कवि कैलाश गौतम का जीवन और साहित्य



 
हिन्दी और भोजपुरी बोली के रचनाकार कैलाश गौतम का जन्म चन्दौली जनपद के डिग्घी गांव में 8 जनवरी 1944 को हुआ। शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और प्रयाग विश्वविद्यालय में हुई। लगभग 37 वर्षों तक इलाहाबाद आकाशवाणी में विभागीय कलाकार के रूप में सेवा करते रहे। व्यक्तित्व को देखें तो कैलाश गौतम एक सावधान लेखन-कर्मी के रूप में कौशल के साथ विनम्र, प्रेरक सहायक होने का सकारात्मक परिचय देते हैं। वे चक्रव्यूह में घिरे योद्धा की तरह जीवन-समर में जूझते हुए नजर आये। इलाहाबाद में भी अन्दर ही अन्दर लोग उनसे बरबस ईष्र्या रखते थे। हिन्दुस्तानी अकादमी में उनकी नियुक्ति के समय यह ही नहीं अनेक अवसरों पर उन्हें अकारण ही ईष्र्या का सामना करना पड़ा। लेकिन, वे सारे व्यूह-जालों को काटते हुए अपनी मंज़िलें पार करते गए।
कर्तव्य की दृष्टि से देखें तो कैलाश गौतम के पांच आयाम स्पष्ट दिखाई देते हैं-खड़ी बोली में आंचलिक लोकतत्व को जिस रूप और परिमाण में कैलाश गौतम ने समेटा है, अन्य किसी रचनाकार में यह क्षमता नजर नहीं आती। खड़ी बोली में ही दोहे की पुनस्र्थापना ’धर्मयुग‘ के माध्यम से कैलाश गौतम ने ही की थी। जैसे दुष्यन्त कुमार को नागरी गजल को आन्दोलन के रूप में स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है, उसी प्रकार दोहा-आंदोलन का पुरोधा निश्चित रूप से कैलाश गौतम को माना जायेगा। इन दोनों रचनाकारों ने काव्य के स्तर पर उर्दू के रचनाकारों को भी गहराई के साथ प्रभावित किया है। हिन्दी-उर्दू की नई गजल कहने वाले रचनाकारों और दोहाकारों के गले में दुष्यन्त और कैलाश के ताबीज देखे जा सकते हैं।
कैलाश गौतम के सर्जक का बड़ा प्रखर रूप उनके नवगीतों में द्रष्टव्य है। उनके नवगीत जहां एक ओर सामाजिक यथार्थ को स्वर देते हैं वहीं मानसिक रागभाव की तरलता को भी बरकरार रखते हैं। लोकतत्व का छौंक नवगीतों को एक अलग सौंधापन देता है। रंगमय चाक्षुषबिम्ब अमूर्त को मूर्त रूप प्रदान करते हैं। यह विज्ञान परक आधुनिकता का द्योतक है। व्यंग्यकार के रूप में कैलाश गौतम की रचनाएं उन्हें जन-समूह से जोड़ती हैं। उनके व्यंग्यों का तीखापन जैसा खड़ी बोली में रहता है वैसा ही भोजपुरी में भी। सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक और मानसिक विषमताएं अपने पूरे जरूरीपन के साथ पाठक-श्रोता को सहज रूप से सहमत करने में सक्षम हैं। जो शालीनता बहु प्रचारित पाखण्डी परफाॅर्मर्स में बिलकुल नदारत है वह कैलाश में जैविक गुण-सूत्रों के रूप में विद्यमान है।
रेडियो-लेखन कैलाश के आशु-सृजन की ऐसी मंजूषा है जो केन्द्रीय योजनाओं को तात्कालिक अपेक्षा की पूर्ति के रूप में प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करती है। इसमें रूपक, नाटक, झलकियां आदि सभी द्रष्टव्य हैं। छन्देतर कविताएं युगीन यथार्थ की खिड़की खोलने के अलावा कैलाश गौतम के विधागत पूर्वाग्रह से मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करती हैं। कैलाश गौतम का धारावाहिक उपन्यास ’आज‘ दैनिक के रविवासरीय अंकों में आंचलिक-बोध के सजीव चित्रण की क्षमता की ओर इंगित करता है।
कवि कैलाश गौतम उत्सवधर्मी रचनाकार थे। जीवन की रागनुभूतियां उन्हें भीतर तक उत्तेजित और प्रेरित करती थीं। इसीलिए भौजी, सियाराम, राग-रंग से भरे स्नेह सम्बन्ध, मेले-ठेले, पर्व उनके गीतों की अनुभूति में समाये हुए थे। मंच संचालन में विनोदप्रियता तथा चुटीली टिप्पणियां उनके व्यक्तित्व से जुड़ी हुई थीं जो गोष्ठियों को गरिमा प्रदान करतीं। बेहद सहज, आत्मीय और बेबाक संवेदनशील कवि कैलाश गौतम जी मूलतः नवगीत के चितेरे थे। डिग्घी गांव में जन्मे कैलाश गौतम जी शिक्षा के लिए इलाहाबाद आये और यहीं के होकर रह गये। उनका पूरा जीवन साहित्य को समर्पित था। प्रयाग की गंगा-जमुनी संस्कृति उनके रग-रग में समाई थी। जिस सरलता और सहजता के साथ आम आदमी के दुख और सुखों को कविता में संजोया वह अत्यंत मर्मस्पर्शी था। गांव की कच्ची मिट्टी की महक उनके गीतों में जिजीविषा थी। आज की चकाचैंध भरी जिन्दगी से अलग चना और चबेना में कविता का सौन्दर्य शास्त्र तलाशता यह कवि सभी से हटकर था। वह सहृदयता, जिन्दादिली, सहजता, आत्मीयता और संजीदगी का मिला-जुला अक्श थे। ऊर्जा से भरे हुए लोगों से गपियाते, ठहाका लगाते, आज यहां तो कल वहां हमेशा ही जल्दी लेकिन संजीदा, हर किसी को महत्वपूर्ण बनाते हुए, जो कोई भी मिला उनका गहरा आत्मीय बन गया, सबको लगता गौतम जी उनके सबसे निकट हैं। इतना लोकप्रिय इतना जिन्दादिल शख्स कभी समाप्त नहीं होता है। प्रयाग की माटी में पनपे कैलाश गौतम यहां की साहित्यिक विरासत के पुरजोर नुमाइन्दे थे। पंत, महादेवी, निराला, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता, उपेन्द्र नाथ अश्क जैसे स्तम्भों के साथ एक नाम और जुड़ गया। भले ही आज साहित्यिक जगत मित्रों और आत्मीयों के बीच एक वीरानगी है पर जनकवि अपने शब्दों, कृतियों और गीत के बीच इतना कुछ छोड़ गये हैं जो साहित्यिक चिंतकों के बीच विरासत का काम करेगा और प्रयाग की धरती उसकी सुगंध से महकती रहेगी। वह जमीन से जुड़े हुए रचनाकार ही नहीं बल्कि एक सच्चे मनुष्य थे जिन्होंने ’मानुष सत्य‘ को जाना था और आम आदमी की संवेदना को छोटे-छोटे सपनों में बुना था। वे अपनी कविताओं में चरित्रों को गढ़ते हुए आमजन से रूबरू होते रहे। दरअसल लोकजीवन ही उनका अपना जीवन था। चाहे आम बात-व्यवहार हो, जिस इंसानी जज़्बे के साथ वह मुखातिब होते थे, उसके पीछे उनका यह गहरा लोक संस्कार ही था। मंचीय कविता में उनकी जीवंत उपस्थिति साथ-साथ पेशे के रूप में आकाशवाणी के ग्रामीण कार्यक्रमों में उनकी अत्यंत लोकप्रिय भागीदारी इसके ज्वलंत साक्ष्य हैं। रेडियो, नाटक, पटकथा, लेखन, गीतों के अलावा हास्य व्यंग्य और अखबारों में स्तम्भ-लेखन उनकी अभिव्यक्ति के ऐसे ही अन्य माध्यम थे। जब कवि सम्मेलनों की परम्परा में गिरावट आयी थी तो उसे उन्होंने स्वस्थ हास्य और कुशल संचालन से जैसे उबार लिया हो। बड़ी बात यह है कि उसकी संकीर्ण रसिकता पर अंकुश लगाते हुए उन्होंने सामान्य सुख-दुख के साथ प्रखर जन-पक्षधरता का भी समावेश किया। कहीं विडम्बनाओं में निर्ममता से नश्तर लगाये तो कहीं सुन्दर बहुरंगी लोक-छवियों के गुलदस्ते सजा दिये।
अपने जीवन के अंतिम समय में आकाशवाणी से रिटायरमेंट के बाद कैलाश गौतम इलाहाबाद में हिंदुस्तानी एकेडमी के अध्यक्ष पद पर कार्यरत थे। ग्रामीण जीवन के बिम्बों के इस प्रयोगधर्मी कवि का निधन 9 दिसंबर 2006 को हुआ। अखिल भारतीय मंचीय कवि परिषद की ओर से शारदा सम्मान, महादेवी वर्मा साहित्य सहकार न्यास की ओर से महादेवी वर्मा सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का राहुल सांकृत्यायन सम्मान सहित कैलाश गौतम मुम्बई का परिवार सम्मान, लोक भूषण सम्मान, सुमित्रानन्दन पंत सम्मान और ऋतुराज सम्मान से भी सम्मानित किया गया। अपने वाराणसी अधिवास के दौरान कैलाश गौतम 'आज' और 'गांडीव' जैसे दैनिक पत्र समूह से भी जुड़े रहे। सन्मार्ग के लिए भी उन्होंने नियमित स्तम्भ लिखा।

कैलाश गौतम की मशहूर कविता- पप्पू के दुल्हिन
पप्पू के दुल्हिन की चर्चा कालोनी के घर घर में,
पप्पू के दुल्हिन पप्पू के रखै अपने अंडर में
पप्पुवा इंटर फेल और दुलहिया बीए पास हौ भाई जी
औ पप्पू अस लद्धड़ नाहीं, एडवांस हौ भाई जी
कहे ससुर के पापा जी औ कहे सास के मम्मी जी
माई डियर कहे पप्पू के, पप्पू कहैं मुसम्मी जी
पप्पू की दुल्हन पूरे कालोनी में चर्चित है, पप्पू को अपने अंडर में रखती है, पप्पू 12वीं फेल हैं और दुल्हन स्नातक पास है, एडवांस है, ससुर को पापा और सास को मम्मी बुलाती है। पप्पू को 'माई डियर' कहती है जबकि पप्पू उसे 'मोसम्मी जी' कहते हैं।

बहु सुरक्षा समिति का गठन
बहु सुरक्षा समिति बनउले हौ अपने कॉलोनी में
बहुतन के ई सबक सिखौले हौ अपने कॉलोनी में
औ कॉलोनी के कुल दुल्हनिया एके प्रेसिडेंट कहैंली
और एकर कहना कुल मानेली एकर कहना तुरंत करैली
पप्पू के दुल्हिन के नक्शा कालोनी में हाई हौ
ढंग एकर बेढब हौ सबसे रंग एके एकजाई हो
अपने कॉलोनी में उसने बहु सुरक्षा समिति का गठन किया है, कई लोगों को सबक सिखा चुकी है, कॉलोनी में सभी महिलाएं इसका कहना मानती हैं और प्रेसीडेंट कहती हैं।

पप्पू भी जान गया है कि किसलिए 'माई डियर' बुलाती है
औ कॉलोनी के बुढ़िया बुढ़वा दूरे से परनाम करैले
भीतरे भीतर सास डरैले भीतरे भीतर ससुर डरैले
दिन में सूट रात में मैक्सी, न घुंघटा न अँचरा जी
देख देख के हसं पड़ोसी मिसराइन औ मिसरा जी
अपने एक्को काम न छुए कुल पप्पु से करवावैले
पप्पुओ जान गयल हौ काहें माई डियर बोलावैले
कॉलोनी के सभी वृद्ध महिला-पुरुष इससे डरते हैं और दूर से ही प्रणाम करते हैं। दिन में सूट, रात में मैक्सी पहनती है, पड़ोस के मिश्रा जी और उनकी पत्नी देखकर हंसते हैं। खुद कोई काम नहीं करती, सभी काम पप्पू से करवाती है अब तो पप्पू भी जान गया है कि किसलिए 'माई डियर' बुलाती है।
चौराहेबाजी, हाहा ही ही सब कुछ छूट गया है
छूट गइल पप्पू के बीड़ी औ चौराहा छूट गइल
छूट गइल मंडली रात के ही ही हा हा छूट गइल
हरदम अप टू डेट रहैले मेकअप दोनों जून करैले
रोज बिहाने मलै चिरौंजी गाले पे निम्बुवा रगरै
पप्पू ओके का छेड़िहैं ऊ खुद छेड़ेले पप्पू के
जइसे फेरे पान पनेरिन ऊ फेरेले पप्पू के
पप्पू का रात का टहलना, चौराहेबाजी, हाहा ही ही सब कुछ छूट गया है, हमेशा अप टू डेट रहते हैं, दोनों टाइम मेकअप करते हैं। गाल पर नींबू और चिरौंजी मलते है। पप्पू उसको नहीं छेड़ पाते बल्कि वो खुद पप्पू को छेड़ती है।
एक दिन पप्पू के जेब से वो लव लेटर पा गई
पप्पू के जेबा एक दिन लव लेटर ऊ पाई गइल
लव लेटर ऊ पाई गइल, पप्पू के शामत आई गइल
मुंह पर छीटा मारै उनके आधी रात जगावैले
इ लव लेटर केकर हउवे ओनही से पढ़वावैले
लव लेटर के देखते पप्पुवा पहिले तो सोकताइ गइल
झपकी जैसे फिर से आइल पप्पुवा उहै गोताई गइल
एक दिन पप्पू के जेब से वो लव लेटर पा गई, फिर क्या था, पप्पू पर तो जैसे आफत आ गई। आधी-आधी रात को मुंह पर छींटे मार-मार कर वो पप्पू को जगाती थी और पूछती थी कि ये लव लेटर किसका है, उन्हीं से पढ़वाती भी थी।

