शिक्षाप्रद बाल कहानी - एक और एक ग्यारह



बनगिरी के घने जंगल में एक हाथी ने भारी उत्पात मचा रखा था। वह अपनी ताकत के नशे में चूर होने के कारण किसी को कुछ नहीं समझता था।

बनगिरी में एक पेड पर एक चिडि़या व चिड़े का छोटा-सा सुखी संसार था। चिडिया अंडों पर बैठी नन्हें-नन्हें प्यारे बच्चों के निकलने के सुनहरे सपने देखती रहती। एक दिन क्रूर हाथी गरजता, चिंघाडता पेडों को तोड़ता-मरोड़ता उसी ओर आया। देखते ही देखते उसने चिडि़या के घोंसले वाला पेड़ भी तोड़ डाला। घोंसला नीचे आ गिरा। अंडे टूट गए और ऊपर से हाथी का पैर उस पर पड़ा।

चिडि़या और चिड़ा चीखने चिल्लाने के सिवा और कुछ न कर सके। हाथी के जाने के बाद चिडि़या रोने लगी। तभी वहाँ कठफोड़वी आई। वह चिडि़या की अच्छी मित्र थी। कठफोड़वी ने उनके रोने का कारण पूछा तो चिडि़या ने अपनी सारी कहानी कह डाली। कठफोड़वी बोली “इस प्रकार दुखी रहने से कुछ नहीं होगा। उस हाथी को सबक सिखाने के लिए हमे कुछ करना होगा।”

 चिडि़या ने निराशा दिखाई “हम छोटे-मोटे जीव उस बलशाली हाथी से कैसे टक्कर ले सकते हैं?”

कठफोड़वी ने समझाया “एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं। हम अपनी शक्तियाँ जोड़ेंगे।”

“कैसे?” चिडि़या ने पूछा।

“मेरा एक मित्र भंवरा है। हमें उससे सलाह लेना चाहिए।” चिडि़या और कठफोड़वी भंवरे से मिली। भंवरा
गुनगुनाया “यह तो बहुत बुरा हुआ। मेरा एक मेंढक मित्र है, आओ, उससे सहायता माँगे।”

अब तीनों उस सरोवर के किनारे पहुँचे, जहाँ वह मेढ़क रहता था। भंवरे ने सारी समस्या बताई। मेंढक भर्राए स्वर में बोला “आप लोग धैर्य से ज़रा यहीं मेरी प्रतीक्षा करें। मैं गहरे पानी में बैठकर सोचता हूँ।”

ऐसा कहकर मेंढक जल में कूद गया। आधे घंटे बाद वह पानी से बाहर आया तो उसकी आखें चमक रही थीं। वह बोला “दोस्तों ! उस हाथी को सबक सिखाने के लिए मेरे दिमाग में एक अच्छी योजना आई हैं। उसमें सभी का योगदान होगा।”

मेंढक ने जैसे ही अपनी योजना बताई, सब खुशी से उछल पडे़। योजना सचमुच ही अद्भुत थी। मेंढक थी। मेंढक थी। मेंढक थी। मेंढक ने दोबारा बारी-बारी सबको अपना-अपना कायर समझाया।

कुछ ही दूर वह उन्मत्त हाथी तोड़फोड़ मचा कर व पेट भरकर कोंपलों वाली शाखाएँ खाकर मस्ती में खड़ा झूम रहा था। पहला काम भंवरे का था। वह हाथी के कानों के पास जाकर मधुर राग गुँजाने लगा। राग सुनकर हाथी मस्त होकर आँखें बंद करके झूमने लगा।

तभी कठफोड़वी ने अपना काम कर दिखाया। वह आई और अपनी सुई जैसी नुकीली चोंच से उसने तेज़ी से हाथी की दोनों आँखें बींध डाली। हाथी की आँखें फूट गईं। वह तड़पता हुआ अंधा होकर इधर-उधर भागने लगा। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, हाथी का क्रोध बढ़ता जा रहा था।

चिडि़या कृतज्ञ स्वर में मेढ़क से बोली भैया मैं आजीवन तुम्हारी आभारी रहूँगी। तुमने मेरी इतनी सहायता कर दी। मेंढक ने कहा “आभार मानने की जरुरत नहीं। मित्र ही मित्रों के काम आते हैं।”

 एक तो आँखों में जलन और ऊपर से चिल्लाते-चिंघाड़ते हाथी का गला सूख गया। उसे तेज़ प्यास लगने लगी। अब उसे एक ही चीज़ की तलाश थी, पानी।

मेढ़क ने अपने बहुत से बंधु-बांधवों को इकट्ठा किया और उन्हें ले जाकर दूर बहुत बड़े गड्ढे के किनारे बैठकर टर्राने के लिए कहा। सारे मेंढक टर्राने लगे।

मेंढक की टर्राहट सुनकर हाथी के कान खड़े हो गए। वह यह जानता था कि मेंढक जल स्त्रोत के निकट ही वास करते हैं। वह उसी दिशा में चल पड़ा।

टर्राहट और तेज़ होती जा रही थी। प्यासा हाथी और तेज़ भागने लगा।

जैसे ही हाथी गड्ढे के निकट पहुँचा, मेढ़कों ने पूरा ज़ोर लगाकर टर्राना शुरु किया। हाथी आगे बढ़ा और विशाल पत्थर की तरह गड्ढे में गिर पड़ा, इस प्रकार उस अहंकार में डूबे हाथी को सबक मिल गया। उसने सभी से क्षमा माँगी और जंगल छोड़कर चला गया।

कहानी से हमें शिक्षा मिलती है

  1. एकता में बल है।
  2. अहंकार का देर या सबेर अंत होता ही है।


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पुराणों में उपलब्ध है अनेक नाग देवताओं का वर्णन



वेद एवं पुराणों के अनुसार नागों की उत्पत्ति महर्षि कश्यप की पत्नी कद्रू से हुई है। इसलिए इन्हें ‘काद्रवेया महाबलाः’ भी कहा गया है। ये अदिति देवी के सौतेले पुत्र और आदित्यों के भाई हैं। अतएव सुस्पष्टतः नाग देवताओं में परिगणित हैं। इनका निवास स्थान पाताल कहा गया है। इसे ही नागलोक भी कहा जाता है। नागलोक की राजधानी के रूप में भोगवतीपुरी का उल्लेख मिलता है। कथासरित्सागर का प्रायः एक चतुर्थांश इस नागलोक और वहां के निवासियों की कथाओं से संबद्ध है। नाग कन्याओं का सौन्दर्य देवियों एवं अप्सराओं के समान ही कहा गया है। इसीलिए गोस्वामी तुलसीदास जी ने बल देकर रावण की स्त्रियों के निर्देशक दोहे का अंत नाग कुमारि पर ही किया है।

Nag Devta

भगवान विष्णु की शैय्या नागराज अनंत की बनी हुई है। भगवान शंकर एवं श्री गणेश जी भी सितसर्पविभूषित हैं। भगवान सूर्य के रथ में बारहों मास बारह नाग बदल-बदलकर उनके रथ का वहन करते हैं। ऐसा प्रायः सभी पुराणों में निर्दिष्ट है। इस प्रकार से देवताओं ने भी सर्प नाग को धारण किया है, जिससे वे देवरूप हैं। सर्प-नाग वायु-पान ‘नीलमतपुराण’ और कल्हण की ‘राजतरंगिणी’ के अनुसार कश्मीर की संपूर्ण भूमि नीलनाग की ही देन है। अब भी वहां के अनंतनाग आदि शहर इस तथ्य को पुष्ट करते हैं। यहां नाग देवता का सर्वाधिक सम्मान होता है। प्रारंभिक प्रातः स्मरणीय पवित्र नागों की गणना इस प्रकार है-

अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शंखपालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।।
सायंकाले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः।
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

अनंत, वासुकि, शेष, पद्मनाभ, कम्बल, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिय- ये नाग देवता हैं। ये प्रातः सायं नित्य स्मरणीय हैं। इनका स्मरण करने से मनुष्य को नाग विष का भय नहीं रहता और सर्वत्र विजय प्राप्त होती है। भारतीय ऋषि-मुनियों ने नागोपासना पर अनके व्रत-पूजा आदि निबंध ग्रंथों की रचना की है। प्रत्येक ग्राम-नगर में नाग का स्थान होता है। श्रावण मास में नागपंचमी व्रत किया जाता है। संध्या पूजा के उपरांत नागों के नमस्कार करने की परम्परा इस प्रकार है-

जरत्कारुर्जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी।
वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा।।
जरात्कारुप्रियास्तीकमाता विषहरेति च।
महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता।।
द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले तु यः पठेत्।
तस्य नागभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।।

उपर्युक्त पौराणिक मंत्र परम उपयोगी एवं उपादेय है। समस्त प्राणियों के कुलकुण्डहर में निवास करने वाली कुण्डलिनी शक्ति को भी सर्पिणी का ही रूप बताया गया है। भारत में शयनकाल के समय नाग देवताओं के स्मरण करने की प्रथा है। इन नाग देवता के उच्चारण मात्र से सर्प और उपसर्प भी घर में नहीं रहते। वे जनमेजय के यज्ञ में आस्तीक मुनि से वचनबद्ध हैं। आज भी इस मंत्र जप से सर्प-नाग देवता चारपाई पर नहीं चढ़ते। उनके मंत्र से सर्प का विष उतर जाता है और मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। मंत्र इस प्रकार है-

सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष।
जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर।।
आस्तीकस्य वचः श्रुत्वा यः सर्पो न निवर्तते।
शतधा भिधते मूर्ध्नी शिंशपावृक्षको यथा ।।

नाग देवता की पूजा का प्रत्यक्ष प्रमाण तथा उसके महत्व के संदर्भ में एक सत्कथा उद्धृत की जाती है- राजस्थान के बाड़मेर जिला के अन्तर्गत बायतु ग्राम है। वहां एक खीमसींग नाम के राजपूत सपत्नीक रहते थे। वहां रहते हुए उन्हें चालीस वर्ष बीत गये। संतान प्राप्ति न होने के कारण वे ग्राम का परित्याग कर अपने खेत में झोंपड़ी बनाकर रहने लगे। एक दिन खीमसींग को अपने घर के पीछे एक श्वेत नाग दिखाई दिया। पहले तो उन्हें कुछ घबराहट हुई, फिर बाद में उनके मन में आया कि यह सफेद नाग कोई देवता है, अतएव इसका स्वागत करना चाहिए। उन्होंने एक दूध भरा कटोरा नाग के समीप रखा। नाग देवता सब दूध पी गये। बाद में अपने बिल में प्रवेश कर गये। दूसरे दिन भी ऐसा हुआ। इस प्रकार पूरा वर्ष बीत गया। एक दिन नाग देवता ने स्वप्न में प्रकट होकर कहा- तुम लोग चिंतित न हो। मेरी उपासना से तुम्हारा उभय लोकों में कल्याण होगा। तत्पश्चात सभी प्रकार से संपन्न खीमसींग विधिवत् नाग देवता की उपासना में लग गये।

इधर तेजोशाह नाम का एक संतानहीन धनवान व्यापारी मैत्री के कारण वहां खीमसींग से मिलने के लिये आया करता था। प्रसंगवशात् संततिहीनता की चर्चा चलने पर खीमसींग ने उसे भी नाग देवता की उपासना करने का परामर्श दिया। तेजोशाह ने नाग के निवास स्थान पर जाकर निवेदन किया कि यदि उसे पुत्र होगा तो वह खीमसींग और उसके अतिथियों के भोजन वस्त्र आदि का आजीवन व्यय करेगा और नाग देवता का एक सुंदर मंदिर भी बनवाएगा। यह बात उसने अपनी पत्नी से कही और उसे नित्य नागदेव को दूध भोग लगाने का निर्देश दिया। वह वैसा ही करने लगी।

एक दिन संयोग से 200 वैरागी वैष्णव खीमसींग की कुटिया पर आये। पूर्वप्रतिज्ञा के अनुसार जब उनके भोजन आदि की व्यवस्था के लिये वे तेजोशाह के पास गये और अन्न आदि की व्यवस्था करने के लिये उचित द्रव्य मांगा, किंतु तेजोशाह ने कुछ कृपणता दिखलायी। निराश होकर खीमसींग अपनी पत्नी सहित आत्महत्या के विचार से नाग से डंसवाने के लिए उसके बिल के पास गये। संयोगवश उन्हें वहां से एक सुवर्णवलय प्राप्त हो गया। उसे लेकर वे पुनः सेठ के पास गये तथा समुचित भोजनोपयोगी अन्न एवं दक्षिणा द्रव्य को लाकर वैष्णवों को पास उपस्थित किया। वैष्णव समुदाय भी भोजन आदि से संतुष्ट हो यथास्थान चला गया। कुछ दिनों के पश्चात ही नाग देवता की कृपा से तेजोशाह को एक पुत्र की प्राप्ति हुई। तत्पश्चात प्रसन्न होकर उसने नाग देवता के स्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया। इस मंदिर में जाने पर अब भी सर्वविष शांत हो जाता है और भक्तों की अभिलाषा पूर्ण होती है।

इस प्रकार की अनेक घटनाएं अन्य देश-प्रदेशों में भी होती रहती हैं। नागों की पूजा प्रायः सभी पर्वतीय क्षेत्रों में विशेष रूप से होती है। इनमें कश्मीर प्रधान है। भारत वर्ष में नागों से संबंधित विस्तृत साहित्य प्राप्त होता है। गरुडपुराण, भविष्यपुराण, आयुर्वेद के चरक, सुश्रुत, भावप्रकाश आदि ग्रंथों में एतत्संबंधी सभी प्रकार के विषयों का संग्रह हुआ है। समग्र भारत में इनकी पूजा एक विशिष्ट देवता के रूप में किये जाने की सुदीर्घ परम्परा है।



