घनानंद का जीवन परिचय, रचनाएँ एवं साहित्यिक विशेषताएं



घनानंद का जीवन परिचय, रचनाएँ एवं साहित्यिक विशेषताएँ
Ghanananda's Biography, Compositions and Literary features
घनानंद का जीवन परिचय, रचनाएँ एवं साहित्यिक विशेषताएं
जीवन परिचय - Biography
घनानंद रीतिकाल की रीतिमुक्त स्वच्छंद काव्यधारा के सुप्रसिद्ध कवि है। आचार्य शुक्ल के मतानुसार इनका जन्म संवत् 1746 में दिल्ली में हुआ था और संवत 1817 में वृंदावन में इनका देहावसान हुआ। ये दिल्ली के रहने वाले एक कायस्थ थे और सम्राट मुहम्मद शाह बादशाह के मीर मुंशी थे। महाकवि घनानंद के विभिन्न नामों के प्रति विद्वानों में मतैक्य नहीं है। ये नाम निम्नलिखित हैं- घन आनन्द, ’आनन्द घन या आनन्दघन अथवा आनंद के घन,’ आनन्द निधान तथा आनन्द।’ यह तीनों एक ही व्यक्ति के नाम हैं या अलग-अलग व्यक्ति के, यह प्रश्न विवाद का है। आनंद निधान नाम के लिये निम्नलिखित उदाहरण प्रस्तुत हैं :-
वहै मुसक्यानि, वहै मृदु बतरानि, वहै,
लड़कीली बानि उर ते अरति है।
वहै गति लैन, औ बजावनि ललित बैन,
वहै छैलताई न छिनक बिसरति है।
आनंदनिधान प्रान प्रीतम सुजान जू की,
सुधि सब-भौतिन सो बेसुधि करती है।। 
घनानन्द के समय को लेकर भी विवाद है। शिव सिंह सरोज सेंगर के मत से घनानन्द का समय सम्वत् 1617 है। वे आनन्दघन नाम को मानकर यह समय निर्धारित करते हैं। जनश्रुति एवं विद्वानों के आधार पर यह कहा जाता है कि घनानंद जी का जन्म सम्वत् 1746 के आस पास हुआ था। कतिपय विद्वान इनका जन्म सम्वत् 1715, 1630, तथा 1683 मानते हैं। आज इनका जन्म सम्वत् 1746 सप्रमाण स्वीकार गया है, अन्य तीनों ही जन्म सम्वत् संदिग्ध हैं, आपका जन्म स्थान दिल्ली के आस पास हुआ था या दिल्ली में ही स्वीकारा जा सकता है। अधिकांश विद्वान इस मत के समर्थक हैं। कुछेक विद्वान इनके जन्म स्थान को वृन्दावन एवं बुलंद शहर के पास का मानते हैं। आपका जन्म भटनागर कायस्थ परिवार में हुआ, आपकी शिक्षा फारसी भाषा के द्वारा शुरू हुई थी, बचपन से ही आपकी रुचि विद्या अध्ययन की ओर विशेष थी। जनश्रुति के आधार पर आप अबुल फजल के शिष्य माने जाते हैं। इन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा एवं बुद्धि से शीघ्र ही फारसी का अच्छा ज्ञान अर्जित कर लिया था। इसके बाद आप सम्राट मुहम्मदशाह ’रंगीले’के मीर मुंशी पद पर नियुक्त हो गए थे। आपने अपनी आकर्षक बुद्धि एवं प्रतिभा संपन्नता के निदान स्वरूप शीघ्र प्रोन्नति पा ली थी। और आप धीरे-धीरे सम्राट के ’खास कलम’ अर्थात् प्राइवेट सेक्रेटरी, हो गए। घनानंद की मृत्यु के बारे में विद्वानों के दो प्रकार के मत है। प्रथम मत के अनुसार नादिर शाह के आक्रमण के समय मथुरा में सैनिकों द्वारा घनानंद की मृत्यु हुई, किंतु इस मत का खंडन इस आधार पर हो जाता है कि नादिर शाह द्वारा किया गया क़त्ले आम दिल्ली में हुआ था न कि मथुरा में। दूसरे इस आक्रमण और घनानंद की मृत्यु के समय में ही अंतर है। द्वितीय मत ही अब मान्य है, वह यह की संवत् 1817 (सन् 1660 ई.) में अब्दुल शाह दुर्रानी ने जब दूसरी बार मथुरा में कत्लेआम किया था इसी में घनानंद की मृत्यु हुई।
घनानंद का संयोग श्रृंगार वर्णन
रीतिकालीन काव्य धारा का प्रधान तत्व भक्ति नहीं प्रेम की अभिव्यंजना है। यह प्रेम कहीं मांसल है तो कहीं मानसिक और आध्यात्मिक भी है। घनानंद हिन्दी के सर्वोत्कृष्ट स्वच्छन्द प्रेमी कवि है और इनका श्रृंगार वर्णन प्रेम की मानसिक अनुभूति को गहराई और तीव्रता से अभिव्यक्त करता है। इनकी प्रेम व्यंजना में इतनी आकुलता, इतनी व्यथा एवं इतनी पीड़ा है कि कठोर से कठोर श्रोता एवं पाठक भी द्रवित हो जाते हैं और उसमें संयोग-सुख की इतनी मादकता एवं उल्लास भावना भी भरी हुई है कि सहृद्यों को आनंद विभोर कर देती है। इनकी प्रेमानुभूति में आत्मानुभूति का सर्वाधिक योग है। एक विद्वान के अनुसार - "श्रृंगार का स्थायी भाव रति है। यही स्थायी रति है। यही स्थायी भाव और स्थायी भावों में श्रेष्ठ माना जाता है। मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से श्रृंगार जीवन का आधे से भी अधिक पक्ष है, इसका विकार सर्व जाति सुलभ, तीव्र, हृदय-स्पर्शी व स्वाभाविक है। रुद्रट तो इसकी सर्व व्याप्ति आवाल वृद्ध में पाते हैं। प्रेम ही मानव-हृदय की मूल-भावना है जो कि श्रृंगार रस का मूलाधार है। संस्कृति के विकास का इसी प्रेम का प्रतिफल है।
श्रृंगार रस के नायक व नायिका आलम्बन हैं, इस निश्चित बात को अन्य रसों में ही नहीं पाया जा सकता है। रति भाव मनुष्य के हृदय में उस परिपक्व अवस्था में है जो किचित आश्रय से उद्दीप्त हो उठता है। नायक व नायिका के परस्पर प्रेम का परिणाम श्रृंगार रस का परिपाक होना है। श्रृंगार-रस ऐसा रस है जो मानव के अंग प्रति अंग में निहित है। निस्संदेह प्रेम का साम्राज्य असीम है।'' वे आगे लिखते हैं -"घनानन्द ने श्रृंगार के दोनों पक्ष संयोग व वियोग की बाह्म व आंतरिक मनोवृत्तियों का सूक्ष्म व हृदय ग्राही वर्णन किया। कृष्ण को नायक, राधा को नायिका तथा सखियों को आपने अपने काव्य का आलम्बन व प्रमुख पात्र बनाया। इनके राधा-कृष्ण व सखियां युवा हैं। 'सुजान' शब्द जो कहीं कृष्ण तो कहीं राधा के संबोधन में आप काम में लाये हैं। यह सकारण है क्योंकि आपका तन-मन शरीरी चर्म अस्थि सुजान वेश्या के प्रति आसक्त था और जब आप 'रंगीले' के दरबार में उससे अपमानित हुए और प्रेम प्रेम न पा सका तो उसी शरीर चमं-अस्थि को जो हृदय में पहले ही समा चुका था काव्य का चोला पहना कर मूर्ति रूप में खड़ा किया-उन सुखद-सुन्दर स्मृतियों को जिनकी रूपलिष्ठा में मन स्वयं की विस्मृति कर बैठा था और जिससे आज हृदय विलकता, रोता व तड़पता, और उस हृदय-वेधक तड़फन को वृन्दावन की कुंज गलियन में धूम फिर कर उसे ऊँचे स्वर से गाया-वही इनका संयोगी व वियोगी काव्य है। और उसी नाम को 'प्रभु' मान आपने, आह्वान किया।'' घनानन्द के प्रेम वर्णन के विस्तार के लिए यह आवश्यक है कि जाता है वे पंक्तियाँ प्रस्तुत की जाएं जो इस बात की पुष्टि करते हों। निम्नलिखित पंक्तियों में इस बात का स्पष्टीकरण हो जाता है, यथा-
आनन्द के घन, लागें अचंभो पपीहा पुकार ते क्यों अर सेंये।
प्रीति पगी अंखियानि दिखाय के हाय अनीत सु दीठ छिपैये।।
क्यों हंसि हर्यो हियरा, अरुक्यौं हित के चित चाह बढ़ाई।
काहे को बोलि सुधासने बँननि, चँननि मँन-निसन चढ़ाई।।
सो सुध मोहिय मैं घन आनन्द सालति क्यों हूं कढ़ै न कढ़ाई।
मीत सुजान अनीति की पाटी, इतै पै न जानियै कौने पढ़ाई।।
घन आनन्द कौन अनोखी दसा कहा मो जिय की गति कौं परसै।।
जिय नेकु बिचारि कै देहु बताय हहा पिय दूर ते याय गहौं। 
इन पंक्तियों से यह प्रमाणित होता है कि घनानन्द का लौकिक प्रेम आध्यात्मिक प्रेम से श्रेष्ठ प्रतीत होता है। उनके प्रेम की स्थिति यह है कि व्यक्ति स्वच्छन्द प्रेम के रस में निमग्न रहते हैं जो अभीप्सित होता है वह गा उठते हैं। उनकी प्रेमानुभूति को निम्न प्रकार से विभक्त किया गया है। उनके प्रेम वर्णन की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं -
इहलौकिक प्रेम -
रीतिकालीन प्रेम का आधार लौकिक सुख और आनंद का अनुभव करना था। संपूर्ण रीतिकालीन कवि नायिका के दैहिक सौन्दर्य के वर्णन और रसपान में आकंठ डूबे थे। इस भौतिकता के प्रति जब कभी उनके अंदर अपराध बोध पैदा होता था तो उसे कृष्ण और राधा के प्रेम में तब्दील कर देते थे। परन्तु घनानंद के प्रेम का मूलाधार विशुद्ध भौतिक जीवन था और सुजान नामक वेश्या के प्रेम में वे पागल थे। उसके प्रति घनानंद को तीव्र अनुराग था। उनका यही लौकिक प्रेम उस वेश्या के कपट, छल एवं निष्ठुर व्यवहार के कारण अलौकिकता में परिणत हो गया था, उनकी इस अलौकिकता का मूलाधार लौकिक प्रेम ही है, लौकिक वासना नहीं हैं, जिसने घनानंद को 'महानेही' बना दिया था, प्रेम के महोदधि में निमग्न कर दिया था, चाह के रंग में भिगो दिया था। इसलिए घनानंद के इस काव्य में वही लौकिक प्रेम हिलोरें ले रहा है-

क्यों हंसि हेरि हियरा अरू क्यों हित कै चित्त चाह बढ़ाई।
वाहे को बोलि सुधासने बैननि चैननि मैन-निसैन चढ़ाई।।
सो सुधि यो हिय मैं घन आनन्द सालति क्यों हूँ, कढै न कढाई।
मीत सुजान अनीत की पाटी इतै पै न जानिये कौने पढाई।। 
निश्छल प्रेम की अभिव्यक्ति - लौकिक प्रेम विश्वास और निष्कपटता की मांग करता है। घनानंद ऐसे ही सच्चे प्रेमी थे। उनका प्रेम अपनी प्रेमिका के प्रति निश्चल और निष्कपट था। भले ही उनके प्रिय ने उनके साथ विश्वासघात किया, उन्हें दगा दी और उनका साथ नहीं दिया, किंतु वे एक निश्चल प्रेमी थे और प्रेम के पक्ष में निश्छलता एवं निष्कपटता को ही अत्यधिक महत्व देते थे। प्रेम की इसी निश्छलता को इस बहुत प्रसिद्ध पद में अभिव्यक्त करते हैं, इसमें प्रेम की सघन और मार्मिक परिभाषा प्रस्तुत की है। इस तरह की प्रेम की परिभाषा हिन्दी साहित्य में अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती है-
अति सूधो सनेह कौ मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलै तजि आपुनपो झिझके कपटी जे निसाँक नहीं।।
घन आनंद प्यारे सुजान सुनौ इत एक ते दूसरौ आक नहीं।
तुम कौन धौ पाटी पढे़ हो लला मन लेहु पै देहु छटांक नहीं।। 
घनानंद के प्रेम वर्णन में इस तरह आडम्बर हीनता एवं अकृत्रिमता इसलिए मिलती है क्योंकि वे स्वयं प्रेम के अनुभव में पके थे, विरह को उन्होंने झेला था। अन्य कवि सिर्फ कविता के लिए प्रेम का वर्णन करते हैं, जबकि घनानंद अपने जिये गए अनुभव को लिखते हैं। उनके प्रेम के बीच छल-कपट का तनिक भी स्थान नहीं था, क्योंकि घनानंद स्वाभाविक प्रेम के पुजारी थे, स्वच्छन्दता के भक्त थे और अपनी तरंग में आकर प्रेम का निरूपण करते थे। अपने इसी नैसर्गिक प्रेम की व्यंजना करते हुए तथा चन्द्रमा और चकोर के नैसर्गिक प्रेम को उदाहरण बताते हुए लिखते हैं-
चहौ अनचाहौ जना प्यारे पै आनन्दघन,
प्रीति-रीति विषम सु रोम-रोम रमी है।
मोहिं तुम एक, तुम्हें मो सम अनेक आहिंकहा
कछू चंदहिं चकोरन की कमी है।। 
घनानन्द का प्रेम कितना निश्छल था इसके लिए उनके काव्य में उदाहरणों की कमी नहीं है। वे प्रेम की गहराई को जितना अंदर महसूस करते थे, उतना ही काव्य में अभिव्यक्त करने में भी सक्षम थे।
पीड़ा की अनुभूति - प्रेम के दीवानों के लिए विरह की पीड़ा सबसे महत्वपूर्ण होती है। घनानंद सच्चे प्रेम के दीवाने थे। उनका प्रिय अपने प्रेमी की चिंता न करके निष्ठुरता, कठोरता एवं निर्दयता का ही व्यापार कर रहा था, तो. घनानंद अपने निष्ठुर एवं निर्दय प्रिय के हृदय में प्रेम उत्पन्न करने के लिए अपने को आशा की रस्सी से बांधकर भरोसे की शिला छाती पर रखकर अपने प्रेम रूपी सिन्धु में डूबने को तैयार थे, इसीलिए तो घनानंद लिखते हैं-
आसा-गुन बांधि कै भरोसो-सिल धरि छाती,
पूरे मन-सिन्धु में न बूढत सकाय हौं।
दीह दुख-दव हिय जारि उर अंतर,
निरंतर यों रोम-रोम त्रासनि नचाय हौं।। 
 सौन्दर्य प्रियता - प्रेम के मूल में सौन्दर्य चेतना होती है, चाहे वह प्रकृति प्रेम हो या व्यक्ति प्रेम। किसी के प्रति आकर्षण का प्रथम कारण उसके सौंदर्य से प्रभावित होना होता है। घनानंद के प्रेम का मूल कारण भी सुजान का अनिन्द सौन्दर्य था, जो कवि घनानंद के रोम-रोम में बसा हुआ था, क्योंकि वे उसकी सहज सुकुमारता, स्वाभाविकता, मधुरता एवं प्राकृतिक सुंदरता को देखकर ही उसके सच्चे प्रेमी बने थे। इसलिए घनानंद के हृदय में प्रेयसी सुजान की 'तिरछी चितौनि' 'चंचल विशाल नैन', 'धूमरे कटाछि', 'रसीली हॅसी','बडी-बडी' अंखियां', 'चीकने चिहुर', 'जोबन-गरूर-गरूबाई', 'रस-रासि-निकाई', 'नवजोबन की सुथराई', 'नेह-ओपी-अरूनाई', आदि। इसी कारण उनके हृदय में प्रिय के सौन्दर्य का अथाह सागर हिलौरें लेता रहता था। उन्होंने अपने प्रिय सुजान के इसी अनिन्द सौन्दर्य का बखान अपने काव्य में किया है -
स्याम घटा लिपही थिर बीज कि - सोहै अमाबस अंक उज्यारी।
धूम के पुंज मैं ज्वाल की माल-सी पै दृग-सीतलता-सुखकारी।।
के छाकि छायौ सिगांर निहारि सुजान-तिया-तन-दीपति प्यारी।
कैसी फबी घन आनन्द चोपनि सों पहिरी चुनि साॅवरी सारी।। 
प्रिय के सौन्दर्य की उपासना संयोग पर ही आधारित है। घनानंद ने इसीलिए संयोग-सुख के आनंद से प्रफुल्लित रोम-रोम का तथा अंग-अंग से फूटते हुए हर्षोल्लास का सजीव चित्रण किया है-