अंदाज के एक तीर छोड़ दिया
मेहर छींटा मारे फिर फिर पप्पुवा आँख न खोलत हौ
संकट में कुकरे के पिल्ला जैसे कूँ कूँ बोलत हौ
जैसे कत्तो घाव लगल हौ हाँफ़त औ कराहत हौ
इम्तहान के चिट एस चिटिया मुंह में घोंटल चाहत हौ
सहसा हँसे ठठाकर पप्पुवा फिर गुरेर के देखलस
अँधियारन में एक तीर ऊ खूब साधकर मरलस
पप्पू को कई बार पानी के छींटे मारी लेकिन वो अभी आंख नहीं खोल रहा। संकट के समय जैसे कुत्ते के पिल्ले कूं-कूं बोलते हैं या कहीं घाव के चलते कराह रहे हों वैसे ही उसकी स्थिति है। परीक्षा के चिट की तरह वो लव लेटर को घोंट जाना चाहता है। अचानक उसे कोई उपाय सूझ गया और पहले तो ठठाकर हंसा फिर गुरेर कर पत्नी की तरफ देखा और अंधेरे में अंदाज के एक तीर छोड़ दिया।

अच्छा ! देखो, इधर आओ और सुनो !
अच्छा देखा एहर आवा बात सुना तू अइसन हउवे
लव लेटर लिखै के हमरे कॉलेज में कम्पटीसन हउवे
हमरो कहना मान मुसमिया रात आज के बीतै दे
सबसे बढ़िया लव लेटर पे पुरस्कार हौ, जीतै दे
अच्छा ! देखो, इधर आओ और सुनो ! ऐसा है कि हमारे कॉलेज में कल लव लेटर लिखने का कम्पटीसन है। मोसम्मी मेरी बात मान लो और आज की रात बीत जाने दो क्योंकि जो सबसे बढ़िया लव लेटर लिखेगा, उसे पुरस्कार मिलेगा इसलिए मुझे जीतने दो।


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देवेश ठाकुर - व्यक्ति परिचय, व्यक्तित्व तथा रचनाधर्मिता



देवेश ठाकुर प्रयोगधर्मी तथा बहुआयामी साहित्यकार हैं। वे एक साथ कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, समीक्षक, संपादक शोधक, शोध निर्देशक आदि हैं। उनके जीवनवृत्त, व्यक्तित्व, रचनाधर्मिता आदि की हम क्रम से जानकारी लेते हैं।
देवेश ठाकुर - व्यक्ति परिचय, व्यक्तित्व तथा रचनाधर्मिता

जन्म तथा जन्म स्थान - देवेश ठाकुर ने अपने नाम तथा जन्म के बारे में स्वयं कहा है कि, - "मैं - देवेश ठाकुर उर्फ दलजीत सिंह उर्फ दरबार सिंह ठाकुर उर्फ मुन्ना उर्फ दादा उर्फ दुर्गा उर्फ देबू आत्मज ठाकुर, दीवान सिंह नेगी और आनंदी देवी, ग्राम दाडिम, मल्लस सल्ट, जिला अलमोडा, उत्तराखंड। जन्म तिथी: स्कूल प्रमाणपत्र के अनुसार: 22 जुलाई, 1933।" देवेश ठाकुर के स्नेही सुदेश कुमार देवेश जी के नाम के बारे में लिखते हैं कि, "देवेश को घर में 'मुन्ना' कहकर पुकारा जाता था। वैसे उसका बचपन का नाम दलजीत सिंह है। देवेश की माताजी ने एक बार बातों-बातों में मुझे बताया था कि वह अपने ननिहाल में पैदा हुआ था। उसका नाम दलजीत रखा और उसके जन्म की सूचना उसके पिता को दे दी गई। उसके पिता तब बद्रीनाथ में तैनात थे। पिता को भगवान के दरबार में अपने बेटे के जन्म की सूचना मिली। इसलिए उसका नाम दरबार सिंह रखा। स्कुल-कॉलेज तक उसका यही नाम चलता रहा। देहरादून मे जब वह एम.ए. के प्रथम वर्ष में पढ रहा था, तब उसकी पहली कविता - पुस्तक छपी। उस पर उसका नाम 'देवेश ठाकुर' ही गया। बाद में एम.ए. पास करने के बाद बम्बई आने पर उसने कानूनी रूप से अपना नाम 'देवेश ठाकुर' करवा लिया"।

माता-पिता, भाई-बहन - देवेश ठाकुर के पिताजी का गाँव दाड़िम। पिताजी दस-ग्यारह साल के थे तब देवेश जी के दादाजी का निधन हुआ। उसके बाद घर-परिवार की ड़ोर उनके सबसे बड़े भाई के हाथ में आ गयी। बडे़ भाई की कठोरता से तंग आकर पिताजी घर से भाग गए और रानीखेत पहुँच गए। वहाँ छोटी-मोटी नौकरी करके जिंदगी शुरू कर दी। बाद में वे सेना में कांस्टेबल के रूपमें नियुक्त हो गए। 27-28 साल की उम्र में पैठानी गाँव की सात साल की लड़की से उनकी शादी हो गई। देवेश ठाकुर का जन्म नानी के घर अर्थात पैठानी में हुआ। देवेश ठाकुर के दो भाई और एक बहन थे। बहन होने के बाद उनकी माताजी घर में कन्या आ गयी इसलिए बहुत खुश हुई।
शिक्षा - जैसे की ऊपर कहा गया देवेश जी का जन्म नानी के यहाँ अर्थात् पैठानी में हुआ। वहीं पर उन्हें अक्षर-ज्ञान कराया गया और दो दर्जे तक की पढ़ाई बटूलियाँ स्कूल में हो गई। बाद में पिताजी के तबादले के कारण बिजनौर, चाँदपुर और नजीबाबाद इस प्रकार उनके स्कुललगातार बदलते रहे। नजीबाबाद के एकमात्र सरकारी स्कुल में पाँचवी कक्षा में रिक्त स्थान न होने के कारण उन्हें फिर से चैथी कक्षा में दाखिल करवा दिया था। इससे वे बहुत दुःखी हुए। परिणाम स्वरूप पढ़ाई से उनका मन ऊब गया। धीर-धारे वहाँ उन्हें दोस्त मिलते गऐ और वे उस परिवेश में घुलमिल गए। सब एक साथ मौज-मस्ती करने लगे। उनका अधिकांश समय गिल्ली-डंडा खेलने, सड़कों पर पहिया चलाने, पतंग उड़ाने और छोटी-छोटी बातों पर लड़ने और झगड़ने में बीतने लगा। बाद में छोटे भाई और बहन के साथ खेलने में उनका समय बीतने लगा। सन् 1948 में उनके पिताजी रिटायर हो गए। तब वे दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। रिटायर होने के बाद आर्थिक तंगी के कारण उनके पिताजी काफी चिंतित और उदास रहने लगे। एक दिन उन्होंने देवेश जी से कहा, "दुर्गा, तू पढा़ई में ध्यान क्यों नहीं लगाता। तू पढ़लेगा तो अपने भाई-बहन को भी पढा लेगा। मैं तो आब रिटायर हो गया हूँ। 50-55 रूपए पेंशन मिलेगे उससे क्या होगा। दसवीं की परीक्षा शुरू हो गयी। परीक्षा के लिए माँ श्रध्दानुसार उन्हें एक चम्मच दही चटाती और सर पर हाथ फेरकर उन्हें शुभकामनाएँ देती। आखिरकार परीक्षा खत्म हो गयी और देवेश जी द्वितीय श्रेणी में पास हों गये।
उनके पिताजी चाहते थे किं इंटर पास करके देवेश पुलिस सब-इन्स्पेक्टर बन जाये। इसलिए नगीना में उनका दाखिला करवा लिया। उन्होंने इंटर की परीक्षा दे दी। बाद में मिलिट्री में उन्हें दाखिल करवाने के प्रयास हुए। वहाँ दुबली तबीयत के कारण असफल हो गये। बाद में आर्थिक तंगी के बावजूद देहरादून में बी.ए. के लिए उनका दाखिला करवाया गया। बी.ए. और एम.ए. के दौरान उनका जीवन बड़ा ही संघर्षमय बीता। एम.ए. के परिणाम घोषित होने पर पता चला देवेश जी द्वितीय श्रेणी में पास हो गये। नौकरी की आवश्यकता के कारण उन्होंने बी.एड. पूरा होने के पूर्व 'बाम्के एज्युकेशन सर्विसेज' के द्वारा असिस्टैट लेक्चरर के पद पर नियुक्ति हो गयी। तभी उन्होंने पं. नंद दुलारे वाजपेयी के निर्देशन में सागर विश्वविद्यालय के अंतर्गत पीएचडी. के लिए पंजीकरण किया और 1961 में पीएचडी. की डिग्री मिल गयी। बाद में वाजपेयी के आदेशानुसार उन्होंने डी.लिट. के लिए कार्य करना शुरू किया और हिन्दी साहित्य में विश्वविद्यालयीन उच्चतम् उपाधि डि.लिट. भी अर्जित की।

नौकरियाँ - देवेश जी का असली संघर्षमय जीवन बी.ए. तथा एम.ए. के दौरान शुरू हो गया। आर्थिक दृष्टि से उन्हें बड़ा संघर्ष करना पड़ा। अपनी पढा़ई पूरी करने के लिए उन्हें टयुषन लेना पड़ा। इतना ही नहीं होटल में मैनेजर बनकर ग्राहकों की जुठी प्लेटें भी उठाने का काम किया। गर्मियोंकी छुट्टियों में अपने घर न जाकर अखबार बाँटने का काम किया। जब उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं होता तब वे खाने के समय पर दोस्तों के घर जाते और उनको वहाँ खाना मिल जाता। बी.ए. की परीक्षा देने के बाद पैसा कमाने के हेतु से वे दिल्ली चले गये। वहाँ जुतों के डिब्बे को साफ करने का काम भी किया। प्रतिकूल परिस्थिति के बावजूद भी उन्होंने आशावादी बनना स्वीकार किया।
एम.ए. में द्वितीय श्रेणी पाने के बाद एक प्राइमरी स्कूल में उन्हें पढा़ने का काम मिल गया। लेकिन पढ़ाने की ट्रेनिंग न होने के कारण 'हफ्ते भर बाद वहाँ से मेरी यह कहकर छुट्टी कर दी गयी कि मुझे पढ़ाना नहीं आता।" बाद में बी.एड. का ट्रेनिंग पूरा होने से पहले 'बाम्के एजुकेशन सर्विसेज' के अंतर्गत 'सिड़नहम' कॉलेज में असिस्टैंट लेक्चरर के पद पर नियुक्ति हो गयी। इसलिए देहरादून में बी.एड. की ट्रेनिंग छोड़कर वे बम्बई चले गये। वहाँ नौकरी ज्वाइन की। देवेश ठाकुर के शब्दों मे 'सिड़नहम कॉलेज में मेरे दिन बडे़ अच्छे बीते। मुझसे पहले दिनेश यहाँ आ चुका था। मैं उसी के साथ 'शेरे पंजाब हॉस्टल' में रहने लगा। कॉलेज में मेरे विभागाध्यक्ष प्रो. चंदुलाल दुबे ने मुझे बहुत सहयोग दिया। जब तक वे बम्बई में रहे, हर रोज घर से मेरा लंच लेकर आते रहें।" उनका तबादला होने के बाद देवेश जी विभागाध्यक्ष बनें। बाद में उनकी बदली राजकोट में हो गयी। लेकिन वहाँ का वातावरण उनको रास नहीं आया। उन्होंने इस्तीफा दिया और वे बम्बई लौट आये। बम्बई में राम नारायण रूइया कॉलेज में सहजता से उनको नौकरी मिल गयी, वहाँ पर 33 वर्षों तक वे कार्यरत रहें और 1993 में वहाँ पर सेवानिवृत्त हुए।

