पानी पीने के फायदे और नुकसान



 
 

पानी पीने के फायदे और नुकसान 

थकान दूर करने में सहायक 

सुबह खाली पेट पानी पीने के अनेको फायदे हैं। अगर आप अपनी बीमारियों को काबू में करना चाहते हैं तो रोज सुबह उठ कर ढेर सारा गुनगुना पियें। खाली पेट पानी गुनगुना पीने से पेट की सारी गंदगी दूर हो जाती है और खून शुद्ध होता है जिससे आपका शरीर बीमारियों से दूर रहता है। हमारा शरीर 70% पानी से ही बना हुआ है इसलिये पानी हमारे शरीर को ठीक से चलाने के लिये कुछ हद तक जिम्‍मेदार भी है। क्या आप जानते हैं कि सुबह खाली पेट पानी पीने का चलन कहां से शुरु हुआ? यह चलन जापान के लोगों ने शुरु किया था। वहां के लोग सुबह होते ही, बिना ब्रश किये 4 गिलास पानी पी जाते हैं। इसके बाद वे आधा घंटे तक कुछ भी नहीं खाते। अगर आपको हमेशा थकान महसूस होती है, तो सुबह की शुरुआत एक गिलास गुनगुने पानी से ही करें।इससे आप दिन भर तरोताज़ा महसूस करेंगे। इसके इलावा गर्म पानी पीने से बॉडी के टॉक्सिन्स बाहर निकलते हैं और बॉडी के फ्कंशन्स भी हैल्दी होते हैं।

पानी पीने के फायदे और नुकसान

सर्दी जुकाम से राहत दिलाने में सहायक
यदि बेमौसम ही आपको छाती में जकड़न और जुकाम की शिकायत रहे तो ऐसे में सुबह सुबह गुनगुना पानी पीना आपके लिए किसी रामबाण दवा से कम नहीं। गौरतलब है, कि गर्म पानी पीने से गला भी ठीक रहता है। इससे गले की नसे खुलती हैं और ख़राश आदि में भी आराम मिलता है। 3। कब्ज दूर करने में सहायक।। सुबह सुबह एक गिलास गुनगुना पानी, कब्ज़ को जड़ से खत्म कर देता है। इससे पेट साफ होता है और डाइजेशन सुधरता है। खाली पेट, गर्म पानी का सेवन करने से शरीर के टोक्सिन बाहर निकल जाते हैं।


वजन घटाने में मददगार
यदि आपका वज़न लगातार बढ़ रहा है और लाख कोशिशों के बावजूद भी कुछ फर्क नहीं पड़ रहा तो यह उपाय आपके लिए बिलकुल सही है। ऐसे में गुनगुने पानी में शहद और नींबू मिलाकर लगातार तीन महीने तक पीए, इससे आपको फर्क ज़रूर महसूस होगा। इससे वज़न घटता है और प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ती है। ऐसा इसलिए क्योंकि जब हम गुनगुना पानी पीते हैं, तो हमारे शरीर का तापमान सामान्य से कुछ अधिक हो जाता है। ऐसा करने से मेटाबोल्जिम की दर बढ़ जाती है और साथ ही यह एक ज़ीरो केलोरी की ड्रिंक की तरह भी काम करता है। यह आपकी भूख को कम करता है और वज़न को कण्ट्रोल करता है।


स्किन को हेल्थी रखने में सहायक
यदि आप भी स्किन प्रॉब्लम्स से परेशान हैं और ग्लोइंग स्किन के लिए तरह तरह के कॉस्मेटिक्स उपयोग करके थक चुके हैं, तो आप रोजाना एक गिलास गर्म पानी पीना शुरू कर दें। इससे आपकी स्किन प्रॉब्लम फ्री हो जाएगी और चमकने लगेगी। इसके इलावा अगर स्किन पर रैशेज़ पड़ जाये या त्वचा सिकुड़ जाये तो रोज़ सुबह गुनगुना पानी पीएं। वो इसलिए क्योंकि गर्म पानी पीने से पिंपल्स और ब्लैक हैड्स की समस्या दूर होती है। इससे आपकी त्वचा के रोमछिद्र खुल जाएंगे और त्वचा खुलकर सांस ले सकेगी।


आंतरिक अंगों के लिए लाभकारी
इसके इलावा गर्म पानी का सेवन आपके शरीर के आन्तरिक अंगो के लिए भी लाभदायक होता है। इससे आपके शरीर की त्वचा की कोमलता बढ़ती है। साथ ही गुनगुना पानी पीने से शरीर के अंदरूनी अंगो में विषैले पदार्थों को बाहर निकालने की दर भी बढ़ जाती है। इससे आपका शरीर पहले के मुक़ाबले कईं अधिक योग्यता से काम करने लगता है।


बालों के लिए फायदेमंद

गर्म पानी का सेवन बालों और त्वचा के लिए भी बहुत फायदेमंद है। इससे बाल चमकदार बनते हैं और यह उनकी ग्रोथ के लिए भी बहुत फायदेमंद है। दरअसल सिर की त्वचा सूखने पर बालों को सही पोषण नहीं मिल पाता। इसलिए यह आवश्यक है, कि सुबह उठकर गुनगुने पानी का सेवन किया जाये।


ब्लड सर्कुलेशन को सही रखने में सहायक

शरीर को सुचारू रूप से चलाने के लिए खून का संचार पूरी बॉडी में सही तरह से होना बहुत जरूरी है। इसलिए गर्म पानी पीना बहुत फायदेमंद रहता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि गु्र्दों के लिए ठंडा पानी हानिकारक हो सकता है। तो वही गुनगुना पानी पीने से गुर्दे ठीक रहते है। इसके साथ ही गुनगुना पानी शरीर में जमी हुई गंदगी को भी बाहर निकाल देता है। इसलिए आप भी गुनगुना पानी जरूर पीए और अपने शरीर को स्वस्थ बनाये।


निम्नलिखित दिक्कत या स्थिति में भी पानी पर्याप्त मात्रा में पीना चाहिए।

  1. बुखार होने पर।
  2. ज्यादा वर्कआउट करने पर।
  3. अगर आप गर्म वातावरण में हैं।
  4. प्यास लगे या न लगे, बीच-बीच में पानी पीते रहें। इससे शरीर में पानी की कमी नहीं रहेगी।
  5. बाल झड़ने पर।
  6. टेंशन के दौरान।
  7. पथरी होने पर।
  8. स्किन पर पिंपल्स होने पर।
  9. स्किन पर फंगस, खुजली होने पर।
  10. यूरिन इन्फेक्शन होने पर।
  11. पानी की कमी होने पर।
  12. हैजा जैसी बीमारी के दौरान।

आयुर्वेद के अनुसार: आयुर्वेद के अनुसार हल्का गर्म पानी पीने से पित्त और कफ दोष नहीं होता और डायजेस्टिव सिस्टम सही रहता है। 10 मिनट पानी को उबालें और रख लें। प्यास लगने पर धीरे-धीरे पीते रहें। ऐसा करने से यह पता चलता है कि आप दिन में कितना पानी पीते हैं और कितने समय में पीते हैं। आप पानी उबालते समय उसमें अदरक का एक टुकड़ा भी डाल सकते हैं। इससे फायदा होगा।
उबालने के बाद ठंडा हुआ पानी कफ और पित्त को नहीं बढ़ाता, लेकिन एक दिन या उससे ज़्यादा हो जाने पर वही पानी नहीं पीना चाहिए, क्योंकि बासी हो जाने पर पानी में कुछ ऐसे जीवाणु विकसित हो जाते हैं, जो स्वास्थ्य पर बुरा असर डालते हैं। बासी पानी वात, कफ और पित्त को बढ़ाता है।

क्यों नहीं पीना चाहिए खड़े होकर पानी
पानी! यह एक ऐसा प्राकृतिक संसाधन है जिसके बिना मानव जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसलिए पानी को धरती का अमृत कहा गया हैं। पानी मानव शरीर के लिए अनिवार्य और आवश्यक तत्वों में से एक है। मानव शरीर पाँच तत्वों से निर्मित जीव है जिसमें 70% हिस्सा पानी से बना हुआ है। इसलिए 7-8 गिलास पानी का सेवन प्रतिदिन करना चाहिए। इससे पाचन तंत्र, बाल व त्वचा स्वस्थ रहते है। पानी शरीर से बेकार पदार्थ को बाहर निकालता है और खून को साफ रखने में मदद करता है। पीने का पानी स्वच्छ और ताजा हो, बासी पानी में कुछ ऐसे जीवाणु पैदा हो जाते है जिसे पीने से वात, कफ और पित्त बढ़ता है। आगे हम अपने लेख में यह भी बताएंगे खड़े होकर पानी पीने के क्या-क्या शारीरिक नुकसान है। लेकिन उससे पहले पानी की महत्वता को देखते हुए आइये, जानें पानी किस स्थिति में, कब और कैसे पिये।


शारीरिक दृष्टि से पानी पीने का सही समय क्या है?

  1. 2-3 गिलास पानी सुबह खाली पेट पीने से शरीर की आंतरिक ऊर्जा सक्रिय हो जाती है। सुबह खाली पेट पानी पीने की मात्रा आप अपने शरीर की क्षमतानुसार बढ़ा या घटा सकते है। लेकिन दो गिलास पानी पीने की कोशिश अवश्य करे।
  2. एक गिलास पानी स्नान के पश्चात पीने से ब्लड प्रेशर नियंत्रित रहता है।
  3. दो गिलास पानी भोजन के आधे घंटे पहले पीने से हाजमा दुरुस्त रहता है।
  4. आधा गिलास पानी सोने से ठीक पहले पीने से हार्ट अटैक से बचाता है।
  5. प्यास लगने पर घुट-घुट पानी कभी भी पिया जा सकता है। इससे पानी की कमी नहीं होगी। 

खड़े होकर पानी पीने के शारीरिक नुकसान - इस अनियमित जीवनशैली में आजकल किसी के पास स्वयं के लिए भी समय नहीं है। जिसका घातक परिणाम शरीर को भुगतना पड़ता है। आज अधिकांश लोग जल्दबाजी में खड़े होकर पानी का सेवन करते है जिसका गलत प्रभाव शरीर पर जरूर पड़ता है।

