनियम में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन, भत्तों तथा पेंशन के संबंध में यह प्रावधान किया गया कि इन्हें न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय सम्राट द्वारा निश्चित किया जाएगा। यह भी प्रावधान किया गया कि न्यायाधीश की नियुक्ति के बाद इनमें से किसी में भी उसके लिए हानिकारक परिवर्तन नहीं किया जाएगा। इस महत्वपूर्ण प्रावधान ने कार्यपालिका के किसी हस्तक्षेप की संभावना से न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित की।
  4. उच्च न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री अथवा अंतिम आदेश के विरूद्ध संघीय न्यायालय में अपील का प्रावधान भी किया गया।
  5. उच्च न्यायालय के लेटर्स पेटेंट में एक प्रावधान यह था कि न्यायाधीशों में मतभेद होने की स्थिति में, जबकि किसी मत के पक्ष में बहुमत न हो, वरिष्ठ न्यायाधीश के दृष्टिकोण को मान्य होना था, जबकि दूसरी ओर सिविल प्रक्रिया संहिता के धारा 98 में एक प्रावधान यह था कि जब किसी अपील पर सुनवाई करते हुए दो न्यायाधीशों की खंडपीठ में किसी विधिक बिंदु पर मतभेद पैदा होगा तो उन्हें उस बिंदु का उल्लेख करते हुए उस मामले और अपील को निर्दिष्ट करना होगा तथा तब अपील पर केवल उसी बिंदु के संदर्भ में एक या अधिक न्यायाधीश सुनवाई करेंगे और उनकी राय के अनुसार उस अपील का निपटारा होगा।
अवध मुख्य न्यायालय का उच्च न्यायालय इलाहाबाद में समामेलन
भारत द्वारा स्वतंत्रता- प्राप्ति के पश्चात, एक स्थानीय शासन के अंतर्गत आ चुके आगरा और अवध क्षेत्रों के एक ही प्रदेश (यूनाइटेड प्रोविन्स) में दो उच्च अपीलीय न्यायालयों के सन् 1902 से ही विद्यमान होने की ऐतिहासिक विसंगति को बड़ी गम्भीरता से महसूस किया गया। उ0प्र0 उच्च न्यायालय समामेलन आदेश, 1948 के द्वारा अवध के मुख्य न्यायालय का इलाहाबाद उच्च न्यायालय से समामेलन कर दिया गया तथा नये उच्च न्यायालय को दोनों समामेलित न्यायालयों की अधिकारिता प्रदान की गयी। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश सर बी0 मलिक को नये उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया तथा अवध मुख्य न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों को नये न्यायालय में अवर न्यायाधीश नियुक्त किया गया। समामेलन आदेश के द्वारा लेटर्स पेटेंट में वर्णित उच्च न्यायालय इलाहाबाद की अधिकारिता तथा अवध न्यायालय अधिनियम में वर्णित मुख्य न्यायालय लखनऊ की अधिकारिता को संरक्षित रखा गया। नये न्यायालय की मुहर को मुख्य न्यायाधीश द्वारा उपलब्ध कराया जाना था तथा इस समामेलन के ठीक पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समादेशों और तत्सम्बन्धी अन्य प्रक्रियाओं के सम्बन्ध में जो विधियां प्रभावी थीं, उन्हें आवश्यक परिवर्तनों के साथ नये न्यायालय द्वारा अपना लिया गया। न्यायाधीशों को इलाहाबाद में या राज्यपाल की सहमति से मुख्य न्यायाधीश द्वारा निदेशित किन्हीं अन्य स्थलों पर कार्य करना था जबकि कम से कम दो न्यायाधीशों को लखनऊ में बैठना था और ऐसा तब तक रहना था जब तक राज्यपाल मुख्य न्यायाधीश की सहमति से अन्यथा निर्देशित न करें। अवध क्षेत्र में उद~भूत होने वाले किसी मामले या किसी वर्ग के मामलों को इलाहाबाद में सुनवाई हेतु निदेशित करने की शक्ति मुख्य न्यायाधीश को प्रदान की गयी थी। जबकि इलाहाबाद क्षेत्र के मामलों को लखनऊ पीठ को स्थानांतरित करने के लिए कोई तत्संवादी उपबंध समामेलन आदेश में नहीं था।
जुलाई 1949 में ”राज्य- विलयन (गवर्नर के प्रांत) आदेश” पारित किया गया जिसे नवंबर में “राज्य विलयन (संयुक्त प्रांत) आदेश 1949” द्वारा संशोधित किया गया। इसके द्वारा अनुसूची में विनिर्दिष्ट कुछ भारतीय राज्यों की शक्तियों को जो डोमिनियन सरकार में निहित थीं, उनके पार्श्व में स्थित गवर्नर शासित प्रांतों को स्थानांतरित कर दिया गया। अनुसूची VII में विनिर्दिष्ट यह राज्य रामपुर, बनारस और टिहरी गढ़वाल थे और धारा 3 के अनुसार उक्त राज्यों को इस प्रकार से प्रशासित होना था मानो वे विलयनकारी प्रांत के ही भाग थे। उक्त राज्यों में कानूनों को लागू करने के संबंध में सपरिषद गवर्नर जनरल के द्वारा “विलीन राज्य विधियाँ अधिनियम” पारित किया गया। इस अधिनियम के द्वारा इसकी अनुसूची में वर्णित अनेक अधिनियमों को विलीन राज्यों में लागू करने का प्रावधान किया गया।
स्थानीय विधियों के विषय में “उ0प्र0 विलीन राज्य (विधियों का उपयोजन) अधिनियम 1950”, 16 मार्च 1950 को पारित किया गया । इस अधिनियम ने “उ0प्र0 विलीन राज्य (विधियों का उपयोजन) अध्यादेश” का स्थान लिया जिसके द्वारा उत्तर प्रदेश के भाग के रूप में प्रशासित होने वाले विलीन राज्यों बनारस, रामपुर और टिहरी गढ़वाल में इसकी अनुसूची में वर्णित विधियों का विस्तारण किया गया था। राज्य विलयन आदेश की धारा 12 के द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय की अधिकारिता को रामपुर के विलीन राज्य तक विस्तृत किया गया। नवाब की अध्यक्षता वाली प्रिवी काउंसिल ‘इजलास-ए-हुमायूँ’,रामपुर के उच्च न्यायालय तथा दीवानी न्यायालय समाप्त कर दिये गये तथा इजलास-ए-हुमायूँ एवं उच्च न्यायालय रामपुर में विचाराधीन सभी कार्यवाहियां उच्च न्यायालय इलाहाबाद में तथा दीवानी न्यायालयों में लंबित सभी मामले जिला न्यायाधीश रामपुर को स्थानांतरित हो गयीं।
बनारस के मामले में गवर्नर ने केन्द्र सरकार द्वारा उन्हें प्रत्यायोजित प्राधिकार का प्रयोग करते हुए 30 नवंबर 1949 को “बनारस राज्य (प्रिवी काउंसिल और मुख्य न्यायालय की समाप्ति) आदेश, 1949” जारी किया जिसके द्वारा ये न्यायालय समाप्त कर दिये गये तथा इनके समक्ष विचाराधीन सभी अपीलें और अन्य कार्यवाहियां इलाहाबाद उच्च न्यायालय को स्थानांतरित हो गयीं। अन्य अधीनस्थ न्यायालयों के स्थान पर एक अलग आदेश के माध्यम से जिला न्यायालयों को प्रतिस्थापित किया गया।
इसी प्रकार “टिहरी गढ़वाल (हुजूर के न्यायालय तथा उच्च न्यायालय की समाप्ति) आदेश, 1949” द्वारा इलाहाबाद उच्च न्यायालय की अधिकारिता टिहरी गढ़वाल के लिए विस्तृत की गयी तथा विचाराधीन अपीलों को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया।
भारत के संविधान के लागू होने की तिथि 26 जनवरी 1950 अर्थात~ प्रथम गणतंत्र दिवस समारोह की पूर्व संध्या को वर्तमान इलाहाबाद उच्च न्यायालय को उत्तर प्रदेश के संपूर्ण क्षेत्र में अधिकारिता प्राप्त हो गयी।
“उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, 2000” के द्वारा उत्तरांचल राज्य तथा उत्तरांचल उच्च न्यायालय 8 और 9 नवंबर 2000 के बीच की मध्यरात्रि से अस्तित्व में आये तथा इस अधिनियम की धारा 35 के अनुसार उत्तरांचल राज्य के क्षेत्र में आने वाले 13 जिलों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की अधिकारिता समाप्त हो गयी।