ललित उमंग बेली आलबाल अंतर ते,
आनंद के घन सींचा रोम रोम हवे चढ़ी।
आगम-उमाह-चाह छायी सु उछाइ रंग,
अंग-अंग फूलनि दुकूलिन पैर कढी।। 
विरहाकुलता- घनानंद प्रेम की पीर के कवि कहे जाते हैं। उनके जीवन में प्रेमी के संयोग के क्षण बहुत कम हैं, विरह की आग में ही अधिक जले हैं। इसलिए उनके काव्य का मूल स्वर विरहानुभूति है। घनानंद के प्रेम में जहां संयोग का हर्षोल्लास परिलक्षित होता है, वहाँ विरह का अथाह सागर हिलोरें लेता हुआ दिखाई देता है। उन्होंने प्रेम के संयोग पक्ष की अपेक्षा वियोग पक्ष का अधिक आतुरता, तल्लीनता एवं तीव्रता के साथ वर्णन किया है। सुजान का यह विरह घनानंद के लिए वरदान सिद्ध हुआ है और घनानंद ने भी अपनी विरहाकुलता का वर्णन करके सुजान एवं सुजान के प्रेम को अमर बना दिया है। इस प्रकार घनानंद का प्रेम स्थूल नहीं, अपितु सूक्ष्म है। उसमें अश्लीलता एवं कामवासना नहीं है, अपितु दिव्यता एवं पवित्रता है, क्योंकि घनानंद ने प्रेम के सभी पक्षों में शारीरिक सुख की अपेक्षा भावना द्वारा प्रिय का सानिध्य पाने की आकांक्षा प्रकट की है। इसी कारण घनानंद की प्रेमानुभूति अनिर्वचनीय है, वह प्रेमी की मूक पुकार है और पूर्णतया अनुभव गम्य है।
घनानंद का वियोग वर्णन
संयोग और वियोग प्रेम के दो छोर हैं। सच्चा प्रेमी इनके बीच अपने को पाता है कभी वह संयोग सुख में अपनी अनुभूति का तरोताजा करता है तो कभी वियोग में अपने प्रेम की परीक्षा के दौर से गुजरता है। इसीलिए वियोग को प्रेम की कसौटी है। जो प्रेमी इस कसौटी पर खरा उतरता है, वहीं सच्चा प्रेमी माना जाता है। प्रेम की सात्विकता और सघनता विरह में ही दिखाई देती है, जबकि संभोग प्रेम का सुखद रूप है। संयोग से प्रेमी वासना का शिकार बना रहता है, जबकि वियोग में वह वासना से ऊपर उठकर मानसिक स्थिति को प्राप्त कर लेता है। वियोग ही प्रेमी की दृढ़ता का परिचायक होता है। वियोग ही उसकी निष्ठा एवं उत्कंठा का द्योतक होता है, और वियोग ही एक प्रेमी की प्रिय के प्रति उत्कट चाह, तीव्र आकांक्षा, सुदृढ लालसा एवं उद्दाम आकुलता का अनुभावक होता है। घनानंद भी ऐसे ही वियोगी कवि है, जिनके हृदय में अपनी प्रेमिका 'सुजान' की उत्कट विरह भावना भरी हुई है।
रीतिकालीन काव्य में बिना वियोग श्रृंगार के संयोग का न तो पूर्ण-रूपेण आस्वाद ही प्राप्त होता है और न उसके मूल्यों का अंकन किया जा सकता है। प्रेम की आध्यात्मिक परिणति वियोग श्रृंगार द्वारा ही संभव है। विरह को काव्य की कसौटी माना जाता है। विरह एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा मन शुद्ध हो जाता है, उसमें से शारीरिक वासनात्मकता समाप्त हो जाती है। प्रेम के मन से स्वार्थ भावना नष्ट हो जाती है। वियोगी कवि की भावना पहाड़ी जलप्रपात की तरह बह निकलती हें, और वही काव्य का रूप धारण कर पाठक के हृदय को स्पर्श कर उसे प्रेम की रसानुभूति कराती हैं। संयोग की मधुर स्मृतियां वियोगी के लिए बेचैन करती रहती हैं। घनानन्द का वियोग उनके हृदय की पीड़ा का प्रति फल है, उसमें पाठक के हृदय को स्पर्श करने की शक्ति है। वह अपनी सुध-बुध खो देता है। जब पाठक घनानन्द का काव्य पढ़ता है तब उसकी इतनी विशाल हृदय-बोधक रसानुभूति कराने की क्षमता का अनुभव होता है। अपनी प्रेयसी की सुध में घनानन्द स्वयं तो खो गये, परन्तु साथ में पाठक को भी विरह की अनन्तोदधि में डूबो दिया। विरह के रस में डूबने का मजा तो घनानन्द के साथ ही मिलता है। घनानन्द के काव्य में विरह की भी कोई एक दशा नहीं है। वियोगी प्रेमी सोते, उठते-बैठते और हर समय उसका हृदय पुकार उठता है अपनी प्रेयसी को! वही बातें जो हृदय में उमड़ती-घुमड़ती रहती हैं, उनको प्रत्यक्ष रूप से अभिव्यक्त करने का अवसर जागते हुए नहीं मिलता तो उसके सोते समय 'स्वप्न' में चित्र-सा गति मान होने लगता है। घनानन्द लिखते हैं कि चलो इस बहाने मन ही बहला लें कि-
जगि सोवनि में लगिये रहे,
चाह वहै गरराय उठै रतियां।
भरि अंक निःसक हृै भेटन कौं,
अभिलाख अनेक भरी छतियाँ।
सलोनी स्याम-मुरति फिरै आगे।
कटाछै बान से उर आन आन लागे।।
मुकुट को लटक हिृय में आय हालै।
चितवानी बंक जियरा बीच सालै।। 
घनानन्द के काव्य में विरह असीम हो गया है। इस दशा में विरहिणी कैसे अपने प्रियतम को पत्र लिख सकती है। ऐसी विरहिणी तो है नहीं जो आंसुअन की स्याही में डुबो-डुबो कर पत्र लिख डाले। वह अपनी विशेषता प्रगट करती है कि-
लिखै कैसे पियारे प्रेम पाती,
लगै अंसुअन भरी हृ हूंक छाती। 
विरहणी नायिका सोचती है कि इससे तो अच्छा होता कि नायक गुणवान न होता, कम से कम विरहाग्नि में वह उसे इस प्रकार याद आकर उसके हृदय को नोचता तो नहीं। पर क्या करे उसे याद आ ही जाती है अपने 'रावरे रूप की मोहिनी सूरत' उसके आकर्षण का कारण भी तो यही है।

रावरे रूप की रीति अनूप,
नयो नयो लागत ज्यों-ज्यों निहारिये। नायिका बेचारी रो रही है अपने प्रेमी के गुणों व रूप स्मृति में। उसकी मुश्किल यह है कि उसके प्रेमी का रूप उसकी आँखों से ओझल नहीं होता है-
छवि को सदन, मोह मण्डित बदन चन्द
तृषनि चखन लाल! कब धौं दिखाए हों। 
विरहिणी नायिका की निस्वार्थ प्रीति का उत्कर्ष यह है कि वह एक ओर तड़फ रही है, अपने प्रिय के लिए, परन्तु कोई बात नहीं, उसके मन से प्रिय के लिए दुआ ही निकलती है कि उसका प्रिय सुख व आनंद से रहे, उसे यही कामना है। प्रेम की इस त्याग की भावना कितनी उत्कृष्ट है, कि-
धन आनन्द जीवन प्रान सुजान,
तिहारि पै बातनि लोजियै जू।
नित नीकै रहो चाटु कहाइ,
असीम हमारियौ लीजिये जू।। 
वियोग श्रृंगार में इस तरह की त्याग की भावना को रीतिकाल के अन्य किसी कवि में इतने उत्कट रूप से नहीं देखा जा सकता है। उसे अपने प्रेमी के सम्मान का कितना ध्यान है, वह कृष्ण को ठगिया नहीं कहती और न उन्हें कुछ बुरा भला कहती है। विरह है तो घनानन्द की विरहिणी केवल आत्म-निवेदन करती है कि इतनी निष्ठुरता क्यों अपनाई है।
पहलै अपनाय सुजान सनेह सैं,
क्यों फिर तेह कै तोरिये।। 
घनानन्द के यहाँ विरहिणी की विचित्र दशा चित्रित की गई है-
कारी कूर कोकिला कहाँ को बैर काढ़ति री,
कूक कूकि अब ही करेजौ किन कोरिली।
पैंडे परे पापी ये कलापी निस श्रोस ज्यों ही,
चातक घातक त्योंहो तू ही कान फोरिलै।
आनन्द के घन प्रान जीवन सुजान बिन,
जानि कै अकेली सब घेरौ दल जोरि लै।
जौलों कहै आवन विनोद वरसावन वे,
तौलौं रे ठरारे वजमारे घन घोरिलै।
 श्री परशुराम चतुर्वेदी लिखते हैं-''घनानन्द ने विरह के महत्व को भली भांति समझा था इसलिए प्रेमी के विरहदग्धा हृदय तथा उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म एवं अनिर्वचनीय मानसिक व्यापारों का जैसा सुन्दर वर्णन अपनी कविता द्वारा उन्होंने किया है वैसा बहुत कम कवि कर पाए हैं।'' वियोग वर्णन में कवि जिन तरीकों को अपनाया है, उनको जानना भी आवश्यक है और वह किस-किस तरह से अपने वियोग की भावना को अभिव्यक्त करता है। इसे भी देखा जाना चाहिए।
रूपासक्ति की प्रधानता - प्रेम का मूलाधार रूपासक्ति ही होता है। यही बात वियोग में पीड़ा को घना कर देती है। घनानंद के उत्कट विरह का मूल कारण यह है कि उनकी 'अलबेली सुजान' अनिन्द सुन्दरी थी, उसमें उन्हें अलौकिक सौंदर्य के दर्शन हुए थे और वे उस सौंदर्य को नित्य देखते रहना चाहते थे। कारण यह था कि वह रूप नित्य नया-नया प्रतीत होता था और उस रूप पर उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था, परन्तु दुर्भाग्य से वह रूप उनकी आंखों से ओझल हो गया, उन्हें फिर देखने को नहीं मिला और वे अपनी पागल रीझ (मोह.प्रेम) के हाथों बिककर रात-दिन वियोग की आग में जलते रहे-
रावरे रूप की रीति अनूप नयो-नयो लागत ज्याँ-ज्याँ निहारियै।
त्यौं इन आंखिन बानि अनोखी अद्यानि कहूँ नहि आन तिहारियै।।
एक ही जीव हुतो सु तौ वार्यौ सुजान सॅकोच और सोच सहारियै।
रोकी रहे न, दहै घन आनंद बावरी रीझ के हाथनि हारियै।। 
घनानन्द के प्रेम में रूपलिप्सा का योग तो है परन्तु साहचर्य का उतना व्यापक-वर्णन जितना सूर के काव्य का है, उतना इनमें नहीं मिलता। कृष्ण की लीलाओं को उतना स्थान न दिया जितना कि सूर ने दिया है और न यौवन कालीन ऋीड़ाओं को ही महत्व दिया है। घनानन्द ने कृष्ण की रूप माधुरी का वर्णन किया है, उसी मार्मिकता तन्मयता व तल्लीनता के साथ जितना अन्य कृष्ण भक्त कवियों ने किया है, यथा-
मोर चन्द्रिका सिर धरें, गरें, गुंज की माल।
धातु चित्र कटि पीत पट, मोहन मदन गुपाल।।
अति कामनीय किशोर बपु, गोपीनाथ उदार।
कमल नैन ऋीड़ा निपुन, कान्हर गोप कुमार।।
कमल केलि कीड़ा कुसल, कलानाथ रसवन्त।
गोवरधन वासी सदा, गोप-कामिनी-कंत।।
लहलहाति जीवन उदै, ब्रजमोहन अंग अंग।
महारूप सागर उमगि, उठति अमोष तरंग। 
इसी प्रकार राधा के रूप सौंदर्य का वर्णन किया है। घनानन्द की गोपियां कृष्ण की एक रूपलिप्सा पर आकर्षित हैं तथा इनकी गोपियां भी मुरली की पावन-पंचम ध्वनि को सुनते ही फड़क उठती हैं। राधा का चारुतम रूप माधुरी भी कृष्ण अपनी ओर आकृष्ट करता है और राधा कृष्ण के प्रति 'सैन नैन' चलाती हैं। राधा का रूप वर्णन करते हुए कवि कहता है, यथा-
लाजनि लपेटी चितवनि भेदभाव भरी,
लसति ललित लोल चख तिरछीन में।
छवि को सदन गोरो वदन, रूचिर माल,
रस निरचुरत मीठी मृदु मुसक्यान में।
दसन दमिक फैलि हियें मोती लाल होति,
पिय सों लड़कि प्रेम पगी बतरानि में।
आनग्द की निधि जगमगति छबीली बाल।
अंग न श्रनंग-रंग ढुरि मुरजानि में । 
हृदय की मौन पुकार की अधिकता- घनानंद का विरह बौद्धिक नहीं है, वह उनके हृदय की सच्ची अनुभूति है और जहां विरह बौद्धिक होता है, वहां प्रदर्शन एवं आडम्बर का आधिक्य देखा जाता है, किंतु जहाँ हृदय की अनुभूति होती है वहां प्रदर्शन एवं आडम्बर कहाँ वहां तो हृदय की टीस, प्राणों की तडपन एवं आकुलता बाहर नहीं सुनाई पड़ती, क्योंकि हृदय बोल नहीं पाता, वह मौन रहकर हही धडकता रहता है।
अंतर-आच उसास तचै अति, अंत उसीजै उदेग की आवस।
ज्यौं कहलाय मसोसनि ऊमस क्यों हूँ कहूँ सुधरें नहीं थ्यावस।। 
प्रिय-जन्य निष्ठुरताः- घनानंद के विरह की तीव्रता एवं उत्कटता का मूल कारण यह है कि उनका प्रिय बड़ा कठोर है, निर्दय है, निष्ठुर है तथा विश्वासघाती है। उनको इसकी तनिक भी परवाह नहीं है, वह इनकी दुर्दशा देखकर तनिक भी नहीं पसीजता और अब उसने जान-पहचान भी मिटा डाली है। वह निष्ठुरता एवं कठोरता का व्यवहार करके अब रात-दिन जलाता रहता है।
भए अति निठुर मिटाय पहिचानि डारी,
याही दुख हमैं जक लागी हाय हाय है।
तुम तो निपट निरदई गई भूमि सुधि,
हमैं सूल-सेलनि सो क्यों हूँ न भुलाय है।। 
प्रेमगत विषयताः- घनानंद के विरह में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एकांकी है, सम नहीं है, अपितु विषम है, क्योंकि जो तड़पन है, चीत्कार है, जलन है, धड़कन है वह एक ओर ही- केवल प्रेमिका ही हृदय अपने प्रिय (प्रेयसी सुजान) के विरह में रात-दिन तडपता रहता है। लेकिन उनके प्रिय के हृदय में विरह की तनिक भी आग नहीं है, तनिक भी चाह नहीं हैं परन्तु प्रेमी घनानंद को इसकी चिंता नहीं है कि उनका प्रिय उनके प्रति कैसे भाव रखता है, वे तो अपने प्रिय के अनन्य प्रेमी है और उनके रोम-रोम में प्रीति बसी हुई है।
चाहौ अनचाहौ जान प्यारे पै आनन्दघन,
प्रीति रीति विषम सु रोम रोम रमी है।
उपालम्भ की तीव्रता: - घनानंद के विरह हमें उपालम्भ अत्यंत गूढता एवं गंभीरता के साथ दृष्टिगोचर के साथ होता है। इस उपालम्भ में विरह के प्रेम की एक निष्ठा भरी हुई है, उत्कटता भरी हुई है और प्रिय के प्रेम की उदासीनता भी भरी हुई है। इसीलिए इन उपालम्भों मंे विरही ने स्वयं को अत्यंत दीन, हीन, दुखी, विनम्र एवं अनन्य प्रेमी कहा है तथा अपने प्रिय को कपटी, विश्वासघाती, छली, निर्मोही, सभी प्रकार के सुख सम्पन्न एवं प्रेम रहित कहा है। अपने प्रेम को इसी अन्यनता एवं एक निष्ठा तथा प्रिय की उदासीनता एवं कपट व्यवहार पूर्ण कठोरता पर उपालम्भ देते हुए लिखा है-
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेक सयानप बाक नहीं।
तहाॅ साॅचे चलै तजि आतुनपौ झॅझके कपटी जे निसाक नहीं।। 
अंग प्रत्यंग की आकुलताः-घनानंद के विरह में आँख,कान, हृदय, प्राण आदि अंग प्रत्यंगों की अत्यधिक आकुलता, बेचैनी एवं दयनीय स्थिति का चित्रण हुआ है। इसका कारण है, कि विरही घनानंद के सारे शरीर में विरह का विष फैला हुआ है, अंग प्रत्यंग में विरह की आग लगी हुई है, जिससे उनके प्राण नित्य दहकते रहते हैं, नेत्र मदमाते होकर आंसू बहाते रहते हैं।
जिनकों नित नीकें निहारति ही आंखिया अब रोवति हैं।
पल-पाॅवडे पायनि सौं अंसुबानि की धारनि धोवति हैं।। 
प्रकृति जन्य उद्दीपनः- घनानंद को विरह वेदना की तीव्र से तीव्रतम बनाने में प्रकृति का भी अत्यधिक हाथ रहा है। कारण यह कि प्रकृति के ये उपादान विरही के ऊपर कहर ढाने का काम करते हैं। कभी पुरवैया हवा चलकर, तो कभी बादल घिरकर, कभी बिजली चमकरक, तो कभी पुष्प अपनी सुगंध से, तो कभी कोकिला कूक कर, बिचारे विरही को रात-दिन सताते है-
कारी कूर कोकिल! कहां कौ बैर काढति री,
कूकि कूकि अबही करेजो किन कोरि ले। 
संदेश-प्रेषणीयताः-घनानंद के विरह में एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमें विरही अपने विरह के संदेश को बडे अनूठे ढंग से अपने प्रिय के पास भेजती है। उसने इस दूत कार्य के लिए ऐसे धीर गंभीर विरही को चुना है, जो उसी की तरह विरह की आग को अपने हृदय में छिपाये हुए हैं, जो उसी की तरह प्रिय के वियोग में मदमत होकर धुमता रहता है, जो दूसरों के लिए ही अपना शरीर धारण किए हुए है और जो दूसरों के के लिए ही उत्पन्न होने के कारण परजन्य (बादल) कहलाता है। एसे धीर गंभीर सज्जन से दूत कार्य कराना सर्वथा उचित ही है, क्योंकि वह समुद्र के खाने पानी को भी अमृत तुल्य बना देता है और सबको जीवनदान देता है।
पर काजहिं देह को धारि फिरों परजन्य जथारथ है दर सौ।
नीधि-नीर सुधा के समान करौ सबही विधि सज्जनता सरसौ।
घनआनन्द जीवन दायक है कुछ मेरीयों पीर हियै परसौ।
कबहू वा विसासी सुजान के आगन मो असुवानि हुलै वरसौ।। 
सात्विकता एवं आध्यात्मिकता:-घनानंद के विरह में अंतिम और सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें तनिक भी वासना की गंध नही है, कहीं भी अश्लीलता नही है, किसी भी स्थल पर कामुकता नहीं है और कोई भी उक्ति कामपरक नही है। यहां प्रत्येक पर में सात्विकता है, प्रत्येक पद प्रेम की पवित्रता है, प्रत्येक छंद में प्रेम की दिव्यता है और प्रत्येक उक्ति में काम-जन्य वासना से सर्वथा परे आध्यात्मिक वंदना की शुद्धता है।
लहा छेह कहाधौं मचाय रहे ब्रजमोहन हौ उत नींद भरे हौ।
मिली होति न भैंट दूरे उधरौ ठहरै ठहरानि क लाभ परे हौ।।
घनाआंनद छाय रहौ नित हो हित प्यासनि चातक ज्ञात परे हौ।। घनानंद की विरहानुभूति में शुद्ध एवं सात्विक विरह की व्यंजना की हुई है, इसमें हृदय की गहराई अधिक है। अपनी यथार्थता, सात्विकता, पवित्रता एवं आध्यात्मिकता के कारण ही घनानंद की विरहानुभूति सर्वोत्कृष्ट है और अपनी इसी सात्विक विरह-भावना के कारण घनानंद हिन्दी के सर्वोत्कष्ट विरही कवि है।