  1. पाचन तंत्र – खड़े होकर पानी पीने से यह आसानी से प्रवाह हो जाता है और एक बड़ी मात्रा में नीचे खाद्य नलिका के द्वारा निचले पेट की दीवार पर गिरता है। इससे पेट की दीवार और आसपास के अंगों को क्षति पहुँचती है। एक दो बार इस तरह से पानी पीने से ऐसा नहीं होता। लेकिन लंबे समय तक ऐसा होने से पाचन तंत्र, दिल और किडनी में समस्या की संभावना बढ़ जाती है।
  2. ऑर्थराइटिस – खड़े होकर पानी पीने की आदत से घुटनों पर दबाव पड़ता है और इस बीमारी की संभावना बढ़ जाती है। इस आदत से जोड़ों में हमेशा दर्द रहने लगता है। इसलिए पानी का सेवन बैठकर करें और आराम से धीरे-धीरे पिए।
  3. गठिया – खड़े होकर पानी पीने से शरीर के अन्य द्रव्य पदार्थों का संतुलन बिगड़ जाता है। जिससे हड्डियों के जोड़ वाले भागों में आवश्यक तरल पदार्थों की कमी होने लगती है और हड्डियां कमजोर होने लगती है। कमजोर हड्डियों के कारण जोड़ों में दर्द और गठिया जैसी समस्या पैदा हो जाती है। यह समस्या अन्य कई बीमारियों का भी कारण बनती है।
  4. किडनी – खड़े होकर पानी पीने के दौरान पानी तेजी से गुर्दे के माध्यम से होते हुए बिना ज्यादा छने गुजर जाता है। जिसके कारण खून में गंदगी जमा होने लगती है। इस गंदगी के कारण मूत्राशय, गुर्दे (किडनी) और दिल की बीमारियां होने की संभावना अधिक हो जाती हैं।
  5. पेट की समस्या – खड़े होकर पानी पीने से पानी की मात्रा शरीर में जरूरत से ज्यादा चली जाती है। शरीर में मौजूद वह पाचन रस काम करना बंद कर देता है, जिससे खाना पचता है। अधिक पानी की वजह से खाना देर से पचने लगता है और कई बार खाना पूरी तरह से डाइजेस्ट भी नहीं होता। जिसके परिणाम स्वरूप अपच, गैस, अल्सर आदि पेट की समस्या उत्पन्न हो जाती है। पानी हमेशा बैठकर ही पिए। कभी भी लेटकर या खड़े होकर पानी का सेवन ना करे।

अति करे क्षति, इस बात से सभी वाकिफ है। पानी अच्छी सेहत के लिए अनिवार्य है इसमें कोई मतभेद नहीं, लेकिन अनुचित तरीका और अनुचित मात्रा अच्छी सेहत को कब खराब कर दे पता भी नहीं चलता। जब भी प्यास लगे बैठकर पानी पीने का संकल्प ले। यह संकल्प आपकी सेहत को दुरुस्त बना के रखेगा। एक बात का विशेष ध्यान रखे, भोजन के पश्चात ठंडा पानी पीने से नुकसान होता है। दरअसल, गर्म खाने पर ठंडा पानी पीने से खाया हुआ ऑयली खाना जमने लगता है। जो धीरे-धीरे बाद में फैट में बदल जाता है। इससे पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है। इसलिए भोजन के आधे घंटे पश्चात गर्म पानी पीने की सलाह दी जाती है। इस बात की पुष्टि हेल्थ विशेषज्ञों के द्वारा भी हुई है। स्वच्छ और ताजा पानी सेहत की लिहाज से दवा का काम करता है। अगर आप इसका सेवन सही तरीके से करते है तो यह आपको कई बीमारियों से बचा के रखेगा। इस लेख से आपको यह महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई होगी की कभी भी खड़े होकर पानी का सेवन नहीं करना चाहिए। यह आदत शरीर की सेहत के लिए घातक है। आदत छोटी सी है लेकिन इसके परिणाम बहुत खतरनाक है। अगर आप किसी भी तरह की बीमारी से पीड़ित है तो उचित होगा आप अपने डॉक्टर से संपर्क करें। क्योंकि कई ऐसी भी समस्या होती है जिसमें कुछ मामलों में कम पानी पीने की सलाह दी जाती है।



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प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व निवारक तकनीक (लिंग चयन निषेध) अधिनियम, 1994 (PNDT Act, 1994)



इस कानून की आवश्यकता क्यों हुई ?
यह सत्य है कि लिंग अनुपात में निरन्तर कमी के कारण या कानून बनाना जरूरी हो गया था, जिसका उद्देश्य है:
  • प्रसवधारण से पहले और बाद भ्रूण के लिंग की जाँच को रोकना।
  • प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व निवारक तकनीक (लिंग चयन निषेध) का लिंग जाँच/निर्धारण के लिए दुरूपयोग प्रतिबन्धित करना।
  • प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व निवारक तकनीक का सही ढंग से विधिपूर्वक प्रयोग करना।
 प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व निवारक तकनीक (लिंग चयन निषेध) अधिनियम, 1994 (PNDT Act, 1994)

इस कानून के अन्तर्गत अपराध क्या हैं ?
  • प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व लिंग चयन जिसमें शामिल है, प्रयोग का तरीका, सलाह और कोई भी उपबन्ध जिससे यह सुनिश्चित होता हो कि लड़के के जन्म की सम्भावनाओं को बढ़ावा मिल रहा हो, जिसमें आयुर्वेदिक दवाईयां और अन्य कोई वैकल्पिक चिकित्सा और पूर्व गर्भधारण विधियां/प्रयोग जैसे कि एरिकशन विधि का प्रयोग, इस चिकित्सा के द्वारा लड़के के जन्म की सम्भावना का पता लगता है, शामिल है।
  • प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व के तरीकों का दुरूपयोग चाहे किसी योग्य द्वारा लिंग निर्धारण और वैसे हालातों में इन तरीकों द्वारा किया गया हो जो कि इस अधिनियम के अन्तर्गत न आते हों।
  • जो व्यक्ति मानदेय पर कार्य कर रहा है और उसके पास अधिनियम में निर्धारित की गई योग्यता और अनुभव/प्रशिक्षण भी नहीं है उसे प्रसवधारणपूर्व का निर्धारण करना भी शामिल है।
  • प्रति या स्वयं पत्नी द्वारा, जहाँ तक कि उसको इस विधि का प्रयोग करने के लिए मजबूर न किया गया हो, के बारे में प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व की विधि के बारे में किसी महिला या पुरूष या किसी रिश्तेदार द्वारा लिंग निर्धारण के दुरूपयोग के बारे में बतलाना या उत्साहित करना।
  • किसी व्यक्ति द्वारा, जो कि प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व की तकनीक का प्रयोग कर रहा है, के द्वारा भ्रूण के लिंग के बारे में पत्नी या उसके पति या उसके रिश्तेदार को शब्दों द्वारा, इशारों द्वारा या किसी अन्य तरीके द्वारा बताना।
  • प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व से पहले या बाद भ्रूण के लिंग में चयन की सुविधा के बारे में किसी प्रकार का इश्तहार या प्रकाशन और पत्र आदि निकालना। इस प्रकार का विज्ञापन चाहे वह किसी भी तरह का हो जैसे कि सूचना पत्र पोस्टर या अन्य कोई पत्र विज्ञापन, इन्टरनेट द्वारा या किसी अन्य इलेक्ट्रानिक प्रिन्ट मीडिया या प्रिन्ट के रूप में होर्डिंग, दीवार में छापना, इशारा, प्रकाश, ध्वनि, धुआं या गैस।
  • उन स्थानों का पंजीकरण न करना जहाँ पर प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व के प्रयोग का संचालन किया जा रहा है। जैसे कि जनन उत्पति सम्बन्धी समझौता केन्द्र (प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व, दोनों प्रकार के तरीके और प्रयोग के बारे में सलाह देना, जनन उत्पति प्रयोगशाला (प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व प्रयोग) जिसमें ऐसे वाहन भी शामिल हैं जो जनन उत्पति क्लीनिक के तौर पर प्रयोग किये जा रहे हैं।
  • ऐसे गैर पंजीकृत स्थानों जहाँ पर प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व के प्रयोग किये जा रहे हैं।
  • ऐसी मशीनों या उनके हिस्सों को किसी गैर पंजीकृत संस्था या ऐसे किसी चिकित्सा पेशेवर, जिनके द्वारा भ्रूण के लिंग का पता चलता हो, को बेचना।
  • चिकित्सा रिकार्ड (कानून के तहत फार्म डी, ई और एफ) के ब्यौरे का सही रख रखाव न रखना।
  • प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व प्रयोग करने वाले के द्वारा प्रसवपूर्व और प्रसवधारणपूर्व निवारण तकनीक (लिंग चयन निषेध) अधिनियम, 1994 (PNDT Act,1994) को उपलब्ध न करवाना।
  • इस कानून के अन्तर्गत प्रत्येक जुर्म संज्ञेय व गैर जमानती है और समझौता योग्य नहीं है।
  • अगर यह अपराध किये जा रहे हैं तो आँखें बन्द करके न बैठें और इनकी शिकायत करें।
भ्रूण हत्या से भविष्य में होने वाली घटनायें ?
  • पुरूषों के मुकाबले स्त्रियों के अनुपात में लगातार कमी।
  • स्त्रियों के विरूद्ध यौन अपराधों में वृद्धि।
  • बच्चों के प्रति यौन अपराधों में वृद्धि।
  • यौन शोषण के लिए स्त्रियों की देह व्यापार में वृद्धि।
  • स्त्रियों के विरूद्ध घरेलू और अन्य सभी तरह की हिंसा में वृद्धि।
  • स्त्रियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति में कमी।
  • दुल्हन के मोलभाव और अन्य परिवर्तन जैसे सामाजिक, मातृक या परिवारिक रिश्तों की घटनाओं में बढ़ावा।
  • यह झूठ है कि जनसंख्या में स्त्रियों की कमी से समाज में स्त्रियों का रूतबा बढ़ेगा।
इस कानून के तहत क्या सुविधाएं हैं ?
यह कानून प्रसवपूर्व निवारक तकनीक केवल क्रोमोसोम्स की अनियमितता, जनन उत्पति बीमारी, हीमोग्लोबीन, यौन प्रक्रिया, जन्मजात अनियमितता/बीमारियाँ जो कि भ्रूण में इस कानून के तहत वर्णित की गई है, की जांच की अनुमति देता है। परन्तु प्रसवपूर्व निवारक तकनीक का प्रयोग इन अनियमितताओं को दूर करने के लिए केवल पंजीकृत स्थानों/शाखाओं (जिसमें वाहन भी सम्मिलित हैं) और केवल योग्य व्यक्ति द्वारा ही किया जायेगा। 
जब गर्भवती महिला या तो:-
  1. 35 वर्ष की उम्र से अधिक हो।
  2. दो या अधिक बार स्वैच्छिक तौर पर गर्भपात कराया हो।विकृतांग सृजन करने वाला जैसे औषधि, विकीरण, रसायनी, संक्रमण या शक्तिषाली घटना को अभिव्यक्त करना।
  3. जनन उत्पत्ति से सम्बन्धित बीमारी या ऐसी वंशगत बीमारी जिसमें मानसिक कमजोरी के लक्षण हों।
इस शर्त पर कि महिला कि अनुमति ली गई हो या इस कानून में वर्णित या अन्य किसी दशा में (जैसे अल्ट्रासांउंड का प्रयोग 23 प्रकार की दषाओं में करवाया जा सकता है) जो कि उक्त कानून के फार्म एफ में दर्शायें गये हैं जिसका कि सख्त तौर पर ब्यौरे का रख-रखाव जरूरी है।