भारत के संविधान में उच्च न्यायालय
संविधान के अंतर्गत प्रत्येक राज्य की अपनी न्यायपालिका है जो केन्द्र और राज्य दोनों की विधियों को प्रशासित करती है। इसे सोपानिक संरचना में व्यवस्थित किया गया है। राज्य की न्यायपालिका के शीर्ष पर उच्च न्यायालय है जो राज्य में दीवानी और फौजदारी मामलों के लिए अपील और पुनरीक्षण का सर्वोच्च न्यायालय है। इसे अधीनस्थ न्यायपालिका के ऊपर प्रशासनिक और न्यायिक दोनों ही प्रकार की विस्तृत शक्तियाँ प्राप्त हैं। भारत के वर्तमान संविधान में उच्च न्यायालयों के विषय में बहुत से प्रावधान हैं, उनकी संपूर्ण व्याख्या यहां नहीं की जा रही है क्योंकि यह विषय मुख्य रूप से संवैधानिक विधि के क्षेत्र में आता है। फिर भी उच्च न्यायालय का एक सामान्य परिचय यहां दिया जा रहा है।
संविधान ने सभी विद्यमान उच्च न्यायालयों को पुनर्गठित किया। इसने प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय का प्रावधान किया। संसद को दो या अधिक राज्यों अथवा केंद्र शासित प्रदेशों के लिए एक उच्च न्यायालय की स्थापना की शक्ति दी गयी है। उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय है तथा यह अपनी अवमानना के लिए दंड दे सकता है। यह किसी भी न्यायालय या प्राधिकरण के प्रशासनिक अधीक्षण में नहीं है, हालांकि इसके निर्णयों की अपीलें उच्चतम न्यायालय में की जा सकती हैं। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा राष्ट्रपति द्वारा स्वीकृत संख्या में अन्य न्यायाधीश होते हैं। इस समय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 95 है।
मुख्य न्यायाधीश न्यायालय के प्रशासनिक कार्य का प्रभारी होता है तथा वह अपने साथी न्यायाधीशों में न्यायिक कार्य का वितरण करता है। उसके अपने न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में उसकी सलाह भी ली जाती है। किन्तु न्यायालय में न्यायिक कार्य के सम्पादन में उसका स्तर किसी अन्य न्यायाधीश से ऊँचा नहीं होता है तथा विशेष अपील में किन्हीं अन्य दो न्यायाधीशों द्वारा उसके निर्णय को उलटा जा सकता है। साथ ही यदि वह तीन न्यायाधीशों की न्यायपीठ में विद्यमान हो तो उसके शेष दोनों साथियों द्वारा बहुमत से उसके निर्णय के विरूद्ध व्यवस्था दी जा सकती है। उसका किसी अन्य न्यायाधीश पर कोई प्रशासनिक नियंत्रण नहीं होता है तथा उसकी स्थिति को ‘समानों में प्रथम’ ( Primus inter pares) कहा जा सकता है।
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति हेतु व्यक्ति को अनिवार्यत: भारत का नागरिक होना चाहिए तथा उसे किसी न्यायिक पद पर कम से कम दस वर्ष का अनुभव होना चाहिए या कम से कम दस वर्ष तक लगातार उच्च न्यायालय में वकालत का अनुभव होना चाहिए। इस प्रावधान की तुलना पूर्व में भारत शासन अधिनियम, 1935 में प्रतिपादित योग्यताओं से करने पर कई परिवर्तन दृष्टिगत होते हैं। अब एक बैरिस्टर उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए स्वत: अर्ह नहीं है। वह उच्च न्यायालय में तभी नियुक्त हो सकता है जबकि वह कम से कम दस वर्ष से किसी उच्च न्यायालय में वकालत कर रहा हो या कम से कम दस वर्ष किसी न्यायिक पद पर कार्यरत रह चुका हो। न्यायिक सेवा के किसी व्यक्ति के उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति की पात्रता के लिए आवश्यक सेवा अवधि पॉंच वर्ष से बढ़ाकर दस वर्ष कर दी गयी है। एक सिविल सेवक अब उच्च न्यायालय में तभी नियुक्त किया जा सकता है जब उसने दस वर्ष तक कोई न्यायिक पद धारण किया हो जबकि इससे पहले तीन वर्ष तक जिला न्यायाधीश के रूप में कार्य करने वाला कोई सिविल सेवक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने का पात्र हो जाता था। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश, संबंधित राज्य के राज्यपाल तथा उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह-मशविरे के बाद की जाती है।
उच्च न्यायालयों की सत्यनिष्ठा को सुरक्षित रखने के लिए तथा उन्हें कार्यपालिका के नियंत्रण से स्वतंत्र रखने के लिए संविधान में बहुत से प्रावधान किये गये हैं ताकि वे अपने न्यायिक कार्यो का संपादन भय और पक्षपात से रहित होकर कर सकें। न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है तथा वे बासठ वर्ष की आयु पूरी होने पर सेवानिवृत्त होते हैं। इससे पहले उन्हें केवल उस स्थिति में हटाया जा सकता है जब संसद का प्रत्येक सदन अपनी कुल सदस्य संख्या के बहुमत से तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों की कुल संख्या के कम से कम दो तिहाई बहुमत से इस आशय का प्रस्ताव उनके साबित कदाचरण या अक्षमता के आधार पर पारित करें। यह प्रावधान उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को कार्यकाल संबंधी वही सुरक्षा देता है जो इंग्लैंड के न्यायाधीशों को प्राप्त है । यह मौलिक प्रावधान है क्योंकि 1935 के भारत- शासन अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नहीं था। राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद ही किसी न्यायाधीश को एक उच्च न्यायालय से दूसरे में स्थानान्तरित कर सकता है। न्यायाधीशों के वेतन संविधान की दूसरी अनुसूची में वर्णित हैं और इस कारण वश संविधान-संशोधन के बिना नहीं बदले जा सकते हैं। किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के भत्तों, अवकाश तथा पेंशन में उसकी नियुक्ति के बाद उसके लिए अलाभकर कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। किसी न्यायाधीश को पदच्युत करने के लिए लाए गये पूर्ववर्णित प्रस्ताव की सुनवायी के अलावा और किसी स्थिति में किसी केंद्रीय या राज्य की विधायिका में उसके कार्य निष्पादन संबंधी आचरण के बारे में चर्चा नहीं की जा सकती है। यह प्रतिबंध उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को स्थानीय राजनीतिक दबावों से सुरक्षित करता है।उच्च न्यायालय के व्यय, उस राज्य की समेकित निधि पर भारित होते हैं।
भारत के संविधान द्वारा उच्च न्यायालयों की अधिकारिता, उनमें प्रशासित विधि और न्यायालय के नियम बनाने की उनकी शक्तियों को उसी रूप में जारी रखा गया है जैसी वे संविधान के लागू होने के ठीक पहले थीं। उच्च न्यायालय की यह अधिकारिता और शक्ति भारतीय संविधान के तथा उपयुक्त विधायिका द्वारा निर्मित विधि के प्रावधानों के अधीन है। संविधान के द्वारा ऐतिहासिक सततता को कायम रखने के लिए यह यथास्थिति बनाए रखी गयी है (अनुच्छेद 225) । संविधान के लागू होने के अवसर पर प्रशासित विधि में निर्णयज-विधि भी शामिल है। इसलिए विशेष रूप से यह प्रावधान भी किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत के सभी न्यायालयों के लिए बाध्यकारी होगी। अत: विधिक स्थिति यह है कि प्रिवी काउंसिल एवं संघीय न्यायालय के निर्णय उच्च न्यायालयों के लिए तब तक बाध्यकारी है जब तक कि उच्चतम न्यायालय उनके विपरीत निर्णय न दे।
भारत शासन अधिनियम 1935 की धारा 226 (1) में राजस्व संबंधी किसी भी मामले में उच्च न्यायालय की आरंभिक अधिकारिता को वर्जित किया गया था। यह वर्जना मूल संविधान के अनुच्छेद 225 के परन्तुक द्वारा समाप्त कर दी गयी थी। संविधान (42वॉं संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा उक्त परन्तुक का विलोपन कर दिया गया था परन्तु संविधान (44वॉं) संशोधन अधिनियम 1978 की धारा 29 के जरिये उक्त परन्तुक को पुन: स्थापित कर दिया गया है जो दिनांक 20-6-79 से लागू हो गया है। इस प्रकार अब उच्च न्यायालय को राजस्व संबंधी मामले में भी आरंभिक अधिकारिता प्राप्त है।