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अनुलोम विलोम प्राणायामः एक संपूर्ण व्यायाम



प्राणायाम का अर्थ है प्राणों का विस्तार, प्राण शक्ति का विस्तार। प्राणायाम कई प्रकार के हैं और प्रत्येक प्रकार के प्राणायाम का अपना विशेष कार्य क्षेत्र है। परन्तु सभी प्रकार के प्राणायाम का आधार है - गहरे लम्बे श्वास प्रश्वास (Deep Breathing)। दो मिनट के लिए आंखों को बन्द करते हुए अपनी सांसों को देखें। आपका सारा मानसिक तनाव दूर हो जाता है। आनन्द की अनूभूति होती है। साधारण  श्वास लेते समय हमारी श्वास केवल हृदय से कण्ठ तक ही आती जाती है। परन्तु जब आप गहरी लम्बी श्वास लेते है, तो पूरे फेफड़े वायु से भर जाते हैं, छाती फूल जाती है और जब श्वास छोड़ते हैं तो फेफड़ों व छाती का संकोचन होता है। ऐसा क्यों होता है इसे जानने के लिए फेफड़ो की संरचना को समझ लेना आवश्यक है।

अनुलोम विलोम प्राणायामः एक संपूर्ण व्यायाम

फेफड़ों की संरचना
हमारे शरीर में दो फेफड़ें हैं छाती की दायीं और बायीं ओर और इन दोनों के बीच है हृदय - थोड़ा सा बायीं ओर। फेफड़ो में 75 करोड़ कोशिकाएं हैं और इनके बीच में है खाली स्थान। नालिकाओं से श्वास श्वास-नली के द्वारा फेफड़े में जाते हैं। ये कोशिकाएं अंगूर के गुच्छों की भांति श्वास नली के साथ उल्टी लटकी रहती हैं, जिन्हें Alveoli कहते हैं। जब हम साधारण श्वास लेते व छोड़ते है तो केवल एक तिहाई कोशिकाएं ही प्रभावित होती है, शेष दो तिहाई निष्क्रिय ही पड़ी रहती हैं। श्वासों की दो क्रियाएं हैं - श्वास भरते हुए वायु के साथ आक्सीजन फेफड़ो में पहुंचती है और श्वास छोड़ते हुए कार्बन डायक्सायड बाहर निकालते हैं। साधारण श्वास प्रश्वास की प्रक्रिया में न तो आक्सीजन पूरे फेफड़ो में पहुंचती है और न ही पूरी कार्बन डायक्सायड बाहर निकलती है। इस प्रकार धीरे-धीरे आयु के बढ़ने के साथ फेफड़ो के निचले भाग में कार्बन डायक्सायड एकत्रित होती रहती है और वहां आक्सीजन न पहुंचने के कारण फेफड़ो की वायु व आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता कम होती जाती है। फेफड़ो की वायु व आक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता को VITAL LUNG-CAPACITY (VLC)कहते हैं। साधारण श्वास लेते समय हम एक मिनट में 18 सांस भरते-छोड़ते हैं और प्रत्येक सांस में आधा लीटर वायु अन्दर भरते हैं, अर्थात् एक मिनट में नौ लीटर वायु। जब हम चलते हैं, तो हमारी वायु भरने की क्षमता 16 लीटर हो जाती है। तेज चलते समय 27 लीटर प्रति मिनट और दौड़ते समय 45 लीटर। गहरे लम्बे श्वास भरते हुए भी हम 45 से 50 लीटर वायु ग्रहण करते हैं। इसी लिए प्राणायाम करते समय हमारी फेफड़ो की वायु ग्रहण क्षमता बहुत अधिक होती है और हम अधिक से अधिक आक्सीजन भी ग्रहण करते हैं।

अनुलोम विलोम प्राणायाम
जब दोनों नासिकाओं से बारी बारी गहरी लम्बी श्वास भरते व छोड़ते हैं, तो उसे अनुलोम विलोम कहते हैं। इसमें बायीं नासिका से श्वास भरते हैं और दायीं से बाहर करते है। पिफर दायीं से भरते हैं और बायीं से निकालते हैं। इसकी विधि को पहले ठीक से समझ लें। दाएं हाथ के अंगूठे से दायीं नासिका बन्द करते हुए बायीं नासिका से सर्वप्रथम श्वास बाहर निकालते हैं। अब बायीं नासिका से ही श्वास भरते हैं, अनामिका अंगुली से बायीं नासिका बन्द करते हुए दायीं नासिका से अंगूठे को हटाकर श्वास बाहर करते हैं। अब दायीं नासिका से श्वास भरकर अंगूठे से दायीं नासिका बन्द करते हुए बायीं नासिका से अनामिका को हटाकर श्वास बाहर करते हैं यह अनुलोम विलोम की एक आवृत्ति है। इस क्रिया को आंखें बन्द रखते हुए शांत मन से दोहराते जाते हैं। इसमें विशेष बात यह है कि जितनी गिनती व गति से श्वास भरते हैं, उसी गिनती व गति से दूसरी नासिका से श्वास बाहर करते हैं। इसे धीरे-धीरे करते हैं ताकि आपको स्वयं भी श्वास भरने व छोड़ने की आवाज न आए। यह इतनी सरल विधि है कि इसे छोटे बच्चे से लेकर 90-100 वर्ष की आयु के लोग भी आराम से कर सकते हैं। वैसे तो अनुलोम विलोम खुली हवा में बैठकर आसन बिछाकर पद्मासन व सुखासन में बैठकर करना ही सर्वोत्तम है, परन्तु जो लोग विस्तर के साथ लगे हुए हैं, वे लेटे लेटे भी कर सकते हैं, कुर्सी पर बैठकर भी कर सकते हैं, परन्तु रीढ़ गर्दन सीधी रखते हुए। अनुलोम विलोम की कई और भी विधियां हैं जिनमें श्वास को रोका भी जाता है, श्वास भरने व छोड़ने की गति में अन्तर भी होता है, परन्तु सभी लोग उन्हें नहीं कर सकते। इसीलिए इस सरल विधि से अनुलोम विलोम करना सभी के लिए आसान है। अनुलोग विलोम को हम असानी से ऐसे समक्ष सकते है - सबसे पहले किसी अनुकूल और हवादार जगह पर पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएँ और इसके बाद अपने दाहिने नासिकाछिद्र को बंद कर लें और बाएँ छिद्र से साँस अन्दर की ओर भरें। फिर वाम नासिका छिद्र को अपनी अनामिका और कनिष्ठा अंगुली से बंद करके दाहिने छिद्र से साँस बाहर छोड़ दें। अब साँस दाहिनी नासिका से पुनः लें,और इसे छोड़े वाम छिद्र से,यह प्रक्रिया दोहराते जाएँ। साँसों को धीरे-धीरे आराम से 8 की गिनती में छोड़ें। शुरुआत में इसे 3 मिनट से ज्यादा न करें पर अभ्यास के साथ इसे 10 मिनट तक किया जा सकता है। इसे सुबह-सुबह खुली हवा में और योग प्रशिक्षक के निर्देश में किया जाए तो बेहतर है। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि एनीमिया से पीड़ित रोगी इसे बिना उचित सलाह के न करें और साँस को सहजता से छोड़े व ग्रहण करें,ध्यान रखें जल्दबाजी में या तेजी से साँस लेने छोड़ने से कोई फायदा नहीं होगा।

अनुलोम विलोम का महत्व
हमारे शरीर में 72864 सूक्ष्म नस नाडि़यों का जाल पफैला हुआ है, जिनके द्वारा प्राण शक्ति का संचार पूरे शरीर में होता है। इनमें तीन प्रमुख नाडि़यां है - सूर्य (पिंगला) नाड़ी, चन्द्र (ईड़ा) नाड़ी और सुष्मना नाड़ी। ये तीनों नाडि़यां रीढ़ के सबसे निचले भाग से आरम्भ होती हैं। सूर्य नाड़ी दायीं ओर से आरम्भ होकर सुष्मना के इर्द-गिर्द घूमती हुई दायीं नासिका पर आती है। चन्द्र नाड़ी बायीं ओर से आरम्भ होकर सुष्मना के इर्द-गिर्द घूमती हुई बायीं नासिका पर आती है। अर्थात् सुष्मना नाड़ी तो सीधी है, परन्तु शेष दोनों नाडि़या टेढ़ी मेढ़ी हैं। सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी एक दूसरे की विपरीत दिशा में घूमती हैं और पांच स्‍थानों पर एक दूसरे को क्रास करती हैं। जहां-जहां ये मिलती हैं, वहीं पर चक्र है - मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र,  मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र  और आज्ञा चक्र। सातवां चक्र है सहस्रार चक्र जहां केवल सुष्मना नाड़ी जाती है। शरीर की सभी 72864 सूक्ष्म नाडि़यां इन्हीं चक्रों के साथ जुड़ी हुई हैं। ये तीनों नाडि़यां हमारी स्नायु प्रणाली का आधार हैं।

स्नायु प्रणाली के दो भाग हैं - मस्तिष्क व रीढ़। इन दोनों को जोड़ने के लिए गर्दन में है  Medulla Oblongata रीढ़ में 33 गोटियां होती हैं। इनमें 31 जोड़ हैं - 16 जोड़ मस्तिष्क को संदेश देते हैं, जिन्हें अनुकम्पी स्नायु प्रणाली (Sympathetic Nervous System) कहते हैं और 15 जोड़ों द्वारा मस्तिष्क शरीर  को आदेश देता है। इसे सह अनुकायी प्रणाली (Para Sympathetic Nervous System) कहते है

जब हम अनुलोम विलोम करते हैं तो रीढ़ की सभी 33 गोटियां, 31 जोड़, Medulla Oblongata व मस्तिष्क प्रभावित होते हैं। इससे समूचे शरीर की प्रत्येक कोशिका तक आक्सीजन पहुंचती है तो पूरा शरीर स्वस्थ रहता है और कहीं भी कोई रोग नहीं होता है। अनुकम्पी व सह अनुकम्पी स्नायु प्रणालियां ठीक से काम करती है।

सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी का संतुलन ही हमें स्वास्थ्य प्रदान करता है, इससे शरीर का तापमान सदैव ठीक रहता है। अधिकांश लोगों को यह मालूम नहीं है कि ये दोनों नाडि़यां साथ-साथ नहीं चलतीं। एक घण्टा सूर्य नाड़ी चलती है और एक घण्टा चन्द्र नाड़ी। पूरे दिन में 12 घण्टे सूर्य नाड़ी चलती है और 12 घण्टे चन्द्र नाड़ी। जब हमें सर्दी जुकाम लग जाता है अथवा ज्वर हो जाता है व अन्य कोई भी रोग हो जाता है, तो यह सन्तुलन बिगड़ जाता है। सूर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी का सम चलने व रहने से ही हम स्वस्थ रहते है। जब हम रोगी हो जाते हैं, तो थोड़ी सी उत्तेजना से ही यह सन्तुलन बिगड़ जाता है। दोनों नासिकाओं की गति में अवरोध  उत्पन्न हो जाता है। अनुलोम विलोम से हम इस सन्तुलन को बनाए रखते हैं। केवल 15 मिनट सुबह और 15 मिनट सायं अनुलोम विलोम कर लेने से दिन भर के लिए हमारी सूर्य व चन्द्र नाड़ी सम भाव से चलती रहती है। और हम अनेकों रोगों से बच जाते हैं।

सूर्य नाड़ी मस्तिष्क के दाएं भाग को और चन्द्र नाड़ी मस्तिष्क के बाएं भाग को संचालित करती है। दायां मस्तिष्क हमें शांति प्रदान करता है, हमारी भावनाओं पर नियंत्राण रखता है, तनाव को दूर करता है। बायां मस्तिष्क हमें दैनिक कार्यों को सम्पन्न करने में सक्षम बनाता है। अनुलोम विलोम से मस्तिष्क के दाएं व बाएं भाग में संतुलन बना रहता है। तन, मन व बुद्धि का समन्वय होता है। इसीलिए यह मानसिक रोगों, क्रोध, ईष्‍या, द्वेष अवसाद, उच्च व निम्न रक्तचाप, माईग्रेन, सिर दर्द आदि से बचने का सर्वश्रेष्ठ व सुलभ साधन है। यहां तक कि अनुलोम विलोम से मस्तिष्क के अर्बुद (Tumour) से भी बचा जा सकता है। अनुलोम विलोम केवल रक्षात्मक नहीं है अपितु उपर्युक्त सभी रोगों को दूर भी करता है। वास्तव में अनुलोम विलोम से पूरी स्नायु प्रणाली व रीढ़ प्रभावित होती है।
शरीर में सभी रोगों को दूर करने में भी यह सक्षम है।