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अभिभावक एवं वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 2007 (Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007)



वरिष्ठ नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा आज समाज के लिए सर्वाधिक चिंता का विषय है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देष्य वरिष्ठ नागरिकों और अभिभावकों को समर्थता प्रदान करने वाली व्यवस्था की रचना करना है, जिससे वे एक विशेष ट्रिब्युनल (अधिकरण) के समक्ष निर्धारित 90 दिन की समय सीमा के अंदर भरण पोषण के अधिकार को सुलभता और शीघ्रता से प्राप्त कर सकें।
अभिभावक एवं वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 2007 (Maintenance and Welfare of Parents and Senior Citizens Act, 2007)
अभिभावक एवं वरिष्ठ नागरिकों के कल्याण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 2007 की मुख्य विशेषताएं
  • वे अभिभावक और वरिष्ठ नागरिक जो कि अपनी आय अथवा अपनी संपति के द्वारा होने वाली आय से अपना भरण पोषण करने में असमर्थ हैं, वे अपने वयस्क बच्चों अथवा संबंधियो से भरण पोषण प्राप्त करने के लिए आवेदन कर सकतें है। इस भरण पोषण में समुचित भोजन, आश्रय, वस्त्र एवं चिकित्सा सुविधाएं सम्मिलित हैं।
  • अभिभावकों में सगे और दत्तक माता-पिता और सौतेले माता और पिता सम्मिलित हैं, चाहे वे वरिष्ठ नागरिक हों या न हों।
  • प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक जो कि 60 वर्ष या उससे अधिक आयु का है, वह अपने संबंधियो से भी भरण पोषण की मांग कर सकता है जिनका उनकी संपति पर स्वामित्व है अथवा जो कि उनकी संपति के उतराधिकारी हो सकते हैं।
  • भरण पोषण के लिए आवेदन स्वयं वरिष्ठ नागरिकों के द्वारा किया जा सकता है या वे अन्य व्यक्ति को या किसी स्वेच्छिक संगठन को ऐसा करने के लिए अधिकृत कर सकते हैं।
  • यदि ट्रिब्युनल (अधिकरण) इस बात से संतुष्ट है कि बच्चों अथवा संबंधियों ने अपने अभिभावकों अथवा वरिष्ठ नागरिकों की उपेक्षा की हैं अथवा उनकी देखभाल करने से इन्कार किया है तो ट्रिब्युनल (अधिकरण) उन्हें मासिक भरण पोषण, जो कि अधिकतम 10000 रू0 प्रतिमाह तक हो सकता है, देने का आदेष दे सकता है।
  • वरिष्ठ नागरिकों की उपेक्षा अथवा परित्याग एक संज्ञेय अपराध है जिसके लिए 5000 रू0 जुर्माना या तीन महीने की सजा या दोनो हो सकते है।
  • राज्य सरकारें प्रत्येक 150 परित्यक्त वरिष्ठ नागरिकों और अभिभावकों के लिए प्रत्येक जिले में कम से कम एक वृद्धाश्रम स्थापित करेंगी। इस आश्रमों 128 में वरिष्ठ नागरिकों को मूलभूत सुविधाएं जैसे भोजन, वस्त्र, और मनोरंजन की सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाएंगी।
  • सभी सरकारी अस्पतालों और उन अस्पतालों जिन्हें सरकार से सहायता प्राप्त होती है उनके जहां तक संभव हो वरिष्ठ नागरिकों को बिस्तर उपलब्ध करवाएं जाऐगें। चिकित्सालयों में वरिष्ठ नागरिकों के लिए विशेष पंक्तियों का प्रबंध किया जाएगा।


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अवैध देह व्यापार से संबंधी कानून (The Illegal prostitution Related Law)



अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम (Immoral Traffic Prevention Act) 1956
अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम (Immoral Traffic Prevention Act) 1956
अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम (Immoral Traffic Prevention Act) 1956

परिभाषा
वेश्यावृत्ति का अर्थ-किसी भी व्यक्ति का अर्थिक लाभ के लिये लैंगिक शोषण करने का वेश्यावृत्ति कहते हैं।
वेश्यागृह का अर्थ
किसी मकान, कमरे, वाहन या स्थान से या उसके किसी भाग से है, जिसमें किसी अन्य व्यक्ति के लाभ के लिये किसी का लैंगिक शोषण या दुरूपयोग किया जाय या दो या दो से अधिक महिलाओं के द्वारा अपने आपसी लाभ के लिय वेश्यावृत्ति की जाती है।
अनैतिक व्यापार निवारण अधिनियम के अंतर्गत निम्नलिखित कार्य अपराध हैं
  1. कोई व्यक्ति जो वेश्यागृह को चलाता है, उसका प्रबंध करता है या उसके रखने में और प्रबंध में मदद करता है तो उसे 3 साल तक का कठोर करावास व 2000 रूपये का जुर्माना होगा। यदि वह व्यक्ति दुबारा इस अपराध का दोषी पाया जाता है तो उसको कम से कम 2 साल व अधिक से अधिक 5 साल का कठोर कारावास व 2000 रूपये जुर्माना होगा।
  2. कोई व्यक्ति जो किसी मकान या स्थान का मालिक, किरायेदार, भारसाधक, एजेंट है उसे वेश्यागृह के लिये प्रयोग करता है या उसे यह जानकारी है कि ऐसे किसी स्थान या उसके किसी भाग को वेश्यागृह के लिये प्रयोग में लाया जायेगा या वह अपनी इच्छा से ऐसे किसी स्थान या उसके किसी भाग को वेश्यागृह के रूप मे प्रयोग करने के लिएा भागीदारी देता है तो ऐसे व्यक्ति को 2 साल तक की जेल व 2000 रूपये का जुर्माना हो सकता है यदि वह दुबारा इस अपराध का दोषी पाया जाता है तो उसको 5 साल का कठोर कारावास व जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।
वेश्यावृत्ति के कमाई पर रहना
कोई भी 18 साल की उम्र से अधिक व्यक्ति अगर किसी वेश्या की कमाई पर रह रहा है तो ऐसे व्यक्ति को 2 साल की जेल या 1000 रूपये का जुर्माना हो सकता है या दोनों।
अगर कोई व्यक्ति किसी बच्चे या नाबलिग द्वारा की गई वेश्यावृत्ति की कमाई पर रहता है तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 7 साल व अधिक से अधिक 10 सला की जेल हो सकती है।
कोई भी व्यक्ति जो 18 साल से अधिक उम्र का है: 
  1. वेश्या के साथ उसके संगत में रहता है या
  2. वेश्या की गतिविधियों पर अपना अधिकार, निर्देष, या प्रभाव इस प्रकार डालता है जिससे यह मालूम होता है कि वह वेश्यावृत्ति मे सहायता, प्रोत्साहन, या मजबूर करता है या
  3. जो व्यक्ति दलाल का काम करता है तो मान कर चला जायेगा जब तक इसके विपरीत सिद्ध न हो जायें कि ऐसे व्यक्ति वेश्यावृत्ति के कमाई पर रह रहे हैं।
    वेश्यावृत्ति के लिये किसी व्यक्ति को लान, फुसलाना या लेने की चेष्टा करना
    1. किसी व्यक्ति को उसकी सहमति, या सहमति के बिना वेश्यावृत्ति के लिये लाता है लाने की कोशिश करता है या
    2. किसी व्यक्ति को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए फुसलाता है, ताकि वह उससे वेश्यावृत्ति करवा सके तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 3 साल व अधिक से अधिक 7 साल के कठोर कारावास व 2000 रूपये के जुर्माने के दंडित किया जा सकता है और यह अपराध किसी व्यक्ति की सहमति के विरूद्ध किया जाता है तो दोषी व्यक्ति को 7 साल की जेल जो अधिकतक 14 साल तक की हो सकतीर है दंडित किया जा सकता है और अगर यह अपराध किसी बच्चे के विरूद्ध किया जाता है तो दोषी को कम से कम से 7 साल की जेल और उम्र कैद भी हो सकती है।
      वेश्यागृह में किसी व्यक्ति को रोकना
      1. वेश्यागृह में रोकता है
      2. किसी स्थान पर किसी व्यक्ति को किसी के साथ जो कि उसका पति या पत्नी नहीं है संभोग करने के लिये रोकना है तो ऐसे व्यक्ति को कम से कम 7 साल की जेल जो कि 10 साल या उम्र कैद तक हो सकती है और जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।
        अगर कोई व्यक्ति किसी बच्चे के साथ वेश्यागृह में पाया जाता है तो वह दोषी तब माना जायेगा जब तक इसके विपरीत सिद्ध नहीं हो जाता।
        अगर बच्चे या 18 वर्ष से कम उम्र का व्यक्ति वेश्यागृह में पाया जाता है और उसकी चिकित्सकीय जाँच के बाद यह सिद्ध होता है, कि उसका लैंगिक शोषण हुआ है तो यह माना जायेगा कि ऐसे व्यक्ति को वेश्यावृत्ति करवाने के लिये रखा गया है या उसका लैंगिक शोषण आर्थिक लाभ के लिये किया जा रहा है।
        अगर कोई व्यक्ति किसी महिला या लड़की का
        1. सामान जैसे गहने, कपड़े, पैसे या अन्य सम्पति आदि अपने पास रखता है। या
        2. उसको डराता है कि वह उसके विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही शुरू करेगा अगर वह अपने साथ गहने, कपड़े, पैसे या अन्य सम्पत्ति जो कि ऐसे व्यक्ति द्वारा महिला या लड़की को उधार या आपूर्ति के रूप में या फिर ऐसे व्यक्ति के निर्देष में दी गई हो ले जायेगी। तो यह माना जायेगा कि ऐसे व्यक्ति ने महिला या लड़की को वेश्यागृह में या ऐसी जगह रोका है जहाँ वह महिला या लड़की को संभोग के लिये मजबूर कर सके।
          सार्वजनिक स्थानों या उसके आस-पास वेश्यावृत्ति करना
          यदि कोई व्यक्ति जो वेश्यावृत्ति करता है या करवाता है ऐसे स्थानों पर-
          1. जो राज्य सरकार ने चिन्हित किये हों, या
          2. जो कि 200 मीटर के अन्दर किसी सार्वजनिक पूजा स्थल, शिक्षाण संस्थान, छात्रावास, अस्पताल, परिचर्यागृह या ऐसा कोई भी सार्वजनिक स्थान जिसको पुलिस आयुक्त या मैजिस्ट्रेट द्वारा अधिसूचित किया गया हो - तो ऐसे व्यक्ति को 3 महीने तक का कारावास हो सकता है।
          कोई व्यक्ति यदि किसी बच्चे से ऐसा अपराध करवाता है तो उसको कम से कम 7 साल या अधिक से अधिक उम्र कैद या 10 साल तक की जेल हो सकती है तथा जुर्माने से भी दंडित किया जा सकता है।