घनानंद का अनुभूति पक्ष या भावपक्ष
घनानंद की अनुभूति पक्ष या भाव पक्ष का समयक् अनुशीलन करने के लिए उनके काव्य में भी यह देखते की चेष्टा की जाएगी कि घनानंद ने विविध वस्तुओं के वर्णन कैसे किये है, विविध भागों के निरूपण में कैसा कौशल दिखाया ही, विविध रखों की अभिव्यंजना में कैसी दक्षता प्रकट की है और विविध सौन्दर्य चित्रों को अंकित करने में अपनी जो कला-चातुरी व्यक्त की है, उसे निम्न भागों विभक्त किया गया है-
वस्तु वर्णन - घनानंद ने ब्रज प्रदेश के प्रति अपनी गहन आस्था एवं असीम श्रद्धा व्यक्त की है और इसी कारण उन्होने ब्रज के गांवों, यमुना, वृन्दावन आदि का अत्यंत सजीवता से निरूपण किया है।
जमुना तीर गांव राजनि। कहा कहौं गोकुल-छवि-छाजनि।।
गोकुल -छवि आखिनि हीं भावै। रही न सकै रस न कछु गावै।। 
इसी तरह ब्रज के अन्य स्थानों का वर्णन करते हुए घनानंद ने सर्वाधिक वृन्दावन की मंजुल छवि का निरूपण किया है।
वृन्दावन छवि कहत न आवै। सौ कैसे कहि कोऊ गावै।।
तीर भूमि बनि रह्यौ सदावन। जै जमुना जै जै वृन्दावन।। 
इसी प्रकार घनानंद ने ब्रज के घर, गांव, गली, गलियारे, घाट, पनघट, गापे, गौप, ग्वाल - बाल, गाय, वृंदावन, बरसाना, गोवर्धन आदि का अत्यंत विस्तृत वर्णन किया है।प्रकृति चित्रण:- घनानंद ने प्रकृति के अत्यंत रमणीय चित्र अंकित किये हैं। वे सच्चे प्रकृति प्रेमी थे और प्रकृति के साथ उनका साहचर्य भी अधिक रहा था। इसलिए उन्होंने प्रकृति के अनेक सुन्दर एवं सजीव चित्र अंकित किये हैं।
घुमड़ि पराग लता-तरु भोए। मधुरितु-सौंज-समोए।।
वन बसंत वरनत मन फूल्यौ। लता-लता झूलनि संग झूल्यो।। 
प्रकृति के आलंबन रूप की अपेक्षा घनानंद ने प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण अधिक सरसता एवं मार्मिकता के साथ किया है, क्योंकि घनानंद का काव्य विरह प्रधान है और विरह में प्रकृति प्रायः विरही जानों के भावों को उद्दीप्त करती हुई दिखाई जाती है।
लहकि लहकि आवै ज्यौं पुरवाई पौन,
दहकि दहकि त्यौं त्यौं तन तांवरे तवै।
बहकि बहकि जात बदरा बिलोकें हियौ,
गहकि गहकि गहबरनि गरै मचै।
चहकि चहकि डारै चपला चखनि चाहैं,
कैसे घन आनन्द सुजान बिन ज्यौं बचे। 
भाव निरूपण - घनानंद की कविता भावों का भंडार है, क्योंकि घनानंद ने ऐसे मार्मिक भावों का चित्रण किया है कि देखते ही बनता है और एक साधारण कवि जहां तक पहुँच नहीं सकता। धनानंद की इस भाव निरूपण पद्धति पर सर्वत्र उनके गहन प्रेम की छाप है इसी कारण उनके सभी भाव चित्र इतने मनोरंजक एवं आकर्षक बन पडे हैं कि पाठकों एवं श्रोताओं के हृदय उन्हें पढ़कर एवं सुनकर आनंद के सागर में डुबकियां लगाने लगते हैं।

नैन कहैं सुनि रे मन! कान दै क्यों इतनी गुन मोहि दयौ है।
सुन्दर प्यारे सुजान कौ मंदिर बाबरे तू हम ही ते भयौ है।।
लोभी तिन्हें तन कों न दिखावत ऐसो महामद छाकि गयौ है।
कीजिए जू घन आनंद आय कै पायै परौ यह न्याय नयौ है।। 
इसी तरह घनानंद ने उपालम्भ के द्वारा 'स्मृति' का चित्र अंकित करते हुए आवेग, अमर्ष, उग्रता, ग्लानि आदि भावों का बड़ा ही मार्मिक निरूपण किया है-

क्यों हंसि हेरि हर्यो हियरा अरू क्यों हित कै चित्त चाह बढाई।
काहे को बोलि सुधासने बैननि चैननि मैन-निसैन चढाई।।
सो सुधि मोहिय मैं घन आनन्द सालति क्यों हूॅ कढै न कढाई।
मीत सुजान अनीत की पाटी इतै पै न जानियै कौने पढाई।। 
रस निरूपण -घनानंद ने मुख्यता संयोग श्रृंगार, वियोग श्रृंगार एवं भक्ति का निरूपण किया है। इसमें से भी घनानंद वियोग श्रृंगार के ही कवि है, वियोग के ही अद्वितीय चितेरे हैं। और इनके काव्य में वियोग श्रृंगार का ही पूर्ण परिपक्व अधिक मार्मिकता एवं सजीवता के साथ हुआ है। इसीलिए वे अपनी संजीवन-मूर्ति 'सुजान' के वियोग में रात-दिन व्यथित रहते हैं। सोने पर भी सो नहीं पाते, जागने पर भी जाग नहीं पाते, विचित्र सी पीड़ा नित्य आँखों में रह रहकर आती है, अमृत विष तुल्य प्रतित होता है। फूल शूल जैसे लगते हैं, चंद्रमा अंधकार उगलता जान पडता है, पानी संपूर्ण अंगों को जलाता है, राग-रागनियां अच्छी नहीं लगती गुण दोष में बदल गये हैं, औषधियां रोग पैदा करने वाली हो गयी हैं और रस विरस जान पड़ते हैं। इस तरह 'सुजान' के मान फेर लेने से दिन भी फिर गये है। और न जाने अब कैसे दिन बीतेंगें। घनानंद ने इस व्यथा एवं पीड़ा का मार्मिक निरूपण किया है।
सुधा तें स्त्रवत विष, फूल में जगत सूल,
तम उगिलत चंदा, भई नई रीति है।
जल जारै अंग, और राग कर सुर भंग,
संपति विपति पारै, बडी विपरीत है।।
सहागुन गहै दोषैं, औषधि हूॅ रोग पोषै,
ऐसे जान रस माहि बिरस अनीति है।
दिनन को फेर मोहिं तुम मन फेरि डार्यो,
एहो घनाआनंद! न जानौं कैसे बीति है।। 
सौंदर्य चित्रण - घनानंद ने रूप सौंदर्य के कितने ही अत्यंत मनोहारी चित्र अंकित किये है, जिनमें अपनी प्राणप्रिया सुजान' की विविध रूप छवियाॅ अत्यंत माधुर्य एवं गाम्भीर्य के साथ विद्यमान है। घनानंद ने इन रूप-चित्रों में आँख, नाक, कान, मुख, अंग-प्रत्यंग आदि को अलग-अलग दिखाने की उतनी प्रवृत्ति नहीं दिखाई देती, जितनी कि उन्होंने संपूर्ण अंग की अतिशय रमणीयता एवं प्रभविष्णुता को दिखाने का प्रयास किया है। घनानंद के इन सौंदर्य-चित्रों में सुजान का रूप, उसका लावण्य, उसकी छवि, उसकी कान्ति, उसकी अंग-दीप्ति आदि मानों साकार हो उठी है-
स्याम घटा लपटी थिर बीज कि सोहै अमाावस-अंग उज्यारी।
धूम के पुंज मैं ज्वाल की माल सी पै दृग सीतलता-सुखकारी।।
कै छवि छायौं सिंगार निहारि सुजान-तिया-तनं-दिपति प्यारी।
कैसी फवी घन आनन्द चोपानि सौ पहिरी चुनि सांवरी सारी।। 
इसी प्रकार घनानंद ने अंग-अंग में द्युति की तरंग उठने वाले पार्थिव रूप-सौंदर्य को बड़ी तन्मयता एवं तत्परता के साथ शब्दों में डालकर अंकित किया है।

घनानंद का अभिव्यक्ति पक्ष या कला पक्ष
किसी कवि के अभिव्यक्ति पक्ष से तात्पर्य उसकी उस वर्णन पद्धति से है, जिसमें वह अपनी अनुभूति को अभिव्यक्ति करता है। इसके लिए वह अनेक उपकरणों का सहारा लेता है और इन उपकरणों द्वारा कलात्मक ढंग से अपनी अनुभूति को वाणी प्रदान करता है। इसलिए अभिव्यक्ति पक्ष को कला पक्ष भी कहते हैं और इसके अंतर्गत कला के वे सभी उपकरण आते हैं, जिनके माध्यम से अनुभूति को अभिव्यक्ति प्रदान की जाती है, अर्थात भाषा, अलंकार, गुण, वृत्ति, शब्द शक्ति, छंद आदि कला को संपूर्ण अवयवों का विवेचन अभिव्यक्ति पक्ष के अंतर्गत होता है।
  • भाषा - घनानंद ने ब्रजभाषा में अपनी सरस काव्य-धारा प्रवाहित की है। उनकी ब्रजभाषा में सर्वत्र स्वच्छता, एकरूपता एवं सुघडता के दर्शन होते हैं। घनानंद ब्रजभाषा के अत्यंत प्रवीण कवि थे। इसी कारण उनकी भाषा के अनुकूल चलने की अपूर्व शक्ति दिखाई देती है, वह नई-नई भंगिमाओं के द्वारा भावों को प्रस्तुत करने में बड़ी निपुण जान पडती है और उसका रचना-कौशल कारीगरी तथा रूप-विधान सभी कुछ असाधारण एवं अद्वितीय जान पड़ता है। घनानंद का भाषा पर इतना अधिक अधिकार दिखाई पडता है कि वह कवि की वशवर्तिनी होकर उनके इशारे पर नाचती है, उनके कहने पर चलती है, उनके आदेश पर कार्य करती है। ऐसा जान पड़ता है कि घनानंद ब्रजभाषा की नाडी पहचानते थे, उसके निश्चित प्रयोगों को जानते थे और उसकी नस-नस से परिचित थे। इसी प्रकार घनानंद ने बडी स्वच्छता और सुंदरता के साथ ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, उसके एक-एक शब्द की स्थापना की है और उसे अपने अभीष्ट लक्ष्य की पूर्ति के लिए गति प्रदान की है। ब्रजभाषा पर ऐसा साधारण अधिकार अन्य किसी हिन्दी कवि का दिखाई नहीं देता। घनानंद की भाषा साफ-सुथरी और अत्यंत निखरी है तथा उसमें भावों के निरूपण की अनन्त शक्ति भरी हुई है।
  • शब्द शक्ति - शब्द की तीन शक्तियां होती है- अभिधा, लक्षण और व्यंजना। जिनमें ये शक्तियां होती है, वे शब्द भी तीन प्रकार के होते हैं-वाचक, लक्षक और व्यंजक शब्दों एवं लक्ष्यार्थ एवं व्यंग्यार्थ की प्रधानता है। घनानंद ने सबसे अधिक उक्ति-वैचित्र्य का सहारा लिया है। इसलिए इनके काव्य में अभिधा की अपेक्षा एवं व्यंजना लक्षण-प्रधान माना जाता है। कविवर घनानंद ने उक्ति-चमत्कार के लिए, भावों को गहन बनाने के लिए तथा सरसता उत्पन्न करने के लिए ही लाक्षणिक प्रयोगों को अधिक अपनाया है।
  • अलंकार - काव्य में अलंकारों का प्रयोग भी कथन में चारूता एवं भव्यता लाने के लिए होता है। इसलिए अलंकारों को कथन की प्रणाली बतलाया गया है, भावों की तीव्रता करने वाली योजना कहा गया है और वस्तुओं के रूप, गुण एवं क्रिया को अधिक तीव्र गति से अनुभव कराने वाली युक्ति बतलाया गया है। निस्संदेह अलंकारों के दो ही कार्य होते हैं- एक तो वे भावों का उत्कर्ष दिखाया करते हैं और दूसरे वे वस्तुओं के रूप अनुभव गुणानुभव और क्रियानुभव को तीव्रता प्रदान करते हैं। घनानंद के काव्य में जहां रस और भावों में अधिक्य है वहाँ अलंकारों ने उन्हें और भी अधिक सजीवता एवं प्रभविष्णुता (दूसरों पर प्रभाव डालने वाला) प्रदान की है। घनानंद ने दोनों प्रकार के अलंकार अपनाएं हैं, यहाँ शब्दालंकार भी है और अर्थालंकार भी।
  • गुण - काव्य के तीन प्रमुख गुण माने गये हैं- माधुर्य, ओज और प्रसाद। माधुर्य गुण अन्तःकरण को आनंद से द्रवीभूत करने वाला होता है, ओज गुण चित्त में स्फूर्ति उत्पन्न करने वाला होता है और प्रसाद गुण श्रवण मात्र से काव्य की शीघ्र अर्थ-प्रतीत कराने वाला होता है। साहित्य शास्त्रियों ने अलंकारों के बिना भी काव्य रचना हो सकती है, किंतु गुणों के बिना काव्य रचना नहीं होती। यदि कोई काव्य बिना किसी गुण के रचा भी जाता है तो वह निर्जीव नीरस एवं निरर्थक होता हैं। घनानंद के काव्य में सर्वत्र माधुर्य गुण की प्रधानता है क्योंकि माधुर्य गुण की अनुभूति गुण की अनुभूति सर्वाधिक विप्रलम्भ श्रृंगार अथवा विरह-निरूपण में होती है और घनानंद ने सबसे अधिक विरह का ही वर्णन किया है।
    रैन दिना धुटिबौ करें प्रान झरैं अखियां झरना सो।
    प्रीतम की सुधि अन्तर मैं कसकै सखी ज्यौ पॅसरीन में गाॅसी।।
  • छंद - काव्य का छंद से नित्य सम्बन्ध तो नहीं हैं क्योंकि बिना छंद-बंध के भी काव्य रचना होती है, किंतु छंद से काव्य में एक ऐसी प्रभविष्णुता आ जाती है, जिससे काव्य पाठकों एवं श्रोताओं के हृदय में उतरता चला जाता है और उनका कंठ हार बन जाता है। घनानंद का सारा काव्य छंद की रस-माधुरी से ओत प्रोत है, उसमें प्राणों का संगीत भरा हुआ है। और वह कवि की हृदय-वीणा के तारों की मधुर झंकार से झंकृत है। घनानंद की छंद रचना पर विचार करने से ज्ञात होता है कि घनानंद ने विविध प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है। जैसे-सवैया, कवित्त, त्रिलोकी, ताटंक, निसाती, सुमेरू, शोभन, त्रिभंगी, दोहा, चौपाई तथा घनाक्षरी पद। इनमें से घनानंद ने मुख्यतया सवैया एवं कवित्त छन्दों का प्रयोग अत्यंत प्रभावशाली ढंग से किया है। घनानंद के सर्वथा तो हिन्दी जगत में सर्वाधिक प्रसिद्ध है और उन्हें सर्वथा छंद का सिरताज कहना सवैया समीचीन ज्ञात होता है। इस प्रकार घनानंद की कविता विविध प्रकार के कलात्मक सौंदर्य से ओत प्रोत है उसमें जितनी अनुभूति है, उतनी ही गहन अभिव्यक्ति भी है।
रीतिमुक्त स्वच्छंद काव्यधारा में घनानंद का स्थान - हिन्दी की संपूर्ण स्वच्छंद प्रेम काव्यधारा का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि इस धारा के प्रमुख कवियो में से रसखान, आलम, घनानंद, ठाकुर और बोधा के नाम उल्लेखनीय है। ये सभी कवि प्रेम काव्य के प्रमुखप्रणेता है और इन्होने स्वच्छंदता के साथ प्रेमानुभूति का बडा ही मर्मस्पर्शी वर्णन किया है, परन्तु इनमें से घनानंद सर्वश्रेष्ठ कवि है, क्योंकि घनानंद के काव्य में रसखान की सी प्रेम की अनिर्वचनीयता भी हैं, परन्तु इन सबसे बढ़कर घनानंद में कुछ ऐसे असाधारण काव्य सौष्ठव के दर्शन होते हैं, जो न रसखान में है, न आलम में हैं, न ठाकुर में है और न बोध मे ही है। घनानंद ने 'सुजान' केा आलम्बन बनाकर अपनी इस लौकिक प्रेयसी के रूप-सौंदर्य का इतना मार्मिक एवं मनोरंजक वर्णन किया है कि देखते ही बनता है। सुजान की तिरछी चितवन, धुमते कटाक्ष, रसिली हँसी, मृदु-मुस्कान, अरूण होठ कान्तिमंडित दंतावलि, सचिवकण, केशराशि, वक्रिम भौंहें, विशाल नैत्र, गर्वीली मुदा, उन्तम यौवन आदि परमुग्ध घनानंद ने उसकी रूप निकाई के अनेक संश्लिष्टप्त चित्र अंकित करते हुए जहाँ अपनी प्रेम-विभोरता का परिचय दिया है, वहाँ मुहम्मद शाह रंगीले दरबार की इस नर्तकी के प्रति अपना ऐसा प्रणय-निवेदन किया है, जो हिन्दी काव्यकी स्थायी सम्पत्ति बन गया है। घनानंद की श्रेष्ठता का सबसे बडा करण यह है कि घनानंद के हृदय में सुजान के प्रति उत्कृष्ट प्रेम एवं असीम व्यामोह भरा हुआ था, उनके मन में सुजान की अक्षय रूप राशि समाई हुई थी। इसीलिए घनानंद का काव्य प्रेम की गूढता से भरा हुआ था, उनके मन में सुजान की अक्षय रूप राशि समाई थी। इसीलिए घनानंद का काव्य प्रेम की गूढता से भरा हुआ है, अतृप्ति की अनंतता से भरा हुआ है, अन्तद्र्वद्व की अलौकिकता से भरा हुआ है, वेदना की अक्षयता से भरा हुआ हैं और तीव्रानुभूति की अखंडता से भरा हुआ है, क्योंकि घनानंद का सा उक्ति वैचित्रय और कोई कवि दिखा नहीं सका है, उनकी सी लाक्षाणिक मूर्तिमत्ता किसी की भी रचना में दृष्टिगोचर नहीं होती और उनका सा प्रयोग वैचित्रय कहीं ढूढ़ने पर भी नहीं मिलता है। निःसंदेह वे प्रेम के इतने धनी थे, उतने ही भाषा के भी धनी थे और उतने ही अभिव्यंजना के भी धनी थे। इसी कारण हिन्दी काव्य की रीतिमुक्त स्वच्छंद प्रेम धारा में घनानंद का शीर्षस्थ स्थान है।
घनानंद की रचनाएँ - घनानंद द्वारा लिखित कई ग्रन्थ है। सबसे पहले भारतेन्दु हरिशचन्द्र ने ’सुजान शतक’ नामक पुस्तक में घनानंद कविताओं का संकलन किया। इसके अतिरिक्त ’सुजानहित’तथा ’सुजान सागर’ नामक संकलन भी प्रकाश में आया। इस क्षेत्र में आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र द्वारा घनानंद पर किया गया शोध कार्य बड़ा सार्थक सिद्ध हुआ। उन्होंने घनानंद के कविताओं को संकलित कर तीन पुस्तकें प्रकाशित की। प्रथम ’घनानंद कवित’ जिसमें 502 कवित्त संग्रहित है। द्वितीय संकलन सन् 1945 में प्रकाशित हुआ जिसमें कवित्त सवैयों के अतिरिक्त घनानंद के 500 पद तथा उनकी ’वियोग बेलि’, ’यमुना यश’, ’प्रीति पावस’ तथा ’प्रेम पत्रिका’ रचनाओं का संग्रह है। इसके बाद सन् 1952 में घनानंद की अन्य 36 कृतियों का संकलन करते हुए ’घनानंद ग्रंथावली’ का प्रकाशन हुआ। काशी नागरी प्रचारिणी महासभा ने 2000 सम्वत् तक की खोज के आधार पर निम्नलिखित कृतियों को उनका माना है- 1. घनानन्द कवित्त 2. आनन्द घन के कवित्त 3. कवित्त 4. स्फुट कवित्त 5. आनन्द घन जू के कवित्त 6. सुजान हित 7. सुजानहित प्रबंध 8. कृपाकन्द निबंध 9. वियोग बेला 10. इश्क लता 11. जमुना-जस 12. आनन्द घन जी की पदावली 13. प्रीती पावस 14. सुजान विनोद 15. कविता संग्रह 16. रस केलि बल्ली 17. वृन्दावन सत।