अनुलोम विलोम शरीर के सातों चक्रों को भी ठीक रखता है। जब हम बारी-बारी से दोनों नासिकाओं से गहरी लम्बी श्वास भरते हैं, तो पहले मूलाधार चक्र, पिफर स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र व सहस्रार चक्रों पर प्रभाव पड़ता है। इन सभी चक्रों में आक्सीजन व शुद्ध रक्त का संचार भरपूर होता है। जब हम गहरी लम्बी श्वास छोड़ते हैं, तो इन सभी चक्रों में से कार्बन डायक्सायड के रूप में सारी गन्दगी भी बाहर निकल जाती है। सातों चक्रों के शुद्ध होने से इनमें जुड़ी सभी प्राणिक नस नाडि़यां भी शुद्ध हो जाती हैं। उनमें कहीं भी कोई अवरोध नहीं रहता। नस-नाडि़यों व रक्त वाहिनियां लचीली बनी रहती है। हृदय भी स्वस्थ रहता है और समूचे शरीर में शक्ति का संचार होता है। इसीलिए इसे नाड़ी शोधन प्राणायाम भी कहते हैं। अनुलोम विलोम के निरन्तर अभ्यास से कुण्डलिनी जागरण भी होता है। सुष्मना नाड़ी जो मूलाधार में सुप्त रहती है, जागृत होती है और प्राण शक्ति को मूलाधार से सहस्रार तक ले जाती है। इसीलिए आध्यात्मिक उत्त्थान के लिए भी अनुलोम विलोम अनिवार्य है। हमारा शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और जल। जब तक इनका संतुलन बना रहता है, हम स्वस्थ रहते हैं। इनमें जरा सा भी असंतुलन होने से हम रोग ग्रस्त हो जाते हैं। हाथों की मुद्राओं द्वारा हम पांचो  तत्वों का संतुलन कर सकते हैं। यही कार्य अनुलोम विलोम भी करता है। जब अनुलोम विलोम द्वारा श्वास इन पांचो  चक्रों में पहुंचाते हैं, तो पाँचों तत्वों का संतुलन भी बनता है। मुद्रा चिकित्सा के साथ यदि अनुलोम विलोम भी जोड़ लें, तो आश्चर्यजनक लाभ होता है। इसलिए अनुलोम विलोम एक संजीवनी बूटी है -रामवाण है। इससे मस्तिष्क के दायें बायें भाग का समन्वय, पांचों तत्वों का संतुलन, सातों चक्रों का जागरण होता है, रक्त की शुद्ध होती है, शरीर की प्रत्येक कोशिका प्रभावित होती है तथा इससे शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है।

अनुलोम-विलोम से होने वाले लाभ– 
  • अनुलोम-विलोम प्राणायाम के अभ्यास से हम अतिरिक्त शुद्ध वायु भीतर लेते हैं और कार्बन डाईऑक्साइड यानी दूषित वायु बाहर निकाल देते हैं. इससे रक्त की शुद्धि होती है।  
  • शुद्ध रक्त हृदय के माध्यम से शरीर के सभी अंगों तक पहुँच जाता है और उन्हें पोषण प्रदान करता है।
  • फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है और प्राणशक्ति का स्तर बढ़ता है।
  • मस्तिष्क की विचार क्षमता गहरी होती है और एकाग्रता बढ़ती है और मानसिक तनाव का स्तर घटता है। इसलिए हृदय रोगी और जिनका रक्तचाप बढ़ा हुआ है और उन्हें अनुलोम-विलोम का अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए।
  • अनुलोम-विलोम को 'नाड़ी शोधक प्राणायाम' भी कहा जाता है और इससे गठिया, जोड़ों का दर्द व सूजन आदि शिकायतें दूर होती हैं।
  • रोजाना अनुलोम-विलोम करने से फेफड़े शक्तिशाली बनते हैं और शरीर में वात, कफ, पित्त आदि के विकार दूर होते हैं।
  • अनुलोम-विलोम प्राणायाम त्रिदोष नाशक है,अर्थात वात-पित्त-कफ सभी दोषों का शमन करता है।
  • इसे ‘नाड़ी शोधक’ प्राणायाम है, क्योंकि इससे नाड़ियाँ सिद्ध होती है जिससे शरीर स्वस्थ और कान्तियुक्त हो जाता है।
  • अनुलोम विलोम करते समय जब हम शुद्ध हवा भीतर की ओर खींचते हैं तब हमारे रक्त से की दूषित और विषाक्त तत्वों को बाहर निकाल देती है।
  • नियमित रूप से यह प्राणायाम करने से,फेफड़े शक्तिशाली होते हैं और जुकाम और दमे की बीमारी से पूर्ण मुक्ति मिलती है।
  • यह मोटापे और उच्च-रक्तचाप से पीड़ित रोगियों के लिए लाभप्रद है। यह कोलेस्ट्राल को कम करने का सबसे कारगर तरीका है।
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  4. सूर्य नमस्कार की स्थितियों में विभिन्न आसनों का समावेष एवं उसके लाभ
  5. प्राणायाम और आसन दें भयंकर बीमारियों में लाभ
  6. वज्रासन योग : विधि और लाभ
  7. सूर्य नमस्कार का महत्त्व, विधि और मंत्र
  8. ब्रह्मचर्यासन से करें स्वप्नदोष, तनाव और मस्तिष्क के बुरे विचारों को दूर
  9. प्राणायाम के नियम, लाभ एवं महत्व
  10. मोटापा घटाने अचूक के उपाय


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आदि शंकराचार्य का जीवन और दर्शन



आदि शंकराचार्य का जीवन और दर्शन
Life and Philosophy of Adi Shankaracharya

आदि गुरु शंकराचार्य जी का जीवन परिचय
आदि शंकराचार्य (788 ईसवी - 820 ईसवी) का जन्म दक्षिण-भारत के केरल राज्य के कालड़ी ग्राम में हुआ था। केरल की पुण्य भूमि पर एक से एक महान मनीषियों, संतो, तपस्वियों ने जन्म लेकर मानव मात्र को सद्जीवन जीने के लिए प्रेरित किया है। वेदोक्त सनातन, शाश्वत जीवन दर्शन एवं धर्म के आचार्यों में भगवान श्री आद्य शंकराचार्य का स्थान निश्चित रूप से सर्वोपरि है। उनके द्वारा प्रदत्त उदार जीवन दर्शन एवं उनके द्वारा किए गए अथक प्रयासों से, विविध विघटित संप्रदायों को सत्य के एक सूत्र में पिरोया गया था। शंकराचार्य जी को हम भगवान के अवतार की तरह इसलिए स्वीकार करते है, क्योंकि, जो महान कार्य उन्होंने अत्यंत अल्पायु में किए-वो एक साधारण मानव के लिए असंभव प्रतीत होते है। ये अद्वैत वेदांत के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और हिन्दू धर्म प्रचारक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिक भाग उत्तर भारत में बीता। चार पीठों (मठ) की स्थापना करना इनका मुख्य रूप से उल्लेखनीय कार्य रहा जो आज भी मौजूद है।

Adi Shankaracharya
आदि शंकराचार्य (Adi Shankaracharya) की कहानी

भारत की पवित्र भूमि पर सनातन धर्म का अद्वैतवाद का प्रचार यानि आत्मा और परमात्मा की एक ही है, प्राचीन काल से ही था। किंतु कालान्तर में जब भारत में बौद्ध और जैन धर्म के प्रसार और हिन्दू कर्मकांडों में आई विकृतियों के विरोध के कारण सनातन धर्म अपनी पहचान खोने लगा। इस के चलते हिंदू धर्म में भी वेदों के ज्ञान को नकारा जाने लगा। सनातन धर्म के अस्तित्व पर आए संकटकाल में ही आदि शंकराचार्य संकटमोचक के रुप में अवतरित हुए। वैशाख शुक्ल पंचमी यानि मई के शुभ दिन ही ऐसे ही कर्मयोगी आदि शंकराचार्य का आविर्भाव यानि जन्म दिवस मनाया जाता है।
आदि शंकराचार्य ने अल्पायु में ही अपने अलौकिक वैदिक ज्ञान और वेदान्त दर्शन से बौद्ध, मीमांसा, सांख्य और चार्वाक अनुयायियों की वेद विरोधी भावनाओं को सफल नहीं होने दिया। आदि शंकराचार्य ने ज्ञान मार्ग के द्वारा ही न केवल बौद्ध धर्म और अन्य संप्रदायों के विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर वेद धर्म का मान बढ़ाया बल्कि उन धर्म और संप्रदायों के अनुयायियों ने भी वैदिक दर्शन को स्वीकार कर लिया। ऐसा कर उन्होंने हिन्दू धर्म का पुनर्जागरण के साथ ही सनातन धर्म और वेदों को फिर से स्थापित और प्रतिष्ठित करने में अहम योगदान दिया। यही कारण है शंकराचार्य प्राचीन अद्वैत मत के प्रवर्तक कहलाए और उनके वैदिक दर्शन और अद्वैत मत शाङ्कर दर्शन या शाङ्कर मत कहलाया।
आदि शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन के अनुसार ब्रह्म और जीव या आत्मा और परमात्मा एक रूप हैं। किंतु ज्ञान के अभाव में ही दोनों अलग-अलग दिखाई देते हैं। आदि शंकराचार्य ने परमात्मा के साकार और निराकार दोनों ही रुपों को मान्यता दी। उन्होनें सगुण धारा की मूर्तिपूजा और निरगुण धारा के ईश्वर दर्शन की अपने ज्ञान और तर्क के माध्यम से सार्थकता सिद्ध की। इस प्रकार सनातन धर्म के संरक्षण के प्रयासों को देखकर ही जनसामान्य ने उनको भगवान शंकर का ही अवतार माना। यही कारण है कि उनके नाम के साथ भगवान शब्द जोड़ा गया और वह भगवान आदि शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए।

Adi Shankaracharya

आदि शंकराचार्य वेदों के परम विद्वान थे, प्रखर भविष्यदृष्टा थे। उन्होंने सनातन धर्म की अपने ज्ञान से तत्कालिन समय में ही रक्षा नहीं की वरन सनातन धर्म और वेदों का अस्तित्व और प्रतिष्ठा अनंत काल तक बनाए रखने की दृष्टि के साथ अपने जीवनकाल में ही जगह-जगह घूमकर वेदान्त दर्शन का प्रचार-प्रसार किया । इसी उद्देश्य से उन्होंने देश की चारों दिशाओं में चार धाम, चार पीठ, बारह ज्योर्तिंलिंगों और अखाड़ों की स्थापना की। इनके व्यापक प्रभाव से बाद में अनेक संप्रदाय और पंथ स्थापित हुए। उनके द्वारा इन सब देवस्थानों और धर्म पीठों के स्थानों का चयन उनकी अद्भुत दूरदर्शिता का प्रमाण है। जहां बद्रीनाथ धाम और केदारनाथ ज्योतिर्लिंग हिमालय पर्वत की श्रृंखलाओं में हैं, वहीं शेष सागर के तटों पर अन्य तीन दिशाओं में हैं। इस प्रकार आदि शंकराचार्य ने पूरे देश को सदियों पूर्व ही एक धर्म सूत्र में बांध दिया था, जो आज भी कायम है।

आदि शंकराचार्य की विद्वानता के कारण ही कहा जाता है कि उनकी जीभ पर माता सरस्वती का वास था। यही कारण है कि अपने ३२ वर्ष के संपूर्ण जीवनकाल में ही आदि शंकराचार्य ने अनेक महान धर्म ग्रंथ रच दिये। जो उनकी अलौकिक प्रतिभा को साबित करते हैं। आदि शंकराचार्य कर्मयोगी, वेदों की प्रति गहन विचारशीलता, ईश्वरीय प्रेम, त्याग, पाण्डित्य से भरे अद्भुत गुणों की मूर्ति थे। आदि शंकराचार्य ने प्रखर ज्ञान और बुद्धि बल से ही आठ वर्ष की उम्र में चारों वेद और वेदांगों का ज्ञान प्राप्त किया। 12 वर्ष की उम्र में हिन्दू धर्म शास्त्रों की गूढ़ता में दक्ष बने और 16 वर्ष की अल्पायु में ब्रह्मसूत्र पर भाष्य रच दिया। यही कारण है कि आज भी हर सनातन धर्मावलंबी आदि शंकराचार्य को स्मरण कर स्वयं को धन्य मानता है। साथ ही उनके द्वारा स्थापित वैदिक धर्म का अनुसरण और पालन करते हैं।

काशी में मिला ज्ञान
अद्वैत वेदांत के प्रणोता आद्य शंकराचार्य ने दुनिया को ज्ञान दिया, इसकी अजस्त्र धारा उनमें देवाधिदेव की नगरी काशी में ही फूटी। काशी विश्वनाथ के दरस परस के निमित्त महादेव की नगरी में आगमन की राह से इसकी शुरुआत हुई। दो घटनाक्रमों से देश को दिशा देने वाली इन महाविभूति का प्राकट्य हुआ। इसका बड़ा स्रोत बनीं महामाया लीला जिन्होंने सत्य से उनका साक्षात्कार कराया। अद्वैत ब्रह्मवादी आचार्य शंकर केवल निर्विशेष ब्रह्म को सत्य मानते थे। ब्रह्म मुहूर्त में शिष्यों संग स्नान के लिए मणिकर्णिका घाट जाते आचार्य का राह में बैठी विलाप करती युवती से सामना हुआ। युवती मृत पति का सिर गोद में लिए बैठी करुण क्रंदन कर रही थी। शिष्यों ने उससे शव हटाकर आचार्य शंकर को रास्ता देने का आग्रह किया। दुखित युवती के अनसुना करने पर आचार्य ने खुद विनम्र अनुरोध किया। इस पर युवती के शब्द थे कि हे संन्यासी, आप मुझसे बार-बार शव हटाने को कह रहे हैं। इसकी बजाय आप इस शव को ही हट जाने के लिए क्यों नहीं कहते। आचार्य ने दुखी युवती की पीड़ा को महसूस करते हुए कहा कि देवी! आप शोक में शायद यह भी भूल गई हैं कि शव में स्वयं हटने की शक्ति नहीं होती। स्त्री ने तुरंत उत्तर दिया- महात्मन् आपकी दृष्टि में तो शक्ति निरपेक्ष ब्रह्म ही जगत का कर्ता है फिर शक्ति के बिना यह शव क्यों नहीं हट सकता। एक सामान्य महिला के ऐसे गंभीर, ज्ञानमय व रहस्यपूर्ण शब्द सुनकर आचार्य वहीं बैठ गए। समाधि लग गई और अंत:चक्षु में उन्होंने देखा कि सर्वत्र आद्या शक्ति महामाया लीला विलाप कर रही हैं। उनका हृदय अनिवर्चनीय आनंद से भर गया। मुख से मातृ वंदना की शब्द धारा फूट चली। इसके साथ आचार्य शंकर ऐसे महासागर बन गए जिसमें अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के साथ सगुण साकार भक्ति धाराएं एक साथ हिलोरें लेने लगीं। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है वही द्वैत भूमि पर सगुण साकार रूप हैं। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुंचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन धरती पर उन्होंने यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है।  