          अगर कोई व्यक्ति जो -
          ऐसे सार्वजनिक स्थानों का प्रबंधक है वेश्याओं को व्यापार करने व वहाँ रूकने देता है।
          1. कोई किरायेदार, दखलदार, या देखभाल करने वाला व्यक्ति वेश्यावृत्ति के लिये ऐसे स्थानों के प्रयोग की अनुमति देता है।
          2. किसी स्थान का मालिक, ऐजेंट ऐसे स्थानों को वेश्यावृत्ति के लिये किराये पर देता है तो -
            1. वह तीन महीने की कारावास और 200 रूपये के जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
            2. यदि वह व्यक्ति फिर ऐसे अपराध का दोषी पाया जाता है, तो वह 6 महीने की जेल और 200 रूपये के जुर्माने से द.डित किया जा सकता है।
            3. अगर ऐसा अपराध किसी होटल में किया जाता है तो उस होटल का लाइसेंस रद्द कर दिया जायेगा।
          वेश्यावृत्ति के लिये किसी को फुसलाना या याचना करना
          अगर कोई व्यक्ति सार्वजनिक स्थानों पर किसी व्यक्ति को किसी घर या मकान से इशारे, आवाज अपने आप को दिखाकर किसी खिड़की या बालकनी से वेश्यावृत्ति के लिये आर्कषित, फुसलाता या विनती करता है या छेड़छाड़ आवारागर्दी या इस प्रकार का कार्य करता है, जिससे वहाँ पर रहने वाले या आने जाने वालों को बाधा या परेशानी होती है तो उसको 6 महीने की जेल और 500 के जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
          अगर वह फिर से यह अपराध करता है तो उसके 1 साल की जेल और 500 रू0 जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।
          अगर यह अपराध कोई पुरूष करता है तो वह कम से कम 7 दिन तथा अधिक से अधिक 3 महीने की जेल से दंडित किया जा सकता है।

          अपने संरक्षण में रहने वाल व्यक्ति को फुसलाना
          यदि कोई व्यक्ति अपने संरक्षण, देखभाल में रहने वाल किसी व्यक्ति को वेश्यावृत्ति के लिए फुसलाता है, उकसाता है या सहायता करता है तो वह कम से कम 7 साल की जेल जो कि उम्र की कैद या 10 साल तक की हो सकती है जेल व जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।

          सुधार संस्था में भेजने का आदेश
          सार्वजनिक स्थानों, या उनके आस-पास वेश्यावृत्ति करना या वेश्यावृत्ति के लिये किसी को फुसलाना या याचना करने के संबंध में दोषी महिला को उसकी शारीरिक या मानसिक स्थिति के आधार पर न्यायालय उसको सुधार संस्था में भी भेजने का आदेश दे सकता है। सुधार संस्था में कम से कम दो साल व अधिक से अधिक पांच साल के लिये भेजा जा सकता है।

          विशेष पुलिस अधिकारी एवं सलाहकार बाड़ी
          राज्य सरकार इस अधिनियम के अंतर्गत अपराधों के संबंध में विशेष पुलिस अधिकारियों को नियुक्ति करेगी। सरकार कुछ महिला सहायक पुलिस अधिकारियों की भी नियुक्ति कर सकती है।

          इस अधिनियम के अंदर दिये गये सभी अपराध संज्ञेय हैं:
          इस अधिनियम के अन्दर दिये गये अपराध के दोषी व्यक्ति को विशेष पुलिस अधिकारी, या उसके निर्देष से बिना वारंट के गिरफ्तार किया जा सकता है।

          तलाशी लेना
          विशेष पुलिस अधिकारी या दुव्र्यापार पुलिस अधिकारी बिना वारंट के किसी स्थान की तलाशी तब ले सकते हैं, जब उनके साथ उस स्थान के दो या दो से अधिक सम्मानित व्यक्तियों जिसमें कम से कम एक महिला भी साथ हो।
          वहाँ पर मिलने वाले व्यक्ति को मैजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जायेगा। ऐसे व्यक्ति की आयु, लैंगिक शोषण, यौन संबंधी बीमारियों की जानकारी के लिये चिकित्सी जाँच करायी जायेगी।
          ऐसे स्थानों पर मिलने वाल महिलायें या लड़कियों से, महिला पुलिस अधिकारी ही पूछताछ कर सकती है।

          वेश्यागृह से छुडाना
          अगर मैजिस्ट्रेट को किसी पुलिस अधिकारी या राज्य सरकार द्वारा नियुक्ति किसी व्यक्ति से सूचना मिलती है कि कोई व्यक्ति वेश्यावृत्ति कर रहा है या करवा रहा है तो वह पुलिस अधिकारी (जो इंस्पेक्टर के श्रेणी से उच्च का होगा) उस स्थान की तलाशी लेने और वहाँ मिलने वाले लोगों को उसके सामने पेश करने को कह सकता है।
          वेश्यागृह को बन्द करना
          मजिस्ट्रेटको पुलिस से या किसी अन्य व्यक्ति से सूचना मिलती है, कि कोई घर, मकान, स्थान आदि सार्वजनिक स्थान के 200 मीटर के भीतर वेश्यावृत्ति के लिये प्रयोग किया जा रहा है तो वह उस जगह के मालिक, किरायेदार, एजेंट या जो उस स्थान की देखभाल कर रहा है उसे नोटिस देगा कि वह 7 दिन के अन्दर जवाब दें कि क्यों न स्थान को अनैतिक काम के लिये प्रयोग किये जाने वाला घोषित किया जाये।
          संबंधित पक्ष को सुनने के बाद यदि यह लगता है कि वहाँ पर वेश्यावृत्ति हो रही है, तो मजिस्टेªट 7 दिन के अंदर उसको खाली करने या उसके अनुमति के बिना किराये पर न देने का आदेश दे सकता है।

          संरक्षण गृह में रखने के लिये आवेदन
          कोई व्यक्ति जो वेश्यावृत्ति करता है या जिससे वेश्यावृत्ति कराई जाती है वह मैजिस्ट्रेट से संरक्षण गृह में रखने या न्यायालय से सुरक्षा के लिये आवेदन कर सकता है।

          वेश्याओं को किसी स्थान से हटाना
          मैजिस्ट्रेट को सूचना मिलने पर यदि यह लगता है कि उसके क्षेत्राधिकार में कोई वेश्या रह रही है, तो वह उसको वहाँ से हटने या फिर उस स्थान पर न आने का आदेश दे सकता है।
          विशेष न्यायालयों की स्थापना
          इस अधिनियम के अंतर्गत किये गये अपराधों के लिये राज्य सरकार व केन्द्र सरकार विशेष न्यायालय की स्थापना भी कर सकती है। भारतीय द.ड संहिता के अंतर्गत भी महिलाओं एवं बच्चो को बेचने व खरीदने पर प्रतिबंध लगाने के लिए प्रावधान बनाये गये हैं।
          18 साल के कम उम्र के लड़की को गैर कानूनी संभोग के लिये फुसलाना (धारा-366-क)
          यदि कोई व्यक्ति किसी 18 से कम उम्र की लड़की को फुसलाता है किसी स्थान से जाने को या कोई कार्य करने को यह जानते हुये कि उसके साथ अन्य व्यक्ति द्वारा गैर कानूनी संभोग किया जायेगा या उसके लिये मजबूर किया जायेगा तो ऐसे व्यक्ति को 10 साल तक की जेल व जुर्माने से दंडित किया जायेगा।
          महिला की लज्जाशीलता भंग करने के आशय से आपराधिक बल का प्रयोग करना या हमला (धारा - 354)
          जो कोई किसी स्त्री की लज्जा भंग करने के आशय से या यह संभाव्य जानते हुए कि एतद् द्वारा वह उसकी लज्जा भंग करेगा, उस स्त्री पर हमला करेगा या आपराधिक बल का प्रयोग करेगा वह 2 वर्ष के कारावास और जुर्माने से और दोनों से दंडित किया जा सकता है।
          विदेश से लड़की का आयात करना (धारा - 366 -ख)
          अगर कोई व्यक्ति किसी 21 साल से कम उम्र की लड़की को विदेश या जम्मू-कश्मीर से लाता है, यह जानते हुये कि उसके साथ गैर कानूनी संभोग किया जायेगा या उसके लिये उसे मजबूर किया जायेगा तो ऐसे व्यक्ति को 10 साल तक की जेल ओर जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।

          वेश्यावृत्ति आदि के लिय बच्चों को बेचना (धारा - 372)