पारिवारिक जीवन - देवेश जी का विवाह पंजाब के सुविख्यात कामरेड पद्म विभूषण सत्यपाल डंग की बहन सुशीला जी, जो दिल्ली के लेडी हार्डिंग हॉस्पिटल में सिस्टर इंचार्ज थी, उनसे 1961 में हुआ। उन्होंने देवेश जी के हर सुख-दुःख में बखूबी साथ निभाया। दिसम्बर 1962 में उनकी पहली बेटी आभा का जन्म हुआ। जो की आज डॉक्टर है और उन्होंने एम.डी. और डीएनबी के सिवा लंदन में जाकर दो साल की लीवर ट्रांसप्लैंट की ट्रेनिंग ली है। गैस्टोएन्ट्रोलाॅजी की वह विशेषज्ञ भी है। दिसम्बर 1963 में उनकी छोटी बेटी आरती का जन्म हुआ। जो स्थानीय कॉलेज में इकाॅनाॅमिक्स की वरिष्ठ प्रवक्ता है। देवेश जी ने दोनों बेटियों का विवाह भी सादे ढंग से किया। इसके बारे में डॉ. रोहिणी देवबालन का कथन है कि "कोई शर्त नहीं, कोई धार्मिक पाखण्ड नहीं। कोई लेन-लेन नहीं। कोई मंत्रोच्चार नहीं। दोनों की रजिस्टर्स मैरिज। दोनों के अत्यन्त सम्मानित परिवारों में विवाह किया। देवेश सर की अपनी बच्चियों से बड़ी दोस्ती है, आभा-आरती दोनों ही सर को पिता से ज्यादा मित्र समझती है। सौभाग्य से उनको दोनों दामाद भी ऐसे ही मिले हैं जिनके साथ सर का व्यवहार सम्बन्धियों जैसा नहीं, बल्कि फक्कड़ दोस्तों जैसा अधिक है। आभा के पति भी लीवर ट्रांसप्लैट के सर्जन है। दोनों जसलोक और भाटिया अस्पताल में विशेषज्ञ हैं। दोनों बेटियाँ उनके घर-संसार में सुखी हैं। "कामयाब आदमी के पीछे औरत का हाथ होता है।" इसी हिसाब से देखा जाऐ तो देवेश जी के यशश्वी जीवन के पीछे भी उनकी पत्नी सुशीला जी का अनमोल सहकार्य ही है। परिवार की अधिक से अधिक जिम्मेदारी उठाने के कारण ही देवेश जी अपनी 'साहित्य-साधना' कर पायें। सुशीला स्वयं कहती है कि, "वैवाहिक जीवन में अनेक-अनेक कठिन मौकों पर हमने समझदारी बरती है और मिलकर हर स्थिति का सामना किया है और सफलता के साथ किया है।" आगे वह कहती हैं कि, "वैसे मैं जानती हूँ कि यह घर मेरी वजह से ही चल रहा है अन्यथा इनकी आदतें इस घर को न जाने कहाँ ले जाती। फिर भी यह क्यों न माने कि ये मूलतः एक अच्छे, हँसोड़, समझदार और जिन्दादिल इन्सान हैं, इनकी अव्यवस्था में भी एक व्यवस्था हैं।" पत्नी तथा अपने परिवार के साथ-साथ उनके दोस्तों का योगदान भी कम नहीं है। कॉलेज के दिनों से लेकर आज तक उनके सच्चे और आत्मीय दोस्तों ने प्रामाणिकता से अपनी मित्रता निभाई है। उनके परम स्नेही सुदेश कुमार का सुशीला जी के बारे में कथन है कि, "शीला भाभी बहुत सहज, संतुलित और शालीन हैं। मैं तो यह सोचता हूँ कि आज देवेश जो भी बन पाया है, उस में 50 प्रतिशत से अधिक भाग शीला भाभी का हैं। वे देवेश की पत्नी भी है, प्रेमिका भी हैं, दोस्त भी हैं और माँ और बहन भी हैं।" वैवाहिक जीवन में दोनों के वैचारित ताल-मेल से ही जीवन सुखकर हो जाता है तथा हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। देवेश जी और सुशीला जी के सम्बन्धों को देखकर यह बात सोलह आना सच लगती है।
अपने पूरे जीवन में उन्होंने अपने तत्वों के साथ कभी समझौता नहीं किया। जो गलत है उसे गलत ही ठहराया गया है। किसी भी परिस्थिति में गलत को सही मानने की गलती नहीं की। यहाँ तक की अपनी माँ, बहन और भाई के टुच्चे पन को भी सही-सही दर्शाया। परिवारवालों की स्वार्थी प्रवृत्ति के कारण 37 वर्ष की आयु में उनका पहला बड़ा हृदयाघात हुआ। जिसके परिणाम स्वरूप 1995 में 'ओपन हार्ट सर्जरी' करवानी पडी। ऐसी परिस्थिति में सुशीला जी ने खास खयाल रखा। पारिवारिक संघर्ष के बावजूद देवेश जी ने परिस्थितियों का सामना किया, आशावादी बनकर।

साहित्य का आरंभ - देवेश ठाकुर का भी अधिकांश साहित्यकारों की तरह साहित्य का प्रारंभ काव्यलेखन से ही हुआ। देवेश जी का शिक्षा पूरी करने के लिए संघर्ष चल ही रहा था। एम.ए. के समय उनकी दोस्ती साहित्यिक तथा साहित्य पे्रमी दोस्तों से हो गयी। उनके साथ रहने के कारण देवेश जी में भी साहित्य की रूचि निर्माण हुई और वे भी युवावस्था में कविताएँ लिखने लगे। देवेश ठाकुर ने अपने साहित्य के आरंभ के बारे में स्वयं कहा हैं कि, "देहरादून में पहली बार मुझे अपने परिवारवालों से अलग रहना पड़ा। घर की बड़ी याद आती थी। अकेली घड़ियों में या तो मैं रोता था या कविता करता था। इस तरह मैं समझता हूँ मेरा अकेलापन ही मेरे लिखने की शुरूआत का कारण बना।" देहरादून का वातावरण बड़ा साहित्यिक था। वहाँ पर स्थानीय काव्य-गोष्ठियाँ होती थी। उनमें श्रीराम शर्मा 'प्रेम', मनोहरलाल 'श्रीमान' और अपना सहपाठी 'कुल्हड' आदि लोकप्रिय कवि सहभागी रहते थे। कवि सम्मेलन होते थे। उनमें नीरज हंस कुमार तिवारी, देवेश जी के मित्र देवराज 'दिनेश' आदि भी सहभागी होते थे। इनकी प्रेरणा से देवेश जी की 'काव्य-साधना' आगे बढती गई। एम.ए. के प्रथम वर्ष में 'वैनगार्ड' नामक स्थानीय पत्रिका में उनकी कविताएँ छपने लगी। बाद में 'मयुरिका' नाम का पहला काव्य संकलन प्रकाशित हुआ। 1956 में उनका 'अन्तर-छाया' नामक खंडकाव्य प्रकाशित हुआ।
देवेश ठाकुर के एक और मित्र प्रा. दिनेश कुकरेती का कथन है कि "कॉलेज में और शहर में भी आए दिन छोटे-मोटे कवि सम्मेलन तथा साहित्य गोष्ठियाँ होती रहती थी। इसी वातावरण से प्रभावित होकर हम दो-चार मित्रों ने 'तरूण-साहित्य मण्डल' नाम से छोटी सी संस्था संगठित की थी। जिसकी प्रथम दो-तीन गोष्ठियाँ बंगाली-मौहल्ले के उस कमरे में धूमधाम से आयोजित की गई जो देवेश एवं सुदेश का निवास-स्थान था।" इस प्रकार काव्य से देवेश ठाकुर का साहित्यिक प्रवास शुरू हो गया। जो आगे चलकर उपन्यास कहानी, समीक्षा, शोध आदि की तरफ बढता ही गया। साहित्य के प्रति उनकी अपनी एक अलग रूचि है। इसके बारे में दिनेश कुकरेती का मत द्रष्टव्य है, "पुस्तकों से देवेश का प्रारम्भ से ही प्यार रहा है, पढ़ने का ही नहीं, संग्रह का भी शौक है। भीषण अर्थाभाव के दिनों में भी वह पुस्तकें खरीदता रहता था। बम्बई में होटल निवास के दिनों में ही उसका ट्रंक कपड़ों की जगह पुस्तकों से भर गया था।" साहित्य के प्रति रूचि, लगन तथा जिज्ञासा के कारण 500 पृष्ठों का शोध-प्रबंध उन्होंने 18 महीनों में पूरा कर लिया। जिसके परिणाम स्वरूप 1961 में उन्हें पीएच.डी. की उपाधि मिल गयी।

सम्मान एवं उपाधियाँ - देवेश ठाकुर के 'शून्य से शिखर तक', और 'शिखर पुरुष' दोनों उपन्यास महाराष्ट्र राज्य हिन्दी अकादमी द्वारा पुरस्कृत हैं। उनका डी.लिट्. का शोध-प्रबंध 'आधुनिक हिंदी साहित्य की मानवतावादी भूमिकाएँ' - हिन्दी संस्थान, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 'तुलसी पुरस्कार' से पुरस्कृत हैं।


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खांसी की आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा



खांसी की समस्या प्रायः हर मौसम में होने की सम्भावना होती है किंतु ठंड में अधि‍क होती है।  यह कई अन्य बीमारियों की जड़ भी हो सकती है। अगर खांसी का उपचार समय पर नहीं किया गया तो यह कई बीमारियां दे सकती हैं। यदि उपचार के बाद भी खांसी जल्दी ठीक न हो तो इसे मामूली बिल्कुल न समझें। आयुर्वेद में खांसी को कास रोग भी कहा जाता है। खांसी होने ये पहले रोगी को गले में खरखरापन, खराश, खुजली आदि होती है और गले में कुछ भरा हुआ-सा महसूस होता है। कभी-कभी मुंह का स्वाद बिगड़ जाता है और भोजन के प्रति अरुचि हो जाती है।

खांसी की आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा

खांसी के प्रकार
  1.  कफज खांसी : कफ के कारण होने वाली खांसी में कफ बहुत निकलता है। इसमें जरा-सा खांसते ही कफ आसानी से निकल आता है। कफज खांसी के लक्षणों में गले व मुंह का कफ से बार-बार भर जाना, सिर में भारीपन व दर्द होना, शरीर में भारीपन व आलस्य, मुंह का स्वाद खराब होना, भोजन में अरुचि और भूख में कमी के साथ ही गले में खराश व खुजली और खांसने पर बार-बार गाढ़ा व चीठा कफ निकलना शामिल है।
  2. क्षतज खांसी : यह खांसी वात, पित्त, कफ, तीनों कारणों से होती है और तीनों से अधिक गंभीर भी। अधि‍क भोग-विलास (मैथुन) करने, भारी-भरकम बोझा उठाने, बहुत ज्यादा चलने, लड़ाई-झगड़ा करते रहने और बलपूर्वक किसी वस्तु की गति को रोकने आदि से रूक्ष शरीर वाले व्यक्ति के गले में घाव हो जाते हैं और खांसी हो जाती है।इस तरह की खांसी में पहले सूखी खांसी होती है, फिर रक्त के साथ कफ निकलता है।
  3. क्षयज खांसी : यह खांसी क्षतज खांसी से भी अधिक गंभीर, तकलीफदेह और हानिकारक होती है। गलत खानपान, बहुत अधि‍क भोग-विलास, घृणा और शोक के के कारण शरीर की जठराग्नि मंद हो जाती है और इनके कारण कफ के साथ खांसी हो जाती है। इस तरह की खांसी में शरीर में दर्द, बुखार, गर्माहट होती है और कभी-कभी कमजोरी भी हो जाती है। ऐसे में सूखी खांसी चलती है, खांसी के साथ पस और खून के साथ बलगम निकलता है। क्षयज खांसी विशेष तौर से टीबी यानि (तपेदिक) रोग की प्रारंभिक अवस्था हो सकती है, इसलिए इसे अनदेखा बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए।
  4. पित्तज खांसी : पित्त के कारण होने वाली खांसी में कफ निकलता है, जो कि पीले रंग का कड़वा होता है। वमन द्वारा पीला व कड़वा पित्त निकलना, मुंह से गर्म बफारे निकलना, गले, छाती व पेट में जलन होना, मुंह सूखना, मुंह का स्वाद कड़वा रहना, प्यास लगती रहना, शरीर में गर्माहट या जलने का अनुभव होना और खांसी चलना, पित्तज खांसी के प्रमुख लक्षण हैं।
  5. वातज खांसी : वात के कारण होने वाली खांसी में कफ सूख जाता है, इसलिए इसमें कफ बहुत कम निकलता है या निकलता ही नहीं है। कफ न निकल पाने के कारण, खांसी लगातार और तेजी से आती है, ताकि कफ निकल जाए। इस तरह की खांसी में पेट, पसली, आंतों, छाती, कनपटी, गले और सिर में दर्द भी होने लगता है।
एलोपैथिक चिकित्सा के अनुसार निम्न कारणों से होती है-
  1. प्लूरा के रोग, प्लूरिसी, एमपायमा आदि रोग होने से खांसी होती है।
  2. फुफ्फुस के रोग, जैसे तपेदिक (टीबी), निमोनिया, ट्रॉपिकल एओसिनोफीलिया आदि से खांसी होती है।
  3. श्वसन नली के ऊपरी भाग में टांसिलाइटिस, लेरिन्जाइटिस, फेरिन्जाइटिस, सायनस का संक्रमण, ट्रेकियाइटिस तथा यूव्यूला का लम्बा हो जाना आदि से खांसी होती है।
  4. श्वसनी (ब्रोंकाई) में ब्रोंकाइटिस, ब्रोंकियेक्टेसिस आदि होने से खांसी होती है।
खांसी की आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा
  1. अगर आप खांसी से परेशान हैं तो अदरक का जूस पीएं। इसमें शहद मिला कर आप इसका और ज्यादा फायदा उठा सकते हैं।
  2. अगर खांसी के साथ बलगम भी है तो आधा चम्मच काली मिर्च को देसी घी के साथ मिलाकर खाएं। आराम मिलेगा।
  3. अडूसा के पत्तों के रस (6 मि.ली.) को शहद (4मि.ली.) में मिलाकर पीने से भी खांसी और गले की खराश से राहत मिलती है।
  4. अदरक के रस में तुलसी मिलाएं और इसका सेवन करें। इसमें शहद भी मिलाया जा सकता है।
  5. अदरक को छोटे टुकड़ों में काटें और उसमें नमक मिलाएं। इसे खा लें। इसके रस से आपका गला खुल जाएगा और नमक से कीटाणु मर जाएंगे।
  6. अनार का रस भी खांसी से राहत दिलाता है। लेकिन इसके लिए आपको सिर्फ अनार का नहीं, इसमें जरा सा पिपली पाउडर और अदरक भी डालना होगा।
  7. अनार के जूस में थोडा अदरक और पिपली का पाउडर डालने से खांसी को आराम मिलता है।
  8. अपनी चाय में अदरक, तुलसी, काली मिर्च मिला कर चाय का सेवन कीजिए। इन तीनों तत्वों के सेवन से खांसी-जुकाम में काफी राहत मिलती है।
  9. अलसी के बीजों को मोटा होने तक उबालें और उसमें नीबू का रस और शहद भी मिलाएं और इसका सेवन करें। जुकाम और खांसी से आराम मिलेगा।
  10. आंवला खांसी के लिए काफी असरकारी माना जाता है। आंवला में विटामिन-सी होता है, जो ब्लड सरकुलेश को बेहतर बनाता है। अपने खाने में आंवला शामिल कर आप एंटी-ऑक्सीडेंट्स का सोर्स बढ़ा सकते हैं। यह आपकी इम्यूनिटी को मजबूत करेगा।
  11. आंवला में प्रचुर मात्रा में विटामिन-सी पाया जाता है जो खून के संचार को बेहतर करता है और इसमें एंटी-ऑक्सीडेंट्स भी होते हैं जो आपकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता में इजाफा करता है।
  12. आधा चम्मच शहद में एक चुटकी इलायची और कुछ नीबू का जूस डालें। इस मिश्रण को दिन में दो से तीन बार लें। यह घरेलू नुस्खा खांसी की रामबाण दवा साबित हो सकता है।
  13. खांसी की अंग्रेजी दवा तो बहुत से लोग लेते हैं, लेकिन उसे लेने से नींद आने लगती है और उसके साइड इफेक्ट भी बहुत हैं। इसकी जगह आप हल्दी वाला दूध ले सकते हैं। हल्दी वाले दूध एंटीऑक्सीडेंट्स होते हैं। इसके अलावा हल्दी में एंटी वायरल और एंटी बैक्टीरियल गुण भी होते हैं, जो संक्रमण से लड़ने में मददगार होते हैं। तो खांसी की दवा के तौर पर आप हल्दी वाले दूध का इस्तेमाल कर सकते हैं।
  14. खांसी की असरकारी दवा के तौर पर आप गर्म पानी और नमक का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसके लिए आप गर्म पानी में चुटकी भर नमक डालकर उससे गरारे कर सकते हैं। ऐसा करने से आपको खांसी से हुए गले के दर्द से राहत मिलेगी।
  15. खांसी के साथ अक्सर बलगम भी हो जाती है। यह बेचैनी और दर्द पैदा करती है। इससे बचने के लिए आप काली मिर्च को देसी घी में मिलकार ले सकते हैं। राहत महसूस होगी।
  16. गर्म पानी में चुटकी भर नमक मिला कर गरारे करने से खांसी-जुकाम के दौरान काफी राहत मिलती है। इससे गले को राहत मिलती है और खांसी से भी आराम मिलता है। यह भी काफी पुराना नुस्खा है।
  17. गले में खराश या ड्राई कफ होने पर अदरक के पेस्ट में गुड़ और घी मिलाकर खाएं।
  18. जितना हो सके गर्म पानी पिएं। आपके गले में जमा कफ खुलेगा और आप सुधार महसूस करेंगे।
  19. जुकाम और खांसी के उपचार के लिए आप गेहूं की भूसी का भी प्रयोग कर सकते हैं। 10 ग्राम गेहूं की भूसी, पांच लौंग और कुछ नमक लेकर पानी में मिलाकर इसे उबाल लें और इसका काढ़ा बनाएं। इसका एक कप काढ़ा पीने से आपको तुरंत आराम मिलेगा। हालांकि जुकाम आमतौर पर हल्का-फुल्का ही होता है जिसके लक्षण एक हफ्ते या इससे कम समय के लिए रहते हैं। गेंहू की भूसी का प्रयोग करने से आपको तकलीफ से निजात मिलेगी।
  20. जैसा कि हम बता चुके हैं अदरक और नमक दोनों ही खांसी में गले के दर्द से राहत दिलाते हैं। तो अगर दोनों को एकसाथ खाया जाए तो यह और भी फायदेमंद साबित होंगी। आपको करना बस यह है कि अदरक के टुकड़ों पर नमक लगा कर खाना है।
  21. तुलसी के साथ शहद हर दो घंटे में खाएं। कफ से छुटकारा मिलेगा।
  22. नहाते समय शरीर पर नमक रगड़ने से भी जुकाम या नाक बहना बंद हो जाता है।
  23. नाक बह रही हो तो काली मिर्च, अदरक, तुलसी को शहद में मिलाकर दिन में तीन बार लें। नाक बहना रुक जाएगा।
  24. बचपन में सर्दियों में नानी-दादी घर के बच्चों को सर्दी के मौसम में रोज हल्दी वाला दूध पीने के लिए देती थी। हल्दी वाला दूध जुकाम में काफी फायदेमंद होता है क्योंकि हल्दी में एंटीआक्सीडेंट्स होते हैं जो कीटाणुओं से हमारी रक्षा करते हैं। रात को सोने से पहले इसे पीने से तेजी से आराम पहुचता है. हल्दी में एंटी बैक्टीरियल और एंटी वायरल प्रॉपर्टीज मौजूद रहती है जो की इन्फेक्शन से लडती है. इसकी एंटी इंफ्लेमेटरी प्रॉपर्टीज सर्दी, खांसी और जुकाम के लक्षणों में आराम पहुंचाती है।
  25. ब्रैंडी तो पहले ही शरीर गर्म करने के लिए जानी जाती है। इसके साथ शहद मिक्स करने से जुकाम पर काफी असर होगा।
  26. लगभग 2 कप पानी में अदरक के छोटे-छोटे टुकड़े और कुछ इमली की कुछ पत्तियां डालें और तब तक उबालें जब तक कि ये एक कप न रह जाए। इसमें 4 चम्मच शक्कर ड़ालकर धीमी आंच पर कुछ देर और उबालें, फिर ठंडा होने दें। ठंडा होने पर इसमें 10 बूंद नीबू रस की डाल दें। हर तीन घंटे में इस सिरप का एक बार सेवन करने से खांसी छू-मंतर हो जाती है।
  27. लहसुन को घी में भून लें और गर्म-गर्म ही खा लें। यह स्वाद में खराब हो सकता है लेकिन स्वास्थ्य के लिए एकदम शानदार है।
  28. लहसुन भी खांसी से राहत दिलाने में कारगर है। इसके लिए आपको लहसुन को घी में भून कर गर्मागरम खाना होगा।
  29. खांसी से परेशान हैं तो गर्म पानी पिएं। यह गले में जमे कफ को कम करने में मदद करेगा।
  30. समान मात्रा में शहद और कच्चे प्याज का रस (लगभग एक चम्मच) मिलाकर 3 से 4 घंटे के लिये किसी अंधेरे स्थान पर रख दें और बाद में इसका सेवन करें। यह खांसी की दवाई के रूप में सटीक कार्यकरता है।
  31. खांसी-जुकाम में गाजर का जूस काफी फायदेमंद होता है लेकिन बर्फ के साथ इसका सेवन न करें।
  32. सूप, चाय, गर्म पानी का सेवन करें और ठंडा पानी, मसालेदार खाना आदि से परहेज करें।