वेदोक्त ज्ञान का प्रसार
वेद वे प्रामाणिक ग्रंथ हैं जो जीवन की जटिल पहेली का हमें प्रामाणिक उत्तर प्रदान करते हैं। परम्परा अनुसार वेदों का ज्ञान सदैव किसी श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ से ही प्राप्त करना चाहिए। विश्व भर में जहाँ भी किसी सामाजिक क्रांति का आविर्भाव हुआ है, वहाँ सत्य को ही उद्घाटित कर प्रचलित मोह को समाप्त किया गया था। आचार्य शंकर के समय भी इस जटि़ल जीवन की पहेली को न बूझ पाने का कारण दो प्रकार की अतियाँ विशेष रूप से प्रचलित हो गई थी, जिनको भगवत्पाद ने अपने ज्ञान के प्रकाश से दूर कर एक अत्यंत दूरगामी सामाजिक क्रांति का शुभारम्भ किया था। एक तरफ वेदों में आस्था रखने वाले वेदों के समग्र ज्ञान से अनभिज्ञ होने के कारण कर्मकांड को ही मोक्ष प्रतिपादक भाग समझ बैठे थे, तो दूसरी तरफ कर्मकांड का उचित स्थान तथा प्रयोजन न जानने के कारण एवं कर्मकांड से प्रचलित कुछ कुरीतियों के कारण बौद्धों ने प्रतिक्रिया स्वरूप वेदों का ही खंडन करना प्रारंभ कर दिया था। ये दोनों आतियाँ त्याज्य थी,जिन्हें भगवत्पाद ने अपने दिव्य ज्ञान के प्रकाश से इन्हें दूर कर वेदोक्त दिव्य ज्ञान की सुगंध पूरे देश में फैला दी थी। आचार्य शंकर का अपना कोई पृथक् दर्शन नहीं था, वे तो वेद का ही वास्तविक रहस्य उद्घाटित कर वेदों की प्रमाणिकता एवं मर्यादा की पुनःस्थापना करने के प्रति समर्पित थे। उनका जीवन ऐसे लोगों को पुनर्विचार के लिए प्रेरित करता है जो थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त कर उस ज्ञान को अपने नाम से जोड़कर अपने संप्रदाय बनाने में ज्यादा इच्छुक होते हैं। वेदों का संदेश जीवन में ‘एकमेव अद्वितीय’ दिव्य सत्ता का संदेश है। अतः उनका हेतु किसी दर्शन का खंडन करना मात्र नहीं था और न ही वे किसी अन्य दर्शन के प्रतिस्पर्धी की तरह खड़े हुए। उन्होंने समस्त दर्शनों का जीवन के इस परम लक्ष्य ‘अद्वैत साक्षात्कार’ में स्थान बताया और एक समन्वित दृष्टिकोण प्रदान किया। उनके समस्त भाष्य, काव्य, स्तोत्र या अन्यान्य रचनाओं में एक अद्भुत समन्वय दिखाई पड़ता है। ये समस्त रचनाएँ न केवल उनके सर्वात्मभाव को उद्घाटित करती है, बल्कि एक पूर्ण विकसित मानव का हमारे समक्ष जीवंत दृष्टान्त प्रस्तुत करती हैं।  

आचार्य का संदेश
प्रत्येक मनुष्य का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह शाश्वत,दिव्य, कालातीत सत्ता को अपनी आत्मा की तरह से जानकर मोक्षानंद का पान करें। इस अन्तः जागृति के लिए केवल ज्ञान मात्र की अपेक्षा होती है, लेकिन ईश्वर से ऐक्य का ज्ञान तभी संभव होता है जब ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ भक्ति-भाव विद्यमान हो। ऐसी भक्ति एकदेशीय न होकर सार्वकालिक होनी चाहिए, अतः भक्त के प्रत्येक कर्म उत्साह से युक्त, निष्काम एवं सुंदर होने अवश्यंभावी है। इस तरह से समस्त ज्ञान, भक्ति एवं कर्म प्रधान साधनाओं का सुंदर समन्वय हो जाता है। जो भी मनुष्य ऐसी दृष्टि का आश्रय लेता है वह अपने धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष रूपी समस्त पुरुषार्थों की सिद्धि कर परम कल्याण को प्राप्त होता है।

आज भगवत्पाद की पुनः आवश्यकता
आचार्य शंकर के आगमन के समय देश जिन विकट परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा था वही समस्याएँ आज भी नज़र आती हैं। धर्म के नाम पर संप्रदाय विघटित होते जा रहे हैं। भिन्न-भिन्न मतावलम्बी अपने-अपने संप्रदायों के प्रति आस्था रखे हुए अपनी अलग पहचान बनाने के लिए आतुर है। धर्म के नाम पर सत्य की खोज एवं उसमें जागृति गौण हो गई है, तथा अन्य प्रयोजन प्रधान हो गए हैं। आज जहाँ एक तरफ विज्ञान एवं उन्नत प्रोद्यौगिकी लोगों की दूरी को कम कर रही है, वहीं दूसरी तरफ धर्म के नाम पर कट्टरता मनुष्यों के बीच के फासले एवं विद्वेष बढ़ाती जा रही है। आत्मीयता-स्वरूप जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की दृष्टि प्राप्त होनी चाहिए, उसके बजाए विपरीतपरिणामदेखें जा रहे हैं। सत्य की खोज के नाम पर तो ऐसासम्भव नहीं। ऐसी विषम परिस्थितियों में हमें भगवान आदि शंकराचार्य के अद्भुत, उदात्त, समन्वयात्मक एवं सत्यपरक संदेश की पुनः अत्यंत आवश्यकता है। आज उनके द्वारा प्रदत्त संदेश को जनमानस तक पहुँचाने की अत्यंत आवश्यकता है। 

आदि शंकराचार्य के अनमोल विचार 

  1. एक सच यह भी है की लोग आपको उसी वक़्त ताक याद करते है जैब ताक सांसें चलती हैं। सांसों के रुकते ही सबसे क़रीबी रिश्तेदार, दोस्त, यहां तक की पत्नी भी दूर चली जाती है।
  2. मंदिर वही पहुंचता है जो धन्यवाद देने जाता हैं, मांगने नहीं।
  3. सत्य की कोई भाषा नहीं है। भाषा सिर्फ मनुष्य का निर्माण है। लेकिन सत्य मनुष्य का निर्माण नहीं, आविष्कार है। सत्य को बनाना या प्रमाणित नहिं करना पड़ता, सिर्फ़ उघाड़ना पड़ता है।
  4. मोह से भरा हुआ इंसान एक सपने कि तरह हैं, यह तब तक ही सच लगता है जब तक आप अज्ञान की नींद में सो रहे होते है। जब नींद खुलती है तो इसकी कोई सत्ता नही रह जाती है।
  5. आत्मसंयम क्या है ? आंखो को दुनियावी चीज़ों कि ओर आकर्षित न होने देना और बाहरी ताकतों को खुद से दूर रखना।
  6. जिस तरह एक प्रज्वलित दिपक को चमकने के लीए दूसरे दीपक की ज़रुरत नहीं होती है। उसी तरह आत्मा जो खुद ज्ञान स्वरूप है उसे और क़िसी ज्ञान कि आवश्यकता नही होती है, अपने खुद के ज्ञान के लिए।
  7. तीर्थ करने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। सबसे अच्छा और बड़ा तीर्थ आपका अपना मन है, जिसे विशेष रूप से शुद्ध किया गया हो।
  8. सच की जिज्ञासा - जब मन में सच जानने की जिज्ञासा पैदा हो जाए तो दुनियावी चीज़े अर्थहीन लगती हैं।
  9. हर व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि आत्मा एक राज़ा की समान होती है जो शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि से बिल्कुल अलग होती है। आत्मा इन सबका साक्षी स्वरुप है।
  10. सत्य की परिभाषा क्या है ? सत्य की इतनी ही परिभाषा है की जो सदा था, जो सदा है और जो सदा रहेगा।
  11. अज्ञान के कारण आत्मा सीमित लगती है, लेकिन जब अज्ञान का अंधेरा मिट जाता है, तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है, जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य दिखाई देने लगता है।
  12. धर्म की किताबे पढ़ने का उस वक़्त तक कोई मतलब नहीं, जब तक आप सच का पता न लगा पाए। उसी तरह से अगर आप सच जानते है तो धर्मग्रंथ पढ़ने कि कोइ जरूरत नहीं हैं। सत्य की राह पर चले।
  13. आनंद तभी मिलता है जब आनंद कि तालाश नही कर रहे होते है।

आदि शंकराचार्य फोटो संग्रह - Adi Shankaracharya Photo Collection

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कल्कि अवतार का जन्म कब होगा?



भगवान कल्कि अवतार Kalki Avatar का जन्म कब, कहाँ, क्यों और कौन होंगे माता-पिता 
धार्मिक एवं पौराणिक मान्यता के अनुसार जब पृथ्वी पर पाप बहुत अधिक बढ़ जाएगा। तब दुष्टों के संहार के लिए विष्णु का यह अवतार यानी 'कल्कि अवतार' (Kalki Avatar) प्रकट होगा। कल्कि को विष्णु का भावी और अंतिम अवतार माना गया है। भगवान का यह अवतार निष्कलंक भगवान के नाम से भी जाना जायेगा। आपको ये जानकर आश्चर्य होगा की भगवान श्री कल्कि 64 कलाओं के पूर्ण निष्कलंक अवतार हैं। भगवान श्री कल्कि की भक्ति इस समय एक ऐसे कवच के समान है जो हमारी हर प्रकार से रक्षा कर सकती है। भगवान श्री कल्कि की भक्ति व्यक्तिगत ना होकर समष्टिगत है। जो भी व्यक्ति भगवान श्री कल्कि की भक्ति करता है, वह चाहता है कि भगवान शीघ्र अवतार धारण कर भूमि का भार हटाए और दुष्टों का संहार करें।
Kali Yuga Explained, Kalki Avatar
कलयुग यानी कलह-क्लेश का युग, जिस युग में सभी के मन में अंसतोष हो, सभी मानसिक रूप से दुखी हों, वह युग ही कलयुग है। हिंदू धर्म ग्रंथों में चार युग बताए गए हैं। सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग। सतयुग में लोगों में छल, कपट और दंभ नहीं होता है। त्रेतायुग में एक अंश अधर्म अपना पैर जमा लेता है। द्वापर युग में धर्म आधा ही रह जाता है। कलियुग के आने पर तीन अंशों से इस जगत पर अधर्म का आक्रमण हो जाता है। इस युग में धर्म का सिर्फ एक चौथाई अंश ही रह जाता है। सतयुग के बाद जैसे-जैसे दूसरा युग आता-जाता है। वैसे-वैसे मनुष्यों की आयु, वीर्य, बुद्धि, बल और तेज का ह्रास होता जाता है।

Kalki Bhagwan: Kalki Avatar Of Lord Vishnu
भगवान कल्कि अवतार Bhagwan Kalki Avatar
माना जाता है और जैसा वर्तमान में चल रहा है कि कलियुग के अंत में संसार की ऐसी दशा होगी। लोग मछली-मांस ही खाएँगे और भेड़ व बकरियों का दूध पीएँगे। गाय तो दिखना भी बंद हो जाएगी। सभी एक-दूसरे को लूटने में रहेंगे। व्रत-नियमों का पालन नहीं करेंगे। उसके विपरीत वेदों की निंदा करेंगे। स्त्रियाँ कठोर स्वभाव वाली व कड़वा बोलने वाली होंगी। वे पति की आज्ञा नहीं मानेगी। अमावस्या के बिना ही सूर्य ग्रहण लगेगा। अपने देश छोड़कर दूसरे देश में रहना अच्छा माना जाएगा। व्याभिचार बढ़ेगा। उस समय मनुष्य की औसत आयु सोलह साल होगी। सात-आठ वर्ष की उम्र में पुरुष व स्त्री समागम करके संतान उत्पन करेंगे। पति व पत्नी अपनी स्त्री व पुरुष से संतुष्ट नहीं रहेंगे। मंदिर कहीं नहीं होंगे। युग के अंत में प्राणियोें का अभाव हो जाएगा। तारों की चमक बहुत कम हो जाएगी। पृथ्वी पर गर्मी बहुत बढ़ जाएगी। इसके बाद सतयुग का आरंभ होगा। उस समय काल की प्रेरणा से भगवान विष्णु का कल्कि अवतार होगा।

Kalki Avatar The Apocalyptic Horse Rider
भगवान कल्कि
यह अवतार दशावतार परम्परा में अन्तिम माना गया। शास्त्रों के अनुसार यह अवतार भविष्य में होने वाला है। कलियुग के अन्त में जब शासकों का अन्याय बढ़ जायेगा। चारों तरफ पाप बढ़ जायेंगे तथा अत्याचार का बोलबाला होगा तक इस जगत् का कल्याण करने के लिए भगवान् विष्णु कल्कि के रूप में अवतार लेंगे। कल्कि अवतार का वर्णन कई पुराणों में हुआ है परन्तु इसे सर्वाधिक विस्तार कल्कि उपपुराण मे मिला है, उसमें यह कथा उन्नीस अध्यायों में वर्णित है।

Kalki Avatar Images
भगवान कल्कि
अभी तो कलियुग का प्रथम चरण है। कलि के पाँच सहस्र से कुछ अधिक समय बीता है। इस समय मानव जाति का मानसिक एवं नैतिक पतन हो गया है लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा वैसे-वैसे धर्म की हानि होगी। सत्य, पवित्रता, क्षमा, दया, आयु, बल और स्मरण शक्ति सबका लोप होता जायेगा। अर्थहीन व्यक्ति असाधु माने जायेंगे। राजा दुष्ट, लोभी, निष्ठुर होंगे, उनमें व लुटेरों में कोई अन्तर नहीं होगा। प्रजा वनों व पर्वतों में छिपकर अपना जीवन बितायेगी। समय पर बारिश नहीं होगी, वृक्ष फल नहीं देंगे। कलि के प्रभाव से प्राणियों के शरीर छोटे-छोटे, क्षीण और रोगग्रस्त होने लगेंगे। मनुष्यों का स्वभाव गधों जैसा दुस्सह, केवल गृहस्थी का भार ढोने वाला रह जायेगा। लोेग विषयी हो जायेंगे। धर्म-कर्म का लोप हो जायेगा।

मनुष्य जपरहित नास्तिक व चोर हो जायेंगे।
पुत्रः पितृवधं कृत्वा पिता पुत्रवधं तथा।
निरुद्वेगो वृहद्वादी न निन्दामुपलप्स्यते।।
म्लेच्छीभूतं जगत सर्व भविष्यति न संशयः।
हस्तो हस्तं परिमुषेद् युगान्ते समुपस्थिते।।
पुत्र, पिता का और पिता पुत्र का वध करके भी उद्विग्न नहीं होंगे। अपनी प्रशंसा के लिए लोग बड़ी-बड़ी बातें बनायेंगे किन्तु समाज में उनकी निन्दा नहीं होगी। उस समय सारा जगत् म्लेच्छ हो जायेगा-इसमें संशयम नहीं। एक हाथ दूसरे हाथ को लूटेगा। सगा भाई भी भाई के धन को हड़प लेगा। अधर्म फैल जायेगा, पत्नियाँ अपने पति की बात नहीं मानेंगी। मांगने पर भी पतियों को अन्न, जल नहीं मिलेगा। चारों तरफ पाप फैल जायेगा। उस समय सम्भल ग्राम में विष्णुयशा नामक एक अत्यन्त पवित्र, सदाचारी एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण अत्यन्त अनुरागी भक्त होंगे। वे सरल एवं उदार होंगे। उन्हीं अत्यन्त भाग्यशाली ब्राह्मण विष्णुयशा के यहाँ समस्त सद्गुणों के एकमात्र आश्रय निलिख सृष्टि के सजर्क, पालक एवं संहारक परब्रह्म परमेश्वर भगवान् कल्कि के रूप में अवतरित होंगे। वे महान् बुद्धि एवं पराक्रम से सम्पन्न महात्मा, सदाचारी तथा सम्पूर्ण प्रजा के शुभैषी होंगे।
मनसा तस्य सर्वाणिक वाहनान्यायुधानि च।।
उपस्थास्यन्ति योधाश्च शस्त्राणि कवचानि च।
स धर्मविजयीराजा चक्रवर्ती भविष्यति।।
स चेमं सकुलं लोकं प्रसादमुपनेश्यति।
उत्थितो ब्राह्मणों दीप्तःक्षयान्तकृतदुदारधीः।।
चिन्तन करते ही उनके पास इच्छानुसार वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और कवच उपस्थित जायेंगे। वह धर्मविजयी चक्रवर्ती राजा होगा। वह उदारबुद्धि, तेजस्वी ब्राह्मण दुःख से व्याप्त हुए इस जगत् को आनन्द प्रदान करेगा। कलियुग का अन्त करने के लिए उनका प्रादुर्भाव होगा।

भगवान् शंकर स्वयं उनको शस्त्रास्त्र की शिक्षा देंगे और भगवान् परशुराम उनके वेदोपदेष्टा होंगे। वे देवदत्त नामक शीघ्रागमी अश्व पर आरुढ़ होकर राजा के वेश में छिपकर रहने वाले पृथ्वी पर सर्वत्र फैल हुए दस्युओं एवं नीच स्वभाव वाले सम्पूर्ण म्लेच्छों का संहार करेंगे। कल्कि भगवान् के करकमलों सभी दस्युओं का नाश हो जायेगा फिर धर्म का उत्थान होगा। उनका यश तथा कर्म सभी परम पावन होंगे। वे ब्रह्मा जी की चलायी हुई मंगलमयी मर्यादाओं की स्थापना करके रमणीय वन में प्रवेश करेंगे। इस प्रकार सर्वभूतात्मा सर्वेश्वर भगवान् कल्कि के अवतरित होने पर पृथ्वी पर पुनः सत्ययुग प्रतिष्ठित होगा।

कहाँ होगा भगवान कल्कि का जन्म?
कल्कि भगवान उत्तर प्रदेश में गंगा और रामगंगा के बीच बसे मुरादाबाद के सम्भल ग्राम में जन्म लेंगे। भगवान के जन्म के समय चन्द्रमा धनिष्ठा नक्षत्रा और कुंभ राशि में होगा। सूर्य तुला राशि में स्वाति नक्षत्रा में गोचर करेगा। गुरु स्वराशि धनु में और शनि अपनी उच्च राशि तुला में विराजमान होगा। वह ब्राह्मण कुमार बहुत ही बलवान, बुद्धिमान और पराक्रमी होगा। मन में सोचते ही उनके पास वाहन, अस्त्र-शस्त्र, योद्धा और कवच उपस्थित हो जाएँंगे। वे सब दुष्टों का नाश करेंगे, तब सतयुग शुरू होगा। वे धर्म के अनुसार विजय पाकर चक्रवर्ती राजा बनेंगे।

Kalki Avatar & Kalkipuri Temple
कौन होंगे इनके माता-पिता?
अपने माता-पिता की पाँचवीं संतान होंगे। भगवान कल्कि के पिता का नाम विष्णुयश और माता का नाम सुमति होगा। पिता विष्णुयश का अर्थ हुआ, ऐसा व्यक्ति जो सर्वव्यापक परमात्मा की स्तुति करता लोकहितैषी है। सुमति का अर्थ है, अच्छे विचार रखने और वेद, पुराण और विद्याओं को जानने वाली महिला।

Kalki Avatar & End of the World
ऐसा होगा अंतिम अवतार कल्कि भगवान का स्वरूप
कल्कि निष्कलंक अवतार हैं। भगवान का स्वरूप (सगुण रूप) परम दिव्य है। दिव्य अर्थात दैवीय गुणों से सम्पन्न। वे सफेद घोड़े पर सवार हैं। भगवान का रंग गोरा है, लेकिन गुस्से में काला भी हो जाता है। वे पीले वस्त्रा धारण किए हैं। प्रभु के हृदय पर श्रीवत्स का चिन्ह अंकित है। गले में कौस्तुभ मणि है। स्वंय उनका मुख पूर्व की ओर है तथा अश्व दक्षिण में देखता प्रतीत होता है। यह चित्राण कल्कि की सक्रियता और गति की ओर संकेत करता है। युद्ध के समय उनके हाथों में दो तलवारें होती हैं। कल्कि को माना गया है। पृथ्वी पर पाप की सीमा पार होने लगेगी तब दुष्टों के संहार के लिए विष्णु का यह अवतार प्रकट होगा। भगवान का ये अवतार दिशा धारा में बदलाव का बहुत बड़ा प्रतीक होगा। मनीषियों ने कल्कि के इस स्वरूप की विवेचना में कहा है कि कल्कि सफेद रंग के घोड़े पर सवार हो कर आततायियों पर प्रहार करते हैं। इसका अर्थ उनके आक्रमण में शांति (श्वेत रंग), शक्ति (अश्व) और परिष्कार (युद्ध) लगे हुए हैं। तलवार और धनुष को हथियारों के रूप में उपयोग करने का अर्थ है कि आसपास की और दूरगामी दोनों तरह की दुष्ट प्रवृत्तियों का निवारण करेगें अर्थात भगवान धरती पर से सारे पापों का नाश करेगें।

श्रीमद्भागवत के अभिन्न अंग भगवान श्री कल्कि क्यों? 
शुकदेव जी (वैशम्पायन, व्यास जी के पुत्र) पाण्डवों के एकमात्र वंशज अभिमन्यु पुत्र परीक्षित (विष्णुपुराण) को, जो उपदेश (कथा) सुना रहे थे वह अठारह (18) हजार श्लोकों का समावेश था। महाराज परीक्षित का सात-दिन में निधन हो जाने से उन सारे श्लोकों का उपदेश न हो पाया था। अतः बाद में मार्कण्डेय ऋशि के आग्रह पर शुकदेव जी ने पुण्याश्रम में उसे पूरा किया था। सूत जी (व्यास जी के शिष्य हर्षण सूत के नाम से प्रसिद्ध हुए, जिनकी धारणा शक्ति से संहितायें दे दी) का कहना है कि वे भी वहाँ उपस्थित थे और पुण्यप्रद कथाओं को सुना था। सूत जी ने उन ऋषियों को, जो कथा सुनाई वही श्री कल्कि पुराण के नाम से प्रसिद्ध है।

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राष्ट्रभाषा हिंदी के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारी



राजभाषा हिंदी के संबध में महत्वपूर्ण जानकारी
  • विश्व के लगभग 133 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। ऐसे देशों में जहां भारतीय मूल के लोगों की संख्या अधिक है, जैसे फिजी, गुआना, मारीशस, नेपाल, कम्बोडिया, त्रिनिदाद आदि के स्कूलों में हिंदी अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाई जाती है।
  • प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन नागपुर, दूसरा मारीशस तथा तीसरा नई दिल्ली में हुआ था।
  • पश्चिमी देशों में लंदन विश्वविद्यालय की ‘स्कूल आॅफ ओरियंटल एण्ड अफ्रीकन स्टडीज’ सबसे प्राचीन संस्था है जिसमें हिंदी पढ़ाने की व्यवस्था है।
  • फ्रांस दूसरा बड़ा देश है, जहां हिंदी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है। उत्तरी अमेरिका में हिंदी पढ़ाने वाले 114 केन्द्र हैं, जबकि सोवियत रूस में 7 हिंदी शोध संस्थान हैं।
  • दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना मद्रास में 1927 में हुई।
  • ब्रिटिश भारत में, 1803 में पहला परिपत्र जारी किया गया ताकि सभी नियमों, विनियमों का हिंदी में अनुवाद किया जाए।
  • दक्षिण में हिंदी का आगमन अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1296 के आक्रमण के बाद शुरू हुआ।
  • 14वीं सदी में अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुण्डा, बीदर, आदिलशाही, कुतबशाही, बरीदशाही आदि राज्यों ने हिंदी को अपनी राजभाषा बनाया था।
  • ‘हिन्दुस्तान लैंग्वेज’ नामक पहला हिंदी ग्रामर जाॅन जोशना केटलर ने 1698 में लिखा। तारिक फरिश्ता’ नामक पुस्तक के अनुसार बीजापुर और गोलकुण्डा के बहमनी साम्राज्य की राजभाषा हिंदी थी।
  • तंजावुर के राजा श्री शाह ने हिंदी में ‘विश्वजीत’ और ‘आधाविलास’ नामक दो नाटक क्रमशः 1674 और 1711 में लिखे।
  • देवनागरी टाइप अक्षर सर्वप्रथम 1667 में यूरोप में तैयार किए गए।
  • प्रसि( पश्चिमी विद्वानों- एडबीनग्रीव्स, ग्राडस, ग्रियर्सन, ग्रिफिथ, हार्नले, रोडाल्फ, टेसीदरी, ओल्डाम, पीनकैट इत्यादि ने हिंदी के विकास में बहुत योगदान दिया।
  • संयुक्त राष्ट्र में हिंदी स्वीकार करने का प्रस्ताव मारीशस द्वारा रखा गया।
  • वर्ष 1909 से मारीशस में ‘‘हिन्दुस्तान’’ नामक तथा फिजी में ‘‘फिजी समाचार’’ नाम से हिंदी साप्ताहिक छप रहे हैं।
  • करीब 3000 हिंदी पुस्तकें प्रतिवर्ष प्रकाशित होती हैं।
  • विश्व में बोली जाने वाली भाषाओं में हिंदी का दूसरा स्थान है।


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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अन्दर से जानो



 राष्ट्रवाद के प्रकाश पुंज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अन्दर से जानो

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को कुछ लोग श्रद्धा भाव से देखते हैं, तो कुछ भय और विरोध से। अधिकांश शहरी हिन्दू होंगे कभी न कभी संघ की शाखा में जा चुके हैं। फिर भी संघ के बारे में भ्रम अधिक हैं, जिसके दो प्रमुख कारण हैं। पहला तो विरोधियों द्वारा योजनाबद्ध रीति से फैलाया गया मायाजाल, तथा दूसरा संघ द्वारा प्रसिद्धि से दूर रहने की नीति, पर अब संघ ने अपने प्रचारतंत्र को ठीक किया है। फिर भी यह निश्चित है कि संघ को केवल पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर नहीं समझा जा सकता, इसके लिए तो उसके पास आना होगा।
राष्ट्रवाद के प्रकाश पुंज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अन्दर से जानो 
स्थापना एवं उद्देश्यः संघ की स्थापना 1925 की विजयादशमी पर प्रसिद्ध क्रान्तिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी डा0 केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। उनका मत था कि अंग्रेजों के चले जाने से ही भारत की दुर्दशा समाप्त नहीं होगी। इसके लिए राष्ट्रहित को सर्वोपरि मानने वाले हिन्दू युवकों को टोली हर गांव-शहर में खड़ी करनी होगी। इसीलिए उन्होंने संघ की स्थापना की। 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' का अर्थ हैः अपनी इच्छा से राष्ट्र की सेवा करने वाले लोगों का समूह। ऐसे ही हिन्दू का अर्थ है भारत को अपना सर्वस्व मानने वाला व्यक्ति, चाहे उसकी पूजा पद्धति कुछ भी हो।
शाखाः संघ का प्रमुख आधार है, शाखा। स्वयंसेवक किसी भी मैदान में प्रतिदिन सुबह-शाम अथवा रात्रि में एक घंटे के लिए आकर अपनी आयु व क्षमता के अनुसार सामूहिक रूप से कुछ शारीरिक व बौद्धिक कार्यक्रम करते हैं। इसे ही शाखा कहते हैं।

स्वयंसेवकः शाखा में आने वाले को ‘स्वयंसेवक‘ कहा जाता है, चाहे उसकी आयु, जाति, आर्थिक या शैक्षणिक स्थिति कुछ भी हो। सरसंघचालक से लेकर किसी गांव या बस्ती की शाखा पर आने वाला कक्षा चार-पांच में पढ़ने वाला छात्र, सब पहले स्वयंसेवक हैं, बाद में कुछ और। स्वयंसेवक का अर्थ है- 'अपनी इच्छा से राष्ट्र की सेवा में लगा रहने वाला।'

कार्यक्रमः एक घंटे की शाखा में प्रायः 40-50 मिनट शारीरिक कार्यक्रम होते हैं। अनेक स्थानों पर एक ही शाखा में अलग-अलग आयु-वर्ग के स्वयंसेवक आते हैं, वहां उनकी अवस्था के अनुसार दो-तीन ‘गण‘ बना दिये जाते हैं। बाल-किशोर एवं युवा स्वयंसेवक मुख्यतः खेल, नियुद्ध, दंड संचालन, सूर्य नमस्कार आदि करते हैं। शाखा के अन्तिम 14-20 मिनट में संस्कारप्रद मानसिक कार्यक्रम होते हैं। इनमें देशभक्तिपूर्ण गीत का गायन, सामायिक विषय पर चर्चा, किसी महापुरूष के वाक्य, श्लोक या सुभाषित का स्मरण एवं उनका विश्लेषण, प्रश्नोत्तर आदि प्रमुख हैं।

भगवाध्वज एवं प्रार्थनाः संघ ने अपने गुरू-स्थान पर भारतीय संस्कृति के प्रतीक परमपवित्र भगवाध्वज को रखा है। संघ की शाखा तथा अन्य सभी गतिविधियां इसकी छत्रछाया में ही सम्पन्न होती हैं। कार्यक्रमों की समाप्ति भगवाध्वज के सम्मुख खड़े होकर प्रार्थना के बाद होती है। यह संस्कृत में भारतमाता की वंदना है, जो ‘नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे‘ से प्रारम्भ होकर ‘भारतमाता की जय‘ पर समाप्त होती है।
भगवा ध्वज

अन्य कार्यक्रमः शाखा के अतिरिक्त समय में भी संस्कार जगाने तथा गुणसंवर्धन करने वाले अनेक कार्यक्रम होते हैं। जैसे- सहभोजः इसमें सब स्वयंसेवक अपने-अपने घर से भोजन लाते हैं। सबका भोजन एक स्थान पर मिला दिया जाता है। कुछ देर तक गीत-कविता, अंत्याक्षरी-प्रश्नमंच आदि मनोरंजक एवं ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रमों के बाद सब एक साथ बैठकर भोजन करते हैं, किसके घर का भोजन किसने किया, यह पता ही नहीं लगता। परस्पर स्नेह तथा समरसता जाग्रत करने में यह कार्यक्रम अतुलनीय है।

वनविहारः इसमें सब स्वयंसेवक अपने नगर-गांव से दूर जाकर खेलकूद आदि के बाद ‘सहभोज‘ करते हैं। कभी-कभी वहीं भोजन बनाते हैं या फिर सब आपस में शुल्क एकत्र कर कुछ खानपान सामग्री मंगा लेते हैं।

शिविरः प्रायः दो-तीन दिन के शिविर बाल एवं तरूण विद्यार्थियों, व्यावसायियों, अवकाश प्राप्त स्वयंसेवकों के लिए अलग-अलग होते हैं। इनमें विभिन्न प्रकार की शारीरिक-मानसिक प्रतियोगिताओं द्वारा स्वयंसेवक की प्रतिभा को उभारने का प्रयास किया जाता है। शिविर में सब तरह की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति वाले स्वयंसेवक आते हैं, पर सब एक साथ भूमि पर सोते, खाते-पीते तथा खेलते हैं। इनमें भाग लेने के लिए गणवेश, किराया, भोजन शुल्क आदि सब अपनी जेब से भरते हैं।

गणवेशः शाखा में तो स्वयंसेवक किसी भी निक्कर में आ सकता है, पर कुछ कार्यक्रमों में गणवेश अनिवार्य होता है। इसमें पूरी बांहों की एक जेब वाली सफेद कमीज, खाकी निकर, चमड़े की लाल पेटी का हुआ करता था अब सिंथेटिक की पेटी का उपयोग होने लगा है, खाकी मोजे, चमड़े या प्लास्टिक के काले फीते वाले जूते तथा काली टोपी होती है। प्रायः ऐसे कार्यक्रमों में कंधे तक की लाठी भी सब लाते हैं।

प्रशिक्षण वर्गः समय-समय पर नये कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण हेतु वर्गों का आयोजन होता है। एक सप्ताह के वर्ग को ‘प्राथमिक शिक्षा वर्ग‘ कहते हैं, इनका आयोजन दोे-तीन जिलों को मिलाकर किया जाता है। तीन सप्ताह के वर्ग के ‘संघ शिक्षा वर्ग‘ कहते हैं। ये प्रायः 20-25 जिलों के बीच मई-जून के अवकाश में होता है। प्रथम और द्वितीय वर्ष के संघ शिक्षा वर्ग अपने प्रान्त में ही होते हैं, जबकि ‘तृतीय वर्ष‘ का वर्ग पूरे देश का एक साथ नागपुर में होता है, इसकी अवधि एक मास की होती है।

संगठन संरचना:
संघ की संगठनात्मक रचना हिन्दू परिवार जैसी है। एक शाखा के क्षेत्र को तीन-चार भागों में बांट देते हैं, जिसे ‘गट‘ तथा इसके प्रमुख को ‘गटनायक‘ कहते हैं, यह संघ की पहली इकाई है। शाखा के शारीरिक कार्यक्रमों को कराने के लिए 15-20 स्वयंसेवकों की कई टोलियां बनाते हैं, इन्हें ‘गण‘ तथा इनके प्रमुख को ‘गणशिक्षक‘ कहते हैं। शाखा लगाने वाला ‘मुख्यशिक्षक‘ तथा उनके ऊपर ‘कार्यवाह‘ होता है। नगर की तीन-चार शाखाओं या ग्रामीण क्षेत्र में न्यायपंचायत को कार्य देखने वाले को ‘मंडल कार्यवाह‘ तथा इसी प्रकार ‘नगर कार्यवाह‘ या ग्रामीण क्षेत्र में खंड, तहसील और जिला कार्यवाह होते हैं। नगर, खंड, तहसील तथा इसके ऊपर के स्तर पर ‘संघचालक‘ भी होते हैं, इनकी भूमिका परिवार के मुखिया जैसी, जबकि कार्यवाह की भूमिका मुख्य कर्ताधर्ता की होती है। जिला तथा उससे ऊपर के संघचालकों का प्रति तीन वर्ष बाद चुनाव होता है। ये अन्य प्रतिनिधियों के साथ मिलकर ‘सरकार्यवाह‘ को चुनते हैं। वर्तमान सरकार्यवाह श्री भैया जी जोशी हैं। ‘सरसंघचालक‘ की भूमिका परिवार के मुखिया की भांति ‘मार्गदर्शक एवं परामर्शदाता‘ की होती है, प्रायः संघचालक प्रमुख कार्यकर्ताओं के परामर्श से इनका मनोनयन करते हैं, वर्तमान में श्री मोहन जी भगवत पर यह दायित्व है। संघचालक तथा कार्यवाह के साथ खंड से लेकर अ0भा0 स्तर तक शारीरिक, बौद्धिक, सेवा तथा व्यवस्था प्रमुखों की टोली होती है। जिले में एक प्रचार प्रमुख भी होता हैं ये सब परस्पर विचार-विमर्श से अपने क्षेत्र के कार्य को गति एवं स्थायित्व प्रदान करते हैं।

प्रचारकः संघकार्य के विस्तार में प्रचारकों की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। अनेक युवा स्वयंसेवक अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद 2-3 वर्ष का समय देते हैं। इन्हीं ही ‘प्रचारक‘ कहते हैं। इनको कोई वेतन आदि नहीं मिलता, पर योगक्षेम की न्यूनतम आवश्यकताएं संगठन पूर्ण करता है। सामान्यतः प्रचारक स्वयंसेवक-परिवारों में ही भोजन करते हैं, निर्धारित समय के बाद ये घर लौटकर सामान्य कामकाज में लग जाते हैं। प्रचारक अपनी कार्य-अवधि में अविवाहित रहते हैं। अब बड़ी संख्या में अवकाश प्राप्त ‘वानप्रस्थी‘ कार्यकर्ता‘ भी पूरा समय देकर काम करने लगे हैं।

आर्थिक व्यवस्था : 
संघकार्य के संचालन में होने वाले सम्पूर्ण व्यय का आधार ‘श्री गुरूदक्षिणा‘ है। वर्ष में एक बार सब स्वयंसेवक अपनी शाखा के अनुसार एकत्र होकर कुछ राशि भगवद्ध्वज के सम्मुख अर्पण करते हैं। यह राशि एक लिफाफे में रखकर अर्पण की जाती है, जिससे किसी के मन में हीनता या बड़प्पन का भाव उत्पन्न न हो। उस शाखा के तीन-चार प्रमुख कार्यकर्ता इसका हिसाब रखते हैं। संघ के कार्यक्रम, कार्यालय की व्यवस्था, प्रचारकों के प्रवास... आदि इससे पूरे होते हैं।

संघ और सेवाकार्यः
स्वयंसेवक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते समाजसेवा में स्वाभाविक रूप से लगे रहते हैं। गत 15-20 वर्ष से इन सेवाकार्य को व्यवस्थित रूप दिया गया है। हिन्दू समाज के उपेक्षित, वंचित एवं निर्धन वर्ग की सेवार्थ 50,000 से भी अधिक सेवाकेन्द्र चलाये जा रहे हैं। प्रतिवर्ष इनकी संख्या बढ़ रही है। इनके संचालन के लिए 'सेवा भारती' आदि अनेक पंजीकृत संस्थाएं हैं। शाखा के प्राप्त संस्कारों के कारण बाढ़, भूकम्प, तूफान, चक्रवात, दुर्घटना आदि प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं में स्वयंसेवक सेवाकार्य में सबसे आगे तथा सबसे देर तक लगे दिखायी देते हैं।

संघ और विविध कार्य :  स्वयंसेवकों में अपनी रूचि, प्रवृत्ति तथा सामाजिक आवश्यकता के अनुसार अनेक संगठन बनाये गये हैं। मजदूर-किसान, विद्यार्थी-नारी, धर्म-कला, शिक्षा-वनवासी, उपभोक्ता-सहकारिता, अर्थनीति-राजनीति, साहित्य-इतिहास...., अर्थात समाज के प्रायः सभी क्षेत्रों में स्वयंसेवक काम कर रहे हैं। इतना ही नहीं तो इन क्षेत्रों में काम करने वाले अन्य संगठनों से वे बहुत आगे भी हैं। इनका संविधान, कार्यविधि, अर्थव्यवस्था, कार्यालय आदि अलग होते हैं, फिर भी वैचारिक आधर पर ये संघ से जुड़े रहते हैं।

संघ का विरोध क्यों : एक सामाजिक संगठन होने के बावजूद अनेक लोग इसका विरोध करते हैं। मुख्यतः यह विरोध कम्युनिस्टों तथा कांग्रेस की ओर से होता है। कम्युनिस्टों के विरोध का आधार तो स्पष्ट है। कांग्रेस ने 1947 के बाद चाहा कि संघ उसकी युवा शाखा बन जाये, पर संघ ने यह स्वीकार नहीं किया। तब से नेहरू जी संघ के विरोधी बने गये। दूसरी ओर संघ ने अपनी बहुआयामी गतिविधियों से धर्मान्तरण को काफी मात्रा में रोका है तथा जो हिन्दू किसी कारण से धर्मान्तरित हो गये थे, उन्हें वापस लाने की प्रक्रिया भी तेजी से चलायी है। ईसाई तथा मुस्लिम संस्थाएं इस कारण संघ को शत्रु मानती हैं।

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रत्नों का हमारे जीवन में महत्व तथा धारण के प्रभाव



आज के इस वैज्ञानिक युग में रत्नों के धारण के प्रभाव को सभी विद्वानों ने सर्वसहमति से मान लिया है। रत्न शब्द का अर्थ है अनुपम वस्तु। अर्थात् किसी विषय वस्तु या व्यक्ति को उनके गुणों के आधार पर हम रत्न शब्द से संबोधित करते है।
ज्योतिष की दृष्टि में पूरा सौरमण्डल सूर्य की अस्तित्व की वजह से माना गया है। इसलिये सभी ग्रह सूर्य को केन्द्र मानकर परिक्रमा कर रहे है। सूर्य , सात घोडो के रथ पर विद्यमान है। और ये सात घोडे सूर्य की किरणों में स्थित सात रंगो का प्रतिनिधित्व करते है। सौरमण्डल में स्थित ग्रह भी रंगो के प्रतीक है। सूर्य की किरणे जब पृथ्वी पर पडती है तो ग्रहो के प्रतीक रंगो का प्रभाव किरणो के द्वारा व रत्नों के माध्यम से हमारे षरीर पर पडता है। रत्नों में प्रकाश किरणो को अवशोषित करके परावर्तित करने की प्रबल शक्ति होती है। रत्नों का मूल्य प्रकाश किरणों के इस अवशोषण व परावर्तन की शक्ति के अनुसार होता है अर्थात रत्नों की गुणवत्ता जितनी अधिक होगी वह उतना ही अधिक मूल्यवान व प्रभावशाली होगा । रत्नों की कार्यप्रणाली व हमारे शरीर तथा व्यक्तित्व पर रत्नों का प्रभाव पडने का मुख्य कारण यही है कि हमारा शरीर पंचतत्वों (आकाश , पृथ्वी , जल , वायु एवं प्रकाश) से बना हुआ है और इसमें मुख्य रुप से सप्त चक्र (मूलाधार , स्वाधिष्ठान , मणिपुर , अनाहत , विशुद्धि , आज्ञा व सहस्त्र नार) विभाजित है। रत्नों के धारण करने से हमारे शरीर में पंचतत्वों व सप्तचक्रो के संतुलन में मदद मिलती है और इस प्रकार हमारा व्यक्तित्व बेहतर होता है तथा भविष्य में हम विशेष धनात्मक उर्जा के साथ सफलता पाते है।

हाथ में अॅंगूठी जड़कर जो रत्न पहना जाता है वह पांचो तत्वों को प्रभावित करता है। हमारे हाथ की पाॅच अंगुलियां पांच तत्वों की प्रतीक ही नहीं बल्कि इनका प्रत्यक्षतः संबंध है। अंगूठा आकाश तत्व , तर्जनी वायु तत्व , मध्यमा तैजस तत्व , अनामिका जल तत्व , कनिष्ठका पृथ्वी तत्व से संबंधित है। हाथ की दूसरी विशेषता यह है कि यह सारे शरीर से सम्पर्क में रहते है।अतः यह निष्कर्ष निकालना कि बुध ग्रह (जो पृथ्वी प्रधान है) का रत्न पन्ना कनिष्ठा में धारण करना युक्तियुक्त है। अपनी विभिन्न प्रकार की समस्याओं को दूर करने हेतु हम ज्योतिष शास्त्र का सहारा भी लेते है। इस शास्त्र में पूजा पाठ व विभ्न्नि प्रकार के टोने टोटके के अलावा रत्नों के माध्यम से भी हम समस्याओं का निराकरण कर सकते है। रत्नों का महत्व हमारे जन्मपत्री में स्थित ग्रहों की स्थिति के आधार पर देखा जाता है। अर्थात् व्यक्ति को कौन सा रत्न पहनना चाहिये यह जानना बहुत आवष्यक है। जन्मपत्री में कमजोर ग्रहों को बल देने के लिये विभिन्न राशियों के व्यक्तियों के लिये अलग - अलग रत्न महत्व रखते है।
रत्नों को पहनने के बाद उनका प्रभाव निम्न बातो पर निर्भर करता है।
1. सही रत्न का चुनाव
2 रत्नों की शुद्धता
3. सही वार व सही विधि द्वारा उचित अंगली में पहनने हेतु ज्ञान का होना।

मुख्य रुप से संस्थान की जिम्मेदारी होती है कि वो अपने ग्राहक को उचित सलाह व विस्तृत विधि का वर्णन करे व उचित रत्न दे। यदि आप दोषपूर्ण रत्न धारण करते है। व उचित विधि का पालन नहीं करते है तो रत्न का प्रभाव गलत पड सकता है। इसके अलावा यह जानना बहुत जरुरी है कि किसी भी प्रकार की पूजा या रत्नों के द्वारा समस्याओं के निराकरण का महत्व व सही प्रभाव तभी सामने आता है जब आप पूर्ण विश्वास व श्रद्धा रखते है।पूजा , रत्न , रुद्राक्ष , तन्त्र , मंत्र आदि सभी अपने-अपने क्षेत्र में उचित सफलता देने में सक्षम होते है बशर्ते कि आपने श्रद्धा व विश्वास के साथ उचित विधि विधान का ध्यान रखा है। यहा हम यह सलाह देना चाहेंगे कि अपनी समस्याओं के निराकरण के लिये तंत्र शास्त्र का प्रयोग जहा तक संभव हो न करे या बहुत सोच - समझकर किसी ज्ञानी तांत्रिक के मार्गदर्शन में ही करे।

रत्नों की उत्पति दो प्रकार से मानी गयी है, 1. खनिज रत्न व 2. जैविक रत्न

खनिज रत्न पृथ्वी के गर्भ में होने वाली रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरुप उत्पन्न तत्वों से होते है। उदाहरण के लिये हीरा , माणिक , पन्ना , नीलम , पुखराज , गोमेद व लसुनिया। जैविक रत्न समुद्र मे स्थित जीवों के द्वारा उत्पन्न होते है। जैसे -मूंगा व मोती उपरोक्त 9 रत्नों के अलावा इन रत्नों के उपरत्न भी पाये जाते है। जिनका प्रभाव उनसे संबंधित राशियों के अनुसार पडता है। रत्नों को उनकी पारदर्शिता , चमक , रंग कठोरता के मापदण्ड के द्वारा परखा जाता है। कुछ रत्न या उपरत्न अपारदर्शी भी होते है।



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निबंध एवं जीवनी स्वामी विवेकानंद



स्वामी विवेकानंद हिंदी में (Swami Vivekananda In Hindi)
स्वामी विवेकानन्द भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, देशप्रेम और विश्व बंधुत्व की जीवंत प्रतिमा थे, जिन्होंने विश्व में गहन आध्यात्मिकता और मानव मूल्यों के भारतीय दर्शन की स्थापना की। युवा नरेन्द्र अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस की उस रहस्यमयी ऊर्जा के समन्वय थे, जा भारतीय ऋषियों ने युगों से विश्व विरासत की उदात्त भावना के परिपेक्ष्य में अपने शिष्यों को विरासत में दी है। ऊर्जा और अध्यात्म धर्म और समाज संस्कृति और समन्वय का ऐसा उदाहरण विश्व इतिहास में ही नहीं मिलता जो स्वामी जी के विराट व्यक्तित्व में समाहित रहा है। स्वामी विवेकानन्द के पिता श्री विश्वनाथ दत्त और दादा दुर्गाचरण दत्त थे। उनके पिता अंग्रेजी और फारसी भाषा के विद्वान थे। उन्हें बाइबिल और फारसी के कवि फाजिल के शेरों की बहुत अच्छी जानकारी थी। वह कलकत्ता के हाईकोर्ट में एक सफल बैरिस्टर थे। स्वामी विवेकानंद के बाबा फारसी और संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। वह 50 वर्ष की उम्र में सन्यासी हो गये थे। स्वामी विवेकानन्द अपने पिता की मृत्यु के कुछ दिन बाद ही रामकृष्ण परमहंस के शिष्य बन गये थे।
स्वामी विवेकानंद


स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था। उनका बचपन का नाम नरेन्द्र था। नरेन्द्र की माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। वह बड़ी ही धार्मिक प्रवृत्ति की सद्गृहस्थ महिला थीं। वे अत्यन्त बुद्धिमान और तेजस्विनी थीं। वह बहुत जल्दी ही अपने संपर्क में आने वाले लोगों को प्रभावित कर देती थीं। उन्हें रामायण और महाभारत जैसे धार्मिक ग्रन्थों का अच्छा ज्ञान था। दोनों ग्रन्थ उन्होंने कंठस्थ ही कर रखे थे। नरेन्द्र को अंग्रेजी की प्रारंभिक शिक्षा अपनी मां से ही मिली। उन्होंने भी मां की तरह कई धार्मिक ग्रन्थों के प्रसंग याद कर रखे थे। वह घर पर ही ध्यान में तल्लीन हो जाते। एक दिन तो घर वालों ने कमरे का दरवाजा तोड़कर उन्हें जोर से हिलाया तब उनका ध्यान टूटा।

माता उनकी चंचलता देखकर कह उठतीं- मैंने शिवजी से पुत्र मांगा था, उन्होंने यह भूत भेज दिया। वही भूत आगे चलकर देश-विदेश में हिन्दू राष्ट्र और संस्कृति का कितना बड़ा नाम कर गया यह सारी दुनिया जानती है। उन्हें पशु-पंक्षियों और प्राकृतिक दृश्यों से बड़ा लगाव था। छह वर्ष की अवस्था में उन्हें पाठशाला भेजा गया। अगले वर्ष पंडित ईश्वर चन्द्र विद्यासागर द्वारा स्थापित मैट्रोपोलिटन इंस्टीट्यूट में प्रवेश दिलाया गया। वे हाजिर जबाब थे। उन्हें तलवारबाजी, लाठीचालन, कुश्ती, नौका और कई तरह के खेल पसन्द थे। पाक विद्या अर्थात् रसोई के कार्य में भी वे बड़ी रूचि लेते थे। सन् 1877 ई0 में वह कक्षा 3 के विद्यार्थी थे। पिता को किसी कार्यवश रायपुर जाना पड़ा। नरेन्द्र भी उनके साथ थे जिस कारण उनकी स्कूली शिक्षा बाधित हो गयी। दो वर्ष बाद वे कलकत्ता लौटे। उनकी कुशाग्र बुद्धि को देखते हुए ही उन्हें पुनः प्रवेश मिल सका लेकिन इससे भी बड़े आश्चर्य की बात थी कि उन्होंने तीन वर्ष का पाठ्यक्रम मात्र एक वर्ष में ही पूरा कर लिया। कालेज प्रवेश परीक्षा में वे विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण हुए। इस अवधि में उनकी ध्यान और साधना काफी बढ़ गई थी। उन्हें प्रेसीडेन्सी कालेज में प्रवेश मिला। वहां के प्रधानाचार्य डब्लूडब्लू हेस्टी ने एक बार कहा था- ’’मैंने सुदूर देशों का भ्रमण किया है लेकिन कहीं भी नरेेंद्र जैसा प्रतिभावान और संभावनाओं से भरा शिष्य नहीं देखा।

जान स्टुअर्ट मिल, ह्यूम और हर्बर्ट स्पेन्सर के अध्ययन से उनके विचारों में काफी बड़ा परिवर्तन आया। उन पर ब्रह्म समाज के नेता केशव चन्द्र सेन का बड़ा प्रभाव था। सत्य को जानने की तीव्र आकांक्षा से वे ब्रह्म समाजी नेता महर्षि देवेन्द्र नाथ ठाकुर के पास भी गये। जब उन्होंने देवेन्द्र नाथ ठाकुर से पूछा- क्या आपने ईश्वर को देखा है? यह सुनकर वे सकते में आ गये। उन्होंने नरेंद्र को रामकृष्ण परमहंस के पास भेजा। रामकृष्ण हुगली जिले के छोटे से गांव में एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में पुजारी थे। उन्होंने कई धर्मों का ज्ञान प्राप्त किया था। नरेन्द्र ने अपने कालेज के प्रधानाचार्य विलियम हेस्टी से उनका उल्लेख सुना था। जब वह विलियम वर्डस्वर्थ की कविता का भावार्थ समझा रहे थे।
रामकृष्ण परमहंस नरेन्द्र से कुछ इस तरह मिले जैसे पूर्व परिचित हों और लम्बे अरसे से उनकी बाट देख रहे हों। रामकृष्ण से जब उन्होंने ईश्वर क¨ देखने की बात पूछी तो उन्होंने कहा- ’’ठीक ऐसे ही देखा है जैसे मैं तुझसे बात कर रहा हूं।’’ नरेन्द्र इस घटना के एक महीने बाद पुनः दक्षिणेश्वर आये तो रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें छू दिया। उनके स्पर्श मात्र से उनके अन्दर की अभिनव अनुभूति जाग गयी। फिर नरेन्द्र का हफ्ते-पन्द्रह दिन में आना-जाना होता रहा। इसी बीच, 1884 में नरेन्द्र के पिता की हृदयगति रुक जाने से मृत्यु हो गयी। छह-सात लोगों के भरण-पोषण का भार अब उन्हीं पर आ गया। पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की और लाॅ कालेज में प्रवेश लिया। अत्यन्त धनी बाप के बेटे को गरीब की तरह बिना जूते के मोटे कपड़े पहने भूखे पेट ही कालेज जाना पड़ता था। नरेन्द्र और रामकृष्ण की निकटता बढ़ती गयी।

1885 में रामकृष्ण परमहंस को गले का कैंसर हुआ। उन्हें श्याम पुकुर से काशीपुर के उद्यान भवन में लाया गया। एक दिन रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें निर्देश दिया- मैं तेरे संरक्षण में इन लोगों को छोड़ता हूं। देखना मेरे चले जाने के बाद यह साधना-भजन छोड़कर कहीं घर वापस न जायें। 16 अगस्त 1886 को श्री रामकृष्ण ने महासमाधि ली। उसके बाद नरेन्द्र ने वराहनगर में रामकृष्ण संघ की स्थापना की जिसे बाद में रामकृष्ण मठ में बदल दिया गया। उन्होंने एक दिन विरजा होम संस्कार कर ब्रह्मचर्य और त्याग का व्रत लिया। 1888 तक वह वराहनगर में ही रहे उसके बाद कलकत्ता छोड़ वाराणसी, अयोध्या, लखनऊ, आगरा, वृन्दावन और हाथरस होकर हिमालय की यात्रा को चले गये। हाथरस रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर शरदचंद्र गुप्त से उनकी भेंट हुयी जिन्हें उन्होंने प्रथम शिष्य बनाया और सदानन्द नाम दिया। एक वर्ष के उपरान्त वह गाजीपुर में पवहारी बाबा से मिले। 1890 में वह वापस वराह नगर पहुंचे। उनके गुरुभाई स्वामी अखंण्डानन्द तभी तिब्बत यात्रा से लौटे थे।
फरवरी 1891 में स्वामीजी एकांगी हो गये और दो वर्ष तक परिव्राजक के रूप में भ्रमण करते रहे। इस बीच वह राजपूताने की यात्रा पर निकले और इसी दौरान अलवर के महाराजा मंगल सिंह से भी मिले। महाराजा मूर्ति पूजा पर विश्वास नहीं करते थे लेकिन स्वामी विवेकानन्द से हुयी वार्ता के बाद उनकी आंखें खुल गयीं। खेतड़ी के महाराजा उनसे पहले ही शिक्षा ले चुके थे। एक दिन संध्या को एक नर्तकी महाराज का मनोरंजन कर रही थी। महाराज ने स्वामी जी को भी आने का निमंत्रण दिया लेकिन उन्होंने आने से इन्कार कर दिया। यह सूचना जब नर्तकी को मिली तो वह सूरदास का एक पद गाने लगी- ’’प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो’’। नर्तकी के भावपूर्ण स्वर सुनकर स्वामीजी बाहर निकल आये और उन्होंने कहा कि इस घटना ने मेरी आंखों से पर्दा हटा दिया है। हम सभी ईश्वर की अभिव्यक्ति हैं। मैं किसी की निन्दा नहीं कर सकता। वे खेतड़ी महाराज के साथ जयपुर गये अ©र फिर राजपूताना होते हुए बम्बई और दक्षिण भारत की यात्रा की। वह 23 दिसम्बर 1892 को कन्याकुमारी पहुंचे। वहां वह तीन दिन तक सुदीर्घ और गंभीर समाधि में रहे।

वहां से वापस लौटकर स्वामीजी आबू रोड़ में अपने गुरुभाई स्वामी ब्रह्मानन्द और स्वामी तूर्यानन्द से मिले। उन्होंने उन दोनों से कहा- ’’मैं सारे भारत में घूमा हूं। देश की दरिद्रता और दुखों को देखकर मेरे आंसू नहीं रुक पाते। अब मैं इनकी मुक्ति के लिये अमेरिका जा रहा हूं। इकत्तीस मई 1893 को वह बम्बई से अमेरिका के लिये रवाना हुये। उन्होंने लंका, पनामा, सिंगापुर, हांगकांग, कैन्टान, नागाशाकी, ओसाका, क्योटो, टोक्यो, योकोहामा होते हुए जुलाई के अन्त में शिकागो पहुंचे। उन्होंने रास्ते में चीन और जापान के मंदिरों में भारत के धार्मिक प्रभावों के अवशेष देखे। चीन में संस्कृत पाण्डुलिपि देखकर वह आश्चर्यचकित थे, जापान में उन्हें बंग्ला लिपि में संस्कृत मंत्रों को देखकर अचरज हुआ। शिकागो पहुंचने के कुछ दिन पश्चात् उन्होंने विश्व धर्म मेले के सूचना विभाग में सम्पर्क किया तो पता चला कि सितम्बर के प्रथम सप्ताह में धर्म सम्मेलन शुरू होगा। उसमें हिस्सा लेने के लिए समुचित परिचय पत्र होना आवश्यक है। कोई भी व्यक्ति उस सम्मेलन में ऐसे ही शामिल नहीं हो सकता। उन्होंने मद्रास के एक मित्र को तार भेजकर सहायता की मांग की लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी।
शिकागो की अपेक्षा बोस्टन कम खर्चीला था इसलिए स्वामी विवेकानन्द बोस्टन के लिए रवाना हुए। रास्ते में उनकी भेंट अमेरिकन महिला से हुयी जिसने उन्हें अपने घर रहने का निमन्त्रण दिया। उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में यूनानी विभाग के प्रोफेसर जेएच राइट का परिचय दिया। श्री राइट का एक मित्र डा. बोरोज धर्म संसद प्रतिनिधि चयन समिति के अध्यक्ष थे। उन्होंने एक पत्र देकर स्वामीजी को उनके पास भेजा। उन्होंने पत्र में लिखा-’’यह एक ऐसा मनुष्य है जो हमारे सब प्रोफेसरों को मिला देने पर उनसे कहीं अधिक विद्वान है।’’ उन्होंने स्वामी जी को शिकागो का टिकट भी खरीदकर दिया। जब वह शिकागो पहुंचे तो समिति का पता उनके हाथ से खो गया। वे थक कर चकनाचूर हो गये। इस हताशा के क्षण में श्रीमती जार्ज डब्लू ह्वेल से उनका परिचय हुआ। ह्वेल ने स्वामीजी को धर्म महासभा के कार्यालय में पहुंचाया। उन्हें प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार कर लिया गया। स्वामीजी धर्म सम्मेलन के प्रतिनिधियों के साथ ठहरा दिये गये।

कोलम्बस हाल में 11 सितम्बर 1893 को धर्म संसद आरम्भ हुयी उसमें 120 करोड़ मानवों के धार्मिक विश्वासों के प्रतिनिधि विराजमान थे। रोमन कैथोलिक चर्च के सर्वोच्च धार्मिक नेता कार्डीनल गिब्बन्स के दोनों ओर प्रतिनिधियों को बैठाया गया जिनमें प्रताप चन्द्र मजूमदार, बम्बई से ब्रह्म समाज के प्रतिनिधि नगरकर, लंका के बौद्ध प्रतिनिधि धर्मपाल, जैनियों के प्रतिनिधि महात्मा गांधी, श्रीमती ऐनी बीसेन्ट के साथ श्री चक्रवर्ती थियोसाॅफिकल सोसाइटी के प्रतिनिधि थे। उन्हीं के बीच स्वामी विवेकानन्द भी शामिल हुए। तीसरे पहर स्वामी विवेकानन्द को अध्यक्ष के जोर देने पर खड़ा होना पड़ा। उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया- ’’अमेरिका निवासी बहनो और भाइयो!’’ इसके बाद स्वामी विवेकानन्द बोल न सके। समूचा सभास्थल तालियों से गडगडा उठा। स्वामी विवेकानन्द के सम्बोधन पर सभी श्रोता मन्त्रमुग्ध थे। उनसे पूर्व इतना हृदयस्पर्शी सम्बोधन कोई धर्म प्रतिनिधि नहीं दे सका था। देर तक सभा स्थल हर्षोल्लास से भरा हुआ था। लगभग पांच मिनट तक स्वामी विवेकानन्द ने बोलने की कोशिश की लेकिन खुशी के शोर में उनकी आवाज कोई सुन न सका।
Swami Vivekananda
स्वामी जी ने विश्व के युवाओं को सहिष्णुता की शिक्षा दी। उन्होंने दो श्लोकों का उद्धरण देते हुए कहा कि यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना है तो वह किसी देश-काल की सीमा में नहीं रह सकता। वह उस असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा जिसका उपदेश सूर्य, कृष्ण, ईसा और दूसरे धर्मगुरुओं ने समय-समय पर दिया है। उन्होंने अन्त में शुद्धता, पवित्रता, दयाशीलता, उन्नत चरित्र तथा गरीबों और असहायों पर दया की शिक्षा दी। अमेरिका के समाचार पत्रों में स्वामी विवेकानन्द पूरी तरह से छा गये थे। किसी समाचार पत्र ने उन्हें मशीहा तो किसी ने उन्हें ऋषि की संज्ञा दी। दि न्यूयार्क हेरल्ड ने ‘धर्म महासभा के सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति‘ की संज्ञा दी। उसने लिखा- ऐसे ज्ञानी देश में मिशनरियों को भेजना कितनी मूर्खता की बात है।

स्वामी विवेकानन्द की सफलता के समाचार शीघ्र ही भारत के सभी शहरों में पहुंच गये। मद्रास से अल्मोड़ा, कलकत्ता से बम्बई, सभी भारतीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने स्वामी विवेकानन्द की सफलता की चर्चा की। वराह नगर रामकृष्ण मठ के सन्यासियों को भी यह समाचार मिला तो उनके आनन्द की सीमा न रही। इस धर्म सम्मेलन के बाद स्वामीजी अमेरिका के विभिन्न विद्यापीठों, संस्कृति केन्द्रों के प्रवास पर गये। उन्होंने ब्रूकलिन एथिकल एसोसिएशन के निमंत्रण पर आध्यात्मिक प्रकाश का मार्गदर्शन किया। जिज्ञासुओं को राजयोग और ज्ञानयोग का अभ्यास कराया। वह यूरोप और जर्मनी की यात्राओं पर भी गये जहां उन्होंने कई केन्द्र स्थापित कर अपने वेदान्त आन्दोलन का आरम्भ किया। 1895 में वह इंग्लैण्ड गये और लगभग डेढ़ वर्ष यूरोपीय संस्कृति के केन्द्र पेरिस में अजायबघर, गिरजाघर, केथेड्रल, आर्ट गैलरी और कला सम्पदा देखकर खूब मुग्ध हुए।

लंदन में उनकी भेंट मार्गेट नोबल से हुयी जो बाद में भगिनी निवेदिता के नाम से प्रसिद्ध हुयीं। स्वामीजी ने अपने गुरुभाई स्वामी शारदानन्द को लन्दन का काम सौंपकर पुनः अमेरिका का रुख किया जिन्हें बाद में न्यूयार्क बुला लिया गया था। 30 दिसम्बर 1896 को स्वामी जी स्वदेश के लिए रवाना हुए। लगभग 15 दिन बाद वह लंका के समुद्रतट पर पहुंचे। कोलम्बो पहुंचने पर धार्मिक स्त्रोतों, ध्वजाओं और पताकाओं के साथ जयघोष से उनका स्वागत किया गया। वे वहां 10 दिन रहे। फिर वे मद्रास पहुंचे जहां उनका बड़े धर्मगुरू की तरह स्वागत किया गया। उन्होंने वहीं विश्व के युवाओं का आह्वान किया - ’’उठो, जागो और ध्येय की प्राप्ति तक रुको मत। आत्मा अनन्त, सर्वशक्तिमान तथा सर्वज्ञ है। यदि सारी दुनिया हाथ में नंगी तलवार लेकर तुम्हारे विरोध में खड़ी हो जाये तो भी तुम जिसे सत्य समझते हो, उसे पूरा करने का साहस करो।’’ 28 फरवरी 1897 को वराहनगर रामकृष्ण मठ की ओर से स्वामी विवेकानन्द का अभिनन्दन किया गया जिसकी अध्यक्षता राजा विनय कृष्ण देव बहादुर ने की।

स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवनकाल में वेलूर मठ की स्थापना के अलावा अमरनाथ, अल्मोड़ा जैसे सुदूर हिमालय क्षेत्रों की यात्राएं भी कीं। वह दूसरी विदेश यात्रा पर 20 जून 1899 को रवाना हुए। अमेरिका में स्वामी तूर्यानन्द को ले जाकर वहां के कार्य को पुनः गति प्रदान की। वे न्यूयार्क के निकट मांट क्लेयर में रूक गये। स्वामी विवेकानन्द ने केलीफोर्निया, सान फ्रान्सिस्को, ओकलैण्ड, अलॅमेडा आदि स्थानों पर नये केन्द्र खोले। जुलाई 1900 में वे पेरिस पहुंचे जहां कांग्रेस आॅफ दि हिस्ट्री रिलीजन्स में शामिल हुए। लगभग तीन महीने पेरिस में रहकर विएना, कुस्तुन्तुनिया, एथेन्स और  मिस्र होते हुए वे दिसम्बर में मातृभूमि वापस आ गये। सन् 1901 में वह पूर्वी बंगाल और असम की तीर्थयात्रा पर गये। अगले वर्ष उन्होंने बनारस की यात्रा की। स्वामी विवेकानन्द ने 39 वर्ष की अवस्था में देहत्याग कर दिया।

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