          अगर कोई व्यक्ति किसी 18 साल से कम उम्र के बच्चे को वेश्यावृत्ति या गैरकानूनी संभोग या किसी कानून के विरूद्ध ओर दुराचारी काम में लाये जाने या उपयोग किये जाने के लिये उसको बेचता है या भाड़े पर देता है, तो ऐसे व्यक्ति को 10 साल तक की जेल ओर जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।
          यदि कोई व्यक्ति किसी 18 साल की कम उम्र की लड़की को किसी वेश्या या किसी व्यक्ति को, जो वेश्यागृह चलाता हो या उसका प्रबंध करता हो, बेचता है, भाडे़ पर देता है तो यह माना जायेगा कि उस व्यक्ति ने लड़की की वेश्यावृत्ति के लिये बेचा है, जब तक के लिये इसके विपरित साबित न हो जाये।
          वेश्यावृत्ति आदि के लिये बच्चों को खरीदना (धारा - 373)
          अगर कोई व्यक्ति किसी 18 साल से कम उम्र के बच्चों को वेश्यावृत्ति या गैर कानूनी संभोग, या किसी कानून के विरूद्ध और दुराचारिक काम में लाये जाने या उपयोग किये जाने के लिये उसको खरीदता है या भाडे़ पर देता है तो ऐसे व्यक्ति को 10 साल तक की जेल और जुर्माने से भी दंडित किया जा सकता है।
          न्यायालों के देह व्यापार से संबंधित निर्णय:
          1. उच्चतम न्यायालय ने गौरव जैन बनाम भारत संघ में कहा है कि वेश्यावृत्ति एक अपराध है। लेकिन जो महिलाओं देह व्यापार करती है उनको दोषी कम और पीडि़त ज्यादा माना जायेगा। न्यायालय ने यह भी कहा कि ऐसी परिस्थितियों में रहने वाली महिलाओं एवं उसके बच्चों को पढ़ायी के अवसर और आर्थिक सहायता भी दी जानी चाहिये तथा उनको समाज की मुख्य धारा से जोड़ने के लिये उनकी शादियाँ भी करवानी चाहिये जिससे बाल देह व्यापार में कमी हो सके।
          2. उच्चतम न्यायालय ने प.न. कृष्णलाल बनाम केरल राज्य में कहा कि राज्य के पास यह शक्ति है कि वह कोई भी व्यापार या व्यवसाय जो गैर कानूनी, अनैतिक या समाज के लिये हानिकारक है उस पर रोक लगा सकती है।
            बलात्संग/बलात्कार (धारा - 376)
            कोई पुरूष एतस्मिसन् पश्चात् अपवादित दशा के सिवाय किसी स्त्री के साथ निम्नलिखित छह भाँति की परिस्थितियों में से किसी परिस्थिति में मैथुन करता है, वह पुरूष बलात्संग/बलात्कार करता है यहा कहा जाता है:-
            1. उस स्त्री की इच्छा के विरूद्ध।
            2. उस स्त्री की की सम्मति कि बिना।
            3. तीसरा - उस स्त्री की सम्मति, उसे या ऐसे किसी व्यक्ति को, जिससे वह हितबद्ध है, मृत्यु या उपहित के भय में डालकर अभिप्राप्त की गई है।
            4. उस स्त्री की सम्मति से जबकि वह पुरूष यह जानता है कि वह उस स्त्री का पति नहीं है और उस स्त्री ने सम्मति इसलिए दी है कि वह ऐसा पुरूष है जिससे वह विधिपूर्वक विवाहित है या विवाहित होने का विश्वस करती है।
            5. उस स्त्री की सम्मति से, जबकि ऐसी सम्मति देने के समय वह विकृतचित या मतता के कारण या उस पुरूष द्वारा व्यक्तिगत रूप में या किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से कोई सम्मति देती है, प्रकृति और परिणामों को समझने में असमर्थ है।
            6. उस स्त्री की सम्पति से या बिना सम्मति के, जबकि वह सोलह वर्ष से कम आयु की है।
            स्पष्टीकरण : बलात्संग के अपराध के लिए आवश्यक मैथुन गठित करने के लिए प्रवेशन पर्याप्त है।
            अपवाद : पुरूष का अपनी पत्नी के साथ मैथुन बलात्संग नहीं है कि जबकि पत्नी पन्द्रह वर्ष से कम आयु की नहीं है।
              अप्राकृतिक इंद्रीय भोग (धारा - 377)
              जो कोई किसी पुरूष, स्त्री या जीव जन्तु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरूद्ध स्वेच्छया इन्द्रीय भोग करेगा, वह आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास जिसकी अवधि 10 वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
              मानहानि (धारा- 499/500)
              जो कोई बोले गये या पढ़े जाने के लिये आषयित शब्दों द्वारा या संकेत द्वारा या दृष्य रूपणों द्वारा किसी व्यक्ति के बारे में कोई लांछन इस आशय से लगता है या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति को अपहानि की जाये या यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि होगी, अपवादित दशाओ को छोड़कर मानहानि करता है तो वह 2 वर्ष तक के साधारण कारावास या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
              शब्द, अंग विक्षेप या कार्य जो किसी स्त्री की लज्जा का अनादर करने के लिए आशयित हैं (धारा - 509)
              जो कोई किसी स्त्री की लज्जा का अनादर करने के आशय से कोई शब्द कहेगा, कोई ध्वनि या अंग विक्षेप करेगा या कोई वस्तु प्रदर्षित करेगा, इस आशय से की ऐसी स्त्री द्वारा ऐसा शब्द या ध्वनि सुनी जाये या ऐसा अंग विक्षेप या वस्तु देखी जाये अथवा ऐसी स्त्री की एकंातता का अतिक्रमण करेगा, वह सादा कारावास से जिसकी अवधि 1 वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से या दोनों से दंडित किया जा सकता है।
              भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख


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              हिन्दु उत्तराधिकार अधिनियम (Hindu Succession Act) 1956



              समाजिक सुधार और हिन्दू महिलाओं को पूर्ण अधिकार दिलाने की दिषा में 9 सितम्बर, 2005 का दिन एक विषेष महत्व रखेगा। इस दिन से एक अधिनियम जिसका नाम है ‘‘हिन्दु उतराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005’’ अस्तित्व में आ गया है। जिसके अन्तर्गत हिन्दू महिलाओं को पुरूषों के बराबर पूर्ण अधिकार दिया गया है। क्योंकि यह नया अधिनियम हिन्दू समाज की अभी तक की प्रचलित मान्यताओं के एकदम विपरीत है और इससे हिन्दू महिलाओं को सम्पति में नए अधिकार प्राप्त हुए हैं इसलिए इस संशोधन के द्वारा हिन्दू महिलओं के अधिकारों मे जो परिवर्तन किए गए है, उसका वर्णन इस लेख में नीचे किया जा रहा है। 
              हिन्दू महिला संयुक्त परिवार में जन्म से ही सहभागी 
              इस नये संशोधन कानून से हिन्दू उतराधिकार कानून 1956 की धारा-6 के स्थान पर एक नई धारा स्थानापन्न की गई है, जिसके अनुसार 9 सितम्बर 2005 से हर हिन्दू पुत्री जन्म से ही संयुक्त परिवार में पुत्र के बराबर भागीदार गिनी जायेगी और उसे संयुक्त परिवार की सम्पति में पुत्र के बराबर अधिकार रहेगा। इसके साथ-साथ पुत्र के बराबर ही उस सम्पति में जो देनदारियाँ होगी। उनमें भी वह सहभागिनी होगी। लेकिन यदि किसी संयुक्त परिवार का विभाजन 20 दिसम्बर 2004 से पहले हो गया है, अर्थात जो पुराने हिन्दू कानून के अन्तर्गत हो गया है, जिसके अन्तर्गत पुत्रियों को संयुक्त परिवार की सम्पति में कोई अधिकार नहीं था तो ऐसा विभाजन रदद नहीं किया जाएगा। परन्तु 9 सितम्बर, 2005 से हिन्दू परिवार के विभाजन में जो हक पुत्र को प्राप्त होगा, वही हक पुत्री को भी प्राप्त रहेगा और उसे उतना ही हिस्सा दिया जाएगा जैसे कि पुत्र को दिया जाएगा जैसे कि पुत्र को दिया जाता है। इसी प्रकार यदि किसी पुत्री का देहान्त पहले हो जाता है जो संयुक्त परिवार के विभाजन के समय जीवित थी और जिस प्रकार दिंवगत पुत्र की सम्पति उसके पुत्रों और उसके उत्तराधिकारियों में बांटी जाती है, उसी प्रकार दिवगंत पुत्री के उतराधिकारीयों में भी वह सम्पति बांटी जाएगी।
              संशोधन के पश्चात निम्न बातें प्रमुख हैं: 
              1. वसीयत का अधिकार - हिन्दू महिला को संयुक्त परिवार की सम्पति में अपने हिस्से को अपनी वसीयत के अनुसार बांटने का पूरा हक रहेगा। इस प्रकार एक हिन्दू महिला की मृत्यु के समय संयुक्त परिवार की सम्पति का विभाजन उसी प्रकार होगा जैसे वह मृत्यु के दिन जीवित थी और उसका जो भी हिस्सा उस समय बनता था वही उसके उतराधिकारीयों में विभाजित होगा जैसे कि पुत्र का होता है।
              2. बुजुर्गो के ऋण हेतू हिन्दू जिम्मेदार नहीं - अब नये कानून के पश्चात कोई भी न्यायालय किसी भी पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरूद्ध कोई फैसला नहीं करेगी, केवल इसलिए कि ऐसा पुत्र आदि का एक पवित्र कर्तव्य था, कि वह अपने पिता के ऋणों को चुकाये। यदि कोई ऋण 9 सितम्बर 2005 से पूर्व पिता आदि ने लिया है तो पूर्व कानून के अनुसार कोई भी लेनदार पुत्र, या प्रपौत्र के खिलाफ कोर्ट में मुकद्दमा कर सकता है, जैसे कि यह नया संशोधन कानून पास ही नहीं हुआ हो।
              3. हिन्दु महिलाओं को मकान विभाजन का अधिकार - अब हिन्दू महिला संयुक्त परिवार के रिहायषी मकान का विभाजन मांग सकती है।
              4. कृषि भूमि का विभाजन हिन्दू महिला द्वारा संभव - हिन्दू उतराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 4(2) समाप्त कर दी गई है, जिसका असर यह होगा कि 9 सितम्बर 2005 से यदि हिन्दू महिलाओं को कृषि भूमि में उत्तराधिकार के रूप में कोई हक मिलेगा तो उसे कृषि भूमि के विभाजन का पूरा हक रहेगा, जैसे कि एक पुत्र को रहता है।
              5. हिन्दू विधवाओं को पुनर्विवाह पर उत्तराधिकार की असुविधा नहीं - इस नये संशोधन अधिनियम के अनुसार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा 24 को समाप्त कर दिया गया है, जिससे पूर्व दिवंगत पुत्र की विधवा स्त्री आदि या पूर्व दिवंगत पुत्र के दिवंगत पुत्र या भाई की विधवा को पुनर्विवाह पर सम्पति उत्ताधिकार का अधिकार नहीं मिलता था। अब ऐसी विधवा को उसके पुनर्विवाह के पश्चात भी अपने पिता या संयुक्त परिवार की सम्पति में पुत्र केबराबर हिस्सा प्राप्त करने का पूरा अधिकार रहेगा।
              भारतीय विधि और कानून पर आधारित महत्वपूर्ण लेख


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              भक्ति आन्दोलन में कबीर का योगदान



              भक्ति आन्दोलन वह आंदोलन है जिसमें भागवत धर्म के प्रचार और प्रसार के परिणामस्वरूप भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। भक्ति आन्दोलन ने जन सामान्य को सम्मान पूर्वक जीने का रास्ता दिखाया, आत्मगौरव का भाव जगाया और जीवन के प्रति सकारात्मक आस्था पूर्ण दृष्टिकोण विकसित किया। देश की अखण्डता और समस्त देशवासियों के कल्याण तथा मानव के समान अधिकारों को अभिव्यक्ति दी। भक्ति आन्दोलन के सम्बन्ध में शिव कुमार मिश्र लिखते हैं - "यह भक्ति आन्दोलन, सच पूछा जाए तो अपने समय की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों की अनिवार्य देन था। वह युग जीवन की ऐतिहासिक माँग बनकर आया। इस तथ्य का अनुमान महज इस बात से लगाया जा सकता है कि इससे न केवल अपने समय की राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक जड़ता को तोड़ा, चली आती हुई सांस्कृतिक जीवन की धारा के साथ विजेताओं की नई संस्कृति को घुलाते-मिलाते हुए पहली बार जाति, धर्म, वर्ग, वर्ण आदि से निरपेक्ष एक मानव धर्म तथा एक मानव संस्कृति की परिकल्पना सामने रखी। इसने शताब्दियों से कुंठित और अपमानित देश के करोड़ों-करोड़ साधारण जनों के लिए उनकी सामाजिक मुक्ति तथा आध्यात्मिकता के द्वार भी उन्मुक्त कर दिए, समाज तथा धर्म के ठेकेदारों ने जिन्हें उनके लिए कब का बन्द कर रखा था। इस आधार पर यदि यह कहा जाए कि एक स्तर पर यह भक्ति-आन्दोलन रूढि़ग्रस्त धर्म तथा उसके द्वारा अभिशप्त एक अनैतिक और अमानवीय समाज व्यवस्था के प्रति सामान्य जन के सात्विक शेष तथा उसकी दुर्दम जिजीविषा की भावात्मक अभिव्यक्ति था, तो अतिशयोक्ति न होगी।"