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उल्टी के लक्षण, कारण, इलाज, दवा और उपचार



उल्टी आने के कई कारण हो सकते हैं। जब कभी हमारा शरीर किसी ऐसी चीज को ग्रहण कर लेता है जो संक्रमित हो, तो ऐसे में शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र उसे उल्टी के माध्यम से शरीर के बाहर भेज देता है। इसके अलावा भी ज्यादा खा लेने की वजह से, ज्यादा शराब पी लेने की वजह से, एसिडिटी या फिर माइग्रेन की वजह से उल्टी की समस्या होती है। गर्भवती महिलाओं को भी उल्टी की समस्या से काफी परेशान होना पड़ता है। इसके विभिन्न कारणों में स्टोमक के भीतर ब्लीडिंग होना, इन्फेक्शन, इरिटेशन, इन्टेस्टाइन में ब्लॉकेज, बॉडी केमिकल्स और मिनरल्स कम-ज्यादा होना, बॉडी में टॉक्सिसिटी होना भी शामिल हैं।

ultee ke lakshan, kaaran, ilaaj, dava aur upachaar
ultee ke lakshan, kaaran, ilaaj, dava aur upachaar
  1. उल्टी के कारण कई तरह के हो सकते हैं जिनमें फूड-पॉइजनिंग, इन्फेक्शन, ब्रेन और सेंट्रल नर्वस सिस्टम में समस्या होना या कोई सिस्टमिक डिजीज होना शामिल हैं।
  2. कई बार उल्टी होने का कारण कोई दवाई का साइड इफ़ेक्ट,कैंसर कीमोथेरेपी में उपयोग में ली गई ड्रग्स या फिर रेडिएशन थेरेपी भी हो सकती हैं।
  3. कई बार अल्कोहल, बियर, वाइन और लिक्वर केमिकल-एसीटैल्डिहाइड में बदल जाते हैं,जिसके कारण अगली सुबह जी मिचलाना जैसी फीलिंग आती हैं जिसे हैंग-ओवर कहते हैं।
  4. कुछ बीमारियों में जी घबराना और उल्टी आना आम होता है। जबकि उस समय रोगी में गैस्ट्रो इंटेस्टाइनल ट्रैक्ट या स्टमक का उल्टी के लिए कोई कारण नहीं होता जैसे निमोनिया,हार्ट अटैक और सेप्सिस।
  5. कुछ वाइरल इन्फेक्शन, सर में लगी चोट, गालब्लेडर डिजीज, एपेंडीसाईटीस, माइग्रेन, ब्रेन ट्यूमर, ब्रेन इन्फेक्शन, हाइड्रोसिफेलस (ब्रेन में बहुत सा फ्लूइड जमा होना,सर्जरी में उपयोग आने वाले एनेस्थिशिया के साइड इफ़ेक्ट,स्टोमक प्रोब्लम जैसे ब्लॉकेज (पाइलोरिक ओबस्ट्रेकशन,वो स्थिति जिसके कारण बच्चों में फोर्सफुल थूक बाहर आता हैं) भी उल्टी के कारण हो सकते हैं।
  6. प्रेगनेंसी के दौरान जी मिचलाना और उल्टियां लगातार होती रहती हैं। सामान्यतः शुरुआती कुछ महीनों में मोर्निंग सिकनेस होती हैं लेकिन कई बार ये पूरे 9 महीने भी चल जाती हैं।
आयुर्वेद के अनुसार उल्टी के प्रकार और कारण
 उल्टी आना कोई गंभीर समस्या नहीं है, बल्कि दिनचर्या, खानपान में बदलाव के कारण भी ऐसी समस्याएं हो सकती हैं। लेकिन आयुर्वेद में उल्टी के इन 5 प्रकारों का वर्णन मिलता है।
  1. आगंतुज : इस तरह की उल्टी बदबू, गर्भावस्था, अरूचिकर भोजन, पेट में कीड़े या किसी स्थान विशेष पर जाने से हो सकती है। इस तरह की उल्टी को आगन्तुज छर्दि भी कहते हैं।
  2. कफज : कफ के कारण होने वाली उल्टी इस श्रेणी में आती है। इसमें उल्टी का रंग सफेद और प्रकार गाढ़ा होगा। इसका स्वाद मीठा होता है। मुंह में पानी भरना, शरीर का भारी होना, बार-बार नींद आना, जैसे लक्षण इस प्रकार की उल्टी में होना स्वाभाविक हैं।
  3. त्रिदोषज : त्रिदोषज उल्टी वह होती है जो वात, पित और कफ, तीनों कारणों के चलते होती है। यह गाढ़ी, नीले रंग की या खून की हो सकती है। स्वाद में नमकीन या खट्टी हो सकती है। इसके अलावा पेट में तेज दर्द, भूख में कमी, जलन, सांस लेने में परेशानी और बेहोशी भी इसके लक्षणों में शामिल है।
  4. पित्तज : पित्त की गर्मी के कारण होने वाली उल्टी पित्तज की श्रेणी में आती है। इस स्थिति में पीले, हरे रंग की उल्टी आती है और मुंह का स्वाद बेहद बुरा होती है। इसमें भोजन नली व गले में जलन हो सकती है। सिर घूमना, बेहोशी भी इसके लक्षणों में शामिल है।
  5. वातज : पेट में गैस से होने वाली उल्टी वातज की श्रेणी में आती है। इस तरह की उल्टी कम मात्रा में कड़वी, झाग वाली और पानी जैसी होती है। लेकिन कई बार इसके साथ सिर का दर्द, सीने में जलन, नाभि में जलन, खांसी और आवाज का खराब होना आदि समस्याएं भी होती हैं।
उल्टी रोकने के कुछ अन्य घरेलू इलाज
  1. खाने के तुरंत बाद ना सोयें।
  2. खाने के तुरंत बाद ब्रश ना करें, इससे वोमिट होने के सबसे ज्यादा चांस होते है।
  3. गुलुकोस, एलेक्ट्रोल जैसी चीज पीते रहें।
  4. जितना हो सके आराम करें।
  5. तेज सुगन्धित वाली जगह में ना बैठे, इससे जी और ज्यादा मचलाता है।
  6. बहुत हल्का एवं कम तेल मसाले वाला भोजन लें, एवं धीरे धीरे खाएं।
  7. वोमिट जैसा महसूस होने पर, एक एक घूँट पानी पीते रहें।
उल्टी रोकने के आयुर्वेदिक घरेलू इलाज
  1. अदरक पाचन-तन्त्र के लिए बहुत अच्छा होता हैं और उल्टियाँ रोकने के लिए प्राकृतिक रूप से एंटी-एमेटिक के जैसे काम करता हैं। एक चम्मच अदरक के रस और नीम्बू के रस को मिलाकर दिन में 2-4 बार लेने से उल्टियाँ होना और जी घबराना बंद हो जाता हैं। इसके अलावा अदरक के छोटे टुकड़े मुंह में रखने पर भी थोड़ी देर के लिए आराम मिलता हैं । शहद के साथ अदरक की चाय बनाकर भी ली जा सकती हैं।
  2. अदरक में पेट की हर समस्या से निपटने का इलाज होता है। इसके एक टुकड़े को कूचकर पानी में मिला लीजिए। इसमें एक चम्मच शहद मिलाकर इसका सेवन कीजिए। उल्टी से तुरंत लाभ मिलेगा।
  3. उल्टी आने की स्थिति में दो चार लौंग लेकर दांतों के नीचे दबा लें और इसका रस चूसते रहें। इसका स्वाद उल्टी को तुरंत रोकने में कारगर होता है। यह मुंह की तमाम समस्याओं का भी बेहतरीन निदान है। दांतों की सेंसिटिविटी के लिए लौंग अचूक औषधि है।
  4. उल्टी जैसा जी होने पर नींबू का एक टुकड़ा मुंह में रख लें। इससे उल्टी में काफी राहत मिलती है।
  5. एक चम्मच पुदीने की पत्ती का जूस,नींबू का रस और शहद मिलाकर दिन में 3 बार पीने से भी उल्टियां कम होने लगती हैं।
  6. एप्पल साइडर विनेगर भी बेचैनी को कम करता हैं,यह डीटॉक्सीफिकेशन भी करता हैं,इसमें एंटी-माइक्रोबियल गुण होने के कारण यह फूड-पॉइजनिंग भी सही करता हैं। एक चम्मच एप्पल साइडर विनेगर और एक चम्मच शहद को पानी में मिलाकर पीने से जी घबराना और उल्टी होना कम हो सकता हैं। उल्टी होने के कारण मुंह का खराब स्वाद और गंध भी इससे कम की जा सकती हैं। आधे कप पानी में 1 चम्मच विनेगर मिलाकर पीने से मुंह खराब स्वाद और गंध के कारण बार-बार उल्टियां नहीं होती।
  7. ऐसे में इस समस्या से निपटने के लिए आपको कुछ घरेलू उपाय जरूर आजमाने चाहिए। इससे आपको उल्टी की समस्या से तुरंत आराम मिलता है।
  8. कभी भी उल्टी आने पर पुदीने की चाय बनाकर पी लीजिए या फिर केवल उसकी पत्ती को चबाइए। उल्टी से तुरंत राहत मिल जाएगी।
  9. जामुन के पेड़ की छाल का पाउडर बना ले इसे 10 मिनट के लिए पानी में भिगोकर रखें,और अब इसमें 1 चम्मच शहद मिलाकर रोज 2-3 चम्मच इसे पीये। यह ब्लड शुगर को भी कम करता हैं इसलिए लोग इसे डाईबिटिज में भी पीते हैं।
  10. ताजा संतरे का जूस उल्टी में काफी लाभदायक ट्रीटमेंट है। इसके कई अन्य फायदे भी हैं। जैसे, यह शरीर में ब्लड प्रेशर के नियंत्रण के लिए भी बेहद लाभदायक है।
  11. दालचीनी भी जठर संबंधी समस्याओं को शांत करती हैं। इसे लेने से भी जी मिचलाना और उल्टी होने जैसे समस्याओं में कमी आती हैं। एक कप पानी में आधा चम्मच दालचीनी पाउडर डालकर उबालें और इस पानी को पिए,इसमें शहद भी मिला सकते हैं। हालांकि ये उपाय गर्भवती महिलाओं के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
  12. दिन में कई बार सैंफ चबाना उल्टी में बेहद फायदेमंद है। यह मुंह के स्वाद को बदलने के लिए भी प्रयोग किया जाता है। इसे खाने के बाद उल्टी से काफी राहत मिलती है।
  13. नींबू और प्याज का रस भी मिलाकर पीने से उल्टियां कम हो सकती हैं।
  14. पुदीने की चाय भी पाचन तन्त्र को संतुलित रखती हैं। यदि ताज़ी पत्तियां उपलब्ध हो तो उन्हें चबाए लेकिन यदि ना हो तो एक चम्मच सुखी पुदीने की पत्तियों को गर्म पानी में डालकर इसके चाय बनाए।
  15. पेट की एसिडिटी शांत रखने के लिए तथा खाना हजम करने के लिए इलायची भी काफी कारगर उपाय है।
  16. मीठी तुलसी की पत्तियों की खुशबू भी उल्टी को कम करती हैं। इसका जूस बनाकर एक ग्लास गर्म पानी में 2 चम्मच शहद मिलाकर पीने से उल्टी होना और जी मिचलाना कम हो जाते हैं।
  17. यदि डॉक्टर की सलाह ले चुके हो या फिर उल्टी होने का कारण समझ आ चुका हो, तो कुछ घरेलू उपायों से भी लगातार होने वाली उल्टियों को रोका जा सकता हैं।
  18. लौंग भी गैस्ट्रिक इरिटेबिलिटी को कम करती हैं, लौंग की चाय बनाई जा सकती हैं या फिर तले हुए लौंग को शहद के साथ मिलाकर भी लिया जा सकता हैं।


