सरदार वल्लभ भाई पटेल और जूनागढ़ का भारत संघ में विलय



काठियावाढ के दक्षिण-पश्चिम में स्थित तथा कराँची से 300 किमी0 दूर जूनागढ़ ऐसी रियासतों के मध्य बसा था जो सभी भारतीय अधिराज्य में सम्मिलित हो चुकी थी और उनकी सीमायें भी जूनागढ़ से मिली थी। जूनागढ़ की सीमा में ही ऐसी रियासतों की सीमाएं फंसी हुई थी जो भारतीय संघ में मिल चुकी थी। उदाहरण स्वरूप जूनागढ़ की रियासतों के भीतर भावनगर, नवागर, गोडल और बड़ौदा की रियासतें थी तथा कुछ स्थानों पर जूनागढ़ होकर ही पहुंचना सम्भव था। रेलवे, पोस्ट तथा टेलीग्राफ सेवायें जो जूनागढ़ में थी, भारतीय संघ द्वारा संचालित होती थी। 1941 की जनगणना के अनुसार रियासत की जनसंख्या 6,70,719 थी, जिसमें 80 प्रतिशत हिन्दू थे। जूनागढ़ के शासक नवाब महावत खां को कुत्ते पालने का इतना शौक था कि निर्धन जनता को भूखा रखकर नवाब कुत्तों के लिए विशेष भोजन तथा गोश्त आयात करते थे। कुत्तों की शादी कराने के लिए सरकारी खजाने का प्रयोग होता था तथा सरकारी अवकाश घोषित किया जाता था। अतः रियासत का बस कार्य उनके दिवान सर शहनवाज भुट्टो पर था जो जिन्ना तथा मुस्लिम लीग के प्रभाव में थे।18 नवाब तथा उनके दीवान द्वारा भारत से चुपचाप भाग जाने के पश्चात् मिले। पत्र व्यवहार से उनकी मानसिकता का पता चलता है। दीवान के अनुसार-‘‘जूनागढ़ काशी (बनारस ) के बाद हिन्दुओं का सबसे प्रसिद्ध स्थान है। सोमनाथ का मन्दिर भी वहाँ हैं जिसे महमूद गजनवी ने लूट लिया था। जिन्ना को लिखे गये अपने पत्र में दीवान ने कहा था-‘‘अकेला जूनागढ़ हिन्दू शासकों तथा ब्रिटिश भारत के कांग्रेसी प्रान्तों से घिरा है। वास्तव में हम समुद्र द्वारा पाकिस्तान से जुड़े है। यद्यपि जूनागढ़ में मुस्लिम संख्या 20 प्रतिशत और गैर मुस्लिम 80 प्रतिशत हैं, काठियावाढ़ के सात लाख मुसलमान जूनागढ़ के कारण जीवित है। मैं समझता हूँ कि कोई भी बलिदान इतना महत्वपूर्ण नहीं होगा जितना की शासक के समान को बचाना तथा इस्लाम और काठियावाढ़ के मुसलमानों की रक्षा करना।’’
जूनागढ़ की विशिष्ट भौगोलिक स्थिति को देखते हुए भारत के राज्य विभाग ने प्रवेश लिखित पूर्ति हेतु भेजा। 13 अगस्त 1947 को सर शहनवाज भुट्टो ने उत्तर दिया कि वह विचाराधीन है। परन्तु 15 अगस्त को गुप्त रूप से जुनागढ़ पाकिस्तान में शामिल करने के लिए आन्तरिक रूप से बाध्य करने लगा। वास्तव में यह नवाब और जिन्ना का एक षड़यंत्र था तथा भारत सरकार को जान-बूझकर अन्धकार में रखा गया। जूनागढ़ के इस निर्णय की काठियावाढ़ की अन्य रियासतों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई नवाब नगर के जाम साहब ने अपने वक्तव्यों में इसकी भर्त्सना की तथा काठियावाढ़ की अखण्डता पर बल दिया। भावनगर, मोरवी, गोंडल, पोरबन्दर तथा वनकानकर के शासकों ने जूनागढ़ के नवाब की आलोचना की परन्तु नवाब का तर्क था-‘‘भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम में एक शासक के लिए विलय सम्बन्धी निर्णय के पूर्व जनता से परामर्श लेने का प्राविधान नहीं है।
नवाब ने भौगोलिक बाध्यता के तर्क का खण्डन किया तथा समुद्र द्वारा पाकिस्तान से सम्पर्क बनाये रखने की चर्चा की। जाम साहब दिल्ली आये और उन्होनें सरदार पटेल तथा राज्य विभाग को जनता की भावनाओं, जूनागढ़ में हिन्दुओं पर अत्याचार तथा हिन्दुओं के वहाँ पलायन से अवगत कराया। जाम साहब का सुझाव था कि यदि शीघ्र कार्यवाही न की गयी तो काठियावाढ़ क्षेत्र में शांति और व्यवस्था बनाये रखना कठिन हो जायेगा।
17 सितम्बर 1947 को केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल ने तय किया कि काठियाबाढ़ में शांति व व्यवस्था बनाये रखने के लिए भारतीय सेनायें जूनागढ़ को चारों ओर से घेर लें पर जूनागढ़ में प्रवेश न करे। इस बीच बम्बई में जूनागढ़ राज्य के लिए एक छः सदस्यीय अस्थाई सरकार गठित हो गई जिसके प्रधानमंत्री सामलदास गाँधी थे। काठियाबाढ़ की अनेक रियासतों ने इस अस्थायी सरकार को मान्यता दे दी। 28 सितम्बर को अस्थायी सरकार ने अपना मोर्चा बम्बई से हटाकर राजकोट में स्थापित कर लिया।


इधर जूनागढ़ में बाबरियाबाढ़ में सेना भेजकर हस्तक्षेप किया तथा 51 ग्रामों के मलगिरासियों को पाकिस्तान में सम्मिलित होने के लिए बाध्य किया। मंगरोल के शेख जो पहले भारतीय संघ में सम्मिलित हो चुके थे उन्हें बाध्य किया गया कि तार द्वारा भारत को सूचित करें कि उन्होनें संघ से समझौता भंग कर दिया है। जूनागढ़ के दीवान ने एक तार भेजकर भारत सरकार को सूचित किया कि बाबरियाबाढ़ तथा मंगरोल जूनागढ़ के अभिन्न भाग हैं और उनका भारत संघ में प्रवेश अवैधानिक था दीवान ने बाबरियाबाढ़ से अपनी सेनाओं केा वापस बुलाने से इन्कार कर दिया।
सरदार पटेल ने जूनागढ़ तथा बाबरियाबाढ़ में सेना भेजने तथा उसे वापस न करने की कार्यवाही को आक्रामक की संज्ञा दी तथा उसके विरूद्ध शक्ति के प्रयोग करने का परामर्श दिया। 27 सितम्बर 1947 को एक बैठक में सरदार पटेल ने अपने उपरोक्त मत पर विशेष बल दिया। इस बैठक में माउण्टबैटन, नेहरू, मोहनलाल सक्सेना व एन0 गोपालास्वामी आयंगर उपस्थित थे। संयुक्त राष्ट्र संघ में विचारार्थ भेजा जाये।
जूनागढ़ में स्थिति तेजी से बिगड़ रही थी। हजारों की संख्या में हिन्दू भाग रहे थे। मन्त्रिमण्डल के निर्णयानुसार भारत सरकार ने अपनी सेनायें कमाण्डर गुरदयालसिंह के नेतृत्व में जूनागढ़ के समीप भेज दी। संचार व्यवस्था को विच्छेद कर दिया गया तथा आर्थिक नाकेबन्दी कर दी गयी, 25 अक्टूबर 1947 तक अस्थायी सरकार की सेना की चार टुकड़ियों ने अमरपुर गाँव पर अधिकार कर लिए । दूसरे दिन अमरपुर के समीप के 23 गाँवों पर अस्थाई सरकार का अधिकार हो गया। स्थिति को नियन्त्रण से बाहर देखते हुए नवाब अपने परिवार, कुत्तों तथा पारिवारिक गहने आदि लेकर अपने व्यक्तिगत हवाई जहाज से कराची भाग गये।
13 नवम्बर, 1947 को सरदार जूनागढ़ गये जहाँ उनका भव्य स्वागत किया गया। अपने भाषण में सरदार पटेल ने उन परिस्थितियों की चर्चा की जिनके कारण भारत सरकार को जूनागढ़ में सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी। काठियाबाढ़ के हिन्दुओं और मुसलमानों को परामर्श देते हुए उन्होनें स्पष्ट कहा कि जो लोग अब भी दो राष्ट्र के सिद्धान्तों को मानते हैं और वाह्य शक्ति की ओर सहायता के लिए देखते है, उनके लिए काठियाबाढ़ में कोई स्थान नहीं है। ‘‘जो लोग भारत के प्रति निष्ठा नहीं रखते या पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति रखते हैं उन्हें नवाब का रास्ता अपनाना चाहिए। उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। जो अनुभव करते है कि भारत की अपेक्षा वे पाकिस्तान के अधिक निकट हैं। सरदार ने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि वह भारत के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करें।
प्रारम्भ में सरदार पटेल जूनागढ़ में जनमत संग्रह के पक्ष में न थे परन्तु वी0 पी0 मेनन से विचार-विमर्ष के उपरान्त सहमत हो गये। 20 फरवरी 1948 को जूनागढ़ में जनमत संग्रह हुआ, जिसमे भारत के पक्ष में 1,19,719 मत तथा पाकिस्तान के पक्ष में 91 मत पड़े। इसी प्रकार मंगरोल, मानवदार, भातवा बड़ा व छोटा सरदार गढ़ तथा बाबरियाबाढ़ में जनमत संग्रह से भारत के पक्ष में 31,395 तथा पाकिस्तान के पक्ष में केवल 29 मत पड़े । 24 फरवरी 1949 को यह रियासते सौराष्ट्र संघ के अधीन हो गयी।