संविधान के अति महत्वपूर्ण अनुच्छेद 226 के जरिए उच्च न्यायालयों की अधिकारिता में एक नवीन तत्व का समावेश किया गया जो उच्च न्यायालय के निर्देश, आदेश या समादेश - बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा और उत्प्रेषण के रूप में हो सकते हैं जिन्हें मूल अधिकारों के प्रवर्तन या किसी अन्य उद्देश्य से जारी किया जाता है। यह उच्च न्यायालय की शक्तियों में उल्लेखनीय वृद्धि है। संविधान-पूर्व युग में समादेश अधिकारिता के संबंध में उच्च न्यायालयों की समान शक्तियां नहीं थीं। मुख्यत: ऐतिहासिक कारणों के चलते विभिन्न उच्च न्यायालयों में कृत्रिम और पक्षपातपूर्ण विभेद थे। इस प्रकार नये संविधान की पूर्व संध्या पर समादेश अधिकारिता के संबंध में उच्च न्यायालयों की स्थितियां भिन्न-भिन्न थीं। प्रत्येक उच्च न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 491 के अंतर्गत बंदी प्रत्यक्षीकरण का समादेश जारी कर सकता था जो इसकी अधिकारिता के संपूर्ण क्षेत्र में लागू होता था। कलकत्ता,मद्रास और बंबई के उच्च न्यायालयों में से प्रत्येक के पास उसकी सामान्य आरंभिक सिविल अधिकारिता की सीमाओं के अंतर्गत अन्य समादेश जारी करने का प्राधिकार था लेकिन कोई अन्य उच्च न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण के अलावा कोई और समादेश जारी नहीं कर सकता था। नये संविधान द्वारा सभी उच्च न्यायालयों के साथ समान व्यवहार किया गया तथा अब प्रत्येक उच्च न्यायालय के पास समादेश अधिकारिता है जो उसकी समग्र क्षेत्रीय अधिकारिता के सहवर्ती है।
मूल रूप में अनुच्छेद 226 का शब्द विन्यास काफी विस्तृत था किन्तु संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के द्वारा समादेश अधिकारिता के मामले में उच्च न्यायालय की शक्तियों पर शक्तिशाली प्रतिबंध आरोपित कर दिये गये थे। किंतु उक्त संशोधनों में से अधिकांश को संविधान के 43वें एवं 44वें संशोधन द्वारा समाप्त कर दिया गया है। उच्च न्यायालय की एक पक्षीय व्यादेश एवं स्थगनादेश जारी करने की शक्ति में जो कटौती 42वें संशोधन द्वारा की गयी थी उसे भी संविधान के 44वें संशोधन द्वारा इस प्रावधान के साथ निरस्त कर दिया गया है कि एक पक्षीय व्यादेश एवं स्थगनादेश जारी होने की दशा में विपक्षी को न्यायालय में उपस्थित होकर उक्त व्यादेश/स्थगनादेश को अपास्त करने का प्रार्थना पत्र देने का अधिकार होगा तथा ऐसा प्रार्थना पत्र आने पर न्यायालय को उसका निस्तारण 15 दिन में करना होगा वरना स्थगनादेश/व्यादेश स्वतः समाप्त हो जायेगा।
प्रत्येक उच्च न्यायालय को उसकी अपीली अधिकारिता से संबद्ध सभी न्‍यायालयों के अधीक्षण की शक्ति दी गयी है। (अनुच्छेद 227) । अपनी अधीक्षण शक्ति के अंतर्गत उच्च न्यायालय ऐसे न्यायालयों से विवरणियाँ मंगा सकता है, सामान्य नियम बना कर जारी कर सकता है, ऐसे न्यायालयों के चलन और कार्यवाहियों को नियमित करने की विधाएं निर्धारित कर सकता है तथा ऐसे तरीके निर्धारित कर सकता है जिनसे पुस्तकों प्रविष्टियों और खातों को दुरुस्त रखा जाय। मूल संविधान में अनुच्छेद 227 इस प्रकार निर्मित किया गया था जिससे उच्च न्यायालय अपनी अधीक्षण अधिकारिता का प्रयोग न केवल अपने क्षेत्र में आने वाले अधीनस्थ न्यायालयों पर, बल्कि कानूनी या अर्ध न्यायिक अधिकरणों पर करने में समर्थ हो सके जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि ये सभी अधीनस्थ संस्थाएं उन्हें प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग ‘अपने प्राधिकार की सीमा के भीतर’ तथा ‘विधिक तरीके से’ करें।
अनुच्छेद 228 उच्च न्यायालय को यह शक्ति देता है कि वह अधीनस्थ न्यायालयों में विचाराधीन किसी मामले को अपने पास मंगा सकता है जब वह संतुष्ट हो जाये कि उक्त मामला संविधान की व्याख्या से संबंधित किसी सारभूत विधिक प्रश्न को समाहित किये हुए है। तत्पश्चात उच्च न्यायालय ऐसे मामले का स्वयं निबटारा कर सकता है या विधिक प्रश्न को निर्णीत करने के उपरांत इसे पुन: पूर्व न्यायालय को लौटा सकता है जिससे वहॉं उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप मामले का निपटारा हो सके।
अनुच्छेद 229 में उच्च न्यायालयों के अधिकारियों और सेवकों की नियुक्ति संबंधी प्रावधान है। ऐसी नियुक्तियों के बारे में मुख्य न्यायाधीश को विस्तृत शक्तियां दी गयी हैं। इस अनुच्छेद का उद~देश्य उच्च न्यायालय को अपने कर्मचारी वर्ग पर पूर्ण नियंत्रण प्रदान करना है जिसका सीमा-निर्धारण केवल स्वयं उक्त अनुच्छेद द्वारा ही किया गया है ताकि न्यायपालिका की स्वतंत्रता तथा सरकारी हस्तक्षेप से इसका मुक्त रहना सुनिश्चित हो सके। उक्त अनुच्छेद का परंतुक मुख्य न्यायाधीश की उच्च न्यायालय के अधिकारियों और सेवकों की नियुक्ति संबंधी शक्ति को सीमित करता है। साधारणत: उसे इन नियुक्तियों के संबंध में लोक सेवा आयोग से परामर्श करने की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन यदि राज्यपाल किन्हीं मामलों को विनिर्दिष्ट करते हुए कोई नियम बना दे तो मुख्य न्यायाधीश को इन विनिर्दिष्ट पदों पर नियुक्तियां करने से पहले लोक सेवा आयोग से परामर्श करना पड़ेगा। तथापि किसी पद विशेष के सृजन के विषय में वित्तीय सहमति देते समय राज्यपाल पदधारकों को चयनित और नियुक्त करने की मुख्य न्यायाधीश की शक्ति पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा सकता है।
अनुच्छेद 132 के अनुसार उच्च न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश के संबंध में, जो दीवानी, फौजदारी या अन्य कार्यवाहियों से संबंधित हो, अपील उच्चतम न्यायालय में की जाएगी। उच्च न्यायालय यह सत्यापित कर सकता है कि विवादित मामला संविधान की व्याख्या से संबंधित किसी सारभूत विधिक प्रश्न को समाविष्ट करता है। जब कोई उच्च न्यायालय इस आशय का प्रमाण पत्र देने से इंकार कर दे तो उच्चतम न्यायालय अपीलार्थी को अपील की विशेष अनुमति दे सकता है यदि वह संतुष्ट हो जाय कि विचारित मामले में कोई सारभूत विधिक प्रश्न समाविष्ट है। जहां ऐसा प्रमाण पत्र उच्च न्यायालय द्वारा दिया जाता है या उच्चतम न्यायालय अनुमति प्रदान करता है, कोई भी पक्ष उक्त निर्णय के विरोध में उच्चतम न्यायालय में अपील कर सकता है।
दीवानी मामलों में सुप्रीम कोर्ट में की गयी अपील अनुच्छेद 133 के अंतर्गत होगी जो उच्च न्यायालय के निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश के विरूद्ध होगी। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 136 के अंतर्गत विशेष अनुमति से तथा अनुच्छेद 132 के अंतर्गत संवैधानिक आधार पर भी ऐसी अपीलें दायर होंगी। अपील हेतु उच्च न्यायालय को यह प्रमाणित करना होगा कि विचारित मामले में सामान्य महत्व का कोई सारभूत विधिक प्रश्न निहित है तथा उच्च न्यायालय की राय में उस प्रश्न का निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा होना चाहिए। वादों के मूल्यांकन के आधार पर उच्चतम न्यायालय में अपील के अधिकार को संविधान (30वॉं संशोधन) अधिनियम 1972 द्वारा विलुप्त कर दिया गया है। फौजदारी मामलों में सुप्रीम कोर्ट में तभी अपील हो सकती है जब – (अ) उच्च न्यायालय ने अपील के बाद किसी अभियुक्त की दोष मुक्ति के आदेश को उलट दिया है तथा उसे मृत्यु दंड दे दिया है। (ब) उच्च न्यायालय ने किसी मामले को अधीनस्थ न्यायालय से अपने पास विचारण हेतु मँगा लिया है और अभियुक्त को दोषी पाकर उसे मृत्यु दंड दे दिया है। (स) उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर देता है कि निर्णीत मामला उच्चतम न्यायालय में अपील के लिए उपयुक्त है।
भारत के संविधान ने उच्च न्यायालयों को न्यायिक प्रशासन, कनिष्ठ न्यायालयों द्वारा न्याय के संवर्द्धन, अन्याय होने की दशा में त्वरित कदम उठाने, लोगों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की सुरक्षा करने तथा यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रशासन विधि की सीमाओं के अंतर्गत ही कार्य करें, महत्वपूर्ण और प्रभावशाली शक्तियां प्रदान की हैं। इस प्रकार आधुनिक न्याय-व्यवस्था में उच्च न्यायालय को सम्मानपूर्ण गरिमामय एवं अधिकारिता आयुक्त उच्च स्थिति प्राप्त है।

भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख


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19 दिसम्बर - बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां और रोशन सिंह शहीदी दिवस



आज ही के दिन 19 दिसंबर 1927 को काकोरी कांड को अंजाम देने वाले देश के तीन वीर सपूतों को अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया था। आज ही के दिन ये दिनों देश की आजादी को समर्पित हो गए थे। रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खान और ठाकुर रौशन सिंह को लखनऊ के पास काकोरी में ट्रेन लूटने के आरोप में अंग्रजों ने फांसी की सजा दे दी थी।

काकोरी कांड- काकोरी कांड स्वतंत्रता संग्राम की एक स्वर्णिम घटनाओं में से एक है । 9 अगस्त 1925 को रामप्रसाद बिस्मिल सहित करीब 10 क्रान्तिकारियों ने ट्रेन लूटने की योजना बनाई थी। काकोरी रेलवे स्टेशन से जैसे ही ट्रेन थोड़ा आगे बढ़ी, बिस्मिल ने चेन खींच कर ट्रेन रोक दी। इसमें रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्लाह खान, ठाकुर रौशन सिंह और चन्द्र शेखर आजाद भी शामिल थे, जिन्होंने ट्रेन के इंजन और उसके ड्राइवर को कब्जे में कर रखा था। क्रांतिकारियों ने ट्रेन से 8000 रूपए की चोरी की थी। इस घटना के बाद इससे सम्बंधित क्रांतिकारियों को पकडने के लिए अंग्रेजों ने 50 लोगों को गिरफ्तार किया। डेढ़ साल मुकदमा चलने के बाद अशफाक उल्लाह खान, राम प्रसाद बिस्मिल और राजेंद्र नाथ लिहाड़ी को फांसी की सजा दे दी गई।
रामप्रसाद बिस्मिल- राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को यूपी के शाहजहांपुर में हुआ था। बिस्मिल भारत के महान क्रान्तिकारी, अग्रणी स्वतन्त्रता सेनानी व उच्च कोटि के कवि, शायर, अनुवादक, बहुभाषाभाषी, इतिहासकार व साहित्यकार थे। उन्होंने हिन्दुस्तान की आजादी के लिये अपने प्राणों की आहुति दे दी। बिस्मिल को काकोरी कांड में अंग्रेजों ने 19 दिसंबर 1927 को फांसी की सजा दे दी।
अशफाक उल्लाह खान- इनका जन्म शाहजहांपुर के एक पठान परिवार में 22 अक्टूबर 1900 को हुआ था । अशफाक और बिस्मिल दोनों बेहद घनिष्ठ मित्र थे। दोनों ने ही हिन्दी और उर्दू में देस भक्ति का कई कविताएं और शायरी लिखी हैं। इन्होंने बिस्मिल के साथ मिल कर 1925 में काकोरी कांड को अजांम दिया, जिसके चलते इन्हें 19 दिसंबर 1927 को बिस्मिल के साथ फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया ।
रौशन सिंह- ठाकुर रौशन सिंह का जन्म यूपी के शाहजहांपुर में एक ठाकुर परिवार में हुआ था। काकोरी कांड में रौशन सिंह ने बिस्मिल का साथ दिया था । जिसके चलते इनको भी बिस्मिल और अशफाक उल्लाह खान के साथ 19 दिसंबर को फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिया गया ।











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दर्द-ए-पेशावर : 32 लोगों की मौत



  • सेक्युलर रुदालियाँ आज हैरान है कि रोये तो किसके लिए ?
  • अभी अभी गगन भेदी आकाशवाणी हुई, आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता
  • 26/11 और 16/12, तब धरती हमारी थी हथियार तुम्हारे थे, आज धरती भी तुम्हारी है हथियार भी तुम्हारे है, हमे दुख कल भी था आज भी है
  • मैंने मारे खुदा के बन्दे यूँ ही क्योंकि खुदा उनको मुस्कराने वजह देता है..
  • ख़ुदा गज़ब तेरे कारनामे कि आज काफ़िर भी मुसलमानों के बच्चों के लिए रो रहे है..
  • मैं बड़ा होकर सभी आतंकवादियों को मार दूंगा। उन्होंने मेरे भाई को मार डाला। मैं उन्हें बख्शूंगा नहीं, एक-एक को मार डालूंगा।
  • मेरे बेटे को नकली बंदूक से भी डर लगता था, असली बंदूक देखकर उस पर क्या गुजरी होगी।
  • मैं बड़ा होकर सभी आतंकवादियों को मार दूंगा। उन्होंने मेरे भाई को मार डाला। मैं उन्हें बख्शूंगा नहीं, एक-एक को मार डालूंगा।
  • एक बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा करने में 20 साल लगते हैं, उन्हें मारने में दो सेकंड्स भी नहीं लगे।


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Mantra For Successful Visit



Many times people have visit for business tour or for an auspicious tour, but they have faced many problem and disaster. I mean to say that they didn't get the desire success into their visit.


shree_ram

If you can accomplish a successful visit then try a simple and effective mantra; chant the given mantra before start the visit to get success.

I think... You are thinking about my superstitious; but it isn't.

This mantra has taken from Ramcharit-Manas; where Lord Hanuman enters in the Lanka with saluted the Lord Rama. And he gets success in all the works.

Therefore if you going for a visit or tour then must chanting this given mantra before starting the tour.