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गुर्दे के पथरी के रामबाण घरेलू उपाय एवं उपचार



किडनी में पथरी होना एक आम समस्या हो गई है। हमारी जिन्दगी में किडनी स्टोन गलत खानपान का नतीजा है और लगातार इसके मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। यूरिक एसिड, फास्फोरस, कैल्शियम और ऑक्जेलिक एसिड। यही सारे तत्व स्टोन बनाने के लिए उत्तरदायी होते हैं। कुछ पथरी रेत के दानों की तरह बहुत छोटे आकार के होते हैं तो कुछ मटर के दाने की तरह। इसके साथ ही बहुत अधिक मात्रा में विटामिन डी के सेवन से, डिहाइड्रेशन और अनियमित डाइट की वजह से भी किडनी में स्टोन हो जाता है। आमतौर पर पथरी मूत्र के जरिये शरीर के बाहर निकल जाती है, लेकिन जो पथरी बड़ी होती है वह बहुत ही परेशान करती है। किडनी में स्टोन हो जाने पर पेट में हर वक्त दर्द बना रहता है।
घर के बुजुर्गों के पास अक्सर हर दर्द का इलाज होता है और हम लोगो ने अपने घर में बड़े बुजुर्गों जैसे कि दादा-दादी या नाना-नानी को कहते सुना होगा कि सुबह खाली पेट 3-4 गिलास पानी पीने से पेट की सारी बीमारियां दूर हो जाती हैं। ऐसे ही कितने घरेलू नुस्खे हमें दादी और अन्य लोगों से सुनने को मिले हैं। आज हम पेट और किडनी में पथरी के इलाज के लिए दादी मां के कुछ नुस्खे यानी ऐसे नुस्खे जानेंगे जिन्हें आप घर पर आजमा सकते हैं -
  1. 2-15 दाने बड़ी इलायची, एक चम्मच खरबूजे के बीज की गिरी और दो चम्मच मिश्री एक कप पानी में पीस-मिलाकर सुबह-शाम दो बार पीने से पथरी निकल जाती है।
  2. अजवाइन किडनी के लिए टॉनिक के रूप में काम करता है। किडनी में स्टोन के गठन को रोकने के लिए अजवाइन का इस्तेमाल मसाले के रूप में या चाय में नियमित रूप से किया जा सकता है।
  3. अनार का रस किडनी स्टोन के खिलाफ बहुत ही असरदार और सरल घरेलू उपाय है। अनार के कई स्वास्थ्य लाभ के अलावा इसके बीज और रस में खट्टेपन और कसैले गुण के कारण इसे किडनी स्टोन के लिए प्राकृतिक उपाय के रूप में माना जाता है।
  4. आंवला भी पथरी में बहुत फायदा करता है। आंवला का चूर्ण मूली के साथ खाने से मूत्राशय की पथरी निकल जाती है।
  5. करेला बुहत कड़वा होता है और आमतौर पर लोग इसे कम पसंदकरते हैं, लेकिन किडनी स्टोन के मरीजों के लिए यह रामबाण की तरह है।करेले में मैग्नीशियम और फॉस्फोरस नामक तत्त्व होते हैं,जो पथरी को बनने से रोकते हैं। इसलिए किडनी स्टोन की समस्या पर होनेकरेले का सेवनकरना चाहिए।
  6. किडनी स्टोन को बाहर निकालने के लिए बथुआ का साग बहुत ही कारगर माना जाता है। इसके लिए आधा किलो बथुआ के साग को उबालकर छान लें। अब इसे पानी में जरा सी काली मिर्च, जीरा और हल्का सा सेंधा नमक मिलाकर दिन में चार बार पिए, किडनी स्टोन में फायदा होगा।
  7. किडनी स्टोन से छुटकारा दिलाने में अंगूर महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अंगूर प्राकृतिक मूत्रवर्धक के रूप में कार्य करता है, क्योंकि इसमें पोटेशियम और पानी भरपूर मात्रा में होता है। अंगूर में अलबूमीन और सोडियम क्लोराइड बहुत ही कम मात्रा में होते हैं, जिनकी वजह से इन्हें किडनी स्टोन के उपचार के लिए अच्छा माना जाता है।
  8. जीरे और चीनी को समान मात्रा में पीसकर एक-एक चम्मच ठंडे पानी से रोज तीन बार लेने से लाभ होता है और पथरी निकल जाती है।
  9. जैतून के तेल के साथ नींबू का रस मिलाकर सेवन करने से किडनी स्टोन में फायदा होता है। दर्द होने पर 60 मिलीलीटर नींबू के रस में उतनी ही मात्रा में आर्गेनिक जैतून का तेल मिलाकर सेवन करने से इसके दर्द से भी आराम मिलता है। नींबू का रस और जैतून का तेल पूरे स्वास्थ्य के लिए अच्छा रहता है और यह आसानी से उपलब्ध भी हो जाता हैं।
  10. तीन हल्की कच्ची भिंड़ी को पतली-पतली लंबी-लंबी काट लें। कांच के बर्तन में दो लीटर पानी में कटी हुई भिंड़ी ड़ालकर रात भर के लिए रख दें। सुबह भिंड़ी को उसी पानी में निचोड़कर भिंड़ी को निकाल लें। ये सारा पानी दो घंटों के अंदर-अंदर पी लें। इससे किड़नी की पथरी से छुटकारा मिलता है।
  11. तुलसी की चाय पीने से किडनी स्टोन से निजात मिलता है। तुलसी का रस लेने से पथरी को पेशाब के रास्ते निकलने में मदद मिलती है। कम से कम एक महीना तुलसी के पत्तों के रस के साथ शहद लेने से किडनी स्टोन की समस्या से छुटकारा मिल सकता है। तुलसी के कुछ ताजे पत्ते रोजाना चबा भी सकते हैं, यह बहुत ही फायदेमंद है।
  12. नारियल का पानी पीने से पथरी में फायदा होता है। पथरी होने पर नारियल का पानी पीना चाहिए।
  13. पका हुआ जामुन पथरी से निजात दिलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पथरी होने पर पका हुआ जामुन खाना चाहिए।
  14. प्याज में स्टोन नाशक तत्त्व होते है इसका प्रयोगकर किडनी स्टोन से निजात पा सकते है। लगभग 70 ग्राम प्याज को पीसकर और उसका रस निकालकर पिए। सुबह खाली पेट प्याज के रस का नियमित सेवन करने से पथरी के छोटे-छोटे टुकड़ों में होकर निकल जाती है।
  15. मिश्री, सौंफ, सूखा धनिया लेकर 50-50 ग्राम मात्रा में लेकर डेढ़ लीटर पानी में रात को भिगोकर रख दीजिए। अगली शाम को इनको पानी से छानकर पीस लीजिए और पानी में मिलाकर एक घोल बना लीजिए, इस घोल को पीजिए। पथरी निकल जाएगी।
  16. सहजन की सब्जी खाने से गुर्दे की पथरी टूटकर बाहर निकल जाती है। आम के पत्ते छांव में सुखाकर बहुत बारीक पीस लें और आठ ग्राम रोज पानी के साथ लीजिए, फायदा होगा।
  17. स्टोन की समस्या से निपटने के लिए केले का सेवनकरना चाहिए। इसमें विटामिन बी-6 होता है। विटामिन बी-6 ऑक्जेलेट क्रिस्टल को बनने से रोकता और तोड़ता है। इसके अलावा विटामिन बी-6,विटामिन बी के अन्य विटामिन के साथ सेवनकरना किडनी स्टोन के इलाज में काफी मददगार होता है। एक शोध के मुताबिक विटामिन बी की 100 से 150 मिलीग्राम दैनिक खुराक किडनी स्टोन के उपचार में बहुत फायदेमंद है।
डिस्क्लेमर: घरेलू इलाज के अलावा डॉक्टर से तुरंत संपर्क करें और जरूरी इलाज शुरू करें।


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प्रयागराज के महत्वपूर्ण धर्मस्थल





प्रयाग का प्राचीन इतिहास
वैसे तो प्रयाग क्षेत्र वैदिक और पौराणिक काल में समादृत रहा है, लेकिन ऐतिहासिक काल में भी इसके महत्व की चर्चा अनेक इतिहासकारों ने की है। जैन धर्म की श्रमण परम्परा में तीर्थंकर आदिनाथ का अक्षयवट के नीचे कैवल्य प्राप्त करना और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध का धर्म प्रचार हेतु यहां आना इस क्षेत्र की महत्ता का परिचायक है। प्रयाग के प्रतिष्ठानपुर (वर्तमान झूसी), वत्स देश (कौशाम्बी), अलर्कपुर (अरैल), प्राचीन राज्यों में रहे हैं। प्रतिष्ठानपुर की समकालीनता अयोध्या के सूर्यवंशी नरेश इक्ष्वाकु से मानी गयी है। कहा जाता है कि उस समय यहां के राजा इला थे। वत्स देश के महाराजा उदयन का वर्णन भी अनेक ग्रंथों में । सम्राट अशोक के शिलालेख स्तम्भ प्रयाग में आज भी सुरक्षित हैं। गुप्तकाल के बाद महाराजा हर्षवर्धन के शासनकाल में प्रयाग की कीर्ति पताका पूरे विश्व में लहरायी थी। कहते हैं कि महाराजा हर्षवर्धन ने ही दो महाकुंभ पर्वों के बीच छठवें वर्ष पर कुंभ पर्व आयोजित कराने की परम्परा का सूत्रपात किया था। मध्यकालीन इतिहास में अकबर के दरबारी अबुल फजल ने आईने-अकबरी में लिखा है कि हिन्दू लोग प्रयाग को तीर्थराज कहते हैं, यहीं पर गंगा, यमुना और सरस्वती तीनों का संगम है।
प्रयाग और स्वतंत्रता संग्राम भारत के स्वतंत्रता संग्राम में प्रयाग की अहम भूमिका रही है। उस समय के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में श्री मदन मोहन मालवीय, सर अयोध्या नाथ, सर सुंदर लाल, मोती लाल नेहरू आदि ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था धीरे धीरे इलाहाबाद स्वाधीनता आंदोलन का केंद्र बनता गया हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका सरस्वती यहीं से प्रकाशित हुई। अभ्युदय, स्वराज्य जैसे क्रान्तिकारी समाचार पत्र भी इसी धरती से प्रकाशित स्वाधीनता आंदोलन में अपनी भूमिका निभाई। साहित्य, संस्कृति और कला के क्षेत्र में प्रयाग यानी इलाहाबाद का अद्वितीय योगदान है।

प्रयाग का नामकरण एवं माहात्म्य
हमारा देश भारत विश्व की आत्मा कहलाता है और प्रयाग भारत का प्राण कहा गया है। हमारे देश को जीवनदायी शक्तियाँ इसी धरती से मिलती रही हैं। जिस तरह से सनातन धर्म अनादि कहा जाता है, उसी प्रकार प्रयाग की भी महिमा का कोई आदि अंत नहीं है। अरण्य और नदी संस्कृति के बीच जन्म लेकर ऋषियों-मुनियों की तपोभूमि के रूप में पंच तत्वों को पुष्पित-पल्लवित करने वाली प्रयाग की धरती देश को हमेशा ऊर्जा देती रही है।
प्रकृष्टं सर्वेभ्यः प्रयागमिति गीयते।
दृष्ट्वा प्रकृष्टयागेभ्यः पुष्टेभ्यो दक्षिणादिभिः।
प्रयागमिति तन्नाम कृतं हरिहरादिभिः ।
उत्कृष्ट यज्ञ और दान दक्षिणा आदि से सम्पन्न स्थल देखकर भगवान विष्णु एवं भगवान शंकर आदि देवताओं ने इसका नाम प्रयाग रख दिया। ऐसा उल्लेख कई पुराणों से मिलता है। तीर्थराज प्रयाग एक ऐसा पावन स्थल है, जिसकी महिमा हमारे सभी धर्मग्रंथों में वर्णित है। तीर्थराज प्रयाग को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रदाता कहा गया है। यह सभी तीर्थों में श्रेष्ठ है-यह वर्णन ब्रह्म पुराण में प्राप्त होता है :
प्रकृष्टत्वात्प्रयागोऽसौ प्राधान्यात् राजशब्दवान्।
अपने प्रकृष्टत्व अर्थात् उत्कृष्टता के कारण यह "प्रयाग" है और प्रधानता के कारण "राज" शब्द से युक्त है।

प्रयाग की महत्ता वेदों और पुराणों में सविस्तार बतायी गयी है। एक बार शेषनाग से ऋषियों ने भी यही प्रश्न किया था कि प्रयाग को तीर्थराज क्यों कहा जाता है, जिस पर शेषनाग ने उत्तर दिया कि एक ऐसा अवसर आया कि सभी तीर्थों की श्रेष्ठता की तुलना की जाने लगी। उस समय भारत में समस्त तीर्थों को तुला के एक पलड़े पर रखा गया और प्रयाग को एक पलड़े पर, फिर भी प्रयाग का पलड़ा भारी पड़ गया। दूसरी बार सप्तपुरियों को एक पलड़े में रखा गया और प्रयाग को दूसरे पलड़े पर, वहाँ भी प्रयाग वाला पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार प्रयाग की प्रधानता सिद्ध हुई और इसे तीर्थों का राजा कहा जाने लगा। इस पावन क्षेत्र में दान, पुण्य, तप कर्म, यज्ञादि के साथ साथ त्रिवेणी संगम का अतीव महत्व है। यह सम्पूर्ण विश्व का एकमात्र स्थान है, जहाँ पर तीन-तीन नदियाँ, अर्थात गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती मिलती हैं और यहीं से अन्य नदियों का अस्तित्व समाप्त हो कर आगे एकमात्र नदी गंगा का महत्व शेष रहा जाता है। इस भूमि पर स्वयं ब्रह्मा जी ने यज्ञादि कार्य सम्पन्न किये। ऋषियों और देवताओं ने त्रिवेणी संगम कर अपने आपको धन्य समझा। मत्स्य पुराण के अनुसार धर्म राज युधिष्ठिर ने एक बार मार्कण्डेय जी से पूछा, ऋषिवर यह बतायें कि प्रयाग क्यों जाना चाहिए और वहां संगम स्नान का क्या फल है इस पर महर्षि मार्कण्डेय ने उन्हें बताया कि प्रयाग के प्रतिष्ठान से लेकर वासुकि के हृदयोपरि पर्यन्त कम्बल और अश्वतर दो भाग हैं और बहुमूलक नाग हैं। यही प्रजापति का क्षेत्र है, जो तीनों लोकों में विख्यात है। यहाँ पर स्नान करने वाले दिव्य लोक को प्राप्त करते हैं, और उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। पद्मपुराण कहता है कि यह यज्ञ भूमि है देवताओं द्वारा सम्मानित इस भूमि में यदि थोड़ा भी दान किया जाता है तो उसका फल अनंत काल तक रहता है।
प्रयाग की श्रेष्ठता के संबंध यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार ग्रहों में सूर्य और नक्षत्रों में चंद्रमा श्रेष्ठ होता है, उसी तरह तीर्थों में प्रयाग सर्वोत्तम तीर्थ है। ग्रहाणां च यथा सूर्यो नक्षत्राणां यथा शशी।
तीर्थानामुत्तमं तीर्थ प्रयागाख्यमनुत्तमम् ।। पद्म पुराण के ही अनुसार प्रयाग में, गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। इन नदियों के संगम में स्नान करने और गंगा जल पीने से मुक्ति मिलती है इसमें किंचित भी संदेह नहीं है। इसी तरह स्कंद पुराण, अग्नि पुराण, शिव पुराण, ब्रह्म पुराण, वामन पुराण, बृहन्नारदीय पुराण, मनुस्मृति, वाल्मीकीय रामायण, महाभारत, रघुवंश महाकाव्यम् आदि में भी प्रयाग की महत्ता का विस्तार से वर्णन किया गया है। वाल्मीकि रामायण में कहा गया है कि श्री राम अपने वनवास काल में जब ऋषि भारद्वाज से मिलने गए तो वार्तालाप में ऋषिवर ने कहा हे राम गंगा, यमुना के संगम का जो स्थान है, वह बहुत ही पवित्र है, आप वहां भी रह सकते हैं। श्री रामचरितमानस में तीर्थराज प्रयाग की महत्ता का वर्णन बहुत ही रोचक तरीके से और विस्तार से किया गया है-
माघ मकरगत रवि जब होई। तीरथ पतिहिं आव सब कोई।।
देव-दनुज किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनी।।
पूजहिं माधव पद जल जाता। परसि अछैवट हरषहिं गाता।।
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिवर मन भावन।।
तहां होइ मुनि रिसय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथ राजा।।
माघ के महीने में त्रिवेणी संगम स्नान का यह रोचक प्रसंग कुम्भ के समय साकार होता है। माघ में साधु संत प्रातःकाल संगम स्नान करके कथा कहते हुए ईश्वर के विविध स्वरूपों और तत्वों की विस्तार से चर्चा करते हैं।