Share:

भारत के सभी 29 राज्यों के स्थापना वर्ष की सूची



All Indian States Foundation Day & Year
All Indian States Foundation Day & Year 
 
भारतीय राज्य का नाम -- स्थापना वर्ष
  1. अरुणाचल प्रदेश -- 20 फरवरी, 1987
  2. असम -- 26 जनवरी 1950
  3. आंध्र प्रदेश -- 01 नवंबर 1956
  4. उड़ीसा -- 01 अप्रैल 1936
  5. उत्तर प्रदेश -- 26 जनवरी 1950
  6. उत्तराखंड -- 09 नवंबर 2000
  7. कर्नाटक -- 01 नवंबर 1956
  8. केरल -- 1 नवंबर 1956
  9. गुजरात -- 1 मई 1960
  10. गोवा -- 30 मई 1987
  11. छत्तीसगढ़ -- 01 नवंबर 2000
  12. जम्मू और कश्मीर -- 26 जनवरी 1950
  13. झारखंड -- 15 नवंबर 2000
  14. तमिलनाडु -- 26 जनवरी 1950
  15. तेलंगाना -- 02 जून 2014
  16. त्रिपुरा -- 21 जनवरी 1972
  17. नागालैंड -- 01 दिसंबर 1963
  18. पंजाब -- 01 नवंबर 1966
  19. पश्चिम बंगाल -- 01 नवंबर 1956
  20. बिहार -- 01 अप्रैल 1912
  21. मणिपुर -- 21 जनवरी 1972
  22. मध्यप्रदेश -- 01 नवंबर 1956
  23. महाराष्ट्र -- 1 मई 1960
  24. मिजोरम -- 20 फ़रवरी 1987
  25. मेघालय -- 21 जनवरी 1972
  26. राजस्थान -- 01 नवंबर 1956
  27. सिक्किम -- 16 मई 1975
  28. हरियाणा -- 01 नवंबर 1966
  29. हिमाचल प्रदेश -- 25 जनवरी 1971


Share:

सादगी की प्रतिमा भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री



लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को मुगलसराय उत्तरप्रदेश में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद एक गरीब शिक्षक थे, जो बाद में राजस्व कार्यालय में लिपिक (क्लर्क) बने। अपने पिता और अपनी माता श्रीमती रामदुलारी देवी के तीन पुत्रों में से वे दूसरे थे। शास्त्री जी की दो बहनें भी थीं। बचपन में ही उनके पिता का निधन हो गया। 1928 में उनका विवाह श्री गणेश प्रसाद की पुत्री ललिता देवी से हुआ और उनके छह संतान हुई। स्नातक की शिक्षा समाप्त करने पश्चात् वे भारत सेवक संघ से जुड़ गए और देश सेवा का व्रत लेते हुए यहां से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् शास्त्री जी को उत्तरप्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। वे गोविन्द वल्लभ पंत के मुख्यमंत्री के कार्यकाल में प्रहरी एवं यातायात मंत्री बने। यातायात मंत्री रहते उन्होंने प्रथम बार किसी महिला को बस संवाहक (कंडक्टर) के पद पर नियुक्त किया। प्रहरी विभाग के मंत्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियंत्रण में रखने के लिए लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग आरम्भ कराया । 1951 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त हुए। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जितवाने के लिए बहुत परिश्रम किया।
Lal Bahadur Shastri Family Photo - 1964
जवाहरलाल नेहरू का प्रधानमंत्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद शास्त्री जी ने 9 जून, 1964 को प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया। बचपन में ही पिता का सिर से साया उठ जाने के उपरांत मां ने कदम-कदम पर आर्थक संघर्षों से जूझ-जूझ कर अपने बेटे लाल बहादुर का लालन-पालन किया था। हाई स्कूल में अध्ययन करते समय लाल बहादुर पण्डित निष्कामेश्वर मिश्र एवं रामनारायण मिश्र नामक दो अध्यापकों के निकट समपर्क में आए। इन अध्यापकों से लाल बहादुर ने आत्मविश्वास की शिक्षा अर्जित करते हुए हर मुसीबत में धैर्य से मुकाबला करते हुए आगे बढ़ने का संकल्प लिया।
आत्म्विश्वास के धनी लालबहादुर शास्त्री को अंग्रेजों के अत्याचारों व गांधीजी के अहिंसा के बजे बिगुल से अन्र्तआत्मा को झकझोर दिया और वे गांधीजी द्वारा चलाए गए आंदोलन में सक्रिय हो गए। आजादी के आंदोलन में भाग लेने से भला रोटी तो मिलती नहीं थी, सो उन्होंने आंदोलन में भाग लेने के साथ-साथ आर्थिक संकटों का मुकाबला करने के लिए अपने एक मित्र की खादी के कपड़े व वस्त्रों की दुकान पर काम करना शुरू कर दिया। नौकरी के साथ शास्त्री ने शिवप्रसाद गुप्त द्वारा चलाए गए काशी विद्यापीठ में पढ़ाई भी की। यहां से वे परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रयाग आए और वहां वे नेहरू परिवार के सम्पर्क में आए और पूरी तरह राजनैतिक और सामाजिक कार्यों में जुट गए। कुछ ही समय उपरान्त शास्त्री जी प्रयाग नगरपालिका के सदस्य निर्वाचित हुए। जिससे उनके जनसेवा के कार्यों का विस्तार होने लगा। वे इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट के सदस्य बने। इस ट्रस्ट के अध्यक्ष पण्डित जवाहरलाल नेहरू थे। वर्ष 1930 से 1935 तक वे का कांग्रेस कमेटी इलाहाबाद के मंत्री तथा बाद में अध्यक्ष बने। वर्ष 1937 में उत्तरप्रदेश प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के मंत्री चुने गए और जनप्रिय हो गए। वर्ष 1941 और फिर 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान विदेशी हुकूमत ने शास्त्री को गिरफ्तार कर लिया। ऐसे समय में उनके घर की आर्थिक स्थिति बहुत बिगड़ गई लेकिन बड़ी सूझबूझ व धैर्य के साथ उन्होंने संकट का मुकाबला किया। वर्ष 1946 में शास्त्री उत्तरप्रदेश निर्वाचित समिति के सदस्य चुन लिए गए।
भारत देश की आजादी के बाद वे सन् 1951-52 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य बने, उन्हीं दिनों केन्द्र में मंत्रीमंडल बनाया गया और शास्त्री को केन्द्रीय रेल व परिवहन मंत्री बनाया गया। उन्होंने मंत्रित्व पद पर रहते हुए रेल सेवाओं में अनेकानेक सुधार किए, किन्तु आलियालर (दक्षिण भारत) में रेल दुर्घटना में जब सैकड़ों लोगों की मृत्यु हो गई तो शास्त्री इस सदमे को बर्दाश्त न कर सके वपद से इस्तीफा दे दिया। वर्ष 1956-57 मेंइलाहाबाद से लोकसभा चुनावों में भारी मतों से निर्वाचित हुए और उन्हें केन्द्रीय मंत्रिमंडल में संचार परिवहन मंत्री बना दिया गया। कुछ ही समय उपरान्त उन्हें वाणिज्य मंत्री का पद सौंपा गया। मई,1964 में जवाहरलाल नेहरू के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया। वर्ष 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया था उस समझौते के दौरान वे फरवरी, 1966 में ताशकंद समझौते में गए तो उनका वहीं निधन हो गया था। वर्ष 1966 की 11 फरवरी को शास्त्री जी के निधन की खबर सुनते ही पूरे भारत में शोक छा गया। उनके पार्थिव शरीर को भारत लाया गया और दिल्ली के विजयघाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया। आज वे हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी यादें हमेशा -हमेशा हर भारतवासी के मन में प्रेरणादायक के रूप में ताजी है।


