ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित - क्षत्रियों की वंशावली



ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित - क्षत्रियों की वंशावली
Based on Historical Evidence - Genealogy of Kshatriyas
ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित -क्षत्रियों की वंशावली
भारत के चार क्षत्रिय वंशों को उनकी उत्पत्ति के अनुसार निम्न वंशों में विभाजित किया गया है। जो निम्न है - 1. सूर्य वंश, 2. चंद्र वंश, 3. नाग वंश और 4. अग्नि वंश

ऐतिहासिक साक्ष्यों पर आधारित -क्षत्रियों की वंशावली
सूर्यवंशी क्षत्रिय
प्राचीन पुस्तकों के अवलोकन से ऐसा ज्ञात होता है कि भारत में आर्य दो समूहों में आये। प्रथम लम्बे सिर वाले और द्वितीय चैडे़ सिर वाले। प्रथम समूह उत्तर-पश्चिम (ऋग्वेद के अनुसार) खैबरर्दरे से आये, जो पंजाब, राजस्थान, और अयोध्या में सरयू नदी तक फैल गये। इन्हें सूर्यवंशी क्षत्रिय कहा गया है। प्रथम समूह के प्रसद्धि राजा भरत हुए। भरत की संताने और उनके परिवार को सूर्यवंशी क्षत्रिय का नाम दिया गया। यह 11 वें स्कन्ध पुराण अध्याय 1 में श्लोक 15, 16 और 17 में वर्णित है। रोमिला थापर ने पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर लिखा है कि महाप्रलय के समय केवल मनु जीवित बचे थे। भगवान विष्णु ने इस बाढ़ के संबंध में पहले ही चेतावनी दे दी थी, इसलिये मनु ने अपने परिवार और सप्तऋषियों को बचा ले जाने के लिये एक नाव बना ली थी। भगवान विष्णु ने एक बड़ी मछली का रूप धारण किया, जिससे वह नौका बाँध दी गयी। मछली जल-प्रवाह में तैरती हुई नौका को एक पर्वत शिखर तक ले गयी। यहाँ मनु उनका परिवार और सप्तऋषि प्रलय की समाप्ति तक रहे और पानी कम होने पर सुरक्षित रूप से पृथ्वी के रूप में मनु का उल्लेख है। पुराणों में 14 मनु वर्णित है जिसमें से स्वयंभुव मनु संसार के सर्वप्रथम मनु है। विवस्वान सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु सातवें मनु थे। इनके पहले के छः मनु स्वंयभुव वंश के थे।


Kshatriya Vanshavali


वैवस्वत मनु से त्रेता युग प्रारम्भ हुआ। श्रीमद् भागवत पुराण में वर्णित है कि महाप्रलय के समय केवल परम् पुरूष ही बचे, उनसे ब्राह्या जी उत्पन्न हुये। ब्रह्मा से मरीच, मरीच की पत्नी अदिति से विवस्वान (सूर्य) का जन्म हुआ तथा विवस्वान की पत्नी संज्ञा से मनु पैदा हुए। वसतुत वैवस्वत मनु भारत के प्रथम राजा थे, जो सूर्य से उत्पन्न हुये और अयोध्या नगरी बसाई। सबसे पहले मनु जिनको स्वयंभू कहते हुए इनके पुत्र प्रियावर्त और उनके पुत्र का नाम अग्निध्रा था, अग्निध्रा के पौत्र का नाम नाभि था और नाभि के पुत्र का नाम ऋषभ था। ऋषभ के 100 पुत्र हुए। जिसका वर्णन वेदों में मिलता है। इनमें से सबसे बड़ा पुत्र भरत था। जिसके नाम पर भरत हर्ष का नाम पड़ा और यह सूर्यवंशी क्षत्रिय थे। इसका वर्णन स्कन्ध पुराण 5 और अध्याय 7 में मिलता है। भरत का परिवार तेजी से बढ़ा और उन्हें भारत जन कहा जाने लगा। जिसका वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। इस परिवार में भगवान मैत्रावरूण और अप्सरा उर्वशी के पेट से वशिष्ठ का जन्म हुआ। जो आगे चलकर भरत के पुरोहित हुए। वशिष्ठ ने इनको बलशाली औरवीरत्व प्रदान किया। इसी बीच विश्वामित्र जो जन्म से क्षत्रिय थे। अपने कठिन तपस्या से ऋषि का स्थान प्राप्त किया और क्षत्रियों के गुरू बन गए। इससे वशिष्ठ व विश्वामित्र दोनों एक दूसरे के दुश्मन बन गए। इस प्रकार वशिष्ठ एवं विश्वामित्र दोनों ने पुरोहित का पद पा लिया और इस वंश को सूर्यवंशी कहा जाने लगा। आर्यों की वर्ण व्यवस्था के पश्चात् ऋषियों ने मिलकर सूर्य नामक आर्य क्षत्रिय की पत्नी सरण्यू से उत्पन्न मनु को पहला राजा बनाया। वायु नामक ऋषि ने मनु का राज्याभिषेक किया। मनु ने अयोध्या नगरी का निर्माण किया और उसे अपनी राजधानी बनाई। मनु से उत्पन्न पुत्र सूर्यवंशी कहलाये। उस युग में सूर्यवंशियों के अयोध्या, विदेह, वैशाली आदि राज्य थे।
मनु के 9 पुत्र तथा एक पुत्री इला थी। मनु ने अपने राज को 10 भाग में बांट कर सबको दे दिया। अयोध्या का राज्य उनके बाद उनके 1. बडे़ पुत्र इक्ष्वाकु को मिला। उसके वंशज इक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रिय कहलाये। राजा मनु का 2. दूसरा पुत्र नाभानेदिस्त था। जिसे बिहार का राज्य मिला और आजकल इस इलाके को तिरहुत कहते है। इनके 3. तीसरा पुत्र विशाल हुए। जिन्होंने वैशाली नगरी बसा कर अपनी राजधानी बनाई। मनु के 4. चौथा पुत्र करूष के वंशज करूष कहलाये। इनका राज्य बघेलखंड था। उस युग में यह प्रदेश करूष कहलाने लगा। 5. पाँचवा शर्याति नामक मनु के पुत्र को गुजरात राज्य मिला और उसका 6. छटा पुत्र आनर्त था। जिससे वह प्रदेश आनर्त कहलाया। आनर्त देश की राजधानी कुशस्थली वर्तमान में द्वारका थी। आनर्त के रोचवान, रेव और रैवत तीन पुत्र थे। रैवत के नाम पर वर्तमान गिरनार रैवत पर्वत राक्षसों ने समाप्त कर दिया। मनु के 7. सावतें पुत्र का राज्य यमुना के पश्चिमी तट तथा 8. आठवाँ पुत्र धृष्ट का राज्य पंजाब में था। जिसके वंशज धृष्ट क्षत्रिय कहलाये।
इक्ष्वाकु के कई पुत्र थे, परन्तु मुख्य दो थे, राजा की ज्येष्ठ संतान 1. विकुक्षी था, जिसे शशाद भी कहा जाता था। वह पिता के बाद अयोध्या का राजा बना। शशाद के पुत्र का नाम काकुत्स्थ था, जिसके वंशज काकुत्स्थी कहलाए। इक्ष्वाकु का 2. दूसरा पुत्र निर्मा था, उसका राज्य अयोध्या और विदेह के बीच स्थापित हुआ। इस वंश के एक राजा मिथि हुए, जिन्होनें मिथिला नगरी बसाई। इस वंश में राजा जनक हुए। इस राज्य और अयोध्या राज्य के बीच की रेखा सदानीरा (राप्ती) नदी थी।
Kshatriya Vanshavali

इस वंश की आगे चलकर अनेक शाखा-उपशाखा हुई और वे सब सूर्यवंशी कहलाए। इस वंश के महत्वपूर्ण नरेशों के नाम पर अनेक वंशों के नाम हुए, जैसे-इक्ष्वाकु काकुत्स्थ से काकुत्स्थ वंश कहलाया। रघु के वंशज रघुवंशी कहलाए। अयोध्या के महाराजा काकुत्स्थ का पौत्र पृथु हुआ। इसने शुरू में जमीन को नपवा कर हदबन्दी करवाई। उसके समय में कृषि की बड़ी उननति हुई थी। उसी वंश में चक्रवर्ती सम्राट मान्धाता, सगर, भगीरथ, दिलीप, रघु, दशरथ और राम हुए।

सूर्यवंशी राजाओं की नामावली
क्षत्रियों की गणना करते हुए, सर्वप्रथम सूर्यवंश का नाम लिया जाता है। इसकी उत्पत्ति महापुरुष विवस्वान् (सूर्य) से मानी जाती है। ब्रह्मा के पुत्र मरिज के पुत्र कश्यप हुए। कश्यप की रानी अदिती से "सूर्य" की उत्पत्ति हुई। जिसे विवस्वान् भी कहा जाता है। विवस्वान् के पुत्र "मनु" हुए। मनु के नव पुत्र एवं एक पुत्री ईला थी। जिनमें सबसे बडे़ इक्ष्वाकु थे। इसलिए सूर्य वंश को इक्ष्वाकु वंश भी कहा जाता है। मनु ने ही अयोध्या को बसाया था। भिन्न-भिन्न पुराणों में दी गई सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली इस प्रकार है:- 1.मनु 2. इक्ष्वाकु 3. विकुक्षि 4. परंजय 5. अनेना 6. पृथु 7. वृषदश्व 8. अन्ध्र 9. युवनाश्व 10. श्रावस्त 11. वृहदश्व 12. कुवलायाश्व 13. दृढाश्व 14. प्रमोढ 15. हर्रूश्व 16. निंकुभ 17. संहताश्व 18. कुशाश्व 19. प्रसेनजित 20. युवनाश्व (द्वितीय) 21. मान्धाता 22. पुरूकुतस 23. त्रसदस्यु 24. सम्भूल 25. अनरण्य 26. त्रसदश्व 27. हर्यस्व 28. वसुमान् 29. त्रिधन्वा 30. त्ररूयारूणि 31. सत्यव्रत 32. हरिश्चन्द्र 33. रोहिताश्व 34. हरित 35. चंचु 36. विजय 37. रूरूक 38. वृक 39. बाहु 40. सगर 41. असमंजस 42. अंशुमान 43. दिलीप 44. भागीरथ 45. श्रुत 46. नाभाग 47. अम्बरीष 48. सिन्धुद्वीप 49. अयुतायु 50. ऋतुपर्ण 51. सर्वकाम 52. सुदास 53. सोदास 54. अश्मक 55. मूलक 56. दशरथ 57. एडविड 58. विश्वसह 59. दिलीप (खटवाँग) 60. रघु 61. अज 62. दशरथ 63. रामचन्द्र 64. कुश 65. अतिथि 66. निषध 67. नल 68. नभ 69. पुण्डरीक 70. क्षेमधन्ध 71. देवानीक 72. पारियाग 73. दल 74. बल 75. दत्क 76. वृजनाभ 77. शंखण 78. ध्युपिताश्न 79. विश्वसह 80. हिरण्नाभ 81. पुष्य 82. धु्रवसन्धि 83. सुदर्शन 84. अग्निवर्ण 85. शीध्र्र 86. मरू 87. प्रसुश्रुत 88. सुसन्धि 89. अमर्ष 90. सहस्वान् 91. विश्वभन 92. वृहद्बल 93. वृहद्रर्थ 94. उरूक्षय 95. वत्सव्यूह 96. प्रतिव्योम 97. दिवाकर 98. सहदेव 99. वृहदश्व 100. भानुरथ 101. प्रतीतोश्व 102. सुप्रतीक 103. मरूदेव 104. सुनक्षत्र 105. किन्नर 106. अंतरिक्ष 107. सुपर्ण 108. अमित्रजित् 109. बहद्राज 110. धर्मी 111. कृतंजय 112. रणंजय 113. संजय 114. शाक्य 115. शुद्धोधन 116. सिद्धार्थ 117. राहुल 118. प्रसेनणित 119. क्षुद्रक 120. कुण्डक 121. सुरथ 122. सुमित्र

उपरोक्त नाम सूर्यवंशी मुख्य-मुख्य राजाओं के हैं, क्योंकि मनु से राम के पुत्र कुश तक केवल चैसठ राजाओं के नाम मिलते हैं। जबकि यह अवधि लगभग कई करोड़ वर्षों की है। अतः पुराणों में सभी राजाओं के नाम आना अंसभव भी हैं।

सूर्यवंश से निकली शाखाएँ
1. सूर्यवंशी 2. निमि वंश 3.निकुम्भ वंश 4. नाग वंश 5. गोहिल वंश, 6. गहलोत वंश 7. राठौड़ वंश 8. गौतम वंश 9. मौर्य वंश 10. परमार वंश, 11. चावड़ा वंश 12. डोड वंश 13. कुशवाहा वंश 14. परिहार वंश 15. बड़गूजर वंश, 16. सिकरवार 17. गौड़ वंश 18. चैहान वंश 19. बैस वंश 20. दाहिमा वंश, 21. दाहिया वंश 22. दीक्षित वंश

चन्द्रवंशी क्षत्रिय
द्वितीय आर्यों का समूह चंद्रवंशी क्षत्रियों के नाम से जाना जाता है। ऋग्वेद के अनुसार यह समूह चंद्रवंशी क्षत्रिय के नाम से जाना जाता और यह हिमालय को गिलगिट के रास्ते से पार किया और मनासा झील के पास से होते हुए भारत आए। इनका सर सूर्यवंशीय के मुकाबले चौड़ा होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार चंद्रवंश के प्रथम राजा का नाम यायात्री था। यह आयु के पुत्र और पूर्वा के पौत्र थे, इनको चंद्रवंशीय कहा जाता है तथा इनके 5 पुत्र थे। यह गिलगिट होते हुए सरस्वती नदी के क्षेत्र में आए ओर सरहिन्द होते हुए दक्षिण पूर्व में बस गए। यह क्षेत्र सूर्यवंशियों के अधिकार में नहीं था। प्रारंभिक युग में चन्द्र क्षत्रिय का पुत्र बुद्ध था, जो सोम भी कहलाता था। बुद्ध का विवाह मनु की पुत्री इला से हुआ। उनसे उत्पन्न हुए पुत्र का नाम पुरूरवा था। इसकी राजधानी प्रयाग के पास प्रतिष्ठानपुर थी। पुरूरवा के वंशज चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहलाए। पुरूरवा के दो पुत्र आयु और अमावसु थे। आयु ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते राज्य का स्वमाी बना तथा अमावसु को कान्यंकुब्ज (कन्नौज) का राज्य मिला।
आयु के नहुष नामक पुत्र हुआ। नहुष के दो पुत्र हुए ययाति और क्षत्रबुद्ध। ययाति इस वंश में सर्वप्रथम चक्रवर्ती सम्राट बना और उसके भाई क्षत्रबुद्ध को काशी प्रदेश का राज्य मिला। उसकी छठी पीढ़ी में काश नामक राजा हुआ, जिसने काशी नगरी बसाई थी तथा काशी को अपनी राजधानी बनाई। सम्राट ययाति के यदु, द्रुह्य, तुर्वसु, अनु और पुरू पाँच पुत्र हुए। सम्राट ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरू को प्रतिष्ठानपुर का राज्य दिया, जिसके वंशज पौरव कहलाए। यदु को पश्चिमी क्षेत्र केन, बेतवा और चम्बल नदियों के काठों का राज्य मिला। तुर्वसु को प्रतिष्ठानपुर का दक्षिणी पूर्वी प्रदेश मिला, जहाँ पर तुर्वसु ने विजय हासिल कर अधिकार जमा लिया। वहाँ पहले सूर्यवंशियों का राज्य था। दुह्य को चम्बल के उत्तर और यमुना के पश्चिम का प्रदेश मिले और अनु को गंगा-यमुना के पूर्व का दोआब का उत्तरी भाग, यानी अयोध्या राज्य के पश्चिम का प्रदेश मिला। ये यादव आगे चलकर बडे़ प्रसिद्ध हुए। इनसे निकली हैहयवंशी शाखा काफी बलशाली साबित हुई। हैहयंवशजों ने आगे बढ़कर दक्षिण में अपना राज्य कायम कर लिया था। यादव वंश में अंधक और वृष्णि बडे़ प्रसिद्ध राजा हुए हैं।
जिनसे यादवों की दो शाखाएं निकली। प्रथम शाखा अंधक वंश में आगे चलकर उग्रसेन और कंस हुए, जिनका मथुरा पर शासन था। दूसरी शाखा वृष्णिवंश में कृष्ण हुए, जिसने कंस को मारकर उसके पिता उग्रसेन को मथुरा का राजा बनाया। आगे चलकर वृष्णिवंश सौराष्ट्र प्रदेेश स्थित द्वारका में चला गया।
दुह्य वंश में गांधार नामक राजा हुआ, उसने वर्तमान रावलपिंडी के उत्तर पश्चिम में जो राज्य कायम किया, वहीं गांधार देश कहलाया। अनु के वंशज आनय कहलाते है।
इस वंश में उशीनर नामक राजा बड़ा प्रसिद्ध हुआ है। उसके वंशज समूचे पंजाब में फैले हुए थे। उशीनर का पुत्र शिवि अपने पिता से अधिक प्रतापी शासक हुआ और चक्रवर्ती सम्राट कहलाया। दक्षिणी पश्चिमी पंजाब में शिवि के नाम पर एक शिविपुर नगर था, जिसे आजकल शेरकोट कहा जाता है। चन्द्रवंशियों में यौधेय नाम के बडे़ प्रसिद्ध क्षत्रिय हुए थे।
कन्नौज के चन्द्रवंशी राजा गाधी का पुत्र विश्वरथ था, जिसने राजपाट छोड़कर तपस्या की थी। वहीं प्रसिद्ध "ऋषि विश्वामित्र" हुआ। इन्हीं ऋषि विश्वामित्र ने "गायत्री मंत्र" की रचना की थी। यादवों की हैहय शाखा में कार्तवीर्य अर्जुन बड़ा शक्तिशाली शासक था, जो बाद में चक्रवर्ती सम्राट बन गया था, परन्तु अन्त में परशुराम और अयोध्या के शासक से युद्ध में परास्त होकर मारा गया।
पौरव वंश का एक बार पतन हो गया था। इस वंश में पैदा हुए दुष्यन्त ने बड़ी भारी शक्ति अर्जित कर अपने वंश को गौरवान्वित किया। दुष्यनत के बडे़ भाई एवं शकुन्तला का पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट बना। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि जिसके नाम पर यह देश भारत कहलाया। इसके वंशज हस्ती ने ही हस्तिनापुर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। इसी वंश के शासकों ने पांचाल राज्य की स्थापना की, जो बाद में दो भागों में बंट गया। एक उत्तरी पांचाल ओर दूसरा दक्षिणी पांचाल। उत्तरी पांचाल की राजधानी का नाम अहिच्छत्रपुर था, जो वर्तमान में बरेली जिले में रामनगर नामक स्थान है। दक्षिण पांचाल में कान्यकुब्ज का राज्य विलीन हो गया था जिसकी राजधानी काम्पिल्य थी। पौरव वंश में ही आगे चलकर भीष्म पितामह, धृतराष्ट्र, पांडु, युधिष्ठिर, परीक्षित और अन्य राजा हुए।