Mantra is as follows –

Prabisi Nagar Keejai Sab Kaaja 
Hriday Rakhi Kosalpur Raaja 
प्रबिसि नगर कीजै सब काजा 
ह्रदय राखी कोसलपुर राजा 

It has to be chanted every time when you go for a visit; you will defiantly get success in that work is you need. Chanting with full dedication in lord Hanuman and Lord Rama to gets desire success.


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Mantra for Success in Court Case



If you are troubling with any lawsuits or court case then try this powerful mantra of lord Hanuman. Lord hanuman is the monkey god; he is the 11TH Rudra Avatar of Lord Shiva.
Hanuman can do any task in the world with ease; he has the boundless power to do anything. If you worship of lord hanuman with full dedication and holy mind then there is no doubt to get rid from any problem with ease.

hanumant

Tulsidas ji (The Writer of RamCharit-Manas) has been given lovely description of lord hanuman.

Durgam Kaaj Jagat Ke Jete | 
Sugam Anugrah Tumhare Tete || 

Kawan So Kaaj Kathin Jag Maahi | 
Jo Nahi Hoi Tat Tumh Paai ||

Meaning - Any work is done very ease by your grace which is very hard for anyone in the world. And you can do anything (any tasks) when you think about that.

Therefore if anyone chanting these given mantra of lord hanuman, he will definitely get success in any false claims as well as court cases.

Mantra is as follows –

Pavan Tanay Bal Pavan Samanaa | 
Buddhi Bibek Bigyan Nidhanaa ||

पवन तनय बल पवन समाना | 
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ||

How To Chant – Before chanting you have to take a bath and wear fresh & holy clothes; then sit in front of lord hanuman with full dedication.

It has to be chanted or recited 108 times in a day or 21 times on prayer time (Morning & Evening) to get rid from any crisis and problems; you will get a peaceful and happiness life by god graces.



अदालत में मुकदमा जीतने का अचूक मंत्र
तंत्र विद्या से तामसिक प्रवृत्तियों वाले व्यक्तियों को दूर रहने की सलाह दी गई है। जो लोग सात्विकता के साथ इन्हें आजमाते हैं उन्हें यह अवश्य लाभ प्रदान करती है। कुछ मंत्र स्वयं की रक्षा के लिए वर्णित हैं, तो कुछ मंत्र आकर्षण शक्ति बढ़ाने के लिए। प्रस्तुत है अदालत में मुकदमा जीतने का अचूक मंत्र-
ॐ क्रां क्रां क्रां धूम्रसारी बदाक्षं विजयति जयति ओं स्वाहा।

प्रयोग विधि- जिस त्रयोदशी को पुनर्वसु नक्षत्र पड़े तब सुरही के चर्मासन पर किसी सरिता के निकट मूंगे की माला जपें तो यह मंत्र सिद्धि हो और जब प्रयोग करना हो तो 7 बार मंत्र पढ़ हाकिम के सन्मुख जाने से मुकदमे में विजय अवश्य प्राप्त होती है।

मुकदमा जीतने के ज्योतिषीय उपाय
  1. सुनवाई के लिए जाते समय अपने साथ मुट्ठी भर चावल लेकर जाएँ और उन्हें कचहरी में कहीं फेंक दें, जिस कक्ष में सुनवाई हो रही हो, वहाँ चावल फेंका जाए तो और भी अच्छा है। ध्यान रखें ऐसा करते समय कोई देखे नहीं.
  2. सूर्योदय से पहले काले चावल के 11 दाने लेकर उसे बीज मंत्र ‘क्रीं’ का 21 बार जाप करें तथा उसे दक्षिण दिशा में फेंक दें।
  3. मुट्ठी भर तिल में शहद मिलाकर रख लें तथा उसे किसी उजाड़ स्थान पर रख आए, ध्यान रखें पीछे मुड़कर नहीं देखना है।
  4. कचहरी जाते समय काली मिर्च के तीन साबुत दानों को शक्कर के साथ मिलाकर मुंह में रख लें।
  5. किसी सफेद रुमाल में थोड़ा सा कोयला बांधकर रख लें और उसे किसी सुनसान स्थान पर रख आएँ। घर वापस आकार हाथ पैर धो लें| यह कार्य मास में एक दिन 6 महीने तक लगातार करना चाहिए।
  6. सात मुखी पंचमुखी अथवा अथवा ग्यारह मुखी रुद्राक्ष धारण करें।
  7. कचहरी जाते समय पाँच गोमती चक्र जेब में रख लें।
  8. शुक्ल पक्ष के मंगलवार को हनुमान मंदिर में पीतल की घंटी चढ़ाएँ तथा प्रार्थना करें।
  9. यदि आपका धैर्य जवाब दे गया हो, गवाह के मुकरने की आशंका हो अथवा अपने वकील की योग्यता संदिग्ध लगे तो कचहरी जाते समय अपने साथ हत्था जोड़ी लेकर जाए।
  10. मुकदमे में सफलता प्राप्त करने के लिए अपने केस की पैरवी कर रहे वकील को कलम उपहार में दें।
  11. कचहरी जाते समय लाल कनेर के फूल को पीसकर उससे तिलक लगाएँ।
  12. नीबू के चारों कोनो पर चार लौंग गाड़ दें, अपने इष्ट देव से मुकदमे में सफलता हेतु प्रार्थना करें तथा उस नीबू को कचहरी जाते समय अपने साथ रखें।
  13. लाल तिकोना मूंगा सोने अथवा तांबे में अंगुठी बनवाकर अपनी सबसे छोटी उंगली में पहनें।
  14. अपने केस से जुड़े कागजात घर के मंदिर में ही रखें।
  15. पहली बार कचहरी से लौटते समय किसी मजार पर लाल गुलाब अर्पित करते हुए मन ही मन केस में सफलता दिलाने की प्रार्थना करें।
  16. कचहरी जाते समय गहरे रंग की पोशाक पहने।
  17. किसी मंदिर में 11 हकीक के पत्थर चढ़ाएँ तथा प्रार्थना करें।
  18. भोजपत्र पर जिस व्यक्ति से मुकदमा लड़ रहे हों उसका नाम रक्त चन्दन से लिखें और शहद की शीशी में डुबाकर रख दें. इस टोटके से शत्रु का हृदय परिवर्तन हो जाता है।
  19. घर के पूजा स्थल में सिद्धि विनायक पिरामिड स्थापित करें व प्रत्येक बुधवार को •‘ गं गणपतये नमो नमः’ मंत्र का नियमित रूप से जाप करें. कचहरी जाते समय पिरामिड को लाल कपड़े में लपेटकर अपने साथ रखे।
  20. यदि पराजय की संभावना निश्चित प्रतीत हो रही हो तो अपने वजन के बराबर कोयला बहते हुए पानी में बहाकर, ईश्वर से पिछले जन्म के पापपूर्ण कर्मो के लिए क्षमा प्रार्थना करें।
  21. दो दुकानों से 43-43 फल खरीदें तथा कुंवारी कन्याओं में बराबर-बराबर बाँट दें।
  22. जंग लगा चाकू जल में प्रवाहित करें।
  23. पाव भर मसूर की दाल रात को सोते समय अपने सिरहाने रखें, सुबह उसे जमादार को दे दें।
मुकदमा जीतने के लिए मंत्र तथा पाठ
यदि आपका मुकदमा लंबे समय से अटका हुआ हो, तो गणेश जी के निम्नलिखित मंत्र का जाप 21 दिनों तक करें –
  1. •“ॐ गं गणपतये नम:’*मंत्र जाप से पूर्व 21 दूब चढ़ाकर पंचोपचार विधि से पूजन करें। आसन लाल रंग का उपयोग करें।. मुकदमे में फैसला जल्द और आपके पक्ष में होगा
  2. निरंतर छह महीनों तक संकटमोचन गणेश स्तोत्र का नित्य तीन बार पाठ करें। पुनः छह माह के उपरांत यह स्तोत्र लिखकर आठ ब्राम्मणों को दान करें. मुकदमे आ रही सभी बिघ्न बाधाएँ दूर हो जाएंगी।
  3. “दीनदयाल बिरदु संभारी, हरहू नाथ मम संकट भारी” तुलसीदास द्वारा रचित रामायण के सुंदरकांड का यह दोहा चमत्कारी है। 108 बार निरंतर 3 माह तक इसके पाठ से मुकदमे में अवश्य सफलता मिलती है।
  4. मंगलवार के दिन हनुमान जी के सम्मुख घी का दीया लगाकर उन्हें गुड चने का भोग लगाए तथा सौ बार हनुमान चालीसा का पाठ करें। ऐसा निरंतर सात मंगलवार तक करने से लंबे समय से अटका मुकदमा समाप्त हो जाता है।
  5. त्रियोदशी के पुनर्वसु नक्षत्र में सुरही के चर्म निर्मित आश्रम पर किसी नदी तट पर निम्नलिखित मंत्र का जाप प्रारम्भ करें।
  6. ॐ क्रां क्रां क्रां धूम्रसारी बदाक्षं विजयति जयति ओं स्वाहा. एक मास तक निरंतर जाप करने से यह मंत्र सिद्ध हो जाता है. सुनवाई के दिन इस मंत्र को सात बार पढ़कर कचहरी जाए, मुकदमे में जीत निश्चित है।
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Lord Shiva Sadhana In Shravan Maas (Shiva Pooja In Sawan Month)