Share:

अमृत फल आम के औषधीय प्रयोग



आम फलों का राजा है। कहते हैं यह इस भूतल पर अमरपुरी अर्थात स्वर्ग से आया है, इसी से इसका नाम अमृत फल हुआ, दूसरा देवफल तथा तीसरा सर्वप्रिय फल है क्योंकि इस फल को बच्चे, युवा, वृद्ध सभी यहाँ तक कि पक्षी भी बड़े चाव से खाते हैं और पसंद करते हैं, अतः इस फल के एक किस्म का नाम दिल पसंद है। आम स्वाद में ही नहीं, गुणों में भी राजा है। हिन्दी में आम को आम, नृपप्रिय, सर्वप्रिय, फलश्रेष्ठ, पिकवल्लभ आदि कहते हैं। संस्कृत में आम को आम्र, मराठी में आम को आम्बा, गुजराती में अंबो व कैरिनुझाड़, बंगला में आम्र, तमिल में मांगई, मलयालम में मआंग, सिंधी में अंब, कश्मीरी में अम्ब आदि कहते हैं।
 
भारत विश्व का सबसे ज्यादा आम का उत्पादन देश है। पूरे विश्व में आम का जितना भी उत्पादन होता है उसमें से 63% उत्पादन भारत में होता है। आम की हजारों किस्में पाई जाती हैं जैसे तोता, लंगड़ा, सफेदा, दशहरी, चौसा आदि। पके हुए आम में रासायनिक तत्व काफी अधिक मात्रा में होते हैं। आम का फल पौष्टिक और शक्तिदायक होता है। आम एक रुचिकर फल है। बच्चे, बुडे और जवान सभी आम खाना पसंद करते हैं। आम का फल बहुत ही स्वादिष्ट और मीठा होता है। गर्मी के मौसम में आम और दूध का शेक बनाकर पीते हैं। आम का फल हमारे शरीर के कई बिमारियों में लाभदायक है जैसे छय रोग आखों के रोग, पेट के रोग, उच्च रक्तचाप, पीलिया, कब्ज, अनीमिया बवासीर आदि।
अनेक औषधीय गुणों व उपयोगिता के अलावा इसका उपयोग अचार, चटनी, मुरब्बा, आम पापड़, जैली, शर्बत आदि बनाने में किया जाता है॰ वास्तव में यह स्वाद में सर्वश्रेष्ठ गुणों का भंडार है। भारत से इसका निर्यात किया जाता है। पका हुआ आम मीठा, चिकना, शक्ति बढ़ाने वाला, सुख व तृप्ति देने वाला, वायु का नाश करने वाला, कांति बढ़ाने वाला, ठंडा और खून को बढ़ाने वाला है। आयुर्वेद की दृष्टि में आम त्रिदोष नाशक है। आम रक्तवर्द्धक है, रक्ताल्पता को दूर करता है, आम से आँतों को बल मिलता है, पाचन शक्ति बढ़ती है, कब्ज दूर होती है और भूख बढ़ती है, यह वात, पित्त नाशक है। हमारे यहाँ इसे एक पवित्र वृक्ष माना जाता है तथा धार्मिक अनुष्ठानों में इसके पत्तों और शुष्क टहनियों का उपयोग होता है। मांगलिक अवसरों पर आम के पत्तों के तोरण घरों-मंडपों एवं मंदिरों पर बाँधे जाते हैं और नवरात्रि में कलश स्थापना के समय आम पल्लवों का उपयोग अनिवार्य माना जाता है।
आम का गूदा विटामिन ए तथा सी का अच्छा स्रोत है। इसके गूदे तथा गुठली दोनों में ही प्रोटीन, वसा और कार्बोहाइड्रेट प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। वैज्ञानिक शोध के अनुसार आम के लगभग 100 ग्राम गूदे से 74 कैलोरी ऊर्जा प्राप्त होती है।
Health benefits of mango for women pregnant, during pregnancy and lose weight (Diet)
100 पके आम में 0.6 प्रतिशत प्रोटीन, 0.1 प्रतिशत वसा, 0.02 प्रतिशत फास्फोरस, 11.20 से 16.80 कार्बोहाड्रेट, 8.3 मिग्रा. लोहा, 8.3 मिग्रा निकोटिनिक एसिड, .18 से .56 प्रतिशत तक फौलिक एसिड, 480 अंतर्राष्ट्रीय इकाई कैरोटिन एवं 85.1 प्रतिशत पानी पाया जाता है।

आम में जो विटामिन सी पाया जाता है वह सेब में पाए जाने वाले विटामिन सी का 6 गुना होता है। एक विख्यात पाश्चात्य विद्वान ने आम का उल्लेख करते हुए लिखा है- आम पूरा भोजन है, विश्व का कोई भी फल आम की तुलना में ठहर नहीं सकता। अमेरिका के डॉ. विल्सन के अनुसार आम में मक्खन से सौ गुना अधिक पोषक तत्व विद्यमान है। उन्होंने परीक्षण कर यह सिद्ध किया है कि आम के उचित प्रयोग से शरीर के स्नायविक संस्थान को शक्ति मिलती है, शुद्ध रक्त बहुतायत से उत्पन्न होता है तथा शोर्य वीर्य की वृद्धि होती है। चरक ने हृदय रोगों के लिए 10 औषधियाँ निर्धारित की हैं, उनमें एक आम भी है। आम के सेवन से श्रुकाल्पताजन्य, नपुंसकत्व तथा मस्तिष्क, दौर्बल्य आदि के लक्षण शीघ्र दूर होते हैं। भाव प्रकाश ने लिखा है कि आम से नया खून अधिक मात्रा में बनता है और तपेदिक के रोगियों के लिए यह रामबाण औषधि है।