चन्द्र-वंश से निकली शाखाएँ
1. सोमवंशी 2. यादव 3. भाटी 4. जाडे़दार 5. तोमर 6. हैहय, 7. करचुलिसया 8. कौशिक 9. सेंगर 10. चेन्दल 11. गहरवार 12. बेरूआर, 13. सिरमौर 14. सिरमुरिया 15. जनवार 16. झाला 17. पलवार 18. गंगावंशी 19. विलादरिया 20. पुरूवंशी 21. खातिक्षत्रिय 22. इनदौरिया 23. बुन्देला 24.कान्हवंशी, 25. रकसेल 26. कुरूवंशी 27. कटोच 28. तिलोता 29. बनाकर 30. भारद्वाज 31. सरनिहा 32. द्रह्युवंशी 33. हरद्वार 34. चैपटखम्भ 35. क्रमवार 36. मौखरी 37. भृगुवंशी 38. टाक

नागवंश क्षत्रिय
आर्यों में एक क्षत्रिय राजा शेषनाग था। उसका जो वंश चला, वह नागवंश कहलाया। प्रारम्भ में इनका राज्य कश्मीर में था। वाल्मीकि रामायण में शेषनाग और वासुकी नामक नाग राजाओं का वर्णन मिलता है। महाभारत काल में ये दिल्ली के पास खांडव वन में रहते थे, जिन्हें अर्जुन ने परास्त किया था। इनके इतिहास का वर्णन राजतरंगिणी में मिलता है।
विदिशा से लेकर मथुरा के अंचल तक का मध्यप्रदेश नागवंशियों की शक्ति का केंद्र होने से उन्होनें विदेशियों से जमकर लोहा लिया। ये लोग शिवोपासक थे, जो शिवलिंगों को कंधों और पगडि़यों में धारण किया करते थे। कुषाण साम्राज्य के अंतिम शासक वासुदेव के काल में भारशिवों (नागों) ने काशी में गंगा तक पर दस अश्वमेध यज्ञ किए जो दशाश्वमेध घाट के रूप में स्मृति स्वरूप आज भी विद्यमान हैं। पुराणों में भारशिवों का नवनागों के नाम से वर्णन है। धर्म विषयक आचार-विचार को समाज में स्थापित करने का श्रेय गुप्तों को न जाकर भारशिवों को जाता है। क्योंकि इसकी शुरूआत उनके शासन काल में ही हो चुकी थी। इतिहास के विद्वानों का मत है कि पंजाब पर राज्य करने वाले नाग 'तक' अथवा 'तक्षक' शाखा के नाग थे।
डॉ. जायसवाल मानते है कि पद्मावती वाले नाग भी तक्षक अथवा टाक शाखा के थे। इन नागों की शाखा कच्छप मध्यप्रदेश में थी। ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तर पश्चिमी भारत के गणतांत्रिक राज्यों का इन नागों को सहयोग रहा होगा। इस पारस्परिक सार्वभौमिकता को इन्होनें स्वीकारा। राजस्थान स्थित नागों के राज्यों को परमारों ने समाप्त कर दिया था। इनका गोत्र काश्यप, प्रवर तीन काश्यप, वत्सास, नैधुव वेद सामवेद, शाखा कौथुमी, निशान हरे झण्डे पर नाग चिन्ह तथा शस्त्र तलवार है।

अग्निवंश क्षत्रिय
भारत के राजकुलों में चार कुल चैहान, सोलंकी, परमार तथा प्रतिहार थे, जो अपने को अग्निवंशी मानते हैं। आधुनिक भारतीय व विदेशी विद्वान इस धारणा को मिथ्या मानते हैं। किन्तु इनमें से दो-तीन विद्वानों को छोड़कर सभी सभी अग्निकुल की धारणा को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार भी करते हैं, इसलिए यहाँ अग्निकुल की उत्पत्ति के प्रश्न पर विचार करना आवश्यक हैं। इन कुलों की मान्यता है कि अग्निकुंड से इन कुलों के आदि पुरूष, मुनि वशिष्ठ द्वारा आबू पर्तत पर उत्पन्न किए गए थे। डॉ. दशरथ शर्मा लिखते है कि असुरों का संहार करने के लिए वशिष्ठ ने चालुक्य, चैहान, परमार और प्रतिहार चार क्षत्रिय कुल उत्पन्न किए।
सोलंकियों के बारे मे पूर्व सोलंकी राजा, राजराज प्रथम के समय में वि.1079 (ई. 1022) के एक ताम्रपत्र के अनुसार भगवान पुरूषोत्तम की नाभि कमल से ब्रह्या उत्पन्न हुए, जिनेस क्रमशः सोम, बुद्ध व अन्य वंशजों में विचित्रवीर्य, पाण्ड, अर्जुन, अभिमन्यु, परीक्षित, जन्मेजय आदि हुए। इसी वंश के राजाओं ने अयोध्या पर राज किया था। विजयादित्य ने दक्षिण में जाकर राज्य स्थापित किया। इसी वंश में राजराज हुआ था।
सोलंकियों के शिलालेखों तथा कश्मीरी पंडित विल्हण द्वारा वि. 1142 में रचित 'विक्रमाक्ड़ चरित्र' में चालुक्यों की उत्पत्ति ब्रह्या की चुल्लु से उत्पन्न वीर क्षत्रिय से होना लिखा गया है जो चालुक्य कहलाया। पश्चिमी सोलंकी राजा विक्रमादित्य छठे के समय के शिलालेख वि. 1133 (ई.1076) में लिखा गया है कि चालुक्य वंश भगवान ब्रह्या के पुत्र अत्रि के नेत्र से उत्पन्न होने वाले चन्द्रवंश के अंतर्गत आते हैं।
अग्निकुल के दूसरे कुल चैहानों के विषय में वि. 1225 (ई.1168) के पृथ्वीराज द्वितीय के समय के शिलालेख में चैहानों को चंद्रवंशी लिखा है। 'पृथ्वीराज विजय' काव्य में चैहानों को सूर्यवंशी लिखा है तथा बीसलदेव चतुर्थ के समय के अजमेर के लेख में भी चैहानों को सूर्यवंशी लिखा है।
आबू पर्वत पर स्थित अचलेश्वर महादेव के मन्दिर में वि. 1377 (ई. 1320) के देवड़ा लुंभा के समय के लेख में चौहानों के बारे में लिखा है कि सूर्य और चंद्र वंश के अस्त हो जाने पर जब संसार में दानवों का उत्पात शुरू हुआ तब वत्स ऋषि के ध्यान और चंद्रमा के योग से एक पुरूष उत्पन्न हुआ।
ग्वालियर के वंतर शासक वीरम के कृपापात्र नयनचन्द्र सूरी ने 'हम्मर महाकाव्य' की रचना वि. 1460 (ई. 1403) के लगभग की, जिसमें उसने लिखा है कि पुष्कर क्षेत्र में यज्ञ प्रारम्भ करते समय राक्षसों द्वारा होने वाले विघ्रनों की आशंका से ब्रह्या ने सूर्य का ध्यान किया, इस पर यज्ञ के रक्षार्थ सूर्य मंडल से उतर कर एक वीर आ पहुँचा। जब उपरोक्त यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया, तब ब्रह्मा की कृपा से वह वीर चाहुमान कहलाया।
अग्निकुल के तीसरे वंश प्रतिहारों के लेखों में मंडोर के शासक बाउक प्रतिहार के वि. 894 (ई. 837 ) के लेख में 'लक्ष्मण को राम का प्रतिहार लिखा है जैसा प्रतिहार वंश का उससे संबंध दिखाया है' इसी प्रकार प्रतिहार कक्कूक के वि. 918 (ई. 861) के घटियाला के लेख में भी लक्ष्मण से ही संबंध दिखाया है। कन्नौज के प्रतिहार सम्राट भोज की ग्वालियर की प्रशस्ति में प्रतिहार वंश को लक्ष्मण के वंश में लिखा है। चैहान विक्रहराज के हर्ष के वि. 1030 (ई. 973) के शिलालेख में भी कन्नौज के प्रतिहार सम्राट को रघुवंश मुकुटमणि लिखा है। इस प्रकार इन तमाम शिलालेखों तथा बालभारत से प्रतिहारों का सूर्यवंशी होना माना जाता है।
परमारों के वशिष्ठ के द्वारा अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने की कथा परमारों के प्राचीन से प्राचीन शिलालेखों और काव्यों में विद्यमान है। डॉ. दशरथ शर्मा लिखते हैं कि हम किसी अन्य राजपूत जाति को अग्निवंशी मानें या न मानें, परमारों को अग्निवंशी मानने में हमें विशेष दुविधा नहीं हो सकती। इनका सबसे प्राचीन वर्णन मालवा के परमार शासक सिन्धुराज वि. 1052-1067 के दरबारी कवि पदमगुप्त ने अग्निवंशी होने का तथा आबू पर वशिष्ठ के कुण्ड से उत्पन्न होने का लिखा है। इसी प्रकार परमारों के असनतगढ़, उदयपुर, नागपुर, अथुंणा, हाथल, देलवाड़ा, पाटनारायण, अचलेश्वर आदि के तमाम लेखों में इनकी उत्पत्ति के बारे में इसी प्रकार का वर्णन हैं परमार अपने को चन्द्रवंशी मानते है।
इस प्रकार इन तमाम साक्ष्यों द्वारा किसी न किसी रूप में इन वंशों को विशेष शक्तियों द्वारा उत्पन्न करने की मान्यता की पुष्टि 10 वीं सदी तक तो लिखित प्रमाण हैं। विद्वानों ने अग्निवंशी होने के मान्यता 16 वीं सदी से प्रारम्भ होती है तथा इसे प्रारम्भ करने वाला ग्रन्थ "पृथ्वीराज रासो" हैं। दूसरी ओर भ्ण्डारनक वाट्सन, फारबस, कैम्पबेल, जैक्सन, स्मिथ आदि विद्वानों ने अग्निवंशियों को गूर्जर और हूर्णों के साथ बाहर से आये हुए मानते है। दूसरा विचार इनकी उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। जिसमें यह सोचा गया है कि क्या किसी कारणवश इन वंशों को शुद्ध किया गया है और इस अग्निवंशियों द्वारा अग्नि से शुद्व करने की मान्यता को स्वीकार करते है। भारत में बुद्ध धर्म के प्रचार से बहुत से लोगों ने बुद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया।
शनैः शनैः सारा ही क्षत्रिय वर्ग वैदिक धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म को अंगीकार करता चला गया। भारत में चारों तरफ बौद्ध धर्म का प्रचार हो गया। क्षत्रियों के बौद्ध धर्म में चले जाने के कारण उनकी वैदिक क्रियाएँ, परम्पराएँ समाप्त हो गई। जिससे इनके सामा्रज्य छोटे और कमजोर हो गए। तथा इनका वीरत्व जाता रहा। और तब क्षत्रियों को वापस वैदिक धर्म में पुनः लाने की प्रक्रिया शुरू हुई। और क्षत्रिय कुलों को बौद्ध धर्म से वापस वैदिक धर्म में दीक्षित किया गया और आबू पर्वत पर यह यज्ञ करके बौद्ध धर्म से वैदिक धर्म में उनका समावेश किया गया तथा इन्हें अग्नि कुल का स्वरूप दिया गया।
अब्दुल फजल के समय तक प्राचीन ग्रन्थों से या प्राचीन मान्यताओं से यह तो विदित ही था कि यह चारों वंश बौद्ध धर्म से वापस वैदिक धर्म में आये। जिसका वर्णन अब्दुल फजल ने "आइने अकबरी" में किया है। कुमारिल भट्ट ने विक्रमी संवत् 756 (ई. 700 में) बड़ी संख्या में बौद्ध धर्म को वापस वैदिक धर्म में लाने का कार्य प्रारम्भ किया। जिसे आदि शंकराचार्य ने आगे चलकर पूर्ण किया।
आबू पर्वत पर यज्ञ करके चार क्षत्रिय कुलों को वापस वैदिक धम्र में दीक्षा देने का यह एक ऐतिहासिक कार्यक्रम था, जो करीब छठी या 7 वीं सदीं में हुआ। यह कोई कपोल कल्पना नहीं थी, न कोई मिथ्या बात थी, अपितु वैदिक धर्म को पुनः सशक्त करने का प्रथम कदम था, जिसकी याद के रूप में बाद में ये वंश अपने को अग्नि वंशी कहने लगे।
क्षत्रिय व वैश्यों के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद वैदिक संस्कार तो लुप्त हो गए थे। यहाँ तक कि वे शनैः शनैः अपने गोत्र तक भी भूल चुके थे। जब वे वापस वैदिक धर्म में आए, तक क्षत्रियों तथा वैश्यों द्वारा नए सिरे से पुरोहित बनाए गए, उन्हीं के गोत्र, उनके यजमानों के भी गोत्र मान लिए गए। इसलिए समय-समय पर नए स्थान पर जाने पर जब पुरोहित बदले तो उनके साथ अनेक बार गोत्र भी बदलते चले गए। वैद्य और ओझा की भी यही मान्यता है।

अग्नि-वंश से निकली शाखाएँ
1. परमार 2. सोलंकी 3. परिहार 4. चैहान 5. हाड़ा 6. सोनगिरा 7. भदौरिया 8. बछगोती 9. खीची 10. उज्जैनीय 11. बघेल 12. गन्धवरिया 13. डोड 14. वरगया 15. गाई 16. दोगाई 17. मड़वार 18. चावड़ा 19. गजकेसर 20. बड़केसर 21. मालवा 22. रायजादा 23. स्वर्णमान 24. बागड़ी 25. अहबन 26. तालिया 27. ढेकहा 28. कलहंस 29. भरसुरिय 30. भुवाल 31. भुतहा 32. राजपूत माती

क्षत्रियों के 36 राजवंश (रॉयल मार्शल क्लेन ऑफ़ क्षत्रिय)
सभी लेखकों की यह मान्यता है कि क्षत्रियों के शाही कुलों (राजवंश) की संख्या 36 है। परन्तु कुछ इतिहासकारों ने इन की संख्या कम और कुछ ने ज्यादा लिखी है। कुछ इतिहासकारों ने शाही कुलों की शाखाओं को भी शाही कुल मान लिया। जिससे इनकी संख्या बढ़ गई है। प्रथम सूची चंद्रवर्दायी ने पृथ्वीराज राजसों में 12 वीं शताब्दी में वर्णित किया है।

क्षत्रियों की 36 रॉयल मार्शल क्लेन आफॅ क्षत्रिय (क्षत्रियों के 36 शाही कुल)
इन 36 शाही कुलों (रॉयल मार्शल क्लेन) में 10 सूर्यवंशी, 10 चंद्रवंशी, 4 अग्निवंशी, 12 दूसरे वंश । सभी लेखकों जैसे कर्नल जेम्स टॉड, श्री गौरीशंकर ओझा, श्री जगदीश सिंह परिहार, रोमिला थापर, स्वामी दयानन्द सरस्वती, सत्यार्थ प्रकाश, राजवी अमर सिंह, बीकानेर शैलेन्द्र प्रताप सिंह-बैसवाड़े का वैभव, प्रो. लाल अमरेन्द्र-बैसवाड़ा एक ऐतिहासिक अनुशीलन भाग-1, रावदंगलसिंह-बैस क्षत्रियों का उद्भव एवं विकास, ठा. ईश्वरसिंह मडाढ़ - राजपूत वंशाली, ठा. देवीसिंह मंडावा इत्यादि ने यह माना है कि क्षत्रियों के शाही कुल 36 है लेकिन किसी ने सूची में इनकी संख्या बढ़ा दी है और किसी ने कम कर दी है।
  1. पहली सूची चंद्रवर्दायी जिन्होंने पृथ्वीराजरासो लिखा है बाद इन्होंने पृथ्वीराज रासो के छन्द 32 में छन्द के रूप में कुछ क्षत्रियों के कुल को लिखा है जो इस प्रकार है।
  2. पृथ्वीराज रासो में चंद्रवर्दायी ने कुछ कुलों को एक छन्द (दोहा) के रूप में लिखा है। जो द्वितीय सूची के रूप में प्रकाशित हुई
  3. तृतीय सूची में 36 क्षत्रिय कुल कर्नल टॉड ने नाडोल सिटी (मारवाड़) के जैन मंदिर के पुजारी से प्राप्त कर प्रकाशित किया
  4. चतुर्थ सूची में हेमचंद्र जैन ने "कुमार पालचरित्र" में 36 क्षत्रियों की सूची प्रकाशित की।
  5. पंचम सूची में मोगंजी खींचियों के भाट ने प्रकाशित की
  6. छठी सूची में नैनसी ने 36 शाही कुलों तथा उनके राजधानियों का वर्णन किया गया है
  7. सातवीं सूची में जो पद्मनाभ ने जारी की में प्रकाशित हुई
  8. आठवीं सूची में हमीरयाना जो भन्दुआ में प्रकाशित की।
इसमें 30 कुल का वर्णन है। इस प्रकार से कुल क्षत्रियों की 8 सूचियाँ प्रकाशित हुई। और करीब करीब सभी ने गणना में 36 शाही कुल माने है। प्रारम्भिक 36 कुलों की सूची में मौर्यवंशी तथा नाग वंश का स्थान न मिलना यही सिद्ध करता है कि ये प्रारम्भ में वैदिक धर्म में नहीं आये तथा बौद्ध बने रहे। तथा इतिहासकारों जैसे राजवी अमर सिंह, बीकानेर, प्रो. अमरेन्द्र सिंह, जगदीश सिंह परिहार, राव दंगल सिंह, शैलेन्द्र प्रतापसिंह, ठा. ईश्वरसिंह, ठा. देवी सिंह मंडावा, बीकानेर क्षत्रिय वंश का इतिहास आदि ने भी 36 कुल का वर्णन किया है।