              Dhan Dhan Jai Satguru Kabir Ji Maharaj

              इन परिस्थितियों में कबीर के आविर्भाव को रेखांकित करते हुए शिव कुमार मिश्र लिखते हैंः  "समझौते का रास्ता छोड़कर विद्रोह का रास्ता अपनाते हुए निर्गुण भक्ति की जो धारा भक्ति-आन्दोलन की स्रोतस्वनी से फूटी कबीर उसकी सबसे ऊँची लहर के साथ सामने आए। समझौता उनकी प्रकृति में नहीं था। विद्रोह और क्रांति की ज्वाला उनकी रग-रग में व्याप्त थी सिर पर कफन बाँधकर, अपना घर फूंककर वे अलख जगाने निकले थे। उन्हें समझौता परस्तों की नहीं, अपना घर फूंक कर साथ चलने वालों की जरूरत थी वे लुकाठी लिए सरे बाजार गुहार लगा रहे थे।"

               कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ।
              जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।।

              भक्ति आन्दोलन के व्यापक पटल पर कबीर का मूल्यांकन और उनका योगदान रेखांकित करने के लिए हमें कबीर को अन्दर से देखना-परखना होगा, क्योंकि कबीर ऊपर से एक नजर में जो दिखाते हैं उससे कहीं अधिक वो हैं। कबीर को केवल दार्शनिक, निर्गुण ब्रह्म के प्रतिपादक, समाज सुधारक, हिन्दू-मुस्लिम एकता और समन्वय के पुरोधा तथा एक संत के रूप में देखना कबीर के साथ अन्याय करना होगा।

              कबीर का मूल्यांकन उन "मूल्यों" के आधार पर करना चाहिए जिन्हें विकसित और पल्लवित करने के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। उस वैचारिक पृष्ठभूमि के आधार पर करना चाहिए जिसके आधार वे अकेले इतना जबर्दस्त विद्रोह कर सके। तमाम सामन्तीय जीवन प्रणाली और पुरोहिती दंभ क े विरुद्ध जन सामान्य की प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान की घोषणा कर सके। सदियों से अनुप्राणित उस कठोर जमीन को तोड़ने और एक नई उर्वर जमीन को बनाने के प्रयास के आधार पर करना चाहिए जिसे उन्होंने अपने रक्त के आँसुओ से सींचा।

              सोई आँसू साजणां, सोई लोक बिडाहिं।
              जे लोइण लोई चुवैं, तो जाणो हेत हियाहिं।।

              कबीर का मूल्यांकन उनकी इस करुणा के आधार पर करना चाहिए जो समस्त मानवता के प्रति थी। चुपचाप खा-पीकर चैन से सोने वाले इस संसार की सदियों की इस नींद पर, इस जड़ता पर अन्याय को चुपचाप सहने की आदत पर और भविष्य के प्रति उदासीनता की सोच पर कबीर रात-रात भर जागते हैं और आँसू बहाते हैं।

              सुखिया सब संसार है, खावे औ सोवे।
              दुखिया दास कबीर है, जागै औ रोवे।।

              यहाँ कबीर जाग रहे हैं और रो रहे हैं शेष सब खा रहे हैं और सो रहे हैं। कबीर का यह जागना और रोना बहुत महत्वपूर्ण है। वास्तव में कबीर देश के सांस्कृतिक नवजागरण के अग्रदूत थे। डॉ. रामविलास शर्मा ने भक्ति युग को प्रथम नव-जागरण की संज्ञा दी है। कबीर इस नवजागरण के पुरोधा थे। कबीर ने अपने समय में जिस युग सत्य का साक्षात्कार किया था उसे देखकर कबीर जैसा संवेदनशील निष्ठावान व्यक्ति रो ही सकता है। कबीर के विद्रोही होने का एक कारण यह रुदन भी है।

              कबीर अहंकार से मुक्ति में मानव-जीवन की बृहत्तर सार्थकता देखते हैं। अहं से मुक्ति उनकी प्रखर विचारधारा से जुड़ा प्रश्न है, चूँकि मध्यकालीन समाज अहं परिचालित था। वर्ग-भेद आधारित जहाँ अमीर-गरीब का अंतर है, धर्म और जाति का अंतर है। सामन्तीय-पुरोहितवाद ने अपने को सुरक्षित करने के लिए मानव-मानव के बीच कई दीवारें खड़ी कीं। इसलिए कबीर कहते हैं- अपने से बाहर निकलो, सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यापक समाज में पहुंचा जहाँ उच्चतर मानव मूल्यों की प्रतिष्ठा है:

              हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध।
              हद बेहद दोऊ तजे, ताकर मता अगाध।।

              सहजता और सहिष्णुता जैसे मानवीय मूल्य अहं के साथ नहीं चल सकते। इन मूल्यों के अभाव में न ईश्वर मिल सकता और न सांसारिक सुख। कबीर के यहाँ "राम" ईश्वरत्व की अपेक्षा उच्चतर मूल्य-समुच्च के प्रतीक हैं। कबीर ‘राम’यानि मानवीय मूल्यों को पाने का जो रास्ता बताते हैं वह है प्रेम का। कबीर के यहाँ प्रेम भी एक जीवन मूल्य के रूप में प्रतिपादित है:

              पोथी पढि़ जग मुआ, पण्डित भया न कोय।
              ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पण्डित होय।।

              इस प्रेम की अर्थ व्यंजना गहरी है और इसका आधार ईमानदार संवेदन है जो आचार-विचार की मत्रैी के लिए आवश्यक है। कबीर प्रेम को कई तरह से परिभाषित करते हैं:

              कबीर यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
              सीस उतारे भुईं धरे, सो घर पैठे आहिं।।


              प्रेम के घर में बैठने के लिए जो शर्त है वह प्रेम को उस जीवन मूल्य के रूप में प्रतिष्ठित करती है जिसके बिना जीवन चल नहीं सकता। सीस काटकर जमीन पर रखने की क्षमता हो तो प्रेम को पा सकते हो।

              प्रेम न खेतो नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
              राजा-परजा जिस रुचै, सिर दे सौ ले जाय।।

              प्रेम के मार्ग में सम्पूर्ण समर्पण की बात कबीर बार-बार करते हैं, यह बात ध्यान देने लायक है। सम्पूर्ण भक्ति काव्य में ही नहीं हिन्दी साहित्य में बहुत कम कविताओं में प्रेम के लिए सिर काट कर रखने की शर्त मिलेगी। भक्ति काव्य में अन्य कवियों ने प्रेम में प्रिय के प्रति समर्पण की बात तो चित्रित की है, परन्तु प्रेम के लिए दुर्दम शर्त सिर्फ कबीर ही रख सकते थे। इसका कारण था यहाँ यह प्रेम व्यक्तिगत भावना या किसी एक के प्रति तरल भावनात्मक अनुभूति मात्र नहीं है। यहाँ तो वह एक ऐसी विचारधारा है, एक ऐसा दृष्टिकोण है, एक ऐसा सूत्र है जिसके आधार पर ही मानव-मानव कहा जा सकता है। आपस में मनुष्य सत्य को लेकर जी सकता है। कबीर ने एक ऐसे देश की कल्पना की जहां मनुष्य मात्र समानता के सिद्धांत पर जिये जहाँ कोई ऊंच-नीच, भेदभाव कोई विषमता और विश्रृंखलतायें न होंः

              अवधू, बेगम देश हमारा
              राजा रंक फकीर-बादशाह, सबसे कहौं पुकारा।
              जो तुम चाहो परम पद को, बसिहों देस हमारा।।

              कबीर का यह आध्यात्मिक देश उच्चतम मानव मूल्यों का देश है। सामाजिक स्तर पर जहाँ व्यक्ति का सामाजिक चेतना में पर्यवसान होना ही मानवीय मूल्यों का प्रतीक है।

              व्यक्ति के माध्यम से कबीर ने कुछ बड़ी सामाजिक-सांस्कृतिक चिंताएँ कीं और इस दृष्टि से वे अपनी अनगढ़ता में भी कुछ मूल्य स्थापनाएँ कर सके, जिसे हम उनका विशिष्ट योगदान कह सकते हैं। कबीर भक्ति काव्य की उस परम्परा के सबसे प्रखर स्वर हैं, जिसका आरंभ सिद्ध-नाथ साहित्य से हुआ। साधारण सामान्य वर्ग से आए इन कवियों ने अपने समय-समाज के प्रति तीव्र असंतोष व्यक्त किया और उन्होंने सामाजिक संस्कृति पर बल देते हुए, मध्यकाल के लिए एक नए मानववादी विकल्प का संकेत दिया।

              कबीर का सीधा आग्रह सरल जीवन पर है। सारे आडम्बर ताम-झाम से मुक्त, सामंती-पुरोहितवादी अलंकरण का निषेध। उन्होंने उन छोटी जातियों को विशेष रूप से सम्बोधित किया जिनकी कोई सामाजिक, आर्थिक पहचान नहीं थी। उन्होंने वे सामान्य विषय चुने जो मध्यकाल में उनके समक्ष मौजूद थे। वे मूलभूत प्रश्न थे - जातिवाद, पुरोहितवाद, आडम्बर, हर प्रकार का भ्रष्टाचार और शोषण-उत्पीड़न और सबसे महत्वपूर्ण जन सामान्य की प्रतिष्ठा और आत्म-सम्मान। इस प्रकार कबीर का यथार्थ ऊपर-ऊपर नहीं तैरता वे प्रश्नों की गहराई में उतरते हैं और एक संवेदनशील विचारक के रूप में सामने आते हैं।

              समय का यथार्थ महत्वपूर्ण रचना की अनिवार्यता है कबीर अपने युग सत्य से सबसे अधिक गहराई से जुड़े प्रतीत होते हैं। यह भोगा हुआ यथार्थ है जिसे वे अपनी विद्रोही वाणी में अभिव्यक्त करते हैं। उनका सर्वाधिक आक्रोश सामंतवाद में नए पनपे सम्प्रदायवाद, वर्ग-विभेद और दो मँहुेपन के प्रति व्यक्त हुआ है।

              कबीर मानवीय संवेदना के प्रत्येक स्पंदन से परिचित थे। पण्डितों, मुल्लाओं और अछूतों के कर्मकाण्ड और पाखण्ड उनके लिए ‘आँखों देखी’ प्रमाण थे। पहले से चले आ रहे बाह्याचारों से सामाजिक जड़ता का विकास हो रहा था। इ सीलिए मनुष्य को मनुष्य समझने और उसे संवेद्य बनाने की सार्थक चेष्टा कबीर का सबसे बड़ा योगदान है।