आम के औषधीय उपयोग 
  • आम खाकर उपर से दूध पीना शक्तिवर्द्धक, स्फूर्तिदायक तो है ही साथ ही अनिद्रा ग्रस्त रोगियों के लिए भी यह रामबाण है।
  • आम के रस में शहद मिलाकर कुछ दिनों तक पीने से बढ़ी तिल्ली ठीक हो जाती है।
  • आम और जामुन का रस मिलाकर पीने से मधुमेह में लाभ होता है।
  • आम में विटामिन ए भरपूर मात्रा में होता है, अतः आम नेत्र ज्योति के लिए बहुत लाभकारी है। रतौंधी के लिए चूसने वाला आम विशेष उपयोगी रहता है।
  • पाचन संस्थान को सुदृढ़ करने के लिए मीठे आम के रस में थोड़ा सा नमक डालकर कुछ दिनों तक सेवन करें।
  • क्षय रोगियों को चाहिए कि आम के मौसम में आम के एक कप रस में दो चम्मच शहद मिलाकर सेवन करें।
 सावधानियां 
  • पके फल खाएं, बासी व कटे फल काम में न लें। आमों को एक घंटे पानी में भीगने दें। अधिक मात्रा में आम नहीं खाएँ मोटे।
  • मधुमेह से ग्रस्त व पाइल्स रोगियों को सीमित मात्रा में सेवन करना चाहिए।
आम की पत्तियों का उपयोग
  • हल्के हरे रंग के छोटे आकार के आम के पत्तों को तो़ड़ लें, उन्हें अच्छे से धोएं और छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर चबाइये।
  • आम के कुछ पत्तों को तोड़िये और रात भर के लिये बर्तन में भिगो दें। सुबह इसका सेवन करें। ध्यान रखें इसका सेवन खाली पेट ही करें।
  • पत्तियों को धो कर धूप में सुखाएं और पावडर बना लें। इस पावडर की एक चम्मच लें और एक गिलास पानी में मिलाकर पी लें। रोज सुबह एक चम्मच सेवन करने से ब्लड शुगर लेवल कंट्रोल में रहता है।
  • आम के फल के साथ-साथ पत्तों में भी विटामिन ए होता है, जो आंखों के लिये बेहद फायदेमंद होता है।
    आम के पत्ते भी आंखों को खराब होने से बचा सकते हैं, साथ ही ब्लड शुगर लेवल को नियंत्रण में रखने में भी मदद करते हैं।


Share:

महर्षि वाल्मीकि का व्यक्तित्व एवं कृत्तव



संस्कृत साहित्य के प्रथम महाकवि वाल्मीकि हैं, इसलिए उन्हें आदिकवि भी कहते हैं। महर्षि च्यवन की परम्परा में वाल्मीकि ऋषि थे। उनका स्थान तत्कालीन महर्षियों में सर्वोच्च था। वाल्मीकि की लोक-कल्याण भावना अपरिमित थी। इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने लोक-पथ प्रषस्त बनाने के उद्देष्य से रामायण की रचना की थी। विचारणा की जिस उदात्त पृष्ठभूमि पर राम-कथा प्रतिष्ठित की गई है, उसका उद्भव आदिकवि के हृदय से हुआ। उनके व्यक्तित्व का विकास वैदिक ऋषियों के समान हुआ था। समग्र भारत के वनों, पवन, पर्वतोपनद, सभ्यता और संस्कृति का प्रत्यक्ष ज्ञान उन्हें था। रामायण के अनुसार वाल्मीकि की वाणी कभी असत्य नहीं हो सकती थी। महर्षि भावितात्मा थे, उनकी बुद्धि उदार थी।

महर्षि वाल्मीकि के द्विज होने, उनके आरम्भिक जीवन से ही सद्कार्य में निरत होने विषयक तथ्यों को लेकर इतना विविधतापूर्ण साहित्य उपलब्ध होता है कि मतामत का निर्धारण कर पाना प्रायः असम्भव-सा जान पड़ता है। कोई इन्हें भृगु वंशीय, कोई प्राचेतस, कोई शूद्रा का पति, कोई साहसिक आदि निकृष्ट कर्म करने वाला सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। अतः यदि महर्षि वाल्मीकि के काल-निर्धारण से पूर्व (के साथ) ही इन अनेकतः मूलक मगर विरोधी बातों का दिग्दर्षन कर लिया जाए तो अप्रासंगिक अथवा अनुचित न होगा। इस पुराण तथा मध्यकालीन आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के साहित्य में प्रचलित रामाख्यान या रामायणों के कारण हैं।
महर्षि वाल्मीकि के दस्यु जीवन का सर्वप्रथम उल्लेख स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड आवन्त्य खण्ड, प्रभासखण्ड तथा नागर खण्ड में हैं। वहां उनके जीवन की कुछ कथाओं में इन्हें आरम्भिक जीवन में दस्यु दिखलाया गया है दूसरी ओर, राम-नाम के प्रभाव से इन्हें एक ऋषि के रूप में रामायण का कर्ता दर्शाया गया है। वैष्णव खण्ड के अतिरिक्त अन्य खण्डों में महर्षि वाल्मीकि को ब्राह्मण -पुत्र कहा गया है, परन्तु वैष्णव खण्ड में इनकी उत्पति एक शैलूषी से दिखाई गई है।
महर्षि कष्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे। वरुण का नाम प्रचेत भी है। महर्षि वाल्मीकि के सम्बन्ध में भ्रान्ति फैलाने का श्रेय मुख्यतः तथा कथित रामायणों को है जिनका निर्माण शिव-पूजा की प्रतिद्वन्द्वता में रामोपसना को उसके ऊपर प्रतिष्ठित करना था। इन रामायणों के लेखकों ने प्रायः यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि राम, राम-नाम पतितातिपतित का भी उद्धार कर सकता है और इसके उद्धरण के रूप में महर्षि वाल्मीकि को प्रस्तुत करना उन्हें सरल लगा क्योंकि एक तो वे राम-कथा के प्रणेता थे, दूसरे ऋषि के रूप में वैदिक और औपनिषदिक साहित्य में उनका उल्लेख न मिलने के कारण उनके उक्त कथन को खण्डित करने के लिये अवकाश भी न था।
पुराणों की तालिका के अनुसार महाभारत युद्ध से उन्हें करीब तीन सौ वर्ष पूर्व होना चाहिये। महाभारत का समय सम्भवतः जैसा कि आगे प्रतिपादित किया गया है, 1450 ई. पू. के आसपास है। इस गणना के अनुसार रामायण का समय 1750 ई. पू. के लगभग होना चाहिये। डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी के अनुसार महाभारत कालीन कुरूक्षेत्र का समय सामान्यतः 1485 या 1425 वर्ष ई. पू. स्थिर होता है। इस प्रकार महर्षि वाल्मीकि के विषय में वाह्य विचार प्रस्तुत करते हैं और उनका व्यक्तित्व अस्पष्ट ही रह जाता है। यह विचारणीय है।
आदिकवि वाल्मीकि के जीवन-चरित्र व उनके व्यक्तित्व के विषय में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, जिनकी सत्यता प्रमाणित नहीं है, विष्णुपुराण के अनुसार वाल्मीकि भृगुवंषी ऋषि थे तथा वे वैवस्वत मन्वन्तर में होने वाले 24वें व्यास थे। एक अन्य प्रमाण के अनुसार चैबीसवें व्यास वाल्मीकि का मूल नाम ‘ऋक्ष’ था, वे वैदिक ऋषि थे, जिन्होंने महाभारत काल से लगभग 2000 वर्ष पूर्व आदिकाव्य रामायण की रचना की। लोक में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार वाल्मीकि प्रारम्भिक जीवन में ‘लुटेरे’ या ‘डाकू’ थे। अध्यात्म रामायण के अनुसार वाल्मीकि का नाम ‘रत्नाकर’ था। वे यात्रियों को लूटा करते थे। सप्तर्शियों या नारद मुनि के उपदेश से उन्होंने दस्युवृत्ति का परित्याग किया। कुछ लोग मानते हैं कि वे जाति से चाण्डाल थे। इसी आधार पर ‘हरिजन’ वाल्मीकि को अपना पूर्वज मानते हैं। परन्तु ये बातें निराधार प्रतीत होती हैं। इतिहास पुराण के अनुसार वाल्मीकि प्रचेता (वरुण) के वंष में उत्पन्न हुए थे और च्यवन भार्गव के पुत्र थे। प्रसिद्ध बौद्धकवि अश्वघोष ने लिखा है कि जिस पद्य का निर्माण च्यवन ऋषि न कर सके उसका निर्माण उनके पुत्र ने किया -
वाल्मीकिरादौ च ससर्ज पद्यं।
जग्रन्थ यन्न च्यवनो महर्शिः।।
महाभारत वनपर्व में उल्लेख है कि च्यवन तप करते हुए ‘वल्मीकि’ हो गया - ‘स वल्मीकोऽभवदृशिः’ च्वयन वाल्मीकि का पुत्र वाल्मीकि कहलाया। मूलनाम उसका ‘ऋक्ष’ था। महाभारत में ‘रामायण’ और वाल्मीकि का स्पष्टत: अनेकबार उल्लेख हुआ है। रामायण का एक श्लोक भी द्रोणपर्व में उद्धृत है- -‘अपि चायं पुरा गीतः ष्लोको वाल्मीकिना भुवि’। कहा जाता है कि वाल्मीकि को सप्तऋषियों ने धार्मिक जीवन की दीक्षा दी थी। उन्होंने बहुत समय तक निरन्तर समाधि लगाई। जब वे अपनी समाधि से उठे तो उनके चारों ओर दीमकों ने ‘बमी’(बाँबी) बना ली थी और वे उससे बाहर निकले थे। वे अयोध्या के समीप ही गंगा नदी के किनारे रहते थे। राम अपने वनवास के समय सर्वप्रथम उनके ही आश्रम पर पहुचे थे। (द्रष्टव्य रामायण, अयोध्याकांड, सर्ग 56), उन्हें राम के जीवन की विशेष घटनाओं का ज्ञान था। वे उनके उदात्त गुणों से बहुत प्रभावित थे। एक दिन वे अपने आश्रम पर आए हुए नारद ऋषि से मिले और उनसे आदर्श पुरुष का जीवनचरित पूछा। उत्तर में नारद ने राम के जीवन का वर्णन किया। यह ज्ञात होता है कि वाल्मीकि राम के जीवन के विषय में प्रामाणिक और निश्चित विवरण ज्ञात करना चाहते थे। नारद से मिलने के बाद उनका ध्यान राम की ओर ही केन्द्रित हो गया और वे इसी अवस्था में अपने आश्रम के समीप बहने वाली तमसा नदी के तट पर गए। मार्ग में उन्होंने देखा कि एक व्याध ने क्रौंच पक्षी को मार दिया है। क्रौंची अपने पति एवं प्रिय के वियोग में बहुत दुखित होकर रो रही थी। यह देखकर वाल्मीकि ऋषि का हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने व्याध को शाप दिया कि वह बहुत काल तक दुःखित रहे। उनका यह करुणाजन्य शाप पद्य रूप में परिणत होकर प्रकट हुआ, जो कि निम्न रूप में है -
मा निशाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौ‍‌ञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्।।