Sharavan Maas also called as Sawan Month; it is the Hindu calendar (The most ancient calendar of the world) month, has used in India since ancient times. According to Gregorian calendar this month comes in between July to August months.

Shiva

Lord Shiva is the one of the prime deity among the trinity and also called as The Destroyer. Worship of the Shiva to get a significant grace and peaceful life.

According to puranas, Sawan month is very dear to lord Shiva and devotees of Shiva. Shiva worship in the month of Shravan has a special significance, one who gets the special grace of Lord Shiva, is worshiped Shiva by ritual method of worshiping in this month.

In this holy month of lord shiva, the worship should be beginning with anointed him from milk, water and flowers of Aak (Calotropis) & Datura (Dhatura). And Shiva devotees should also worshiped him by leaves of bael tree (Bilva-Patra) with full dedication.

Mantra To Water Abhishek (Anointing) of Lord Shiva -

Jal Dhaare-Shivam Archet Kailaash Vasate-Dhuvam |
Muchyate-Sarva Baandhamyo-Naatra Karya Vicharnaa ||

भगवान शिव के जल चढाने का मंत्र -

जल धारेशिवम् अरचेत कैलाश वसतेधुवंम् |
मुच्यतेसर्व बांधाम्योनात्र कार्य विचारणा || 

Mantras to worship of Lord Shiva by leaves of Bael Tree 
(Bilva-Patra)

Kaashivasi Nivaasi Cha, Kaal Bhairava Poojanam |
Prayaag-Maagh Maase Cha Bilwa-Patram Shivar-apanam ||1||

Darshanam Bilva-Patrasya Sparshanam Paap Nashanam |
Aghor Paap Sanharam Bilwa-Patram Shivar-apanam ||2||

Tridalam Trigunaakaaram Trinetram Va Tridha Yuddham |
Trijanma Paap Sanhaaram Bilwa-Patram Shivar-apanam ||3||

Akhande Bilva Patre-Ashcha Poojaye Shiva Shankaram |
Koti Kanya Mahadaanam Bilwa-Patram Shivar-apanam ||4|| 

भगवान शंकर के बिल्व पत्र चढाने के मंत्र: -

काशीवासी निवासी च काल भैरव पूजनं | 
प्रयागेमाघ मासेच बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||1|| 

दर्शनं बिल्वपत्रस्य स्पर्शनं पापनाशनम् | 
अघोर पाप संहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||2|| 

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं व त्रिधा युद्धं | 
त्रिजन्म पाप संहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||3|| 

अखण्डे बिल्व पत्रेश्च पुजयेशिव शंकरम् | 
कोटि कन्या महादानं बिल्वपत्रं शिवार्पणम् ||4|| 

You can recite or chant any hymn of Shiva or “Ohm Namah Shivay” After anointed or worship of lord Shiva by water and Bilwa-Patra, because Lord Shiva is the Omkar and shapeless; he is the supreme power of universe.  

Beautiful Shiva Hymn with Om Namah: Shivay: – 

Om Namah Shivay, Om Namah Shivay |
Har Har Bhole Namah Shivay ||

Jataadharaay Shiva Jataadharaay | 
Har Har Bhole Namah Shivay || 

Chandradharaay Shiva Chandradharay | 
Har Har Bhole Namah Shivay || 

Nagendraay Shiva Nagendraay | 
Har Har Bhole Namah Shivay || 

Someshwaraay Shiva Someshwaraay | 
Har Har Bhole Namah Shivay || 

Gangadharaay Shiva Gangadharaay | 
Har Har Bhole Namah Shivay || 

Nandishwaraay Shiva Nandishwaraay | 
Har Har Bhole Namah Shivay ||

Om Namah Shivay, Om Namah Shivay | 
Har Har Bhole Namah Shivay || 

ओम् नमः शिवाय, ओम् नमः शिवाय | 
हर हर भोले नमः शिवाय || 

जटाधराय शिव जटाधराय | 
हर हर भोले नमः शिवाय ||

चंद्राधराय शिव चंद्राधराय | 
हर हर भोले नमः शिवाय ||

नागेन्द्राय शिव नागेन्द्राय | 
हर हर भोले नमः शिवाय || 

सोमेश्वराय शिव सोमेश्वराय |
हर हर भोले नमः शिवाय || 

गंगाधराय शिव गंगाधराय | 
हर हर भोले नमः शिवाय || 

नन्दीश्वराय शिव नन्दीश्वराय | 
हर हर भोले नमः शिवाय || 

ओम् नमः शिवाय, ओम् नमः शिवाय | 
हर हर भोले नमः शिवाय || 

How To Chant – This Mantras and Hymn has to be chanted or recited every day of this holy saawan month, or even you can recite these mantras on every Monday of this month. The Shiva is very happy from worshiped by his devotees in this month. You can also chanting Shiva Raksha Stotram on prayer time to get the bless of Shiva.


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Dwadash Jyotirlinga Strotram (In Hindi)



A Jyotirlinga or Jyotirling or Jyotirlingam is a devotional Ling (mark) representing the god Shiva. The word jyotirlinga made by two words, Jyoti means 'radiance or shine' and lingam the 'mark or sign' of Shiva.
Jyotirlingam, means the Radiant sign of The Almighty power. There are twelve traditional Jyotirlinga temples in India.
This hymn (stotra) is recite or chanting to worship of those 12 jyotirlinga of lord shiva; The Dwadash Jyotirlingam Stotra is as follows –

Shree 12 Jyotirlinga Stotram In Hindi

सौराष्ट्रदेशे विशदेsतिरम्ये ज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम ।
भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णं तं सोमनाथं शरणं प्रपद्ये ।।1।।
अर्थ – जो शिव अपनी भक्ति प्रदान करने के लिए सौराष्ट्र प्रदेश में दया पूर्वक अवतरित हुए हैं, चंद्रमा जिनके मस्तक का आभूषण बना है, उन ज्योतिर्लिंग स्वरूप भगवान श्री सोमनाथ की शरण में मैं जाता हूँ

श्रीशैलश्रृंगे विबुधातिसंगेतुलाद्रितुंगेsपि मुदा वसन्तम ।
तमर्जुनं मल्लिकापूर्वमेकं नमामि संसारसमुद्रसेतुम ।।2।।
अर्थ – जो ऊँचाई के आदर्श भूत पर्वतों से भी बढ़कर ऊँचे श्री शैल के शिखर पर, जहाँ देवताओं का अत्यन्त समागम रहता है, प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं तथा जो संसार-सागर से पार कराने के लिए पुल के समान है, उन एकमात्र प्रभु मल्लिकार्जुन को मैं नमस्कार करता हूँ।

अवन्तिकायां विहितावतारंमुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम ।
अकालमृत्यो: परिरक्षणार्थं वन्दे महाकालमहासुरेशम ।।3।।
अर्थ – संत जनो को मोक्ष देने के लिए जिन्होंने अवन्तिपुरी (वर्तमान में उज्जैन) में अवतार धारण किया है, उन महाकाल नाम से विख्यात महादेव जी को मैं अकाल मृत्यु से बचाने के लिए प्रणाम करता हूँ