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              ॥ मंगलाचरण - सुन्दरकाण्ड ॥



               ॥ मंगलाचरण - सुन्दरकाण्ड ॥
               शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
              ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
              रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
              वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥
              भावार्थ:-शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरंतर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बड़े, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वंदना करता हूँ॥1॥

              नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
              सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
              भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
              कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥
              भावार्थ:-हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अंतरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥

              अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
              दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।
              सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
              रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥
              भावार्थ:-अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥


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              कबीर दास जी का परिचय एवं उनके काव्य की विशेषताएँ



              कबीर दास जी का परिचय एवं उनके काव्य की विशेषताएँ 
              Introduction of Kabir Das ji and the Characteristics of his Poetry

              कबीर दास का जीवन परिचय
              कबीर संतमत के प्रवर्तक और संत काव्य के सर्वश्रेष्ठ कवि है। विलक्षण के धनी और समाज - सुधारक संत कबीर हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। इनके समान सशक्त और क्रांतिकारी कोई अन्य कवि हिन्दी साहित्य में दिखाई नहीं पड़ता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कबीर दास के काव्य और व्यक्तित्व का आकलन करते हुए लिखा है - कबीर की उक्तियों में कहीं - कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है। प्रतिभा उनमें बडी प्रखर थी, इसमें संदेह नहीं। कबीर की विलक्षण प्रतिभा पर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है - हिन्दी साहित्य के हजार वर्षो के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर लेखक उत्पन्न नहीं हुआ। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। उनके संत रूप के साथ ही उनका कविरूप बराबर चलता रहता है।
              PIYF Rishikesh India salute to nobel sage Kabīr (c. 1440 – c. 1518) was a mystic poet and saint of India,
              कबीर की जन्मतिथि के सम्बन्ध में कई मत प्रचलित है, पर अधिक मान्य मत - डॉ. श्यामसुन्दर दास और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है। इन विद्वानों ने कबीर का जन्म (कबीर दास जयंती) सम्वत् 1456 वि. (सन् 1389 ई.) माना है। इनके जन्म के सम्बध में कहा जाता है कि कबीर काशी की एक ब्राह्मणी विधवा की संतान थे। समाज के डर से ब्राह्मणों ने अपने नवजात पुत्र को एक तालाब के किनारे छोड़ दिया था, जो नीरु जुलाहे और उसकी पत्नी नीमा को जलाशय के पास प्राप्त हुआ। विद्वानों के मतानुसार कबीर का अवसान मगहर में सम्वत् 1575 वि.(सन् 1518 ई.) में है।
              Dhan Dhan Jai Satguru Kabir Ji Maharaj
              कबीर की जितनी भी रचनाएं मिलती हैं उनके शिष्यों ने इन्हे बीजक नामक ग्रंथ में संकलित किया है। इसी बीजक के तीन भाग हैं - साख, शबर और रमैनी । साखी में संग्रहित साखियों की संख्या 809 है। सबद के अंतर्गत 350 पद संकलित है। साखी शब्द का प्रयोग कबीर ने संसार की समस्याओं को सुलझाने के लिए किया है। सबद कबीर के गेय पद है। रमैनी के ईश्वर सम्बन्धी, शरीर एवं आत्मा उद्धार सम्बन्धी विचारों का संकलन है। कबीर के निर्गुण भक्ति मार्ग के अनुयायी थे और वैष्णव भक्त थे। रामानंद से शिष्यत्व ग्रहण करने के कारण कबीर के हृदय में वैष्णवों के लिए अत्यधिक आदर था। कबीर ने धार्मिक पाखण्डों, सामाजिक कुरीतियों, अनाचारों, पारस्परिक विरोधों आदि को दूर करने का सराहनीय कार्य किया है। कबीर की भाषा में सरलता एवं सादगी है, उसमें नूतन प्रकाश देने की अद्भुत शक्ति है। उनका साहित्य जन-जीवन को उन्नत बनाने वाला, मानवतावाद का पोषाक, विश्व -बन्धुत्व की भावना जाग्रत करने वाला है। इसी कारण हिन्दी सन्त काव्यधारा में उनका स्थान सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
              Kabir Dohas
               


              कबीर काव्य की विशेषताएँ
              कबीर की काव्यगत विशेषताओं का वर्णन कीजिए 3000 शब्दों में -भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में भक्ति आन्दोलन को देखा-परखा जाता है। यह इतिहास की महत्वपूर्ण घटना निम्नलिखित विशेषताओं के कारण है:- 
              जनता की एकता की स्वीकृति -भक्ति आन्दोलन ने अपने धार्मिक विचारों के बावजूद जनता की एकता को स्वीकार किया। यह स्वीकृति वैचारिक और व्यावहारिक दोनों आधारों पर है। रामानन्द की शिष्य परम्परा में कबीर, रैदास, दादू, तुकाराम तथा तुलसी समान रूप से स्वीकृत हैं, तथा मीरा ने अपने गुरु के रूप में रैदास को स्वीकार किया यह भी एक मिसाल है। दूसरे कबीर कहते हैं- "ना मैं हिन्दू ना मुसलमान" और तुलसी जब भील-भीलनी, किरात जैसी जंगली जातियों को राम के द्वारा स्वीकार और सम्मानित करवाते हैं तो इसी एकता की बात करते हैं। 

              ईश्वर के समक्ष सबकी समानता -भक्ति आन्दोलन का यह एक ऐसा वैचारिक आधार है जिसके माध्यम से वह ऊँच-नीच एवं जाति और वर्ण-भेद के आधार पर विभाजित मानवता की समानता को एक नैतिक और मजबूत आधार प्रदान करते हैं। समाज में व्याप्त असमानताओं का आधार भी ईश्वर की भक्ति को बनाया गया था- भक्ति संतों ने उन्हीं के हथियारों से उन पर वार किया और कहा कि- 'ब्रह्म' के अंश सभी जीव हैं तो फिर यह विषमता क्यों? कि किसी को ईश्वर उपासना का सम्पूर्ण अधिकार और किसी को बिल्कुल नहीं, इतना ही नहीं इसी आधार पर समाज को रहन-सहन, खान-पान, छुआछूत एवं आर्थिक विषमताओं से विभाजित किया गया था। भक्तों ने चाहे वे निर्गुण हों चाहे सगुण सभी ने ईश्वर के समक्ष मानव मात्र की समानता को एक स्वर से स्वीकार किया।

              जाति-प्रथा का विरोध -'जाति प्रथा' समाज की एक ऐसी बुराई थी जिसके चलते समाज के एक बड़े वर्ग को मनुष्यत्व के बाहर का दर्जा मिला हुआ था। 'अछूत', 'शूद्र', 'अन्त्यज', 'निम्नतम' श्रेणी के मनुष्यों का ऐसा समूह था जिसे मनुष्यत्व की मूलभूत पहचान भी प्राप्त नहीं थी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्ग में भी जातिगत श्रेष्ठता और सामाजिक व्यवस्था में उच्च श्रेणी के लिए संघर्ष होते रहते थे। भक्ति संतों ने मनुष्यता के इस अभिशाप से मुक्ति की लड़ाई पूरी ताकत से लड़ी। कबीर जब "ना हिन्दू ना मुसलमान" की बात करते हों या किसी जाति विशेष के विशिष्ट अधिकारों पर चोट करते हों जो उन्हें जातिगत आधार पर मिले हों तो वे वास्तव में जाति प्रथा की इसी वैचारिक धरातल को तोड़ना चाहते हैं। 'जाति' विशेष का विरोध या जाति को खत्म करने की बात नहीं की गई, बल्कि 'जाति' और 'धर्म' के तालमेल से उत्पन्न मानवीय विषमताओं और ह्रासमान जीवन मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए जाति के आधार मिले विशेषाधिकारों को खत्म करने की बात भक्ति आन्दोलन ने उठाई।
              जाति प्रथा के आधार पर ईश्वर की उपासना का जो विशेष अधिकार ऊंची जाति वालों ने अपने पास रख रखा था और पुरोहित तथा क्षत्रियों की साँठ-गाँठ के आधार पर जिसे बलपूर्वक मनवाया जाता था। उसे तोड़ने का अथक प्रयास भी भक्ति आन्दोलन ने किया और कहा कि ईश्वर से तादात्म्य के लिए मनुष्य के सद्गुण - प्रेम, सहिष्णुता, पवित्र हृदय, सादा-सरल जीवन और ईश्वर के प्रति अगाध विश्वास आवश्यक है न कि उसकी ऊंची जाति या ऊँचा सामाजिक, राजनैतिक या आर्थिक आधार। 

              धर्मनिरपेक्षता/पंथनिपेक्षता - धर्मनिरपेक्षता का मतलब यह नहीं है कि व्यक्ति किसी धर्म-विशेष से कोई सम्बन्ध न रखे। बल्कि इसका अर्थ यह है कि अपने धर्म पर निष्ठा रखते हुए भी व्यक्ति दूसरे धर्मों का सम्मान करें तथा अपनी धार्मिक निष्ठा को दूसरे धर्मों में निष्ठा रखने वालों से जुड़ने में बाधा न बने। धर्मनिरपेक्षता एक जीवन मूल्य है जिसमें सहिष्णुता का गुण समाहित है। वर्ग, वर्ण, सम्प्रदाय तथा धर्मगत बन्धनों की अवहेलना करते हुए मनुष्य मात्र को ईश्वरोपासना का समान अधिकारी घोषित भक्ति आन्दोलन ने एक ऐसी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा को जन्म दिया जो उस समय तो क्रांतिकारी थी ही आज भी इस विचारधारा को भारतीय समाज व्यावहारिक स्तर पर नहीं अपना पाया है। भक्ति आन्दोलन के सभी सूत्र धारों में यह जीवन-मूल्य कमोवेश पाया जाता है। कबीर ने तो मानो इस विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाने का बीड़ा उठा रखा था। वे जानते थे कि इसे पाना आसान नहीं है, नहीं होगा तभी उन्होंने शर्त रखी जो अपना 'सर' काटकर रखने की क्षमता रखता हो या अपना उन्होंने फूंकने की क्षमता रखता हो वही कबीर की इस धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के साथ चल सकता है। 
              कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
              जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।।
               