वे पूजा करके अपने आश्रम को लौटे। तत्पश्चात् ब्रह्मा उनके सामने आए। उन्होंने आशीर्वाद और आदेश भी दिया कि वे राम को शक्ति प्रदान की कि वह राम के वर्तमान भूत और भविष्यत् जीवन को साक्षात् देख सकेंगे। ब्रह्मा के जाने के पश्चात् वाल्मीकि ने काव्य की रचना प्रारम्भ की, जिसको आगे चलकर ‘रामायण’ के नाम से पुकारा गया।
कुछ लोग महर्षि वाल्मीकि को निम्न जाति का बतलाते हैं। पर ‘वाल्मीकि रामायण’ तथा अध्यात्मरामायण में इन्होंने स्वयं अपने को प्रचेता का पुत्र कहा है। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य कवि आदि का भाई लिखा है। स्कन्दपुराण के वैशाखमहात्म्य में इन्हें जन्मान्तर का व्याध बतलाया है। इससे सिद्ध है कि जन्मान्तर में ये व्याध थे। व्याध जन्म के पहले भी ‘स्तम्भ’ नाम के श्रीवत्सगोत्रीय ब्राह्मण थे। व्याध जन्म में ‘शङ्ख’ ऋषि के सत्सङ्ग से राम नामके जप से ये दूसरे जन्म में ‘अग्नि शर्मा’ (मतान्तर से रत्नाकर) हुए, वहाँ भी व्याधों के सङ्ग से कुछ दिन प्राक्तन संस्कारवश व्याधकर्म में लगे फिर सप्तऋषियों के सत्सङ्ग से ‘मरा-मरा’ जप कर - बाँबी पड़ने से वाल्मीकि नाम से ख्यात हुए और बाल्मीकि-रामायण की रचना की।
इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि भले ही वाल्मीकि का स्थितिकाल तथा उनकी कृति का रचनाकाल विवादास्पद हो और अभी तक सही-सही ढंग से आँका भी न गया हो। किन्तु उनकी रचना ‘रामायणम्’ का संस्कृत काव्य जगत् में सर्वोच्च स्थान है। यह वह रचना है जिसने अनेकानेक षैलियों में रामचरित लिखने की प्रेरणा परवर्ती कवियों को दी। इससे प्रेरणा प्राप्तकर अनेक कवियों ने संस्कृत साहित्य जगत में सफल कविकर्म प्रस्तुत किए हैं।


Share:

भारतीय दंड संहिता की धारा 188 (Section 188 of the Indian Penal Code)




भारतीय दंड संहिता अथवा इंडियन पैनल कोड (आईपीसी )धारा 188 के अंतर्गत लोक सेवक द्वारा सम्यक् रूप से प्रख्यापित आदेश की अवज्ञा - जो कोई यह जानते हुए कि वह ऐसे लोक सेवक द्वारा प्रख्यापित किसी आदेश से, जो ऐसे आदेश को प्रख्यापित करने के लिए विधिपूर्ण सशक्त है, कोई कार्य करने से विरत रहने के लिए या अपने कब्जे में की, या अपने प्रबन्धाधीन, किसी सम्पत्ति के बारे में कोई विशेष व्यवस्था करने के लिए निर्दिष्ट किया गया है, ऐसे निदेश की अवज्ञा करेगा, यदि ऐसी अवज्ञा विधिपूर्वक नियोजित किन्हीं व्यक्तियों को बाधा, क्षोभ या क्षति अथवा बाधा, क्षोभ या क्षति की जोखिम, कारित करे या कारित करने की प्रवृति रखती हो, तो वह सादा कारावास से, जिसकी अवधि एक मास तक की हो सकेगी, या जुर्माने से, जो दो सौ रूपये तक का हो सकेगा, या दोनो से दण्डित किया जाएगा; और यदि ऐसी अवज्ञा मानव-जीवन, स्वास्थ्य, या क्षेम को संकट कारित करे, कारित करने की प्रवृत्ति रखती हो, या बल्वा या दंगा कारित करती हो, या कारित करने की प्रवृत्ति रखती हो, तो वह दोनों में से किसी भाँति के कारावास से, जिसकी अवधि छः मास तक की हो सकेगी या जुर्माने से, जो एक हजार रूपये तक का हो सकेगा, या दोनों से, दण्डित किया जाएगा।
स्पष्टीकरण - यह आवश्यक नहीं है कि अपराध का आशय अपहानि उत्पन्न करने का हो या उसके ध्यान में यह हो कि अवज्ञा करने से अपहानि होना सम्भाव्य है। यह पर्याप्त है कि जिस आदेश की वह अवज्ञा करता है, उस आदेश का उसे ज्ञान है और यह भी ज्ञान है कि उसके अवज्ञा करने से अपहानि उत्पन्न होनी सम्भाव्य है।
  1. धारा 188  किसी लोक सेवक द्वारा वैध रूप से प्रख्यापित (जारी) किसी आदेश की अवज्ञा करने वाले कार्य  को  दण्डनीय  अपराध  उद्घोषित  करती  है।  धारा  188 अन्तर्गत  उपबन्धित  अपराध  के  लिए निम्नलिखित बातों का होना अपेक्षित है -
    • लोक सेवक का वह आदेश वैध हो,
    • लोक सेवक द्वारा वह आदेश वैध रूप से जारी किया गया हो,
    • लोक सेवक उस आदेश को जारी करने के लिए सक्षम हो,
    • अभियुक्त को आदेश के बारे में जानकारी हो,
    • अभियुक्त व्यक्ति ने उक्त आदेश की अवज्ञा की हो,
    • ऐसी अवज्ञा किसी विधिपूर्ण नियोजित व्यक्ति के लिए बाधा, क्लेश या हानि पैदा करती थी अथवा पैदा करने की प्रवृति रखती थी तथा मानव जीवन के स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए संकट पैदा करती थी।
  2. केवल आदेशों में धारा की प्रयोज्यता - भारतीय दण्ड संहिता की धारा 188 केवल ऐसे आदेशों के उल्लंघन के प्रति लागू होती है जो सार्वजनिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए जारी किए जाते हैं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति की अस्थायी आदेश या उल्लंघन कर ता है तो वह इस धारा के अन्तर्गत दण्डित नहीं किया जा सकता है।
  3. आदेश का गलत होना - जहाँ पर किसी व्यक्ति को संहिता की धारा 188 के अन्तर्गत अभियोजित किया जाता है वहाँ पर वह अपने पक्ष में यह बचाव प्रस्तुत कर सकता है कि लोक सेवक द्वारा जारी किया गया आदेश गुणदोष के आधार पर त्रुटिपूर्ण था।
  4. लोक सेवक के आदेश की अवज्ञा - एक मामले में यह निर्णित किया गया कि दण्ड संहिता की धारा 188 को लागू होने के लिए यह आवश्यक है कि अभियुक्त को उस देश की जानकारी अवश्य हो जिसकी उसने अवज्ञा की है।
    जहाँ पर कोई व्यक्ति दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 145 के अधीन कुर्क की गई अपनी फसल को इस कुर्की के आदेश को जानते हुए भी काट लेता है वहां पर वह दण्ड संहिता की धारा 188 के अधीन दोषी होगा।
    एक मामले में यह निर्णित किया गया है कि किसी विधि विरूद्ध जमाव को तितर-बितर होने के लिए दिये गए आदेश की अवज्ञा दण्ड संहिता की धारा 188 के अधीन दण्डनीय है।
  5. धारा का लागू होना - एक मामले में यह निर्णित किया गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 155 के अधीन कर्फ्यू आदेश की अवज्ञा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 188 के अधीन दण्डनीय अपराध है। राज्य बनाम जयंती लाल, 1975 कि.ल.ज. 661 गुज.। दण्ड संहिता की धारा 188 लोक सेवकों द्वारा सार्वजनिक उद्देश्य के लिए जारी किए गए आदेशों के प्रति लागू होती है।
    दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 155 के अन्तर्गत कर्फयू आर्डर की अवहेलना एक गौण अपराध होनेके कारण दंड संहिता की धारा 188 के अधीन दंडनीय है, अतः दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के अन्तर्गत जारी किया गया निषेधात्मक आदेश की अवहेलना के लिए देखते ही गोली मार देने का कार्यपालिका निदेश दंड संहिता की धारा 188 एवं संविध्ाान के अनुच्छेद 20 (1) एंव 21 के शक्ति वाहय्होगा।
 कलम 188: IPC Section 188 in Marathi
भारतीय विधि से संबधित महत्वपूर्ण लेख