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बाबा नागार्जुन की काव्य-यात्रा एवं काव्य-भूमि



नागार्जुन की काव्य-यात्रा
प्रख्यात कवि-कथाकार के रूप में चर्चित नागार्जुन का पूरा नाम श्री वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री', 'नागार्जुन' है। 1911 ई0 की ज्येष्ठ पूर्णिमा को जन्मे नागार्जुन का मूल निवास स्थान तरौनी, जिला दरभंगा, बिहार है। परंपरागत प्राचीन पद्धति से संस्कृत की शिक्षा ग्रहण की। सुविख्यात प्रगतिशील कवि-कथाकार स्वभाव से आवेगशील लेकिन गंभीर भी थे। ये राजनीति और जनता के मुक्ति-संघर्षों में सक्रिय और रचनात्मक हिस्सेदारी के प्रति सजग थे। हिन्दी के अतिरिक्त मैथिली, संस्कृत और बँगला में भी आपने उपयोगी काव्य-रचना प्रस्तुत किया है। संस्कृत और मैथिली में ये 'यात्री' नाम से कविताएं लिखते थे।
कालिदास और नागार्जुन, दोनों महाकवि इस देश के अद्भुत घुमक्कड़ कवि हैं। तुंग हिमालय के कंधों पर छोटी-बड़ी कई झीलें देखकर दोनों यात्री कवियों ने निज के ही उन्माद गीत लिखें हैं। प्रकृति के कवि या तो जीवन से क्षेत्रन्यास ले लेते हैं या व्यक्तिवाद के हित में ललित लोकायतन बनाकर जन-जीवन से ही दूर हो जाते हैं। सोजे वतन के प्रेमचन्द और नागार्जुन, किसान भारतवर्ष के ऐसे अनूठे रचनाकार हैं जो व्यापक और ठोस दबी हुई दूब का रूपक बन चुके हैं। मैथिलि काव्य-संग्रह 'पत्रहीन नग्न गाछ' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिन्दी कविता के लिए मध्य प्रदेश शासन द्वारा 'मैथिली शरण गुप्त' सम्मान और सम्पूर्ण साहित्य साधना के लिए उत्तर प्रदेश शासन द्वारा 'भारत-भारती' पुरस्कार एवं बिहार सरकार के शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया।

नागार्जुन की कविताओं को पढ़-सुन कर कोई भी सहज की आजादी के आर-पार के भारतीय जन-इतिहास से परिचित हो सकता है। ये इस देश की मनुष्यों की सम्पूर्ण गतिविधि में शरीक रचनाएँ हैं। एक ऐसे रचनाकार की रचनाएँ जो हमेशा अपने समय, उस समय के बीच घटती राष्ट्रीय, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक घटनाओं और हादसों के रू-ब-रू खड़ा है। उनकी नज़र से कोई चीज़ छूटती नहीं।

युगधारा- 'युगधारा' नागार्जुन जी का पहला काव्य संकलन है। 'निराला' जी की 'अनामिका' जिस तरह आधुनिक कविता का श्रेष्ठतम संकलन है, उसी तरह नागार्जुन जी की 'युगधारा' पक्षधर कविता का आधार निर्मित करने वाला विशिष्ट संकलन रहा है। निराला और नागार्जुन, दोनों किसान और नारी की मुक्ति की प्रगतिशील भूमिका पर जोर देने वाले महाकवि हैं। दोनों महाकवियों ने देश के 'तुच्छ से तुच्छ जन' की जीवनी पर कहानी, काव्य रूपक और गीत लिखे हैं। दोनों महाकवि कभी साधारण जनों से अहलाद नहीं हुए।

'प्रकाशचन्द्र गुप्त' ने 'युगधारा' संग्रह के संबंध में लिखा है कि-"नागार्जुन नई पीढ़ी के कवियों में अपना विशेष स्थान रखते हैं। 'नागार्जुन' और 'सुमन' के समान कवियों का विकास हिन्दी कविता के भविष्य का निर्णायक होगा। नागार्जुन दो शैलियों में कविता करते रहे हैं, एक शैली संस्कृत की पदावली से मोह रखती है, दूसरी में वह जन-गीतों की परंपरा अपनाते हैं। युगधारा में पहली श्रेणी की कविताएँ ही अधिक है, किन्तु दोनों शैलियों के बीच कोई सुस्पष्ट रेखा भी नहीं है।

यह कविताएँ काफी लोकप्रिय हो चुकी हैं। इन्हें एक स्थान पर एकत्र पाकर पाठक कृतज्ञ होंगे। नागार्जुन ने जन-ज्वाला को अपने काव्य का आभूषण बनाया है। उनकी रचनाएँ जन-संघर्षों को बल देती हैं। हमें आशा है कि इस संग्रह का हिन्दी में अभूतपूर्व स्वागत होगा, और नागार्जुन की वाणी की शक्ति दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ती। हिन्दी कविता और जनता की अभिलाषाओं-आकांक्षाओं दोनों के लिए यह शुभ होगा।"

'रवि ठाकुर' कविता में नागार्जुन, रवीन्द्रनाथ टैगोर से यह आशीष मांगते हैं: 'मन मेरा स्थिर हो। नहीं लौटूँ, चिर चलूँ, कैसा भी तिमिर हो। प्रलोभन में पड़कर बदलूँ नहीं रुख।' यही आज तक की प्रगतिशील कविता की उद्बोधन दृष्टि रही है। 'पक्षधर' कविता और 'युगधारा' आज की कविता का पर्यायवाची दस्तावेज बन चुका है। हिन्दी में युगधारा और नागार्जुन मानवीय इतिहास के आधार-स्तम्भ हैं। हिन्दी की जातीय चेतना, यूरोप, एशिया, अमरीका या अफ्रीका यानि तीसरी दुनिया की जनता के सर्वाधिकार की कविता है। नागार्जुन अपराजेय किसान कवि हैं। युगधारा उसी जनकवि का प्रथम संकलन है।

"इस संकलन में आई रचनाओं के सम्बन्ध में कुछ सूचनाएँ अति आवश्यक हैं- सन् 1943 तक कवि 'यात्री' नाम से लिखते रहें। 'रवि ठाकुर' और 'बादल को घिरते देखा है' रचना के साथ रचयिता का यही नाम छपा था। उसके बाद यात्री का नाम हम मैथिली-साहित्य में कवि और कथाकार के तौर पर अब भी पाते हैं। नागार्जुन का नाम हिन्दी जगत में और 'यात्री' का नाम मैथिली-जगत में प्रख्यात है-दोनों वास्तव में एक ही व्यक्ति की अभिधाएँ हैं।"

प्रत्यक्ष राजनीति की वामपक्षी प्रवृत्तियों ने नागार्जुन को जनसाधारण से संयुक्त कर दिया फिर वह आसान से आसान भाषा में लिखने लगे। फिर भी मुक्तवृक्त और अतुकान्त शैलियों को उन्होंने तिलांजलि नहीं दे दी। दोहा, चौपाई, रोला, छप्पय, नचारी, सोहर और पद्यबद्ध कथक शैली अभिव्यक्ति के लिए वह कोई भी लोकप्रिय छन्द अपनाने को तैयार रहते हैं। खेद की बात है कि इस प्रकार की कोई रचना इस संकलन में नहीं प्रकाशित है।

शोषित और पीड़ित वर्गों के प्रति कवि की सहानुभूति कृत्रिम नहीं है। नितांत दरिद्र कुल में जन्म हुआ। गरीबी के कारण स्कूल-कालेज का मुँह नहीं देखा। मूर्ख रह जाने की विभीशिका ने संस्कृत पढ़ने के विकल्प को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। आज भी आपका कोई निश्चित काम नहीं है। फिर फटीचरी ही मानो नागार्जुन की जीवन-सहचरी है। अपनी मैथिली रचनाओं के कुछ रूपान्तर वह इस संकलन में डालना चाहते थे, परन्तु पुस्तक का कलेवर ज्यादा न फूलाने का हमारा मनोभाव जानकर कवि इस ओर से निर्लिप्त हो गयें हैं। दूसरे संकलन में उनकी मैथिली रचनाओं का रूपान्तर पर्याप्त मात्रा में संकलित है।

इस संकलन की कोई भी रचना अप्रकाशित नहीं हैं, समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं ने इन्हें छापा है। इनमें से कुछ रचनाएँ बार-बार पूरी की पूरी उद्धृत की जाती रही है। (बादल को घिरते देखा है, रवि ठाकुर आदि); गांधी जी की हत्या के अगले ही रोज प्रकाशित 'तर्पण' को अठारह पत्र-पत्रिकाओं ने अपने आप छापा था, 'शपथ' को ग्यारह पत्र-पत्रिकाओं ने पूर्णतः या अंशतः छापा था। साम्प्रदायिकता के खिलाफ कवि की यह उद्दीप्त ललकार बिहार सरकार बर्दाश्त नहीं कर सकी थी। गांधी की मृत्यु के संबंध में नागार्जुन की चार रचनाएँ (तर्पण, मत क्षमा करो, गोडसे, शपथ) प्रकाशित हुई थी।

इस संग्रह की प्रारम्भिक कविता 'जन-वंदना' में उन्होंने आम जन-जीवन का गुणगान करते हुए यह उद्घोषित करना चाह रहे हैं कि जनता में असीम शक्तियां निवास करती हैं जिसे पहचानने की आवश्यकता है-
हे कोटिशीर्ष हे कोटिबाहु हे कोटिचरण!
युग की लक्ष्मी भव की विभूति कर रहीं तुम्हारा
स्वयं वरण
तुम महिमामंडित परंपराओं के वाहन
तुम साधारण तुम निर्विशेष। 
'भिक्षुणी' कविता में नारी जीवन के अन्तद्र्वन्द्व को बड़ी सहजता लेकिन मार्मिकता के साथ नागार्जुन ने प्रस्तुत किया है। बौद्ध धर्म के प्रभाव से परिपूर्ण इस कविता में उन्होंने तत्कालीन परिवेश और और महिलाओं की स्थिति का तार्किक वर्णन किया है। वे लिखते हैं-
"बैठ गई भिक्षुणी टेक कर घुटने
तीन बार उसने
सादर प्रणाम किया
झुक-झुक अमिताभ को
फिर उठ खड़ी हुई, चारों ओर देखा
हतप्रभ-सी, मानो शिशिर-शशिलेखा।"

इसी क्रम में आपकी 'पाषाणी' कविता का उल्लेख मिलता है, जहाँ महर्षि गौतम के श्राप से अभिशप्त उनकी पत्नी अहिल्या का कारुणिक वर्णन मिलता है-
"गौतम-दार, अहल्या मेरा नाम
यहीं-कहीं होंगे मुनि भी हे राम!
दिया उन्होंने मुझको यह अभिशापः
"परनर दूशित, पुंश्चली, तेरी देह,
हो जाये निस्पंद, कुलिश-पाशाण!"

नागार्जुन की कविता 'चन्दना' एक प्रकार की कथात्मक कविता का उदाहरण प्रस्तुत करती है। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, नारी की दयनीय स्थिति, नारी के उत्थान के प्रति प्रयास, सामान्य और संभ्रांत का भाव यही विशेषताएँ इस कविता को ऊपर उठाती हैं। बच्चों के खरीद-भरोख, दास-प्रथा, और बालश्रम जैसी कुप्रथाओं का चित्रण इस कविता में सर्वत्र देखने को मिलता है। यहाँ एक अन्य समस्या भी दृष्टिगत है कि महिलाएँ ही महिलाओं की सबसे बड़ी शत्रु शाबित होती हैं। चन्दना के पालन-पोशण को लेकर धनावह सेठ बड़े उत्साहित और आशावान हैं, उसे अपनी पुत्री सदृश देखते हैं, लेकिन सेठानी को इसमें छल और भावी आशंका दिखाई देती है-
"ऊँट का आरोही
ले गया लड़की को
हाट में बेचने
सबल स्वस्थ सुन्दर फुर्तीले स्वामिभक्त
बिकते थे जहाँ हजारों दास-दासीजन
सुस्मित प्रिय-दर्शन
आठ-नौ बरस की
कुमारी बसुमति
देखते ही उसको तत्क्षण खरीद लिया
धनावह सेठ ने मुँह माँगे दाम पर
ले जाकर घर में सेठानी को सौंप दिया।"
खिचड़ी विप्लव देखा हमने- प्रस्तुत संग्रह में उनकी आठवें दशक में लिखी कविताएँ संकलित हैं। यह आठवाँ दशक हमारे देश के इतिहास में व्यापक हलचलों, आन्दोलनों, टकरावों, सत्ता-परिवर्तनों, दमन और जुर्म और उनके प्रतिरोधों के महत्त्वपूर्ण साल रहें हैं। इस सबका नागार्जुन से बेहतर गवाह कौन हो सकता है क्योंकि वे स्वयं इस सबके बीच रहे। इन कविताओं में यह सम्पूर्ण इतिहास एक नए रचनात्मक तेवर में मूर्त हुआ है। ये कविताएँ स्वयं में भारतीय जन-मन में हो रही सुगबुगाहट का दस्तावेज भी हैं तो आन्दोलन की ललकार भी, संघर्ष के बीच की लय और ताल भी हैं तो स्थापित व्यवस्था पर आक्रमण भी और साथ ही विकल्प में उभरती राजनीति से मोहभंग भी। लेकिन इस सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण जो बात है वह यह कि ये कविताएँ आम शोषित-पीड़ित-उपेक्षित जन-गण के पक्ष में लिखी गई हैं- वस्तु और रूप सब कुछ का चुनाव उसी के तहत हुआ है। 
 "नागार्जुन संपूर्ण क्रांति में शामिल हुए- जयप्रकाश नारायण और रेणु के साथ, लालू यादव से उनकी प्रगाढ़ता उसी समय हुई होगी। आपातकाल में जेल गये। फिर छूट आये। संपूर्ण क्रांति से मोहभंग हुआ। मोहभंग क्यों हुआ, संपूर्ण क्रांति के समर्थक दलों का वर्ग-चरित्र क्या था? इस सबका प्रभाव नागार्जुन पर जेल में पड़ा होगा। उस दौर में लिखी कविताओं के संकलन का नाम है-खिचड़ी विप्लव।" 
 इस संग्रह की एक प्रसिद्ध कविता 'जयप्रकाश पर पड़ी लाठियाँ लोकतंत्र की' उस समय के समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण पर केन्द्रित है जिसमें कवि ने बड़ी बेबाकी से तत्कालीन परिस्थितियों का यथार्थ वर्णन किया है-
एक और गांधी की हत्या होगी अब क्या?
बर्बरता के भोग चढे़गा योगी अब क्या?
पोल खुल गयी शासक दल के महामंत्र की!
जयप्रकाश पर पड़ी लाठियाँ लोकतन्त्र की!
नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी जी कहते हैं-"नागार्जुन का कृतित्व ही नहीं उनका व्यक्तित्व भी कालजयी है। नागार्जुन बुजुर्गों के साथ बुजुर्ग, जवानों के साथ जवान और बच्चों के साथ बच्चे हैं। जिन लोगों ने उन्हें महिलाओं के साथ घुल-मिलकर बातें करते देखा है वे लिस्ट को और आगे बढ़ायेंगे। अपनी एक कविता में वह कालिदास से जवाब-तलब करते हैं-'कालिदास सच-सच बतलाना....' उनका जीवन अनुभव व्यापक है। कबीरदास की भाँति वह अनेक परस्पर विरोधी प्रवृतियों के समुच्चय हैं। जीवन के प्रति गहरी आसक्ति है। तीव्र सौन्दर्यानुभूति के रचनाकार हैं और इसीलिए गहरी घृणा और तिलमिला देने वाले व्यंग्य के सहज कवि। यह सहजता जटिल अंतर्वस्तु का रूप है।" 
 नागार्जुन की कविता उस तीन-चैथाई हिन्दुस्तान से संबंधित है जो राष्ट्रीय उत्पादन और विकास की रीढ़ कहा जा सकता है। पर इस देश में कुछ लोग ऐसे हैं जो पूँजी के बल पर सारे राष्ट्र के भविष्य और वर्तमान पर कुण्डली मार कर बैठ गए हैं। 'धन कुबेरों' की यह जमात भी नागार्जुन की कविताओं में अक्सर दिखाई दे जाती है। इन्हीं की बदौलत समाज में तिकड़म, शोषण, भ्रष्टाचार और प्रदर्शन का नंगा नाच होता है। धर्म और राजनीति इन्हीं के घर दूल्हा-दुल्हन की तरह ब्याहे जाते हैं। विदिशा लायंस क्लब में उदास मन से कविता-पाठ के लिए जाते हुए रास्ते में बाबा ने कहा था-"जानते हो यह लायंस, रोटरी क्लबें क्या हैं? समाज-सेवा तो सिर्फ बहाना मात्र है। वस्तुतः यह धनपतियों और सरकारी अफसरों के विवाह-मण्डप हैं। विदेशों की चमक-दमक दिखाने के झरोखें हैं।" 
"नागार्जुन की कविता का प्रथम संसार यही है। गाँव-देश की धरती, वातावरण, पेड़-पौधे, रीति-रिवाज, बोल-चाल सबसे उनका निकट का रिश्ता है। यात्री होने के बावजूद वे सबको याद रखते हैं। बाहर से जितने बौने और क्षीण से दिखते हैं भीतर से उतने ही ऊँचे और भाव-सम्पन्न हैं। उनकी ऊँचाइयाँ देखनी हो तो उन्हें कविता के बीच पाना होगा। कविता ऊध्र्वगामी है। उसे साधारण चित्त की यात्रा नहीं कहा जा सकता। इस उदारता में सारी धरती समा जाती है। छायावादी कविता अपनी ऊँचाइयों पर पहुँचते ही दिव्य हो जाती है। नागार्जुन की कविता फिर भी पार्थिव बनी रहती है। वह घनघोर लोकधर्मी है। लोक के प्रति उनकी निश्ठा इतनी प्रखर है कि कला और कलागत सौन्दर्य की दुनिया भी कभी-कभी पीछे छूट जाती है।" 
 नागार्जुन की कविता जहाँ भी इन धनकुबेरों को देखती हैं, फट पड़ती हैं। उनका उपहास करती हैं, उन पर फब्तियाँ कसती हैं। 'यह उन्मत्त प्रदर्शन', 'पैसा चहक रहा है', 'बोला ढाकुरिया का पानी', 'प्लीज एक्सक्यूज मी' और 'करने आए हैं चहल-कदमी' जैसी कविताएँ इसी वैभव-संसार के रंग-ढंग, रीति-नीति और जीवन-शैली का उद्घाटन करती हैं। 
 मैथिली में भी नागार्जुन की कविताओं का 'टोन' वही है जो हिन्दी में। उन दिनों देश आजाद हो चुका था और नेताओं के चरित्र भी खुलने लगे थे। सेठ-साहुकारों, महाजनों की बन आयी थी। बड़े-बड़े देशी उद्योगपति और धन्नासेठ दोनों हाथों अपना घर भरने में लग गये थे। 'रामराज' कविता में कवि ने लिखा-
"रामजाज में अबकी रावण नंगा होकर नाचा है
सूरत शक्ल वही है भैय्या बदला केवल ढाँचा है
नेताओं की नीयत बदली फिर तो अपने ही हाथों
धरती माता के गालों पर कस कर पड़ा तमाचा है।"
सन् 1951 में कुछ दिनों के लिए नागार्जुन ने वर्धा की 'राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' में भी काम किया और अपनी आदत के मुताबिक जल्दी ही वापस लौट आए। इलाहाबाद में रहकर स्वतंत्र रूप से अनुवाद और लेखन कार्य की कोशिश की। इस बीच नागार्जुन उपन्यासों पर भी हाथ आजमाने लगे थे। 'बलचनमा' पहले मैथिली में लिख डाला था पर वहाँ उसका कोई बाजार नहीं था। सो बरसों तक धरा रहा। धीरे-धीरे कवि ने खुद उसे हिन्दी में लिखा यह सोचते हुए कि "मैथिली माँ है, मगर उससे पेट नहीं भरता। हिन्दी पेट भरता है, इसीलिए उसे अपना कलेजा नोचकर चढ़ा देता हूँ।" 
इन्हीं दिनों नागार्जुन ने काफी बाल साहित्य लिखा और गुजराती-बंगला उपन्यासों के अनुवाद की ओर बढ़े। संस्कृत के 'मेघदूत' का अनुवाद मुक्त वृत्त में किया जो धारावाहिक रूप से साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपा। गीत-गोविन्द का अनुवाद किया। शरदचन्द के उपन्यासों में ब्राह्मण की बेटी, देहाती दुनिया और अन्य कई कृतियों का अनुवाद कार्य किया। 
 
नागार्जुन की काव्य-भूमि 
नागार्जुन का लेखन श्रमिक जनता की ओर से किया गया वह अश्वमेघ है जिसमें जड़ पुरातनता और वृद्ध जर्जर सामन्तवाद को आहुति दी जाकर जनवादी चेतना की दिग्विजय की घोषणा की गई है। गरीब ब्राह्मण परिवार का यह औघड़ शब्दकर्मी 'ब्रह्मपिचाश' की तरह न अपनी आत्मचेतन विशिष्टता की उधेड़बुन में पड़ा है, न ही अपने को अद्वितीय और असाधारण मानते हुए पंक्ति-समर्पण की कृपालु मुद्रा ही अपना रहा है। टेलीप्रिंटर की तरह जो जनता के मनोभावों के प्रत्येक क्षण को टंकित करता रहा, जिसने अपनी व्यक्ति पीड़ा को छिपाए रखा और लोक के सुख-दुख को ही परम सत्य समझा, उसी का नाम नागार्जुन है।
लोक की पीड़ा और सामाजिक क्षोभ ही उसके लेखन के प्रधान अनुभव हैं। पीड़ित मानवता को शोषण और अनाचार के खिलाफ खड़ी करके वह एक प्रतिरोधक मोर्चाबंदी करता है। नकली समाजवाद और छद्म वामपंथ के उस वातावरण में वह ऐसा कैसे कर सका इसका सबसे बड़ा कारण उसका भारतीय जनता से गहरा सम्पर्क है। सारे प्रगतिशीलों में जो कवि भारतीय जनता के चूल्हे-चैके तक पहुँचा हुआ है वह वही है। उसको पढ़ते हुए हम अपनी जनता के सीधे सम्पर्क में आते हैं। उसकी सारी जानकारी कानों सुनी नहीं आँखों देखी है। प्रतीक, उपमान और मुहावरे तक जनता से लिए गये हैं। वह किताबों के जरिये जनता को नहीं जानता। जनता के बीच रहकर अपने शब्द की परीक्षा करता है।
साहित्य और राजनीति की मोटी-मोटी किताबें पढ़कर जो लोग प्रगतिशीलता की तलाश यहाँ करेंगे उन्हें कोफ्त भी होगी और निराशा भी। किन्तु जो ठेठ जीवन-शैली की खोज करते हुए इधर आएँगें। उनके हाथ बहुत कुछ लगेगा। वे यहाँ उत्साह और उमंग से परिपूर्ण संघर्ष भी पा सकेंगे और चाँदनी रातों को आम के बगीचों में होने वाला स्वस्थ्य अभिसार भी। प्रगतिशीलता अगर सिर्फ राजनीतिक दृष्टि नहीं है तो उसकी सर्वतोमुखी प्रतिष्ठा का साहित्य नागार्जुन जैसे विज्ञ लोग ही लिख सकें हैं।
प्रकृति, नारी, सौन्दर्य, यौवन और प्रणय के अनुभव भी यहाँ हमें मिलते हैं। पर इसे पढ़ते हुए हमारी दृष्टि लोलुपता के अंजन से अंजित होने के बजाय स्वस्थ रस-बोध से तृप्त हो उठेंगी। सौन्दर्य की एक समग्रदर्शी कवि भावना हमारी चेतना को क्षुद्र आकर्षणों से ऊपर उठाकर भारतीय सौन्दर्य बोध के उन उच्चतम शिखरों की ओर ले जाएँगी जहाँ रूप की ऊपरी पर्त गुण और स्वभाव की गहरी और बारीक छननी में छनकर सहज संतुलित और मर्यादित हो उठती हैं।
नागार्जुन नये और पुराने समस्त प्रगतिशीलों में सबसे अधिक संवेदनशील लोकोन्मुख कवि रहे हैं। भारतीय आबादी के जितने स्तरों और रूपों का पता उन्हें है, उतना इस युग में शायद किसी दूसरे को नहीं। दरिद्र किन्तु ब्राह्मण परिवार के सदस्य होने के नाते अपने युग के सामंतों जागीरदारों से लेकर मध्य जातियों और गरीबी की रेखा को परिभाषित करने वाली जातियों के संपर्क की भी सुविधा उन्हें मिली। काशी की विद्वान मंडली, पंडे-पुरोहितों ने उन्हें इसलिए आत्मीयता दी कि वे दरभंगा के मैथिल पं. वैद्यनाथ मिश्र हैं और परम्परागत अर्थों में साहित्याचार्य भी। इसी काशी में नागार्जुन गरीब छात्रों, विधवाओं और उन रिक्शा-इक्का वालों के भी संपर्क में आए जो सामंती और पूंजीवादी समाज की व्यवस्था के शिकार रहें है।
यात्री एवं साहित्यकार और सबसे बड़ी बात की एक संवेदनशील रचनाकार के नाते भी नागार्जुन का एक पाँव कस्बों में ही रहा है तथा दूसरा महानगरों में। महानगर उन्हें लुभा नहीं पाता और कस्बा उन्हें निराश नहीं करता। महानगरों में वे कनाट प्लेस और चैरंगी के बजाय उन सीलन भरी बस्तियों में रहते थे, जहाँ आज छोटे-मोटे दुकानदार, ट्यूशनिस्ट अध्यापक, विज्ञापन की खोज में आती-जाती रोजगार खोजती युवतियाँ, कल-कारखानों में काम करने वाला मजदूर, आफिस में माथापच्ची करने वाले बाबू रहा करते थे। नागार्जुन यहाँ एक सदस्य की हैसियत से आते-जाते रहते थे। पटना, इलाहाबाद, 'सागर', विदिशा या तरौनी गाँव या फिर केदारनाथ अग्रवाल का बाँदा, सब उनके आकर्षण के केन्द्र रहें हैं। घुमंतू स्वभाव ही उन्हें श्रीलंका और तिब्बत भी ले गया। वहीं उन्हें एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक, एक अनुभव से दूसरे अनुभव तक भी ले जाती हैं। इसीलिए जन-जीवन की जितनी पकड़ नागार्जुन को है, उतनी केदारनाथ और त्रिलोचन को भी नहीं।
शोषित और पीड़ित वर्गों के प्रति कवि की सहानुभूति कृतिम नहीं है। नितांत दरिद्र कुल में जन्म हुआ। गरीबी के कारण स्कूल-कालेज का मुँह नहीं देखा। मूर्ख रह जाने की विभीशिका ने संस्कृत पढ़ने के विकल्प को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। आज भी आपका कोई निश्चित काम नहीं है। फिर फटीचरी ही मानो नागार्जुन की जीवन-सहचरी है। अपनी मैथिली रचनाओं के कुछ रूपान्तर वह इस संकलन में डालना चाहते थे, परन्तु पुस्तक का कलेवर ज्यादा न फूलाने का हमारा मनोभाव जानकर कवि इस ओर से निर्लिप्त हो गयें हैं। दूसरे संकलन में उनकी मैथिली रचनाओं का रूपान्तर पर्याप्त मात्रा में संकलित है।
नागार्जुन के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी जी कहते हैं ''नागार्जुन का कृतित्व ही नहीं उनका व्यक्तित्व भी कालजयी है। नागार्जुन बुजुर्गों के साथ बुजुर्ग, जवानों के साथ जवान और बच्चों के साथ बच्चे हैं। जिन लोगों ने उन्हें महिलाओं के साथ घुल-मिलकर बातें करते देखा है वे लिस्ट को और आगे बढ़ायेंगे। अपनी एक कविता में वह कालिदास से जवाब-तलब करते हैं-'कालिदास सच-सच बतलाना....' उनका जीवन अनुभव व्यापक है। कबीरदास की भाँति वह अनेक परस्पर विरोधी प्रवृतियों के समुच्चय हैं। जीवन के प्रति गहरी आसक्ति है। तीव्र सौन्दर्यानुभूति के रचनाकार हैं और इसीलिए गहरी घृणा और तिलमिला देने वाले व्यंग्य के सहज कवि। यह सहजता जटिल अंतर्वस्तु का रूप है।''
नागार्जुन एवं उनकी कविता के संबंध में डा. रामस्वरूप चतुर्वेदी जी ने अपने 'हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास' में लिखते हैं-''प्रगतिवादी कवियों में नागार्जुन बहुचर्चित हैं। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में जैसे अनेक प्रकार के राष्ट्रगान, प्रभाती और उद्बोधन-गीत मुखर शैली में लिखे गए थे वैसे ही स्वतंत्र भारत के विविध आंदोलनो के लिए गीत और कविताएँ नागार्जुन ने लिखी हैं। उन गानों में निष्ठा अधिक थी, इन कविताओं में व्यंग्य अधिक है जो सटीक तुकों के प्रयोग से और पैना हो जाता है। आंदोलनो के वैविध्य और बदलते स्वरूप से कवि की आस्था में भी परिवर्तन आते गए हैं-गांधी, माक्र्स, विनोबा, जयप्रकाश अलग-अलग समयों में कवि के नायक रहें। इन आंदोलन मूलक कविताओं के अतिरिक्त सामान्य जन-जीवन को अंकित करने वाली कुछ कोमल और कुछ तीखी रचनाएँ भी नागार्जुन ने लिखी हैं, जो एक प्रकार से आधुनिक हिन्दी कविता में प्रगतिवाद का रेखांकन माना जा सकता है।''
नागार्जुन की कविताओं को पढ़-सुन कर कोई भी सहज की आजादी के आर-पार के भारतीय जन-इतिहास से परिचित हो सकता है। ये इस देश की मनुष्यों की सम्पूर्ण गतिविधि में शरीक रचनाएँ हैं। एक ऐसे रचनाकार की रचनाएँ जो हमेशा अपने समय, उस समय के बीच घटती सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक घटनाओं और हादसों के रू-ब-रू खड़ा है। उनकी नजर से कोई चीज़ छूटती नहीं।
नागार्जुन मुकम्मिल कवि हैं, जीवन की समग्रता के कवि, बेहद गहरे राग के कवि हैं। आदमी और आदमीयत की उच्चतर भावनाओं के चितेरे। भाषा और रचना-शिल्प के वैविध्य में भी नागार्जुन की कविता मानक कविता है। इतनी जीवंत, अनेकरूपा, व्यंजक भाषा, छंदों की जितनी समृद्ध दुनिया उनके काव्यलोक में है, अन्यत्र कम ही मिलेगी। आधुनिक कवियों में एक निराला ही नागार्जुन की कवि प्रतिभा के बरक्स अपनी छाप मन पर छोड़ते हैं। जनकवि तो वे हैं ही-जनधर्मिता की मिसाल है उनकी कविता।


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निबंध जी- 4 देश



जी- 4 चार राज्यों भारत, जर्मनी, जापान, तथा ब्राजील का संगठन है। यह एक मात्र उद्देश्य के लिए बनाया गया है और यह उद्देश्य है - संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में चारों राज्यों द्वारा स्थायी स्थान प्राप्त करना इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु चारों राज्यों ने अपनी घोषणा द्वारा एक दूसरे देशों के इस दावेदारी का समर्थन किया है। यह संगठन 2004 में आस्तित्व में आया। जी-4 के देशों ने सुरक्षा परिषद् में स्थायी सीट की औपचारिक रुप से दावेदारी संयुक्त राज्य के महासभा के 59वे सत्र के आरम्भ में 22 सितम्बर 2004 को संयुक्त रुप में पेश की। इस दावेदारी को पेश करते हुए इन देशों ने संयुक्त रुप से यह कहा कि अब संयुक्त राष्ट्र संघ की निर्णय प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी तथा प्रतिनिधित्वपूर्ण बनाने का समय आ गया है। पिछले 50 वर्षों में दुनिया में आए बदलावों के कारण वर्तमान चुनौतियों और खतरों से निपटने हेतु संयुक्त राष्ट्र संघ में बुनियादी परिवर्तन आवश्यक है। 1945 के बाद से अब तक संयुक्त राष्ट्र में चार गुना सदस्यता वृद्धि हुई है, अतः सुरक्षा परिषद् में भी अस्थायी और स्थायी सदस्य बढ़ाए जाने चाहिए।
निबंध जी- 4 देश

24 अक्टूबर 1945 के समय संयुक्त राष्ट्र का उद्भव महज 51 राज्यों के साथ हुआ था, जबकि आज यह सदस्य संख्या बढ़कर 193 तक जा पहुँची है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भी अस्थायी सदस्य 1965 में 6 से बढ़ाकर 10 कर दिया गया था। संयुक्त राष्ट्र के स्थायी सदस्य देश संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, चीन, फ्रांस तथा ब्रिटेन उस समय की महान शक्तियां थी। वही तकनीकी, अर्थव्यवस्था एवं अर्थव्यवस्था के आकार के रुप में भारत एवं ब्राजील भी विश्व में महत्वपूर्ण स्थान रखते है। आज इन देशों की मांग एवं मान्यता यही है कि उन्हें सुरक्षा परिषद् का स्थायी हिस्सा बनाकर ही संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका वास्तविक एवं लोकतान्त्रिक आधार ले सकती है। जी-4 के सदस्य देश इस बात के लिए कृत संकल्प है कि उन्हें आज की विश्व व्यवस्था में अनुकूल एवं सम्मान जनक स्थान मिले।

जी-4 के द्वारा किये जा रहे प्रयासों में विभिन्न समस्याएं उभर कर सामने आयी है। राष्ट्रों की प्रतिस्पर्धा, आपसी तनावपूर्ण संबंध जी-4 के देशों की स्थायी सदस्यता के मार्ग में सबसे बडी़ बाधा है। जहाँ चीन, जापान की सदस्यता के खिलाफ है, वही इटली जर्मनी की सदस्यता के, पाकिस्तान भारत के सदस्यता के और अर्जेंटीना एवं अन्य अमेरिकी देश ब्राजील के सदस्यता के विरोध में उठ खड़े हुए हैं। अमेरिका एवं चीन इन राज्यों की स्थायी सदस्यता के पक्ष में नहीं है।


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कोरोना वायरस से न घबराएं, दिखाएं समझदारी, बरतें सावधानी



कोरोना वायरस के संबध में एहतियाती कदम ही सबसे बड़ा बचाव साबित हो सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एडवाइजरी के मुताबिक रोजमर्रा के जीवन में हम अगर हम छोटे-छोटे काम करते हैं, तो संक्रमण का खतरा काफी कम हो जाएगा।
  1. अक्सर हम अपनी नाक, मुंह और आंखों को बार-बार छूते रहते हैं, ऐसा न करें। हथेलियां कई सतहों को छूती हैं। ऐसे में उस पर वायरस होते हैं। दूषित हथेली से वायरस नाक, मुंह या आंखों के जरिए शरीर में जा सकता है।
  2. अगर आपको अस्पताल में रुकना पड़ रहा है तो कोशिश करें कि अपने खाने में दही का इस्तेमाल करें। दही में एसीडोफिलस नाम का बैक्टीरिया होता है जो कई तरह के वायरस को खत्म कर देता है।
  3. अगर आपको खांसी या जुकाम है, तो मास्क जरूर पहनें। बाहर निकलते वक्त आपके जरिए वायरस दूसरों में संक्रमित हो सकता है, इसलिए खास ख्याल रखें।
  4. अगर आपको बुखार, खांसी है या सांस लेने में परेशानी हो रही है तो तुरंत डॉक्टर से मिलें, कोशिश करें कि घर पर ही रहें। डॉक्टर से तुरंत संपर्क करने से बीमारी को शुरुआत में ही पकड़ा जा सकता है।
  5. अपने आसपास और घर की सफाई रखें। कपड़ों को अच्छी तरह से धोएं और कम से कम दो घंटे धूप में सुखाएं।
  6. अपने आसपास के लोगों के साथ कम से कम 3 फीट का फासला बनाए रखने की कोशिश करें, खासतौर से उस व्यक्ति से जिसे खांसी या जुकाम हो। जब कोई व्यक्ति खांसता है या छींकता है, तो हवा में वायरस फैल जाते हैं। अगर आप ज्यादा करीब रहेंगे तो सांस के रास्ते ये वायरस आपके शरीर में जा सकता है।
  7. अपने स्मार्टफोन को हफ्ते में एक बार डिसइंफेटिंग वाइप्स से साफ जरूर करें, ये वाइप्स फोन में ऊपरी भाग में रहने वाले सभी कीटाणुओं को खत्म कर देते हैं। हमारे हाथ में 24 घंटे रहने वाले स्मार्टफोन की स्क्रीन वायरस का बड़ा अड्डा है। स्क्रीन पर मेथिसिलिन रसिस्टेंट स्टेफाय्लोकोक्स औरीयास (एमआरएसए) नाम के जीवाणु होते हैं।
  8. अपने हाथों को कम से कम 20 सेकंड तक रगड़कर साबुन से धोएं।
  9. आइसक्रीम, कोल्डड्रिंक, बर्फ, बाजार की लस्सी, ठंडी छाछ और अन्य ठंडी वस्तुओं के सेवन से बचें।
  10. इस वायरस का आकार 400-500 माइक्रोन का है जो अन्य वायरस से बड़ा है।
  11. इस वायरस से बचाव के लिए मास्क का इस्तेमाल करें।
  12. कपूर, लौंग, इलाइची और जावित्री को पीसकर अपने साथ रखें और समय-समय पर उसे सूंघते रहें।
  13. कोरोनावायरस संक्रमित व्यक्ति से दूरी बनाकर रखें।
  14. गंदे हाथों से अपनी नाक और मुंह को न छुएं और न ही गंदे हाथों से कुछ खाएं।
  15. गर्म स्थान पर रहें क्योंकि यह वायरस 27 डिग्री तापमान पर मर जाता है।
  16. छींकते या खांसते वक्त नाक और मुंह को टिशू से ढंक लें और तुरंत बाद इस टिशू को डस्टबीन में फेंक दें। छींकने से निकलने वाले तरल पदार्थ में ढेरों वायरस होते हैं और ये तेजी से फैल सकते हैं।
  17. दिन में कई बार नियमित तौर पर साबुन और पानी से हाथ को कम से कम 20 सेकेंड तक धोएं, बैक्टीरिया मारने वाला अच्छा सेनेटाइजर का भी उपयोग कर सकते हैं। ऐसा करने से हाथों पर रहने वाले वायरस से छुटकारा मिल जाएगा।
  18. नमक के गर्म/गुनगुने पानी से गरारे करें, इससे वायरस फेफड़ों तक नही पहुंच पाएगा।
  19. प्रतिदिन प्राणायाम और सूर्यनमस्कार करें। इससे श्ववसन तंत्र और फेफड़े मजबूत होंगे।
  20. फ्रीज में रखी ठंडी वस्तुओं का सेवन बिल्कुल न करें।
  21. बाजार में मिलने वाले दूध से बने उत्पाद जैसे चीज, बटर, मायोनीज का सेवन न करें।
  22. बाथरूम की सफाई के वक्त शावर को जरूर साफ करें, इसे डिटॉल के पानी से धो सकते हैं। प्लास्टिक के पर्दों का प्रयोग बाथरूम में न करें। शॉवर में मैथालॉबेक्टर समेत कई कीटाणु पनपते हैं।
  23. यह वायरस धातु की सतह पर 12 घंटे, कपड़ों पर 9 घंटे, और हमारे हाथों तथा शरीर पर 10 मिनट तक जीवित रहता है।
  24. यह वायरस, खांसी, छींक, श्वास और छूने से एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में फैलता है।
  25. रोजाना तुलसी, लौंग, अदरक और हल्दी का गर्म दूध पिएं।
  26. लोगों से हाथ न मिलाएं और गले भी न मिलें। 5 फीट की दूरी से बात करें।
  27. विटामिन-सी युक्त फलों जैसे संतरे, मौसमी और आंवला खाएं। नींबू का इस्तेमाल भी जरूर करें।
  28. विमान में क्रू सदस्यों के हाथ से खाने का सामान लेने से पहले अपने हाथ को अच्छे से साफ कर लें, हवाई यात्रा में क्रू सदस्यों से कोरोनावायरस के फैलने का डर सबसे ज्यादा है।
  29. शाकाहारी और हमेशा ताजा भोजन खाएं। मांसाहार के सेवन से बचें।
  30. सर्दी, खांसी, कफ, बुखार होने वाले व्यक्ति को डॉक्टर के पास तुरंत जाने की सलाह दें।
  31. सार्वजनिक स्थलों और भीड़भाड़ वाले स्थानों पर जाने से बचें।
  32. हर 15 मिनट में कम से कम एक घूंट गुनगुना पानी पीते रहें।


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अस्थमा की समस्या को जड़ से खत्म करते हैं घरेलू उपचार



अस्थमा आजकल एक आम बीमारी होती जा रही हैं परन्तु ये काफी गंभीर स्वास्थ्य समस्या है। आज कल यह बच्चों काफी देखने को मिल रही है। जिस तरह से वातावरणीय प्रदूषण बदल रहा है, खान-पान में मिलावट आदि के चलते अस्थमा के मरीजों की संख्या में वृद्धि हो रही हैं। आजकल ये बीमारी बच्चों में अधिक फैल रही है।


अस्थमा क्या है?
अस्थमा को दमा भी कहते है यह श्वसन तंत्र या फेफड़ों से सम्बंधित बीमारी है। इसमें सांस की नली ब्लॉक या पतली हो जाती हैं जिसके कारण सांस लेना मुश्किल हो जाता है। इसके कारण छोटी-छोटी सांस लेनी पड़ती है, छाती में कसाव जैसा महसूस होता है, सांस फूलने लगता है, खाँसी आती है आदि। ये समस्या जुखाम, कोल्ड कफ के दौरान अधिक हो जाती है क्योंकि कफ से सांस की नली और संकरी हो जाती है। सुबह या रात में अकसर खाँसी का दौरा पड़ता है। यह बीमारी किसी को भी हो सकती है। अस्थमा किस प्रकार का है, कितना गंभीर है व्यक्ति से व्यक्ति अलग हो सकता है। कुछ लोगों को इससे अधिक समस्या नहीं होती है परन्तु कुछ को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अस्थमा दो प्रकार की हो सकते है: विशिष्ट और गैर विशिष्ट, विशिष्ट प्रकार के अस्थमा के रोग में सांस लेने में समस्या एलर्जी के कारण होती है दूसरी तरफ गैर विशिष्ट अस्थमा एक्सरसाइज़, मौसम के प्रभाव या आनुवांशिक प्रवृत्ति के कारण होता है। अगर किसी को परिवार में आनुवांशिकता के तौर पर अस्थमा की बीमारी है तो इसके होने की संभावना अधिक हो जाती है। अस्थमा बीमारी का कोई इलाज नहीं है परन्तु इसके लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है।

अस्थमा होने का कारण
  1. अधिक मात्रा में जंक फूड खाने के कारण
  2. आनुवांशिकता के कारण
  3. घर में पालतू जानवर का होना
  4. घर में या उसके आसपास धूल का होना
  5. ज्यादा नमक खाने के कारण
  6. तनाव या भय के कारण
  7. धूम्रपान
  8. वायु प्रदूषण
  9. सर्दी के मौसम में अधिक ठंड होने के कारण
  10. सर्दी, फ्लू ब्रोंकाइटिस और साइनसाइटिस का संक्रमणआदि

अस्थमा के लक्षण - यह रोग अचानक से शुरू हो सकता है इसके शुरू होने के लक्षण इस प्रकार हैं:
  1. उल्टी का होना
  2. खांसी, छींक या सर्दी जैसी एलर्जी
  3. बैचेनी जैसा महसूस होना
  4. सांस लेते वक्त घरघराहट जैसी आवाज का आना
  5. सिर का भारी होना और थकावट लगना
  6. सीने में खिचाव या जकड़न का महसूस होना आदि
 घरेलू उपचार
  1. 100 ग्राम दूध में लहसुन की पांच कलियां धीमी आँच पर उबाकर इनका हर रोज दिन में दो बार सेवन करने से दमे में काफी फायदा मिलता है।
  2. 2-3 सूखे अंजीर को पीसकर रात भर पानी मे भिगोकर सुबह खाली पेट खाएं। इससे श्वास नली में जमा बलगम ढीला होकर बाहर निकलता है, स्थाई रूप से आराम प्राप्त होता है।
  3. 250 ग्राम पानी में मुट्ठी भर सहजन की पत्तियां मिलाकर उसे 5 मिनट तक उबालें। फिर ठंडा होने पर उसमें चुटकी भर नमक, काली मिर्च और नीबू रस मिलाएं, इस सूप का रोज सेवन करें लाभ मिलेगा।
  4. 4-5 लौंग को 150 ग्राम पानी में 5 मिनट तक उबालें। इस मिश्रण को छानकर इसमें एक चम्मच शुद्ध शहद मिलाकर गरम-गरम पी लें। रोज दो से तीन बार यह काढ़ा पीने से निश्चित रूप से लाभ मिलता है।
  5. अस्थमा और ब्रोंकाइटिस को नियंत्रित करने में तुलसी औरकरेले का रस भी काफी मददकरता है। तुलसी कीकरीब 15 पत्तियों को लेकर एक सामान्य आकार केकरेले के साथ कुचल लें और इसे अस्थमा से पीड़ित व्यक्ति को प्रतिदिन रात में सोने से पहले दें, शीघ्र ही फायदा होगा।
  6. अस्थमा का दौरा पड़ने पर गर्म पानी में तुलसी के 5 से 10 पत्ते मिलाएं और सेवन करें। इससे सांस लेने में आसानी होती है। इसी प्रकार तुलसी का रस, अदरक रस और शहद का समान मिश्रण प्रतिदिन एक चम्मच के हिसाब से लेना अस्थमा में आराम मिलता है।
  7. आंवला दमा रोग में बहुत लाभदायक है। एक चम्मच आंवले के रस मे दो चम्मच शहद मिलाकर पीने से फेफडे़ ताकतवर बनते हैं।
  8. एक गिलास पानी में एक चम्मच लहसुन का रस मिलाएं और इसे 3 महीने तक दिन में दो बार प्रत्येक दिन लगातार दें तो अस्थमा और रक्त से जुड़े विकारों में काफी राहत मिलती है।
  9. एक चम्मच मेथीदाने को एक कप पानी में उबालें। ठंडा होने पर उसमें अदरक का एक चम्मच ताजा रस और स्वादानुसार शहद मिलाएं। सुबह-शाम नियमित रूप से इसका सेवन करने से निश्चित ही बहुत लाभ मिलता है।
  10. एक चम्मच हल्दी एक गिलास गर्म दूध में मिलाकर पीने से दमा काबू में रहता है। हल्दी के एंटीऑक्सीडेंट गुण के कारण एलर्जी भी नियंत्रण में रहती है।
  11. एक चम्मच हल्दी को दो चम्मच शहद में मिलाकर चाट लें दमा का दौरा तुरंत काबू में आ जाएगा।
  12. एक पके केले में चाकू से लंबाई में चीरा लगाकर उसमें एक चौथाई छोटा चम्मच महीन पिसी काली मिर्च भर दें। फिर उसे 2-3 घंटे बाद हल्की आँच में छिलके सहित भून लें। ठंडा होने पर केले का छिलका निकालकर केला खा लें। एक माह में ही दमें में खूब लाभ होगा।
  13. गर्म पानी में अजवाइन डालकर स्टीम लेने से भी दमे को नियंत्रित करने में राहत मिलती है।
  14. तुलसी के 10-15 पत्ते पानी से साफकर लें फिर उन पर काली मिर्च का पावडर बुरककर खाने से दमा में आराम मिलता है।
  15. तुलसी के पत्तों को अच्छी तरह से साफकर उनमें पिसी काली मिर्च डालकर खाने के साथ देने से दमा नियंत्रण में रहता है।
  16. तुलसी के पत्तों को पानी में पीसकर इसमें दो चम्मच शहद मिलाकर सेवन करने से दमा रोग में शीघ्र लाभ मिलता है।
  17. दमे मे खाँसी होने पर पहाडी नमक सरसों के तेल मे मिलाकर छाती पर मालिश करने से तुरंत आराम मिलता है।
  18. मेथी की पत्तियों का ताजा रस, अदरक और शहद को धीमी आंच पर कुछ देर गर्मकरके रोगी को पिलाने से अस्थमा रोग में काफी आराम मिलता है।
  19. लहसुन की दो पिसी कलियां और अदरक की गरम चाय पीने से भी अस्थमा नियंत्रित रहता है। इस चाय का सुबह-शाम करना चाहिए।

विशेष : किसी भी औषधि के प्रयोग से पूर्व विशेषज्ञ से परामर्श अवश्य लें।


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भारत के संविधान के अनुच्छेद 163 अंतर्गत मुख्यमंत्री की नियुक्ति