माघ में संगम स्नान क्यों
Kumbh Sangam Prayagraj
Kumbh Sangam Prayagraj

तीर्थराज प्रयाग में माघ के महीने में विशेष रूप से कुंभ के अवसर पर गंगा, यमुना एवं अदृश्य सरस्वती के संगम में स्नान का बहुत ही महत्व बताया गया है। अनेक पुराणों में इसके प्रमाण भी मिलते हैं। ब्रह्म पुराण के अनुसार संगम स्नान का फल अश्वमेध यज्ञ के समान कहा गया है। अग्नि पुराण के अनुसार प्रयाग में प्रतिदिन स्नान का फल उतना ही है, जितना कि प्रतिदिन करोड़ों गायें दान करने से मिलता है। मत्स्यपुराण में कहा गया है कि दस हजार या उससे भी अधिक तीर्थों की यात्रा का जो पुण्य मिलता है, उतना ही माघ के महीने में संगम स्नान से मिलता है। पद्म पुराण में माघ मास में प्रयाग का दर्शन दुर्लभ कहा गया है और यदि यहां स्नान किया जाए तो वह और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। यहां पर मुंडन कराना भी श्रेष्ठ फलदायी कहा गया है। मत्स्य पुराण कहता है कि प्रयाग में मुंडन के पश्चात् संगम स्नान करना चाहिए। स्कंद पुराण के काशी खण्ड में भी प्रयाग में मुंडन की महत्ता बतायी गयी है। जैन धर्म मानने वाले यहाँ केशलुंचन को महत्वपूर्ण मानते हैं। आदि तीर्थंकर ऋषभदेव ने अक्षयवट के नीचे केशलुंचन किया था।

प्रयागराज के अन्य महत्वपूर्ण धर्मस्थल
प्रयाग में द्वादश माधव और विष्णुपीठ
प्रयागराज के मुख्य देवता विष्णु कहे गये हैं। इन्हें अलग-अलग नामों से जाना जाता है। प्रयाग क्षेत्र को स्थानीय स्तर पर माधव क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है।
1. श्री त्रिवेणी संगम आदिवट माधव
2. श्री असि माधव (नागवासुकि मन्दिर
3. श्री संकष्ट हर माधव (प्रतिष्ठान पुरी)
4. शंख माधव (छतनाग मुंशी बागीचा)
5. श्री आदिवेणी माधव (अरैल)
6. श्री चक्र माधव (अरैल)
7. श्री गदा माधव (छिवकी गाँव)
8. श्री पद्म माधव (बीकर देवरिया)
9. श्री मनोहर माधव (जानसेनगंज)
10. श्री बिन्दु माधव (द्रौपदी घाट)
11. श्री वेणी माधव (निराला मार्ग, दारागंज)
12. अनन्त माधव (ऑर्डिनेन्स डिपो फोर्ट)

प्रयागराज क्षेत्र में आठ नायकों का भी उल्लेख मिलता है -
त्रिवेणी माधवं सोमं भरद्वाजं च वासुकिम् ।
वन्देऽक्षयवट शेषं प्रयागं तीर्थनायकम् ।। 

शंकराचार्य मठ

विद्वता और तपस्या की साक्षात प्रतिमूर्ति स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती का नाम कौन नहीं जानता होगा? ज्योतिर्मठ बदरिकाश्रम को अपने तपोबल से जाग्रत करने वाले इन शंकराचार्य ने प्रयाग के महत्व को समझते हुए यहाँ एक मठ की स्थापना का संकल्प लिया। उन्होंने देखा कि अलोप शंकरी देवी के सामने एक शिव मंदिर है। स्वामी ब्रह्मानन्द जी को यह स्थान उपयुक्त लगा। यहाँ ज्योतिर्मठ का कार्यालय बनाया गया। स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती जी के ब्रह्मलीन होने के पश्चात उनके शिष्य स्वामी विष्णुदेवानंद सरस्वती ने इस मठ की गरिमा को बनाए रखा और उनके शिष्य शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती यहां निवास किया करते हैं।

शंकर विमान मण्डपम
Shankar Viman Mandapam - Prayagraj
Shankar Viman Mandapam - Prayagraj  
गंगा तट पर त्रिवेणी बांध में खंभे वाले मंदिर की चर्चा करते ही आदि शंकर विमान मण्डपम् की आकृति आँखों के सामने उभरने लगती है कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी चंद्रशेखर सरस्वती की देखरेख में निर्मित यह मंदिर प्रयाग की गरिमा को और उन्नत करता है। अभी तक अपने प्रकार का यह यहां अकेला मंदिर है। इसमें दक्षिण भारत के मंदिरों की शैली की सुंदर मूर्तियों के दर्शन होते है।

बड़े हनुमान जी
Bade Hanuman Ji Temple Prayagraj
Bade Hanuman Ji Temple Prayagraj

गंगा, यमुना तथा अदृश्य सरस्वती के पावन संगम तट पर, त्रिवेणी बांध के नीचे 'बड़े हनुमान जी का मंदिर स्थित है। इस मूर्ति के बारे में एक जनश्रुति है कि एक वणिक जो निःसंतान था, हनुमान जी की एक विशालकाय प्रतिमा बनवाकर नाव में लादकर ले जा रहा था। ऐसा कहा जाता है कि उस वैश्य की नाव इसी स्थान पर, जहाँ हनुमान जी का मंदिर स्थित है रूक गयी। रात्रि -स्वप्न में वैश्य को यह दिखाई दिया कि वह मूर्ति को इसी स्थान पर छोड़कर चला जाये । वणिक ऐसा करने के उपरान्त घर को लौट गया। इस प्रकार उस निःसन्तान वैश्य की मनोकामना पूर्ण हुई और इसी स्थान पर बाघम्बरी बाबा को हनुमान जी की मूर्ति का आभास हुआ। उन्हीं के संरक्षण में खुदाई से 'बड़े हनुमान जी की प्रतिमा मिली, उस स्थान से मूर्ति को उठाने का प्रयास किया गया, किन्तु मूर्ति उस स्थान से हिली भी नहीं। प्रयास असफल हो गया। अंततोगत्वा वहीं हनुमान जी के मंदिर का निर्माण कराया गया।

श्री तुलसीदास जी का बड़ा स्थान
तीर्थराज प्रयाग के परम पावन देवी स्थलों में 'श्री तुलसीदास जी का बड़ा स्थान' का अपना एक अलग ही महत्व है। यह स्थान वैष्णव सम्प्रदाय के उपासकों की पूजा स्थली है। प्रयाग के दारागंज मोहल्ले के दक्षिणी छोर पर स्थित यह स्थल पूरे देश में विख्यात है। कहा जाता है कि इसकी स्थापना मानस-रचयिता गोस्वामी तुलसीदास जी के समकालीन श्री देव मुरारी जी ने की थी, जो स्वयं को सिद्ध महात्मा थे। उनके गुरु का नाम श्री तुलसीदास था। उन्हीं के नाम पर इस स्थल का नाम "श्री तुलसीदास का बड़ा स्थान" पड़ा।

रामानन्दाचार्य मठ
प्राचीन भारतीय संतों, आचार्यों की श्रृंखला में श्री शंकराचार्य, माधवाचार्य, रामानुजाचार्य तथा निम्बार्काचार्य का नाम उल्लेखनीय है। स्मरणीय है कि प्राचीन भारतीय आचार्यों की श्रृंखला में उत्तर भारत के सर्वप्रथम नेतृत्व का श्रेय श्री रामानंदाचार्य को जाता है। आप ने राम भक्ति धारा को पूरे देश में संचारित कर उत्तर भारत के गौरव को जीवित रखा। उत्तर भारत में रामभक्ति रसधारा को प्रवाहित करने वाले श्री रामानंद प्रयाग के प्रथम नागरिक थे, जिन्होंने सम्पूर्ण भारत को राममय बनाया। आचार्य रामानंद की स्मृति में श्री रामानंदाचार्य मठ का निर्माण हुआ। वर्तमान समय में त्रिवेणी बांध के दक्षिणी किनारे पर किले से सटा श्री रामानंदाचार्य मठ प्रयाग के गौरव में अभिवृद्धि कर रहा है।
जंगमबाड़ी मठ नगर के दारागंज मुहल्ले में जंगमबाड़ी मठ की शाखा स्थापित है। वीरशैव मतावलंबियों का यह स्थान दशाश्वमेध घाट के पास है। कहा जाता है कि वीरशैव मत के प्रतिपादक स्वयं भगवान शिव थे। वीरशैव मतावलंबियों की विशेषता यह है कि वे अपने शरीर में सदैव शिवलिंग धारण किये रहते हैं।

शिव और सिद्धेश्वर महादेव मंदिर
संगम के निकट दारागंज मुहल्ले में स्थित शिवमठ सुदूर प्रांत में रहने वाले एक तपस्वी के भक्ति भाव और संस्कृति प्रेम का परिणाम है। शिव मठ का निर्माण उन्होंने अपनी सारी संपत्ति लगाकर स्थापित किया। दक्षिण भारत के तिरुनेलवेली जिले के वाहकुलम गाँव निवासी श्री वेंगा शिवन जो, आज से लगभग 160 वर्ष पूर्व अपनी सारी संपत्ति शिव मंदिर को समर्पित करने हेतु प्रयाग आ गये और धार्मिक वातावरण देखकर यहीं बसने का संकल्प किया। संस्कृत के विद्वान श्री वेंगा शिवन ने दक्षिण भारतीय तीर्थयात्रियों के निवास के उद्देश्य से शिव मठ की स्थापना की।

नागवासुकि
प्रयाग के अत्यन्त प्राचीन और पौराणिक स्थलों में नागवासुकि का पुष्ट प्रमाण है। वर्तमान समय में नागवासुकि का मंदिर दारागंज (बक्शी) मोहल्ले में स्थित है, जहां नागवासुकी की प्राचीन मूर्ति है वासुकि मध्य में प्रतिष्ठित हैं। उनके दोनों ओर नाग-नागिन के चार जोड़े कामदशाओं में उत्कीर्ण हैं। मंदिर के पूर्वी द्वार पर देहली में शंख बजाते हुए दो कीचक उत्कीर्ण हैं, जिनके बीच दो हाथियों के साथ कमल बना हुआ है। मन्दिर के गर्भगृह में फण धारी नाग-नागिन की पुरानी मूर्ति है। मंदिर में विघ्ननाशक गणेश जी की भी प्रतिमा है।
Nag Vasuki Temple Prayagraj

शक्तिपीठ
  1. अलोप शंकरी देवी - प्रयाग की ललिता पीठ के अलोप शंकरी देवी का अत्यधिक महत्व है। अलोपी बाग मोहल्ले में महानिर्वाणी पंचायती अखाड़े के अधीन देवी अलोपशंकरी का मन्दिर स्थित है। मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है, यहां एक चौकोर चबूतरा है, चबूतरे के मध्य एक कुंड है, जिसमें जल भरा रहता है। इस कुंड के ऊपर मंदिर की छत से लटका हुआ एक झूला है। मंदिर में इसी झूले और कुण्ड की पूजा की जाती है।
    Alopashankari Maa Temple Prayagraj
  2. माँ ललिता देवी - तीर्थराज प्रयाग स्थित ललिता पीठ अत्यन्त प्राचीन है, जिसका वर्णन मत्स्य पुराण, ब्रह्म पुराण, कुब्जिका तंत्र, रुद्रयामल तंत्र, तंत्र चूड़ामणि, शाक्तानन्द तरंगिणी, गन्धर्व तंत्र, देवी भागवत आदि ग्रन्थों में पाया जाता है। 51 शक्तिपीठों में वर्णित ललिता पीठ के सम्बन्ध में सती की उंगलियों के गिरने वाली एक कथा पायी जाती है, जिसका वर्णन पुराणों में है। प्रयाग के मीरापुर मोहल्ले में यह मंदिर स्थित है।
    Maa Lalita Devi Shakti Peeth Prayagraj
     Maa Lalita Devi Shakti Peeth Prayagraj
  3. कल्याणी देवी - अलोपशंकरी देवी के प्रसंग में 51 पीठों की कथा के क्रम में माँ कल्याणी का भी वर्णन आया है। मत्स्य पुराण के 108 वें अध्याय में कल्याणी देवी का वर्णन पाया जाता है। प्रयाग माहात्म्य के अनुसार कल्याणी और ललिता एक ही हैं, किन्तु यहाँ पृथक अस्तित्व पाया जाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के तृतीय खण्ड में वर्णित प्रसंग के अनुसार महर्षि याज्ञवल्क्य ने प्रयाग में भगवती की आराधना करके माँ कल्याणी देवी की 32 अंगुल की प्रतिमा की स्थापना की है। यह मंदिर नगर के कल्याणी देवी मोहल्ले में स्थित है।
    Shakti Peeth Maa Kalyani Devi Temple Prayagraj
    Shakti Peeth Maa Kalyani Devi Temple Prayagraj
भरद्वाज आश्रम
Bhardwaj Muni Ashram Prayagraj
Bhardwaj Muni Ashram Prayagraj
 महर्षि भरद्वाज को कौन नहीं जानता। वे महान तपस्वी और ज्ञानी आचार्य थे। प्रयाग में भारद्वाज जी की चर्चा श्री राम के वनगमन के प्रथम लक्ष्मण समय मिलती है। यह भी पुष्ट प्रमाण है कि बार राम कथा ऋषि याज्ञवल्क्य ने भारद्वाज को सुनाई थी। जब श्रीराम, सीता और के साथ वन गमन कर रहे थे तो प्रयाग आने पर उन्होंने लक्ष्मण को बताया कि अग्नि की लपटें उठ रही हैं, लगता है कि भरद्वाज मुनि यहीं पर हैं। फिर जानकी समेत श्रीराम, और लक्ष्मण उनके आश्रम दर्शन हेतु पहुंचे थे।

सरस्वती कूप
संगम क्षेत्र में किले के अन्दर सरस्वती कूप स्थित है। माना जाता है सरस्वती नदी यहां इस कूप में दृश्य हैं। इसी प्रकार गंगा के पूर्वी तट पर प्रतिष्ठानपुरी (झूसी) में हंस कूप या हंसतीर्थ स्थित है। इस पवित्र कूप का उल्लेख वाराह और मत्स्य पुराणों में मिलता है। मत्स्य पुराण के अध्याय-106 में हंसकूप का वर्णन किया गया है, जिसे हंस प्रपतन नाम दिया गया है। इस कूप के निकट एक शिलालेख खुदा हुआ है, जिसका तात्पर्य यह है कि हंस रूपी बावली में स्नान करने तथा इसका जल पीने से हंसगति, अर्थात-मोक्ष प्राप्त होता है।
Saraswati Koop Prayagraj
Saraswati Koop Prayagraj
रामचरित मानस में भी गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- "भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा।" वर्तमान में महर्षि भरद्वाज का आश्रम कर्नलगंज मोहल्ले में आनंद भवन के समीप स्थित है, जिसमें भारद्वाज की कोई प्रतिमा तो नहीं है, लेकिन भरद्वाजेश्वर शिवलिंग एवं सहस्र फणधारी शेषनाग की मूर्ति है । मंदिर के आस-पास की भौगोलिक संरचना से स्पष्ट होता है कि गंगा किसी समय यहीं से बहती रही होगी, क्योंकि आश्रम ऊँचाई पर स्थित है और आस-पास काफी ढलान है। कहा जाता है कि जो प्रयाग आने पर भरद्वाज आश्रम नहीं जाता, उसकी यात्रा का फल कम होता है।

कोटी तीर्य (शिवकुटी)
प्रयाग में गंगा के दक्षिणी तट पर स्थित तीर्थ को कोटि तीर्थ कहा गया है। आधुनिक शिवकुटी ही कोटितीर्थ है। पद्मपुराण के अनुसार यहाँ कोटि-कोटि तीर्थों का निवास है। इस कोटितीर्थ के देवता कोटि तीर्थेश्वर भगवान शिव कहे गये हैं। इसी स्थान के उत्तर में भार्गव, गालव और चामर तीर्थों का भी उल्लेख मिलता है।

श्री हनुमत निकेतन
Hanumat Niketan Temple, Civil Lines - Temples in Prayagraj

Hanumat Niketan Temple, Civil Lines - Temples in Prayagraj
Hanumat Niketan Temple, Civil Lines - Temples in Prayagraj
Hanumat Niketan Temple, Civil Lines - Temples in Prayagraj
नगर के सिविल लाइंस क्षेत्र के कमला नेहरू रोड और स्टेनली रोड के मध्य ऐतिहासिक पुरुषोत्तम दास टंडन पार्क के समीप स्थित "हनुमत-निकेतन" साढ़े तीन एकड़ के क्षेत्र में सुन्दर वाटिकाओं से सुसज्जित है। तीर्थयात्रियों, पर्यटकों व नगर निवासियों की श्रद्धा के केंद्र श्री हनुमत् निकेतन के संस्थापक रामलोचन ब्रह्मचारी जी थे, जिन्होंने बल, बुद्धि, विद्या व ब्रह्मचर्य के प्रतीक, श्री हनुमान जी के दक्षिण भाग में श्रीराम, लक्ष्मण व जानकी और उत्तर भाग में सिंह वाहिनी दुर्गा की मूर्ति वाले इस मन्दिर को राष्ट्र को समर्पित कर दिया है।

समुद्र कूप
Samudrakup of Prayagraj is the Historical
हंस कूप के दक्षिण की ओर निकट ही एक और कुआँ है, जिसका नाम समुद्र कूप है। लोगों का विश्वास है कि यह कूप गुप्त नरेश समुद्रगुप्त ने बनवाया था, इसलिए इसका नाम समुद्र कूप है। यद्यपि अधिकांश लोग यह मानते हैं कि इसका सम्बन्ध समुद्र से है। यह बहुत गहरा कुआं है। मत्स्य पुराण मिलता है।

अक्षयवट
इसका वर्णन पद्म पुराण अनुसार सृष्टि के प्रलय काल में भी यह वृक्ष स्थित रहता है, इसका नाश कभी नहीं होता, इसलिए इसे अक्षयवट कहा गया है। यह प्रयाग की अमूल्य निधियों में से एक है और इसका सर्वाधिक महत्व है। पद्म पुराण में अक्षयवट को श्याम वट का नाम भी दिया गया है और इसकी महत्ता इस प्रकार बतायी गयी है -
akshayavat
श्यामो वटोऽश्यामगुणं वृणोति, स्वच्छायया श्यामलया जनानाम् ।
श्यामः श्रमं कृन्तति यत्र दृष्टः स तीर्थराजो जयति प्रयागः ।।
तात्पर्य यह है कि जहां श्याम वट यानी अक्षयवट अपनी श्यामल छाया से मनुष्यों को दिव्य सत्व गुण प्रदान करता है, जहां माधव अपने दर्शन करने वालों का पाप-ताप नष्ट कर देते हैं, उस तीर्थराज प्रयाग की जय हो। अक्षयवट का वर्णन ऋग्वेद में भी मिलता है। महाराजा हर्षवर्धन के काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग यहां आया था, उसने भी अपने लेख में अक्षयवट का वर्णन किया है।

पातालपुरी मंदिर
संगम के निकट स्थित किले के पूर्व भाग में तहखाने में स्थित देव मंदिर का पातालपुरी मंदिर है। इसका निर्माण कब और किसके द्वारा कराया गया, यह विवरण नहीं मिलता, लेकिन इसकी प्राचीनता ह्वेनसांग के एक अभिलेख से झलकती है। वह लिखता है कि "नगर में एक शिव मंदिर है, जो अपनी सजावट और चमत्कारों के लिए प्रसिद्ध है। इसके बारे में कहा जाता है कि यदि कोई यहां पैसा चढ़ाता है तो स्वर्ग चला जाता है। मंदिर के आंगन में एक विशाल वृक्ष (अक्षयवट) है, जिसकी शाखाएं और पत्तियां दूर दूर तक फैली हुई हैं।

patalpuri-temple
वर्तमान स्थिति यह है कि किला भारतीय सेना के अधीन है और मंदिर केवल माघ के महीने में आम जनता के लिए खोला जाता है। मंदिर की लम्बाई 84 फिट एवं चौड़ाई 46.5 फिट है। खंभों के ऊपर टिकी हुई छत की ऊंचाई मात्र साढ़े छह फीट है। मंदिर के अंदर गणेश, गोरखनाथ, नरसिंह, शिवलिंग आदि समेत कुल 46 मूर्तियाँ हैं।

श्री मनकामेश्वर मंदिर (Sri Mankameshwar Mandir)
मनकामेश्वर प्रयाग के प्रमुख तीर्थों में से एक है। यमुना-तट पर स्थित मनकामेश्वर भगवान शिव का मंदिर है, जिसमें मनकामेश्वर महादेव अवस्थित हैं। पुराण वर्णित इस तीर्थ का इसलिए विशेष महत्व है, क्योंकि मनकामेश्वर महादेव के स्मरण और पूजन से लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
 
Sri Mankameshwar Mandir

 


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सांस की बदबू



क्यों आती है सांसों में बदबू? (Why Do You Have Bad Breath?)
साँस की दुर्गंध या मुंह की दुर्गन्ध के रोगी के मुख से एक विशेष दुर्गन्ध (बदबू) आती है जो, सांस के साथ मिली होती है। सांसों की दुर्गन्ध ग्रसित व्यक्ति में चिन्ता का कारण बन सकती है। यह एक गंभीर समस्या बन सकती है किंतु कुछ साधारण उपायों से साँस की दुर्गंध को रोका जा सकता है। साँस की दुर्गंध उन बैक्टीरिया से पैदा होती है, जो मुँह में पैदा होते हैं और दुर्गंध पैदा करते हैं। नियमित रूप से ब्रश नहीं करने से मुँह और दांतों के बीच फंसा भोजन बैक्टीरिया पैदा करता है। लहसुन और प्याज जैसे कुछ खाद्य पदार्थां में तीखे तेल होते हैं। इनसे साँसों की दुर्गंध पैदा होती है, क्योंकि ये तेल आपके फेफड़ों में जाते हैं और मुँह से बाहर आते हैं। साँस की दुर्गंध का एक अन्य प्रमुख कारण धूम्रपान है। साँस की दुर्गंध पर काबू पाने के बारे में अनेक धारणाएं प्रचलित हैं।
सांस की बदबू

कारण
साँसों की अधिकांश दुर्गंध आपके मुंह से शुरू होती है। सांसों की दुर्गंध के कई कारण होते हैं। इनमें से कुछ कारण निम्नलिखित हैं-
  1. दांतों की खराब सफाई और दांत की बीमारियां साँसों की दुर्गंध का कारण हो सकती हैं।
  2. यदि हर दिन ब्रश और कुल्ला नहीं करते हैं, तो भोजन के टुकड़े आपके मुँह में रह जाते हैं।वे बैक्टीरिया पैदा करते हैं और हाइड्रोजन सल्फाइड भाप बनाते हैं। आपके दांतों पर बैक्टीरिया (सड़न) का एक रंगहीन और चिपचिपा फिल्म जमा हो जाता है।
  3. दांतों में और इसके आसपास भोजन के टुकड़ों के टूटने से दुर्गंध पैदा हो सकती है।
  4. पतले तैलीय पदार्थ युक्त भोजन भी साँसों की दुर्गंध के कारण हो सकते हैं।
  5. प्याज और लहसुन इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं, लेकिन अन्य सब्जियां और मसाले भी साँसों में दुर्गंध पैदा कर सकते हैं।
  6. जब ये भोजन पचते हैं और तीखे गंध वाले तेल आपके खून में शामिल होते हैं, तो वे आपके फेफड़ों तक पहुंचते हैं और तब तक आपकी साँसों से बाहर निकलते रहते हैं, जब तक कि वह भोजन आपके शरीर से पूरी तरह खत्म न हो जाये।
  7. प्याज और लहसुन खाने के 72 घंटे बाद तक साँसों में दुर्गंध पैदा कर सकते हैं।
  8. धूम्रपान से आपका मुंह सूखता है और उससे एक खराब दुर्गंध पैदा होती है।
  9. तंबाकू का सेवन करने वालों को दांतों की बीमारी भी होती है, जो सांसों की दुर्गंध का अतिरिक्त स्रोत बनती है।
  10. फेफड़े का गंभीर संक्रमण और फेफड़े में गांठ से साँसों में बेहद खराब दुर्गंध पैदा हो सकती है। अन्य बीमारियां, जैसे कुछ कैंसर और चयापचय की गड़बड़ी से भी साँसों में दुर्गंध पैदा हो सकती है।
  11. साँसों की दुर्गंध का संबंध साइनस संक्रमण से भी है, क्योंकि आपके साइनस से नाक होकर बहने वाला द्रव आपके गले में जाकर सांसों में दुर्गंध पैदा करता है।
  12. लार से आपके मुँह में नमी रहने और मुँह को साफ रखने में मदद मिलती है। सूखे मुँह में मृत कोशिकाओं का आपकी जीभ, मसूड़े और गालों के नीचे जमाव होता रहता है। ये कोशिकाएं क्षरित होकर दुर्गंध पैदा कर सकती हैं। सूखा मुँह आमतौर पर सोने के समय होता है।
उपाय
  1. अत्यधिक कॉफी पीने से बचना चाहिए।
  2. दांतों के डॉक्टर या फार्मासिस्ट द्वारा अनुशंसित माउथवॉश का उपयोग करें।
  3. इलायची और लौंग चूसने से भी सांस की बदबू से निजात मिलता है।
  4. गाजर का जूस रोज पिएं। तन की दुर्गंध दूर भगाने में यह कारगर है।
  5. जीभ साफ करने के लिए जीभी का उपयोग करें और जीभ के अंतिम छोर तक सफाई करें।
  6. ताजी और रेशेदार सब्जियां खाएं।
  7. दुग्ध उत्पाद, मछली और मांस खाने के बाद अपने मुँह को साफ करें।
  8. नहाने से पहले शरीर पर बेसन और दही का पेस्ट लगाएं। इससे त्वचा साफ हो जाती है और बंद रोम छिद्र भी खुल जाते हैं।
  9. नियमित रूप से अपने दांतों के डॉक्टर के पास जाएं और अपने दांतों की अच्छी तरीके से सफाई करायें।
  10. नियमित रूप से दातुन करें।
  11. ब्रश करने के अलावा दांतों के बीच की सफाई के लिए कुल्ला भी करते रहें।
  12. मुँह और दांतों की साफ-सफाई का उच्च स्तर बनाए रखें।
  13. मुँह सूखने लगे, चीनी-मुक्त मुँह गम का इस्तेमाल करें,
  14. सांस की बदबू दूर करने के लिए रोज तुलसी के पत्ते चबाएं।
घरेलू उपाय
इलायची खाएं, खाना खाने के बाद ज्यादा पानी न पिएं, तुलसी के पत्ते और जामुन के पत्ते को बराबर मात्रा में लेकर चबाए, नींबू और गरम पानी का घोल पियें, पान में पुदीना के पत्ते का इस्तेमाल करें, मुलेठी चूसें, लौंग चूसें और सौंफ खाएं।

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मोच आने पर करे यह उपचार



अक्सर चलते-दौड़ते वक्त अक्सर मोच आ जाती है। दर्द होता है और हम मजबूर हो जाते हैं अपना पैर पकड़ कर बैठने के लिए। घुटना और टखना शरीर के दो ऐसे जोड़ हैं, जो चोटिल होते रहते हैं। पैर और पंजे को जोड़ने का काम करता है टखना। टखने के भीतरी लिगामेंट्स बहुत मजबूत होते हैं, जो कम ही परिस्थितियों में चोटिल होते हैं। बाहरी लिगामेंट्स तीन भाग में बंटे होते हैं- सामने, मध्य और पीछे। आमतौर पर मोच आने पर सामने और बीच वाले लिगामेंट्स ही चोटिल होते हैं। टखने के लिगामेंट्स के घायल होने की घटनाएं तब होती हैं, जब पंजा अंदर की ओर मुड़ जाता है। ऐसा असमान भूमि पर चलने से होता है और शरीर का पूरा वजन इन लिगामेंट्स पर पड़ने से वे चोटिल हो जाते हैं।
सामान्य परिस्थितियों में छह से आठ सप्ताह का समय पूरी तरह मोच ठीक होने मे लग जाता है। कई लोगों में लंबे समय तक मोच बनी रहती है। मोच आने पर इंसान एक जगह अपना पैर पकड़कर बैठ जाता है और उसे काफी दर्द झेलना पड़ता है। पैरों में मोच या फिर खिंचाव आने पर काफी सूजन और दर्द पैदा हो जाता है। यह कभी भी हो सकता है, चाहे कुछ ऐसे घरेलू नुस्खे लेकर आए हैं जिन्हें अपनाकर पैर में आई हुई मोच से जल्दी आराम पाया जा सकता है। खेल-कूद में लीन हो या फिर चलते चलते पैर मुड़ जाए और ऐसा होने पर टखनों की मोच आ जाती है जो काफी दर्द भरी होती है।
मोच आने पर अगर हम तुरंत डॉक्टर के पास न जा सके तो उसका भी समाधान है। कुछ खास घरेलू नुस्खों को अपनाकर पैर में आई हुई मोच से जल्दी आराम पाया जा सकता है। यह नुस्‍खे काफी पुराने हैं जिसमें किचन में रखी हुई सामग्रियां काम आ सकती हैं। मोच आने पर इन नुस्खों को आजमाएं और ढेर सारा आराम करें, जिससे कुछ ऐसे घरेलू नुस्खे लेकर आए हैं जिन्हें अपनाकर पैर में आई हुई मोच से जल्दी आराम पाया जा सकता है। जल्द ही ठीक हो सके। इसके बाद अगर ठीक ठाक चल सकने की स्थिति न हो तो तो डॉक्टर के पास जाना बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए।