Share:

बाजीराव पेशवा विश्व इतिहास का एक मात्र अपराजित योद्धा



बाजीराव पेशवा विश्व इतिहास का एक मात्र अपराजित योद्धा 
Bajirao Mastani Story In Hindi

मराठा साम्राज्य के प्रधानमंत्रियों को पेशवा कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद अष्टप्रधान के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था।

पेशवा बाजीराव (1721-1761) मराठा साम्राज्य के शासक थे। बाजीराव, शिवाजी महाराज के पौत्र शाहूजी महाराज के पेशवा (प्रधान) थे। इनके पिता श्री बालाजी विश्वनाथ पेशवा भी शाहूजी महाराज के पेशवा थे। बचपन से बाजीराव को घुड़सवारी करना, तीरंदाजी, तलवार भाला, बनेठी, लाठी आदि चलाने का शौक था। 13-14 वर्ष की खेलने की आयु में बाजीराव अपने पिताजी के साथ घूमते थे। उनके साथ घूमते हुए वह दरबारी चालों व रीतिरिवाजों को आत्मसात करते रहते थे। यह क्रम 19-20 वर्ष की आयु तक चलता रहा। जब बाजीराव के पिताश्री का अचानक निधन हो गया तब मात्र बीस वर्ष की आयु के बाजीराव को शाहूजी महाराज ने पेशवा बना दिया। पेशवा बनने के बाद अगले बीस वर्षों तक बाजीराव मराठा साम्राज्य को बढ़ाते रहे। इसके लिए उन्हें अपने अपराजित योद्धा- बाजीराव पेशवा दुश्मनों से लगातार लड़ाईयाँ करना पड़ी। अपनी वीरता, अपनी नेतृत्व क्षमता व कौशल युद्ध योजना द्वारा यह वीर हर लड़ाई को जीतता गया। विश्व इतिहास में बाजीराव पेशवा ऐसा अकेला योद्धा माना जाता है जो कभी नहीं हारा। छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह वह बहुत कुशल घुड़सवार था। घोड़े पर बैठे-बैठे भाला चलाना, बनेठी घुमाना, बंदूक चलाना उनके बाएँ हाथ का खेल था। घोड़े पर बैठकर बाजीराव के भाले की फेंक इतनी जबरदस्त होती थी कि सामने वाला घुड़सवार अपने घोड़े सहित घायल हो जाता था।

बाजीराव ने अपने कुशल युद्ध नेतृत्व से छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित किये हुए मराठा साम्राज्य की सीमाओं का उत्तर भारत में भी विस्तार किया। ‘तीव्र गति से युद्ध करना, यह उनके युद्ध-कौशल्य का महत्त्वपूर्ण भाग था। इस समय भारत की जनता मुगलों के साथ-साथ अंग्रेजों व पुर्तगालियों के अत्याचारों से त्रस्त हो चुकी थी। ये भारत के देवस्थान तोड़ते, जबरन धर्म परिवर्तन करते, महिलाओं व बच्चों को मारते व भयंकर शोषण करते थे। ऐसे में बाजीराव पेशवा ने उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक ऐसी विजय पताका फहराई कि चारों ओर उनके नाम का डंका बजने लगा। लोग उन्हें शिवाजी का अवतार मानने लगे। बाजीराव में शिवाजी महाराज जैसी ही वीरता व पराक्रम था तो वैसा ही उच्च चरित्र भी था। जब छत्रसाल बुंदेला दिल्ली की सेना के सामने हतबल हो गये, तब उन्होंने बाजीराव से सहायता मांगी। बाजीराव ने वहां भी अपनी तलवार की गरिमा बनाए रखी। उनका उपकार चुकाने के लिए छत्रसाल बुंदेला ने 3 लाख मीट्रिक टन वार्षिक उत्पन्न करनेवाला भूभाग बाजीराव को भेंट दिया। इसके साथ ही अपनी अनेक पत्नियों में से एक पत्नी की कन्या ‘मस्तानी’ से उनका विवाह कराया।



Share:

गर्म पानी पीना एक औषधि



Drinking Hot Water is a Medicine
  Drinking Hot Water is a Medicine
 
ठण्डे पेय तथा फ्रीज में रखा अथवा बर्फ वाला पानी स्वास्थ्य के लिये हानिकारक होता है। स्वस्थ अवस्था में हमारे शरीर का तापक्रम 98.4 डिग्री फारहनाइट यानि 37 डिग्री सेन्टीग्रेड के लगभग होता है। जिस प्रकार बिजली के उपकरण एयर कंडीशनर, कू लर आदि चलाने से बिजली खर्च होती है। उसी प्रकार ठण्डे पेय पीने अथवा खाने से शरीर को अपना तापक्रम नियन्त्रित रखने के लिये अपनी संचित ऊर्जा व्यर्थ में खर्च करनी पड़ती है। अतः पानी यथा संभव शरीर के तापक्रम के आसपास तापक्रम जैसा पीना चाहिये।
आजकल सामूहिक भो जों में भोजन के पश्चात् आइसक्रीम और ठण्डे पेय पीने का जो प्रचलन है, वह स्वास्थ्य के लिये बहुत हानिकारक होता है। गर्मी स्वयं एक प्रकार की ऊर्जा है और शारीरिक गतिविधियों में उसका व्यय होता है। अतः जब कभी हम थकान अथवा कमजोरी का अनुभव करते हैं तब गरम पीने योग्य पानी पीने से शरीर में स्फूर्तिआती है। जिन व्यक्तियों को लगातार अधिक बोलने का अर्थात् भाषण अथवा प्रवचन देने का कार्य पड़ता है, जब वे थकान अनुभव करें, तब ऐसा पानी पीने से पुनः ऊर्जा का प्रवाह सक्रिय होता है। लम्बी तपस्या करने वालों के लिये ऐसा पानी विशेष उपयोगी होता है, जिससे शक्ति का संचार होता है।
गरम पानी सर्दी संबंधी रोगों में क्षीण ऊर्जा को पुनः प्राप्त करने का सरलतम उपाय होता हैं। साधारणतया रोजाना पानी को उबालकर पीनेसे उसमें रोगाणुओं और संक्रामक तत्त्वों की संभावना नहीं रहती। अतः ऐसा पानी स्वास्थ्य के लिये अधिक उपयोगी होता है। खाली पेट गर्म पानी पीनेसे अम्लपित्त जनित हृदय की जलन और खट्टी डकारें आना दूर हो जाता है। गर्म जल सुखी खांसी की प्रभावशाली औषधि है।सहनीय एक गिलास गर्म जल में थोड़ा सेंधा नमक डालकर पीने से कफ पतला हो जाता है और अंत में खांसी का वेग बहुत कम हो जाता है। खाली पेट दो गिलास गर्म पानी पीने से मूत्र का अवरोध दूर होता है। जिनके मूत्र पीला अथवा लाल हो, मूत्र नली में जलन हो, उनको पीने योग्य गर्मजल पीना चाहिए।