प्रसिद्ध इतिहासकार श्री चिंतामणि विनायक वैद्य ने पृथ्वीराज रासो वर्णित पद्य को अपनी पुस्तक 'मिडाइवल हिन्दू इंडिया' में 36 शाखाओं का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि रवि, राशि और यादव वंश तो पुराणों में वर्णित वंश है, इनकी 36 शाखाएं हैं। एक ही शाखा वाले का उसी शाखा में विवाह नहीं हो सकता। इसे नीचे से ऊपर की ओर पढ़ने से क्रमशः निम्न शाखाएँ हैः 1. काल छरक्के 'कलचुरि' यह हैहय वंश की शाखा है। 2. कविनीश 3. राजपाल 4. निकुम्भवर धान्य पालक 6. मट 7. कैमाश 'कैलाश' 8. गोड़ 9. हरीतट्ट 10. हुल-कर्नल टॉड ने इसी शाखा को हुन लिख दिया है जिससे इसे हूणों की भा्रंति होती है। जबकि हुल गहलोत वंश की खांप है। 11. कोटपाल 12. कारट्टपाल 13. दधिपट-कर्नल टॉड साहब ने इसे डिडियोट लिखा है। 14. प्रतिहार 15. योतिका टॉड साहब ने इसे पाटका लिखा है। 16. अनिग-टॉड साहब ने इसे अनन्ग लिखा है। 17. सैन्धव 18. टांक 19. देवड़ा 20. रोसजुत 21. राठौड़ 22. परिहार 23. चापोत्कट 'चावड़ा' 24. गुहीलौत 25. गोहिल 26. गरूआ 27. मकवाना 28. दोयमत 29. अमीयर 30. सिलार 31. छदंक 32. चालुक्य 'चालुक्य' 33. चहुवान 34. सदावर 35. परमार 36. ककुत्स्थ ।

श्री मोहनलाला पांड्या ने इस सूची का विश्लेषण करते हुए ककुत्स्थ को कछवाहा, सदावर को तंवर, छंद को चंद या चंदेल, दोयमत को दाहिमा लिखा है। इसी सूची में वर्णित रोसजुत, अनंग, योतिका, दधिपट, कारट्टपाल, कोटपाल, हरीतट, कैमाश, धान्यपाल, राजपाल आदि वंश आजकल नहीं मिलते। जबकि आजकल के प्रसिद्ध वंश वैस, भाटी, झाला, सेंगर आदि वंशों की इस सूची में चर्चा ही नहीं हुई।

मतिराम के अनुसार छत्तीस कुल की सूची इस प्रकार है:-
1. सूर्यवंश 2. पेलवार 3. राठौड़ 4. लोहथम्भ 5. रघुवंशी 6. कछवाहा 7. सिरमौर 8. गहलोत 9. बघेल 10. काबा 11. श्रीनेत 12. निकुम्भ 13. कौशिक 14. चन्देल 15. यदुवंश 16. भाटी 17. तोमर 18. बनाफर 19. काकन 20.रहिहो वंश 21. गहरवार 22. करमवार 23. रैकवार 24. चंद्रवंशी 25. शकरवार 26. गौर 27. दीक्षित 28. बड़वालिया 29. विश्वेन 30. गौतम 31. सेंगर 32. उदय वालिया 33. चौहान 34. पड़िहार 35. सोलंकी 36. परमार। इन्होनें भी कुछ प्रसिद्ध वंशों को छोड़कर कुछ नये वंश लिख दिये है। इन्होंने भी प्रसिद्ध बैस वंश को छोड़ दिया है।

कर्नल टॉड के पास छत्तीस कुलों की पाँच सूचियाँ थी जो उन्होंने इस प्रकार प्राप्त की थी:-
  1. यह सूची उन्होंने मारवाड़ के अंतर्गत नाडौल नगर के एक जैन मंदिर के यती से ली थी। यह सूची यती जी ने किसी प्राचीन ग्रंथ से प्राप्त की थी।
  2. यह सूची उन्होंने अन्तिम हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि चंदबरदाई के महाकाव्य पृथ्वीराज रासो से ग्रहण की थी।
  3. यह सूची उन्होंने कुमारपाल चरित्र से ली थी। यह ग्रंथ महाकवि चंदबरदाई के समकालीन जिन मण्डोपाध्याय कृत हैं। इसमें अन्हिलवाड़ा पट्टन राज्य का इतिहास है।
  4. यह सूची खींचियों के भाट से मिली थीं
  5. पांचवीं सूची उन्हें भाटियों के भाट से मिली थी।

इन सभी सूचियों से सामग्री निकालकर उन्होंने यह सूची प्रकाशित की थी:-
1. ग्रहलोत या गहलोत 2. यादु (यादव) 3. तुआर 4. राठौर 5. कुशवाहा 6. परमार 7. चाहुवान या चौहान 8. चालुक या सोलंकी 9. प्रतिहार या परिहार 10. चावड़ा या चैरा 11. टाक या तक्षक 12. जिट 13. हुन या हूण 14. कट्टी 15. बल्ला 16. झाला 17. जैटवा, जैहवा या कमरी 18. गोहिल 19. सर्वया या सरिअस्प 20. सिलार या सुलार 21. डाबी 22. गौर 23. डोर या डोडा 24. गेहरवाल 25. चन्देला 26. वीरगूजर 27. सेंगर 28. सिकरवाल 29. बैंस 30. दहिया 31. जोहिया 32. मोहिल 33. निकुम्भ 34. राजपाली 35. दाहरिया 36. दाहिमा।किसी कवि ने राजपूतों के वंशों का विवरण निम्न दोहे में किया है:-
दस रवि स दस चंद्र से, द्वादस ऋषि प्रमान।
चारी हुताशन यज्ञ से, यह छत्तीस कुल जान।।

इस प्रकार इस दोहे में छः वंशों और छत्तीस कुलों की चर्चा की गयी है: राय कल्याणजी बड़वा जी का वास जिला जयपुर ने इसकी व्याख्या इस प्रकार से की है:
1. सूर्यवंश से ये है: 1. सूर्यवंशी (मौरी) 2. निकुम्भ (श्रीनेत) 3. रघुवंशी 4. कछवाहे 5. बड़गूजर (सिकरवार) 6. गहलोत (सिसोदिया) 7. गहरवार(राठौर) 8. रैकवार 9. गौड़ या गौर 10. निमि वंश (कटहरिया) इत्यादि हैं।
2. चंद्रवंश से ये है: 1. यदुवंशी (जादौन, भाटी, जाडे़चा) 2. सोमवंशी 3. तंवर (जंधारे, कटियार) 4. चन्देल 5. करचुल (हैहय) 6. बैस (पायड, भाले सुल्तान) 7. पोलच 8. वाच्छिल 9. बनाफर 10. झाला (मकवाना)
3. अग्निवंश से ये हैः 1. परिहार 2. परमार (उज्जेने, डोडे, चावड़ा) 3. सोलंकी (जनवार, बघेले, सुरखी) 4. चौहान (हाड़ा, खींची, भदौरिया)
4. ऋषिवंश से ये है: 1. सेंगर 2. कनपुरिया 3. बिसैन 4. गौतम 5. दीक्षित 6. पुंडीर 7. धाकरे भृगुवंशी 8. गर्गवंशी 9. पडि़पारिण देवल 10. दाहिमा
5. नागवंश से ये है: 1. टांक या तक्षक
6. भूमि वंश से ये है: 1. कटोच या कटोक्ष

उपरलिखित वंशों के संदर्भ में स्पष्ट किया है। राजपूतों में कोई भी अग्निवंशी नहीं है और न ही नागों या भूमि से उत्पन्न वंश ही हैं। ये सभी अलंकारिक नाम हैं। राजपूतों के सभी वंश ऋषियों की संतान हैं। इन्होंने सूर्यवंशी, बैस क्षत्रियों को चन्द्रवंश में लिखा है जो सही नहीं है, ये सूर्यवंशी है। भाले सुल्तान बैस वंश की एक शाखा है। जिसके नाम से सुल्तानपुर बसा है।

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क्षत्रियों/राजपूतों का ऐतिहासिक महत्व



भारत में वर्ण व्यवस्था की शुरूआत के पहले से ही क्षत्रियों के अस्तित्व की जानकारी उपलब्ध है। ऋग्वेद में अनेकों स्थान पर ‘‘क्षत्र‘‘ एवं क्षत्रिय शब्द का प्रयोग किया गया है। ऋग्वेद में क्षत्रिय शब्द का प्रयोग शासक वर्ग के व्यक्तित्व का सूचक है। यहां पर ‘‘क्षत्र‘‘ का प्रयोग प्रायः शूरता एवं वीरता के अर्थ में हुआ है। जिसका अभिप्राय लोगों की रक्षा करना था तथा गरीबों को सरंक्षण देना था। यहां क्षत्रिय शब्द का प्रयोग राजा के लिये किया गया है। अतः समाज में क्षत्रियों का एक समूह बन गया जो शूर, वीरता और भूस्ववामी के रूप में अपना आधिपत्य स्थापित किया और शासक के रूप में प्रतिष्ठत हुये।

 

उत्तर वैदिक काल तक क्षत्रियों को राजकुल से संबंधित मान लिया गया। इस वर्ग के व्यक्ति युद्ध कौशल और प्रशासनिक योग्यता में अग्रणी माने जाने लगे। यह समय क्षत्रियों के उत्कर्ष का समय था। इस काल में क्षत्रियों को वंशानुगत अधिकार मिल गया था तथा वे शस्त्र और शास्त्र के ज्ञाता भी बन गये थे। इस प्रकार राजा जो क्षत्रिय होता था वह राज्य और धर्म दोनों पर प्रभावी हुआ। पुरोहितों पर राजा का इतना प्रभाव पड़ा कि वे राजा का गुणगान करने लगे तथा उनको महिमा मंडित करने के लिये उन्हें दैवी गुणों से आरोहित किया और उन्हें देवत्तव प्रदान किया तथा अपनी शक्ति के प्रभाव से राजा को अदण्डनीय घोषित किया गया।

राजपद एवं राजा की प्रतिष्ठा के साथ क्षत्रियों की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई। वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि क्षत्रिय से श्रेष्ठ कोई नहीं है। ब्राह्मण का स्थान उसके बाद आता है। इससे यह स्पष्ठ होता है कि राज्य शक्ति से सम्मलित क्षत्रिय जो ब्राह्मणों के रक्षक और पालक हैं सामाजिक क्षेत्र में श्रेंष्ठ स्वीकार किये गये। बा्रह्यण की श्रेष्ठता का आधार उनका बौद्धिक एवं दार्शनिक होना था। इसका हास हुआ और क्षत्रिय इन क्षेत्रों में भी अग्रणी हुये। राजा जनक, प्रवाहणजबलि, अवश्वपति, कैकेय और काशी नरेश अजातशत्रु ऐसे शासक थे, जिनसे शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने बा्रह्यण आते थे। पौरोहित्य, याज्ञिक क्रियाओं, दार्शनिक गवेषणाओं में भी क्षत्रियों ने ब्रह्यणों के एकाधिकर को चुनौती दी। इन परिस्थतियों में क्षत्रियों ने बा्रह्यणों की श्रेष्ठता को अस्वीकार किया। महाभारत में तो यहां तक कहा गया कि बा्रह्यणों को क्षति से बचाने के कारण ये ‘‘क्षत्रिय‘‘ कहे गये। इस प्रकार क्षत्रियों ने शस्त्र और शास्त्र दोनों के ज्ञाता हो अपनी श्रेष्ठता स्थापित की।

इस पूर्ण भू भारत के चप्पा-चप्पा भू को रक्त से सींचने वाले क्षत्रिय वंश के पूर्वज ही तो थे। इनकी कितनी सुन्दर समाज व्यवस्था, कितनी आदर्श परिवार व्यवस्था, कितनी निष्कपट राज व्यवस्था, कितनी कल्याणीकारी अर्थव्यवस्था और कितनी ऊँची धर्म व्यवस्था थी। आज भी क्षत्रिय वंश और भारत को उन व्यवस्थाओं पर गर्व है। यह व्यवस्थाएँ क्षत्रिय वंश द्वारा निर्मित, रक्षित और संचालित थीं। इसके उपरान्त विश्व साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत और रामायण इसी काल में निर्मित हुए। गीता जैसा अमूल्य रत्न भी इसी वंश की कहानी कहता है। जिसका मूल्यांकन आज का विद्वान न कर सका है और न कर सकता है। इन दोनों में क्षत्रिय वंश के पूर्वजों की गौरव गाथएँ और महिमा का वर्णन है। जिन्होंने विश्व विजय किया था और इस भू-खण्ड के चक्रवर्ती समा्रट रहे थे। महाभारत का युद्ध दो भाईयों के परिवार का साधारण गृह युद्ध नहीं था। वह धम्र और अधर्म का युद्ध था। जो छात्र धर्म के औचित्य और स्वरूप को स्थिर रखने का उदाहरण था।

परम् ब्रह्य परमात्मा के रूप में जिस भगवान कृष्ण की भक्ति का भागवत में वर्णन किया गया है, वे 16 कलाओं से परिपूर्ण भगवान कृष्ण भी तो हमारे पूर्वज थे। यह जाति अति आदर्शवान, उच्च निर्भीक और अद्वितीय है। वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्य, और उत्पीड़न के सामने झुकना, नतमस्तक होना नहीं जानती तथा वह पराजय व पतन को भी विजय और उल्लास में बदलना जानती है। रघुवंशियों के गौरव गाथा और उज्जवल महिमा का वर्णन रघुवंश में दिया गया है। इसे पढ़ने पर मन आनन्दित और आत्मा पुलकित हो उठती है।

परम् श्रद्धेय अयोध्यापति श्री राम रघुवंशी भी तो हमारे पूर्वज थे। उनके गौरव व बड़प्पन की तुलना संसार में किसी से नहीं की जा सकी। यहीं नहीं बौद्व धर्म और जैन धर्म के प्रवर्तक और अंहिसा का पाठ पढ़ाने वाले क्षत्रिय पुत्र भगवान बुद्ध और क्षत्रिय पुत्र महावीर ही तो थे। जिन्होनें उस समय देश को अंहिसा का पाठ पढ़ाया। अतः इस वसुन्धरा में क्षत्रिय जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति विद्यमान नहीं है, जिसके पीछे इतना साहित्यिक बल, प्रेरणा के स्त्रोत और जिनकी गौरवमई गरिमा एवं शौर्य का वर्णन इतने व्यापक और प्रभाव पूर्ण ढंग से हुआ हो। अपने सम्मान और कुल गौरव की रक्षा के लिए वीरांगनाओं ने अग्नि स्नान (जौहर) और धारा (तलवार) स्नान किया है। मैं यह मानने के लिए कभी तैयार नहीं हूँ कि जिस जाति और वंश के पास इतनी अमूल्य निधि और अटूट साहित्यिक निधि हो वह स्वयं अपने पर गर्व नहीं कर सकती।

सतयुग का इतिहास हमें वैदिक वाग्ड.मय के रूप में देखने को मिलता है। वैदिक और उत्तर वैदिक साहित्य में तत्कालीन जीवन दर्शन समाज व्यवस्था आदि का सांगोपांग चित्रण मिलता है। त्रेता और द्वापर युगों के इतिहास पर समस्त पौराणिक सहित्य भरा पड़ा है। वाल्मीकि रामायण और महाभारत उसी इतिहास के दो अमूल्य ग्रन्थ है। महाभारत काल के पूर्व का हजारों वर्षों का इतिहास क्षत्रिय इतिहास मात्र है। महाभारत काल के पश्चात् लगभग डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास भारतीय इतिहास की दृष्टि से अंधकार का युग कहा जा सकता है, पर यह बताने में हमें तनिक भी संकोच नहीं है कि उस समय का समस्त भारत और आस-पास के प्रदेशों पर क्षतित्रों का सर्वभौम प्रभुत्व था।

मौर्यकाल का इतिहास तिथिवार, क्रमवार उपलब्ध है। मौर्यकाल से लगाकर मुसलमानों के आक्रमण तक भारत की क्षत्रिय जाति सर्वभौम प्रभुत्व सम्पन्न जाति रही है। इस्लामी प्रभुत्व के समय में भी जौहर और शाका करके जीवित रहने वाली मर-मर कर पुनः जीवित होने वाली क्षत्रिय जाति का इतिहास हिन्दु भारत का इतिहास है। अतः मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि संसार के प्राचीनतम सभ्य देश भारत में इतिहास में से क्षत्रिय इतिहास निकालने के उपरान्त कुछ भी नहीं बचता। अतः दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि मूल्यतः क्षत्रियों का इतिहास ही भारत का इतिहास है।

इस प्रकार महान ओर व्यापक हिन्दू संस्कृति के अन्तर्गत क्षत्रियों (राजपूतों) की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति रही है। यह विशिष्ट संस्कृति कालान्तर में विशिष्ट आचार-विचार, विशिष्ट भाषा, विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कला-कौशल, विशिष्ठ राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं के कारण ओर भी सबल बनी है।