कावेरिकानर्मदयो: पवित्रे समागमे सज्जनतारणाय ।
सदैव मान्धातृपुरे वसन्तमोंकारमीशं शिवमेकमीडे ।।4।।
अर्थ – जो सत्पुरुषों को संसार सागर से पार उतारने के लिए कावेरी और नर्मदा के पवित्र संगम के निकट मान्धाता के पुर में सदा निवास करते हैं, उन अद्वितीय कल्याणमय भगवान ऊँकारेश्वर का मैं स्तवन करता हूँ

पूर्वोत्तरे प्रज्वलिकानिधाने सदा वसन्तं गिरिजासमेतम ।
सुरासुराराधितपादपद्मं श्रीवैद्यनाथं तमहं नमामि ।।5।।
अर्थ – जो पूर्वोत्तर दिशा में चिताभूमि (वर्तमान में वैद्यनाथ धाम) के भीतर सदा ही गिरिजा के साथ वास करते हैं, देवता और असुर जिनके चरण कमलों की आराधना करते हैं, उन श्री वैद्यनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ

याम्ये सदंगे नगरेsतिरम्ये विभूषितांग विविधैश्च भोगै: ।
सद्भक्तिमुक्तिप्रदमीशमेकं श्रीनागनाथं शरणं प्रपद्ये ।।6।।
अर्थ – जो दक्षिण के अत्यन्त रमणीय सदंग नगर में विविध भोगो से संपन्न होकर आभूषणों से भूषित हो रहे हैं, जो एकमात्र सदभक्ति और मुक्ति को देने वाले हैं, उन प्रभु श्रीनागनाथ जी की शरण में मैं जाता हूँ

महाद्रिपार्श्चे च तट रमन्तं सम्पूज्यमानं सततं मुनीन्द्रै: ।
सुरासुरैर्यक्षमहोरगाद्यै: केदारमीशं शिवमेकमीडे ।।7।।
अर्थ – जो महागिरि हिमालय के पास केदारश्रृंग के तट पर सदा निवास करते हुए मुनीश्वरो द्वारा पूजित होते हैं तथा देवता, असुर, यज्ञ और महान सर्प आदि भी जिनकी पूजा करते हैं, उन एक कल्याण कारक भगवान केदारनाथ का मैं स्तवन करता हूँ।

सह्याद्रिशीर्षे विमले वसन्तं गोदावरीतीरपवित्रदेशे ।
यद्दर्शनात्पातकमाशु नाशं प्रयाति तं त्र्यम्बकमीशमीडे ।।8।।
अर्थ – जो गोदावरी तट के पवित्र देश में सह्य पर्वत के विमल शिखर पर वास करते हैं, जिनके दर्शन से तुरन्त ही पातक नष्ट हो जाता है, उन श्री त्र्यम्बकेश्वर का मैं स्तवन करता हूँ

सुताम्रपर्णीजलराशियोगे निबध्य सेतुं विशिखैरसंख्यै: ।
श्रीरामचन्द्रेण समर्पितं तं रामेश्वराख्यं नियतं नमामि ।।9।।
अर्थ – जो भगवान श्री रामचन्द्र जी के द्वारा ताम्रपर्णी और सागर के संगम में अनेक बाणों द्वारा पुल बाँधकर स्थापित किये गए, उन श्री रामेश्वर को मैं नियम से प्रणाम करता हूँ

यं डाकिनीशाकिनिकासमाजे निषेव्यमाणं पिशिताशनैश्च ।
सदैव भीमादिपदप्रसिद्धं तं शंकरं भक्तहितं नमामि ।।10।।
अर्थ – जो डाकिनी और शाकिनी वृन्द में प्रेतों द्वारा सदैव सेवित होते हैं, उन भक्ति हितकारी भगवान भीम शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ

सानन्दमानन्दवने वसन्तमानन्दकन्दं हतपापवृन्दम ।
वाराणसीनाथमनाथनाथं श्रीविश्वनाथं शरणं प्रपद्ये ।।11।।
अर्थ – जो स्वयं आनंद कन्द हैं और आनंदपूर्वक आनन्द वन (वर्तमान में काशी) में वास करते हैं, जो पाप समूह के नाश करने वाले हैं, उन अनाथों के नाथ काशीपति श्री विश्वनाथ की शरण में मैं जाता हूँ

इलापुरे रम्यविशालकेsस्मिन समुल्लसन्तं च जगद्वरेण्यम ।
वन्दे महोदारतरस्वभावं घृष्णे श्वराख्यं शरणं प्रपद्ये ।।12।।
अर्थ – जो इलापुर के सुरम्य मंदिर में विराजमान होकर समस्त जगत के आराधनीय हो रहे हैं, जिनका स्वभाव बड़ा ही उदार है, उन घृष्णेश्वर नामक ज्योतिर्मय भगवान शिव की शरण में मैं जाता हूँ

ज्योतिर्मयद्वादशलिंगानां शिवात्मनां प्रोक्तमिदं क्रमेण ।
स्तोत्रं पठित्वा मनुजोsतिभक्त्या फलं तदालोक्य निजं भजेच्च ।।13।।
अर्थ – यदि मनुष्य क्रमशः कहे गये इन द्वादश ज्योतिर्मय शिव लिंगों के स्तोत्र का भक्ति पूर्वक पाठ करें तो इनके दर्शन से होने वाला फल प्राप्त कर सकता है

बारह ज्योतिर्लिंगों के नाम और स्थान – Twelve Jyotirlingam and Place
  1. सोमनाथ गुजरात
  2. मल्लिकार्जुन आँध्र प्रदेश
  3. महाकालेश्वर मध्य प्रदेश
  4. ऊँकारेश्वर मध्य प्रदेश
  5. केदारनाथ उत्तराखंड
  6. भीमाशंकर महाराष्ट्र
  7. काशी विश्वनाथ उत्तर प्रदेश
  8. त्र्यम्बकेश्वर महाराष्ट्र
  9. वैद्यनाथ धाम झारखंड
  10. नागेश्वर गुजरात
  11. रामेश्वरम तमिलनाडु
  12. घृष्णेश्वर महाराष्ट्र



It is believed that a person will see these lingas with devotion mind and attention, and then he reaches a higher level of spiritual attainment. And also get grace of lord Shiva.

How To Chant – It has to be recited in front of Lord Shiva with holy mind; you can chant this hymn twice in a day.

Shiva Mantras, Dwadash Jyotirling Stotram, All Strotram


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Lord Shiv Shankar Mantra (Mahadev Mantra)



Lord Shiva known as Shankar & Mahadeva is the most popular Hindu deity. He is also known as the Destroyer or the Transformer according to Hindu methodologies & Puranas.
Shiva Yajur Mantra (Karpur Gauram Karunavtaram) is a beautiful ancient Sanskrit mantra related to Lord Shiva. It is found in Yajurveda, and called as Shiva Stuti.
Lord Shiva is the primary deity among the trinity and to everyone's wellness. “Ohm Namah Shivay” is also a prime mantra of lord Shiva. Chanting this mantra you will get desired success.

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Mahadev Mantra

Karpur Gauram Karunavataram, Sansara Saram Bhujagendra Haram |
Sada Vasantam Hridayaaravinde, Bhavam Bhavani Sahitam Namami ||

कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम् |
सदा वसन्तं हृदयारविन्दे भवं भवानि सहितं नमामि ||

Meaning of Mantra -

Karpur Gauram - The one who is as pure/white as a camphor(karpur).
Karunaavatarm - The personification of compassion.
Sansara Saram - The one who is the essence of the world.
Bhujagendra Haram - The one with the serpent king as his garland.
Sada Vasantam - Always residing.
Hridayaaravinde - In the lotus of the heart.
Bhavam Bhavani - Oh Lord and Goddess (Sati/Parvati - Wife of Shiva).
Sahitam Namami - I bow to you both.


How To Chant – You should sit in front of lord Shiva before chanting this mantra and do attention on Shiva and then start the chanting of mantra. This mantra has to be recited or chant 108 times in a day to get desire success or you can chant at-least 54 or 27 times in a day on prayer time. You will get health, wealth and peaceful life by chanting of this lord Shiva mantra.




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आईपीसी (इंडियन पैनल कोड) की धारा 354 में बदलाव



1860 से चले आ रहे कानून भारतीय दंड संहिता अथवा इंडियन पेनल कोड (Indian Penal Code, IPC) की धारा 354 में स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से उस पर हमला या आपराधिक बल प्रयोग करना जैसी वारदातें आती थीं। इसके तहत आरोपी को एक वर्ष के लिए कारावास, जो पांच वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माने की सजा का प्रावधान था. साथ ही यह जमानतीय धारा भी थी। जिसमें आरोपी जमानत पर बाहर आ सकता था। निर्भया केस के बाद सरकार द्वारा बलात्‍कार विरोधी कानून लाया गया जिसे एंटी रेप लॉ कहा गया और इसके तहत कानून में व्यापक बदलाव किए गए। इस बदलाव के बाद अब 354 के तहत छेड़छाड़ के मामले में दोषी पाए जाने पर अधिकतम 5 साल कैद की सजा का प्रावधान किया गया है। साथ ही कम से कम एक साल कैद की सजा का प्रावधान किया गया है और इसे गैर-जमानती अपराध माना गया है।
IPC 354 - The Indian Penal Code
छेड़छाड़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के पूर्व डीजीपी एसपीएस राठौर को 6 माह की जेल कीसजा सुनाई है। छेड़छाड़ के मामले में पहले अधिकतम दो साल कैद की सजा का प्रावधान था, लेकिन निर्भया केस के बाद कानून में बदलाव हुआ है और अब छेड़छाड़ को विस्तार से व्याख्या करते हुए उसमें सजा के सख्त प्रावधान किए गए हैं। वर्ष 2013 में जब कानून में संशोधन हुआ है उसके बाद के मामलों में छेड़छाड़ के लिए नए कानून के तहत सजा का प्रावधान है। अब अपराध की गंभीरता के हिसाब से व्याख्या की गई है और अलग-अलग सब सेक्शन में सजा का अलग-अलग प्रावधान किया गया है। निर्भया केस के बाद बलात्कार विरोधी कानून बनाया गया। इस कानून अर्न्‍तगत व्यापक बदलाव किए गए और इस परिवर्तन के बाद अब 354 के तहत छेड़छाड़ के मामले में दोषी पाए जाने पर अधिकतम 5 साल कैद की सजा का प्रावधान किया गया है। साथ ही कम से कम एक साल कैद की सजा का प्रावधान किया गया है और इसे गैर-जमानती अपराध माना गया है।
बलात्‍कार विरोधी कानून 2013 से प्रभावी है और आईपीसी की धारा-354 में 4 सब सेक्शन बनाए गए हैं। इसके तहत छेड़छाड़ के लिए अलग-अलग अपराध के लिए अलग-अलग सजा का प्रावधान किया गया है। आईपीसी की धारा-354-ए, 354-बी, 354-सी और 354-डी बनाया गया है। धारा-354-ए को को भी 4 उपधारा मे बांटा गया है और इसके तहत कानूनी व्याख्या की गई है कि अगर कोई शख्स किसी महिला के साथ सेक्सुअल नेचर का फिजिकल टच करता है या फिर ऐसा कंडक्ट दिखाता है जो सेक्सुअल कलर लिया हुआ हो तो 354 ए उपधारा 1 लगेगी। वहीं सेक्सुअल डिमांड करने पर उपधारा 2, मर्जी के खिलाफ पोर्न दिखाने पर उपधारा 3 और सेक्सुअल कलर वाले कमेंट पर उपधारा 4 लगता है। 354 ए के उपधारा 4 में एक साल तक कैद जबकि बाकी तीनों उपधारा में 3 साल तक कैद की सजा का प्रावधान है।
धारा-354 बी के अन्तर्गत नए कानून के तहत अगर कोई शख्स जबरन महिला का कपड़ा उतरवाता है या फिर उकसाता है तो इस धारा के तहत केस दर्ज होगा और दोषी को 3 साल से लेकर 7 साल तक कैद की सजा का प्रावधान है और मामला गैर जमानती होगा। किसी महिला के प्राइवेट एक्ट का फोटोग्राफ लेना और बांटने के मामले में आईपीसी की धारा-354 सी लगती है दोषी को एक साल से तीन साल तक कैद का प्रावधान है दूसरी बार दोषी पाए जाने पर 3 साल से 7 साल तक कैद की सजा हो सकती है और यह गैर जमानती अपराध होगा। वहीं लड़की या महिला का पीछा करना और कांटेक्ट करने का प्रयास यानी स्टॉकिंग के मामले में आईपीसी की धारा-354 डी के तहत केस दर्ज होगा और दोषी को तीन साल तक कैद हो सकती है।
आईपीसी (इंडियन पैनल कोड) 354(क) अथवा Indian Penal Code (IPC) 354A
इसके तहत अवांछनीय शारीरिक संपर्क और अग्र क्रियाएं या लैंगिक संबंधों की स्वीकृति बनाने की मांग या अनुरोध, अश्लील साहित्य दिखाना जैसी वारदात आती हैं. वैसे तो यह बेलेबल है लेकिन इसमें कम से कम कारावास तीन वर्ष तक, जुर्माना या फिर दोनों का प्रावधान किया गया। इसी के तहत लैंगिक आभासी टिप्पणियों की प्रकृति का लैंगिक उत्पीड़न भी जोड़ा गया। जिसमें आरोपी को एक वर्ष तक का कारावास हो सकेगा या जुर्माना या फिर दोनों।
आईपीसी (इंडियन पैनल कोड) 354(ख) अथवा Indian Penal Code (IPC) 354B
इसके तहत किसी महिला को निर्वस्त्र निर्वस्त्र करने के आशय से स्त्री पर हमला या आपराधिक बल कर प्रयोग किया जाना। जिसमें आरोपी को कम से कम पांच वर्ष का कारावास, किंतु जो दस वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना भी नियत किया गया। साथ ही यह धारा नॉन बेलेबल है।
आईपीसी (इंडियन पैनल कोड) 354(ग) अथवा Indian Penal Code (IPC) 354C
दृश्यरतिकता यानि किसी को घूरकर देखना। इसके तहत अगर किसी लड़की को कोई पंद्रह सेकंड घूरकर देख ले तो उसके खिलाफ कार्रवाई का प्रावधान है। जिसमें कानून के तहत प्रथम दोष सिद्ध के लिए कम से कम एक वर्ष का कारावास, किन्तु जो तीन वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना। इसमें जमानत हो सकती ह। अगर यही व्यक्ति दुबारा ऐसी ही घटना के लिए दोषी पाया जाता है तो इसके लिए कम से कम तीन वर्ष का कारावास जो सात वर्ष तक का हो सकेगा और जुर्माना भी। इसमें आरोपी की जमानत भी नहीं हो सकती। 
आईपीसी (इंडियन पैनल कोड) 354(घ) अथवा Indian Penal Code (IPC) 354D
इसके तहत किसी लड़की या महिला का पीछा करना जैसी वारदात में शामिल हैं। जिसमें पहली बार अगर आरोपी पर दोष सिद्ध होता है तो उसको तीन वर्ष का कारावास और जुर्माना हो सकता है। वहीं अगर यही आरोपी दुबारा ऐसा करता है और उस पर दोष सिद्ध होता है तो इसके लिए पांच वर्ष तक का कारावास और जुर्माना हो सकता है और वहीं आरोपी की जमानत भी नहीं हो सकती।
किसी भी परिस्थिति में कानून की नजर में किसी भी आरोप को लगाने वाले को आरोप लगाने के साथ साथ आरोप को साबित करना भी आवश्यक होता है और साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य और गवाह भी होने आवश्यक है। जिस पर आरोप लगा हो अगर उसे लगता है वह निर्दोष है तो और उसे फंसाया जा रहा है तो उसे अपने बचाव में पर्याप्त सबूत के साथ चार्ज शीट लगने के पूर्व संविधान के अनुच्छेद 226 के अंतर्गत क्रिमिनल रिट और चार्ज शीट लगने के बाद धारा 482 अंतर्गत दंड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत उच्च न्यायालय की शरण ले सकता है। 

भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख 


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