Share:

सूर्य नमस्कार की स्थितियों में विभिन्न आसनों का समावेष एवं उसके लाभ



सूर्य नमस्कार की बारह स्थितियों में विभिन्न आसनों का समावेष एवं लाभ सूर्य नमस्कार की स्थितियों में किंचित अलग-अलग मतों के अनुसार परिवर्तन माना गया है फिर भी एकरूपता की दृष्टि से सर्वमान्य 12 स्थितियों के आसनों का वर्णन एवं उनसे पृथक-पृथक प्राप्त लाभ का वर्णन किया जा रहा है। यहाँ यह भी निवेदन है कि हम जिस भी ध्यान एवं पूजा पद्धति का मानते हैं, उनका भी स्मरण कर सूर्य नमस्कार का अभ्यास स्वास्थ्य की दृष्टि से कर सकते हैं।
सूर्य नमस्कार की बारह स्थितियों में विभिन्न आसनों का समावेष एवं उसके लाभ

स्थिति क्रमांक 1. दक्षासन
इस विधि में विश्राम से दक्ष की स्थिति में आते हैं। दक्ष में हाथ की उंगलियाँ खुली लेकिन परस्पर सीधी मिली हुई, दोनों घुटनें मिले हुए तथा कंधे सीधे एवं हाथ नीचे की ओर लटकते हुये सीधे खींचे रहें। हथेलियाँ खुली हुई एवं जंघा से सटी हुई रहे।
लाभ
  1. त्वचा और कमर के रोग दूर होते हैं, पीठ सशक्त बनती है और पैरों में नया जोश आता है।
  2. दृष्टि नासिकाग्र पर केन्द्रित होने से मन का निरोध होता है।
  3. चेहरा तेजस्वी बनता है ।
  4. विद्यार्थियों के लिए स्वास्थ्य प्राप्ति एवं व्यंिक्तत्त्व विकास का यह एक अत्यंत सरल उपाय है।
  5. एकाग्रचित्त होकर ध्यान करने से आत्म विश्वास में वृद्धि होती है।
स्थिति क्रमांक 2 नमस्कारासन ( प्रणामासन ) -
  1. दक्ष - हाथ की उंगलिया सीधी खुली हुई।
  2. पैर के अंगुठे परस्पर जोड़कर समस्थिति में खड़े रहें।
  3. हाथ नमस्कार की स्थिति में । शरीर का भार दोनों पैरों पर समानरूप से बटा हुआ।
  4. एड़ियाँ और पैर के अंगुठे परस्पर सटे हो।
  5. पैरों की सब उंगलियाँ ऊपर उठाना जिससे उंगलियों के पीछे की गद्दियाँ तथा एड़ियाँ पूरी तरह जमीन पर हो।
  6. पहले दोनों पैरों की कनिष्ठिकाएं जमीन पर रखना । दोनों पैरों के कनिष्ठिकाधार पूरी तरह जमीन पर हो। बाद में अन्य उंगलियाँ भी जमीन पर रखना। इस स्थिति में दोनों तलुवों की कमानियां ऊपर उठी हुई रहेगी।
  7. घुटनों की कटोरियां को ऊपर तानना, घुटने के पीछे का भाग तथ जंघा के पीछे की मांसपेशियां ऊपर तनी हुई।
  8. मलद्वारा का संकोच करते हुए नितम्बों को सिकोड़कर कड़ा करना।
  9. पेट अंदर, सीना व पसलियां ऊपर उठी हुई।
  10. हथेलियाँ नमस्कार की स्थिति में एक दूसरे को दबाती हुई, दोनों अंगूठे के पर्व सूर्यचक्र (वक्षमध्य ) पर तथा दोनों प्रकोष्ठ जमीन से समानान्तर।
  11. कंधे पीछे की ओर, सिर संतुलित, गर्दन सीधी, दृष्टि सामने एवं सूर्य नमस्कार का मंत्र बोलना।
लाभ -
  1. गले के रोग मिटते हैं और स्वर अच्छा होता है।
  2. पैरों में रक्त गतिशील बनता है और व्यक्ति की चलने की शक्ति बढ़ती है। मेरूदण्ड में लचीलापन आता है।
स्थिति क्रमांक 3 - ऊध्र्वासन/ हस्त उत्तानासन
  1. दोनों हाथ तिरछे ऊपर उठाकर सीधे तानना। कोहनी में मोड़ न हो इसलिए भुजा को अंदर से तनाव देना।
  2. कमर से ऊपर का भाग पीछे मोड़ना।
  3. सिर पीछे लटकाना तथा दोनों हाथों के तनाव को बनाये रखते हुए हथेलियों को आपस में मिलाना। हाथों को कानों से लगाने का प्रयत्न नहीं करना है। दृष्टि करमूल पर स्थिर रहेगी। करमूल को दबाकर पीछे खींचना।
  4. घुटने न मुड़े इसके लिए पंजों व पैर की गद्दियों को जमीन पर दबाना आवश्यक है।
लाभ - दोनों कंधों और अन्न नली को पोषण मिलता है तथा इनसे संबंधित रोग मिटते हैं, नेत्र शक्ति (दृष्टि)