अतः राजपूत एक ऐसा वंश है, जिसके स्वयं के राजनियम, राजविधान, शासन प्रणाली, सभ्य संसार के इतिहास में सबसे अधिक समय तक प्रचलित रहे हैं तथा सबसे अधिक कल्याणकारी और सफल सिद्ध हुई है। बीच-बीच में कुछ राजाओं द्वारा अपने अलग के नियम और प्रजा के अमंगलकारी कार्यों से पूरे क्षत्रिय वंश को बुरा नहीं कहा जा सकता। जहां राजपूतों ने एक ओर भारतीय संस्कृति की रक्षा की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी स्वयं की विशिष्ट संस्कृति का निर्माण किया। यह विशिष्ट राजपूत संस्कृति आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है। यहां मैं कहना चाहूँगा कि सभी क्षत्रिय शासक निरंकुश नहीं थे, बल्कि इनके समय में शिक्षा, कला, संगीत और संस्कृति की अद्भुत उननति हुई थी। कई तो स्वयं इसके पारखी भी थे, कई तो गरीबों के मित्र एवं सरंक्षक थे। उन्हें सहायता एवं भोजन देते थे। इसमें महाराज हर्ष सबसे अग्रणी थे। ये बैस क्षत्रिय ही तो थे ओर अपनी बहन से मांगकर कपडे़ पहनते थे। बैसवाडे़ में गंगा तट पर बहुत से महत्वपूर्ण स्थान हैं। जिनकी खुदाई कर हम अपने प्राचीन इतिहास को उजागर कर सकते है। यहां समय-समय पर प्राचीन तथा पुरातत्व महत्व की वस्तुओं, सिक्के, बर्तन, हथियार मिलते रहते हैं। जिससे हमारी प्राचीन सभ्यता का ज्ञान होता है। बैसवाड़ा का गंगा तटीय इलाका इस प्राचीन एवं पुरातत्व की वस्तुओं की खान है।

निश्चित रूप से यह कहना कठिन है कि कितने लाख वर्ष पहले हमारे पूर्वजों ने इस वर्ण व्यवस्था को अपना कर सामाजिक जीवन में एक महत्वशाली अनुशासन की व्यवस्था की थी। अतैव अतीत के उस सुदूर प्रभात में भी मानवता के लक्षण, पौषण और उसके लौकिक और परलौकिक उत्कर्ष के लिए यदि कोई वर्ण उत्तरदायी था तो वह वर्ण मुख्य रूप से क्षत्रिय ही तो था ओर यदि कोई जाति और व्यक्ति उत्तरादायी था तो वह क्षत्रिय ही तो था।

पौराणिक काल के जम्बूदीप पर एकछत्र राज की यदि किसी जाति ने स्थापना की तो वह एक मात्र क्षत्रिय ही तो थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस पृथ्वी को वर्तमान आकार और स्वरूप देने वाले और इसका दोहर कर समस्त जीवनोपयोगी सामग्री उपलब्ध कराने वाले व्यक्ति क्षत्रिय राजा पृथु ही थे। हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण और प्रशान्त महासागर से लगाकर ईरान के अति पश्चिमी भाग के भू-खण्ड के अतिरिक्त पूर्वी भाग में तथा आसाम पर क्षत्रियों का ही तो शासन था। यहाँ तक कि देवासुर संगा्रम में देवताओं ने क्षत्रियों का तेज, छात्र शक्ति अन्तर्दृष्टि देखकर ही इनसे सहायता प्राप्त की। एक ओर क्षत्रियों द्वारा रक्षित शान्ति के समय वेदों की रचना हुई तथा सर्वभौमिक सिद्धान्तों के प्रणेता उपनिषेदों के अधिकांश आचार्य क्षत्रिय ही तो थे। कोई आज बता सकता है कि संसार में वह कौनसी जाति है जिसमें अवतरित मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम की भारत के आधी से ज्यादा नर-नारी, परमेश्वर के रूप में उसकी उपासना करते हैं तथा कोई बता सकता है कि वह कौनसी जाति है जिसमें पुरूषोत्तम योगी राज भगवान कृष्ण अवतरित हुए हैं। क्या कोई बता सकता है कि वह कौनसी जाति थी जिसके काल में वाल्मीकि रामायण, महाभारत एवं गीता की रचना हुई। क्या कोई बता सकता है कि सर्वप्रथम शान्ति और अंहिसा का पाठ पढ़ाने वाले बौद्व धर्म के प्रवर्तक भगवान बुद्ध और जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर किस जाति के थे। इन सब प्रश्नों का उत्तर है "क्षत्रिय"।

जिस समय संसार की अन्य जातियाँ अपने पैरों पर लड़खड़ाते हुई उठने का प्रयास कर रही थी, उस समय भारत वर्ष में क्षत्रिय महान सामा्रज्यों के अधिष्ठाता थे:- साहित्य, कला, वैभव, ऐश्वर्य, सुख, शानित के जन्मदाता थे। स्वर्णयुग भारत ज्ञान गुरू भारत और विश्व विजयी भारत के शासक क्षत्रिय ही तो थे। विदेशी आक्रमणकारी यवन, शक, हुर्ण, कुशान जातियों को क्षत्रियों के बाहुबल के सामने नतमस्तक होना पड़ा था। यह क्षत्रिय ही तो थे, जिन्होनें इन आक्रमणकारी जातियों के अस्तित्व तक को भारत में आज ऐतिहासिक खोज बना दिया है। हम उन पूर्वजों को कैसे भूला सकते हैं, जिन्होनें देश भर में शौर्य और तेज के बल से प्रबल राज्यों का निर्माण कर इतिहास में राजपूत काल को अमर कर दिया। इसके बाद इस्लाम धर्म का प्रबल तूफान उठा और भारत की प्राचीन संस्कृतियों, सुव्यवस्थित सामा्रज्यों, दीर्घकालीन व्यवस्थाओं को एक के बाद एक करके धराशायी कर दिया। भारत में इन आक्रमणकारियों का सामना मुख्य रूप से क्षत्रियों को ही करना पड़ा। सामा्रज्य नष्ट हुए, जातियाँ समाप्त हुई, स्वतंत्रता विलुपत हुई पर संघर्ष बन्द नहीं हुआ।

क्या कोई इतिहासकार बता सकता है कि राजपूतों के अतिरिक्त संसार में कोई भी अन्य जाति हुई हैं, जिसने धर्म और सम्मान की रक्षा के लिए सैकडों शाके कियें हो। वे राजपूत नारियों के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसी नारियाँ संसार में हुई, जिन्होनें हँसते-हँसते जौहर कर प्राणों की आहूति दी हो व धारा (तलवार) स्नान किया हो। इसका उदाहरण इतिहास में अन्यथा नहीं मिलेगा।

इस्लाम धर्म का प्रभाव सैकेड़ों वर्षों तक क्षत्रियों से टकराकर निश्तेज होकर स्वतः शानत हो गया। कितने आश्चर्य की बात है कि क्षत्रिय राज्यों के पश्चात् स्थापित होने वाला मुस्लमानी राज्य क्षत्रिय राज्यों से पहले ही समाप्त हो गया।

महात्मा बुद्व के प्रभाव से अधिकांश क्षत्रियों ने बौद्व धर्म स्वीकार कर लिया और अंहिसा पर विश्वास करने लगे। अशोक महान एक शक्तिशाली राजा के रूप में उदित हुए। उसके बाद महाराजा हर्षवर्धन जो कि एक बैस क्षत्रिय राजा थे, जो शीलादित्य के नाम से प्रसिद्व हुए और एक चक्रवर्ती राजा का रूप लिया। जिनका शासन नर्मदा के उत्तर से नेपाल तक तथा अफगानिस्तान, ईरान से लेकर पूर्व में आसाम तक था और जिसके सम्मुख कोई भी राजा सर नहीं उठा सकता था। इन्होनें भी अन्त में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। साथ ही अधिकतर क्षत्रिय जाति ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और इनके बाद कोई प्रभावशाली उत्तराधिकारी न होने के कारण इनका राज्य छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। बौद्व धर्म समाज की शााश्वत आवश्यकता, सुरक्षा के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुआ। उसने राष्ट्र की स्वभाविक छात्र शक्ति को निश्तेज, पंगु और सिद्धान्त हीन बना दिया। वह राष्ट्र पर बाहरी आक्रमणों के समय असफल सिद्ध होने लगा। अतैव क्षत्रियों ने छात्र धर्म के प्रतिपादक वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की, परन्तु शक्तिशाली केन्द्रिय शासन के अभाव में राजपूत राजा आपस में युद्ध करते-करते छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो गए। जिसका लाभ मुस्लिम काल में मुस्लिम आक्रान्ताओं को मिला और क्षत्रिय अपनी शक्ति को क्षीण करते रहे तथा अपने अस्तित्व के लिये लड़ते रहे और भगवान कृष्ण के उपदेशों की पालन करते रहे, परंन्तु संघर्ष को कभी विराम नहीं दिया। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि वास्तव में धर्म युद्ध से बढ़कर कल्याणकारक कत्र्तव्य क्षत्रिय के लिए और कुछ नहीं।
  स्वधर्ममपि चावेक्ष्यण् न विकम्पितुमर्हसि।
धम्र्याद्धि युद्धाच्दे, योऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।
और यदि धर्म युद्ध, संगा्रम को क्षत्रिय नहीं करता तो स्वधर्म, कीर्ति को खोकर पाप का भागी होता।
 अथ चेत्वमिमं धम्यं, संगा्रमं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्म कीर्ति च, हित्वा पापमवाप्स्यसि।।

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क्षमामूर्ति संत एकनाथ जी महाराज



भारत की संत परम्परा में एकनाथ जी महाराज का अपना विशेष स्थान है। भक्त श्रेष्ठ भानु प्रताप के पुत्र चक्रपाणि और चक्रपाणि के पुत्र सूर्यनारायण के घर लगभग 1590 संवत में एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम एकनाथ रखा गया। इनकी माता का नाम रुक्मणी था। बालक के जन्म के समय मूल नक्षत्र था जिसके प्रभाव से बालकपन में ही इनके माता पिता का देहांत हो गया। जब बालक एकनाथ अनाथ हो गया, तब इनका लालन-पालन इनके पितामह ने किया। 12 वर्ष की आयु में बालक एकनाथ के जीवन में घटना घटित होती है जब वे एक शिवालय में कीर्तन कर रहे थे तो रात्रि के अन्तिम पहर में आकाशवाणी होती है, ‘‘जाओ! देवगढ़ में जनार्दन पंत के दर्शन करो।’’ आकाशवाणी को सुनकर एकनाथ जी देवगढ़ की ओर चल पड़े और वहाँ उन्हें संवत् 1602 में जनार्दन पंत के दर्शन हुए। गुरुदेव श्री जनार्दन पंत ने एकनाथ जी को आश्रम की भोजन व्यवस्था का कार्य सौंप दिया। एक दिन एक पाई का हिसाब न मिलने के कारण वे पूरी रात हिसाब मिलाने में लगे रहे और जैसे ही उन्हें अपनी भूल ज्ञात हुई, वे अत्यधिक प्रसन्न होकर गुरुजी के पास आये। गुरुजी बोले, पुत्र! जब तुम एक पाई की भूल ज्ञात होने पर इतने प्रसन्न हो, तो जीवन की भूल जान लेने पर कितने प्रसन्न होंगे? कहा जाता है कि गुरुदेव जनार्दन पंत साक्षात् भगवान दत्तात्रेय थे।
 

एकनाथ जी के जीवन में बहुत से चमत्कार देखने एवं सुनने को मिलते हैं। कहा जाता है कि कृष्णा एवं गोदावरी नदियाँ भी मनस्वी रूप धारण कर आपकी कथा सुनने को आती थीं। एकनाथ जी महाराज दृढ़ विश्वास के साथ कथा का वर्णन करते थे। आपके जीवन की एक घटना इस प्रकार है- एक बार वे रामकथा कह रहे थे- प्रसंग था अशोक वाटिका में सीता जी एवं हनुमान का संभाषण। इसमें एकनाथ जी महाराज बोले कि अशोक वाटिका में सफेद रंग के पुष्प थे, इस पर श्री हनुमान जी ने प्रकट हो कर कहा कि वाटिका के पुष्प लाल रंग के थे। इस पर एकनाथ जी ने कहा, नहीं! पुष्प सफेद रंग के थे। श्री हनुमान जी ने कहा कि आप माँ जानकी जी से पूछ लीजिए। श्री जानकी जी ने कहा कि वत्स हनुमान ठीक कह रहे हैं, वाटिका के पुष्प लाल रंग के ही थे। पुनः एकनाथ जी ने अपने पक्ष पर जोर देकर कहा कि अशोक वाटिका में पुष्प सफेद रंग के ही थे, लाल रंग के नहीं। अब ये तीनों वादी भगवान श्री रामचंद्र जी के पास आये और भगवान के सम्मुख अपना पक्ष रखा। तब भगवान ने विवाद को निपटाते हुए कहा कि अशोक वाटिका के पुष्प सफेद रंग के थे परन्तु हनुमान जी एवं जानकी जी को क्रोध के कारण सफेद रंग के पुष्प लाल रंग के दिखाई पड़ रहे थे। यह एकनाथ जी महाराज का दृढ़ विश्वास था। इस संदर्भ में गोस्वामी जी कहते हैं-
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु।। मानस उत्तर. दो.-10

दूसरी घटना
एक बार एकनाथ जी महाराज अपनी संत मण्डली के साथ गोमुख से गंगा जल लेकर सेतुबंध रामेश्वरम की ओर जा रहे थे, रामेश्वरम के निकट समुद्र के रेत में एक गधा प्यास से व्याकुल होकर कातर दृष्टि से देख रहा था। एकनाथ जी ने अपनी काँवर में उपस्थित जल पिलाकर संत मण्डली से कहा कि यदि आप अपनी काँवर का जल भी इस गधे को पिला दें तो इसके प्राण बच सकते हैं। इस पर संत मण्डली ने विरोध तो प्रकट किया परन्तु एकनाथ जी महाराज के निवेदन को टाल न सके जैसे ही गधे ने गंगाजल ग्रहण किया, साक्षात भगवान गौरी शंकर प्रकट हो गये।

तीसरी घटना
एक बार एकनाथ जी महाराज ने अपने पितरों को श्राद्ध करने के लिए बहुत स्वादिष्ट भोजन बनवाया तथा श्राद्ध का भोजन ग्रहण करने के लिए ब्राह्मणों को आमंत्रित किया। ब्राह्मणों के आने से पूर्व ही कुछ महर जाति के लोग वहाँ से गुजर रहे थे, भोजन की सुगंध से प्रभावित होकर उन्होने कहा कि अहा! कितने सुंदर एवं स्वादिष्ट व्यंजनों की सुगंध आ रही है। एकनाथ जी के इतना सुनने पर आपने महर जाति के लोगों को रोक कर भोजन करवाया। इसके पश्चात् ब्राह्मणों ने जब यह सुना तो वे बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने श्राद्ध ग्रहण करने से इनकार कर दिया तत्पश्चात् घटना कहती है कि पितरों ने साक्षात प्रकट होकर श्राद्ध ग्रहण किया।
 
चौथी घटना
एक बार कुछ चोरों ने चोरी करने के उद्देश्य से एकनाथ जी के घर में प्रवेश किया, घर का सम्पूर्ण सामान इकट्ठा कर, जब वे चलने लगे तो अंधे हो कर सामान से टकराकर गिरने लगे। इसी समय एकनाथ जी महाराज की समाधि टूटी तो इन्होंने चोरों को दृष्टि देकर सामान भी साथ दे दिया।

पाँचवी घटना
एक बार पैथड़ में एक वेश्या रहती थी। वेश्या के विषय में तो सभी लोग जानते ही हैं। एक दिन वेश्या एकनाथ जी महाराज से मिलने गयी और महाराज श्री से निवेदन भी किया कि आप मेरा स्थान भी पवित्र कीजिए। इस पर एकनाथ जी ने कहा, ‘‘अवश्य। एकनाथ जी महाराज ने समाज की संकीर्ण रूढि़ को तोड़कर वेश्या के घर जाकर, उसे परम पवित्र कर दिया। घटना कहती है कि उसी दिन से वेश्या भगवद्भजन करने लग गयी।

छटी घटना
एक दिन अत्यधिक वर्षा हो रही थी। अर्द्धरात्रि के समय चार ब्राह्मण एकनाथ जी महाराज के घर पहुंचे। कई दिनों से लगातार वर्षा के कारण घर पर सूखे ईंधन का अभाव था। एकनाथ जी को ब्राह्मणों की सेवा के लिए सूखे ईंधन की आवश्यकता थी, तो इन्होंने अपने पलंग को तोड़कर सूखे ईंधन की व्यवस्था करके, ब्राह्मणों की यथा योग्य सेवा की।

सातवीं घटना
एकनाथ जी महाराज का गोदावरी स्नान करने का नित्य का नियम था। एक दिन प्रातः जब महाराज जी गोदावरी स्नान करके लौट रहे थे, तब सराय के पास रहने वाले एक मुसलमान युवक ने उनके ऊपर कुल्ला कर दिया। महाराज श्री पुनः गोदावरी स्नान के लिए चल पड़े, लौटने पर मुसलमान युवक ने पुनः अपनी करतूत दोहरा दी। यह क्रम 108 वार तक चला। 108 वीं बार युवक का हृदय द्रवीभूत हो गया। उसने एकनाथ जी महाराज के चरण पकड़कर क्षमा याचना की। इस पर महाराज जी ने कहा, ‘‘बेटा! तू धन्य है, तेरी कृपा से आज एकादशी के दिन मेरा 108 बार गोदावरी स्नान हो गया। इसी परिप्रेक्ष्य में संत कवि कहते हैं-
जो सहि दुख परछिद्र दुुरावा। बंदनीय जेंहि जग जस पावा।।
मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू।। मानस बाल. दो. 01-06,07

आठवीं घटना
एक बार कुछ असामाजिक तत्वों ने मिलकर प्रस्ताव बनाया कि एकनाथ जी महाराज को क्रोधित किया जाए। उनमें से एक युवक ने अपने सभी साथियों के समक्ष संकल्प किया कि वह एकनाथ जी को क्रोधित कर सकता है। युवक ने योजनानुसार कार्य करना शुरू किया। वह जूते पहन कर एकनाथ जी महाराज की रसोई में घूमने लगा और घर को दूषित करने का प्रयोजन करने लगा। एकनाथ जी महाराज की धर्मपत्नी घर को बुहार रहीं थीं, तो वह उछल कर उनकी पीठ पर बैठ गया। एकनाथ जी ने उसे ऐसा करते देखकर अपनी पत्नी से कहा, ‘‘बच्चा आपकी पीठ पर बैठा है, उसे चोट नहीं लगनी चाहिए।’’ तब उनकी पत्नी ने कहा, ‘‘यह तो मेरे बच्चे जैसा है। मैं इसे अपने बच्चे की तरह रखूँगी तथा दुलार करूँगीं।’’ इतना सुनते ही युवक की सम्पूर्ण शरारत सिर के बल दौड़ गयी। उसने दोनों से क्षमा माँगी।


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महाराज छत्रसाल



पन्ना नरेश महाराज चम्पतराय जी बडे़ धर्मनिष्ठ एवं स्वाभिमानी शासक थे। ज्येष्ठ शुक्ल तृृतीया विक्रम सम्वत 1706 को  बालक  छत्रसाल  का  उनके  मोर पहाड़ी के जंगल में जन्म हुआ। उस समय मुगल सम्राट शाहजहां की सेना चारों ओर से घेरा डालने के प्रयत्न में थी। इसलिए इनके पिता ने पुत्र जन्म का उत्सव नहीं मनाया था। पिता की मृृत्यु के पश्चात् 13 वर्ष की अवस्था तक छत्रसाल को ननिहाल में रहना पड़ा और उसके बाद वह पन्ना चले आए और चाचा सुजानराव ने बड़ी सावधानी  से  उन्हें  नैतिक  शिक्षा  दी। आरम्भ से ही छत्रसाल के मन में मुगलों के अत्याचारों से भारत को मुक्त कराने की आकांक्षा थी।

महाराज चम्पतराय का शरीरान्त हो  जाने  पर  युवराज  छत्रसाल  अपने पिता के संकल्प को पूरा करने के लिए सिंहासन पर बैठे। उस समय दिल्ली के सिंहासन पर औरंगजेब बैठ चुका था। उन्हें छत्रपति शिवाजी महाराज से बड़ी प्रेरणा मिली और छत्रपति शिवाजी की सलाह  के  अनुसार  ही  उन्होंने  अपनी शक्ति से मुगलों से अपनी जन्मभूमि को मुक्त कराने का बीड़ा उठाया। उन्होंने सबसे पहले झांसी को अपना निशाना बनाया और बलपूर्वक झांसी पर अधिकार कर लिया। 

1671 ई0 में जलायून, (जालौन) में उनका घोर संग्राम हुआ और सन 1680 में हमीरपुर पर भी उन्होंने अपना राज्य स्थापित कर लिया।  मुगलों ने कूटनीतिक चाल से आपको फांसने की कोशिश की लेकिन छत्रसाल जहां महान शक्तिशाली थे वहीं बडे़ नीतिज्ञ भी थे। वे समझ गए कि दिल्लीपति उनसे सीधी टक्कर नहीं लेकर नवाब अहमदखान के द्वारा उन्हें घेरना चाहता है। छत्रसाल ने तुरंत पेशवा बाजीराव प्रभु से सहायता मांगी और फिर महाराष्ट्र और बुंदेलों की संयुक्त सेना ने बुंदेलखण्ड को स्वतंत्र करा के हिन्दू गौरव की पताका लहरा दी।

वीररस के शिरोमणि कवि भूषण को केवल दो ही व्यक्तियों को अपनी शौर्य गाथा का केन्द्र बनाना रास आया। उन्होंने  लिखा-‘शिवा  को  सराहों,  के सराहों  छत्रसाल  कौं’  छत्रसाल  के राजकवि लाल ने ‘छत्र प्रकाश’ में उनके शौर्य का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है। बुंदेलखण्ड की प्रजा उन्हें साक्षात् देवता मानती थी। अपनी प्रजा के दुःख में वे सदैव ही दुःखी हो उठते थे। छत्रसाल महाराज के हृदय में अंत तक हिन्दू धर्म के उद्धार की तीव्र ज्वाला प्रज्ज्वलित रही। मुगलों से लोहा लेते हुए इस महान धर्मरक्षक  ने  अपने  आपको  भारत  की पवित्र भूमि में विलीन कर दिया। आपकी जीवनी देशभक्तों को सदा प्रेरित करती रहेगी।


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मुहावरे और लोकोक्तियाँ (Idioms and Proverbs)



हिंदी मुहावरे और लोकोक्तियाँ
विश्व की सभी भाषाओं में लोकोक्तियों का प्रचलन है। प्रत्येक समाज में प्रचलित लोकोक्तियाँ अलिखित कानून के रूप में मानी गई हैं। मनुष्य अपनी बात को और अधिक प्रभावपूर्ण बनाने के लिए इनका प्रयोग करता है।लोकोक्ति शब्द लोक+उक्ति के योग से निर्मित हुआ है। लोक में पीढ़ियों से प्रचलित इन उक्तियों में अनुभव का सार एवं व्यावहारिक नीति का निचोड़ होता है। अनेक लोकोक्तियों के निर्माण में किसी घटना विशेष का विशेष योगदान होता है और उसी कोटि की स्थिति परिस्थिति के समय उस लोकोक्ति का प्रयोग स्थिति या अवस्था के स्पष्टीकरण हेतु किया जाता है, जो उस सम्प्रदाय या समाज को सहर्ष स्वीकार्य होता है। मुहावरा एक ऐसा वाक्यांश होता है जिसके प्रयोग से अभिव्यक्ति-कौशल में अभिवृद्धि होती है। प्रायः मुहावरे के अंत में क्रिया का सामान्य रूप प्रयुक्त होता है। जैसे - i. नाकों चने चबाना , ii. दाँतों तले उँगली दबाना।

अंतर: लोकोक्ति का अपर नाम ‘कहावत’ भी है। लोकोक्ति जहाँ अपने आप में पूर्ण होती है और प्रायः प्रयोग में एक वाक्य के रूप में ही प्रयुक्त होती है, जबकि मुहावरा वाक्यांश मात्र होता है। लोकोक्ति का रूप प्रायः एक सा ही रहता है, जब कि मुहावरे के स्वरूप में लिंग, वचन एवं काल के अनुसार परिवर्तन अपेक्षित होता है।

मुहावरे एवं लोकोक्तियाँ
मुहावरे व लोकोक्तियाँ
मुहावरे व लोकोक्तियाँ
मुहावरे
मुहावरे हमारी तीव्र हृदयानुभूति को अभिव्यक्त करने में सहायक होते हैं। इनका जन्म आम लोगों के बीच होता है। लोक-जीवन में प्रयुक्त भाषा में इनका उपयोग बड़े ही सहज रूप में होता है। इनके प्रयोग से भाषा को प्रभावशाली, मनमोहक तथा प्रवाहमयी बनाने में सहायता मिलती है। सदियों से इनका प्रयोग होता आया है और आज इनके अस्तित्व को भाषा से अलग नहीं किया जा सकता। यह कहना निश्चित रूप से गलत नहीं होगा कि मुहावरों के बिना भाषा अप्राकृतिक तथा निर्जीव जान पड़ती है। इनका प्रयोग आज हमारी भाषा अौर विचारों की अभिव्यक्ति का एक अभिन्न तथा महत्वपूर्ण अंग बन गया है। यही नहीं इन्होेंने हमारी भाषा को गहराई दी है तथा उसमें सरलता तथा सरसता भी उत्पन्न की है। यह मात्र सुशिक्षित या विद्वान लोगों की ही धरोहर नहीं है, इसका प्रयोग अशिक्षित तथा अनपढ़ लोगों ने भी किया है। इस प्रकार ये वैज्ञानिक युग की देन नहीं है। इनका प्रयोग तो उस समय से होने लगा, जिस समय मनुष्य ने अपने भावों को अभिव्यक्ति देने का प्रयास किया था।
  1. अपना उल्लू सीधा करना : स्वार्थ सिद्ध करना
  2. अपनी खिचड़ी अलग पकाना: सबसे अलग रहना
  3. अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना: अपनी प्रशंसा स्वयं करना
  4. अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मारना: स्वयं को हानि पहुँचाना
  5. अपने पैरो पर खड़े होना : आत्मनिर्भर होना
  6. अक्ल पर पत्थर पड़ना : बुद्धि भ्रष्ट होना
  7. अक्ल के पीछे लट्ठ लेकर फिरना : मूर्खता प्रदर्शित करना
  8. अँगूठा दिखाना : कोई वस्तु देने या काम करने से इनकार करना
  9. अंधे की लकड़ी होना : एकमात्र सहारा
  10. अच्छे दिन आना : भाग्य खुलना
  11. अंग-अंग फूले न समाना : बहुत खुशी होना
  12. अंगारों पर पैर रखना : साहस पूर्ण खतरे में उतरना
  13. आँख का तारा होना: बहुत प्यारा
  14. आँखें बिछाना: अत्यन्त प्रेम पूर्वक स्वागत करना
  15. आँखें खुलना : वास्तविकता का बोध होना
  16. आँखों से गिरना: आदर कम होना
  17. आँखों में धूल झोंकना : धोखा देना
  18. आँख दिखाना: क्रोध करना/डराना
  19. आटे दाल का भाव मालूम होना : बड़ी कठिनाई में पड़ना
  20. आग बबूला होना : बहुत गुस्सा होना
  21. आग से खेलना : जानबूझकर मुसीबत मोल लेना
  22. आग में घी डालना: क्रोध भड़काना
  23. आँच न आने देना : हानि या कष्ट न होने देना
  24. आड़े हाथों लेना : खरी-खरी सुनाना
  25. आनाकानी करना : टालमटोल करना
  26. आँचल पसारना : याचना करना
  27. आस्तीन का साँप होना : कपटी मित्र
  28. आकाश के तारे तोड़ना : असंभव कार्य करना
  29. आसमान से बातें करना: बहुत ऊँचा होना
  30. आकाश सिर पर उठाना: बहुत शोर करना
  31. आकाश पाताल एक करना : कठिन प्रयत्न करना
  32. आँख का काँटा होना : बुरा लगना
  33. आँसू पीकर रह जाना : भीतर ही भीतर दुखी होना
  34. आठ-आठ आँसू गिराना: पश्चाताप करना
  35. इधर-उधर की हाँकना : बेमतलब की बातें करना
  36. इतिश्री होना : समाप्त होना
  37. इस हाथ लेना उस हाथ देना: हिसाब-किताब साफ करना
  38. ईद का चाँद होना: बहुत दिनों बाद दिखाई देना
  39. ईंट से ईंट बजाना: नष्ट कर देना
  40. ईंट का जवाब पत्थर से देना : कड़ाई से पेश आना
  41. आँसू पोंछना : सांत्वना देना
  42. आँखें तरेरना : क्रोध से देखना
  43. आकाश टूट पड़ना: अचानक विपत्ति आना
  44. आग लगने पर कुआँ खोदना: ऐन मौके पर उपाय करना
  45. उंगली उठाना: निंदा करना/लांछन लगाना
  46. उन्नीस-बीस का फर्क होना : मामूली फर्क होना
  47. उल्टी गंगा बहाना : प्रचलन के विपरीत कार्य करना
  48. उड़ती चिड़िया पहचानना : बहुत अनुभवी होना
  49. उल्लू बनाना : मूर्ख बनाना
  50. उँगली पर नचाना : वश में करना
  51. उल्लू सीधा करना : अपना स्वार्थ देखना
  52. एक और एक ग्यारह होना : एकता में शक्ति होना
  53. एक लाठी से हाँकना : सबसे एक जैसा व्यवहार करना
  54. एक आँख से देखना : समदृष्टि होना/भेदभाव न करना
  55. एड़ी चोटी का जोर लगाना : बहुत कोशिश करना
  56. एक ही थाली के चट्टे-बट्टे होना : एक प्रवृत्ति के होना
  57. ओखली में सिर देना : जानबूझकर विपत्ति में फँसना
  58. ओढ़ लेना : जिम्मेदारी लेना
  59. और का और होना: एकदम बदल जाना
  60. औने-पौने बेचना : हानि उठाकर बेचना
  61. औघट घाट चलना: सही रास्ते पर न चलना
  62. कंचन बरसना: चारों ओर खूब धन मिलना
  63. काट खाना : सूने पन का अनुभव
  64. किस्मत ठोकना : भाग्य को कोसना
  65. कंठ का हार होना: प्रिय बनना
  66. काम में हाथ डालना : काम शुरू करना
  67. कूप मण्डूक होना : अल्पज्ञ होना
  68. कुएं में भाँग पड़ना: सब की बुद्धि मारी जाना
  69. कन्नी काटना: आँख बचाकर खिसक जाना
  70. कसौटी पर कसना: परीक्षण करना
  71. कलेजा मुँह को आना : व्याकुल होना/बहुत परेशान होना
  72. कलेजा ठंडा होना: संतुष्ट होना
  73. काम आना : युद्ध में मारा जाना
  74. कान खाना : शोर करना/परेशान करना
  75. कान भरना : चुगली करना
  76. कान में तेल डालना : शिक्षा पर ध्यान न देना/अनसुना करना
  77. कफन सिर पर बाँधना : लड़ने मरने को तैयार होना
  78. किं कर्तव्य विमूढ़ होना : कोई निर्णय न कर पाना
  79. कमर कसना : तैयार होना
  80. कोल्हू का बैल होना : हर समय श्रम करने वाला
  81. कलेजा टूक-टूक होना : दुःख पहुँचना
  82. कान कतरना : बहुत चतुराई दिखाना
  83. काम तमाम कर देना : मार देना
  84. कीचड़ उछालना : कलंक लगाना/नीचा दिखाना
  85. कंधे से कंधा मिलाकर चलना : साथ देना
  86. कच्चा-चिट्ठा खोलना : भेद खोलना
  87. कौड़ी के मोल बिकना : बहुत सस्ता होना
  88. कान का कच्चा होना : जल्दी बहकावे में आना
  89. कान पर जूँ न रेंगना : कोई असर न होना
  90. खून खौलना : गुस्सा आना
  91. खून के घूँट पीना : गुस्सा मन में दबा लेना
  92. खून पसीना एक करना: बहुत मेहनत करना
  93. खाक छानना: भटकना/काफी खोज करना
  94. खेत रहना : युद्ध में मारे जाना
  95. खाक में मिलना : बर्बाद होना
  96. खाक में मिलाना : बर्बाद करना
  97. खून-सूखना : भयभीत होना
  98. कठपुतली की तरह नाचना : किसी के वश में होना
  99. कब्र में पाँव लटकना : मौत के करीब होना
  100. कलम तोड़ना: अत्यधिक मर्मस्पर्शी रचना करना
  101. कलेजा छलनी करना : ताने मारना/व्यंग्य करना
  102. कलेजा थामकर रह जाना : असह्य बात सहन कर रह जाना
  103. कलेजे का टुकड़ा होना: अत्यंत प्रिय/आत्मिक होना
  104. कागज की नाव होना : क्षणभंगुर
  105. कागजी घोड़े दौड़ाना : केवल कागजी कार्यवाही करना
  106. कानों कान खबर न होना : किसी को पता न चलना
  107. कुत्ते की मौत मरना : बुरी दशा में प्राणांत होना
  108. कमर टूटना : सहारा न रहना
  109. कान भरना : किसी के विरूद्ध शिकायत करते रहना
  110. किसी का घर जलाकर अपना हाथ सेंकना: अपने छोटे से स्वार्थ के लिए दूसरों को हानि पहुँचाना
  111. कटे पर नमक छिड़कना: दुखी को और अधिक दुखी करना
  112. गुदड़ी का लाल होना : छुपा रुस्तम/गरीब किन्तु गुणवान
  113. गड़े मुर्दे उखाड़ना : बीती बातें छेड़ना
  114. गले पड़ना : जबरन आश्रय लेना
  115. गंगा नहाना : दायित्व से मुक्ति पाना
  116. गिरगिट की तरह रंग बदलना : अवसरवादी होना/निश्चय बदलना
  117. गुड़ गोबर होना : काम बिगड़ना
  118. गुड़ गोबर करना : काम बिगाड़ना। किया कराया नष्ट करना
  119. गुलछर्रे उड़ाना : मौज उड़ाना
  120. गाल बजाना : अपनी प्रशंसा करना
  121. गागर में सागर भरना : थोड़े में बहुत कुछ कह देना
  122. गांठ में कुछ न होना : पैसा पास न होना
  123. गला काटना : लोभ में पड़कर हानि पहुँचाना
  124. गर्दन पर छुरी फेरना : अत्याचार करना
  125. घाट-घाट का पानी पीना : स्थान-स्थान का अनुभव होना
  126. घाव पर नमक छिड़कना : दुखी को और दुखी करना
  127. घड़ों पानी पड़ना : बहुत लज्जित होना
  128. घी के दीये जलाना : बहुत खुश होना/खुशियाँ मनाना
  129. घर फूँक कर तमाशा देखना: अपना लुटाकर भी मौज करना/अपने नुकसान पर प्रसन्न होना
  130. घर सिर पर उठाना : बहुत शोर करना
  131. घोड़े बेचकर सोना : निश्चिंत होना
  132. घुटने टेक देना : हार मान लेना
  133. चादर के बाहर पैर पसारना : आय से अधिक व्यय करना
  134. चंगुल में फँसना : किसी के काबू में होना
  135. चोली दामन का साथ होना : घनिष्ठ सम्बन्ध होना
  136. चेहरे पर हवाइयाँ उड़ना : घबरा जाना
  137. चिकनी चुपड़ी बातें करना : चापलूसी करना/कपट व धोखा
  138. चुल्लू भर पानी में डूब मरना : बहुत शर्मिन्दा होना
  139. चिकना घड़ा होना : अत्यन्त बेशर्म
  140. चूड़ियाँ पहनना : कायरता दिखाना
  141. चकमा देना : धोखा देना
  142. चौपट करना : पूर्ण रूप से नष्ट करना
  143. चारों खाने चित्त होना : बुरी तरह हारना
  144. चैन की बंसी बजाना : आराम से रहना
  145. चूना लगाना : धोखा देकर ठगना
  146. चार चाँद लगाना : शोभा बढ़ाना
  147. चम्पत होना : गायब होना
  148. छठी का दूध याद आना : बड़ी मुसीबत में फंसना
  149. छाती ठोकना: उत्साहित होना
  150. छप्पर फाड़कर देना: बिना परिश्रम देना
  151. छाती पर मूँग दलना : बहुत परेशान करना
  152. छोटे मुँह बड़ी बात करना : अपनी हैसियत से ज्यादा बात करना
  153. छाती पर साँप लोटना : अत्यन्त ईर्ष्या करना
  154. छक्के छुड़ाना: पैर उखाड़ देना/बेहाल करना
  155. छाती पर पत्थर रखना : हृदय कठोर करना
  156. जले पर नमक छिड़कना : दुःखी का दुःख बढ़ाना
  157. जान हथेली पर रखना : मरने की परवाह न करना
  158. जमीन पर पैर न पड़ना: बहुत गर्व करना
  159. जान में जान आना: धीरज बँधाना/मुसीबत से छुटकारा पाना
  160. जबानी जमा खर्च करना : गप्पें लड़ाना
  161. जबान पर लगाम लगाना : बहुत कम बोलना
  162. जहर का घूँट पीना : कड़वी बात सुनकर सहन कर लेना
  163. जीती मक्खी निगलना : जानबूझकर बेईमानी करना
  164. जान पर खेलना : साहस पूर्ण कार्य करना
  165. जूता चाटना : चापलूसी करना
  166. जहर उगलना: कड़वी बात कहना
  167. झख मारना : समय नष्ट करना
  168. झगड़ा मोल लेना : विवाद में जानबूझकर पड़ना
  169. जी तोड़ कर काम करना : बहुत मेहनत करना
  170. जी भर आना: दया उमड़ना/चित्त में दुख होना
  171. टोपी उछालना : अपमानित करना
  172. टेढ़ी-खीर होना : कठिन काम
  173. टका सा जवाब देना : साफ इनकार करना
  174. टेक निभाना : वचन पूरा करना
  175. टट्टी की आड़ में शिकार खेलना : छिपकर षड्यंत्र रचना
  176. टाट उलट देना : दिवाला निकाल देना
  177. टाँग अड़ाना : व्यर्थ दखल देना
  178. ठगा सा रह जाना: किंकर्त्तव्य विमूढ़ होना/विस्मित रह जाना
  179. ठकुर सुहाती बातें करना : चापलूसी करना
  180. ठिकाने लगाना : नष्ट कर देना
  181. डूबते को तिनके का सहारा देना: मुसीबत में थोड़ी सहायता भी लाभप्रद
  182. डकार जाना : हड़प लेना/हजम कर जाना
  183. डींग हाँकना : झूठी बड़ाई करना
  184. डूब मरना : शर्म से झुक जाना
  185. डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाना: अपना मत अलग ही रखना
  186. डंका बजना : प्रभाव होना
  187. ढिंढोरा पीटना: प्रचार करना/सूचना देना
  188. ढोल में पोल होना: थोथा या सारहीन
  189. ढोल पीटना : अत्यधिक प्रचार करना
  190. तलवे चाटना : खुशामद करना
  191. तिल का ताड़ करना : छोटी सी बात को बहुत बढ़ा देना
  192. तूती बोलना : खूब प्रभाव होना
  193. तोते उड़ जाना : घबरा जाना
  194. तेवर चढ़ाना : नाराज होना/त्यौरी बदलना
  195. तलवार के घाट उतारना : मार डालना
  196. तिलांजलि देना : त्याग देना/छोड़ देना
  197. तितर-बितर होना : अलग-अलग होना
  198. तारे गिनना : बेचैनी में रात काटना
  199. तीन तेरह करना : तितर-बितर करना
  200. थूक कर चाटना : अपने वचन से मुकरना
  201. थैली खोलना: जी खोल कर खर्च करना
  202. थू-थू करना : घृणा प्रकट करना
  203. दूध का दूध पानी का पानी करना : ठीक न्याय करना
  204. दौड़ धूप करना : खूब प्रयत्न करना
  205. दाँत खट्टे करना : परेशान करना/हरा देना
  206. दाने-दाने को तरसना : बहुत गरीब होना
  207. दाल में काला होना : छल/कपट होना/संदेहपूर्ण होना
  208. दीया लेकर ढूँढना : अच्छी तरह खोजना
  209. दुम दबाकर भागना: डर कर भाग जाना
  210. दाल गलना : काम बनना
  211. दिन में तारे दिखाई देना : घबरा जाना
  212. दाँतों तले उँगली दबाना: आश्चर्यचकित होना
  213. दो-दो हाथ करना: द्वन्द्व युद्ध/अंतिम निर्णय हेतु तैयार होना
  214. दो टूक जवाब देना : स्पष्ट कहना
  215. दिन-रात एक करना : खूब परिश्रम करना
  216. द्रोपदी का चीर होना : अनन्त/अन्त हीन
  217. दिमाग आसमान पर चढ़ना : अत्यधिक गर्व होना
  218. दाँत काटी रोटी होना : अत्यधिक स्नेह होना
  219. दोनों हाथों में लड्डू होना : सर्वत्र लाभ ही लाभ होना
  220. दूसरे के कंधे पर रखकर बंदूक चलाना: दूसरे को माध्यम बनाकर काम करना
  221. दिल छोटा करना : दुखी होना, निराश होना
  222. दिन फिरना : अच्छा समय आना
  223. धूप में बाल सुखाना : अनुभवहीन होना
  224. धाक जमाना : रोब जमाना/प्रभाव जमाना
  225. धूल में मिलाना : नष्ट करना
  226. धरती पर पाँव न पड़ना: फूला न समाना अभिमानी होना
  227. धूल फाँकना : दर-दर की ठोकरें खाना
  228. धज्जियां उड़ाना : दुर्गति करना, कड़ा विरोध करना
  229. बरस पड़ना : बहुत क्रोधित होकर उल्टी-सीधी सुनाना
  230. नमक मिर्च लगाना : बात को आकर्षक बनाकर कहना
  231. नानी याद आना : बड़ी कठिनाई में पड़ना घबरा जाना
  232. निन्यानवे के फेर में पड़ना : धन इकट्ठा करने की चिन्ता में रहना
  233. नाम कमाना : प्रसिद्ध होना
  234. नौ दो ग्यारह होना: भाग जाना
  235. नीला-पीला होना : क्रोध करना
  236. नाक रगड़ना : दीनता प्रदर्शित करना, खुशामद करना
  237. नाक में दम करना: बहुत परेशान करना
  238. नाक भौंह सिकोड़ना: घृणा करना
  239. नाकों चने चबाना : खूब परेशान करना
  240. नाक कटना : बदनामी होना
  241. नुक्ताचीनी करना : दोष निकालना
  242. नाक रख लेना : इज्जत बचाना
  243. नाम निशान तक न बचना : पूर्ण रूप से नष्ट हो जाना
  244. नचा देना : बहुत परेशान कर देना
  245. नींव की ईंट होना: प्रमुख आधार होना
  246. पानी मरना : किसी की तुलना में निकृष्ट ठहरना
  247. पैर पटकना : खूब कोशिश करना
  248. पगड़ी उछालना : बेइज्जत करना
  249. पेट पालना : जीवन निर्वाह करना
  250. पहाड़ टूट पड़ना : बहुत मुसीबत आना
  251. पानी पीकर जात पूछना: काम करके फिर जानकारी लेना
  252. पेट में दाढ़ी होना : लड़कपन में बहुत चतुर होना/घाघ होना
  253. पैरों तले से जमीन खिसकना : बहुत घबरा जाना, अचानक परेशानी आना
  254. पापड़ बेलना : कड़ी मेहनत करना, विषम परिस्थितियों से गुजरना
  255. प्राण हथेली पर रखना : जान देने के लिये तैयार रहना
  256. पिंड छुड़ाना : पीछा छुड़ाना या बचना
  257. पानी पानी होना : लज्जित होना
  258. पेट में चूहे कूदना : तेज भूख लगना
  259. पाँचों उँगलियाँ घी में होना : सब ओर से लाभ होना
  260. पीठ ठोकना : शाबाशी देना, हिम्मत बँधाना
  261. फूँक फूँक कर कदम रखना : सावधानी पूर्वक कार्य करना
  262. फूटी आँखों न सुहाना : बिल्कुल पसंद न होना
  263. फूला न समाना : अत्यधिक खुश होना
  264. पट्टी पढ़ाना : बहका देना, उल्टी राय देना
  265. पेट काटना : बहुत कंजूसी करना
  266. पानीदार होना: इज्जतदार होना
  267. पाँवों में बेड़ी पड़ जाना: बंधन में बंध जाना
  268. बाँह पकड़ना : सहायता करना/सहारा देना
  269. बीड़ा उठाना : कठिन कार्य करने का उत्तरदायित्व लेना
  270. बाल की खाल निकालना : नुक्ताचीनी करना
  271. बात बनाना : बहाना करना
  272. बाँसों उछलना : अत्यधिक प्रसन्न होना
  273. बाल बाँका न होना: कुछ भी नुकसान न होना
  274. बाज न आना: आदत न छोड़ना
  275. बगलें झाँकना: इधर-उधर देखना/निरुत्तर होना/जवाब न दे सकना।
  276. बायें हाथ का खेल होना : सरल कार्य
  277. बल्लियों उछलना : अत्यधिक प्रसन्न होना
  278. बछिया का ताऊ होना : महामूर्ख
  279. भौंह चढ़ाना : क्रुद्ध होना
  280. भूत सवार होना : हठ पकड़ना/काम करने की धुन लगना
  281. भीगी बिल्ली बनना: डरपोक होना
  282. भाड़ झोंकना : तुच्छ कार्य करना/व्यर्थ समय गुजारना
  283. भरी थाली को लात मारना : जीविकोपार्जन के साधन ठुकरा देना
  284. भैंस के आगे बीन बजाना : मूर्ख के समक्ष बुद्धिमानी की बातें करना व्यर्थ
  285. बाल-बाल बचना : कुछ भी हानि न होना
  286. बाछें खिल जाना : आश्चर्यजनक हर्ष
  287. मन खट्टा होना : मन फिर जाना/जी उचाट होना
  288. मन के लड्डू खाना : कोरी कल्पनाएँ करना
  289. मंत्र न लगना : कोई उपाय काम न आना
  290. मुँह में पानी भर आना : इच्छा होना/जी ललचाना
  291. मुँह में लगाम न लगाना: अनियंत्रित बातें करना
  292. मुट्ठी गर्म करना : रिश्वत देना, लेना
  293. मुँह की खाना : हार जाना/हार मानना
  294. मक्खियाँ मारना : बेकार भटकना/बैठना
  295. मक्खी चूस होना : बहुत कंजूस होना
  296. मुँह पर हवाइयाँ उड़ना : चेहरा फक पड़ जाना
  297. मन मसोस कर रह जाना : इच्छा को रोकना
  298. मुँह काला करना : कलंकित होना
  299. मुँह की खाना : बातों में हारना/अपमानित होना
  300. मुँह तोड़ जवाब देना : कठोर शब्दों में कहना
  301. मन मारना : उदास होना/इच्छाओं पर नियंत्रण
  302. मुँह मोड़ना : ध्यान न देना
  303. रंग में भंग होना : मजा किरकिरा होना/बाधा होना
  304. राई का पहाड़ बनाना : बात को बढ़ा-चढ़ा देना
  305. रंगा-सियार होना : ढोंगी/धोखेबाज
  306. रोम-रोम खिल उठना : प्रसन्न होना
  307. रोंगटे खड़े होना : डर से रोमांचित होना
  308. रफू चक्कर होना : भाग जाना
  309. रंग दिखाना/जमाना : प्रभाव जमाना
  310. रंगे हाथों पकड़ना : अपराध करते हुए पकड़े जाना
  311. लकीर का फकीर होना: परम्परावादी होना/ अंधानुकरण करना
  312. लोहे के चने चबाना : बहुत कठिन कार्य करना/संघर्ष करना
  313. लाल-पीला होना : क्रोधित होना
  314. लोहा मानना : बहादुरी स्वीकार करना
  315. लहू का घूँट पीना: अपमान सहन करना
  316. लोहा बजाना: शस्त्रों से युद्ध करना
  317. लुटिया डुबो देना : काम बिगाड़ देना
  318. लोहा लेना : युद्ध करना/मुकाबला करना
  319. लहू-पसीना एक करना: कठिन परिश्रम करना
  320. लंबा हाथ मारना : धोखा धड़ी से पैसे बनाना
  321. विष उगलना: किसी के खिलाफ बुरी बात कहना
  322. शहद लगाकर चाटना : तुच्छ वस्तु को महत्व देना
  323. शैतान के कान कतरना : बहुत चतुर होना
  324. समझ पर पत्थर पड़ना : अक्ल मारी जाना
  325. सिर धुनना : पछताना/चिन्ता करना
  326. सिर हथेली पर रखना : मृत्यु की चिन्ता न करना
  327. सिर उठाना : विद्रोह करना
  328. सितारा चमकना : भाग्यशाली होना
  329. सूरज को दीपक दिखाना : अत्यधिक प्रसिद्ध व्यक्ति का परिचय देना
  330. सब्ज बाग दिखाना: लोभ देकर बहकाना/लालच देकर धोखा देना
  331. सिर पर कफ़न बाँधना : मरने को प्रस्तुत रहना
  332. सिर से बला टालना : मुसीबत से पीछा छुड़ाना
  333. सिर आँखों पर रखना : आदर सहित आज्ञा मानना
  334. सोने की चिड़िया हाथ से निकलना: लाभ पूर्ण वस्तु से वंचित रहना
  335. सिक्का जमाना : प्रभाव डालना/प्रभुत्व स्थापित करना
  336. सोने की चिड़िया होना : बहुत धनवान होना
  337. साँप छछूंदर की गति होना: दुविधा में पड़ना
  338. सीधे मुँह बात तक न करना: बहुत इतराना
  339. सोने में सुगंध होना : एक गुण में और गुण मिलना
  340. सौ-सौ घड़े पानी पड़ना : अत्यंत लज्जित होना
  341. सिर-मूंडना : ठगना
  342. हवा से बातें करना: बहुत तेज दौड़ना
  343. हाथ धोकर पीछे पड़ना: बुरी तरह पीछे पड़ना
  344. हाथ तंग होना : धन की कमी या दिक्कत होना
  345. होम करते हाथ जलना : भलाई करने में नुकसान होना
  346. होंठ चबाना : क्रोध प्रकट करना
  347. हवाई किले बनाना: थोथी कल्पना करना
  348. हवा हो जाना : भाग जाना
  349. हाथ पाव मारना : प्रयत्न करना
  350. हथियार डाल देना: हार मान लेना/आत्मसमर्पण करना
  351. हाथ पर हाथ धर कर बैठना : निष्क्रिय बनना/बेकार बैठे रहना
  352. हवा के घोड़ों पर सवार होना: बहुत जल्दी में होना
  353. हवा का रूख देखना : समय की गति पहचान कर काम करना
  354. हाथ के तोते उड़ जाना: भौचक्का रह जाना/होश गँवाना
  355. हाथ पाँव फूलना : घबरा जाना। विपत्ति में पड़ना
  356. हाथ पैर मारना : मेहनत करना/प्रयत्न करना
  357. हाथ साफ करना : ठगना/माल मारना
  358. हुक्का पानी बंद करना : बिरादरी से बाहर करना
  359. हथेली पर सरसों जमाना : जल्दबाजी करना
  360. हाथ खींचना : साथ न देना/मदद बंद करना/सहायता बंद करना
  361. हाथ धो बैठना : गंवा देना
  362. हाथ पीले करना : विवाह करना
  363. श्री गणेश करना : आरम्भ करना
लोकोक्तियाँ
मुहावरों की तरह ही लोकोक्ति भी मानव जाति के अनुभवों की सुन्दर अभिव्यक्ति है। ये मानव स्वभाव और व्यवहार कौशल के सिक्के के रूप में प्रचलित होती है और वर्तमान पीढ़ी को पूर्वजों से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त होती है। इनका प्रयोग सर्वत्र होता है। यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि शहरों की अपेक्षा गांव में रहने वाले लाेगों के बीच इनका प्रयोग प्रचुर मात्रा में होता है। लोक साहित्य में कहावतों का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इनका सम्बन्ध किसी व्यक्ति विशेष से नहीं होता अथवा ये किसी व्यक्ति विशेष की संपत्ति नहीं है। कहावत लोक से सम्बन्धित हैं इसलिए इसका नाम लोकोक्ति भी है। यह लोक की संपत्ति है।
किसी कामचोर पेटू लड़के के बारे में प्रश्नोत्तर रूप में प्रचलित यह कहावत देखिए: कहावत देखिए:
‘‘नाम क्या है?’
‘‘शक्करपारा।’’
‘‘रोटी कितनी खाए?’’
‘‘दस-बारह।’’
‘‘पानी कितना पीए?’’
‘‘मटका सारा।’’
‘‘काम करने को?’’
‘‘मैं लड़का बेचारा।’’
कामचोर लोगों के लिए कैसा मजेदार व्यंग्य भरा है इस कहावत में। इस प्रकार कहावत अपने में स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली, सारगर्भित, संक्षिप्त एवं चटपटी उक्ति है, जिसका प्रयोग किसी को शिक्षा व चेतावनी देना या उपालंभ व व्यंग्य कसने के लिए होता है। कुछ प्रसिद्ध लोकोक्तियाँ निम्न है :-
  1. अपना रख, पराया चख : अपना बचाकर दूसरों का माल हड़प करना
  2. अपनी करनी पार उतरनी : स्वयं का परिश्रम ही काम आता है।
  3. अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता : अकेला व्यक्ति शक्तिहीन होता है।
  4. अधजल गगरी छलकत जाय : ओछा आदमी अधिक इतराता है।
  5. अंधों में काना राजा : मूर्खों में कम ज्ञान वाला भी आदर पाता है।
  6. अंधे के हाथ बटेर लगना : अयोग्य व्यक्ति को बिना परिश्रम संयोग से अच्छी वस्तु मिलना।
  7. अंधा पीसे कुत्ता खाय : मूर्खों की मेहनत का लाभ अन्य उठाते हैं। असावधानी से अयोग्य को लाभ।
  8. अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत : अवसर निकल जाने पर पछताने से कोई लाभ नहीं।
  9. अंधे के आगे रोवै अपने नैना खावैं : निर्दय व्यक्ति या अयोग्य व्यक्ति से सहानुभूति की अपेक्षा करना व्यर्थ है।
  10. अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है : अपने क्षेत्र में कमजोर भी बलवान बन जाता है।
  11. अंधेर नगरी चौपट राजा : प्रशासन की अयोग्यता से सर्वत्र अराजकता आ जाना।
  12. अन्धा क्या चाहे दो आँखें : बिना प्रयास वांछित वस्तु का मिल जाना।
  13. अक्ल बड़ी या भैंस : शारीरिक बल से बुद्धि बल श्रेष्ठ होता है।
  14. अपना हाथ जगन्नाथ : अपना काम अपने ही हाथों ठीक रहता है।
  15. अपनी-अपनी ढपली सबका अपना-अपना राग : तालमेल का अभाव/अलग-अलग मत होना/एकमत का अभाव
  16. अंधा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपनों को देय : स्वार्थी व्यक्ति अधिकार पाकर अपने लोगों की सहायता करता है।
  17. अंत भला तो सब भला: कार्य का अन्तिम चरण ही महत्त्वपूर्ण होता है।
  18. आ बैल मुझे मार: जानबूझकर मुसीबत में फंसना
  19. आम के आम गुठली के दाम : हर प्रकार का लाभ/एक काम से दो लाभ
  20. आँख का अंधा नाम नयन सुख : गुणों के विपरीत नाम होना।
  21. आगे कुआँ पीछे खाई : दोनों/सब ओर से विपत्ति में फँसना
  22. आप भला जग भला : अपने अच्छे व्यवहार से सब जगह आदर मिलता है।
  23. आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास: उद्देश्य से भटक जाना/श्रेष्ठ काम करने की बजाय तुच्छ कार्य करना/कार्य विशेष की उपेक्षा कर किसी अन्य कार्य में लग जाना।
  24. आधा तीतर आधा बटेर: अनमेल मिश्रण/बेमेल चीजें जिनमें सामंजस्य का अभाव हो।
  25. इन तिलों में तेल नहीं : किसी लाभ की आशा न होना।
  26. आठ कनौजिए नौ चूल्हे: फूट होना।
  27. उल्टा चोर कोतवाल को डांटे : अपना अपराध न मानना और पूछने वाले को ही दोषी ठहराना।
  28. उल्टे बाँस बरेली को : विपरीत कार्य या आचरण करना
  29. ऊधो का न लेना, न माधो का देना : किसी से कोई मतलब न रखना/सबसे अलग।
  30. ऊँची दुकान फीका पकवान : वास्तविकता से अधिक दिखावा। दिखावा ही दिखावा। केवल बाहरी दिखावा।
  31. ऊँट के मुँह में जीरा : आवश्यकता की नगण्य पूर्ति
  32. ओखली में सिर दिया तो : जब दृढ़ निश्चय कर लिया तो मूसल का क्या डर बाधाओं से क्या घबराना
  33. ऊँट किस करवट बैठता है : परिणाम में अनिश्चितता होना।
  34. एक पंथ दो काज : एक काम से दोहरा लाभ/एक तरकीब से दो कार्य करना/एक साधन से दो कार्य करना।
  35. एक अनार सौ बीमार : वस्तु कम, चाहने वाले अधिक/एक स्थान के लिये सैकड़ों प्रत्याशी
  36. एक मछली सारा तालाब गंदा कर देती है : एक की बुराई से साथी भी बदनाम होते हैं।
  37. एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं : दो प्रशासक एक ही जगह एक साथ शासन नहीं कर सकते।
  38. एक हाथ से ताली नहीं बजती: लड़ाई का कारण दोनों पक्ष होते हैं।
  39. एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा : बुरे से और अधिक बुरा होना/एक बुराई के साथ दूसरी बुराई का जुड़ जाना।
  40. कागज की नाव नहीं चलती : बेईमानी से किसी कार्य में सफलता नहीं मिलती।
  41. काला अक्षर भैंस बराबर: बिल्कुल निरक्षर होना।
  42. कंगाली में आटा गीला : संकट पर संकट आना।
  43. कोयले की दलाली में हाथ काले : बुरे काम का परिणाम भी बुरा होता है/ दुष्टों की संगति से कलंकित होते हैं।
  44. का वर्षा जब कृषि सुखानी : अवसर बीत जाने पर साधन की प्राप्ति बेकार है।
  45. कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा : अलग-अलग स्वभाव वालों को एक जगह एकत्र करना/इधर-उधर से सामग्री जुटा कर कोई निकृष्ट वस्तु का निर्माण करना।
  46. कभी नाव गाड़ी पर कभी गाड़ी नाव पर : एक-दूसरे के काम आना परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं।
  47. काबुल में क्या गधे नहीं होते : मूर्ख सब जगह मिलते हैं।
  48. कहने पर कुम्हार गधे पर नहीं चढ़ता : कहने से जिद्दी व्यक्ति काम नहीं करता।
  49. कोउ नृप होउ हमें का हानि : अपने काम से मतलब रखना।
  50. कौवा चला हंस की चाल, भूल गया अपनी भी चाल : दूसरों के अनधिकार अनुकरण से अपने रीति रिवाज भूल जाना।
  51. कभी घी घना तो कभी मुट्ठी चना : परिस्थितियाँ सदा एक सी नहीं रहतीं।
  52. करले सो काम भजले सो राम: एक निष्ठ होकर कर्म और भक्ति करना
  53. काज परै कछु और है, काज कछु और सरै : दुनिया बड़ी स्वार्थी है काम निकाल कर मुँह फेर लेते हैं।
  54. खोदा पहाड़ निकली चुहिया : अधिक परिश्रम से कम लाभ होना
  55. खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है : स्पर्धा वश काम करना/साथी को देखकर दूसरा साथी भी वैसा ही व्यवहार करता है।
  56. खग जाने खग ही की भाषा : मूर्ख व्यक्ति मूर्ख की बात समझता है।
  57. खिसियानी बिल्ली खम्भा खोंसे: शक्तिशाली पर वश न चलने के कारण कमजोर पर क्रोध करना
  58. गागर में सागर भरना : थोड़े में बहुत कुछ कह देना
  59. गुरु तो गुड़ रहे चेले शक्कर हो गये : चेले का गुरु से अधिक ज्ञानवान होना
  60. गवाह चुस्त मुद्दई सुस्त : स्वयं की अपेक्षा दूसरों का उसके लिए अधिक प्रयत्नशील होना
  61. गुड़ खाएं और गुलगुलों से परहेज : झूठा ढोंग रचना
  62. गाँव का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध : अपने स्थान पर सम्मान नहीं होता।
  63. गरीब तेरे तीन नाम-झूठा, पापी, बेईमान : गरीब पर ही सदैव दोष मढ़े जाते हैं। निर्धनता सदैव अपमानित होती है।
  64. गुड़ दिये मरे तो जहर क्यों दे: प्रेम से कार्य हो जाये तो फिर दंड क्यों ।
  65. गंगा गये गंगादास जमुना गये जमुनादास: अवसरवादी होना
  66. गोद में छोरा शहर में ढिंढोरा : पास की वस्तु को दूर खोजना
  67. गरजते बादल बरसते नहीं : कहने वाले (शोर मचाने वाले) कुछ करते नहीं
  68. गुरु कीजै जान, पानी पीवै छान : अच्छी तरह समझ बूझकर काम करना
  69. घर-घर मिट्टी के चूल्हे हैं : सबकी एक सी स्थिति का होना/सभी समान रूप से खोखले हैं।
  70. घोड़ा घास से दोस्ती करे तो क्या खाये : मजदूरी लेने में संकोच कैसा ?
  71. घर का भेदी लंका ढाहे : घरेलू शत्रु प्रबल होता है।
  72. घर की मुर्गी दाल बराबर : अधिक परिचय से सम्मान कम/घरेलू साधनों का मूल्यहीन होना
  73. घर बैठे गंगा आना : बिना प्रयत्न के लाभ, सफलता मिलना
  74. घर में नहीं दाने बुढ़िया चली भुनाने : झूठा दिखावा करना
  75. घर आये नाग न पूजे, बाँबी उसकी पूजन जाय : अवसर का लाभ न उठाकर खोज में जाना
  76. घर का जोगी जोगना, आन गाँव का सिद्ध : विद्वान का अपने घर की अपेक्षा बाहर अधिक सम्मान/परिचित की अपेक्षा अपरिचित का विशेष आदर
  77. चमड़ी जाय पर दमड़ी न जाए: बहुत कंजूस होना
  78. चलती का नाम गाड़ी : काम का चलते रहना/बनी बात के सब साथी होते हैं।
  79. चंदन की चुटकी भली गाड़ी : अच्छी वस्तु तो थोड़ी भी भली
  80. चार दिन की चाँदनी फिर : सुख का समय थोड़ा ही अँधेरी रात होता है।
  81. चिकने घड़े पर पानी नहीं ठहरता : निर्लज्ज पर किसी बात का असर नहीं होता।
  82. चिराग तले अँधेरा : दूसरों को उपदेश देना स्वयं अज्ञान में रहना
  83. चींटी के पर निकलना : बुरा समय आने से पूर्व बुद्धि का, नष्ट होना
  84. चील के घोंसले में मांस कहाँ?: भूखे के घर भोजन मिलना असंभव होता है
  85. चुपड़ी और दो-दो : लाभ में लाभ होना
  86. चोरी का माल मोरी में : बुरी कमाई बुरे कार्यों में नष्ट होती है
  87. चोर की दाढ़ी में तिनका : अपराधी का सशंकित होना अपराध के कार्यों से दोष प्रकट हो जाता है।
  88. चोर-चोर मौसेरे भाई : दुष्ट लोग प्रायः एक जैसे होते हैं एक से स्वभाव वाले लोगों में मित्रता होना
  89. छछूंदर के सिर में चमेली का तेल : अयोग्य व्यक्ति के पास अच्छी वस्तु होना
  90. छोटे मुँह बड़ी बात : हैसियत से अधिक बातें करना
  91. जहाँ काम आवै सुई का करै तरवारि : छोटी वस्तु से जहाँ काम निकलता है वहाँ बड़ी वस्तु का उपयोग नहीं होता है।
  92. जल में रहकर मगर से बैर : बड़े आश्रयदाता से दुश्मनी ठीक नहीं
  93. जब तक साँस तब तक आस : जीवन पर्यन्त आशान्वित रहना
  94. जंगल में मोर नाचा किसने देखा : दूसरों के सामने उपस्थित होने पर ही गुणों की कद्र होती है। गुणों का प्रदर्शन उपयुक्त स्थान पर।
  95. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी : मातृभूमि का महत्त्व स्वर्ग से भी बढ़कर है।
  96. जहाँ मुर्गा नहीं बोलता वहाँ क्या सवेरा नहीं होता : किसी के बिना कोई काम नहीं रुकता नहीं है।
  97. जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि : कवि दूर की बात सोचता है सीमातीत कल्पना करना
  98. जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई : जिसने कभी दुःख नहीं देखा वह दूसरों का दुःख क्या अनुभव करे
  99. जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन तैसी : भावानुकूल(प्राप्ति का होना) औरों को देखना
  100. जान बची और लाखों पाये : प्राण सबसे प्रिय होते हैं।
  101. जाको राखे साइयाँ मारि सके न कोय : ईश्वर रक्षक हो तो फिर डर किसका, कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता।
  102. जिस थाली में खाया उसी में छेद करना : विश्वासघात करना। भलाई करने वाले का ही बुरा करना। कृतघ्न होना
  103. जिसकी लाठी उसकी भैंस : शक्तिशाली की विजय होती है
  104. जिन खोजा तिन पाइया : प्रयत्न करने वाले को सफलता/गहरे पानी पैठ लाभ अवश्य मिलता है।
  105. जो ताको काँटा बुवै ताहि बोय तू फूल भी : अपना बुरा करने वालों के साथ भलाई का व्यवहार करो
  106. जादू वही जो सिर चढ़कर बोलेः उपाय वही अच्छा जो कारगर हो
  107. झटपट की घानी आधा तेल : जल्दबाजी का काम खराब हीआधा पानी होता है।
  108. झूठ कहे सो लड्डू खाए साँच कहे सो मारा जाय : आजकल झूठे का बोल बाला है।
  109. जैसी बहे बयार पीठ तब वैसी दीजै : समय अनुसार कार्य करना।
  110. टके का सौदा नौ टका विदाई: साधारण वस्तु हेतु खर्च अधिक
  111. टेढ़ी उंगली किये बिना घी नहीं निकलता : सीधेपन से काम नहीं (चलता) निकलता।
  112. टके की हांडी गई पर कुत्ते की जात पहचान ली : थोड़ा नुकसान उठाकर धोखेबाज को पहचानना।
  113. डूबते को तिनके का सहारा : संकट में थोड़ी सहायता भी लाभप्रद/पर्याप्त होती है।
  114. ढाक के तीन पात : सदा एक सी स्थिति बने रहना
  115. ढोल में पोल : बड़े-बड़े भी अन्धेर करते हैं।
  116. तीन लोक से मथुरा न्यारी : सबसे अलग विचार बनाये रखना
  117. तीर नहीं तो तुक्का ही सही : पूरा नहीं तो जो कुछ मिल जाये उसी में संतोष करना।
  118. तू डाल-डाल मैं पात-पात : चालाक से चालाकी से पेश आना/ एक से बढ़कर एक चालाक होना
  119. तेल देखो तेल की धार देखो : नया अनुभव करना धैर्य के साथ सोच समझ कर कार्य करो परिणाम की प्रतीक्षा करो।
  120. तेली का तेल जले मशालची का दिल जले : खर्च कोई करे बुरा किसी और को ही लगे।
  121. तन पर नहीं लत्ता पान खाये अलबत्ता : अभावग्रस्त होने पर भी ठाठ से रहना/झूठा दिखावा करना।
  122. तीन बुलाए तेरह आये : अनियंत्रित व्यक्ति का आना।
  123. तीन कनौजिये तेरह चूल्हे : व्यर्थ की नुक्ताचीनी करना। ढोंग करना।
  124. थोथा चना बाजे घना : गुणहीन व्यक्ति अधिक डींगेंमारता है/आडम्बर करता है।
  125. दूध का दूध पानी का पानी : सही सही न्याय करना।
  126. दमड़ी की हांडी भी ठोक बजाकर लेते हैं : छोटी चीज को भी देखभाल कर लेते हैं।
  127. दान की बछिया के दाँत नहीं गिने जाते : मुफ्त की वस्तु के गुण नहीं देखे जाते।
  128. दाल भात में मूसलचंद : किसी के कार्य में व्यर्थ में दखल देना।
  129. दुविधा में दोनों गये माया मिली न राम : संदेह की स्थिति में कुछ भी हाथ नहीं लगना।
  130. दूध का जला छाछ को फूँक फूँक कर पीता है : एक बार धोखा खाया व्यक्ति दुबारा सावधानी बरतता है।
  131. दूर के ढोल सुहावने लगते हैं : दूरवर्ती वस्तुएँ अच्छी मालूम होती हैं /दूर से ही वस्तु का अच्छा लगना पास आने पर वास्तविकता का पता लगना
  132. दैव दैव आलसी पुकारा : आलसी व्यक्ति भाग्यवादी होता है / आलसी व्यक्ति किस्मत के सहारे होता है।
  133. धोबी का कुत्ता घर का न घाट का : किधर का भी न रहना न इधर का न उधर का
  134. न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी : ऐसी अनहोनी शर्त रखना जो पूरी न हो सके/बहाने बनाना।
  135. न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी: झगड़े को जड़ से ही नष्ट करना
  136. नक्कारखाने में तूती की आवाज : अराजकता में सुनवाई न होना/बड़ों के समक्ष छोटों की कोई पूछ नहीं।
  137. न सावन सूखा न भादो हरा : सदैव एक सी तंग हालत रहना
  138. नाच न जाने आँगन टेढ़ा : अपना दोष दूसरों पर मढ़ना/अपनी अयोग्यता को छिपाने हेतु दूसरों में दोष ढूंढना।
  139. नाम बड़े और दर्शन खोटे : बड़ों में बड़प्पन न होना गुण कम किन्तु प्रशंसा अधिक।
  140. नीम हकीम खतरे जान, नीम मुल्ला खतरे ईमान : अधकचरे ज्ञान वाला अनुभवहीन व्यक्ति अधिक हानिकारक होता है।
  141. नेकी और पूछ-पूछ : भलाई करने में भला पूछना क्या?
  142. नेकी कर कुए में डाल : भलाई कर भूल जाना चाहिए।
  143. नौ नगद, न तेरह उधार: भविष्य की बड़ी आशा से तत्काल का थोड़ा लाभ अच्छा/व्यापार में उधार की अपेक्षा नगद को महत्व देना।
  144. नौ दिन चले अढ़ाई कोस : बहुत धीमी गति से कार्य का होना
  145. नौ सौ चूहे खाय बिल्ली हज को चली : बहुत पाप करके पश्चाताप करने का ढोंग करना
  146. पढ़े पर गुने नहीं: अनुभवहीन होना।
  147. पढ़े फारसी बेचे तेल, देखो यह विधना का खेल : शिक्षित होते हुए भी दुर्भाग्य से निम्न कार्य करना।
  148. पराधीन सपनेहु सुख नाहीं : परतंत्र व्यक्ति कभी सुखी नहीं होता।
  149. पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होती : सभी समान नहीं हो सकते।
  150. प्रभुता पाय काहि मद नाहीं : अधिकार प्राप्ति पर किसे गर्व नहीं होता।
  151. पानी में रहकर मगर से बैर : शक्तिशाली आश्रयदाता से वैर करना।
  152. प्यादे से फरजी भयो टेढ़ो-टेढ़ो जाय : छोटा आदमी बड़े पद पर पहुँचकर इतराकर चलता है।
  153. फटा मन और फटा दूध फिर : एक बार मतभेद होने पर पुनःनहीं मिलता। मेल नहीं हो सकता।
  154. बारह बरस में घूरे के दिन भी फिरते हैं : कभी न कभी सबका भाग्योदय होता है।
  155. बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद : मूर्ख को गुण की परख न होना। अज्ञानी किसी के महत्व को आँक नहीं सकता।
  156. बद अच्छा, बदनाम बुरा: कलंकित होना बुरा होने से भी बुरा है।
  157. बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी : जब संकट आना ही है तो उससे कब तक बचा जा सकता है
  158. बावन तोले पाव रत्ती : बिल्कुल ठीक या सही सही होना
  159. बाप न मारी मेंढकी बेटा तीरंदाज : बहुत अधिक बातूनी या गप्पी होना
  160. बाँबी में हाथ तू डाल मंत्र मैं पढूँ स्वयं : खतरे का कार्य दूसरों को सौंपकर अलग रहना।
  161. बापू भला न भैया, सबसे बड़ा रुपया : आजकल पैसा ही सब कुछ है।
  162. बिल्ली के भाग छींका टूटना : संयोग से किसी कार्य का अच्छा होना/अनायास अप्रत्याशित वस्तु की प्राप्ति होना।
  163. बिन माँगे मोती मिले माँगे : भाग्य से स्वतः मिलता है इच्छा मिले न भीख से नहीं।
  164. बिना रोए माँ भी दूध नहीं पिलाती: प्रयत्न के बिना कोई कार्य नहीं होता।
  165. बैठे से बेगार भली : खाली बैठे रहने से तो किसी का कुछ काम करना अच्छा।
  166. बोया पेड़ बबूल का आम : बुरे कर्म कर अच्छे फल की कहाँ से खाए इच्छा करना व्यर्थ है।
  167. भई गति सांप छछूंदर जैसी : दुविधा में पड़ना।
  168. भूल गये राग रंग भूल गये छकड़ी तीन चीज याद रही नोन, तेल, लकड़ी : गृहस्थी के जंजाल में फंसना
  169. भूखे भजन न होय गोपाला : भूख लगने पर कुछ भी अच्छा नहीं लगता।
  170. भागते भूत की लंगोटी भली : हाथ पड़े सोई लेना जो बच जाए उसी से संतुष्टि/कुछ नहीं से जो कुछ भी मिल जाए वह अच्छा।
  171. भैंस के आगे बीन बजाये भैंस खड़ी पगुराय : मूर्ख को उपदेश देना व्यर्थ है।
  172. बिच्छू का मंत्र न जाने साँप के बिल में हाथ डाले : योग्यता के अभाव में उलझनदार काम करने का बीड़ा उठा लेना।
  173. मन चंगा तो कठौती में गंगा : मन पवित्र तो घर में तीर्थ है।
  174. मरता क्या न करता : मुसीबत में गलत कार्य करने को भी तैयार होना पड़ता है।
  175. मानो तो देव नहीं तो पत्थर : विश्वास फलदायक होता है।
  176. मान न मान मैं तेरा मेहमान : जबरदस्ती गले पड़ना।
  177. मार के आगे भूत भागता है : दण्ड से सभी भयभीत होते हैं।
  178. मियाँ बीबी राजी तो क्या करेगा काजी ? : यदि आपस में प्रेम है तो तीसरा क्या कर सकता है ?
  179. मुख में राम बगल में छुरी : ऊपर से मित्रता अन्दर शत्रुता धोखेबाजी करना।
  180. मेरी बिल्ली मुझसे ही म्याऊँ : आश्रयदाता का ही विरोध करना
  181. मेंढकी को जुकाम होना: नीच आदमियों द्वारा नखरे करना।
  182. मन के हारे हार है मन के जीते जीत: हतोत्साहित होने पर असफलता व उत्साह पूर्वक कार्य करने से जीत होती है।
  183. यथा राजा तथा प्रजा : जैसा स्वामी वैसा सेवक
  184. यथा नाम तथा गुण : नाम के अनुसार गुण का होना।
  185. यह मुँह और मसूर की दाल : योग्यता से अधिक पाने की इच्छा करना
  186. मुफ्त का चंदन, घिस मेरे नंदन: मुफ्त में मिली वस्तु का दुरुपयोग करना।
  187. रस्सी जल गयी पर ऐंठन गई: सर्वनाश होने पर भी घमंड बने रहना/टेकन छोड़ना।
  188. रंग में भंग पड़ना : आनन्द में बाधा उत्पन्न होना।
  189. राम नाम जपना, पराया माल अपना : मक्कारी करना।
  190. रोग का घर खांसी, झगड़े का घर हाँसी : हँसी मजाक झगड़े का कारण बन जाती है।
  191. रोज कुआ खोदना रोज पानी पीना: प्रतिदिन कमाकर खाना रोज कमाना रोज खा जाना।
  192. लकड़ी के बल बन्दरी नाचे : भयवश ही कार्य संभव है।
  193. लम्बा टीका मधुरी बानी: पाखण्डी हमेशा दगाबाज होते हैं। दगेबाजी की यही निशानी
  194. लातों के भूत बातों से नहीं मानते : नीच व्यक्ति दण्ड से/भय से कार्य करते हैं कहने से नहीं।
  195. लोहे को लोहा ही काटता है : बुराई को बुराई से ही जीता जाता है।
  196. वक्त पड़े जब जानिये को बैरी को मीत: विपत्ति/अवसर पर ही शत्रु व मित्र की पहचान होती है।
  197. विधि कर लिखा को मेटन हारा : भाग्य को कोई बदल नहीं सकता।
  198. विनाश काले विपरीत बुद्धि : विपत्ति आने पर बुद्धि भी नष्ट हो जाती है।
  199. शबरी के बेर : प्रेममय तुच्छ भेंट
  200. शक्कर खोर को शक्कर मिल ही जाती है : जरूरतमंद को उसकी वस्तु सुलभ हो ही जाती है
  201. शुभस्य शीघ्रम : शुभ कार्य में शीघ्रता करनी चाहिए।
  202. शठे शाठ्यं समाचरेत् : दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना चाहिये।
  203. साँच को आँच नहीं : सच्चा व्यक्ति कभी डरता नहीं।
  204. सब धान बाईस पसेरी : अविवेकी लोगों की दृष्टि में गुणी और मूर्ख सभी व्यक्ति बराबर होते हैं।
  205. सब दिन होत न एक समान : जीवन में सुख-दुःख आते रहते हैं, क्योंकि समय परिवर्तनशील होता है।
  206. सैयां भये कोतवाल अब काहे का डर : अपनों के उच्च पद पर होने से बुरे कार्य बे हिचक करना।
  207. समरथ को नहीं दोष गुसाईं : गलती होने पर भी सामर्थ्यवान को कोई कुछ नहीं कहता।
  208. सावन सूखा न भादो हरा : सदैव एक सी स्थिति बने रहना।
  209. साँप मर जाये और लाठी न टूटे : सुविधापूर्वक कार्य होना/बिना हानि के कार्य का बन जाना।
  210. सावन के अंधे को हरा ही सूझता है: अपने समान सभी कोहरा समझना।
  211. सीधी उंगली घी नहीं निकलता: सीधेपन से कोई कार्य नहीं होता
  212. सिर मुंडाते ही ओले पड़ना : कार्य प्रारम्भ करते ही बाधा उत्पन्न होना।
  213. सोने में सुगंध : अच्छे में और अच्छा।
  214. सौ सुनार की एक लोहार की : सैकड़ों छोटे उपायों से एक बड़ा उपाय अच्छा।
  215. सूप बोले तो बोले छलनी भी बोले : दोषी का बोलना ठीक नहीं।
  216. हथेली पर दही नहीं जमता : हर कार्य के होने में समय लगता है
  217. हथेली पर सरसों नहीं उगती : कार्य के अनुसार समय भी लगता है।
  218. हल्दी लगे न फिटकरी रंग : आसानी से काम बन जाना चोखा आ जाय कम खर्च में अच्छा कार्य।
  219. हाथ कंगन को आरसी क्या : प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता क्या ?
  220. हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और : कपट पूर्ण व्यवहार/कहे कुछ करो कुछ/कथनी व करनी में अंतर।
  221. होनहार बिरवान के होत चीकने पात : महान व्यक्तियों के लक्षण बचपन मेंही नजर आ जाते हैं।
  222. हाथ सुमरिनी बगल कतरनी : कपट पूर्ण व्यवहार करना।

लोकोक्ति और मुहावरे में अंतर Muhavre Aur Lokokti Men Antar
मुहावरे की तरह लोकोक्ति भी लोक से उत्पन्न लोक की संपत्ति है। लोकोक्ति और मुहावरे में सबसे बड़ा अंतर यह है -
  • मुहावरे वाक्यांश हैं, तो कहावतें (लोकोक्ति) सम्पूर्ण वाक्य।
  • मुहावरों का प्रयोग स्वतंत्र रूप से नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत कहावतों का प्रयोग स्वतंत्र रूप में होता है।
  • मुहावरे का प्रयोग भाषा को बल देने के लिए होता है, तो कहावतों का प्रयोग किसी घटना विशेष पर किया जाता है।
  • मुहावरे के प्रयोग के फलस्वरूप भाषा समृद्ध होती है, तो कहावतों के प्रयोग से फल प्राप्त होने की आशा की जाती है।
मुहावरे और लोकोक्ति में कोई साम्य है तो इतना कि दोनों की उत्पत्ति लोक से होती है। दोनों हमारी लोक-संस्कृति के परिचायक हैं। दोनों का प्रयोग भाषा में सजीवता और सरसता लाने के लिए होता है। दोनों के अर्थ सामान्य से भिन्न और लाक्षणिक होते हैं।


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अलंकार (Alankar) का अर्थ तथा भेद और उदाहरण



अलंकार (Alankar) का अर्थ तथा भेद और उदाहरण 
अलंकार शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ‘आभूषण’ यानी गहने, किन्तु शब्द निर्माण के आधार पर अलंकार शब्द ‘अलम्’ और ‘कार’ दो शब्दों के योग से बना है। ‘अलम्’ का अर्थ है ‘शोभा’ तथा ‘कार’ का अर्थ हैं ‘करने वाला’। अर्थात् काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तथा उसके शब्दों एवं अर्थों की सुन्दरता में वृद्धि करके चमत्कार उत्पन्न करने वाले कारकों को अलंकार कहते हैं। आचार्य केशव ने काव्य में अलंकारों के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा कि-
जदपि सुजाति सुलक्षणी, सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषण बिनु न बिराजही, कविता, वनिता मित्त।।
वास्तव में अलंकारों से काव्य रुचिप्रद और पठनीय बनता है, भाषा में गुणवत्ता और प्राणवत्ता बढ़ जाती है, कविता में अभिव्यक्ति की स्पष्टता व प्रभावोत्पादकता आने से कविता संप्रेषणीय बन जाती है। अलंकार के मुख्यतः दो भेद माने जाते हैंः शब्दालंकार और अर्थालंकार

शब्दालंकार:
काव्य में जब चमत्कार प्रधानतः शब्द में होता है, अर्थात् जहाँ शब्दों के प्रयोग से ही सौन्दर्य में वृद्धि होती है। काव्य में प्रयुक्त शब्द को बदल कर उसका पर्याय रख देने से अर्थ न बदलते हुए भी उसका चमत्कार नष्ट हो जाता है, वहाँ शब्दालंकार होता है। अनुप्रास, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति आदि शब्दालंकार के भेद हैं।

1.अनुप्रास: काव्य में जब एक वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्दों की रसानुकूल दो या दो से अधिक बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। जैसे-
भगवान भक्तों की भयंकर भूरि भीति भगाइये।
******
तरनि-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।
******
गंधी गंध गुलाब को, गंवई गाहक कौन ?

उपयुर्क्त उदाहरणों में क्रमशः भ, त, ‘ग’ वर्ण से प्रारम्भ होने वाले शब्दों की पुनरावृत्ति हुई है।

छेकानुप्रास, वृत्यनुप्रास, श्रुत्यनुप्रास, अन्त्यनुप्रास, लाटानुप्रास आदि अनुप्रास के उपभेद हैं।

2. यमक: काव्य में जब कोई शब्द दो या दो से अधिक बार आये तथा प्रत्येक बार उसका अर्थ भिन्न हो, वहाँ यमक अलंकार होता है। यथा-
कनक कनक तें सौगुनी, मादकता अधिकाय।
या खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।।
यहाँ ‘कनक’ शब्द दो बार प्रयुक्त हुआ है जिसमें पहले में कनक ‘सोना’ तथा दूसरे में ‘धतूरा’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अन्य उदाहरण-
गुनी गुनी सब के कहे, निगुनी गुनी न होत।
सुन्यौ कहुँ तरु अरक तें, अरक समानु उदोत।।
******
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहन वारी।
ऊँचे घोर मन्दर के अन्दर रहाती हैं।
******
तीन बेर खाती थी, वे तीन बेर खाती हैं।

3. श्लेष: जब काव्य में प्रयुक्त किसी शब्द के प्रसंगानुसार एक से अधिक अर्थ हों, वहाँ श्लेष अलंकार होता है। जैसे-
‘पानी गये न ऊबरे, मोती मानुष चून’
यहाँ ‘पानी’ शब्द का मोती के संदर्भ में अर्थ है चमक, मनुष्य के संदर्भ में ‘इज्जत’ तथा चून(आटा) के संदर्भ में जल।
‘सुबरण को ढूँढत फिरत, कवि, व्यभिचारी चोर।’
यहाँ ‘सुबरण’ में श्लेष है। सुबरण का कवि के संदर्भ में सुवर्ण (अक्षर), व्यभिचारी के संदर्भ में ‘सुन्दर रूप’ तथा चोर के संदर्भ में ‘सोना’ अर्थ है।

अर्थालंकार:
काव्य में जहाँ अलंकार का सौन्दर्य अर्थ में निहित हो, वहाँ अर्थालंकार होता है। इन अलंकारों में काव्य में प्रयुक्त किसी शब्द के स्थान पर उसका पर्याय या समानार्थी शब्द रखने पर भी चमत्कार बना रहता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, सन्देह, भ्रान्तिमान, विभावना, विरोधाभास, दृष्टान्त आदि अर्थालंकार हैं।

1. उपमा: काव्य में जब दो भिन्न व्यक्ति, वस्तु के विशेष गुण, आकृति, भाव, रंग, रूप आदि को लेकर समानता बतलाई जाती है अर्थात् उपमेय और उपमान में समानता बतलाई जाती है, वहाँ उपमा अलंकार होता है। ‘सागर सा गंभीर हृदय हो’ उपमा के चार अंग होते हैं-
I. उपमेय: वर्णनीय व्यक्ति या वस्तु यानी जिसकी समानता अन्य किसी से बतलाई जाती है। उक्त उदाहरण में‘हृदय’ के बारे में कहा गया है अतः ‘हृदय’ उपमेय है।
II. उपमान: जिस वस्तु के साथ उपमेय की समानता बतलाई जाती है उसे उपमान कहते हैं । उक्त उदाहरण में ‘हृदय’ की समानता सागर से की गई है। अतः यहाँ‘सागर’ उपमान है।
III. समान धर्म: उपमेय और उपमान में समान रूप से पाये जाने वाले गुण को ‘समान धर्म’ कहते हैं। उक्त उदाहरण में हृदय व सागर में ‘गम्भीरता’ को लेकर समानता बतलाई गई है, अतः ‘गम्भीर’ शब्द समान धर्म है।
IV. वाचक शब्द: जिन शब्दों के द्वारा उपमेय और उपमान को समान धर्म के साथ जोड़ा जाता है उसे ‘वाचक शब्द’ कहते हैं। उक्त उदाहरण में‘सा’ शब्द द्वारा उपमान तथा उपमेय के समान धर्म को बतलाया गया है । अतः ‘सा’ शब्द वाचक शब्द है। अन्य उदाहरण-

I. पीपर पात सरिस मन डोला।
II.कोटि कुलिस सम वचन तुम्हारा। पहले उदाहरण में उपमेय (मन), उपमान (पीपर पात), समान धर्म (डोला) तथा वाचक शब्द(सरिस) उपमा के चारों अंगों का प्रयोग हुआ है अतः इसे पूणोर्पमा कहते हैं जबकि दूसरे उदाहरण में उपमेय (वचन), उपमान (कोटि कुलिस) तथा वाचक शब्द (सम) का प्रयोग हुआ है यहाँ समान धर्म प्रयुक्त नहीं हुआ है अतः इसे लुप्तोपमा कहा जाता है। क्योंकि इसमें उपमा के चारों अंगों का समावेश नहीं है।

2. रूपक: काव्य में जब उपमेय में उपमान का निषेध रहित अर्थात् अभेद आरोप किया जाता है अर्थात् उपमेय और उपमान दोनों को एक रूप मान लिया जाता है वहाँ रूपक अलंकार होता है। इसका विश्लेषण करने पर उपमेय उपमान के मध्य ‘रूपी’ वाचक शब्द आता है।‘अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा-नागरी’ उक्त उदाहरण में तीन स्थलों पर रूपक अलंकार का ”प्रयोग हुआ है। यथा ‘अम्बर-पनघट’, तारा-घट, एवं ‘ऊषा-नागरी’।
1. अम्बर रूपी पनघट।
2. तारा रूपी घट।
3. ऊषा रूपी नागरी।
चरण-कमल बन्दौं हरि राई

3. उत्प्रेक्षा: काव्य में जब उपमेय में उपमान की संभावना की जाती है तथा संभावना हेतु जनु, मनु, जानो, मानो आदि में से किसी वाचक शब्द का प्रयोग किया जाता है, वहाँ उत्प्रेक्षाअलंकार होता है। जैसे-
सोहत ओढ़े पीत-पट, स्याम सलोने गात।
मनों नीलमणि सैल पर, आतप पर्यो प्रभात।।

पीताम्बर धारी श्री कृष्ण हेतु कवि बिहारी संभावना व्यक्त करते हुए कहते हैं कि पीत-पट ओढ़े कृष्ण ऐसे प्रतीत हो रहे हैं मानों नीलमणि पर्वत पर प्रातः काल का आतप (धूप) शोभायमान हो। अन्य उदाहरण देखिए-
लता भवन ते प्रगट भे, तेहि अवसर दोउ भाई।
निकसे जनु जुग विमल विधु जलद पटल विलगाई।।
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मोर मुकुट की चन्द्रकनि, त्यों राजत नन्दनन्द।
मनु ससि सेखर को अकस, किए सेखर सतचन्द।।

यमक और श्लेष में अन्तर: यमक अलंकार में किसी शब्द की आवृत्ति दो या दो से अधिक बार होती है तथा प्रत्येकबार उसका अर्थ भिन्न होता है, जबकि श्लेष अलंकार में किसी एक ही शब्द के प्रसंगानुसार एक से अधिक अर्थ होते हैं।उदाहरण जैसे-
यमक: कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
श्लेष - पानी गये न ऊबरे, मोती मानुस चून।
उपमा और रूपक: उपमा अलंकार में किसी बात को लेकर उपमेय एवं उपमान में समानता बतलाई जाती है जबकि रूपक में उपमेय उपमान का अभेद आरोप किया जाता है जैसे उदाहरण-
उपमा - पीपर पात सरिस मन डोला।
रूपक - चरण-कमल बन्दौं हरि राई।।


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