मुख्यमंत्री भारतीय राज्य की कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान होता है। वह राज्य विधानसभा का नेता होता है। किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री की नियुक्ति उस प्रदेश के राज्यपाल के द्वारा संविधान के अनुच्छेद 163 के तहत की जाती है। 
संविधान के अनुच्छेद 164 यह प्रावधान करता है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा। विधानसभा चुनावों में पार्टी के एक बहुमत प्राप्त नेता को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया जाता है। राज्यपाल के पास नाममात्र का कार्यकारी अधिकार है, लेकिन वास्तविक कार्यकारी अधिकार मुख्यमंत्री के पास है। हालांकि राज्यपाल द्वारा प्राप्त विवेकाधीन शक्तियाँ राज्य प्रशासन में मुख्यमंत्री की शक्ति, अधिकार, प्रभाव, प्रतिष्ठा और भूमिका को कुछ हद तक कम कर देती हैं। एक व्यक्ति जो राज्य विधानसभा का सदस्य नहीं है, उसे छह महीने के लिये मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया जा सकता है, उस समय सीमा के भीतर उसे राज्य विधानसभा की सदस्यता ग्रहण करनी होगी, ऐसा न करने पर उसे मुख्यमंत्री पद का त्याग करना होता है। मुख्यमंत्री का कार्यकाल निश्चित नहीं होता है और वह राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है। राज्यपाल द्वारा उसे तब तक बर्खास्त नहीं किया जा सकता जब तक कि विधानसभा में बहुमत प्राप्त होता है। यदि वह विधानसभा में विश्वास मत खो देता है तो उसे त्यागपत्र दे देना चाहिये अन्यथा राज्यपाल उसे बर्खास्त कर सकता है।
राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्य विधानसभा चुनाव के बाद करता है या फिर तब करता है, जब मुख्यमंत्री के त्यागपत्र देने के कारण या बर्ख़ास्त कर दिये जाने के कारण उसका पद रिक्त हो जाता है। यदि विधानसभा चुनाव में किसी एक ही दल को विधानसभा में बहुमत प्राप्त हो जाता है और उस दल का कोई निर्वाचित नेता हो, तब उसे मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त करना राज्यपाल की संवैधानिक बाध्यता होती है। यदि मुख्यमंत्री अपने दल के आन्तरिक मतभेदों के कारण त्यागपत्र देता है, तो उस दल के नये निर्वाचित नेता को मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त किया जाता है। चुनाव में किसी पक्ष के बहुमत प्राप्त न करने की स्थिति में या मुख्यमंत्री की बर्ख़ास्तगी की स्थिति में राज्यपाल अपने विवेक से मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है और उसे नियत समय के अन्दर विधानसभा में बहुमत साबित करने का निर्देश देते है। संविधान के अनुच्छेद 167 के तहत राज्यों के मुख्यमंत्री, राज्यपाल और मंत्रियों की राज्य परिषद के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करता है।

भारत के संविधान के अंतर्गत - मुख्यमंत्री

मुख्यमंत्री होने की योग्यता - मुख्यमंत्री पद के लिए संविधान में कोई योग्यता निर्धारित नहीं है, जो भी व्यक्ति राज्य विधान सभा अथवा विधान परिषद की सदस्यता रखने की योग्यता रखता है वह मुख्यमंत्री बन सकता है। राज्य विधानसभा का सदस्य न होने वाला व्यक्ति भी मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि वह 6 मास के अन्तर्गत राज्य विधानसभा का सदस्य निर्वाचित हो जाये। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार किसी सजा प्राप्त व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद के लिए अयोग्य माना जाएगा।

मुख्यमंत्री के कर्तव्य तथा अधिकार - मुख्यमंत्री के कर्तव्य तथा अधिकार निम्नलिखित हैं–
  • वह राज्य के शासन का वास्तविक अध्यक्ष है और इस रूप में वह अपने मंत्रियों तथा संसदीय सचिवों के चयन, उनके विभागों के वितरण तथा पदमुक्ति और लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा अन्य सदस्यों एवं महाधिवक्ता और अन्य महत्वपूर्ण पदाधिकारियों की नियुक्ति के लिए राज्यपाल को परामर्श देता है।
  • मुख्यमंत्री परिषद की बैठक की अध्यक्षता करता है तथा सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का पालन करता है। यदि मंत्रिपरिषद का कोई सदस्य मंत्रिपरिषद की नीतियों से भिन्न मत रखता है, तो मुख्यमंत्री उसे त्यागपत्र देने के लिए कहता है या राज्यपाल उसे बर्खास्त करने की सिफारिश कर सकता है।
  • यदि मंत्रिपरिषद के किसी सदस्य ने किसी विषय पर अकेले निर्णय लिया है, तो राज्यपाल के कहने पर उस निर्णय को मंत्रिपरिषद के समक्ष विचारार्थ रख सकता है।
  • राज्य में असैनिक पदाधिकारियों के स्थानांतरण के आदेश मुख्यमंत्री के आदेश पर जारी किये जाते हैं तथा वह राज्य की नीति से संबंधित विषयों के सम्बन्ध में निर्णय करता है।
  • वह राज्यपाल को राज्य के प्रशासन तथा विधायन सम्बन्धी सभी प्रस्तावों की जानकारी देता है।
  • वह राज्यपाल को विधानसभा भंग करने की सलाह देता है।
  • वह राष्ट्रीय विकास परिषद में राज्य का प्रतिनिधित्व करता है।
  • वह (मुख्यमंत्री) एक मंत्री के रूप में किसी भी व्यक्ति को नियुक्त करने के लिए राज्यपाल को सलाह दे सकता है। केवल मुख्यमंत्री की सलाह के अनुसार ही राज्यपाल मंत्रियों की नियुक्ति करते हैं।
  • वह आवश्यकता के अनुसार कभी भी मंत्रियों और विभागों के बीच आवंटन और फेरबदल कर सकता है।
  • वह मंत्री को इस्तीफा देने के लिए कह सकता है, अगर वह (मंत्री) इस्तीफा नहीं देता है तो मुख्यमंत्री उसे बर्खास्त करने के लिए राज्यपाल को सलाह दे सकते हैं।
  • वह सभी मंत्रियों का निर्देशन, मार्गदर्शन देने के साथ- साथ सभी गतिविधियों को नियंत्रित करता है।
  • अपने अनुसार अपने मंत्रिपरिषद की नियुक्ति के साथ से ही वह उसके इस्तीफा देने या मौत की स्थिति में ही पूरी मंत्रिपरिषद को भंग किया जा सकता है।
मुख्यमंत्री का राज्यपाल से संबंध - भारत के संविधान के अनुच्छेद 167 के तहत राज्यों के मुख्यमंत्री राज्यपाल और मंत्रियों की राज्य परिषद के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करता है। राज्यपाल से संबंधित कार्य निम्न प्रकार हैं:
  • मुख्यमंत्री राज्यपाल से राज्य के प्रशासन से संबंधित मंत्रियों की परिषद के सभी निर्णयों पर संवाद करते हैं।
  • जब कभी भी राज्यपाल प्रशासन के बारे में लिये गये निर्णयों से संबंधित कोई भी जानकारी मांगते हैं तो तब मुख्यमंत्री को उस जानकारी को राज्यपाल को प्रदान करना या करवाना होता है।
  • जब एक निर्णय कैबिनेट के विचार के बिना लिया गया है तो तब राज्यपाल मंत्रियों की परिषद के विचार के लिए पूछ सकते हैं।
  • मुख्यमंत्री महत्वपूर्ण अधिकारियों की नियुक्ति के संबंध में जैसे- अटॉर्नी जनरल, राज्य लोक सेवा आयोग (अध्यक्ष और सदस्य), राज्य निर्वाचन आयोग आदि के बारे में राज्यपाल के साथ सलाह मशविरा करते हैं।
  • सरकार की एक मंत्रिमंडल के रूप में अंतत: मुख्यमंत्री ही मतदाताओं के लिए जिम्मेदार होता है। हालांकि वह राज्य का मुखिया होता है लेकिन उसे राज्यपाल को प्रोत्साहित करने और चेतावनी देने के लिए मदद करने हेतु गवर्नर के साथ " सही परामर्श किया जाने वाले नियम" (सरकारिया आयोग की सिफारिश के अनुसार) का पालन करना पड़ता है।
मुख्यमंत्री का राज्य विधायिका से संबंध-
  • उसके द्वारा घोषित की गयी सभी नीतियों को सदन के पटल पर रखना होता है।
  • वह राज्यपाल को विधान सभा भंग करने की सिफारिश करता है।
  • वह समय- समय पर राज्य विधान सभा के सत्र के आयोजन और स्थगन के बारे में राज्यपाल को सलाह देता है।
पद विमुक्ति - सामान्यत: मुख्यमंत्री अपने पद पर तब तक बना रहता है, जब तक उसे विधानसभा का विश्वास मत प्राप्त रहता है। अत: जैसे ही उसका विधानसभा में बहुमत समाप्त हो जाता है, उसे त्यागपत्र दे देना चाहिए। यदि वह त्यागपत्र नहीं देता है, तो राज्यपाल उसे बर्खास्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त मुख्यमंत्री निम्नलिखित स्थितियों में बर्खास्त किया जा सकता है–
  1. यदि राज्यपाल मुख्यमंत्री को विधानसभा का अधिवेशन बुलाने तथा उसमें बहुमत सिद्ध करने की सलाह दे और यदि राज्यपाल के द्वारा निर्धारित अवधि के भीतर मुख्यमंत्री विधानसभा का अधिवेशन बुलाने के लिए तैयार नहीं हो, तो राज्यपाल मुख्यमंत्री को बर्खास्त कर सकता है।
  2. यदि राज्यपाल अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति को यह रिपोर्ट दे कि राज्य का शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा सकता या राष्ट्रपति को अन्य स्रोतों यह समाधान हो जाए कि शासन संविधान के प्रावधानों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता, तो राष्ट्रपति मुख्यमंत्री को बर्खास्त करके राज्य का शासन चलाने का निर्देश राज्यपाल को दे सकता है।
  3. जब मुख्यमंत्री के विरुद्ध राज्य विधानसभा में प्रस्ताव पारित हो जाए और मुख्यमंत्री त्यागपत्र देने से इन्कार कर दे, तब राज्यपाल मुख्यमंत्री को बर्खास्त कर सकता है।
मंत्रिपरिषद का गठन - मंत्रिपरिषद का गठन राज्यपाल के द्वारा किया जाता है। राज्यपाल मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है और मुख्यमंत्री की सलाह पर वह मंत्रिपरिषद के अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है। मंत्रिपरिषद में सामान्यतः: उन्हीं व्यक्तियों को शामिल किया जा सकता है, जो राज्य विधानसभा या राज्य विधान परिषद के सदस्य हों, लेकिन विशेष परिस्थिति में मंत्रिपरिषद में ऐसे व्यक्तियों को भी शामिल किया जा सकता है, जो राज्य विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य न हो। इस प्रकार नियुक्त किये गये मंत्रिपरिषद के सदस्य को विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य 6 माह के अन्दर बनना आवश्यक है। यदि 6 माह के अन्दर वह विधानसभा या विधान परिषद का सदस्य नहीं बन जाता है, तो उसके पद ग्रहण की तिथि से 6 माह की समाप्ति पर स्वत: उसका मंत्री पद रहना समाप्त हो जाता है। परन्तु संविधान में यह व्यवस्था नहीं दी गयी है कि ऐसा व्यक्ति इस्तीफा देकर पुन: मंत्रिपरिषद का सदस्य बन सकता है या नहीं। सरकार ने इस अस्पष्ट प्रावधान का लाभ उठाते हुए उस व्यक्ति को पुन: मंत्रिपरिषद में शामिल कर लेते थे। अब 16 अगस्त, 2001 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्त्वपूर्ण निर्णय देते हुए व्यवस्था दी कि विधायिका का सदस्य निर्वाचित हुए बिना कोई व्यक्ति छह महीने से अधिक मंत्री पद धारण नहीं कर सकता। यदि इस व्यक्ति को छह महीने के बाद विधायिका के उसी सत्र में मंत्री पद पर दोबारा बहाल किया जाता है तो आवश्यक है कि वह चुनाव जीत कर सदन का सदस्य बने। यदि मंत्री पद पर आसीन गैर निर्वाचित व्यक्ति दिये गये छह महीने की अवधि में चुनाव जीतने में असफल रहता है और उस व्यक्ति को दुबारा मंत्री पद पर बहाल किया जाता है तो यह संविधान के 164(1) और 164(4) की योजना और भावना पर आघात होगा।

मंत्रिपरिषद का आकार - प्रारम्भ में संविधान में यह निर्धारित नहीं था कि राज्य मंत्रिपरिषद का आकार क्या होगा। इसका निर्धारण मुख्यमंत्री अपने विवेक से करता था। परन्तु 91वे संविधान संशोधन अधिनियम, 2004 के अनुसार यह निर्धारित कर दिया गया है कि राज्य मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या राज्य विधानसभा के कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत अधिक नहीं होगी अर्थात किसी राज्य की विधानसभा सदस्य संख्या 100 है तो उस प्रदेश में मुख्यमंत्री सहित 15 मंत्री हो सकते है।मंत्रिपरिषद की पदावधि - मंत्रिपरिषद तब तक कार्यरत रहता है, जब तक मुख्यमंत्री पद पर रहता है। मुख्यमंत्री के त्यागपत्र देने या बर्खास्त होने से मंत्रिपरिषद का स्वत: ही विघटन हो जाता है।


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वाहन पर भारतीय तिरंगा फहराने की अनुमति कौन से व्यक्तियों को है?



 वाहन पर भारतीय तिरंगा फहराने की अनुमति कौन से व्यक्तियों को है?
भारत का राष्ट्रीय ध्वज हमारे राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है। भारतीय राष्ट्रीय ध्वज,भारत की जनता को एहसास दिलाता है कि वे एक संप्रभु देश के नागरिक है। भारत के हर व्यक्ति को अपनी कार पर राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा फहराने की अनुमति नहीं है। भारत में केवल कुछ गणमान्य व्यक्तियों को ही ऐसा करने की अनुमति है। भारतीय ध्वज संहिता, 2002 के अंतर्गत उन गणमान्य व्यक्तियों रखा गया है जो कि अपनी कारों पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा सकते हैं। गणमान्य व्यक्तियों की सूची इस प्रकार है-
  1. भारत के राष्ट्रपति
  2. भारत के उपराष्ट्रपति
  3. गवर्नर और लेफ्टिनेंट गवर्नर्स
  4. विदेशों में भारतीय मिशन के प्रमुख
  5. प्रधानमंत्री और अन्य कैबिनेट मंत्री
  6. संघ के राज्य मंत्री और उप मंत्री
  7. राज्य का मुख्यमंत्री और राज्य और संघ शासित प्रदेशों के अन्य कैबिनेट मंत्री
  8. राज्य सरकार में राज्य मंत्री और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के उप मंत्री
  9. लोकसभा के अध्यक्ष
  10. राज्य सभा के उपाध्यक्ष
  11. लोक सभा के उपाध्यक्ष
  12. राज्यों में विधान परिषदों के अध्यक्ष
  13. राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में विधान सभाओं के अध्यक्ष
  14. राज्यों विधान परिषदों के उपाध्यक्ष
  15. राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में विधान सभा के उपाध्यक्ष
  16. भारत के मुख्य न्यायाधीश
  17. सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश
  18. उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश
  19. उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश


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