 उपचार
  1. 48 घंटो तक मोच वाली जगह पर किसी भी तरह का दबाव न डालें।
  2. आधा चम्मच हल्दी को दूध के साथ तुरंत सेवन करने से हड्डियों के अंदर की चोट को आराम मिलता है।
  3. एक गिलास गर्म दूध में आधा चम्मच फिटकरी मिलाकर इसका सेवन करने से मोच काफी जल्दी ठीक हो जाएगी।
  4. तुलसी की कुछ पत्तियों को पीसकर पेस्ट बना लें और उसको मोच वाले स्थान पर लगाएं। ऐसा करने से काफी आराम महसूस होगा।
  5. तुलसी के पत्तों के रस तथा सरसों के तेल को एक साथ मिलाकर गर्म कर के मोंच वाले भाग पर रखें। ऐसा दिन में 4-5 बार करें।
  6. थोड़े से बर्फ के टुकड़ों को किसी एक कपड़े में रखकर सूजन वाले जगह पर लगाएं। इससे सूजन कम हो जाती है और दर्द धीरे-धीरे कम होने लगता है।
  7. दो चम्‍मच हल्‍दी में थोड़ा सा पानी मिला कर पेस्ट बना लें। अब इस पेस्ट को हल्का गर्म करके मोच वाली जगह पर लगाएं। फिर 2 घंटे के बाद पैरों को गुनगुने पानी से धो लें।
  8. नमक और सरसों के तेल को गरम करें और मोंच पर रखें। फिर इसे किसी कपड़े से बांध कर रात में सो जाएं, आराम मिलेगा।
  9. पान के पत्ते पर सरसों का तेल लगा कर, उस पत्ते को हल्का गर्म कर के मोच वाले अंग पर बांध लें।
  10. पीड़ा और सूजन में कमी लाने के लिए मोच खाए अंग पर हर घंटे बाद बर्फ या ठंडे पानी की भीगी हुई पट्टियाँ रखें। इससे पीड़ा और सूजन में कमी आती है।
  11. पैर पर अगर मोच आई तो हमेशा पैर को सोते वक्त थोड़ा ऊंचाई पर रखें। इससे मोच की वजह से आई पैर की सूजन में कमी आती है।
  12. पैरों के नीचे तकिया रखें जिससे आपका पैर थोड़ा ऊपर उठ सके। इससे खून एक जगह पर नहीं जम पाएगा और वह पूरे शरीर में सर्कुलेट होगा। इससे पैरों की सूजन कम हो जाएगी।
  13. फिटकरी का आधा चम्‍मच ले कर उसे एक गिलास गर्म दूध में मिक्‍स कर के पी जाएं, इससे चोट जल्दी ठीक हो जाएगी ।
  14. मोच को बैंडेज या पट्टी से बांधने से राहत मिलती है। पैरों में प्लास्टिक बैंडेज बांधिये जिससे पैरों में ब्‍लड सर्कुलेशन भी ठीक रहे। मोच को कस के नहीं बांधना चाहिए नहीं तो उससे खून का दौरा धीमा पड़ जाता है। अगर बैंडेज को कस के बांध लिया तो दर्द बढ जाएगा।
  15. मोच खाए जोड़ को ठीक करने के लिए इलास्टिक की पट्टियों से बांधे।
  16. मोच खाए टखने पर एड़ी से शुरू कर पट्टी को ऊपर की ओर बांधें, ध्यान रहे कि पट्टी बहुत सख्त न हो और हर दो घंटे में खोलते रहें। यदि दर्द और सूजन 48 घंटे में कम न हो तो चिकित्सा सहायता लें।
  17. मोच खाए या टूटे अंग की मालिश कभी भी न करें। इससे कोई लाभ नहीं होता, बल्कि हानि पहुँच सकती है।
  18. मोच वाले स्थान पर एलोवेरा जेल लगाने से आराम मिलेगा।
  19. यदि मोच लगने के तुरंत बाद ही उस जगह पर बर्फ लगा कर सिकाई की जाए तो उस जगह पर सूजन नहीं आती। दर्द को दूर करने के लिये हर 1-2 घंटे में 20 मिनट की बर्फ से सिकाई करनी चाहिये। बर्फ को हमेशा किसी कपड़े में लपेट कर लगाना चाहिए।
  20. शहद और चूने दोनों को बराबर मात्रा में मिला कर मोच वाली जगह पर हल्की मालिश करें।
  21. सूजन को कम करने के लिए बर्फ या आइस पैक को दिन में 4-8 बार जरूर लगाएं।
  22. हल्दी लगाने से पैरों की सूजन कम हो जाती है। हल्दी एक एंटीसेप्टिक गुणों वाला मसाला है जो लंबे समय से प्रयोग में लाई जा रही है। इसे लगाने से आपको मोच में काफी आराम मिल सकता है। 2 चम्‍मच हल्‍दी में थोड़ा सा पानी मिला कर पेस्ट बना कर हल्का गर्म करें और मोच पर लगाएं। फिर 2 घंटे के बाद पैरों को गर्म पानी से धो लें।
मोच आने पर घर में करें ये व्यायाम
  1.  अपना पंजा दरवाजे के पास इस तरह रखें, जिससे एड़ी जमीन पर रहे और पंजा 45 डिग्री के कोण के साथ दरवाजे से थोड़ा ऊंचाई पर रहे। सपोर्ट के लिए दरवाजे को पकड़ लें। अब घुटने को मोड़ते हुए दरवाजे के करीब लाएं। इस खिंचाव को दो मिनट तक बनाए रखें। यदि सुविधाजनक नहीं लग रहा है तो एक ब्रेक लेकर दोबारा ऐसा करें। अगर आप लगातार दो मिनट तक स्ट्रेच कर रहे हैं तो ऐसा एक बार ही करें।
  2. टखने का लचीलापन और उसको गति देने के बाद अब बैठने का व्यायाम करें। एक चटाई बिछा लें। पैरों को पीछे की ओर मोड़ लें। ध्यान रखें कि पैरों की उंगलियां पीछे की ओर से सीधी रहें, अंदर की ओर मुड़ी न हों। अब कूल्हे के हिस्से को एड़ियों पर टिका कर बैठ जाएं। इससे जमीन पर पंजे के सामने के हिस्से पर स्ट्रेच उत्पन्न होगा। स्ट्रेच अधिक बढ़ाने के लिए शरीर के वजन को कूल्हों पर रखें और दो मिनट तक इसी स्थिति में रहें। शुरुआत में इसे कम समय के लिए कर सकते हैं।
  3. पंजे से दीवार पर इसी तरह दबाव बनाए रखें। अब घुटने को अंदर और बाहर की ओर गोल घुमाएं। ऐसा करते हुए दबाव टखने के पीछे के हिस्से की ओर पड़ना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हो रहा है तो अपनी स्थिति को ठीक करें और इसे दोबारा दोहराएं।
प्रश्‍नोत्तरी
  1. मोच आ जाए तो क्या लगाना चाहिए?
    बर्फ से सिकाई - मोच लगने के तुरंत बाद उस जगह पर बर्फ की सिकाई करने से सूजन नहीं आती है। इसके लावा बर्फ की सिकाई करने से दर्द भी दूर हो जाती है। ऐसे में मोच आने पर हर एक से दो घंटे में बर्फ से सिकाई करनी चाहिए। हालांकि सीधे ही बर्फ से सिकाई नहीं करनी चाहिए।
  2. मोच की सबसे अच्छी दवा कौन सी है?
    Arnica और कोलेजन गोल्ड जेल - [7 Oz] एक बहुत ही प्रभावी जेल की ट्यूब। चोट, सूजन, मांसपेशियों की कठोरता, मोच और तनाव के लिए आपकी सबसे अच्छी शर्त।
  3. पैर की मोच कितने दिन में ठीक होती है?
    पैर की मोच कितने दिन में ठीक होती है? पैर की मोच ठीक होने में लगने वाला समय आपकी चोट की गंभीरता पर निर्भर करता है। मामूली मोच दो सप्ताह में ठीक हो सकती है, लेकिन गंभीर मोच को ठीक होने में 6 से 12 सप्ताह लग सकते हैं।
  4. मोच आने पर कौन सी दवाई लेनी चाहिए?
    फिटकरी: एक गिलास गर्म दूध में आधा चम्मच फिटकरी मिलाकर इसका सेवन करें। इसका सेवन करने से मोच काफी जल्दी ठीक हो जाएगी। इमली का पत्ता: इमली के पत्तों में एंटी-इंफ्लेमेटरी और एंटी-सेप्टिक गुण पाए जाते हैं जो मोच के दर्द में लाभकारी होते हैं। इमली के पत्तों को पीसकर इसमें गुनगुना पानी मिलाकर पेस्ट बना लें।
  5. आपको कैसे पता चलेगा कि यह मोच है या टूट गई है?
    यदि आप कोई हड्डी तोड़ते हैं, तो आपको चटकने की आवाज सुनाई दे सकती है। दर्द का स्रोत। यदि आपको जो दर्द महसूस हो रहा है वह किसी जोड़ के आसपास के मुलायम ऊतकों में है, तो संभवतः यह मोच है। यदि हड्डी पर हल्का दबाव डालने से अत्यधिक दर्द होता है, तो चोट संभवतः फ्रैक्चर है।
  6. क्या मोच वाला पैर रात भर ठीक हो सकता है?
    अधिकांश छोटी-से-मध्यम चोटें 2 से 4 सप्ताह के भीतर ठीक हो जाएंगी। अधिक गंभीर चोटें, जैसे ऐसी चोटें जिनमें कास्ट या बूट की आवश्यकता होती है, को ठीक होने में 6 से 8 सप्ताह तक का लंबा समय लगेगा।
  7. क्या हल्दी मोच के लिए अच्छी है?
    हल्दी: यह हमारे भोजन में अनोखा स्वाद लाने के अलावा और भी बहुत कुछ करती है। इससे हमें दर्द से भी राहत मिलेगी और मोच के कारण होने वाली सूजन भी शांत होगी । इससे रक्त के थक्कों से बचा जा सकता है, रक्त की आपूर्ति बढ़ सकती है और त्वचा और गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्याओं का समाधान हो सकता है।
    पैर, घुटने, हाथ, उंगली या बाजुओं में अगर आपको किसी प्रकार की चोट, मोच या अंदरूनी घाव महसूस हो रहा है तो आप गेहूं के आटे, घी और हल्दी के लेप का इस्तेमाल कर सकते हैं। इस लेप के इस्तेमाल से आपको बहुत जल्द दर्द में आराम मिलेगा।
  8. पैर में मोच आने के बाद मैं कब चल सकता हूं?
    टखने की मोच का दर्द और सूजन अक्सर 48 घंटों के भीतर ठीक हो जाता है। उसके बाद, आप अपने घायल पैर पर वापस वजन डालना शुरू कर सकते हैं। अपने पैर पर केवल उतना ही वजन डालें जितना शुरू में आरामदायक हो। धीरे-धीरे अपने पूरे वजन तक पहुंचें।
  9. बर्फ से सिकाई कब करनी चाहिए?
    अगर कोई पुरानी चोट भी तुरंत पैदा हुई हो, तो वहां भी बर्फ लगाया जा सकता है, लेकिन ध्‍यान रखना होगा कि तुरंत तेज दर्द हो तभी। चोट वाली जगह पर अगर खून बह रहा हो तब तो जरूर बर्फ से सिकाई करनी चाहिए। लेकिन ध्‍यान रखें कि बर्फ को सीधे कभी चोट पर नहीं रखना चाह‍िए। तौल‍िए में आइस को लपेटकर ही लगाएं।
  10. मोच या हड्डी की चोटों में क्या नहीं करना चाहिए?
    मोच लगने वाली जगह पर कभी भी मसाज न करें। इस दौरान किसी भी तरह की एक्ससाइज करने से बचें। मोच वाले हिस्से को गर्मी न दें। बहुत से लोग मोच करने पर स्टीमबाथ लेते हैं, लेकिन ऐसा करने से बचना चाहिए।
  11. मोच के स्थान पर बर्फ से सिकाई करने से क्या फायदा होता है?
    अगर आपको कहीं मोच आ जाए तो बर्फ की स‍िकाई कर सकते हैं। बर्फ से स‍ेकने पर नसों को आराम म‍िलता है और मोच जल्दी ठीक होती है। अगर कहीं चोट लग जाए तो आइस लगा देनी चाहिए। इससे खून का फ्लो उस जगह रुक जाता है।
  12. क्या मोच चोट लगने से ज्यादा खराब होती है?
    कभी-कभी, मोच टूटने से भी ज्यादा दर्दनाक हो सकती है। मोच आघात के कारण होती है जो स्नायुबंधन को अत्यधिक खींचती है और जोड़ पर तनाव डालती है।
  13. मोच किस प्रकार की चोट है?
    मोच , स्नायुबंधन की चोटें हैं जो किसी जोड़ के भींचने या मुड़ने से उत्पन्न होती हैं । खिंचाव मांसपेशियों या कण्डरा की चोटें हैं, और अक्सर अत्यधिक उपयोग, बल या खिंचाव के कारण होती हैं। टखना सबसे आम तौर पर मोच या खिंचाव वाला जोड़ है।
  14. मोच आने का क्या कारण होता है?
    मोच जोड़ में चोट लगने के कारण अस्थिबंध (लिगामेंट) की क्षमता से अधिक खीच जाने या मॉसपेशीयॉ के फटने के कारण होता है। इस तरह की बीमारियों का किसी तरह के आघात से खास रिश्ता होता है। चोट लगने के साथ ही सूजन शुरू हो जाती है। मोच किसी भी जोड़ में हो सकता है पर ऐड़ी और कलाई के जोड़ पर ज्यादा मोच आती है।
  15. क्या नमक का पानी मोच वाले टखने के लिए अच्छा है?
    कुछ दिनों के बाद, आप अपने टखने को एप्सम नमक के साथ गर्म स्नान में भिगो सकते हैं। चोट लगने के बाद पहले कुछ दिनों के दौरान ठंड लगाना महत्वपूर्ण है। एप्सम नमक दर्द वाली मांसपेशियों और संयोजी ऊतकों को शांत करने में मदद कर सकता है, और यह जोड़ों की कठोरता में मदद कर सकता है। प्रतिदिन 1-2 बार गर्म या थोड़े गर्म स्नान में एप्सम नमक मिलाने का प्रयास करें।
  16. सरसों का तेल मोच के लिए अच्छा है?
    गठिया और गठिया के दर्द से छुटकारा पाने के लिए सरसों के तेल से मालिश करने की सलाह दी जाती है - जो अपने सूजन-रोधी गुणों के लिए जाना जाता है। यह टखनों की मोच और अन्य जोड़ों के दर्द से भी राहत दिला सकता है । सेलेनियम नामक ट्रेस खनिज की उपस्थिति जोड़ों और त्वचा की सूजन से राहत दिलाने में मदद करती है।
  17. मोच वाले टखने में कितनी देर तक चोट लगती है?
    यदि यह सीधी चोट थी, मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं थी और आपको कोई झटका नहीं लगा था, तो आप उम्मीद कर सकते हैं कि लिगामेंट ठीक होने तक लक्षण 10 से 12 सप्ताह तक बने रहेंगे। एक बार जब आपके टखने में मोच आ गई, तो भविष्य में चोट लगने की संभावना अधिक होती है। टखने की आस्तीन या लेस-अप ब्रेस अतिरिक्त समर्थन और स्थिरता प्रदान कर सकता है।
  18. मोच आए हुए स्थान पर कितने देर तक बर्फ से सिकाई करनी चाहिए?
    अगर मोच लगने के तुरंत बाद आप उस जगह पर बर्फ की सिकाई कर दें तो सूजन नहीं आती। इसके अलावा बर्फ की सिकाई करने से पेन में भी आराम मिलता है। ऐसे में मोच आने पर हर एक से 2 घंटे मे बर्फ से सिकाई करनी चाहिए।
  19. क्या गर्म पानी सूजन को कम करता है?
    गर्म पानी में भीगना कई कारणों से काम करता है। यह जोड़ को दबाने वाले गुरुत्वाकर्षण बल को कम करता है, दर्द वाले अंगों को 360-डिग्री समर्थन प्रदान करता है, सूजन और सूजन को कम कर सकता है और परिसंचरण को बढ़ा सकता है। तो, आपको कितनी देर तक भिगोना चाहिए? लगभग 20 मिनट के बाद अधिकतम लाभ मिलता हुआ प्रतीत होता है।
  20. मोच और खिंचाव के दौरान प्राथमिक उपचार क्या है?
    आराम: घायल हिस्से को तब तक आराम दें जब तक दर्द कम न हो जाए। बर्फ: एक तौलिये में आइसपैक या ठंडा सेक लपेटें और तुरंत चोट वाले हिस्से पर रखें। इसे एक बार में 20 मिनट से अधिक न जारी रखें, दिन में चार से आठ बार। संपीड़न: घायल हिस्से को कम से कम 2 दिनों के लिए इलास्टिक संपीड़न पट्टी से सहारा दें।
  21. मोच या फ्रैक्चर कौन सा बदतर है?
    हालांकि मोच को आमतौर पर फ्रैक्चर की तुलना में कम गंभीर चोट माना जाता है , लेकिन इसे ठीक होने में अधिक समय लग सकता है। क्यों? स्नायुबंधन में रक्त की आपूर्ति बहुत सीमित होती है। मोच की गंभीरता के आधार पर, पूर्ण उपचार में एक वर्ष तक का समय लग सकता है।
  22. मोच या खिंचाव कौन सा बदतर है?
    एक तकनीकी रूप से दूसरे से बदतर नहीं है । खिंचाव टेंडन को प्रभावित करता है (इसे याद रखने का एक आसान तरीका है sTrains = टेंडन या मांसपेशियां), और मोच स्नायुबंधन को प्रभावित करता है। कण्डरा और स्नायुबंधन दोनों संयोजी ऊतक हैं, और दोनों को गंभीरता से मापा जाता है।
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दस्त/डायरिया के लक्षण और उपचार



अतिसार या डायरिया में या तो बार-बार मल त्याग करना पड़ता है या मल बहुत पतले होते हैं या दोनों ही स्थितियां हो सकती हैं। पतले दस्त, जिनमें जल का भाग अधिक होता है, थोड़े-थोड़े समय के अंतर से आते रहते हैं। अतिसार का मुख्य लक्षण और कभी-कभी अकेला लक्षण, विकृत दस्तों का बार-बार आना होता है। तीव्र दशाओं में उदर के समस्त निचले भाग में पीड़ा तथा बेचैनी प्रतीत होती है अथवा मल त्याग के कुछ समय पूर्व मालूम होती है। धीमे अतिसार के बहुत समय तक बने रहने से, या उग्र दशा में थोड़े ही समय में, रोगी का शरीर कृश हो जाता है और जल ह्रास (डिहाइड्रेशन) की भयंकर दशा उत्पन्न हो सकती है। खनिज लवणों के तीव्र ह्रास से रक्तपूरिता तथा मूर्छा (कोमा) उत्पन्न होकर मृत्यु तक हो सकती है।
डायरिया के लक्षण - डायरिया से जूझ रहे व्यक्ति द्वारा इनमे से एक या इससे अधिक लक्षण हो सकते हैं: पानी का मल, पेट में ऐंठन या ऐंठन होना, मतली और उल्टी, बुखार, निर्जलीकरण और भूख में कमी

उपचार 
  1.  अदरक का रस नाभि के आस-पास लगाने से दस्त में आराम मिलता है।
  2. अनार के बीजों को चबाएं। दिन भर में कम से कम दो बार अनाज का जूस पिएं। अनार की पत्तियों को पानी में उबाल लें। इस पानी को छानकर पीने से भी दस्त में आराम मिलता है।
  3. आधा चम्मच सौंठ को छाछ के साथ लें। इस मिश्रण को दिन में दो-तीन बार लेने से डायरिया से राहत मिलती है।
  4. इससे पेट की गर्मी छंट जाएगी और दस्त की समस्या से मुक्ति मिल जाएगी। यह पाउडर खाली पेट दो से तीन दिनों तक लेना चाहिए। बहुत जल्दी आराम मिलता है।
  5. एक गिलास छाछ में थोड़ा नमक, एक चुटकी काली मिर्च, जीरा और थोड़ी हल्दी डालकर पीने से दस्त में आराम मिलता है। दिन में दो से तीन बार ऐसी एक गिलास छाछ बनाकर पीना चाहिए।
  6. एक नीबू के रस में एक चम्मच नमक और थोड़ी चीनी मिलाकर अच्छे से मिक्स करने के बाद पिएं। हर एक घंटे में ये घोल बनाकर पीने से डायरिया में बहुत जल्दी आराम मिलता है। इस नुस्खे को अपनाने के साथ ही हल्का खाना लें। इससे इस समस्या से जल्दी छुटकारा मिल जाता है।
  7. एक-चौथाई चम्मच मेथी दाना पाउडर ठंडे पानी से लें।
  8. कच्चा पपीता उबालकर खाने से दस्त में आराम मिलता है।
  9. कच्चे पपीते को छीलकर छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर उबाल लें। इस पानी को छानकर पिएं। दस्त बंद हो जाएंगे। यह पानी दिन भर में दो से तीन बार पीना चाहिए।
  10. कुकर में बने चावल को ताजे दही के साथ खाएं। दिन भर में दो से तीन बार दही-चावल खाने से दस्त की समस्या से मुक्ति मिल जाती है।
  11. खाना खाने के बाद एक कप लस्सी में एक चुटकी भुना जीरा और काला नमक ड़ालकर पीएं। दस्त में आराम आयेगा।
  12. जब भी दस्त की समस्या हो, दिन भर में कम से कम दो से तीन चम्मच शुद्ध शहद खाएं। एक चम्मच शहद में आधा चम्मच दालचीनी पाउडर मिलाकर लेने पर भी दस्त से राहत मिलती है।
  13. ताजा लौकी के रस को छानकर दिन में दो-तीन बार पिएं। दस्त की समस्या खत्म हो जाएगी।
  14. बेल की पत्तियों या बेल के फलों का पाउडर दस्त में दवा का कामकरता है। 25 ग्राम बेल के पाउडर को शहद में मिलाकर लेने से दस्त से राहत मिलती है। दिन में कम से कम चार बार बेल पाउडर का सेवन करें।
  15. मिश्री और अमरूद खाने से भी आराम मिलता है।
  16. सरसों के एक-चौथाई चम्मच बीजों को एक कप पानी में भिगो दें। एक घंटे बाद इस पानी को छानकर पी लें। यह नुस्खा एक दिन में दो से तीन बार दोहराएं। डायरिया की समस्या से बहुत जल्दी आराम मिल जाएगा।


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