              जायसी इस विचारधारा को साहित्यिक स्तर पर अभिव्यक्त करते हैं। अपने मजहब के प्रति ईमानदारी रखते हुए भी उन्होंने दूसरे धर्म मतो को आदर दिया और जिसे मनुष्यता का सामान्य हृदय कहते हैं, या जिसे मनुष्यत्व की सामान्य भूमि कहते हैं, उस जमीन पर, जिससे भी मिलें, मनुष्य के नाते मिले, बिना किसी भेदभाव के।
              भारत के सांस्कृतिक इतिहास में पहली बार अंत्यजों और पीड़ित-शोषित वर्गों ने अपने संत दिए और इन संतों ने प्रथम बार साहसपूर्वक सम्पूर्ण आस्था और विश्वास से धर्म-जाति और वर्ण-सम्प्रदायगत बंधनों को तोड़ते हुए मानव धर्म तथा मानव संस्कृति का गान गाया। 

              सामाजिक उत्पीड़न और अंधविश्वासों का विरोध -भक्ति आन्दोलन ने एक लम्बी लड़ाई-अपने प्रारंभ से अंत तक-लड़ी वह थी, सामाजिक उत्पीड़न और जन सामान्य में व्याप्त अंधविश्वास के विरुद्ध। कबीर इस युद्ध के उद्घोषक थे। उन्होंने इसे स्वयं की स्वयं को दी हुई चुनौती के रूप में स्वीकार किया और अपने तरकश के सभी तीर चलाए, तुक्का नहीं लगाया। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि कबीर अकेले खड़े हैं सामने चुनौती झेलने वाला कोई नहीं पर लड़ाई किसी व्यक्ति या शासक के विरुद्ध नहीं थी। लड़ाई थी उस गलीच 'विचारधारा' और 'सोच' के विरुद्ध जिसके आधार पर सदियों से मानवता का शोषण किया जा रहा था उसे उत्पीड़ित किया जा रहा था और मनुष्य जिसे अपनी नियति मानकर जी रहा था। कबीर ने कहा कि "यह हमारी नियति नहीं, हमारा शोषण है, मानवता के प्रति अभिशाप है, किसी धर्म में इसका कोई आधार नहीं है।" नियति और धर्म के नाम पर थोपे गए अंधविश्वासों को उन्होंने धर्म और ईश्वर के आधार पर ही खण्डित किया और ज्ञान का प्रकाश प्रकाशित किया। इसी कारण उन्होंने सच्चे गुरू का महत्व प्रतिपादित किया - "आगे थे सतगुर मिल्या, दीया दीपक हाथ।"

              सूर और तुलसी ने भी सामाजिक उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाई है। तुलसी ने कई जगह तत्कालीन अर्थव्यवस्था का चित्र अंकित किया है तथा सामाजिक जीवन की विषमताओं को रेखांकित किया है। लगता है तुलसी स्वयं सामाजिक रूप से उत्पीड़ित रहे हैं। यह पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं।
              धूत कहौ अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जुलहा कहौ कोऊ,
              काहू की बेटी सो बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारिन सोऊ।
              तुलसी सरनाम गलुाम है राम को, जाको रुचै सो कहो कछु कोऊ,
              माँग के खइबौ, मसीत को सोइबो, लेबे को एक न देबे को दोऊ।

              या फिर सामाजिक जीवन का यह हृदय विदारक दृश्य: 
              खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,
              बलि, बनिक को वाणिज न, चाकर को चाकरी।
              जीविका-विहीन लोग, सीद्यमान-सोच बस,
              कहैं एक-एकन सौ, कहाँ जाइ, का करी।। 

              भक्ति आन्दोलन की उपर्युक्त प्रमुख विशेषताओं के अलावा और भी कई विशेषताएं हैं- जैसे कि भक्ति आन्दोलन ने इस विचार पर जोर दिया कि भक्ति ही आराधना का उच्चतम स्वरूप है तथा बाह्याचारों, कर्मकाण्डों आदि की निंदा तथा भर्त्सना करना। भक्त कवि आन्तरिक पवित्रता और सहज भक्ति पर जोर देते थे। मानवीय यथार्थ को सर्वोपरि मानते हुए वर्गगत, जातिगत भेदभावों तथा धर्म के नाम पर किए जाने वाले उत्पीड़न का दृढ़ विरोध। सामन्तीय मूल्यों और पुरोहितवाद की सांठगांठ को और इनके द्वारा किए जाने वाले संयुक्त शोषण अत्याचारों का विरोध भी इसकी एक विशेषता थी। 'लोक संपृक्ति' इस आन्दोलन की एक उल्लेखनीय विशिष्टता है।

              कबीर की रचनाओं का संकलन/कबीर की रचनाएँ
              कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-
              1. रमैनी
              2. सबद
              3. साखी
              कबीरदास का साहित्यिक परिचय
              कबीर दास की भाषा और शैली
              कबीर दास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में कहलवा लिया– बन गया है तो सीधे–सीधे, नहीं दरेरा देकर। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार–सी नज़र आती है। उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ की किसी फरमाइश को नहीं कर सके और अकह कहानी को रूप देकर मनोग्राही बना देने की तो जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत ही कम लेखकों में पाई जाती है।
              असीम–अनंत ब्रह्मानन्द में आत्मा का साक्षी भूत होकर मिलना कुछ वाणी के अगोचर, पकड़ में न आ सकने वाली ही बात है। पर 'बेहद्दी मैदान में रहा कबीरा' में न केवल उस गंभीर निगूढ़ तत्त्व को मूर्तिमान कर दिया गया है, बल्कि अपनी फक्कड़ाना प्रकृति की मुहर भी मार दी गई है। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य–रसिक काव्यानंद का आस्वादन कराने वाला समझें तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। फिर व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं जानते। पंडित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला जाते थे। अत्यन्त सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि खाने वाले केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता नहीं पाता।
              कबीर की रचनाओं में अनेक भाषाओं के शब्द मिलते हैं यथा - अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, बुन्देलखंडी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली आदि के शब्द मिलते हैं इसलिए इनकी भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' या 'सधुक्कड़ी' भाषा कहा जाता है। प्रसंग क्रम से इसमें कबीरदास की भाषा और शैली समझाने के कार्य से कभी–कभी आगे बढ़ने का साहस किया गया है। जो वाणी के अगोचर हैं, उसे वाणी के द्वारा अभिव्यक्त करने की चेष्टा की गई है; जो मन और बुद्धि की पहुँच से परे हैं; उसे बुद्धि के बल पर समझने की कोशिश की गई है; जो देश और काल की सीमा के परे हैं, उसे दो–चार–दस पृष्ठों में बाँध डालने की साहसिकता दिखाई गई है।
              कहते हैं, समस्त पुराण और महाभारतीय संहिता लिखने के बाद व्यासदेव में अत्यंत अनुताप के साथ कहा था कि 'हे अधिल विश्व के गुरुदेव, आपका कोई रूप नहीं है, फिर भी मैंने ध्यान के द्वारा इन ग्रंथों में रूप की कल्पना की है; आप अनिर्वचनीय हैं, व्याख्या करके आपके स्वरूप को समझा सकना सम्भव नहीं है, फिर भी मैंने स्तुति के द्वारा व्याख्या करने की कोशिश की है। वाणी के द्वारा प्रकाश करने का प्रयास किया है। तुम समस्त–भुवन–व्याप्त हो, इस ब्रह्मांण्ड के प्रत्येक अणु–परमाणु में तुम भिने हुए हो, तथापि तीर्थ–यात्रादि विधान से उस व्यापत्व को खंडित किया है।

              कबीर दास जी के दोहे अर्थ सहित


              Kabir Das Ji Ke Dohe - कबीर दास जी के दोहे

              बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय,
              जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
              अर्थ : जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।

              पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
              ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
              अर्थ : बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।

              साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
              सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
              अर्थ : इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।

              तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,
              कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे पांवों के नीचे दब जाता है। यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है।

              धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
              माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।
              अर्थ : मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे तब भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा।

              माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
              कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
              अर्थ : कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या फेरो।

              जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,
              मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।
              अर्थ : सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।

              दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त,
              अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
              अर्थ : यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह दूसरों के दोष देख कर हंसता है, तब उसे अपने दोष याद नहीं आते जिनका न आदि है न अंत।

              जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,
              मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ
              अर्थ : जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।

              बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
              हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।
              अर्थ : यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।

              अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप,
              अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
              अर्थ : न तो अधिक बोलना अच्छा है, न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है। जैसे बहुत अधिक वर्षा भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है।

              निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय,
              बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।
              अर्थ : जो हमारी निंदा करता है, उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है।

              दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
              तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

              अर्थ : इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।

              कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
              ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
              अर्थ : इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !

              हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
              आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

              कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन
              कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन
              अर्थ : कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है। 

              कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।
              बगुला भेद न जानई, हंसा चुनी-चुनी खाई।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु हंस उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है। इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है।

              जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
              जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो गुण की कीमत होती है। पर जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है।

              कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
              ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है। मालूम नहीं, वह घर या परदेश में, कहाँ पर तुझे मार डाले।

              पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
              एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।
              अर्थ : कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबुले, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है।जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।

              हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।
              सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।
              अर्थ : यह नश्वर मानव देह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं। सम्पूर्ण शरीर को इस तरह जलता देख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है।

              जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
              जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।
              अर्थ : इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मुरझा जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।

              झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
              खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है? देख यह सारा संसार मृत्यु के लिए उस भोजन के समान है, जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के लिए रखा है।

              ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
              भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।
              अर्थ : कबीर संसारी जनों के लिए दुखित होते हुए कहते हैं कि इन्हें कोई ऐसा पथप्रदर्शक न मिला जो उपदेश देता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।

              संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत,
              चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।
              अर्थ : सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।

              कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।
              जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।
              अर्थ :कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है, शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है। सच है कि जो जैसा साथ करता है, वह वैसा ही फल पाता है।

              तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
              सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
              अर्थ : शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।

              कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
              सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।

              माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
              आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।
              अर्थ : कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।

              मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
              पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।
              अर्थ : मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो, उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।

              तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
              सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।
              अर्थ: शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है, पर मन को योगी बनाना विरले ही व्यक्तियों का काम है यदि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियां सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।


              कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
              सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।
              अर्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर ले जाते तो किसी को नहीं देखा।

              माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
              आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।
              अर्थ: कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चुके हैं।

              मन हीं मनोरथ छांड़ी दे, तेरा किया न होई।
              पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।
              अर्थ: मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।

              जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।
              सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
              अर्थ: जब मैं अपने अहंकार में डूबा था – तब प्रभु को न देख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अंधकार मिट गया – ज्ञान की ज्योति से अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।
              दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
              तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
              अर्थ: इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है। यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं लगता।

              कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
              ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।
              अर्थ: इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि किसी से दोस्ती नहीं तो दुश्मनी भी न हो !
               
              हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
              आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना
              अर्थ: कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। इसी बात पर दोनों लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

               कबीर दास की फोटो
              “LAAGA CHUNRI MEIN DAAG ..OR MY VEIL GOT STAINED " IS A PHILOSOPHICAL CONCEPT KABIR  
               
               

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