बढ़ती है तथा शरीर की लम्बाई बढ़ती है।
स्थिति क्रमांक 4 - ( हस्तपादासन )
  1. क्रमांक 3 में आयी पीठ की वक्रता को वैसी ही बनाये रखते हुए ऊरूसंधि से सामने झुकना प्रारंभ करना।
  2. नितम्बों को ऊपर की दिशा में घुमाना।
  3. ऊरूसंधि के ऊपर के हिस्से से क्रमशः स्पर्श करते हुए पेट को जंघा के ऊपर के भाग से और छाती को जंघा के निचले भाग से सटाते हुए अंत में माथे को घुटने के नीचे पैरों से लगाना। दोनों हथेलियाँ पंजों के पार्श्व में पूरी तरह जमीन पर इस तरह रखी हुई कि पैरों और हाथों की उंगलियाँ एक सीध में हों। पीठ का गड्डा बना रहे, उसकी कूबड न निकले।
लाभ -
  1. उदर (पेट) के रोगों का नाश करता है, सीने को बलिष्ठ बनाता है। हाथ भी बलिष्ठ बनते हैं और शरीर सुन्दर व दर्शनीय बनता है। उदर का मोटापा (तोंद) कम होता है।
  2. पैरों की ऊंगलियों के रोग मिटाकर अशक्तों को नई शक्ति प्रदान करता है।
स्थिति क्रमांक 5 - एकपाद प्रसरणासन/ अष्वसंचालनासन
  1. बायां पैर सीधे पीछे ले जाना । घुटना जमीन से लगाना।
  2. दाहिनें पैर की एड़ी को जमीन पर दबाना और दाहिने घुटने को जितना आगे ला सके लाना। एड़ी के ऊपर की नस में तनाव का अनुभव होना चाहिए। 
  3. दाहिना कंधा दाहिनी जंघा से सटा हुआ, सिर ऊपर की ओर। बांयी जंघा के आगे के भाग में तनाव अनुभव होना चाहिए। इस स्थिति में हाथों की कोहनियों को मोड़ना आवश्यक है। दृष्टि सामने की ओर।
  4. बांए पैर का पंजा मुड़ना चाहिए।
  5. कमर को नीचे की ओर दबाना।
लाभ -
  1. इस स्थिति में छोटी आँत पर दबाव पड़ता है, वीर्यवाहिनी नसें खीचती हैं अतः कमजोरी का नाश होता है।
  2. धातु क्षीणता में लाभ होता है।
  3. गले के रोग स्वर भेद, चुल्लिकाग्रंथि (थाइराइड), तुण्डीकेरी ( टोन्सिल) मिटते हैं।
स्थिति क्रमांक 6 - द्विपाद प्रसरणासन/ चतुरंग दण्डासन:
  1. बायें पैर का घुटना सीधा करना।
  2. दाहिना पैर पीछे ले जाकर बायें पैर से मिलाना। घुटनों को तानकर सिर से पैर तक शरीर को एक सरल रेखा में रखना। दण्ड की सहायता से यह देखना कि पूरा शरीर एक सीध में है या नहीं। दोनों हाथ सीधे। दृष्टि शरीर से समकोण बनाती हुई।
लाभ -
  1. हाथ-पैरों में विशेषतः घुटनों का दर्द मिटता है।
  2. मोटी कमर को पतली बनाता है।
  3. उदर (पेट) के रोगों के लिए यह स्थिति राम-बाण है।
स्थिति क्रमांक 7 - साष्टांग प्रणिपातासन:
  1. दानों हाथों को कोहनी से मोड़कर पूरे शरीर को जमीन के समानान्तर करना।
  2. दोनों पैरों के अंगूठे व एड़ियाँ मिली हुई।
  3. सीना और घुटनें जमीन से लगाना।
  4. दोनों कंधों को पीठ की ओर उठाकर एक दूसरे के निकट लाना। जिससे सीना नीचे उभर आए व जमीन में लगे। माथा जमीन से लगाना किंतु नाक जमीन से नहीं लगनी चाहिए।
लाभ -
  1. ये आसन हाथ को बलिष्ठ बनाता है।
  2. यदि स्त्रियाँ सगर्भावस्था के पूर्व यह व्यायाम करें तो पयःपान करने वाले बच्चे (दूध पीत बच्चे) बाल रोगों से बच सकते हैं।
स्थिति क्रमांक 8 - ( ऊध्र्वमुखष्वानासन/भुजंगासन ):
  1. दोनों एड़ियाँ साथ में व घुटने एक दूसरे के पास ।
  2. शरीर को आगे बढ़ाकर हाथों को कोहनियों से सीधे करते हुए सीने को ऊपर उठाना कमर व नाभि को हाथों के बीच में लाने का प्रयत्न करना। दोनों घुटनें जमीन से स्पर्श करते हुए। सिर पीछे की ओर दोनों कंधे पीछे की ओर खींचे हुए।
लाभ -
  1. निस्तेजस्विता दूर करके शरीर में तेज लाता हैं और आँखों का तेज बढ़ाता है।
  2. रज-वीर्य के सभी प्रकार के दोषों को मिटाता है।
  3. स्त्रियों के मासिक धर्म कीे अनियमितता दूर करता है।
  4. रक्त परिभ्रमण ठीक होने से मुख की कान्ति और शोभा में वृद्धि होती है।
स्थिति क्रमांक 9 - अधोमुखष्वानासान/ पर्वतासन:
  1. शरीर पीछे खींचकर नितम्बों को अधिक से अधिक ऊपर उठाना ।
  2.  एड़ियाँ जमीन पर टिकाना और दबाना किन्तु इसके लिए पैरों को आगे नहीं लाना चाहिए। शरीर को पीछे ले जाना चाहिए।
  3. घुटनों के पीछे के भाग को तानना।
  4. हाथ सीधे और पीठ दबी हुई, कंधों के बीच में पीठ पर गड्ढा बनेगा।
  5. सिर नीचे लटका हुआ।
लाभ -
  1. सन्धिवात, पक्षाघात तथा अपानवायु के रोगों में लाभदायक है।
  2. पैरों में अश्व के समान बल उत्पन्न होता है।
स्थिति क्रमांक 10 - एक पाद प्रसरणासन/ अष्वसंचालनासन:
  1. बायां पैर को पीछे से आगे दोनों हथेलियों के मध्य लाना। बायें पैर का अंगूठा तथा दोनों हाथों के अंगूठे अर्थात् तीनों अंगूठे एक सीध में पृथ्वी पर स्थापित करें।
  2. दाहिने पैर का घुटना, अंगुलियाँ एवं अंगूठा सीधा पृथ्वी को स्पर्श करता हुआ रहे।
  3. बायां कंधा बायीं जंघा से सटा हुआ, सिर ऊपर की ओर। बायीं जंघा के आगे के भाग में तनाव अनुभव होना चाहिए। इस स्थिति में हाथों की कोहनियों को मोड़ना आवश्यक है। दृष्टि सामने की ओर।
  4. बांए पैर का पंजा मुड़ना चाहिए।
  5. कमर के नीचे की ओर दबाना।
लाभ -
  1. पूर्व की स्थिति क्रमांक पंचमवत् सारे लाभ प्राप्त होते हैं।
स्थिति क्रमांक 11 - हस्तपादासन
  1. क्रमांक 4 में आयी पीठ की वक्रता को वैसी ही बनाये रखते हुए उरूसंधि के सामने झुकना प्रारंभ करना।
  2. नितम्बों को ऊपर की दिशा में घुमाना।
  3. उरूसंधि के ऊपर के हिस्से से क्रमशः स्पर्श करते हुए पेट को जंघा के ऊपर के भाग से और छाती को जंघा के निचले भाग से सटाते हुए अंत में माथे को घुटने के नीचे पैरों से लगाना। दोनों हथेलियां पंजों के पार्श्व में पूरी तरह जमीन पर इस तरह रखी हुई कि पैरो और हाथों की उंगलियां एक सीध में हो। पीठ का गड्डा बना रहे, उसकी कूबड़ न निकले।
लाभ - पूर्व की स्थिति क्रमांक चतुर्थवत् लाभ प्राप्त होते हैं।

स्थिति क्रमांक 12 - नमस्कारासन/प्रणामासन
  1. इस आसन की स्थिति एवं लाभ पूर्ववत् स्थिति क्रमांक 2 के अनुसार होते हैं।
विशेष - इस प्रकार बारह स्थितियों में सूर्य नमस्कार का एक चक्र होता हैं पुनः मंत्रोच्चारण सहित सूर्य नमस्कार की विधि प्रारम्भ करते हैं। इस बार स्थिति क्रमांक 5 एकपाद प्रसराणासन में बांये के स्थान पर दाहिना पैर पीछे ले जाते हैं तथा स्थिति क्रमांक 10 में एक पाद प्रसराणासन में भी दाहिनें पैर को पीछे से आगे लाते हैं। इस प्रकार क्रमशः पैर बदल कर 24 स्थितियों में सूर्य नमस्कार का एक पूर्ण चक्र होता है। विशेष बात यह है कि जो पैर स्थिति क्रमांक 5 पीछे जायेगा वही पैर स्थिति क्रमांक 10 में आगे आयेगा।
 
इसे भी पढ़े
  1. अधोमुखश्वानासन योग - परिचय, विधि एवं लाभ
  2. पश्चिमोत्तानासन योग विधि, लाभ और सावधानी
  3. नौकासन योग विधि, लाभ और सावधानियां
  4. अनुलोम विलोम प्राणायामः एक संपूर्ण व्यायाम
  5. प्राणायाम और आसन दें भयंकर बीमारियों में लाभ
  6. वज्रासन योग : विधि और लाभ
  7. सूर्य नमस्कार का महत्त्व, विधि और मंत्र
  8. ब्रह्मचर्यासन से करें स्वप्नदोष, तनाव और मस्तिष्क के बुरे विचारों को दूर
  9. प्राणायाम के नियम, लाभ एवं महत्व
  10. मोटापा घटाने अचूक के उपाय


Share: