जीवन-परिचय अमर शहीद पं. राम प्रसाद 'बिस्मिल'



शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल के पूर्वजों का मूल निवास स्थान 'तोमर धार' में चम्बल नदी के किनारे स्थित ग्राम बरवाई था। तोमर धार में चम्बल नदी के किनारे पर दो ग्राम आबाद थे- रूअर ग्राम तथा बरवाई ग्राम, ये दोनों ही ग्राम ग्वालियर राज्य में प्रसिद्ध थे। इनकी प्रसिद्धी का कारण था इन ग्रामों के निवासियों का उद्दण्ड होना। ग्राम बरवाई बिस्मिल जी का पैतृक ग्राम है। यह ग्राम चम्बल संभाग में ग्वालियर के पास मुरैना, अम्बाह से 9 कि.मी. दूर उत्तर दिशा में स्थित है। रूअर ग्राम और बरवाई ग्राम में दूरी पाँच कि.मी. की है। दोनों ही ग्राम 'तोमर' बाहुल्य, दोनों ही एक पुरखे की संतान तथा दोनों ग्रामों के वीर निवासियों के कारण दूर-दूर तक विख्यात थे। ''यह ग्राम बरवाई 550 वर्ष पूर्व सनाढ्य ब्राह्मणों बरोलियों द्वारा बसाया हुआ ग्राम है। पहले यह वीरबाई के नाम से जाना जाता था।

वीरबाई से विरबाई व अब बरवाई के नाम से सुप्रसिद्ध है।" मुरैना जिले की पहचान पहले तंवरधार अथवा तोमरधार जिले के रूप में थी। तोमरधार में स्थित इन दोनों ग्रामों के निवासी बड़े ही स्वतंत्र प्रकृति तथा स्वाभिमानी स्वभाव के थे। ये राज्य की सत्ता की चिन्ता नहीं करते थे। यहाँ के जमींदार भी इच्छा होने पर राज्य को भूमि-कर देते थे और इच्छा न होने पर मालगुजारी देने से साफ इनकार कर देते थे। यदि राज्य का कोई अधिकारी या तहसीलदार आता तो ये बीहड़ों में छिप जाते, वहीं अपने पशु ले जाते तथा भोजनादि की व्यवस्था भी बीहड़ में कर लेते। उनके घर पर कुछ भी ऐसे कीमती सामान न रह जाते, जिसकी नीलामी से मालगुजारी वसूल की जा सके। इन जमींदारों के इस उद्दण्ड व्यवहार के संबंध में कई कथाएँ प्रचलित थीं। बिस्मिल जी एक ऐसे ही जमींदार के विषय में लिखते हैं कि ''एक जमींदार के सम्बन्ध में कथा प्रचलित है कि मालगुजारी न देने के कारण ही उनको कुछ भूमि माफी में मिल गई। पहले तो कई साल तक भागे रहे। एक बार धोखे से पकड़ लिए गए तो तहसील के अधिकारियों ने उन्हें बहुत सताया। कई दिन तक बिना खाना-पानी के बंधा रहने दिया। अन्त में जलाने की धमकी दे, पैरों पर सूखी घास डालकर आग लगवा दी। किंतु उन जमींदार महोदय ने भूमि-कर देना स्वीकार न किया और यही उत्तर दिया कि ग्वालियर महाराज के कोष में मेरे कर न देने से ही घाटा न पड़ जायेगा। संसार क्या जानेगा कि अमुक व्यक्ति उद्दण्डता के कारण ही अपना समय व्यतीत करता है। राज्य को लिखा गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उतनी ही भूमि उन महाशय को माफी में दे दी गई।" इसी प्रकार की एक और प्रचलित कथा के विषय में बिस्मिल जी लिखते हैं कि इसी प्रकार एक समय इन ग्रामों के निवासियों को एक अद्भुत खेल सूझा। उन्होंने महाराज के रिसाले के साठ ऊँट चुराकर बीहड़ों में छिपा दिए। राज्य को लिखा गया, जिस पर राज्य की ओर से आज्ञा हुई कि दोनों ग्राम तोप लगवाकर उड़वा दिए जाएं। न जाने किस प्रकार समझाने-बुझाने से वे ऊँट वापस किए गए और अधिकारियों को समझाया गया कि इतने बड़े राज्य में थोड़े से वीर लोगों का निवास है, इनका विध्वंस न करना ही उचित होगा। तब तोपें लौटाई गईं और ग्राम उड़ाए जाने से बचे। ये लोग अब राज्य-निवासियों को तो अधिक नहीं सताते, किंतु बहुधा अंग्रेजी राज्य में आकर उप द्रव कर जाते थे और अमीरों के मकानों पर छापा मारकर रात ही रात बीहड़ में दाखिल हो जाते थे। बीहड़ में पहुँच जाने पर पुलिस या फौज कोई भी उनका बाल बाँका नहीं कर सकती।


ऐसे वीरों के निवास स्थान थे- ग्राम रूअर तथा ग्राम बरवाई। ये दोनों ग्राम तत्कालीन समय में अंग्रेजी राज्य की सीमा से 15 मील दूर चम्बल नदी के तट पर बसे थे। इसी ग्राम बरवाई में पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी के दादा जी श्री नारायण लाल जी का जन्म हुआ। बिस्मिल जी के दादा जी नारायण लाल जी के दो भाई ठा. अमान सिंह तथा ठा. समान सिंह थे। ये तोमर राजपूत ठाकुर थे। इन भाईयों में ठाअमान सिंह सबसे ज्येष्ठ, उनके बाद ठा. समान सिंह तथा सबसे छोटे भाई ठानारायण लाल जी थे। इन तीनों भाइयों का विवाह हुआ। बिस्मिल जी के दादा जी श्री नारायण लाल जी तथा उनकी पत्नी श्रीमती विचित्रा देवी थीं। बिस्मिल के दादा जी श्री नारायण लाल जी तथा उनकी पत्नी श्रीमती विचित्रा देवी कौटुम्बिक कलह तथा अपनी भाभी के असहनीय दुर्व्यहार के कारण मजबूर होकर अपनी जन्मभूमि ग्राम बरवाई छोड़कर चले गये। नारायणलाल जी अपनी पत्नी तथा बेटों के साथ दर-दर भटकते रहे। उस समय उनके पुत्र मुरलीधर की आयु आठ वर्ष तथा कल्याणमल की आयु छः वर्ष थी। ''पितामह नारायण सिंह आजीविका की तलाश में काफी दिन इधर-उधर भटकते रहे। अन्त में हार मानकर वे अपने एक परिचित के पास शाहजहाँपुर (उत्तर प्रदेश) के पास अहरिया नामक एक ग्राम में पहुँचे, जहाँ वे गोपाल राम मुन्सिफ के घर रहने लगे। गोपाल राम इनके (श्री नारायणलाल) साथ पशुओं का क्रय-विक्रय पहले हाट बाजारों में साथ-साथ करते थे। यही छोटी पहचान अवलम्बन बन गई। मानों किसी डूबते को तिनके का सहारा मिल गया हो। यह घटना सन् 1889 के आसपास की है, तब श्री नारायणलाल जी की आयु भी 30-32 वर्ष की रही होगी।"

जिस समय बिस्मिल जी के दादा श्री नारायण लाल जी शाहजहाँपुर में आए, तब वहाँ दुर्भिक्ष का भयंकर प्रकोप था। नारायण लाल जी तथा उनका परिवार बड़ी दयनीय अवस्था में थे। नारायणलाल जी के पास कोई काम भी नहीं था जिससे परिवार का भरण-पोषण उचित ढंग से कर पाते। अनेक प्रयत्न करने के पश्चात् श्री नारायणलाल जी को शाहजहाँपुर में एक अत्तार महोदय की दुकान पर तीन रूपये मासिक वेतन की नौकरी मिली। भयंकर दुर्भिक्ष के समय नारायणलाल जी का अपने परिवार का निर्वाह करना मुश्किल हो गया। अपने दादा जी एवं दादी जी की विपत्तियों के विषय में बिस्मिल जी अपनी आत्मकथा में लिखते हैं ''दादी जी ने बहुत प्रयत्न किया, कि अपने आप केवल एक समय आधे पेट भोजन करके बच्चों का पेट पाला जाए, किंतु फिर भी निर्वाह न हो सका। बाजरा, कुकनी, सामा, ज्वार इत्यादि खाकर दिन काटने चाहे, किंतु फिर भी गुजारा न हुआ तब आधा बथुआ, चना या कोई दूसरा साग, जो सबसे सस्ता हो उसको लेकर, सबसे सस्ता अनाज उसमें आधा मिलाकर थोड़ा-सा नमक डालकर उसे स्वयं खातीं, लड़कों को चना या जौं की रोटी देती और इसी प्रकार दादाजी भी समय व्यतीत करते थे। बड़ी कठिनता से आधे पेट खाकर दिन तो कट जाता, किंतु पेट में घोंटू दबाकर रात काटना कठिन हो जाता। यह तो भोजन की अवस्था थी, वस्त्र तथा रहने के स्थान का किराया कहाँ से आता?" इस कठिन विपत्ति में दादी जी ने काफी प्रयत्न किया कि किसी भले घर में मजदूरी या अनाज पीसने का काम कर लिया जाए, किंतु नई जगह में सबसे अनजान, भिन्न भाषा वाले लोगों के बीच उन्हें कौन काम देता? भले घरों के लोग सहसा कैसे विश्वास करते? फिर भी दादी जी ने प्रयत्न जारी रखा। परंतु ''कोई मजदूरी पर अनाज भी पीसने को न देता था। डर था कि दुर्भिक्ष का समय है, खा लेगी। बहुत प्रयत्न करने के बाद एक-दो महिलाएँ अपने घर पर अनाज पिसवाने पर राजी हुईं, किन्तु पुरानी काम करने वालियों को कैसे जवाब दें? इसी प्रकार अड़चनों के बाद पाँच-सात सेर अनाज पीसने को मिल जाता, जिसकी पिसाई उस समय एक पैसा प्रति पसेरी थी। बड़े कठिनता से आधे पेट एक समय भोजन करके तीन-चार घण्टों तक पीसकर एक पैसा या डेढ़ पैसा मिलता।" इतनी मजदूरी करने के बाद बिस्मिल जी की दादी जी घर का ढेर सारा कार्य भी करतीं, बच्चों के लिए भोजन भी पकातीं। दो-तीन वर्ष तक इसी प्रकार दादी जी ने तथा दादा जी ने अपने परिवार का किसी प्रकार निर्वाह किया। अनेक बार नारायणलाल जी अपनी पत्नी से अपने पैतृक ग्राम वापस चलने के लिए कहते, परंतु विचित्रा देवी (बिस्मिल जी की दादी जी) बड़ी स्वाभिमानी स्त्री थीं, वे कष्ट सहने को तत्पर थीं परंतु अपना स्वाभिमान त्याग करना उन्हें मंजूर न था। जब भी नारायणलाल जी वापस पैतृक ग्राम लौटने की बात करते, विचित्रा देवी यही उत्तर देतीं ''कि जिनके कारण देश छूटा, धन-सामग्री सब नष्ट हुई और ये दिन देखने पड़े अब उन्हीं के पैरों में सिर रखकर दासत्व स्वीकार करने से इसी प्रकार प्राण दे देना कहीं श्रेष्ठ है, ये दिन सदैव न रहेंगे।" प्रत्येक प्रकार के कष्ट सहने के पश्चात् भी विचित्रा देवी अपने संकल्प पर कायम रहीं।

जब नारायणलाल जी को शाहजहाँपुर में रहते हुए चार-पाँच वर्ष हो गए, तब कुछ सज्जन उनसे परिचित हो गए। आस-पास की स्त्रियों ने भी समझा कि विचित्रा देवी भली महिला है, समय के फेर से इस दीन-दशा को प्राप्त हुईं हैं। तब बहुत सी महिलाएँ उन पर विश्वास करने लगीं, उनसे मेल-जोल भी रखने लगीं। दुर्भिक्ष का समय भी समाप्त हो गया। ''आर्थिक स्थितियों के कारण नारायण सिंह (दादाजी) ने ब्राह्मण वृत्ति के साथ-साथ आर्य समाज मंदिर में पूजा-अर्चना तथा यज्ञ कराना प्रारम्भ कर दिया। तभी से वहाँ के लोग इनको पंडित कहने लगे थे।" कभी-कभी किसी सज्जन व्यक्ति के यहाँ से कुछ दान प्राप्त हो जाता था, तो कभी कोई ब्राह्मण भोज करा देता था। इसी प्रकार समय व्यतीत होता गया तथा परिस्थितियों में भी धीरे-धीरे सुधार होने लगा। चूँकि नारायणलाल जी सात्विक प्रकृति के इन्सान थे तथा पूजा-पाठ, नियम-धर्म का पालन करते थे, साथ ही साथ ब्राह्मण वृत्ति भी करने लगे, यज्ञ-हवन करने लगे, इसलिए नारायणलाल जी को सभी पंडित कहने लगे। यह पंडित उपाधि उनके परिवार के साथ जुड़ गया। इस प्रकार से नारायणलाल जी की थोड़ी बहुत दशा सुधरी, पर कई महानुभाव जो संपत्ति-वान थे परंतु उनके कोई सन्तान न थी, वे लोग नारायणलाल जी को प्रलोभन दिया करते थे कि वे अपना एक लड़का उन्हें देकर जितना चाहे धन प्राप्त कर लें परंतु दादी जी आदर्श तथा स्वाभिमानी महिला थी, उन्होंने किसी प्रकार के प्रलोभनों पर किंचित मात्र भी ध्यान न दिया। अभाव में ही सही, किसी न किसी प्रकार से वे अपने बच्चों का पालन-पोषण करती रहीं।

बिस्मिल जी की दादी जी अत्यंत साहसी महिला थीं। उनकी मेहनत-मजदूरी तथा दादा जी की ब्राह्मण-वृत्ति से कुछ पूँजी एकत्रित हो गई। कुछ सज्जन लोगों के सुझाव पर नारायणलाल जी ने बिस्मिल जी के पिताजी पं. मुरलीधर को शिक्षा प्राप्त करने के लिए पाठशाला में प्रवेश दिलवाया। दादा जी ने कुछ प्रयास तथा मेहनत की जिससे उनका वेतन बढ़कर सात रूपये मासिक हो गया। कुछ समय पश्चात् श्री नारायणलाल ने नौकरी छोड़ दी। उन्होंने पैसे, दुअन्नी, चवन्नी इत्यादि बेचने की दुकान शुरू कर दी। इससे उन्हें पाँच-सात आने रोज मिलने लगे। जो कष्टदायक समय था वह दूर होने लगा। इन सबका श्रेय दादी जी को था जिन्होंने अत्यंत भीषण कष्ट सहकर भी अपना साहस न खोया तथा परिवार को हिम्मत बंधायी। जिस धैर्य से उन्होंने कार्य किया वह उन पर किसी दैवीय शक्ति की कृपा ही कही जाएगी। दादी जी जिस जगह की रहने वाली थी वह पूर्ण रूप से रूढ़िवादी थी। वहाँ प्रत्येक हिन्दू प्रथा का पूर्णतया पालन किया जाता था इसलिए दादी जी साक्षर न हो सकीं, फिर भी उन्होंने स्वयं की मेहनत से अपरिचित जगह में मेहनत मजदूरी कर अपने बच्चों का पालन-पोषण किया तथा उन्हें शिक्षित बनाया। दादी जी ऐसे परिवार ऐसे समाज से आयीं थी, जहाँ उन्होंने कभी घर से बाहर कदम भी न रखा था। तत्कालीन समय में देश में जिस प्रकार रूढ़िवादिता, प्रथाओं के नाम पर नारी पर अनेक बन्धन तथा छुआछूत के रोग की पराकाष्ठा थी, ऐसी परिस्थितियों का वर्णन करते हुए बिस्मिल जी लिखते हैं, ''ऐसी परिस्थितियों में जबकि उसने (दादी जी) कभी अपने जीवन में घर से बाहर पैर न रखा हो और जो ऐसे कट्टर देश की रहने वाली हो कि जहाँ पर प्रत्येक हिन्दू प्रथा का पूर्णतया पालन किया जाता हो, जहाँ के निवासी अपनी प्रथाओं की रक्षा के लिए प्राणों की किंचित मात्र भी चिन्ता न करते हों। किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य की कुलवधु का क्या साहस, जो डेढ़ हाथ का घूंघट निकाले बिना एक घर से दूसरे घर पर चली जाए। शूद्र जाति की वधुओं के लिए भी ही नियम है कि वे रास्ते में बिना घूघट निकाले न जाएं। शूद्रों का पहनावा ही अलग है, ताकि उन्हें देखकर ही दूर से पहचान लिया जाए कि यह किसी नीची जाति की स्त्री है। ये प्रथाएं इतनी प्रचलित हैं कि उन्होंने अत्याचार का रूप धारण कर लिया है। एक समय किसी चमार की वधु, जो अंग्रेजी राज्य से विवाह करके गई थी, कुल प्रथानुसार जमींदार के घर पैर छूने के लिए गई। वह पैरों में बिछुवे (नुपूर) पहने हुए थी और सब पहनावा चमारों का पहने थी। जमींदार महोदय की निगाह उसके पैरों पर पड़ी। पूछने पर मालूम हुआ कि चमार की बहू है। जमींदार साहब जूता पहनकर आए और उसके पैरों पर खड़े होकर इतने जोर से दबाया कि उसकी अंगुलियाँ ही कट गईं। उन्होंने कहा कि यदि चमारों की बहुऐं बिछुवा पहनेंगी तो ऊँची जाति के घर की स्त्रियाँ क्या पहनेंगी? ये लोग नितांत अशिक्षित तथा मूर्ख हैं किंतु जाति-अभिमान में चूर रहते हैं। गरीब से गरीब अशिक्षित ब्राह्मण या क्षत्रिय, चाहे वह किसी आयु का हो, यदि शूद्र जाति की बस्ती में से गुजरे तो चाहे कितना ही धनी या वृद्ध कोई शूद्र क्यों न हो, उसको उठकर पालागन या जुहार करनी ही पड़ेगी। यदि ऐसा न करे तो उसी समय वह ब्राह्मण या क्षत्रिय उसे जूतों से मार सकता है और सब उस शूद्र का दोष बताकर उसका तिरस्कार करेंगे। यदि किसी कन्या या बहू पर व्यभिचारिणी होने का सन्देह किया जाए तो उसे बिना किसी विचार के मारकर चम्बल में प्रवाहित कर दिया जाता है। इसी प्रकार यदि किसी विधवा पर व्यभिचार या किसी प्रकार आचरण-भ्रष्ट होने का दोष लगाया जाए तो वह गर्भवती ही क्यों न हो, उसे तुरंत ही काटकर चम्बल में पहुँचा दें और किसी को कानों-कान भी खबर न होने दें। वहाँ के मनुष्य भी सदाचारी होते हैं। दूसरे की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझते हैं। स्त्रियों की मान-मर्यादा की रक्षा के लिए प्राण देने में भी कभी नहीं हिचकिचाते।" ऐसे क्षेत्र में विवाहित होकर आयीं बिस्मिल जी की दादी जी ने इतना साहस दिखाया कि स्वयं मजदूरी कर अपने परिवार का निर्वहन किया। इसी समय ''परिवार पर दूसरा संकट सामने आ गया और उन्हीं दिनों तपेदिक से छोटे बेटे कल्याणमल की मृत्यु हो गई। परिवार को इस घटना से असहनीय कष्ट हुआ। पूरा परिवार अन्दर ही अन्दर टूट चुका था।" ईश्वरीय कृपा से नारायणलाल जी के परिवार के कष्ट समाप्त हो गए। पं. मुरलीधर भी उचित शिक्षा प्राप्त कर चुके थे। इसी समय श्री नारायणलाल जी ने शाहजहाँपुर के खिरनी बाग मोहल्ले में एक मकान खरीद लिया। दर-दर भटकने वाले परिवार को रहने के लिए स्वयं का निवास-स्थान मिल गया। सारी परिस्थितियाँ अच्छी हो गई, इसलिए श्री नारायणलाल जी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र पं. मुरलीधर का विवाह करने का विचार किया। श्रीमती विचित्रा देवी ने पण्डित मुरलीधर का ''सम्बन्ध पक्का कर लिया। स्वयं तोमर ठाकुर और माँ भदौरिया गौत्र की होने से अपने गाँव जोधपुरा के परिहारों की लड़की मूलवती देवी से सम्बन्ध जोड़ लिया। यह गाँव आगरा जिले की बाह तहसील में है। इसी बाह तहसील के गाँव छदामीपुरा में पं. मुरलीधर का विवाह सम्पन्न हुआ। बाद में कुछ दिन ननिहाल में रहकर पं. मुरलीधर अपनी 11 वर्षीय नववधु को लेकर शाहजहाँपुर लौट आए। श्री नारायणलाल के घर में सात्विक वातावरण था। वे स्वयं तो ईश्वर भक्त थे ही, बेटा मुरलीधर भी अपने पिता की भांति सात्विक विचारों के बन गए।"

विवाह के पश्चात् पं. मुरलीधर को म्युनिसिपैलिटी में पन्द्रह रूपये मासिक वेतन की नौकरी लग गई। पं. मुरलीधर को 11"यह नौकरी पसंद न आई। उन्होंने एक-दो साल के बाद नौकरी छोड़ कर स्वतंत्र व्यवसाय आरम्भ करने का प्रयत्न किया और कचहरी में सरकारी स्टाम्प बेचने लगे। उनके जीवन का अधिक भाग इसी व्यवसाय में व्यतीत हुआ। साधारण श्रेणी के गृहस्थ बनकर उन्होंने इसी व्यवसाय द्वारा अपनी सन्तानों को शिक्षा दी, अपने कुटुम्ब का पालन किया और अपने मुहल्ले के गणमान्य व्यक्तियों में गिने जाने लगे। वह रूपये का लेन-देन भी करते थे। उन्होंने तीन बैलगाड़ियाँ भी बनाई थीं, जो किराये पर चलती थीं।" पं. मुरलीधर ने अपने पिता की भांति कठोर परिश्रम किया तथा अपने परिवार के सम्मान को बढ़ाया, अपने माता-पिता के लिए वे सच्चे सपूत थे। पं. मुरलीधर व्यायाम से प्रेम करते थे। नियमित व्यायाम करने से उनका शरीर स्वस्थ्य एवं सुडौल था। वे नियमित रूप से अखाड़े में कुश्ती लड़ते थे।

कुछ समय के पश्चात मूलवती देवी ने एक पुत्र को जन्म दिया, कुछ दिनों के पश्चात् उसकी मृत्यु हो गई। ''यह समय ज्यादा न चला, पुनः मूलवती देवी के उदर में किसी बच्चे की हलचल होने लगी तो गुनी पंडितों की बात मानकर दादा नारायण सिंह ने अपनी पुत्रवधु को प्रसव हेतु मायके पहुँचा दिया। जहाँ 11 जून सन् 1897 ई. यानी ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष निर्जला एकादशी विक्रम सम्वत 1954 को पं. मुरलीधर की धर्मपत्नी ने द्वितीय पुत्र को जन्म दिया। उस समय प्रकृति भी ऐसे पुत्र के लिए मेहरबान हुई। दादी विचित्रा देवी ने इसे भगवान श्री राम का प्रसाद मानकर इस नवजात शिशु का नाम रामप्रसाद रख दिया।" इस प्रकार पं. रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म अपने ननिहाल आगरा जिले की बाह तहसील में ग्राम छदामीपुरा में हुआ था। इस विषय में अपवाद स्वरूप कई लेखकों का मानना है कि बिस्मिल जी का जन्म शाहजहाँपुर में हुआ था।

चूँकि पं. मुरलीधर का पहला पुत्र रोग से ग्रस्त होकर कुछ ही दिनों में चल बसा था इसलिए दादी विचित्रा देवी ने रामप्रसाद बिस्मिल जी के लिए अनेकों मन्नतें मानीं, गंडे, ताबीज तथा कवचों द्वारा अपने पौत्र रामप्रसाद के शरीर की रक्षा हेतु प्रयत्न किए। कुछ ही समय पश्चात् बिस्मिल जी को सूखा रोग हो गया। एक-दो मास पश्चात् ही उनकी शारीरिक अवस्था भी पहले बालक के समान होने लगी। तब किसी ने झाड़-फूंक की सलाह दादी विचित्रा देवी को दी। तब झाड़-फूंक द्वारा बिस्मिल जी का उपचार किया गया। इस उपचार के विषय में बिस्मिल जी लिखते हैं, "किसी ने बताया कि सफेद खरगोश को मेरे शरीर पर घुमाकर जमीन पर छोड़ दिया जाये, यदि बीमारी होगी तो खरगोश तुरन्त मर जायेगा। कहते हैं हुआ भी ऐसा ही। एक सफेद खरगोश मेरे शरीर पर से उतारकर जैसे ही जमीन पर छोड़ा गया, वैसे ही उसने तीन चार चक्कर काटे और मर गया। मेरे विचार में किसी अंश में यह संभव भी है, क्योंकि औषधि तीन प्रकार की होती हैं - (1) दैविक (2) मानुषिक (3) पैशाचिक। पैशाचिक औषधियों में अनेक प्रकार के पशु या पक्षियों के माँस अथवा रूधिर का व्यवहार होता है, जिनका उपयोग वैद्यक के ग्रन्थों में पाया जाता है। इसमें से एक प्रयोग बड़ा ही कौतुहलोत्पादक तथा आश्चर्यजनक यह है कि जिस बच्चे को जभोखे (सूखा) की बीमारी हो गई हो, यदि उसके सामने चमगादड़ चीरकर लाया जाये तो एक-दो मास का बालक चमगादड़ को पकड़कर उसका खून चूस लेगा और बीमारी जाती रहेगी। यह बड़ी उपयोगी औषधि है और एक महात्मा की बताई हुई है।" बिस्मिल की दादी जी तथा माता जी ने उनकी खूब देखभाल की जिससे वे जल्दी ही स्वस्थ्य होने लगे।

जब बिस्मिल जी सात वर्ष के थे तब पं. मुरलीधर ने उन्हें शिक्षा प्रदान करने का निर्णय लिया। पं. मुरलीधर घर में ही बिस्मिल जी को हिन्दी अक्षरों का बोध कराने लगे। उर्दू पढ़ने के लिए बिस्मिल जी को एक मौलवी साहब के मकतब में भेजा जाने लगा। पं. मुरलीधर बिस्मिल जी की शिक्षा पर अत्यधिक ध्यान देते थे, शिक्षा के विषय में तनिक भी लापरवाही उन्हें सहन न थी इसलिए पढ़ाई में जरा सी भूल हो जाने पर बिस्मिल जी की बहुत पिटाई होती थी। इस विषय में बिस्मिल जी लिखते है "मुझे अब भी भली भांति स्मरण है कि जब मैं नागरी (देवनागिरी हिन्दी) के अक्षर लिखना सीख रहा था तो मुझे 'उ' लिखना न आया। मैंने बहुत प्रयत्न किया। पर जब पिताजी कचहरी चले गये तो मैं भी खेलने चला गया। पिताजी ने कचहरी से आकर मुझसे 'उ' लिखवाया तो मैं न लिख सका। उन्हें मालूम हो गया कि मैं खेलने चला गया था, इस पर उन्होंने मुझे बंदूक के लोहे के गज से इतना पीटा कि गज टेढ़ा पड़ गया। भागकर दादी जी के पास चला गया, तब बचा।'' बिस्मिल जी बचपन में बहुत उद्दण्ड थे। अपने मित्रों के साथ मिलकर बहुत अठखेलियाँ व शैतानियाँ किया करते थे। पं. मुरलीधर पर्याप्त अनुशासन रखते थे, पर फिर भी बिस्मिल जी उद्दण्डता करते रहते थे। अपनी इसी प्रकार की उद्दण्डता का वर्णन करते हुए स्वयं बिस्मिल जी लिखते हैं "एक समय किसी के बाग में जाकर आडू के वृक्षों में से सब आडू तोड़ डाले। माली पीछे दौड़ा किन्तु मैं उनके हाथ न आया। माली ने सब आडू पिताजी के सामने ला रखे। उस दिन पिताजी ने मुझे इतना पीटा कि मैं दो दिन तक उठ न सका। इसी प्रकार खूब पिटता था, किन्तु उद्दण्डता अवश्य करता था। शायद उस बचपन की मार से ही यह शरीर बहुत कठोर तथा सहनशील बन गया।'' इतनी मार खाने के पश्चात् भी बिस्मिल जी अपनी जिद पूरी अवश्य करते थे। इसी स्वभाव के कारण वे भारत माता के स्वतंत्रता संघर्ष में अनेक कष्ट सहकर भी स्वराज्य प्राप्ति के लिए बलिदान हो गए।

इसी समय पं. मुरलीधर जो कि व्यायाम के शौकीन तथा नियमित कुश्ती लड़ने वाले, बलिष्ठ शरीर, अपने से दो गुने व्यक्ति को भी उठाकर पटक देने वाले, एक मित्र महोदय की संगत में नशे की विसंगति में फंस गये। बिस्मिल जी इस घटना के विषय में लिखते हैं। 16"पिताजी का एक बंगाली (श्री चटर्जी) महाशय से प्रेम हो गया। चटर्जी महाशय की अंग्रेजी की दवा की दुकान थी। वह बड़े भारी नशेबाज थे। एक समय में आधा छटांक चरस की चिलम उड़ाया करते थे। उन्हीं की संगति में पिताजी ने भी चरस पीना सीख लिया, जिसके कारण उनका शरीर नितांत नष्ट हो गया। दस वर्ष में ही संपूर्ण शरीर सूखकर हड्डियाँ निकल आईं। चटर्जी महाशय सुरापान भी करने लगे। अतःएव उनका कलेजा बढ़ गया और उसी से उनका शरीरांत हो गया। मेरे बहुत कुछ समझाने के बाद पिताजी ने चरस पीने की आदत को छोड़ा, किंतु बहुत दिनों के बाद।"

बिस्मिल जी के पश्चात् उनकी पाँच बहनों और तीन भाईयों का जन्म हुआ। बिस्मिल जी के कुल की प्रथा थी कि कन्याओं को जन्म लेते ही मार दिया जाता था। जब बिस्मिल जी की बहनों का जन्म हुआ, तब दादी विचित्रा देवी ने कुल परम्परानुसार कन्याओं को मारने के लिए कहा किंतु बिस्मिल जी की माता मूलवती देवी ने विरोध किया। माता मूलवती ने अपनी पुत्रियों की प्राण रक्षा की तथा ऐसी कुप्रथा के विरूद्ध आवाज उठाई। बिस्मिल जी अपनी माता के इस साहस के विषय में लिखते हैं "माता जी ने इसका विरोध किया और कन्याओं के प्राणों की रक्षा की। मेरे कुल में यह पहला ही समय था कि कन्याओं का पोषण हुआ। पर इनमें से दो बहनों और दो भाइयों का देहांत हो गया। शेष एक भाई जो इस समय (1927 ई.) दस वर्ष का है और तीन बहनें बची।" माता मूलवती के प्रयासों ने उनकी पुत्रियों की रक्षा की। पाँच बहनों में से दो का देहांत हो गया बिस्मिल जी की तीन बहनें- शास्त्री देवी, ब्रह्मा देवी तथा भागवती देवी बचीं। तीन भाइयों में से दो का देहांत हो गया जिसके पश्चात् एक भाई श्री सुशील चन्द्र बचे। माता मूलवती के प्रयासों से बिस्मिल जी की तीनों बहनों को अच्छी शिक्षा दी गई और उनके विवाह बड़ी धूमधाम से किए गए। इससे पूर्व बिस्मिल जी के कुल की कन्याएँ किसी को ब्याही न गयीं थीं। क्योंकि उन्हें जीवित ही नहीं रखा जाता था। बिस्मिल जी अपनी बहनों से बहुत स्नेह करते थे। उन्होंने सदैव उन्हें शिक्षित होने तथा साहसी बनाने का प्रोत्साहन दिया। बिस्मिल जी ने कुल में चलने वाली कुप्रथा का विरोध किया। अपनी बहनों को वे अपने समकक्ष ही मानते थे। बिस्मिल जी के बहनों के प्रति अति स्नेह के विषय में बिस्मिल जी की बहन शास्त्री देवी कहती हैं 18"मेरा (शास्त्री देवी) जन्म सन् 1901 में हुआ था। भाई रामप्रसाद बिस्मिल के चार साल बाद मैं पैदा हुई थी। भाई जी मुझ पर बहुत स्नेह रखते थे। मेरे पिता के खानदान में लड़कियों को पैदा होते ही मार डालते थे। मुझे मारने के लिए बाबा और दादी ने मेरी माता जी को कहा मगर माता जी ने नहीं मारा। भाई बहुत रोते थे कि बिटिया को मत मारो। मैं तीन महीने की हो गई थी तब दादी ने माता जी से ताना मारकर कहा कि क्या लड़का है, जो इतनी हिफाजत करती है? माता जी ने बाबा के पास से अफीम मंगाकर मुझे पिला दी। पड़ोस में थानेदार का मकान था। उनकी पत्नी हमारे घर आती थीं। उन्होंने मेरी खराब हालत देखी और कहा कि इसे क्या दे दिया? मैं दरोगा जी से कहूँगी। उन्होंने दरोगा जी से भी कह दिया। दरोगा जी ने दादी को बुलाकर कहा कि मैं सबको गिरफ्तार करा दूँगा। तुम लोगों ने कन्या की हत्या क्यों की? तब मेरा इलाज किया गया। तीसरे दिन मुझे होश आया फिर माँ को दूध नहीं पिलाने दिया। कभी-कभी गाय का दूध माताजी छिपाकर पिला देती थीं। तीन साल तक अफीम के नशे में रखा। एक मुंसिफ साहब पड़ोस में रहते थे। उनके कोई बच्चा न था। मुंसिफ की पत्नी हमारे ही घर से दूध लेकर मुझे पिलाती रही। मैं चंगी होती गई। दो साल के बाद उनके बालक हुआ, मगर वह मेरी हिफाजत करती रहीं। कहने लगीं, इसी कन्या के भाग्य से मेरे पुत्र हुआ। उनकी बदली हुई, तो मुझे माँगा और कहा, मैं ही शादी करूंगी, मगर घर वालों ने नहीं दिया। भाई ने रोना शुरू कर दिया कि मैं अपनी बिटिया को नहीं दूँगा। भाई को स्त्री-समाज से बहुत प्रेम हो गया। मुझे बराबर साथ-साथ संध्या हवन सिखाया।" बिस्मिल अपनी बहनों से बेटियों के समान स्नेह करते थे। बिस्मिल जी इस बात के पक्षधर थे कि नारी उत्थान से ही देश का विकास संभव है। नारी को देश के कार्यों में बढ़ चढ़कर भाग लेना चाहिए।

बिस्मिल जी के ''दादा जी बड़ी सरल प्रकृति के मनुष्य थे। जब तक वे जीवित रहे, पैसे बेचने का ही व्यवसाय करते रहे। उनको गाय पालने का बहुत बड़ा शौक था। स्वयं ग्वालियर जाकर बड़ी-बड़ी गायें खरीद लाते थे। वहाँ की गायें काफी दूध देती हैं। अच्छी गाय दस या पन्द्रह सेर दूध देती है। ये गायें बड़ी सीधी भी होती हैं। दूध दोहन करते समय उनकी टांगे बांधने की आवश्यकता नहीं होती और जब जिसका जी चाहे बिना बच्चे के दूध दोहन कर सकता है। बचपन में रामप्रसाद बिस्मिल बहुधा जाकर गाय के थन में मुँह लगाकर दूध पिया करते थे। वास्तव में वहाँ की गायें दर्शनीय होती है।" श्री नारायणलाल को एक प्रकार का पुराने समय का खेल अट्ठारह गोटी जिसे बघिया बग्घा भी कहा जाता था, खेलने का बहुत शौक था। श्री नारायणलाल ईश्वर भक्त इंसान थे। नित्य प्रति संध्या समय में वे शिव-मन्दिर में जाकर दो घण्टे तक परमात्मा का भजन करते थे। साथ में अपने पौत्र बिस्मिल जी को भी ले जाते थे। श्री नारायणलाल जी की ईश्वर भक्ति तथा संस्कार ही पं. मुरलीधर तथा बिस्मिल में भी थे। श्री नारायणलाल का लगभग पचपन वर्ष की आयु में देहान्त हो गया। दादा जी का स्नेहपूर्ण हाथ अवश्य ही उठ गया परंतु उनका आशीर्वाद संस्कार रूप में बिस्मिल जी में सदैव बने रहे। पं. मुरलीधर के कठोर अनुशासन तथा शिक्षा के प्रति उनकी सचेतता के कारण बिस्मिल जी ने उर्दू की चैथी कक्षा उत्तीर्ण कर ली तथा पाँचवे दर्जे में प्रवेश कर लिया। इसी समय बिस्मिल कुछ गलत मित्रों की संगत में पड़कर कुसंगति का शिकार हो गए। वे अपने पिताजी के संदूक से रूपये-पैसे चुराने लगे। इन पैसों से वे उर्दू के उपन्यास खरीदकर पढ़ा करते थे। बिस्मिल जी में नशे की आदत भी लग गई। वे सिगरेट पीने लगे तथा कभी-कभी भांग का नशा भी करते थे। इस कुमारावस्था में हाथ में पैसा आ जाने से तथा उर्दू के प्रेमरसपूर्ण रोमांस के उपन्यास तथा गजलें पढ़कर उनके आचरण में कुछ और भी त्रुटियाँ आ गईं। जिस पुस्तक विक्रेता से बिस्मिल जी उपन्यास की पुस्तकें खरीदा करते थे। वे महाशय पं. मुरलीधर को जानते थे, अतः उन्होंने पं. मुरलीधर से बिस्मिल जी के इस प्रकार की पुस्तकों के खरीदने के विषय में सारी बातें बता दी। जिससे पं. मुरलीधर ने बिस्मिल जी के क्रियाकलापों पर निगरानी रखनी शुरू कर दी। एक दिन बिस्मिल जी को पं. मुरलीधर ने पैसे चुराते रंगे हाथों पकड़ लिया। इस घटना का वर्णन करते हुए बिस्मिल जी लिखते हैं। "घुन लगना आरम्भ ही हुआ था कि परमात्मा ने बड़ी सहायता की। मैं एक रोज भंग पीकर पिताजी की संदुकची में से रूपये निकालने गया। नशे की हालत में होश ठीक न रहने के कारण संदूकची खटक गई। माताजी को संदेह हुआ। उन्होंने मुझे पकड़ लिया। चाभी पकड़ी गई। मेरे सन्दूक की तलाशी ली गई, बहुत से रूपये निकले और सारा भेद खुल गया। मेरी किताबों में अनेक उपन्यासादि पाए गए जो उसी समय फाड़ डाले गये।" इसके पश्चात् पं. मुरलीधर ने अपनी संदूकची का ताला बदल दिया। इसके पश्चात् बिस्मिल जी ने रूपये चुराने की बहुत कोशिश की परंतु असफल रहे। कोई मार्ग न रह जाने पर बिस्मिल जी को जब तब कभी मौका मिल जाता तो माता जी के रूपयों पर हाथ फेर देते थे। इन्हीं कुसंगतियों में फंसे रहने के कारण बिस्मिल जी दो बार उर्दू की मिडिल परीक्षा में अनुत्तीर्ण रहे। इससे पं. मुरलीधर को काफी रोष हुआ। इसके पश्चात् बिस्मिल जी ने अंग्रेजी पढ़ने की इच्छा प्रकट की। बिस्मिल जी के ''पिताजी चाहते थे कि जब ठीक पढ़ता ही नहीं तो अब पढ़ाई त्याग कर किसी धंधे में इन्हें (बिस्मिल जी) लगाया जाए। किंतु मां और दादी मां उन्हें उच्च शिक्षा दिलाना चाहती थीं। परिणाम यह निकला कि पिताजी को उनकी बात माननी पड़ी और राम प्रसाद जी अंग्रेजी पढ़ने भेजे गये।" जब बिस्मिल जी दूसरे वर्ष की मिडिल परीक्षा में असफल हुए, तभी पड़ोस के देव मंदिर में, जिसकी दीवार बिस्मिल जी के घर की दीवार से लगी हुई थी, एक पुजारी जी आ गए। वे बहुत ही सच्चरित्र तथा सज्जन व्यक्ति थे। बिस्मिल बहुत पहले से ही अपने दादा जी के साथ मंदिर जाया करते थे। मंदिर में इन्हीं सच्चरित्र पुजारी जी से बिस्मिल जी का संपर्क हुआ। बिस्मिल जी उनके पास उठने बैठने लगें। पुजारी जी के सम्पर्क में आने से बिस्मिल जी के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन हुआ। वे उन कुसंगतियों से बाहर निकलने लगे, जिन्होंने उनके जीवन में पतन का मार्ग परास्त किया था। स्वयं बिस्मिल जी लिखते हैं "मैं मंदिर आने जाने लगा। कुछ पूजा पाठ भी सीखने लगा। पुजारी जी के उपदेशों का बड़ा उत्तम प्रभाव हुआ। मैं अपना अधिकतर समय स्तुति-पूजन तथा पढ़ने में व्यतीत करने लगा। पुजारी जी मुझे ब्रह्मचर्य पालन का खूब उपदेश देते थे। वे मेरे पथ-प्रदर्शक बनें। मैंने एक दूसरे सज्जन की देखा-देखी व्यायाम करना भी प्रारम्भ कर दिया। अब तो मुझे भक्ति-मार्ग में कुछ आनंद प्राप्त होने लगा और चार-पाँच महीने में ही व्यायाम भी खूब करने लगा। मेरी सब बुरी आदतें और कुभावनाऐं जाती रहीं।" पुजारी जी के सत्संग से बिस्मिल जी के सब कुटेवों (बुरी आदतों) का अंत हो गया, किंतु वे सिगरेट की आदत को न छोड़ सके। इसी समय बिस्मिल जी के स्कूलों की छुट्टियाँ समाप्त हो गई और मिशन स्कूल के अंग्रेजी के पाँचवें दर्जे में प्रवेश दिला दिया गया। सिगरेट की बुरी लत से बिस्मिल जी को दुःख भी होता था, परन्तु वे उसे छोड़ ही नहीं पा रहे थे। वे एक दिन में कई-कई सिगरेट पी लेते थे। बिस्मिल जी इस दुःख के विषय में लिखते हैं कि "मैं सिगरेट बहुत पीता था। एक दिन में पचास-साठ सिगरेट पी डालता था। मुझे बड़ा दुःख होता था कि मैं इस जीवन में सिगरेट पीने की कुटेव को न छोड़ सकूँगा। स्कूल में भर्ती होने के थोड़े दिनों बाद ही एक सहपाठी श्रीयुत सुशील चन्द्र सेन से कुछ विशेष स्नेह हो गया।" बिस्मिल जी तथा श्री सुशील चन्द्र सेन बहुत अच्छे मित्र बन गए थे। श्री सुशील चन्द्र के स्नेह पूर्ण समझाइश तथा आग्रह के कारण बिस्मिल जी ने सिगरेट पीने की वो लत छोड़ दी जिसे वे चाहकर भी न छोड़ पा रहे थे।

बिस्मिल जी के सभी बुराइयों को छोड़कर नियमित व्यायाम तथा पूजा-पाठ करने से उनका शरीर स्वस्थ्य तथा मन स्वच्छ रहने लगा। बिस्मिल जी देव-मन्दिर नियमित रूप से जाते थे। उनकी स्तुति-पूजा तथा धार्मिक निष्ठा को देखकर श्री मुंशी इंद्रजीत जी ने संध्या करने का उपदेश दिया। मुंशी इन्द्रजीत उसी मंदिर में रहने वाले किसी सज्जन से मिलने आया करते थे। मुंशी इंद्रजीत ने ही बिस्मिल जी को आर्य समाज के सिद्धांतों से परिचित कराया। जिससे बिस्मिल जी भी आर्य समाज में सम्मिलित हो गए। बिस्मिल जी इसका वर्णन करते हुए लिखते हैं "व्यायामादि के कारण मेरा शरीर बड़ा सुगठित हो गया था और रंग निखर गया था। मैंने जानना चाहा कि संध्या क्या वस्तु है। मुंशी जी ने आर्य-समाज संम्बधी कुछ उपदेश दिये। इसके बाद मैंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा। इससे तख्ता ही पलट गया। सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में नवीन पृष्ठ खोल दिया।" बिस्मिल जी ने स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा रचित 'सत्यार्थ प्रकाश' का अध्ययन किया। उस पुस्तक के ज्ञान तथा उसमें उल्लिखित ब्रह्मचर्य व्रत के नियमों के अध्ययन से बिस्मिल जी के जीवन तथा दिनचर्या में अभूतपूर्व परिवर्तन आया। इस परिवर्तन के विषय में बिस्मिल जी लिखते हैं कि "मैंने उसमें (सत्यार्थ प्रकाश पुस्तक) उल्लिखित ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना आरम्भ कर दिया।

मैं कम्बल को तख्त पर बिछा कर सोता और प्रातः काल चार बजे से ही शैया-त्याग कर देता। स्नान-सन्ध्यादि से निवृत्त होकर व्यायाम करता, परन्तु मन की वृत्तियाँ ठीक न होती। मैंने रात्रि के समय भोजन करना त्याग दिया। केवल थोड़ा सा दूध ही रात को पीने लगा। सहसा ही बुरी आदतों को छोड़ा था, इस कारण कभी-कभी स्वप्न दोष हो जाता। तब किसी सज्जन के कहने से मैंने नमक खाना भी छोड़ दिया। केवल उबालकर साग या दाल से एक समय भोजन करता था। मिर्च-खटाई तो छूता भी न था। इस प्रकार पाँच वर्ष तक बराबर नमक न खाया। नमक न खाने से शरीर के दोष दूर हो गए और मेरा स्वास्थ्य दर्शनीय हो गया। सब लोग मेरे स्वास्थ्य को आश्चर्य की दृष्टि से देखा करते थे।" बिस्मिल जी की बड़ी बहन शास्त्री देवी की पुत्रवधु श्रीमती रामश्री के अनुसार "बिस्मिल जी को दलिया और जौं की रोटी बहुत पसंद थी, बचपन के बाद नमक, मिर्च-मसाला उन्होंने कभी प्रयोग नहीं किया। गूलर का फल पिसवाकर घी और शहद में मिलाकर खाया करते थे। रामप्रसाद बिस्मिल हमेशा ठंडी चीजों का ही प्रयोग करते थे। एक दिन पण्डित रामप्रसाद जी शाहजहाँपुर में नदी में स्नान करने गए, वहाँ उन्हें सांप ने काट लिया था। पंडित जी जब घर लौटे तो उन्हें थूक में खून आया, मां ने पूछा कि यह खून कैसा तो दूसरे दिन वहीं नदी के किनारे जाकर मरे हुए सांप को लाकर दिखा दिया कि इसकी वजह से खून आया था चूँकि सांप बिस्मिल जी को काटने के बाद वहीं मर गया था।" इस प्रकार बिस्मिल जी ने आर्य-समाज के सिद्धांतों तथा कठोर नियमों का पालन करना अपनी नियमित दिनचर्या का मुख्य हिस्सा बना लिया था। इससे बिस्मिल जी में एक योगी की भाँति शारीरिक व मानसिक शक्ति व संयम आ गया।

थोड़े ही दिनों के पश्चात् बिस्मिल जी आर्य-समाज के सच्चे कार्यकर्ता बन गए। वे कट्टर आर्य-समाजी बन गए। बिस्मिल जी आर्यसमाज के प्रत्येक अधिवेशन में जाते थे। आर्य-समाज में आने वाले प्रत्येक सन्यासी-महात्मा के उपदेश सुनते। बिस्मिल जी सन्यासी-महात्माओं की प्रत्येक प्रकार से सेवा करते थे। बिस्मिल जी की प्राणायम सीखने की उत्कट इच्छा थी। इसलिए बिस्मिल जी "जिस सन्यासी का नाम सुनते, शहर से तीन-चार मील उसकी सेवा के लिए जाते, फिर वह सन्यासी चाहे जिस मत का अनुयायी होता।" एक बार शाहजहाँपुर में आर्य-समाजियों तथा सनातन धर्मी पण्डितों के बीच शास्त्रार्थ हुआ, जिसमें आर्यसमाजी हार गये। बिस्मिल जी ने इस शास्त्रार्थ कार्यक्रम में आर्यसमाजी होने के कारण एक सच्चे कार्यकर्ता की भाँति सहयोगपूर्ण कार्य किया। इस बात की शिकायत कुछ लोगों ने पं. मुरलीधर से कर दी। पं. मुरलीधर सनातनधर्मी होने के कारण बिस्मिल से रुष्ट हो गए तथा उन्हें आर्य-समाज छोड़ने के लिए कहा। जब बिस्मिल जी न मानें तो उन्हें घर से निकल जाने को कहा, बिस्मिल जी घर छोड़कर चले गए। दो दिन बाद जब पं. मुरलीधर को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ तब वे बिस्मिल जी को मनाकर वापस घर ले आए। बिस्मिल जी इस घटना का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि "जब मैं अंग्रेजी के सातवें दर्जे में था तब सनातनधर्मी पंडित जगत प्रसाद जी शाहजहाँपुर पधारे उन्होंने आर्यसमाज का खंडन करना प्रारम्भ किया। आर्य समाजियों ने भी उनका विरोध किया और पं. अखिलानंद जी को बुलाकर शास्त्रार्थ कराया। शास्त्रार्थ संस्कृत में हुआ। जनता पर अच्छा प्रभाव हुआ। मेरे कामों को देखकर मुहल्ले वालों ने पिताजी से मेरी शिकायत की। पिताजी ने मुझसे कहा कि आर्य-समाजी हार गये, अब तुम आर्य-समाज से अपना नाम कटा दो। मैंने पिताजी से कहा कि आर्य-समाज के सिद्धांत सार्वभौमिक हैं, उन्हें कौन हरा सकता है? अनेक वाद-विवाद के पश्चात् पिताजी जिद्द पकड़ गए कि आर्य-समाज से त्यागपत्र न देगा तो घर छोड़ दे। मैंने भी विचारा कि पिताजी का क्रोध बढ़ गया और उन्होंने मुझ पर कोई वस्तु ऐसी दे पटकी कि जिससे बुरा परिणाम हुआ तो अच्छा न होगा। अतएव घर त्याग देना ही उचित है। मैं केवल एक कमीज पहने खड़ा था और पाजामा उतार कर धोती पहन रहा था। पाजामे के नीचे लंगोट बंधा था। पिताजी ने हाथ से धोती छीन ली और कहा 'घर से निकल'। मुझे भी क्रोध आ गया। मैं पिताजी के पैर छूकर गृह त्याग कर चला गया। कहाँ जाऊँ कुछ समझ में न आया। शहर में किसी से जान-पहचान न थी कि जहाँ छिपा रहता। मैं जंगल की ओर भाग गया। एक रात और एक दिन बाग में पेड़ पर बैठा रहा। भूख लगने पर खेतों में से हरे चने तोड़कर खाए, नदी में स्नान किया और जलपान किया। दूसरे दिन संध्या समय पं. अखिलानन्द जी का व्याख्यान आर्य-समाज मंदिर में था। मैं आर्य-समाज मंदिर में गया। एक पेड़ के नीचे एकान्त में खड़ा व्याख्यान सुन रहा था कि पिताजी दो मनुष्यों को लिए आ पहुंचे और मैं पकड़ लिया गया। वह उसी समय स्कूल के हैड मास्टर के पास ले गए। हैड मास्टर साहब ईसाई थे। मैंने उन्हें सब वृतान्त कह सुनाया। उन्होंने पिताजी को समझाया कि समझदार लड़के को मारना-पीटना ठीक नहीं। मुझे भी बहुत कुछ उपदेश दिया।" उस दिन के पश्चात् पं. मुरलीधर ने बिस्मिल जी पर कभी हाथ न उठाया। बिस्मिल के घर से जाने के बाद पूरा परिवार चिन्ताग्रस्त हो गया था। पं. मुरलीधर को काफी धक्का लगा था। सब परिवार जन बुरी आशंकाओं में डूब गए थे कि कहीं बेटा अकेला कहीं नदी में न डूब गया हो, कहीं रेल से कट न गया हो। इन सब आशंकाओं से पं. मुरलीधर तथा सभी परिवार वाले आशंकित हो गए थे इसलिए जब बिस्मिल जी मिल गए तो पं. मुरलीधर ने कभी भविष्य में अपने पुत्र पर अधिक क्रोध न करने का संकल्प ले लिया तथा उस दिन से वे बिस्मिल जी की प्रत्येक बात सहन कर लेते थे।

जब बिस्मिल जी आठवें दर्जे में आए तब उनके जीवन में स्वामी सोमदेव का आगमन हुआ। स्वामी सोमदेव बिस्मिल जी के गुरू तथा पथ-प्रदर्शक थे। स्वामी सोमदेव की शिक्षाओं तथा उपदेशों का बिस्मिल जी के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पडा। बिस्मिल जी ने उनकी बहुत सेवा की। बिस्मिल जी लिखते है "स्वामी श्री सोमदेव जी सरस्वती, आर्य-समाज शाहजहाँपुर में पधारे। उनके व्याख्यानों का जनता पर बड़ा अच्छा प्रभाव हुआ। कुछ सज्जनों के अनुरोध से स्वामी जी कुछ दिनों के लिए शाहजहाँपुर आर्य-समाज मन्दिर में ठहर गए। स्वामी जी की तबियत भी कुछ खराब थी। इसी कारण शाहजहाँपुर का जलवायु लाभदायक देखकर वहाँ ठहरे थे। मैं उनके पास आया-जाया करता था। प्राणपण से मैंने स्वामी जी महाराज की सेवा की और इसी सेवा के परिणामस्वरूप मेरे जीवन में नवीन परिवर्तन हो गया। मैं रात को दो-तीन बजे तक और दिन-भर उनकी सेवा शुश्रूषा में उपस्थित रहता।" उनके प्रकार से स्वामी सोमदेव का उपचार किया गया, अनेक सज्जनों ने विभिन्न प्रकार की औषधियों का सेवन करने की सलाह दी, अनेक प्रयत्नों के पश्चात् भी स्वामी जी के रोग का शमन न हो सका। बिस्मिल जी ने दिन-रात उनकी सेवा की। स्वामी जी ने भी बिस्मिल जी को आध्यात्मिक तथा राष्ट्रीय चेतना संम्बधी उपदेश दिए। उनकी शिक्षाओं ने बिस्मिल जी में आध्यात्मिक बल तथा हृदय में छिपी देश भक्ति की भावना को बाहर निकाला। बिस्मिल जी का अधिकांश समय आर्यसमाज मंदिर में ही व्यतीत होने लगा था।

बिस्मिल जी ने कुछ नवयुवकों के साथ मिलकर आर्य समाज मंदिर में 'आर्य कुमार सभा' का गठन किया। यह बिस्मिल का पहला संगठन था। बिस्मिल जी की इस आर्य कुमार सभा का प्रत्येक सप्ताह अधिवेशन होता था। यहाँ पठन-पाठन, वाद-विवाद तथा लेखन इत्यादि कार्य होता था। आर्य कुमार सभा कुछ ही दिनों में अपने अधिवेशन तथा कार्यों के कारण प्रसिद्ध हो गया। यह आर्य कुमार सभा राष्ट्रीय चेतना तथा ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध तथा स्वदेश प्राप्ति की भावना का प्रचार करती थी। यह कार्य आर्य कुमार सभा में अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता था फिर भी मुख्यतः इसका कार्य आर्य समाज के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार करना था। बिस्मिल जी आर्य कुमार सभा के विषय में संक्षेप में बताते हुए लिखते है "आर्य समाज मंदिर में आर्य कुमार सभा खोली थी जिनके साप्ताहिक अधिवेशन प्रत्येक शुक्रवार को हुआ करते थे। वहीं पर धार्मिक पुस्तकों का पाठन, विषय-विशेष पर निबन्ध लेखन और पाठन तथा वाद-विवाद होता था। कुमार सभा से ही मैंने जनता के सम्मुख बोलने का अभ्यास किया। बहुधा कुमार सभा के नवयुवक मिलकर शहर के मेलों में प्रचारार्थ जाया करते थे। बाजारों में व्याख्यान देकर आर्य-समाज के सिद्धांतों का प्रचार करते थे। ऐसा करते-करते मुसलमानों से मुबाहसा होने लगा अतएव पुलिस ने झगड़े का भय देखकर बाजारों में व्याख्यान देना बन्द करवा दिया। आर्य समाज के सदस्यों ने कुमार सभा के प्रयत्न को देखकर उस पर अपना शासन जमाना चाहा, किन्तु कुमार किसी का अनुचित शासन कब मानने वाले थे। आर्य समाज के मंदिर में ताला डाल दिया गया कि कुमार-सभा वाले आर्यसमाज मंदिर में अधिवेशन न करें। यह भी कहा गया कि यदि वे वहाँ अधिवेशन करेंगे, तो पुलिस को बुलाकर मंदिर से निकलवा दिया जायेगा। कई महीनों तक हम लोग मैदान में अपनी सभा के अधिवेशन करते रहे, किंतु बालक ही तो थे, कब तक इस प्रकार के कार्य चला सकते थे? कुमार सभा टूट गई। तब आर्य समाजियों को शांति हुई।" बिस्मिल जी की आर्य कुमार सभा ने अपने अधिवेशन तथा कार्यों के माध्यम से कम समय में अत्यधिक प्रसिद्धी प्राप्त कर ली थी। चूँकि आर्य कुमार सभा का गठन आर्य समाज मंदिर में हुआ तथा इस सभा का मुख्य कार्य आर्य समाज के सिद्धांतों का प्रचार प्रसार करना था। अतःएव आर्य-समाज के सदस्यों ने इस सभा को अपने अधिपत्य में रखने का विचार किया, जिसे आर्य कुमार सभा के सदस्यों ने पूर्ण न होने दिया। इससे आर्य-समाजियों ने उस सभा का विरोध किया। अंततः कुमार सभा इस अलगाव व विरोध के कारण टूट गई। परंतु आर्य कुमार सभा ने सक्रिय कार्यों तथा अधिवेशन के द्वारा देश भर में नाम कमाया। इसी कारण शाहजहाँपुर की आर्य कुमार सभा को सम्मानित किया गया। ''जब लखनऊ में कांग्रेस हुई तो भारतवर्षीय कुमार सम्मेलन का भी वार्षिक अधिवेशन वहाँ हुआ। उस अवसर पर सबसे अधिक पारितोषिक लाहौर और शाहजहाँपुर की कुमार सभाओं ने पाए थे। जिनकी प्रशंसा समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई थी।"

इन्हीं दिनों बिस्मिल जी का परिचय मिशन स्कूल में एक विद्यार्थी से हुआ। यह सज्जन कभी-कभी कुमार सभा में जाया करते थे। कुमार सभा में बिस्मिल जी के दिए गए भाषणों का उन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। उन सज्जन का निवास बिस्मिल जी के घर के निकट ही था। वे सज्जन और बिस्मिल में धीरे-धीरे, उठने-बैठने से आपस में स्नेह तथा लगाव बढ़ गया। वे सज्जन एक ऐसे ग्राम के निवासी थे जो बंदूके तथा तमंचे बनाने के लिए प्रसिद्ध था। उस ग्राम के अधिकांश निवासियों के पास बंदूके आदि रहती थीं। ये बंदूके टोपीदार होती थी। उन महाशय के पास भी एक नाली का छोटा सा पिस्तौल था जिसे वह अपने साथ शहर में ही रखते थे। बिस्मिल जी की प्रारम्भ से ही इस प्रकार का हथियार रखने की उत्कट इच्छा थी। एक बार उन सज्जन ने प्रेमवष बिस्मिल जी को वह हथियार रखने को दिया। इस विषय में बिस्मिल जी लिखते हैं। 32"जब मुझसे अधिक प्रेम बढा तो उन्होंने वह पिस्तौल मुझे रखने के लिए दिया। इस प्रकार के हथियार रखने की मेरी इच्छा थी, क्योंकि मेरे पिता के कई शत्रु थे, जिन्होंने अकारण ही पिताजी पर लाठियों का प्रहार किया था। मैं चाहता था कि यदि पिस्तौल मिल जाए तो मैं पिताजी के शत्रुओं को मार डालूं। मैंने उसे चलाकर देखा तो वह नितांत बेकार सिद्ध हुआ। मैंने उसे ले जाकर एक कोने में डाल दिया।" बिस्मिल से वे सज्जन इतने अधिक प्रभावित थे कि दिनों दिन बिस्मिल जी तथा उन सज्जन में प्रेम बढ़ता गया। बिस्मिल जी अपना भोजन ले जाकर उन्हीं के साथ उन्हीं के मकान पर साथ भोजन करते थे। वे सज्जन बिस्मिल जी के साथ स्वामी सोमदेव के पास भी जाया करते थे। जब उन सज्जन के पिताजी ग्राम से शहर आए तो उन्हें अपने बेटे के साथ बिस्मिल जी का मेलजोल पसंद न आया। उन्होंने बिस्मिल जी को चेतावनी के साथ अपने बेटे से मिलने अथवा उसे कहीं भी ले जाने से मना किया तथा न मानने पर बिस्मिल जी को ग्राम से आदमी लाकर पिटवाने की धमकी भी दी। बिस्मिल जी ने उनके पिता की बात का मान रखकर उन सज्जन से मिलना व उनके पास आना-जाना त्याग दिया, परन्तु वे सज्जन बिस्मिल जी से मिलने आते जाते रहे। बिस्मिल जी का अद्भुत व्यक्तित्व का उन सज्जन पर इतना अधिक प्रभाव था कि उन्होंने अपने पिता की चेतावनी की भी परवाह न की।

बिस्मिल जी का जीवन नियमों तथा शुद्ध आचरण पर आधारित था। बिस्मिल जी सदैव सत्य कहना ही पसंद करते थे, चाहे परिणाम जो भी हो। ये सारे नियम व संस्कारों का पालन बिस्मिल जी ने आजीवन किया। बिस्मिल जी लिखते हैं कि "लगभग अट्ठारह वर्ष की उम्र तक मैं रेल पर न चढ़ा था। मैं इतना दृढ़, सत्य वक्ता हो गया था कि एक समय रेल पर चढ़कर तीसरे दर्जे का टिकट ख़रीदा, पर इंटर क्लास में बैठकर दूसरों के साथ-साथ चला गया। इस बात से मुझे बड़ा खेद हुआ। मैंने अपने साथियों से अनुरोध किया कि यह तो एक प्रकार की चोरी है। सबको मिलकर इण्टर क्लास का भाड़ा स्टेशन मास्टर को देना चाहिए। एक समय मेरे पिता जी दीवानी में किसी पर दावा करके वकील से कह गए थे कि जो काम हो वह मुझसे (राम प्रसाद जी) करा लें। कुछ आवश्यकता पड़ने पर वकील साहब ने मुझे बुला भेजा और कहा कि मैं पिताजी के हस्ताक्षर वकालतनामें पर कर दूं। मैंने तुरंत उत्तर दिया कि यह तो धर्म के विरूद्ध होगा, इस प्रकार का पाप मैं कदापि नहीं कर सकता। वकील साहब ने बहुत कुछ समझाया कि एक सौ रूपये से अधिक का दावा है, मुकदमा खारिज हो जायेगा। किंतु मुझ पर कुछ भी प्रभाव न हुआ, मैंने हस्ताक्षर न किए। अपने जीवन में सर्वप्रकार से सत्य का आचरण करता था, चाहे कुछ हो जाए, सत्य बात कह देता था।" बिस्मिल जी आजीवन सत्य व्रत का पालन करते रहे। बड़ी से बड़ी कठिनाई को झेलने के पश्चात् भी उन्होंने सत्य का मार्ग न छोड़ा।

बिस्मिल जी, जो सत्यवक्ता, दृढ़-निष्चयी तथा आत्म-बल व नियमों के दृढ़ आदि सदुगुणों से परिपूर्ण थे। ये सब उनकी माता मूलवती के संस्कार तथा उनके कठोर परिश्रम का फल था। बिस्मिल जी की माता जी एक वीरांगना माँ थीं जिन्होंने बिस्मिल जी के प्रत्येक कार्य में उनका सहयेाग किया। बिस्मिल जी को सदैव प्रोत्साहन दिया। माता मूलवती बिस्मिल जी के धार्मिक कार्यो व शिक्षादि कार्यो में बहुत सहायता करती थी। बिस्मिल जी नित्यप्रति प्रातः काल चार बजे उठकर हवन किया करते थे इसलिए माता मूलवती उन्हें प्रातः काल 4 बजे जगा दिया करती थीं। जब बिस्मिल की छोटी बहन का विवाह हुआ तब बिस्मिल जी विवाह में सम्मिलित न हुए क्योंकि उन्हें यह ज्ञात हुआ कि बारात में वेश्या आई है। ब्रह्मचारी बिस्मिल जी को यह सब न भाता था। बिस्मिल जी उस समय माता जी से रूपये लेकर हथियार लेने चले गए। बिस्मिल जी की माता जी उनके लिए आदर्श थी, इस लिए बिस्मिल जी प्रत्येक नारी का सम्मान करते थे। अपनी बहन की वैवाहिक घटना का वर्णन करते हुए बिस्मिल जी लिखते हैं कि "मेरी छोटी बहन का विवाह करने के निमित्त माता जी और पिताजी ग्वालियर गए। मैं और श्री दादाजी शाहजहाँपुर में ही रह गए, क्योंकि मेरी वार्षिक परीक्षा थी। मुझे ग्राम के बाहर ही मालूम हो गया था कि बारात में वेष्या आई है। मैं घर न गया और न बारात में सम्मिलित हुआ। मैंने विवाह में कोई भाग न लिया। मैंने माता जी से थोड़े से रूपये मांगे। माताजी ने मुझ लगभग 125 रूपये दिये जिनको लेकर मैं ग्वालियर गया। यह अवसर रिवाल्वर खरीदने का अच्छा हाथ लगा। मैंने सुना था कि रियासत में बड़ी आसानी से हथियार मिल जाते हैं। बड़ी खोज की टोपीदार बन्दूक तथा पिस्तौल तो मिले थे, किंतु कारतूसी हथियार का कहीं कोई पता नहीं लगा। पता लगा भी तो एक महाशय ने मुझे ठग लिया और 75 रूपये में पांच फायर करने वाला एक रिवाल्वर दिया। रियासत की बनी हुई बारूद और थोड़ी सी टोपियाँ दे दी। मैं इसी को लेकर बड़ा प्रसन्न हुआ। सीधा शाहजहाँपुर पहुंचा। रिवाल्वर को भर कर चलाया तो गोली केवल पन्द्रह से बीस गज पर ही गिरी, क्योंकि बारूद अच्छी न थी। मुझे बड़ा खेद हुआ। माताजी भी जब शाहजहाँपुर आई, तो पूछा क्या लाये? मैंने कुछ कहकर टाल दिया। रूपये सब खर्च हो गये, शायद एक गिन्नी बची थी, सो मैंने माता जी को लौटा दी।" माता मूलवती जी ने सदैव बिस्मिल जी को एक परछाईं की भांति साथ दिया। जब बिस्मिल जी को धन की आवश्यकता होती तो वे अपनी माता जी से लेते। माता मूलवती कभी उन्हें धन देने से इनकार न करती। यथासंभव सहयोग करती। बिस्मिल जी का स्कूल एक मील दूर था। तब बिस्मिल जी अंग्रेजी के नवे दर्जे में थे। बिस्लिम जी ने माता मूलमती से साईकिल खरीदने की इच्छा जताई। माता जी ने बिस्मिल जी को सौ रूपये दिए जिससे बिस्मिल जी साईकिल खरीद सके। बिस्मिल जी को धार्मिक तथा देश से संबंधित मुद्दों की पुस्तकें पढ़ने का बहुत शौक था। ऐसी पुस्तकें खरीदने के लिए बिस्मिल जी माता जी से रूपये लेते। बिस्मिल जी को एक समय लखनऊ कांग्रेस में जाने की इच्छा हुई परन्तु पं. मुरलीधर तथा दादा नारायण लाल ने वहां जाने का विरोध किया तब बिस्मिल जी को माता मूलवती ने खर्च देकर भेजा। बिस्मिल जी में प्रारम्भ से देश की समस्याओं के प्रति चिन्ता तथा देश भक्ति का भाव था इसलिए जब शाहजहाँपुर में सेवा समिति का प्रारम्भ हुआ तब बिस्मिल जी ने पूर्ण उत्साह के साथ सेवा समिति में सहयोग दिया। पं. मुरलीधर तथा दादाजी को बिस्मिल जी के इस प्रकार के कार्य अच्छे न लगते थे परंतु माता मूलवती बिस्मिल जी के उत्साह को खत्म न होने देतीं थीं। इस कारण अनेक बार माता मूलवती को पं. मुरलीधर की डांट-फटकार तथा दंड भी सहन करना पड़ता था। बिस्मिल जी की माता मूलवती तथा उनके गुरूदेव स्वामी सोमदेव उनके आदर्श तथा जीवन के पथ-प्रदर्षक थे। बिस्मिल जी स्वयं लिखते हैं। "वास्तव में मेरी माता जी स्वर्गीय देवी हैं। मुझ में जो कुछ जीवन तथा साहस आया, वह मेरी माता जी तथा गुरूदेव श्री स्वामी सोमदेव जी की कृपाओं का ही परिणाम है।" दादी विचित्रा देवी तथा पिता पं. मुरलीधर बिस्मिल जी को विवाह करने को कहते परन्तु माता मूलवती सदैव कहती कि बिना उचित शिक्षा प्राप्त किए विवाह करना ठीक नहीं। माता मूलवती के प्रोत्साहन तथा सद्व्यवहार ने बिस्मिल जी के जीवन में वह दृढ़ता प्रदान की कि किसी आपत्ति तथा संकट के आने पर भी बिस्मिल जी ने अपने संकल्प को न त्यागा।

बिस्मिल जी के जीवन की प्रथम गुरू व उनकी जीवनदायिनी उनकी माता मूलवती, बिस्मिल जी के लिए ईष्वर के समान पूज्यनीय तथा सर्वोपरि थीं। माता मूलवती जी ग्यारह वर्ष की आयु में विवाह कर शाहजहाँपुर आई थीं। उस समय वे अशिक्षित तथा ग्रामीण कन्या के सदृष भोली तथा मासूम थीं। चूकि माता मूलवती की आयु कम थी इसलिए दादी विचित्रा देवी ने अपनी बहन को बुला लिया। दादी जी की बहन ने माता मूलवती को गृहकार्य की शिक्षा दी। कुछ ही समय पश्चात् माता मूलवती जी ने घर के सब कार्यों में दक्षता प्राप्त कर ली तथा भोजनादि की ठीक-ठीक व्यवस्था करने लगीं। बिस्मिल जी के जन्म के पाँच या सात वर्ष बाद माता मूलवती ने हिन्दी का अध्ययन प्रारम्भ किया। वे एक जागरूक महिला थी इसलिए घर में पड़ोस की सखी-सहेलियों के आने पर वे उनमें से शिक्षित महिलाओं से हिन्दी के अक्षर-बोध करतीं। दिन का संपूर्ण गृह कार्य समाप्त करने के पश्चात् जो समय मिलता, उसमें माता मूलवती अध्ययन एवं लेखन कार्य करतीं। उन्होंने अपने परिश्रम से थोड़े ही दिनों में देवनागरी पुस्तकों का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। माता मूलवती ने अपने परिश्रम से स्वयं ही पढ़ना न सीखा अपितु अपनी पुत्रियों को छोटी आयु में उन्होंने ही शिक्षा प्रदान की। जब बिस्मिल जी ने आर्य समाज में प्रवेश किया तब माता मूलवती तथा बिस्मिल जी में खूब परिचर्चा होती थी। बिस्मिल जी लिखते हैं "यदि मुझे ऐसी माता जी न मिलती तो मैं भी अति साधारण मनुष्यों की भांति संसार चक्र में फंसकर जीवन निर्वाह करता। शिक्षादि के अतिरिक्त क्रांतिकारी जीवन में भी उन्होंने मेरी वैसी ही सहायता की जैसी मेजिनी की माता ने की थी।'' "माता जी का सबसे बड़ा आदेश मेरे लिए यह था कि किसी की प्राण हानि न हो। उनका कहना था कि अपने शत्रु को भी कभी प्राण दण्ड न देना। उनके इस आदेश की पूर्ति के लिए मुझे मजबूरन दो-एक बार अपनी प्रतिज्ञा भंग भी करनी पड़ी थी।" माता मूलवती के उत्साह ने बिस्मिल जी को भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम का क्रांतिकारी सेनानी बनाया। माता मूलवती मात्र इतना चाहती थी कि बिस्मिल जी कभी नैतिक पथ का त्याग न करें, कभी किसी निर्दोष के प्राण संकट में न डालें और न ही प्राण लें। बिस्मिल जी ने माता मूलवती की इस इच्छा तथा शिक्षा का आजीवन पालन किया।

बिस्मिल जी की माता जी ने उन्हें व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं अपितु क्रांतिकारी जीवन में भी पूर्ण सहयोग प्रदान किया। सदैव बिस्मिल जी के देश भक्ति की भावना को उत्साह तथा सहयोग प्रदान किया। बिस्मिल जी का रोम-रोम अपनी माता का ऋणी था क्योंकि उनकी माता ने उन्हें एक साधारण इन्सान से एक वीर देश भक्त क्रांतिकारी बनाया। बिस्मिल जी ने अपनी माता जी के प्रति अपने हृदय के उद्गार को कुछ इस प्रकार अभिव्यक्त किया है। 38"जन्मदात्री जननी। इस दिशा में तो तुम्हारा ऋण-प्रतिशोध करने के प्रयत्न का अवसर न मिला। इस जन्म मैं तो क्या यदि अनेक जन्मों में भी सारे जीवन प्रयत्न करूं तो भी मैं तुम से उऋण नहीं हो सकता। जिस प्रेम तथा दृढ़ता के साथ तुमने इस तुच्छ जीवन का सुधार किया है, वह अवर्णनीय है। मुझे जीवन की प्रत्येक घटना का स्मरण है कि तुमने किस प्रकार अपनी देव वाणी का उपदेश करके मेरा सुधार किया है। तुम्हारी दया से ही मैं देश - सेवा में संलग्न हो सका। धार्मिक जीवन में भी तुम्हारे ही प्रोत्साहन ने सहायता दी। जो कुछ शिक्षा मैंने ग्रहण की उसका श्रेय तुम्हीं को है। जिस मनोहर रूप से तुम मुझे उपदेश करती थीं, उसका स्मरण कर तुम्हारी मंगलमयी मूर्ति का ध्यान आ जाता है और मस्तक नत हो जाता है। तुम्हे यदि मुझे ताड़ना भी देनी हुई, तो बड़े स्नेह से हर बात को समझा दिया। यदि मैंने धृष्टतापूर्ण उत्तर दिया तब तुमने प्रेम भरे शब्दों में यही कहा कि तुम्हें जो अच्छा लगे, वह करो, किंतु ऐसा करना ठीक नहीं, इसका परिणाम अच्छा न होगा। जीवनदात्री! तुम ने इस शरीर को जन्म देकर केवल पालन-पोषण ही नहीं किया किंतु आत्मिक तथा सामाजिक उन्नति में तुम्ही मेरी सदैव सहायक रहीं। जन्म-जन्मान्तर परमात्मा ऐसी माता दें।

महान से महान संकट में भी तुमने मुझे अधीर न होने दिया। सदैव अपनी प्रेम भरी वाणी को सुनाते हुए मुझे सांत्वना देती रहीं। तुम्हारी दया की छाया में मैंने अपने जीवन भर में कोई कष्ट अनुभव न किया। इस संसार में मेरी किसी भी भोग-विलास तथा ऐश्वर्य की इच्छा नहीं। केवल एक तृष्णा है, वह यह कि एक बार श्रद्धापूर्वक तुम्हारे चरणों की सेवा करके अपने जीवन को सफल बना लेता। किन्तु यह इच्छा पूर्ण होती नहीं दिखाई देती और तुम्हें मेरी मृत्यु का दुःख-संवाद सुनाया जायेगा। माँ! मुझे विश्वास है कि तुम यह समझ कर धैर्य धारण करोगी कि तुम्हारा पुत्र माताओं की माता-भारत माता-की सेवा में अपने जीवन की बलि-बेदी की भेंट कर गया और उसने तुम्हारी कुक्ष को कलंकित न किया, अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा। जब स्वाधीन भारत का इतिहास लिखा जायेगा, तो उसके किसी पृष्ठ पर उज्जवल अक्षरों में तुम्हारा भी नाम लिखा जायेगा। गुरू गोविन्दसिंह की धर्मपत्नी ने जब अपने पुत्रों की मृत्यु का सम्वाद सुना था, तो बहुत हर्षित हुई थी और गुरू के नाम पर धर्मरक्षार्थ अपने पुत्रों के बलिदान पर मिठाई बांटी थी।

जन्मदात्री! वर दो कि अन्तिम समय भी मेरा हृदय किसी प्रकार विचलित न हो और तुम्हारे चरण कमलों को प्रणाम कर मैं परमात्मा का स्मरण करता हुआ शरीर त्याग करूं।" साहसी तथा वीरांगना माता मूलवती के ही संस्कारों की छवि पं रामप्रसाद जी में थी। सदैव अपनी माता के प्रोत्साहन तथा स्नेह से आत्मिक बल प्राप्त बिस्मिल जी ने भय को मीलों दूर भगा कर क्रांति की राह पर अपना सर्वस्व बलिदान किया। यदि ऐसी साहसी तथा देशभक्त माता मूलवती न होती तो देश को अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल जी जैसे दिलजले युवा क्रांतिकारी न मिलते जिन्होंने अपनी माता के कष्टों से पहले भारत माता के कष्टों के निवारण के लक्ष्य को प्राथमिकता प्रदान की।

बिस्मिल जी में क्रांति की राह पर चलने की भावना को जगाने का तथा उसे प्रबल बनाने का श्रेय बिस्मिल जी के गुरू स्वामी सोमदेव जी को जाता है। बिस्मिल जी ने उनके शाहजहाँपुर आने पर उनकी बहुत सेवा की। बिस्मिल जी स्वामी सोमदेव जी के उपदेशों के साथ-साथ देश से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करते थे। बिस्मिल जी के जीवन में माता मूलवती के पश्चात् उनके गुरू स्वामी सोमदेव जी का प्रमुख स्थान था। बिस्मिल जी की माता जी तथा उनके गुरू स्वामी सोमदेव, दोनों ही उनके जीवन के वे सम्बल थे जिस पर उनका जीवन सार्थक दिषा में आगे बढ़ा। बिस्मिल जी ने अपनी आत्मकथा में अपने गुरूदेव स्वामजी सोमदेव के विषय में विस्तार से वर्णन किया, इसे समझे बिना बिस्मल जी के क्रांतिकारी आंदोलन में उनकी भूमिका को समझना अपूर्ण ही है। बिस्मिल जी ने अपने गुरू स्वामी सोमदेव के जीवन परिचय का वर्णन इस प्रकार किया है। "माता जी के अतिरिक्त जो कुछ जीवन शिक्षा मैंने प्राप्त की वह पूज्यवाद श्री स्वामी सोमदेव जी की कृपा का परिणाम है। आपका (स्वामी सोमदेव) नाम श्रीयुत ब्रजलाल चोपड़ा था। पंजाब के लाहौर शहर में आपका जन्म हुआ था। आपका कुटुम्ब प्रसिद्ध था, क्योंकि आपके दादा महाराजा रणजीत सिंह के मंत्रियों में से एक थे। आपके जन्म के कुछ समय पश्चात् आपकी माता का देहांत हो गया था। आपकी दादी जी ने ही आपका पालन-पोषण किया था। आप अपने पिता की अकेली सन्तान थे। जब आप बढ़े तो चाचियों ने दो-तीन बार आपको जहर देकर मारने का प्रयत्न किया, ताकि उनके लड़कों को ही जायदाद का अधिकार मिल जाये। आपके चाचा आप पर बड़ा स्नेह रखते थे और शिक्षादि की ओर विशेष ध्यान देते थे। अपने चचेरे भाईयों के साथ-साथ आप श्री अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते थे। जब आपने एण्ट्रेन्स की परीक्षा दी तो परीक्षा फल प्रकाशित होने पर आप यूनिवर्सिटी में प्रथम आये और चाचा के लड़के फेल हो गये। घर में बड़ा शोक मनाया गया। दिखाने के लिए भोजन तक न बना। आपकी प्रशंसा तो दूर, किसी ने उस दिन भोजन करने को भी न पूछा और बड़ी उपेक्षा की दृष्टि से देखा। आपका हृदय पहले से ही घायल था, इस घटना से आपके जीवन को और भी बड़ा आघात पहुँचा। चाचा जी के कहने-सुनने पर काॅलेज में नाम लिख तो लिया, किन्तु बड़े उदासीन रहने लगे। आपके हृदय में दया बहुत थी। बहुधा अपनी किताबें तथा कपड़े दूसरे सहपाठियों को बाँट दिया करते थे। एक बार चाचा जी से दूसरे लोगों ने कहा कि ब्रजलाल को कपड़े भी आप बनवा नहीं देते, जो वह पुराने फटे कपड़े पहने फिरता है। चाचा जी को बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि उन्होंने कई जोड़े कपड़े थोड़े दिन पहले ही बनवाये थे। आपके संदूकों की तलाशी ली गई। उनमें दो-चार जोड़ी पुराने कपड़े निकले, तब चाचा जी ने पूछा तो मालूम हुआ कि वे नये कपड़े निर्धन विद्यार्थियों को बाँट दिया करते हैं। चाचा जी ने कहा कि जब कपड़े बाँटने की इच्छा हो तो कह दिया करो, हम विद्यार्थियों को कपड़े बनवा दिया करेंगे, अपने कपड़े न बांटा करो। आप बहुधा निर्धन विद्यार्थियों को अपने घर पर ही भोजन कराया करते थे। चाचियों तथा चचाजात भाईयों के व्यवहार से आपको बड़ा क्लेष होता था। इसी कारण से आपने विवाह न किया। घरेलू दुर्व्यवहार से दुःखी होकर आपने घर त्याग देने का निश्चय कर लिया और एक रात को जब सब सो रहे थे, चुपचाप उठकर घर से निकल गये। कुछ सामान साथ में लिया। बहुत दिनों तक इधर-उधर भटकते रहे। भटकते-भटकते आप हरिद्वार पहुँचे। वहाँ एक सिद्ध योगी से भेंट हुई। श्री ब्रजलाल को जिस वस्तु की इच्छा थी, वह प्राप्त हो गई। उसी स्थान पर रहकर श्री ब्रजलाल ने योग विद्या पूर्ण शिक्षा पाई। योगिराज की कृपा से आप 15-20 घण्टे की समाधि लगाने लगे। कई वर्ष तक आप वहाँ रहे। इस समय आपको योग का इतना अभ्यास हो गया था कि अपने शरीर को आप इतना हल्का कर लेते थे कि पानी पर पृथ्वी के समान चले जाते थे। जब आपको देश भ्रमण का अध्ययन करने की इच्छा हुई। अनेक स्थानों से भ्रमण करते हुए अध्ययन करते रहे। जर्मनी तथा अमेरिका से बहुत सी पुस्तकें मंगवाई जो शास्त्रों के सम्बन्ध में थी। जब लाला-लाजपतराय को देश-निर्वासन का दंड मिला था, उस समय आप लाहौर में थे। वहाँ आपने एक समाचार-पत्र की सम्पादकीय के डिक्लेरेशन दाखिल किया। डिप्टी कमिश्नर उस समय किसी के भी समाचार पत्र के कमिश्नर को स्वीकार न करता था। जब आपसे भेंट हुई तो वह बड़ा प्रभावित हुआ और उसने डिक्लेरेशन मंज़ूर कर लिया। अखबार का पहला ही अग्रलेख 'अंग्रेजों को चेतावनी' के नाम से निकला। लेख इतना उत्तेजना पूर्ण था कि थोड़ी देर में ही समाचार-पत्र की सब प्रतियाँ बिक गईं और जनता के अनुरोध पर उसी अंक का दूसरा संस्करण प्रकाशित करना पड़ा। डिप्टी कमिश्नर बड़ा क्रुद्ध था। लेख को पढ़कर काँपता और क्रोध में आकर मेज पर हाथ दे मारता था। किन्तु अंतिम शब्दों को पढ़कर चुप हो जाता। उस लेख के शब्द यों थे कि ''यदि अंग्रेज अब भी न समझेंगे तो वह दिन दूर नहीं कि सन् 1857 के दृश्य के बच्चों को कत्ल किया जाये, उनकी रमणियों की बेइज्जती हो इत्यादि। किन्तु यह सब स्वप्न है, यह सब स्वप्न है।" इन्हीं शब्दों को पढ़कर डिप्टी कमिष्नर कहता कि हम तुम्हारा कुछ नहीं कर सकते।

स्वामी सोमदेव भ्रमण करते हुए बम्बई पहुंचे। वहां पर आपके उपदेशों को सुनकर जनता पर बड़ा प्रभाव पड़ा। एक व्यक्ति जो श्रीयुत अबुल कलाम आजाद के बड़े भाई थे, आपका व्याख्यान सुनकर मोहित हो गए। वह आपको अपने घर ले गये। इस समय तक आप गेरूआ कपड़ा न पहनते थे। केवल एक लुंगी और कुर्ता पहनते थे और साफा बांधते थे। श्री अबुल कलाम आजाद के पूर्वज अरब के निवासी थे। आपके पिता के बम्बई में बहुत से मुरीद थे और कथा की तरह कुछ धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने पर हजारों रूपये चढ़ावे में आया करते थे। वह सज्जन इतने मोहित हो गए कि उन्होंने धार्मिक कथाओं का पाठ करने के लिए जाना ही छोड़ दिया। वह दिन-रात आपके पास ही बैठे रहते। जब आप उनसे कहीं जाने को कहते तो वह रोने लगते और कहते कि मैं आपके आत्मिक ज्ञान के उपदेशों पर मोहित हूँ। मुझे संसार में किसी वस्तु की इच्छा नहीं। आपने एक दिन नाराज होकर उनको धीरे से चपत मार दी जिससे वे दिन भर रोते रहे। उनको घर वालों तथा शिष्यों ने बहुत समझाया किंतु वह धार्मिक कथा कहने न जाते। यह देखकर उनके मुरीदों को बड़ा क्रोध आया कि हमारे धर्मगुरू एक काफिर के चक्कर में फंस गए हैं। एक सन्ध्या को स्वामी जी अकेले समुद्र तट पर भ्रमण करने गए थे कि कई मुरीद बन्दूक लेकर स्वामी जी को मार डालने के लिए मकान पर आये। यह समाचार जानकर उन्होंने स्वामी जी के प्राणों का भय देखकर स्वामी जी से बम्बई छोड़ने की प्रार्थना की। प्रातःकाल एक स्टेशन पर स्वामी जी को तार मिला कि आपके अबुल कलाम आजाद के भाई साहब ने आत्महत्या कर ली। तार पढ़कर आपको बड़ा क्लेष हुआ। जिस समय आपको इन बातों का स्मरण हो आता था तो बड़े दुःखी होते थे। मैं संध्या के समय आपके निकट बैठा था, अंधेरा काफी हो गया था। स्वामी जी ने बड़ी गहरी ठंडी सांस ली। मैंने चेहरे की ओर देखा तो आंखों से आंसू बह रहे थे। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने कई घंटे प्रार्थना की, तब आपने उपरोक्त विवरण सुनाया।

अंग्रेजी की योग्यता आपकी बड़ी उच्च कोटि की थी। आपका शास्त्र विशयक ज्ञान बड़ा गंभीर था। आप बड़े निर्भीक वक्ता थे। आपकी योग्यता को देखकर एक मद्रास की कांग्रेस कमेटी ने आपको अखिल भारतवर्षीय कांग्रेस का प्रतिनिधि चुनकर भेजा था। आगरा की आर्य मित्र-सभा के वार्षिकोत्सव पर आपके व्याख्यानों को श्रवण कर राजा महेन्द्र प्रताप भी बड़े मुग्ध हुए थे। राजा साहब ने आपके पैर छुए और आपको अपनी कोठी पर लिवा ले गए। उस समय से राजा साहब बहुधा आपके उपदेश सुना करते और अपना गुरू मानते थे। इतना साफ निर्भीक बोलने वाला मैंने आज तक नहीं देखा। सन् 1913 ई. में मैंने पहला व्याख्यान शाहजहाँपुर में सुना था। आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर आप पधारे थे। उस समय आप बरेली में निवास करते थे। आपका शरीर बहुत कृष था, क्योंकि आपको एक अजीब रोग हो गया था। आप जब शौच जाते थे, तब आपको खून गिरता था। कभी दो छटांक, कभी चार छटांक और कभी-कभी तो एक सेर तक खून गिर जाता था। बवासीर आपको नहीं थी। ऐसा कहते थे कि किसी प्रकार की योग की क्रिया बिगड़ जाने से पेट की आँत में कुछ विकार उत्पन्न हो गया। आँत सड़ गई। पेट चिरवाकर आँत कटवानी पड़ी और तभी से यह रोग हो गया था। बड़े-बड़े वैद्य-डाॅक्टरों की औषधि की किन्तु कुछ लाभ न हुआ। इतने कमजोर होने पर भी जब व्याख्यान देते तब इतने जोर से बोलते कि तीन-चार फर्लांग से आपका व्याख्यान साफ सुनाई देता था। दो-तीन वर्ष तक आपको हर साल आपको आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव पर बुलाया जाता। सन् 1915 ई में कतिपय सज्जनों की प्रार्थना पर आप आर्यसमाज मंदिर में ही निवास करने लगे। इसी समय से मैंने आपकी सेवा-सुश्रुषा में समय व्यतीत करना आरम्भ कर दिया। स्वामी जी मुझे धार्मिक तथा राजनैतिक उपदेश देते थे और इसी प्रकार की पुस्तकें पढ़ने का भी आदेश करते थे। राजनीति में भी आपका ज्ञान उच्च कोटि का था। लाला हरदयाल का आपसे बहुत परामर्श होता था। एक बार महात्मा मुंशी राम जी को आपने पुलिस के प्रकोप से बचाया। आचार्य रामदेव जी तथा श्रीयुत कृष्णजी से आपका बड़ा स्नेह था। राजनीति में आप मुझसे अधिक न खुलते थे। आप मुझसे बहुधा कहा करते थे कि एण्ट्रेंस पास कर लेने के बाद यूरोप की यात्रा अवश्य करना। इटली जाकर महात्मा मेजिनी की जन्मभूमि के दर्शन अवश्य करना।" "यद्यपि आप आर्य-समाज के सिद्धांतों को सर्वप्रकारेण मानते थे, किंतु परमहंस रामकृष्ण, स्वामी रामतीर्थ तथा महात्मा कबीरदास के उपदेशों का वर्णन प्रायः किया करते थे।

'कबिरा' शरीर सराय है भाड़ा दे के बस।
जब भठियारी खुश रहै तब जीवन का रस।। 1।।
'कबिरा क्षुधा है कूकरी करत भजन में भंग।
याको टुकरा डारि के सुमिरन करो निषंक।। 2।।
नींद निसानी नीच की उट्ठ 'कबिरा' जाग।
और रसायन त्याग के नाम रसाय चाख।। 3।।
चलना है रहना नहीं चलना बिसवें बीस।
'कबिरा' ऐसे सुहाग पर कौन बँधावे सीस।। 4।।
अपने अपने चोर को सब कोई डारे मारि।
मेरा चोर जो मोहिं मिले सरवस डारूँ वारि।। 5।।
कहे सुने की है नहीं देखा देखी बात।
दुल्हा दुल्हिन मिलि गए सूनी परी बारात।। 6।।
नैनन की करि कोठरी पुतरी पलँग बिछाय।
पलकन की चिक डारि के पीतम लेहु रिझाय।। 7।।
प्रेम पियाला जो पिये सीस दच्छिना देय।
लोभी सीस न दै सके, नाम प्रेम का लेय।। 8।।
सीस उतारे भुँइ धरै तापे राखै पाँव।
दास 'कबिरा' यूं कहै ऐसा होय तो आव।। 9।।
निन्दक नियरे राखिये आंखन कुई छबाय।
बिन पानी साबुन बिना उज्जवल करे सुभाय।। 10।।"

एक सच्चे गुरू के बिना परमात्मा की प्राप्ति संभव नहीं, एक सच्चे मार्गदर्शक के बिना जीवन की सही राह खोजना संभव नहीं। इन दोनों ही उलझनों से बिस्मिल जी को निकालने वाले थे उनके गुरू तथा मार्गदर्षक स्वामी सोमदेव जी महाराज। बिस्मिल जी ने भी अपने गुरू के उपदेशों तथा नियमों का सदैव दृढ़तापूर्वक पालन किया।
अपने गुरू के बताए गए नियमों में एक था ब्रह्मचर्य व्रत का पालन। बिस्मिल जी को ब्रह्मचर्य का ज्ञान तो मंदिर के पुजारी जी ने ही दे दिया था परंतु आर्य-समाज तथा स्वामी सोमदेव के संपर्क में आने पर बिस्मिल जी ने अखण्ड ब्रह्मचर्य की महिमा को समझा। बिस्मिल जी ने जब 'सत्यार्थ प्रकाश' का अध्ययन किया तब उन्होंने ब्रह्मचर्य के कठिन नियमों का पालन करना प्रारम्भ दिया था। बिस्मिल जी देश की तत्कालीन परिस्थितियों से दुःखी थे। देश की जनता विशेषकरयुवा वर्ग पश्चात जीवन शैली के प्रभाव के चलते अनियमित तथा अनैतिक जीवन जीने लगा था जिसमें मूल्यों तथा सच्चरित्रता का स्थान नगण्य रह गया था। बिस्मिल जी का मानना था कि ब्रह्मचर्य तथा अनुशासित जीवन देश के युवा वर्ग के लिए अतिआवश्यक है। इसलिए बिस्मिल जी देश की परिस्थितियाँ सुधारने के लिए देशवासियों को सर्वप्रथम स्वयं का जीवन सुधारने की बात कहते थे।
बिस्मिल जी देश की जनता तथा युवा वर्ग को विशेषता: स्वस्थ्य तथा नैतिक जीवन जीने की सलाह देते हुए लिखते हैं कि ''वर्तमान समय में इस देश की कुछ ऐसी दुर्दशा हो रही है कि जितने धनी तथा गणमान्य व्यक्ति हैं उनमें 99 प्रतिशत ऐसे हैं जो अपनी सन्तान-रूपी अमूल्य धन-राशि को अपने नौकर तथा नौकरानियों के हाथ में सौंप देते हैं। उनकी जैसी इच्छा हो, वे उन्हें बनावें। मध्यम श्रेणी के व्यक्ति भी अपने व्यवसाय तथा नौकरी इत्यादि में फंसे होने के कारण सन्तान की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सकते। सस्ता कामचलाऊ नौकर या नौकरानी रखते हैं और उन्हीं पर बाल-बच्चों का भार सौंप देते हैं, ये नौकर बच्चों को नष्ट करते हैं। यदि कुछ भगवान की दया हो गई और बच्चे नौकर-नौकरानियों के हाथ से बच गए तो मोहल्ले की गन्दगी से बचना बड़ा कठिन है। रहे-सहे स्कूल में पहुँचकर पारंगत हो जाते हैं। कॉलिज पहुँचते-पहुँचते आजकल के नवयुवकों के सोलहों संस्कार हो जाते हैं। कॉलिज में पहुँचकर ये लोग समाचार-पत्रों में दिए औषधियों के विज्ञापन देख-देखकर दवाइयों को मँगा-मँगाकर धन नष्ट करना आरम्भ करते हैं। 95 प्रतिशत की आँखें खराब हो जाती हैं। कुछ को शारीरिक दुर्बलता तथा कुछ को फैशन के विचार से ऐनक लगाने की बुरी आदत पड़ जाती है शायद ही कोई विद्यार्थी ऐसा हो जिसकी प्रेम कथा-कथाएं प्रचलित न हो। ऐसी अजीब-अजीब बातें सुनने में आती हैं कि जिनका उल्लेख करने से भी ग्लानि होती हैं। यदि कोई विद्यार्थी सच्चरित्र बनने का प्रयास भी करता है और स्कूल या कालिज में उसे कुछ अच्छी शिक्षा भी मिल जाती है, तो परिस्थितियाँ जिनमें उसे निर्वाह करना पड़ता है, उसे सुधरने नहीं देतीं। वे विचारते हैं कि थोड़ा सा आनन्द ले लें, यदि कुछ खराबी पैदा हो गई तो दवाई खाकर या पौष्टिक पदार्थों का सेवन करके दूर कर लेंगे। यह उनकी बड़ी भारी भूल है। दवाईयाँ कोई लाभ नहीं पहुँचाती। अण्डों का जूस, मछली के तेल, मांस आदि पदार्थ भी व्यर्थ सिद्ध होते हैं। सबसे आवश्यक बात चरित्र सुधारना ही होती है। विद्यार्थियों तथा उनके अध्यापकों को उचित है कि वे देश की दुर्दशा पर दया करें और अपने चरित्र को सुधारने का प्रयत्न करें। सार में ब्रह्मचर्य ही संसारी शक्तियों का मूल है। बिन ब्रह्मचर्य-व्रत पालन किए मनुष्य जीवन, नितांत शुष्क तथा नीरस प्रतीत होता है। संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यषगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं। ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परषुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनीबंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो। जिन विद्यार्थियों को बाल्यावस्था में कुटेव की बान पड़ जाती है, या जो बुरी संगत में पड़कर अपना आचरण बिगाड़ लेते हैं और फिर अच्छी शिक्षा पाने पर आचरण सुधारने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु सफल मनोरथा नहीं होते, उन्हें भी निराश नहीं होना चाहिए। मनुष्य-जीवन अभ्यासों का एक समूह है। मनुष्य के मन में भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक विचार तथा भाव उत्पन्न होते रहते हैं। क्रिया के बार-बार होने से उसमें एच्छिक भाव निकल जाता है और उसमें तात्कालिक प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है। इन तात्कालिक प्रेरक क्रियाओं को, जो पुनरावृत्ति का फल है, 'अभ्यास' कहते हैं। मानवी चरित्र इन्हीं अभ्यासों द्वारा बनता है। अभ्यास से तात्पर्य आदत, स्वभाव, वान है। अभ्यास अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के होते हैं। यदि हमारे मन में निरंतर अच्छे विचार उत्पन्न हों, तो उनका फल अच्छे अभ्यास होंगे और यदि बुरे विचार में लिप्त रहेंगे, तो निश्चय रूपेण अभ्यास बुरे होंगे। मन इच्छाओं का केन्द्र है। उन्हीं की पूर्ति के लिए मनुष्य को प्रयत्न करना पड़ता है।
अभ्यासों के बनने में पैतृक संस्कार अर्थात् माता-पिता के अभ्यासों के अनुकरण ही बच्चों के अभ्यास का सहायक होता है। दूसरे, जैसी परिस्थितियों में निवास होता है, वैसे ही अभ्यास भी पड़ते हैं। तीसरे, प्रयत्न से भी अभ्यासों का निर्माण होता है, यह शक्ति इतनी प्रबल हो सकती है कि इसके द्वारा मनुष्य पैतृक संसार तथा परिस्थितियों को भी जीत सकता है। हमारे जीवन का प्रत्येक कार्य अभ्यासों के अधीन है। यदि अभ्यासों द्वारा हमें कार्य में सुगमता न प्रतीत होती, तो हमारा जीवन बड़ा दुःखमय प्रतीत होता। लिखने का अभ्यास, वस्त्र पहनना, पठन-पाठन इत्यादि इनके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यदि हमें प्रारंभिक समय की भाँति सदैव सावधानी से काम लेना हो, तो कितनी कठिनता प्रतीत हो। इसी प्रकार बालक का खड़ा होना और चलना भी है कि उस समय वह कितना कष्ट अनुभव करता है, किन्तु एक मनुष्य मीलों तक चला जाता है। बहुत लोग तो चलते-चलते नींद भी ले लेते हैं। जैसे जेल में बाहरी दीवार पर घड़ी में चाबी लगाने वाले, जिन्हें बराबर छः घंटे चलना होता है, वे बहुधा चलते-चलते सो लिया करते हैं।
मानसिक भावों को शुद्ध रखते हुए अन्तःकरण को उच्च विचारों में बल पूर्वक संलग्न करने का अभ्यास करने से अवश्य सफलता मिलेगी। प्रत्येक विद्यार्थी या नवयुवक को, जो कि ब्रह्मचर्य के पालन की इच्छा रखता है, उचित है कि अपनी दिनचर्या निश्चित करे। खान-पानादि का विशेष ध्यान रखे। महात्माओं के जीवन-चरित्र तथा चरित्र-संगठन सम्बन्धी पुस्तकों का अवलोकन करे। प्रेमालाप तथा उपन्यासों से समय नष्ट न करे। खाली समय अकेला न बैठे। जिस समय कोई बुरे विचार उत्पन्न हों, तुरन्त शीतल जल-पान कर घूमने लगे या किसी अपने से बड़े के पास जाकर बातचीत करने लगे। अश्लील ग जलों, शेरों तथा गानों को न पढ़ें और न सुनें। स्त्रियों के दर्शन से बचता रहे। माता तथा बहन से भी एकान्त में न मिलें। सुन्दर सहपाठियों या अन्य विद्यार्थियों से स्पर्श तथा आलिंगन की भी आदत न डालें।"
बिस्मिल जी का जीवन उतार-चढ़ाव तथा संघर्षों भरा रहा। जहाँ कुछ अपनों का प्यार तथा समर्पण उन्हें मिला तो वहीं अपने कुछ मित्रों तथा सहयोगियों की उपेक्षा तथा विश्वासघात भी प्राप्त हुआ। देश की तात्कालिक दुर्दशा ने भी बिस्मिल जी के मन को उद्वेलित कर दिया था। मन की इन्हीं सब व्यथाओं को बिस्मिल जी ने अपनी कविताओं में शब्दों के माध्यम से व्यक्त किया। "बिस्मिल जी ने कविता की धारा में स्वयं को साधक पाया। 'मन की लहर' के आत्म-निवेदन में कहा है कि मेरा कई बार का अनुभव है, जब कभी मैं संसार की यातनाओं प्रेमवासियों तथा विश्वासघातियों की चालों से दुखित हुआ हूँ और बहुत ही निकट (संभव) था कि सर्वनाष कर लेता, किन्तु प्राण प्यारी रचनाओं ने ही मुझे धैर्य बंधाकर संसार यात्रा की कठिन राह चलने के लिए उत्साहित किया।" पं. रामप्रसाद बिस्मिल अद्वितीय कवि थे। वे 'बिस्मिल' उपनाम से कविता लिखा करते थे। "देश और समाज की दशा को देखकर ही शायद उन्होंने अपने नाम के सामने 'बिस्मिल' शब्द का प्रयोग किया। वे बहुत अच्छे शायर थे। 'बिस्मिल' का शाब्दिक अर्थ है 'घायल'। बिस्मिल देश की दुर्दशा, आपसी फूट, भारत-वासियों के गिरे हुए मनोबल को देखकर बिस्मिल (घायल) थे।" अपने दुखों को किसी से न कहने वाले बिस्मिल जी ने उन्हें कविताओं का स्वरूप दिया। बिस्मिल जी ने "लिखा है कि मैं कोई कवि नहीं और न कविताओं के कार्य को ही जानता हूँ- जिस युवा कवि के दिल में देश की आजादी के सपने थे, जिसने आजादी के लिए हाथों में रिवाल्वर के सिवाय कुछ नहीं पकड़ा हो उसी सपूत ने हल की मुठियाँ के साथ-साथ कलम के जादुई चमत्कार से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। 'मन की लहर' रचना संग्रह में कवि श्री रामप्रसाद बिस्मिल जी ने 'आह्वान', 'आर्य क्यों दुःखी हैं,' 'युवा-सन्यास', 'धर्महित मरना', 'हकीकत के वचन', 'मेरी भावना', बलिदेवी का संदेश आदि रचनाओं में जहाँ देश भक्ति का संदेश दिया है, वहीं कवि बिस्मिल जी ने समाज की रूढ़िवादी परम्पराओं के विरूद्ध संघर्ष की चेतावनी दी है।" बिस्मिल जी ने अपनी कविताओं के माध्यम से राष्ट्रीय एकता तथा देशभक्ति का संदेश दिया। जैसा कि बिस्मिल जी ने इन पंक्तियों में लिखा था कि-
''मुरझा तन था निश्छल मन था, जीवन ही केवल वन था।
मुसलमान हिन्दू मन छोड़ा, बस निर्मल अपना-पन था।
मंदिर में था चाँद चमकता, मस्जिद में मुरली की तान,
मक्का हो चाहे वृदांवन, होते आपस में कुर्बान।।"

बिस्मिल जी ने 'मेरा जन्म', जीवित जोश, 'स्वाधीन कैदी', 'मेरी प्रतिज्ञा', 'मातृभूमि', 'मातृवन्दना', 'वियोग' इत्यादि रचनाओं में राष्ट्र प्रेम, जेल में बिताये यातना पूर्ण दिन तथा मातृभूमि के लिए शहीद की भावना व युवाओं के लिए संदेश है। जैसा कि उन्होंने लिखा है-
''तेरे ही काम आऊँ तेरा ही मंत्र गाऊं।
मन और देह तुझ पर बलिदान चढ़ाऊँ।।"

''बिस्मिल जी ने प्रकृति के प्राकृतिक सौन्दर्य ''फूल" कविता के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। 'कफन', 'स्वतंत्र गाना', 'आहे-सर्द', मातम, 'कैदी बुल-बुल की फरियाद' आदि रचनाओं से क्रांति का शंख नाद परिलक्षित किया है। बिस्मिल जी ने देश की यातनापूर्ण जीवन को सरलतम शब्दों में व्यक्त किया है। ईश्वर विनय में बिस्मिल जी ने लिखा है-
बरसें हजारों बीती, दुःख सहते-सहते हमको,
क्या भाग्य में हमारे, बिल्कुल दया नहीं है।
हम गिर गये है इतने, हस्ती मिटी हमारी,
क्यों हाथ वह दया का, अब तक उठा नहीं है।

बिस्मिल जी ने संपूर्ण देश की स्थिति की प्रार्थना ईश्वर से की, उन्होंने ईष्वरवादी क्रांतिकारी पुरूष के रूप में लिखा है- ''क्या भाग्य में हमारे, ही एक बदी गुलामी, सदियों से जन्मभूमि, जो दुःख उठा रही है। उन्होंने 'भारत' मेरा कौल (प्रतिज्ञा) में लिखा है-
गुनहगारों में शामिल है, गुनाहों से नहीं वाकिफ,
सजा को जानते हैं हम,
खुदा जाने खता क्या है।
''न" बिस्मिल हूँ मैं वाकिफ नहीं, रस्में शहादत से,
तादें अब तू ही जालिम, तड़पने की अदा क्या है।
उम्मीद मिल गई मिट्टी में
दर्द जब्त आखिर है
सदाऐं गैब (आकाशवाणी) बतलाऐं
मुझे हुक मैं, खुदा क्या है।

अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल जी ने आप बीती; 'आहे-सर्द', 'बलिदान' शीर्षक रचनाओं में इधर हमारे उधर, 'हिन्दोस्तां हमारा', विश्वास के अन्त, 'मादरे हिन्द की आवाज' आदि रचनाओं में अत्याचार, उपद्रवी, राज्य सत्ता, ईष्र्या पर तीखी कलम लिखी है। अंग्रेजी हुक़ूमत को कोसा ही नहीं है बल्कि उनकी कलम ने लिखा है-
उन्हें मैंने दूध पिला दिया,
बसे आस्तीन के सांप वो,
कोई मेरे बच्चे को डस गया,
कोई मुझ पे जहर उगल गया।

उनकी कलम फिर गजल की तरफ बड़ी और उसमें उन्होंने दुखानंद, सच्ची प्रतिज्ञा, मौजूदा हालात, विश्वासघात, देश प्रेम, दर्दे दिल, नार ए गम, हिन्दोस्तां हमारा आदि गजलें लिखीं जो उस जमाने में प्रत्येक क्रांतिकारी की जुवां पर गुनगुनाती थी। जिसमें बिस्मिल जी ने समाज व देश की स्थिति का चिंतन पूरी निष्ठा व ईमानदारी से किया है-
'जो हवाऐं दहर बदल गईं तो,
जहां का रंग बदल गया'
जा दरख्वत फूल के फल गया"
झूठ जो चीज है उससे मोहब्बत कैसी,
खाक हो गये दम भर में वह सूरत कैसी,
न था मालूम वह जालिम, हमें इतना सतायेगा
फंसा कर दामें उल्फत में, हमें बन्दी बनायेगा।
छुड़ा करके वतन हमसे, बनायेगा हमें कैदी,
दिखाकर आवोदाने को, कफरा में हमको फंसायेगा,
बनाने को हमें कैदी, बनेगा बाग का माली,
छिपाकर शक्ल असली को, शक्ल दीगर दिखायेगा।
मझकर नातुर्बा हमको, करेगा इतनी जल्लादी।
जलाकर बालों पर सारे, हमें बिस्मिल बनायेगा।"

इस प्रकार बिस्मिल जी ने साहित्य जगत में अपने लेख व कविताओं के माध्यम से सोये हुए भारतीयों के आत्मसम्मान तथा पराधीनता के विरूद्ध जागरूकता की अलख जगाने का कार्य किया। साहित्य ही समाज का आईना होता है। बिस्मिल जी भारत के वासी तथा कवि व लेखक होने के अपने दोनों कर्तव्यों का निर्वाह किया। यही तत्कालीन समय की आवश्यकता थी। एक कवि व लेखक का अपने राष्ट्र तथा राष्ट्र वासियों के प्रति कुछ कर्तव्य होता है। बिस्मिल जी ने यह कर्तव्य भी निभाया तथा भारत माता के चरणों में प्राण त्याग कर भारत के सपूत होने का कर्तव्य पूर्ण किया। बिस्मिल जी 30 वर्ष जीवित रहे, छोटे से जीवन काल में इतना साहित्य व काव्य समाज को देना बड़ा मुश्किल कार्य है। अन्त में (बिस्मिल जी) आपका जन्म ज्येष्ठ शुक्ल निर्जला एकादशी और महाप्रयाण भी पौष कृष्ण एकादशी सोमवार को हुआ है। अतः आपका जन्म-मरण दोनों ही एकादशी की पवित्र तिथि को हुए हैं, जो बड़े-बड़े सन्त महात्माओं के लिए भी दुर्लभ हैं।

रामप्रसाद बिस्मिल पर निबंध ~ रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा ~ राम प्रसाद बिस्मिल के कार्य ~ राम प्रसाद बिस्मिल की शायरी ~ पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की जीवनी ~ रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां
राम प्रसाद बिस्मिल के विचार ~ राम प्रसाद बिस्मिल की मृत्यु


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अखरोट के फायदे, उपयोग और नुकसान



ड्राई फ्रूट्स सेहत के लिए फायदेमंद होते हैं। स्वस्थ आहार के साथ-साथ अगर आप अपनी दिनचर्या में ड्राईफ्रूट्स शामिल करते हैं, तो यह आपकी सेहत के लिए अच्छा है। बादाम, किशमिश, खजूर व अखरोट के साथ-साथ कई ऐसे ड्राई फूट्स हैं, जो आपकी सेहत बनाए रखने में मदद करते हैं। अखरोट का फल एक प्रकार का सूखा मेवा है जो खाने के लिये उपयोग में लाया जाता है। अखरोट का बाह्य आवरण एकदम कठोर होता है और अंदर मानव मस्तिष्क के जैसे आकार वाली गिरी होती है। अखरोट (के वृक्ष) का वानस्पतिक नाम जग्लान्स निग्रा है। आधी मुट्ठी अखरोट में 392 कैलोरी ऊर्जा होती हैं, 9 ग्राम प्रोटीन होता है, 39 ग्राम वसा होती है और 8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट होता है। इसमें विटामिन ई और बी6, कैल्शियम और मिनेरल भी पर्याप्त मात्रा में होते है। दिन भर में एक मुट्ठी या 4 से 5 अखरोट का सेवन आपके हृदय को तंदुरुस्त रखने के साथ ही, कोलेस्ट्रॉल के स्तर को कम करने में मदद करता है। अखरोट खाने के 4 घंटे के भीतर ही अपना असर दिखाना शुरु कर देता है। अखरोट में मौजूद एंटीऑक्सीडेंट न केवल आपकी त्वचा को बेहतरीन बनाता है बल्कि आंखों और बालों के लिए भी फायदेमंद है। इसमें कई तरह के एंटीऑक्सीडेंट पाएं जाते हैं जो आपको जवां बनाए रखने के साथ ही सेहत से जुड़े फायदे देते हैं। मानव मस्तिषक के आकार का यह फल वाकई आपके मस्तिष्क के लिए बेहद फायदेमंद है। मौजूद ओमेगा 3 मस्तिष्क की समस्याओं को दूर कर तनाव कम करने में भी सहायक है। नियमित रूप से अखरोट को अपनी डाइट में शामिल कर आप मस्तिष्क को स्वास्थ बनाए रख सकते हैं।
अखरोट को अंग्रेजी में वॉलनट (Walnut), तेलुगू में अकरूट काया, मलयालम में अक्रोथंदी, कन्नड़ में अक्रोटा, तमिल में अकरोट्टू, मराठी में अकरोड़ और गुजराती में अक्रोट कहा जाता है। विभिन्न भाषाओं में अखरोट के जितने नाम हैं, उसके फायदे भी उतने ही हैं।
  • रंग : अखरोट का रंग भूरा होता है।
  • स्वाद : इसका स्वाद फीका, मधुर, चिकना (स्निग्ध) और स्वादिष्ट होता है।
  • स्वरूप : पर्वतीय देशों में होने वाले पीलू को ही अखरोट कहते हैं। इसका नाम कर्पपाल भी है। इसके पेड़ अफगानिस्तान में बहुत होते हैं तथा फूल सफेद रंग के छोटे-छोटे और गुच्छेदार होते हैं। पत्ते गोल लम्बे और कुछ मोटे होते हैं तथा फल गोल-गोल मैनफल के समान परन्तु अत्यंत कड़े छिलके वाले होते हैं। इसकी मींगी मीठी बादाम के समान पुष्टिकारक और मजेदार होती है।
  • स्वभाव : अखरोट गर्म व खुष्क प्रकृति का होता है।
  • गुण : अखरोट बहुत ही बलवर्धक है, हृदय को कोमल करता है, हृदय और मस्तिष्क को पुष्ट करके उत्साही बनाता है इसकी भुनी हुई गिरी सर्दी से उत्पन्न खांसी में लाभदायक है। यह वात, पित्त, टी.बी., हृदय रोग, रुधिर दोष वात, रक्त और जलन को नाश करता है।
अखरोट के फायदे
अखरोट न सिर्फ सेहत, बल्कि त्वचा के लिए भी फायदेमंद है। नीचे हम आपको पहले सेहत के लिए अखरोट के फायदे बताएंगे, उसके बाद बताएंगे कि यह त्वचा के लिए किस प्रकार लाभकारी है।
  1. अपस्मार :- अखरोट की गिरी को निर्गुण्डी के रस में पीसकर अंजन और नस्य देने से लाभ होता है।
  2. अर्श (बवासीर) होने पर :- *वादी बवासीर में अखरोट के तेल की पिचकारी को गुदा में लगाने से सूजन कम होकर पीड़ा मिट जाती है।
  3. आंतरिक सफाई करे - अखरोट वास्तव में आपके शरीर के लिए वैक्यूम क्लीनर का काम करता है, क्योंकि यह आपकी पाचन प्रणाली से अनगिनत जीवाणुओं को साफ करता है।
  4. इंफ्लेमेटरी बीमारियों के लिए - अखरोट में उच्च मात्रा में फैटी एसिड होता है। इसलिए, जिन्हें अस्थमा, आर्थराइटिस व एक्जिमा जैसी इंफ्लेमेटरी बीमारियां होती हैं, उनके लिए अखरोट का सेवन फायदेमंद हो सकता है।
  5. एंटी-एजिंग - अखरोट विटामिन-बी से भरपूर पाया जाता है, जिस कारण यह त्वचा के लिए फायदेमंद है। वहीं, विटामिन-बी तनाव से दूर करने में मदद करता है। अगर इंसान को तनाव रहता है, तो इसका सीधा असर उनके चेहरे पर रिंकल्स और एजिंग के रूप में नजर आने लगता है। ऐसे में जब आप अखरोट का सेवन करते हैं, तो एजिंग और रिंकल त्वचा से हटने लगते हैं। इसके लिए एक चम्मच अखरोट का पाउडर, एक चम्मच ओलिव ऑयल, दो चम्मच गुलाब जल व आधा चम्मच शहद मिलाकर पेस्ट बना लें। इस पैक को अपने चेहरे पर 15 मिनट के लिए लगाकर छोड़ दें। फिर सूखने पर पानी से मुंह धो लें। बेहतर परिणाम के लिए आप यह फेस पैक सप्ताह में दो से तीन बार लगा सकते हैं।
  6. कंठमाला :- अखरोट के पत्तों का काढ़ा 40 से 60 मिलीलीटर पीने से व उसी काढ़े से गांठों को धोने से कंठमाला मिटती है।
  7. कंठमाला के रोग में :- अखरोट के पत्तों का काढ़ा बनाकर पीने से और कंठमाला की गांठों को उसी काढ़े से धोने से आराम मिलता है।
  8. कब्ज और पाचन - अखरोट फाइबर से भरपूर होता है, जो आपकी पाचन प्रणाली को दुरुस्त रखता है। पेट सही रखने और कब्ज से बचने के लिए फाइबर युक्त चीजें खानी जरूरी है। ऐसे में अगर आप रोजाना अखरोट का सेवन करते हैं, तो आपका पेट भी सही रहेगा और कब्ज भी नहीं होगी।
  9. कमजोरी :- अखरोट की मींगी पौष्टिक होती है। इसके सेवन से कमजोरी मिट जाती है।
  10. कैंसर के लिए - अमेरिकन एसोसिएशन फॉर कैंसर रिसर्च की शोध के मुताबिक, रोजाना कुछ अखरोट का सेवन करने से ब्रेस्ट कैंसर का खतरा कम होता है ।
  11. खूनी बवासीर (अर्श) :- अखरोट के छिलके का भस्म (राख) बनाकर उसमें 36 ग्राम गुरुच मिलाकर प्रतिदिन सुबह-शाम खाने से खूनी बवासीर (रक्तार्श) नष्ट होता है।
  12. गंजेपन से बचाए - अखरोट का तेल गंजेपन से भी बचाने में मदद करता है। कई अध्ययनों में भी यह बात सामने आई है कि नियमित रूप से अखरोट का तेल सिर पर लगाने से गंजापन दूर होता है।
  13. गर्भावस्था - गर्भावस्था में अखरोट खाना भी फायदेमंद हो सकता है। इसमें मौजूद ओमेगा-3 फैटी एसिड बच्चे के दिमागी विकास में मदद करता है। आप डॉक्टर की सलाह पर सही मात्रा में अखरोट का सेवन कर सकते हैं।
  14. गुल्यवायु हिस्टीरिया :- अखरोट और किशमिश को खाने और ऊपर से गर्म गाय का दूध पीने से लाभ मिलता है।
  15. घाव (जख्म) :- इसकी छाल के काढ़े से घावों को धोने से लाभ होता है।
  16. चमकदार त्वचा - अखरोट में ओमेगा-3 जैसे कई पोषक तत्व होते हैं, जो स्वास्थ्य के साथ-साथ त्वचा को भी पोषण देते हैं। इसके अलावा, इसमें एंटीऑक्सीडेंट गुण भी होता है, जो त्वचा से गंदगी दूर कर आपको चमकदार त्वचा देता है। चार अखरोट, दो चम्मच ओट्स, एक चम्मच शहद, एक चम्मच क्रीम और चार बूंद ऑलिव ऑयल एक साथ अच्छी तरह मिलाकर महीन पेस्ट बना लें। इस पेस्ट को अपने चेहरे पर लगाएं और सूखने तक लगा रहने दें। इसके बाद, चेहरे को गुनगुने पानी से धो लें।
  17. जी-मिचलाना :- अखरोट खाने से जी मिचलाने का कष्ट दूर हो जाता है।
  18. टी.बी. (यक्ष्मा) के रोग में :- 3 अखरोट और 5 कली लहसुन पीसकर 1 चम्मच गाय के घी में भूनकर सेवन करने से यक्ष्मा में लाभ होता है।
  19. डायबिटीज - डायबिटीज से बचाव के लिए भी अखरोट का सेवन फायदेमंद बताया गया है। अध्ययन में भी यह बात सामने आई है कि जो लोग दो से तीन चम्मच अखरोट का सेवन रोजाना करते हैं, उनमें टाइप-2 डायबिटीज का खतरा कम हो जाता है।
  20. डार्क सर्कल - आंखों के नीचे काले घेरे दूर करने में भी अखरोट का सेवन फायदेमंद हो सकता है। अखरोट का तेल आपकी आंखों के नीचे आई सूजन को दूर करता है और डार्क सर्कल कम करने में मदद करता है।
  21. डैंड्रफ से बचाए - अखरोट का तेल प्राकृतिक रूप से एंटी-डैंड्रफ का काम भी करता है। यह सिर की त्वचा को मॉइस्चराइज करता है, जिससे डैंड्रफ दूर रहता है।
  22. तनाव खत्म और बेहतर नींद - अखरोट का सेवन आपको तनाव से दूर कर बेहतर नींद भी प्रदान करता है। अखरोट में मेलाटोनिन होता है, जो बेहतर नींद लाने में मदद करता है। वहीं, ओमेगा-3 फैटी एसिड ब्लड प्रेशर को संतुलित कर तनाव से राहत दिलाता है।
  23. दर्द व सूजन में :- किसी भी कारण या चोट के कारण हुए सूजन पर अखरोट के पेड़ की छाल पीसकर लेप करने से सूजन कम होती है।
  24. दांतों के लिए :- अखरोट की छाल को मुंह में रखकर चबाने से दांत स्वच्छ होते हैं। अखरोट के छिलकों की भस्म से मंजन करने से दांत मजबूत होते हैं।
  25. दाद :- सुबह-सुबह बिना मंजन कुल्ला किए बिना 5 से 10 ग्राम अखरोट की गिरी को मुंह में चबाकर लेप करने से कुछ ही दिनों में दाद मिट जाती है।
  26. दिल के स्वास्थ्य के लिए - अखरोट दिल को स्वस्थ बनाए रखने में मदद करता है। इसमें प्रचुर मात्रा में ओमेगा-3 फैटी एसिड होता है, जो आपकी हृदय प्रणाली के लिए फायदेमंद होता है। इसके अलावा, यह भी पाया गया है कि जिन्हें उच्च रक्तचाप की समस्या होती है, उनके लिए भी अखरोट लाभकारी होता है। आपको बता दें कि ओमेगा-3 फैटी एसिड शरीर से खराब कोलेस्ट्रॉल को कम करके अच्छे कोलेस्ट्रॉल के निर्माण में मदद करता है, जो हृदय के लिए फायदेमंद होता है ।
  27. नष्टार्तव (बंद मासिक धर्म) :- अखरोट का छिलका, मूली के बीज, गाजर के बीज, वायविडंग, अमलतास, केलवार का गूदा सभी को 6-6 ग्राम की मात्रा में लेकर लगभग 2 लीटर पानी में पकायें फिर इसमें 250 ग्राम की मात्रा में गुड़ मिला दें, जब यह 500 मिलीलीटर की मात्रा में रह जाए तो इसे उतारकर छान लेते हैं। इसे सुबह-शाम लगभग 50 ग्राम की मात्रा में मासिक स्राव होने के 1 हफ्ते पहले पिलाने से बंद हुआ मासिक-धर्म खुल जाता है।
  28. नाड़ी की जलन :- अखरोट की छाल को पीसकर लेप करने से नाड़ी की सूजन, जलन व दर्द मिटता है।
  29. नासूर :- अखरोट की 10 ग्राम गिरी को महीन पीसकर मोम या मीठे तेल के साथ गलाकर लेप करें।
  30. नेत्र ज्योति (आंखों की रोशनी) :- 2 अखरोट और 3 हरड़ की गुठली को जलाकर उनकी भस्म के साथ 4 काली मिर्च को पीसकर अंजन करने से आंखों की रोशनी बढ़ती है।
  31. पेट में कीड़े होने पर :- अखरोट को गर्म दूध के साथ सेवन करने से बच्चों के पेट में मौजूद कीड़े मर जाते हैं तथा पेट के दर्द में आराम देता है।
  32. प्रमेह (वीर्य विकार) :- अखरोट की गिरी 50 ग्राम, छुहारे 40 ग्राम और बिनौले की मींगी 10 ग्राम एक साथ कूटकर थोड़े से घी में भूनकर बराबर मात्रा में मिश्री मिलाकर रखें, इसमें से 25 ग्राम प्रतिदिन सेवन करने से प्रमेह में लाभ होता है। ध्यान रहे कि इसके सेवन के समय दूध न पीयें।
  33. फंगल इन्फेक्शन से बचाए - अगर आपको फंगल इन्फेक्शन की समस्या रहती है, तो काला अखरोट आपके लिए फायदेमंद साबित हो सकता है। पाचन तंत्र में कैंडिडा की वृद्धि और फंगल इन्फेक्शन के कारण त्वचा खराब होने लगती है। ऐसे में काला अखरोट फंगल इन्फेक्शन को बढ़ने से रोकता है।
  34. फुंसियां :- यदि फुंसियां अधिक निकलती हो तो 1 साल तक रोजाना प्रतिदिन सुबह के समय 5 अखरोट सेवन करते रहने से लाभ हो जाता है।
  35. बालों के रंग को हाइलाइट करे - अखरोट का छिलका एक प्राकृतिक रंग का एजेंट है, जो आपके बालों को और खूबसूरत बनाने में मदद करता है। अखरोट के तेल में भरपूर मात्रा में प्रोटीन होता है। यह बालों के रंग को ठीक करता है और उन्हें चमकदार बनाता है।
  36. बूढ़ों की निर्बलता :- 8 अखरोट की गिरी और चार बादाम की गिरी और 10 मुनक्का को रोजाना सुबह के समय खाकर ऊपर से दूध पीने से वृद्धावस्था की दुर्बलता दूर हो जाती है।
  37. बूढ़ों के शरीर की कमजोरी :- 10 ग्राम अखरोट की गिरी को 10 ग्राम मुनक्का के साथ रोजाना सुबह खिलाना चाहिए।
  38. मरोड़ :- 1 अखरोट को पानी के साथ पीसकर नाभि पर लेप करने से मरोड़ खत्म हो जाती है।
  39. मस्तिष्क के लिए - अखरोट में मौजूद ओमेगा-3 फैटी एसिड न सिर्फ दिल, बल्कि मस्तिष्क के लिए भी फायदेमंद होता है। ओमेगा-3 फैटी एसिड से भरपूर चीजें खाने से आपकी तंत्रिका प्रणाली ठीक तरह से काम करती है, जिससे स्मरण शक्ति में सुधार आता है।
  40. मॉइस्चराइजर - जिनकी त्वचा रूखी होती है, उनके लिए भी अखरोट काफी फायदेमंद होता है। चूंकि, इसमें प्राकृतिक रूप से चिकनाई पाई जाती है, जो त्वचा का रूखापन दूर कर इसे पोषण देकर मॉइस्चराइज रखने में मदद करती है। इसके लिए आपको ज्यादा कुछ नहीं, बस रोजाना रात को सोते समय अपनी त्वचा पर अखरोट का तेल लगाना होगा। इसके बाद सुबह उठकर मुंह धो लें।
  41. याददाश्त कमजोर होना :- ऐसा कहा जाता है कि हमारे शरीर का कोई अंग किस आकार का होता है, उसी आकार का फल खाने से उस अंग को मजबूती मिलती है। अखरोट की बनावट हमारे दिमाग की तरह होती है इसलिए अखरोट खाने से दिमाग की शक्ति बढ़ती है। याददाश्त मजबूत होती है।
  42. रोग-प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाए - अखरोट में प्रचुर मात्रा में एंटीऑक्सीडेंट तत्व पाए जाते हैं, जो आपकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं और आपको बीमारियों से बचाने में मदद करते हैं। इसलिए, खुद को बीमारियों से बचाने के लिए और तंदुरुस्त रहने के लिए अपनी रोजाना की डाइट में अखरोट जरूर शामिल करें।
  43. लंबे और मजबूत बाल - अखरोट पोटेशियम, ओमेगा-3, ओमेगा-6 और ओमेगा-9 फैटी एसिड से भरपूर होता है। ये सभी पोषक तत्व बालों को मजबूती देते हैं। ऐसे में नियमित रूप से बालों में अखरोट तेल लगाने से बाल लंबे और मजबूत होते हैं। इसके लिए दो प्रयोग है प्रथम आप थोड़ा-सा अखरोट का तेल लें। तेल को गुनगुना करके इसे आंखों के नीचे काले घेरे वाले भाग पर लगाकर सो जाएं। फिर सुबह सामान्य तरीके से चेहरा धो लें। आप इस प्रक्रिया को रोज रात को तब तक दोहराएं, जब तक असर दिखना न शुरू हो जाए। दूसरा प्रयोग आप नींबू का रस, शहद, ओटमील और अखरोट का पाउडर एक साथ मिलाकर पेस्ट बना लें। इस पेस्ट को आंखों के नीचे लगाएं और 15-20 मिनट के लिए छोड़ दें। फिर पानी से धो लें। इस प्रक्रिया को आप सप्ताह में तीन से चार बार दोहरा सकते हैं।
  44. लकवा (पक्षाघात-फालिज-फेसियल, परालिसिस) :- रोजाना सुबह अखरोट का तेल नाक के छिद्रों में डालने से लकवा ठीक हो जाता है।
  45. वजन कम करे - आपको जानकर हैरानी होगी कि अखरोट वजन कम करने में अहम भूमिका निभाता है। इसमें भरपूर मात्रा में प्रोटीन व कैलोरी होती है, जो वजन को नियंत्रित रखने में मदद करती है। शोध में भी यह बात साबित हो चुकी है कि अखरोट का सेवन न सिर्फ वजन कम करता है, बल्कि उसे नियंत्रित भी रखता है।
  46. वात रक्त दोष (खूनी की बीमारी) :- वातरक्त (त्वचा का फटना) के रोगी को अखरोट की मींगी (बीज) खिलाने से आराम आता है।
  47. वात रोग :- अखरोट की 10 से 20 ग्राम की ताजी गिरी को पीसकर दर्द वाले स्थान पर लेप करें, ईंट को गर्म कर उस पर जल छिड़ककर कपड़ा लपेटकर उस स्थान पर सेंक देने से शीघ्र पीड़ा मिट जाती है। गठिया पर इसकी गिरी को नियमपूर्वक सेवन करने से रक्त शुद्धि होकर लाभ होता है।
  48. विवेचन (पेट साफ करना) :- अखरोट के तेल को 20 से 40 मिलीलीटर की मात्रा में 250 मिलीलीटर दूध के साथ सुबह देने से मल मुलायम होकर बाहर निकल जाता है।
  49. विसर्प-फुंसियों का दल बनना :- अगर फुंसियां बहुत ज्यादा निकलती हो तो पूरे साल रोजाना सुबह 4 अखरोट खाने से बहुत लाभ होता है।
  50. शरीर में सूजन :- अखरोट के पेड़ की छाल को पीसकर सूजन वाले भाग पर लेप की तरह से लगाने से शरीर के उस भाग की सूजन दूर हो जाती है।
  51. शैय्या मूत्र (बिस्तर पर पेशाब करना) :- प्राय: कुछ बच्चों को बिस्तर में पेशाब करने की शिकायत हो जाती है। ऐसे बाल रोगियों को 2 अखरोट और 20 किशमिश प्रतिदिन 2 सप्ताह तक सेवन करने से यह शिकायत दूर हो जाती है।
  52. सफेद दाग :- अखरोट के निरंतर सेवन से सफेद दाग ठीक हो जाते हैं।
  53. सफेद दाग होने पर :- रोजाना अखरोट खाने से श्वेत कुष्ठ (सफेद दाग) का रोग नहीं होता है और स्मरण शक्ति (याददाश्त) भी तेज हो जाती है।
  54. स्कैल्प को स्वस्थ रखे - नियमित रूप से अखरोट के तेल से सिर की मालिश करने से आपका स्कैल्प स्वस्थ रहता है। यह आपके स्कैल्प को मॉइस्चराइज रखता है। इसमें मौजूद एंटी फंगल गुण इन्फेक्शन से भी बचाने में मदद करता है।
  55. स्तन में दूध की वृद्धि के लिए :- गेहूं की सूजी एक ग्राम, अखरोट के पत्ते 10 ग्राम को एक साथ पीसकर दोनों को मिलाकर गाय के घी में पूरी बनाकर सात दिन तक खाने से स्त्रियों के स्तनों में दूध की वृद्धि होती है।
  56. हड्डियों के लिए - अखरोट हड्डियों को मजबूत करने का भी काम करता है। इसमें अल्फा-लिनोलेनिक एसिड होता है, जो हड्डियों को मजबूत करने में मदद करता है। इसके अलावा, अखरोट में मौजूद ओमेगा-3 फैटी एसिड सूजन को भी दूर करता है ।
  57. हाथ-पैरों की ऐंठन:- हाथ-पैरों पर अखरोट के तेल की मालिश करने से हाथ-पैरों की ऐंठन दूर हो जाती है।
  58. हृदय की दुर्बलता होने पर :- अखरोट खाने से दिल स्वस्थ बना रहता है। रोज एक अखरोट खाने से हृदय के विकार 50 प्रतिशत तक कम हो जाते हैं। इससे हृदय की धमनियों को नुकसान पहुंचाने वाले हानिकारक कोलेस्ट्रॉल की मात्रा नियंत्रित रहती है। अखरोट के असर से शरीर में वसा को पचाने वाला तंत्र कुछ इस कदर काम करता है। कि हानिकारक कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम हो जाती है। हालांकि रक्त में वसा की कुल मात्रा में कोई परिवर्तन नहीं होता। अखरोट में कैलोरी की अधिकता होने के बावजूद इसके सेवन से वजन नहीं बढ़ता और ऊर्जा स्तर बढ़ता है।
  59. हैजा :- हैजे में जब शरीर में बाइटें चलने लगती हैं या सर्दी में शरीर ऐंठता हो तो अखरोट के तेल से मालिश करनी चाहिए।
  60. होठों का फटना :- अखरोट की मिंगी (बीज) को लगातार खाने से होठ या त्वचा के फटने की शिकायत दूर हो जाती है।

     

    अखरोट के नुकसान
    जिस चीज के इतने फायदे होते हैं, उसके कहीं न कहीं, कुछ न कुछ नुकसान भी होते ही हैं। ऐसा ही अखरोट के साथ भी हैं। नीचे हम अखरोट खाने के नुकसान बता रहे हैं:
    1. अखरोट खाने के नुकसान में एलर्जी भी शामिल है। अगर आपको इससे एलर्जी है, तो अखरोट का सेवन न करें। इससे आपको छाती में खिंचाव महसूस हो सकता है या फिर सांस लेने में तकलीफ हो सकती है।
    2. अगर अखरोट का ज्यादा सेवन किया जाए, तो यह मुंह में छाले पैदा कर सकता है।
    3. अगर किसी को पहले से ही कफ की समस्या है, उन्हें अखरोट नहीं खाना चाहिए। कफ के दौरान अखरोट खाने से यह समस्या और बढ़ सकती है।
    4. इसमें फैट होता है, इस वजह से अगर इसका ज्यादा सेवन किया जाए, तो यह मोटापा बढ़ा सकता है।
    5. काले अखरोट में कुछ ऐसे केमिकल तत्व होते हैं, जिनसे त्वचा के कैंसर का खतरा बढ़ सकता है।
    6. काले अखरोट में फाइटेट्स नाम के यौगिक होते हैं। आयरन डिसऑर्डर इंस्टीट्यूट के अनुसार, फाइटेट्स भोजन में मौजूद लोहे के अवशोषण को 50 से 60 प्रतिशत तक कम कर सकते हैं, जिससे खून की कमी हो सकती है।
    7. काले अखरोट से स्किन रैशेज होने का खतरा भी बढ़ सकता है। इसके छिलके में ऐसे तत्व पाए जाते हैं, जो आपकी त्वचा पर लाल रैशेज पैदा कर सकते हैं।
    अखरोट का उपयोग
    अकसर हमारे मन में ये सवाल उठता है कि अखरोट का सेवन कैसे और कब करें। अखरोट के फायदे और नुकसान जानने के बाद अब हम जानते हैं कि अखरोट कैसे खाएं।
    1. दही में अखरोट की दो-तीन गिरियां मिलाकर भी इसे खाया जा सकता है।
    2. दूध में एक चम्मच अखरोट का पाउडर और एक चम्मच शहद डालकर भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
    3. रात को सोते समय एक गिलास दूध के साथ अखरोट के दो-तीन टुकड़े खाना काफी फायदेमंद रहता है।
    4. शाम के वक्त स्नैक्स में आप अखरोट को भूनकर भी खाने में उपयोग कर सकते हैं।
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    व्यंग्यकार श्रीलाल शुक्ल संक्षिप्त जीवन परिचय



    श्रीलाल शुक्ल हिन्दी व्यंग्य तथा कथा साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है। "उनका जन्म लखनऊ के मोहनलाल कस्ब के निकटवर्ती ग्राम अतरौली में 31 दिसम्बर, 1925 को एक सुसंस्कृत और विपन्न कृषक परिवार में हुआ। पितामह पं. गदाधर प्रसाद शुकुल, हिन्दी, उर्दू एवं संस्कृत का व्यवहारिक ज्ञान रखते थे तथा कसरत और संगीत का उन्हें शौक था। "उन्होंने अपने पुत्र को श्लोंकों तथा हिन्दी कविताओं का बचपन में ही मुक्तदान दिया। इसी के फलस्वरूप हाई स्कूल तक आते-आते जब श्रीलाल शुक्ल ने संस्कृत बोलने का अभ्यास प्रारम्भ किया तो व्याकरण में भले ही कमजोरी अनुभव हुई हो अभिव्यक्ति की कमजोरी अनुभव न हुई।" शुक्ल जी का बचपन गरीबों की गलियों में बीता। वहाँ के बच्चों के साथ खेलकर, गाँव के आस-पास की खेतों और जंगलों में घूमकर उन्होंने अपना बचपन व्यतीत किया था। गाँव में अलग-अलग जाति के लोग रहते थे। उन सब के अपने-अपने आचार-विचार भी थे। शुक्ल जी के पिता एक किसान थे। गरीब परिवार के बावजूद उनके परिवार में पठन-पाठन की परम्परा बनी रही। जीवन के उत्तरार्द्ध में अपने बड़े पुत्र पर निर्भर रहते हुए सन् 1945 में इनके पिता की मृत्यु हो गई। माँ साधनहीन होते हुए भी उदारमना तथा उत्साही प्रवृत्ति की थी। सन् 1960 में अपने कनिष्ठ पुत्र भवानी शंकर शुक्ल के पास अल्मोड़ा में उनका निधन हुआ।


    दो भाईयों तथा दो बहनों के बीच श्रीलाल शुक्ल का बाल्यकाल बीता। परिवार का बोझ सिर पर आ जाने के कारण उनके अग्रज पं. शीतलासहाय शुकुल को हाई स्कूल उत्तीर्ण होते हुए कानपुर जाकर नौकरी करनी पड़ी। श्रीलाल शुक्ल की प्रारम्भिक शिक्षा पास के मोहनलालगंज में हुई। परिश्रमी, कुशाग्र बुद्धि तथा साहित्यिक रूचि सम्पन्न उनके एक चचेरे चाचा पं. चन्द्रमौलि शुकुल संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी के प्रकाण्ड विद्वान थे। उन्होंने हिन्दी में विविध विषयक अनेक पुस्तकें लिखी। जब वह ग्रीष्मावकाश में गाँव आते, तो उनके पास उच्च कोटि की पुस्तकों को भण्डार होता था। साहित्य-जगत् से श्रीलाल शुक्ल का परिचय इन्हीं पुस्तकों के माध्यम से हुआ। उन्हीं के शब्दों में "पर उनकी (चाचा की) सम्पन्नता में मेरे मतलब की चीज़ सिर्फ उनकी किताबें और पत्रिकाएँ थीं। वह हमारे लिए 'चाँद', 'माधुरी', 'सुधा', 'सरस्वती', 'गंगा', 'हंस', 'सुकवि', 'काव्य', 'कलाधर' आदि पढ़ने का मौका था। मैंने प्रेमचन्द और प्रसाद की कई पुस्तकं,े जो उन्हें सादर भेंट की गई थीं, आठवीं पास करने के पहले ही पढ़ी थीं, उन साहित्यिकों के हस्ताक्षरों को बार-बार गौर से देखा था। नागरी-प्रचारिणी सभा और गंगा-पुस्तक माला आदि के नवीनतम प्रकाशन मैंने 1939-40 तक पढ़ लिये। उनमें वृन्दावन लाल वर्मा और निराला की कृतियाँ भी थी।"

    श्रीलाल शुक्ल में सृजनात्मकता के बीज बचपन से ही थे, जिन्हें गाँव के साहित्यिक माहौल में पनपने का अवसर मिला। शिक्षा और साहित्य के प्रति उनमें अदम्य आग्रह रहा है। 12-13 वर्ष की अवस्था में उन्होंने धनाक्षरी-सवैये लिखना प्रारम्भ कर दिए। वह कवि-सम्मेलनों में भी जाने लगे। कुछ कहानियाँ, अलोचनात्मक निबन्ध, उपन्यास भी लिखे। उन्होंने मिडिल मोहनलालगंज से, हाई स्कूल कान्यकुब्ज वोकेशनल काॅलिज, लखनऊ से इन्टरमीडिएट कान्यकुब्ज काॅलिज कानपुर से किया।

    1945 में इन्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी.एड. में प्रवेश लिया। अब तक पद्य के प्रति उनका आकर्षण समाप्त हो गया था। उन्होंने कहानियाँ लिखना प्रारम्भ किया। इलाहाबाद में वह केशवचन्द्र वर्मा, धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, गिरीधर गोपाल, जगदीश गुप्त जैसे उभरते साहित्यकारों के सम्पर्क में आये। विपन्नता के कारण एम.ए. और कानून की पढ़ाई छोड़नी पड़ी। कुछ समय तक उन्होंने कान्यकुब्ज वोकेशनल इंटर काॅलिल, लखनऊ में अध्यापन कार्य किया।


    इसी बीच उनका विवाह कानपुर के एक सुसंस्कृत परिवार में हो गया। उनका पारिवारिक जीवन सुखी रहा। उनकी तीन पुत्रियाँ (रेखा, मधुलिका, विनीता) तथा एक पुत्र आशुतोष है। सभी सुखी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। अपनी पत्नी की देखभाल में उन्होंने कोई कमी नहीं की। रवीन्द्र कालिया के शब्दों में "श्रीलाल जी एक शिशु की तरह गिरिजा की देखभाल करते।" अपने परिवार के प्रति अपनी आस्था उन्होंने कभी छिपायी नहीं। रचना के तीव्र क्षणों में अपने मकान को वह परिवारवालों के लिए छोड़कर अकेले रह लिया करते थे। पत्नी के बीमार हो जाने के बाद वे उदास हो गये। रवीन्द्र कालिया ने इसके बारे में लिखा है "श्रीलाल जी के साथ बितायी एक दोपहर तो भुलाए नहीं भूलती। गिरिजा जी एकदम असहाय, असमर्थ और चेतनाशून्य हो चुकी थी। श्रीलाल जी पूर्ण समर्पण के साथ उनकी तीमारदारी में मशगुल थे।" वे एक ऐसे जिम्मेदार गृहस्थ भी हैं जो जीवनभर सैर-सपाटे और पत्नी के साथ बाहर निकलने में रूचि रखते हैं। वे एक ऐसे जिम्मेदार गृहस्थ भी हैं जो जीवन भर सैर-सपाटे और पत्नी के साथ बाहर निकलने में रूचि रखते थे। पत्नी के बीमार होने के बाद उन्होंने जीवन की मस्ती, उत्साह, आराम सब कुछ छोड़ दिये। "इस समय श्रीलाल जी न लेखक थे, न आराम पसन्द अवकाश प्राप्त अधिकारी, वह मात्र पति थे, प्रेमी थे, दोस्त थे। पास ही मेज़ पर कई दिनों के समाचार-पत्र और पत्रिकाएँ पड़ी थी। लगता था, समाचार पत्रों की तह भी नहीं खुली। एक कोने में लावारिस सी डाक पड़ी थी।" इस तरह एक उन्मुक्त, उत्साहप्रिय, आराम तलब व्यक्ति अपनी पत्नी के लिए पूर्णरूप से समर्पित हो जाते हैं। रवीन्द्र वर्मा के अनुसार-"एक ठेठ भारतीय की तरह उनकी पत्नी उनके लिए एक जीवन मूल्य थी।" उनकी पत्नी उनके साथ ही साहित्य का अध्ययन भी करती थी और उसे संगीत में भी रूचि थी।

    सन् 1949 में उनका चयन पी.सी.एस. में हो गया। वर्ष 1973 में श्रीलाल शुक्ल की आई.ए.एस. में पदोन्नति हो गई। उत्तरप्रदेश शासन के अनके उच्च पदों पर कार्य करने के उपरान्त वह विशेष सचिव, चिकित्सा, एव स्वास्थ्य के पद से 30 जून, 1983 को सेवा मुक्त हो गए। उन्हें भिन्न-भिन्न जगहों पर काम करने का अवसर मिला था। जहाँ-जहाँ उन्होंने काम किया वहाँ के जनजीवन की खासियतों को समझने की कोशिश भी की है। नौकरी के क्षेत्र में वे समाजधर्मी एवं निष्ठावान थे। सरकारी अफसर के रूप में उन्हांेने प्रशासनिक क्षेत्र की समस्याओं को सुलझाने में विशेष क्षमता दिखाई है। उत्तरप्रदेश सिविल सर्विसेज में काम करते हएु उन्हें संघीय लोकसेवा आयोग में विशेष कार्याधिकारी के रूप में कार्य करने का अवसर मिला था। नौकरी के क्षेत्र में उन्हें कई अनुभव प्राप्त हुए है। बड़े-बड़े लोगों से मिलने तथा उनकी आदतों एवं चारित्रिक विशेषताओं को समझने का अवसर भी उन्हें प्राप्त हुआ था।


     राजनीतिक परिस्थिति तथा प्रशासनिक क्षेत्र के बारे में गहराई से पढ़ने की कोशिश की। नौकरी के क्षेत्र में व्यस्त रहने पर भी वे एक अच्छे पाठक थे। वे नौकरशाह नहीं थे। वैसा दम्भ उनमें नहीं था। सरकारी फाइलों के बीच सालों तक रहने पर भी वे सच्चे, मनुष्य तथा मानवीयता के वक्ता बनकर रहे हैं। ममता कालिया ने लिखा है-'वे हिन्दी के एकमात्र ऐसे कथाकार हैं जिन्होंने खाकी रगं की सरकारी फाइलों की अटपटी जानकारी व शब्दावली से अपनी मौलिक रचनात्मक भाषा का अनुसन्धान किया है। पूर्णकालिक जिम्मेदार नौकरी में इतने घंटे (बरस) बिताकर, कई आदमी यांत्रिक और बेजान हो जाते हैं, उनमें से फाइलों की बू आने लगती है पर श्रीलालजी ने इन सीमाओं को अपना सामथ्र्य बनाया।" उत्तर प्रदेश शासन के अनेक उच्च पदों पर कार्य करने के उपरान्त वह विशेष सचिव, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के पद से 30 जून, 1983 को सेवामुक्त हो गए। उसके बाद वे निरन्तर लेखन में जुड़े रहे तत्पश्चात् 28 अक्टुबर 2011 को इनकी मृत्यु हो गई।


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    झड़ते बालों का उपचार



    1. अपने बालों को खोने का नुकसान कम करने के लिए जो पहला कदम आप उठा सकते हैं वह है तेल के साथ अपने सिर की मालिश करना। बालों और सिर की उचित मालिश करने से बालों के रोम में रक्त का प्रवाह बढ़ाता है और आपके बालों की जड़ों की शक्ति में वृद्धि होती है। यह आपको आराम पहुंचाने और तनाव की भावनाओं को कम करने में मदद भी करेगा।
    2. अपने बालों को खोने का नुकसान कम करने के लिए जो पहला कदम आप उठा सकते हैं वह है तेल के साथ अपने सिर की मालिश करना। बालों और सिर की उचित मालिश करने से बालों के रोम में रक्त का प्रवाह बढ़ता है और आपके बालों की जड़ों की शक्ति में वृद्धि होती है। यह आपको आराम पहुंचाने और तनाव की भावनाओं को कम करने में मदद भी करेगा। आप बालों के लिए नारियल या बादाम का तेल, जैतून का तेल, अरंडी का तेल, आंवला तेल, या अन्य तेल का उपयोग कर सकते हैं। बेहतर और तेज़ परिणाम के लिए रोज़मैरी एसेंशियल ऑइल की कुछ बूंदें जोड़ें। अपनी उंगलियों के साथ हल्का दबाव देकर बाल और सिर पर उपरोक्त बताये तेलों में से किसी एक से अपने बालों में मालिश करें। यह सप्ताह में कम से कम एक बार करें।
    3. आंवले के चूर्ण को दही में मिलाएं और पेस्ट बना लें। इसके बाद इस पेस्ट को हल्के हाथों से बालों की जड़ों में लगाएं। कुछ देर ऐसे ही रहने दें और फिर धो लें। ऐसा नियमित रूप से करने पर बालों की समस्याएं खत्म हो जाती हैं।
    4. आधा कप दही में एक ग्राम काली मिर्च और थोड़ा नीबू का रस मिलाकर बालों में लगाएं, शीघ्र ही बहुत फायदा होगा।
    5. आप क्या खाते हैं ये भी बालों के पोषण में अहम भूमिका निभाता है। विटामिन, प्रोटीन और मिनरल युक्त भोजन भोजन के सेवन करने से बालों को भी पोषित किया जा सकता है। सही खाने से बालों को झड़ने से रोका जा सकता है।
    6. आप बालों के लिए नारियल या बादाम का तेल, जैतून का तेल, अरंडी का तेल, आंवला तेल, या अन्य तेल का उपयोग कर सकते हैं। बेहतर और तेज़ परिणाम के लिए रोज़मैरी एसेंशियल ऑइल की कुछ बूंदें जोड़ें।
    7. एलोवेरा में एंज़ाइम होते हैं जो बालों के स्वस्थ विकास को सीधे बढ़ावा देने में शामिल होते हैं। इसके अलावा, अपने एल्कलाइन गुण के कारण ये बालों के पीएच को एक सही स्तर पर लाने में मदद कर सकते हैं और बाल विकास को बढ़ावा दे सकते हैं। एलोवेरा के नियमित उपयोग से आप सिर की खुजली को दूर कर सकते है, सिर की लालिमा और सूजन को कम कर सकते हैं, बालों की शक्ति और चमक बढ़ा सकते हैं और रूसी को भी कम कर सकते हैं। एलो वेरा जेल और रस दोनों ही इस काम में प्रभावी हैं।
    8. गरम जैतून के तेल में एक चम्मच शहद और एक चम्मच दालचीनी पाउडर मिलाकर उनका पेस्ट बनाकर नहाने से पहले उसे लगाने से भी बालों का गिरना कम होता है।
    9. जैतून के तेल और दही के मिश्रण से भी सिर के झड़ते बालों को रोका जा सकता है। इसके लिए एक प्याले में ताजा दही लेकर इसमें 2 चम्मच जैतून का तेल मिला लें। दोनों का मिश्रण तैयार करके इसे बालों की जड़ों में मसाज करते हुए लगाएं। ऐसा करने के करीब आधे घंटे बाद शैंपू करके सिर धो लें। बालों की झड़ने की समस्या इससे धीरे-धीरे कम हो जाएगी।
    10. जैतून के तेल को गर्म करें और उसमें एक चम्मच शहद और एक चम्मच दालचीनी पाउडर मिलाकर पेस्ट बना लें। नहाने से पहले इस पेस्ट को बालों की जड़ों में लगाएं। कुछ समय बाद बालों को धो लें।
    11. दस मिनट तक कच्चे पपीता का पेस्ट सिर में लगाएं। इससे बाल भी नहीं झड़ेंगे और डेंड्रफ भी नहीं होगी।
    12. दही और नीबू के रस को मिलाकर पेस्ट बनाएं। इस पेस्ट को नहाने से पहले बालों में लगाएं। 20-30 मिनट बाद बालों को धो लें।
    13. नियमित रूप से तिल के तेल से बालों की मालिश करें। तिल के तेल में गाय का घी और अमरबेल के चूर्ण को मिलाकर लगाएंगे तो बहुत जल्दी लाभ होगा। यह नुस्खा रात को सोने से पहले अपनाना चाहिए। सिर की मालिश करने से रक्त संचार व्यवस्थित हो जाता है और बालों के रोम सक्रिय हो जाते हैं। इससे बालों की सेहत में सुधार होता है।
    14. नींबू से भी बालों के झड़ने को रोका जा सकता है। नींबू के रस के इस्तेमाल से रूसी से निजात पाई जा सकता है। इसके लिए नींबू को हल्के हाथों से सिर की त्वचा पर रगड़ें। कई दिनों तक लगातार ऐसा करने से फायदा दिखने लगेगा।
    15. नींबू के रस को दही में मिलाकर पेस्ट बना लीजिए। नहाने से पहले इस पेस्ट को बालों में लगाइए। 30 मिनट बाद बालों को धो लीजिए। बालों का गिरना कम हो जाएगा।
    16. नीम का पेस्ट सिर में कुछ देर लगाए रखें, फिर बाल धो लें। बाल झड़ना बंद हो जाएगा।
    17. प्याज का रस निकालकर उसे गर्म करें और ठंडा होने के बाद बालों की जड़ों में लगाएं। इससे पहले गर्म पानी में भीगे हुए तौलिए से बालों को कुछ देर ढककर रखें। इसके बाद प्याज का रस लगाएं। कुछ देर बाद बालों को अच्छे शैम्पू से धो लें। ऐसा नियमित रूप से करें। प्याज का रस गर्म करने से उसकी दुर्गंध दूर हो जाती है।
    18. प्याज के रस में उच्च मात्रा में सल्फर कंटेंट होता है, जो बालों के रोम के लिए रक्त परिसंचरण में सुधार करता है, बालों के रोम का पुनर्निर्माण करने और सूजन को कम करने में मदद करता है जिसके कारण बालों का झड़ना कम हो जाता है। प्याज के रस में जीवाणुरोधी गुण होते हैं जो बालों के झड़ने का कारण बन सकने वाले कीटाणुओं और परजीवियों को मारने में मदद करता है, और सिर संक्रमण का उपचार करता है।
    19. प्याज के रस में उच्च मात्रा में सल्फर कंटेंट होता है, जो बालों के रोम के लिए रक्त परिसंचरण में सुधार करता है, बालों के रोम का पुनर्निर्माण करने और सूजन को कम करने में मदद करता है जिसके कारण बालों का झड़ना कम हो जाता है। प्याज के रस में जीवाणुरोधी गुण होते हैं जो बालों के झड़ने का कारण बन सकने वाले कीटाणुओं और परजीवियों को मारने में मदद करता है, और सिर संक्रमण का उपचार करता है।
    20. प्रतिदिन नहाने से पहले टमाटर का पेस्ट बनाकर बालों की जड़ों में लगाएं तो रूसी की समस्या दूर हो जाएगी।
    21. बाल धोने से 20-30 मिनट पहले बालों की जड़ों में दही लगाएं। जब बाल सूख जाएं तो पानी से धो लें।
    22. बालों का गिरना रोकने और बालों की वृद्धि के लिए सप्ताह में एक बार अपने बालों की रोजमेरी ऑयल से मालिश कीजिए, इससे बाल मजबूत होते हैं।
    23. बालों के प्राकृतिक और तेज़ी से विकास के लिए, आप आंवले का भी उपयोग कर सकते हैं। आंवला में विटामिन सी प्रचुर मात्रा में होता है, जिसकी शरीर में कमी बालों को गिरने का एक कारण हो सकती है।
    24. बालों को धोने से कम से कम आधा पहले बालों में दही लगाइये और जब यह पूरी तरह सूख जाएं तो उसे पानी से धो लीजिए। बालों को धोने से एक घंटा पहले बालों में अंडे लगाने से भी बाल मजबूत होते हैं।
    25. बालों को सेहतमंद और मजबूत बनाए रखने के लिए तेल मालिश करना बेहद जरूरी है। इससे सिर की त्वचा में ब्लड सर्कुलेशन तेज होता है और बालों के झड़ने में कमी आती है। इसके अलावा बालों की मालिश करने से सिर की त्वचा को नमी मिलती है। जिसकी वजह से रूसी नहीं होती है।
    26. बालों में सप्ताह में एक बार तिल का तेल जरूर लगाएं। इस तेल के लगातार उपयोग से बाल गिरना बंद हो जाते हैं।
    27. बेसन मिला दूध या दही के घोल से बालों को धोएं। इससे भी बालों में चमक आती है और झड़ना भी बंद होता है।
    28. मेंहदी का इस्तेमाल करके भी बालों के झड़ने को कम किया जा सकता है। इसके लिए रात को मेहंदी के पाउडर को पानी में भिगो दें। इसके बाद सुबह इसे अच्छी तरह फेंट कर बालों में जड़ों से लेकर पूरी लम्बाई में लगा लें। इसके बाद इसे सूखने दें और बाद में शैम्पू से सिर को धो लें। इससे जल्द ही बालों की झड़ने की समस्या से निजात मिलेगी।
    29. मेथी बालों के झड़ने के उपचार में बहुत प्रभावी है। मेथी के बीज में हार्मोन अंटेसीडेंट होते हैं जो बालों के विकास को बढ़ाने और बालों के रोम के पुनर्निर्माण में मदद करते हैं। इसमें प्रोटीन और निकोटिनिक एसिड भी होता है जो बालों के विकास को प्रोत्साहित करता है।
    30. मेहंदी में भरपूर पोषण होता है जो बालों के लिए फायदेमंद है, इसलिए बालों में मेहंदी लगानी चाहिए। मेहंदी को अंडे के साथ मिलाकर लगाने से भी बहुत फायदा होता है।
    31. विटामिन डी बालों को बढ़ने में काफी मददगार साबित होता है। शरीर पर कम से कम 15 मिनिट के लिए भी सूर्य की किरणें पड़ने देते हैं, तो उस दिन के लिए जरूरी मात्रा में विटामिन डी की खुराक मिल जाती है।
    32. शहद को बालों में लगाने से बालों का गिरना बंद हो जाता है और असमय सफेदी से भी मुक्ति मिलती है।
    33. सप्ताह में एक बार एक चम्मच शहद और एक चम्मच नीबूं को मिलाकर नहाने से आधा घंटा पहले अपने बालों में लगाने से बालों का गिरना बहुत कम हो जाता है। दालचीनी और शहद को मिलाकर भी बालों में लगाइए।
    34. समय से पहले झड़ते बालों का एक मुख्य कारण तनाव भी हो सकता है। इसके लिए तनाव से मुक्ति पाना जरूरी है। तनाव में कमी लाकर काफी हद तक झड़ते बालों से बचा जा सकता है।


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    प्रभाकर चौबे का जीवन एवं साहित्यिक परिचय



    प्रभाकर चौबे का जन्म एक अक्टूबर सन् 1935 में इलाहाबाद में हुआ। उनके पिता का नाम माधवानंद और माता का नाम सरयूबाई था। उनके पिता जी बंगाल नागपुर रेलवे में स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत थे। प्रभाकर चौबे के पिता का स्वर्गवास कम उम्र में हो जाने के कारण उन्हें पितृ सुख प्राप्त नहीं हुआ। पिता के स्वर्ग सिधार जाने पर बालक की जिम्मेदारी बढ़ जाती है, बालक का बचपना खो जाता है, उन्हें कष्टों का सामना करना पड़ता है। प्रभाकर चौबे के शब्दों में-
    "मां का जाना, घर के छत का जाना,
    पिता का जाना, घर की आंखों का जाना।
    पिता होते हैं तो निश्चिंत होते हैं
    या चिंता में होते हैं, पिता के नहीं होने पर
    हम अचानक, पिता हो जाते हैं।"
    प्रभाकर चौबे की माता जी परिश्रम, साहस, संघर्ष, मर्यादा और ममता की साक्षात प्रतिमूर्ति थी। उन्होंने आसुओं को पीकर दृढ़ता से जीना सिखाया था। वह कड़क और स्वाभिमानी थी। वह खेत की देखरेख करती थी। प्रभाकर जी के बड़े भाई ने भी जीवन में बहुत संघर्ष किया। घर में बड़ा होने के कारण से कम पढ़ाई करके ही परिवार के लिये पैसा कमाना आरंभ कर दिया उन्हीं के सहयोग से प्रभाकर जी ने हाई स्कूल और उच्च शिक्षा प्राप्त की। प्रभाकर चौबे अपनी मां का बहुत सम्मान करते थे। घर में अभिभावक मां ही थी। वे देवी के समान मां को पूजते थे। गीता में संस्कृत श्लोक में कहा गया है- "यत्रनार्यस्तु पूजयन्ते, रमन्ते तत्र देवता।"

    प्रभाकर चौबे की माता जी को छत्तीसगढ़ी और बुदेलखंडी भाषा की अनेक कविताएँ याद थी। बात-बात पर कहावतें व लोकोक्तियाँ बोलती थीं। वे आज प्रभाकर जी के बड़े काम आये। उन्होंने कई लेखों में उसका उपयोग भी किया है। कबीर की वाणी के ढेरों दोहे और तुलसी की चैपाइयाँ उन्हें याद थी। मीरा के पद वे बड़े राग से गाती थी। धार्मिक ग्रंथ जैसे रामायण, गीता आदि पढ़ने में अभिरूचि थी। पढ़ने के साथ-साथ वे राम और कृष्ण के आदर्शों को उदाहरण के रूप में सुनाती थी। इन सबका प्रभाव बचपन में ही प्रभाकर जी के मानस पटल पर पड़ा। प्रभाकर चौबे माँ को ही सर्वस्व मानते थे -
    मैं नहीं जानता था - जंगल, पहाड़।
    मैं नहीं जानता था- आसमान, तारे सूर्य-चाँद,
    अंतरिक्ष मैं नहीं जानता था, मैं केवल मां जानता था।"
    जैसे कि आम ग्रामीण बच्चों का बालपन गांव की गलियों में गोली-कंचा, गुल्ली-डंडा, छुवा-छुवौवल और कबड्डी खेलते बीतता है, वहाँ की प्रकृति की धूल भरी गोद में, नालों-तालाबों और खेत-खलिहानों में फसलों का आनंद लूटते हुए व्यतीत होता है, प्रभाकर चौबे का बालपन भी इन्हीं क्रियाकलापों में बीता। जहाँ भविष्य के कोई सपने नहीं होते और न उन सपनों को पूरा करने की कोई चिंता। प्रभाकर चौबे की प्राथमिक शिक्षा सिरसिदा गांव से दो किलोमीटर दूर सिहावा में हुई। महानदी पार करके पढ़ने के लिये स्कूल जाना पड़ता था। बरसात में जब महानदी में खूब बाढ़ आ जाती थी, तो स्कूल जाने का कार्य बाधित हो जाता था। उन दिनों स्कूल की छुट्टी होती थी। यदि नदी में गले तक पानी होता था, तो वह अपने बाल मित्रों के साथ बस्ता और कपड़ा हाथ में उठाकर एक-दूसरे के हाथ पकड़े हुए नदी पार करते थे और स्कूल पहुँच जाते थे। उन्हीं के मित्रों में से कुछ अच्छे तगड़े बच्चे नदी पार करने में छोटे बच्चों को सहयोग देते थे। यह सहयोग उसी तरह का था जैसे भगवान कृष्ण एवं ग्वाल-बाल का।


    सन् 1945 में प्रभाकर चौबे को आई.वी.एम. स्कूल रायपुर में पांचवी कक्षा में प्रवेश दिलाया गया। आई.वी.एम. स्कूल अंग्रेजों ने भारतीय छात्रों के लिये स्थापित किया था, जिसका नाम 'इंडियन वर्नाकुलर मिडिल स्कूल' दिया गया। अंग्रेज भारतीय भाषा को वर्नाकुलर कहकर हमारी भाषा का अपमान करते थे। आजादी के बाद वर्नाकुलर शब्द हटा दिया गया। उनके घर में अभाव की स्थिति थी। पांच लोगों का परिवार था और उनके बड़े भाई की छोटी सी नौकरी थी। बहुत मुश्किल से परिवार का गुजारा चलता था।

    प्रभाकर जी पढ़ने लिखने में बड़े कुषाग्र बुद्धि के थे। वे बचपन से ही मेघावी छात्र थे। सिहावा रेंज के प्राथमिक शाला बोर्ड परीक्षा में वे प्रथम स्थान पर थे। पूरे सिहावा रेंज में प्रथम स्थान प्राप्त करना एक गौरव की बात थी, इसलिये पांचवी कक्षा (मिडिल स्कूल) में अध्ययन के समय 'मेरिट कम मीन्स' स्कालरशिप दिया गया। इसी तिनके के सहारे उन्होंने आगे के शिक्षा-दीक्षा के अथाह समुद्र को पार करने की योजना बनाई। उस जमाने में तीन रूपये प्रतिमाह स्कालरशिप मिलती थी। साल के अंत में एक साथ छत्तीस रूपये हाथ में आता था। गरीबी के दिनों में यह बहुत बड़ी रकम थी। सन् 1945 में यह रकम उनके पढ़ाई एवं कॉपी-पुस्तक की सहायता के लिये पर्याप्त थी। परिवार के सदस्य भी इस स्कालरशिप से राहत महसूस करते थे।

    प्रभाकर चौबे ने विद्यार्थी जीवन में नाटकों में खूब काम किया। एक नाटक में महिला का अभिनय किया। नाटक के निर्देशक पी.के. सेन थे। वे तन्मय होकर नाटक का निर्देशन करते थे। प्रभाकर जी ने बताया-देश स्वतंत्र होने के बाद भी अंग्रेजी शासन काल का प्रभाव खत्म नहीं हुआ था -
    "मैंने स्कूल में दाखिला लिया, तब मुल्क आजाद हो गया था।
    पिता ने अंग्रेजी राज में नौकरी की थी
    उन्हीं ने मुझे योर्स मोस्ट ओबिडिएंट सर्वेंट
    की स्पेलिंग और इसका अर्थ बताया था।

    छत्तीसगढ़ महाविद्यालय रायपुर में जब प्रभाकर चौबे बी.कॉम. अंतिम वर्ष के छात्र थे, तो उन्हें महाविद्यालय में छात्र संघ का अध्यक्ष चुना गया। सागर विश्वविद्यालय की ओर से सामुदायिक विकास योजनाओं के क्रियान्वयन की समीक्षा करना था। वहाँ उन्हें चालीस दिन रहकर अध्ययन करना और रिपोर्ट बनाना था। उनके साथ सागर विश्वविद्यालय का एक और छात्र था। उन्हें चटगाँव का दौरा कर सर्वेक्षण पूरा करना था। यह कार्य बहुत ही रोचक एवं ज्ञानवर्धक था। बाद में उनकी सर्वे रिपोर्ट को प्रथम स्थान प्राप्त हुआ, जिसमें 250 रुपये की सम्मान राशि के साथ विश्वविद्यालय प्रतिभा प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ। प्रभाकर जी ने बी.काॅम. अंतिम की परीक्षा प्रावीण्य सूची में उत्तीर्ण की। अतः उन्हें अपनी स्नातक होने की डिग्री लेने सागर विश्वविद्यालय जाने का एवं दीक्षांत समारोह में शामिल होने का एक नया अनुभव मिला, जिसने उन्हें काफी रोमांचित किया। सन् 1946 में शहर में छात्रों का एक विशाल जुलूस निकला। देश के बंटवारे पर सहमति बन गई थी और शायद इसीलिये उस जुलूस में यह नारा लग रहा था- "एक पैसा तेल में, जिन्ना बेटा जेल में।" जुलूस टाउन हॉल में गया। वहाँ राष्ट्रीय पुस्तकों की प्रदर्शनी लगी थी। प्रभाकर जी ने वहाँ दो-दो पैसे की कामिक तराना नामक पुस्तक खरीदी। उसी दिन उन्होंने सर्वेश्वर म्यूजियम देखा। आज भी यह अष्ट कोणिय भवन यथावत स्थित है, जो महाकौशल कला वीथिका को दे दी गई। जिलाधीष परिसर में महारानी विक्टोरिया और पंचम जॉर्ज के संगमरमर की मूर्तियाँ स्थापित की गई थी। आज़ादी के पश्चात् उन मूर्तियों को वहाँ से हटाकर म्यूजियम में रख दिया गया।

    सन् 1947 में गांधी जी रायपुर स्टेशन से गुजरे। खबर मिलते ही जनसमुदाय उनसे मिलने के लिये स्टेशन पर उमड़ पड़ा। प्रभाकर चौबे भी स्कूल के अन्य छात्रों के साथ स्टेशन गये। वहाँ इतनी भीड़ थी, कि अंदर घुसना बहुत मुश्किल था। प्रभाकर जी लोगों के बीच से घुसते हुए ट्रेन के दरवाजे तक पहुँचे, उन्होंने देखा गांधी जी ट्रेन के दरवाजे पर खड़े थे। वहाँ गांधी बाबा की जय जयकार के नारे का घोष हो रहा था। वे भीड़ में भी गांधी जी को देखते रह गये। गांधी जी की झलक आज भी उनकी स्मृतियों में बसी हुई है।

    प्रभाकर जी पढ़ाई के साथ-साथ शहर की अन्य गतिविधियों से भी जुड़े रहे। अन्य गतिविधियों के कारण अनुभव और ज्ञान के नये आयाम खुले, जिसने उनके बाद के लेखन में बड़ी मदद की। प्रभाकर चौबे खेल के भी शौकीन रहे। इसी के चलते उन्होंने एक पुस्तक का नाम "खेल के बाद मैदान" रखा। वास्तव में खेल के पश्चात् भी मैदान की उपयोगिता की समीक्षा और अगले प्रतियोगिता के लिये अभ्यास करने के लिये आवश्यक है।
    "खेल के बाद, मैदान खाली नहीं होता
    खेल के बाद खिलाड़ी, छोड़ जाते है स्पंदन।
    खेल के बाद, मैदान यह चुगली नहीं करता।
    सबके स्पंदन को, आत्मसात करता है, मैदान।"

    गोवा मुक्ति आंदोलन में प्रभाकर जी के चाचा राजेन्द्र कुमार चौबे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उनके ताऊ समाजवादी विचारधारा के थे। कुछ समाजवादी लोगों के साथ वे सन् 1948 में समाजवादी कांग्रेस से अलग हुए और रायपुर समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष बने। प्रसिद्ध वकील बुलाकीलाल पुजारी और सरयू प्रसाद दुबे उनके मुख्य सहयोगी थे। उसी समय से किषोर अवस्था में जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, लाड़ली मोहन निगम, एच.वी. कामथ जैसे प्रखर समाजवादी नेता से उन्हें मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। जब रायपुर में बड़े गणमान्य नेतागण आते, तो उनकी देख-रेख की जवाबदारी प्रभाकर जी को दी जाती थी। बाद में वे डॉ. राममनोहर लोहिया को लेकर सिहावा गये, जहाँ आदिवासी नेता सुखराम बागे के नेतृत्व में आदिवासियों का जंगल सत्याग्रह चल रहा था। डॉ. राममनोहर लोहिया के साथ उन्हें सिहावा इसलिये भेजा गया क्योंकि वे इस क्षेत्र से पहले से ही वाकिफ थे। सन् 1954 में छत्तीसगढ़ कॉलेज रायपुर में छात्रसंघ का उद्घाटन करने के लिये ठाकुर प्यारेलाल सिंह को आमंत्रित किया, जो उन दिनों नगर के विधायक थे। वे प्रखर समाजवादी और छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय नेता थे। वे पूर्व मध्य प्रदेश में विधानसभा के विपक्षी दल के नेता थे। बाद में वे विनोबा भावे के प्रभाव में आकर सर्वोदयी नेता बन गये।

    प्रभाकर चौबे ने अनुभव किया कि सरकार मलेरिया उन्मूलन और बीमारियों के लिये जागरूकता लाने का प्रयास कर रही थी। प्रौढ़ शिक्षा के अंतर्गत रात को कक्षाएँ लगती थी। पंचायत भवनों में रेडियो दिये गये थे। विकास कार्यों में जनता की सहयोग भावना विकसित करना सामुदायिक विकास कार्यक्रम की योजना थी। प्रभाकर जी को जब सागर विश्वविद्यालय की ओर से सामुदायिक विकास योजना के क्रियान्वयन की समीक्षा करना था और वहाँ चालिस दिन रहकर अध्ययन कर रिपोर्ट बनाना था। तब उनको इस बीच वहाँ उस क्षेत्र के ग्रामीण समाज को समझने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ के गांव तथा मालवा अंचल के गांव का तुलनात्मक अध्ययन करना रोचक था। इस आधार पर चौबे जी ने विस्तृत लेख भी लिखा। कॉलेज के दिनों में प्रभाकर चौबे वाम राजनीति की ओर आकर्षित हो गये थे। बुलाकी लाल पुजारी जब नगर पालिका के अध्यक्ष का चुनाव लड़ रहे थे तब प्रभाकर जी उनके चुनाव कार्य में सहयोग किया और वकील बुलाकीलाल पुजारी चुनाव जीत गये। पुजारी जी बहुत ही स्पष्टवादी थे, उनके प्रति प्रभाकर जी का सम्मान व विश्वास हमेशा बना रहा। साहित्य के क्षेत्र में उन्हें अनेक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
    1. वर्ष 2006 में साहित्य के क्षेत्र में कवि नारायण लाल परमार सम्मान से नवाजा गया।
    2. वर्ष 2011 में महाराष्ट्र मंडल रायपुर द्वारा साहित्य के समग्र अवदान के लिये मुक्तिबोध सम्मान से नवाजा गया।
    3. महासचिव के रूप में छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ ने सार्वजानिक सम्मान किया।
    4. ट्रेड यूनियन के कार्यकर्ताओं ने 'श्रेष्ठ लीडर' के रूप में सार्वजनिक सम्मान किया।
    5. मध्य प्रदेश शिक्षक संगठन ने अखिल भारतीय शिक्षक संघ नेतृत्वकत्र्ता के रूप में सम्मानित किया।
    इसके अतिरिक्त विभिन्न संस्थाओं द्वारा आपका सार्वजनिक सम्मान किया गया। जिनमें प्रमुख रूप से नगर पालिका रायपुर द्वारा सार्वजनिक अभिनंदन किया गया। अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन में वरिष्ठ सक्रिय कार्यकर्ता के नाम पर सम्मान किया। आप कुछ समय तक आकाशवाणी के सलाहकार समिति के मानद सदस्य भी रहे। वहाँ पर अच्छे प्रस्तोता के रूप में उन्हें सार्वजनिक सम्मान दिया गया। चूंकि प्रभाकर चौबे का जीवन एक अध्यापकीय जीवन रहा है, जहाँ अध्ययन अध्यापन ही एकमात्र कर्म है। वहाँ घरेलू वातावरण भी ब्राह्मण संस्कार युक्त प्रांजल परिवेश में उनका वैवाहिक जीवन फलता फूलता रहा है। पत्नी मालती चौबे भी अत्यंत सात्विक और संस्कारों में पली हुई, पति की छाया की तरह साहित्य सेवा में सतत उनकी अनुगामिनी रही। पत्नी नगर पालिका रायपुर में शिक्षक होने के साथ-साथ अच्छी गृहिणी भी रही। पुत्र द्वय जीवेश और आलोक अपने माता-पिता के स्वभाव के अनुकूल साहित्य अनुरागी ही रहे और पिता की रचनाओं में अपना योगदान देते रहे। 21 जून 2018 को उनका निधन हो गया।


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    पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’: संक्षिप्त जीवनी



    पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' का जन्म विक्रमी संवत् 1957, (सन् 1900) पौष शुक्ल अष्टमी की रात साढ़े आठ बजे उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले की चुना तहसील के सद्दूपुर नामक मुहल्ले में श्री बैजनाथ पाण्डेय कौशिक गोत्रोत्पन्न सरयू-पारीण ब्राह्मण के घर हुआ। इनके पिता श्री बैजनाथ पाण्डेय बड़े तेजस्वी, सतोगुणी, वैष्णव हृदय के थे। उनकी आजीविका दूसरों के घरों में पूजा-पाठ द्वारा ही चलती थी। पूर्वजों के कारण जो सम्मानित प्रतिष्ठा थी, उसके कारण इनका गाँव में सभी लोग आदर करते थे। " 'उग्र' के प्रपितामह सुदर्शन पाण्डेय सिद्धपुरूष थे, जिनके सिद्धिबल से प्रभावित होकर काशी नरेश ने उन्हें 108 बीघे भूमि, जिसमें चार कुएँ और दो आम के बाग थे, दान में दी थी। इनके पितामह हरसू पाण्डेय एक राजा के यहाँ राजपुरोहित थे।" इनकी माता का नाम जयकली था। वे परम उग्र, कराल, क्षत्राणी स्वभाव की थी, परम क्रोधिनी होने के साथ वे भोली भी कम न थीं। वे परिश्रमी भी बहुत थीं। अतः उग्र को यह उग्रता अपनी माँ से ही संस्कार रूप में प्राप्त हुई थी।
    'उग्र' के बहन-भाइयों की संख्या एक दर्जन तक पहुँची परन्तु उनमें अधिकतर उत्पन्न होते ही अथवा वर्ष-दो वर्ष के होते-होते ईश्वर के प्यारे हो गए। पहले भाइयों के नाम उमाचरण, देवीचरण, श्रीचरण, श्यामचरण, रामचरण आदि थे। बच्चों की अकाल मृत्यु से भयभीत होने के कारण, 'उग्र' के जन्म पर थाली तक न बजाई गई और जन्मते ही इन्हें बेच दिया गया। स्वयं उपन्यासकार उग्र ने कहा है - "सो, जन्मते ही मुझे यारों ने बेच डाला, और किसी कीमत पर ? महज टके पर एक। उसका भी गुड़ मँगाकर मेरी माँ ने खा लिया था। अपने पहले उस टके में से एक छदाम भी नहीं पड़ा था, जो मेरे जीवन का संपूर्ण दाम था।" उग्र का बेचन नाम जन्मते ही बिकने का सूचक है। यह नाम उत्तर भारत के पूर्वी जिलों में चलने वाला नाम है, अहीरों, कोरियों आदि निम्न वर्गीय जातियों में प्रचलित है। ब्राह्मण वंश मेंजन्म लेने पर भी इनके परिवार वालों ने यह मन्द नाम इन्हें प्रदान किया, जिससे ये अकाल मृत्यु का ग्रास न बनें। "यह नाम तिलस्मी गंडा बना और 67 वर्ष तक ये जीवन संग्राम के योद्धा बने रहे, काल को इनका मन्द नाम पसन्द न आया और ये उसका ग्रास बनने से बचते रहे।"

    उग्र के आरम्भिक जीवन, व्यक्तित्व और साहित्य पर उनके बड़े तथा मंझले भाइयों का बहुत कुछ प्रभाव पड़ा। बालक बेचन केवल दो वर्ष छः माह के थे कि उनके पिता जी का देहान्त हो गया। उनके मंझले भाई पितामरण के कुछ ही दिन के अन्दर बड़े भाई तथा भाभी से लड़कर अयोध्या भाग गए और साधु बनकर मण्डलियों में अभिनय करने लगे। बड़े भाई ने अपनी पत्नी और माता के आभूषण जुआ-यज्ञ में स्वाहा कर दिए, घर के बरतन-भांडों तक को बेच डाला। इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं - "जब भी मेरे घर में जुआ जमता, भाई की आज्ञा से दरवाजे पर बैठकर मैं गली के दोनों नाके ताड़ता रहता, कि पुलिस वाले तो नहीं आ रहे हैं। जरूर इस ड्यूटी के बदले पैसा-दो-पैसा मुझे भी किसी परिचित जुआरी से मिलता रहा होगा।" उग्र के बड़े भाई घोर पियक्कड़ तथा वेश्यागामी थे। उनका प्रभाव बालक बेचन के संस्कारों पर इतना अधिक पड़ा कि वे अपने जीवन तथा साहित्य में इन बुराइयों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से उतारे बिना न रहे। इनका जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ, जहाँ निर्धनता ने अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा था। आय के साधन अति सीमित थे, उससे पेट भर भोजन भी नहीं मिलता था। बड़ी कठिनाई से यदि प्रातः भोजन मिलता तो रात्रि को व्रत रखना पड़ता। ऐसी स्थिति में उसकी शिक्षा-दीक्षा का सवाल ही नहीं उठता। आँख खोलते ही जीवन-ग्रन्थ का जो पृष्ठ उसे देखने को मिला, वह शिक्षा-दीक्षा को चैपट करने वाला था। उसी से वह नरक की ओर अधिक आकर्षित हुआ और उसकी खोज में दूर, बहुत दूर तक चला गया। उसका साहित्यिक दृष्टिकोण भी घोर यथार्थवादी बना। नरक बुरा होने पर भी उसका प्रिय जीवन-संगी बन गया। "इस प्रकार कथाकार ब्राह्मण-वंश में जन्म लेकर भी ब्राह्मण-ब्राह्मणियों की अपेक्षा शूद्र-शूद्राणियों की ओर अधिक आकृष्ट रहा और शूद्र, खानाबदोश एवं बंजारे अपने अंग से प्रतीत होते रहे।"

    जिस समय बालक को वात्सल्य, समुचित शिक्षा और नैतिक वातावरण की आवश्यकता होती है, उस समय 'उग्र' इसमें नितान्त रहित होकर अभावों और विपन्नताओं का जीवन व्यतीत कर रहे थे। "जीवन को स्वर्ग और नरक दोनों ही का सम्मिश्रण कहा जाए तो मैंने नरक के आकर्षक सिरे से जीवन दर्शन आरम्भ किया और बहुत देर, बहुत दूर तक उसी राह चलता रहा। इस बीच में स्वर्ग की केवल सुनता ही रहा मैं।" 'उग्र' के ये शब्द उनके बचपन का यथार्थ चित्रण उपस्थित करते हैं। उनके साहित्य में नाटकीयता का जो अपूर्व सौष्ठव मिलता है, उसका मूलस्त्रोत उनका वह जीवन है, जिसमें वह रामलीला मण्डलियों के साथ वर्षों घूमते रहे और समय-समय पर कई प्रकार का अभिनय भी करते रहे। इनके दो बड़े भाई पहले से ही रामलीला में अभिनय करते थे।

    अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् 'उग्र' विजयदशमी के अवसर पर होने वाली रामलीला में कोई न कोई भूमिका निभाया करते थे। भाई के कहने पर इन्होंने एक-दो बार सीता का अभिनय किया। जब 'उग्र' के भाई अयोध्या की रामलीला मण्डली में थे, तब उन्होंने इनको बनारस की मण्डली में अपने किसी मित्र के संरक्षण में छोड़ दिया। इस समय इनकी अवस्था आठ या नौ वर्ष की थी। कुछ समय पश्चात् इनके भाई ने इन्हें अयोध्या की मण्डली में बुला लिया। यहाँ इन्हें आठ-दस रूपये मासिक पर लक्ष्मण और जानकी का अभिनय करने का काम दिया गया। रामलीला के विभिन्न पात्रों के संवाद कंठस्थ करने के अतिरिक्त वे एक वैरागी पखावजी से संगीत भी सीखा करते थे। रामलीला के दिनों में ही 'उग्र' का परिचय श्रीरामचरितमानस् से हुआ और इन्हीं दिनों में ही इन्होंने सुलझे हुए साधुओं को निष्ठापूर्वक रामायण का पारायण करते हुए देखा। 'उग्र' का रामायण-अनुराग इतना प्रगाढ़ हुआ कि इस ग्रन्थ के विविध अंश इन्होंने कंठस्थ कर लिए। "रामलीला मण्डलियों से सम्बन्धित जीवन का यदि कोई सुखद प्रभाव 'उग्र' पर पड़ा तो वह यह था कि उनका जीवन दर्शन रामायण में वर्णित आदर्शों से पर्याप्त रूप से प्रभावित हुआ।" वे राम, तुलसी और तुलसी की कृतियों, विशेषकर रामचरितमानस् और विनय पत्रिका के अनन्य प्रशंसक बन गए। इन रचनाओं के अनेक उद्धरण उनकी कृतियों में यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होते हैं।

    बेचन पाण्डेय को रामलीलाओं की ओर प्रेरित करने वाली घरेलू परिस्थितियाँ ही थी, परन्तु समयानुसार इनकी अपनी चित्तवृत्तियाँ भी इस कार्य में रमने लगीं और ये विभिन्न रामलीला-मण्डलियों में भरत, लक्ष्मण, सीता आदि के अभिनय बड़े मनोयोग से करते रहे। 'उग्र' अपने दूसरे भाई के साथ महन्त राममनोहर दास की रामलीला मण्डली में कार्य करने लगे। इस मण्डली में इन्होंने अलीगढ़, दलीपपुर, फैजाबादा, प्रतापगढ़, मेरठ, दिल्ली, कटनी आदि स्थानों का भ्रमण किया। "विभिन्न स्थानों में लक्ष्मण और सीता की भूमिका करते और सहस्र जनों से अपने पैरों की अर्चना करवाते।" उस समय लोग ऐसी धार्मिक भूमिकाएँ करने वालों को ही भगवान् समझ बैठते थे, लेकिन वे रामलीला मण्डली के सदस्यों से परिचित नहीं थे। परन्तु 24 घण्टे इस मण्डली में रहने वाले 'उग्र' ने जो-जो कुकृत्य देखे, उसका वर्णन अपने अधिकतर उपन्यासों में कर चुके हैं। जब इनकी आयु 11-12 वर्ष के लगभग थी तो ये मण्डली के विलास-जाल के कुप्रभाव में आने लगे। महन्त राम मनोहरदास की राम मण्डली पाप लोलुप कार्यों में लिप्त थी। "महन्त किसी न किसी लड़के पर रीझकर उसी के साथ रात्रि व्यतीत करते।" बेचन शर्मा इन कुकृत्यों से बचे रहे, क्योंकि वे अपने दो हट्टे-कट्टे भाइयों के संरक्षण में थे। 'अपनी खबर' में उग्र ने लिखा है - "लीलाधारी लोग स्वरूपों के साथ अनैतिक कार्य भी अवसर मिलने पर किया करते थे। मण्डली के अन्य लोग जैसे अधिकारी, भण्डारी, श्रृंगारी और लीलाधारी भी इन छोकरों के साथ ऐसा दुव्र्यवहार करते।" उग्र अपने विषय में लिखते हैं - "अपने तेजस्वी भाइयों के कारण ये मेरा कुछ न बिगाड़ सके।" राम मनोहर दास की मण्डली पाप कृत्यों से भरी पड़ी थी। इस राम मण्डली में 'उग्र' का पहला और अंतिम प्रेम पनपा। ये एक सत्रह वर्षीया सुन्दरी अभिरामा श्यामा पर मोहित हो गए। वह विवाहिता थी और रामलीला देखने के लिए प्रायः आती थी। उग्र स्टेज पर अपनी भूमिका निभाते हुए इन्हें निहारा करते थे। इनका प्रेम वासना न होकर केवल भावनात्मक था, लेकिन राममनोहर मण्डली ने इस सुन्दरी के साथ व्यभिचार करके इसे यौन रोग से ग्रसित कर दिया। संयोगवश उन्हीं दिनों उसका पति आ गया और उसे समझते देर न लगी। पति ने उत्तेजित होकर उसका अंग-अंग दाग दिया और वह चिकित्सालय में लाई जाने पर भी बच न सकी, उसने दम तोड़ दिया। इस घटना का आतंक उग्र में मानसपटल पर ऐसा पड़ा कि इनकी प्रत्येक कहानी एवम् उपन्यास में नारी की भूमिका में श्यामा की प्रतिछाया दिखाई पड़ती है। इस दुःखद प्रसंग के बारे में उग्र ने स्वयं लिखा है - "मेरा प्रथम और अन्तिम प्रेम भी वही था।" 12 वर्ष की आयु में घटी इस घटना ने उग्र की विचारधारा को नया मोड़ दिया। रामलीला मण्डली से इनका जी उचाट हो गया और वापिस चुनार आ गए।

    चुनार आने के पश्चात् उनके पुत्रहीन चाचा ने उन्हें विधिवत् गोद लिया। 14 वर्ष की आयु में ये चुनार के चर्च स्कूल में तृतीय श्रेणी में पढ़ने लगे। अभी ये छठी कक्षा में पहुँचे ही थे कि इनकी चाची ने एक सुन्दर बालक को जन्म दिया, जिससे इनके चाचा-चाची के प्यार में कटुता आ गई। विधि-विरहित दत्तक पुत्र बनने के कारण उसे पुनः कठोर धरती पर पटक दिया गया। उसके चाचा-चाची परिवार सहित काशी चले गए और उसे पुनः कसाई समान क्रूर बड़े भाई के चरणों में आना पड़ा। शिक्षा, खान-पान आदि की कठिनाइयाँ उसे सताने लगीं और वह विचित्र संकट में फस गया। इन्हें जो उग्रता अपनी माता के संस्कारों के रूप में प्राप्त हुई थी, उसी ने विद्यार्थी जीवन तथा साहित्यिक जीवन में विस्तार पाया। छठी कक्षा में अध्ययन करते समय वह उग्रता प्रथम बार एक भयानक रूप में प्रस्फुटित हुई। "उनके एक अध्यापक थे मौलवी लियाकत अली, जो उर्दू-फारसी आदि पढ़ाया करते थे। मौलवी के विचार हिन्दू-विरोधी थे और अध्यापन के समय वे ऐसी बातें कह जाया करते थे, जिनसे हिन्दू विद्यार्थियों की भावनाओं को ठेस पहुँचती थी।" एक दिन मौलवी ने विद्यार्थियों से कहा - "हिन्दुओं के देवता मेरे पाजामें में बंद रहते हैं।" यह सुनकर अनके हिन्दू-छात्रों में विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। सभी ने इन मौलवी को सबक सिखाने की ठानी। लेकिन पहल कौन करे ? उग्र पढ़ने से बचना चाहते थे, इसलिए यह मुसीबत अपने ऊपर ले ली और प्रिसिंपल को तार अपने नाम से भिजवा दिया - "मौलवी लियाकत अली, मिशन टीचर, इन्सल्ट्स अवर रिलीजयस फीलिंग्स, नो सैटिस्फैक्टरी इन्क्वायरी बेचन पाण्डे।" तार पाते ही मुख्याध्यापक तुरन्त स्कूल पहुँचे, लेकिन भय से उस दिन उग्र अनुपस्थित रहे, जिसके कारण इनका नाम स्कूल से काट दिया गया और मौलवी की भी कठोर भत्र्सना की गई। इस प्रकार चुनार के स्कूल से इनकी शिक्षा खत्म हो गई।
    पुनः उग्र काशी की शरण में गए। इन्होंने यहीं पढ़़ने की प्रार्थना की। चाचा ने इन पर कृपा करके इन्हें बनारस के विख्यात हिन्दू कालिजिएट स्कूल की छठी कक्षा में प्रवेश दिलवा दिया। प्रधान अध्यापक काली प्रसन्न चक्रवर्ती की इन पर असीम कृपा थी, जिनकी शरण में इन्होंने छठी, सातवं कक्षा उत्र्तीर्ण की, (इन पर) लेकिन इनके चाचा ने इन्हें अपने से अलग कर दिया। तब काली प्रसन्न चक्रवर्ती ने काशी के बाबू शिवप्रसाद जी के नाम एक पत्र लिखकर भेजा, जिसमें उग्र की शिक्षा, खान-पान, रहने की निःशुल्क व्यवस्था हो गई। एक वर्ष तक ये सभी सुविधाओं को प्राप्त करते रहे, लेकिन अपने उग्र स्वभाव को न बदल सके, जिसके कारण दुबारा इनकी शिक्षा रूक गई। ये वार्षिक परीक्षा में फेल हो गए और वापिस चुनार आ गए। इनकी शिक्षा यहीं तक सीमित थी।

    उग्र जी के उग्र स्वभाव को सर्वाधिक उत्तेजना उनके बड़े भाई के अनुचित एवं अनैतिक आचरण ने ही दी, वह उस कसाई के समान थे जो कभी सन्तुष्ट नहीं होता। इसी से बेचन को अपना घर संसार का सबसे बड़ा कारावास लगता था। बड़े भैया की अनुपस्थिति में दस रूपए का नोट हाथ लगते ही ये धोती-कमीज पहने एक अंगोछा लिए घर से भागकर कलकत्ता चले गए। कलकत्ता जिन विश्वनाथ त्रिपाठी (पड़ोसी भाई) से मिलना था, वे चुनार के लिए रवाना हो चुके थे। एक सप्ताह के बाद श्री विश्वनाथ कलकत्ता आ गए। उन्हीं की कृपा से इन्हें आरव्म्एलव्म् बर्मन कम्पनी में एक रूपया प्रतिदिन की नौकरी मिली। अभी महीना खत्म भी न हुआ था कि बड़े भाई का चुनार पहुँचने के लिए पत्र आ गया और इन्हें बिना सूचना दिए चुनार जाना पड़ा। जिसके कारण इन्हें पूरे महीने का वेतन भी न मिला। यह इनके जीवन की पहली और अन्तिम नौकरी थी। चुनार आकर इन्होंने साहित्य सृजन को अपना लक्ष्य बनाया। आरव्म्एलव्म् बर्मन कम्पनी में नौकरी करते वक्त इनका राजनीतिज्ञों से भी वास्ता पड़ता था। घुमक्कड़ प्रवृत्ति होने के कारण इन्होंने कटु यथार्थ देखे और अनुभव किए। ये वाराणसी, कलकत्ता, बम्बई, इन्दौर, दिल्ली आदि महानगरों में घूमे। स्वस्थ एवम् अस्वस्थ जीवन को अपनी रचनाओं में प्रतिपादित किया।

    "बेचन की पहली रचना 'धु्रवधारणा' नामक खण्डकाव्य थी।" पाण्डुलिपि का संशोधन लाला भगवानदीन ने किया। 'अपनी खबर' आत्मकथा में उग्र लिखते हैं, "मुझमें यदि कुछ प्रतिभा थी तो उसे लालाजी के मात्र आशीर्वाद का पोष प्राप्त हुआ। पढ़ा वह मुझे न पाये।" "दूसरी कृति थी 'महात्मा ईसा' जिसका संशोधन लालाजी ने किया और पुनर्वाचन प्रेमचन्द ने।" इस युग के साहित्यकारों में ईष्र्या की भावना न होकर सद्भावना थी, जिसके तहत ये एक-दूसरे की सहायता करते रहते। उग्र को भी अनेक साहित्यकारों ने सराहा एवं इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। अपनी आत्मकथा में 'उग्र' लिखते हैं - "पहले सौ में से सौ साहित्यकार ऐसे होते थे जो कहीं जरा भी प्रतिभा जरा भी प्रसाद देखते ही उसका यथोचित आदर करते थे। आज जैसे वह चली ही गई है।" उग्र का साहित्यिक जीवन सन् 1920 से प्रारम्भ होता है। इन्होंने शहीद मैक्स्विनी पर एक लम्बी कविता लिखी, जो कि 'आज' में प्रकाशित हुई। 'आज' में प्रकाशित होने वाली यह पहली कविता थी। इसके कुछ दिन पश्चात ही 'उग्र' की पहली कहानी 'गांधी आश्रम' आज में छपी। 'आज' में कार्यरत बाबूराव विष्णु पराड़कर जी ने उग्र के लेखन कार्य को हर प्रकार से प्रोत्साहित किया। "पराड़कर जी के विषय में भी उग्र कह चुके हैं कि उनकी साहित्य के प्रति रूचि जगाने में पराड़कर जी की अहम भूमिका रही है।" कई वर्षों तक लिखते रहने से इनकी लेखनी में परिपक्वता आ गई थी। 'आज' के द्वारा ही इन्हें बनारस एवं सम्पूर्ण उत्तरप्रदेश में ख्याति प्राप्त हुई।
    सन् 1921 से उग्र का साहित्यिक एवं पत्रकारिता का जीवन प्रारम्भ हुआ। इनके जीवन में गांधी जी के व्यक्तित्व का प्रभाव दिखता है। उग्र ने अनेक बार गांधी के भाषणों को सुना और इन से प्रभावित भी हुए। अपनी रचनाओं में देश की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए गांधीवादी सुझावों का प्रतिपादन किया। इनके लिए सन् 1927 से 29 तक के वर्ष विवादास्पद, कोलाहलकारी रहे। इन्हीं वर्षों में ये 'मतवाला' के साथ जुड़े एवम् कुछ विवादास्पद रचनाओं का निर्माण भी इसी वर्ष हुआ। जैसे 'चाॅकलेट', 'दिल्ली का दलाल', 'बुधुआ की बेटी' आदि। इसमें चाॅकलेट कहानी संग्रह पर जितना बवंडर उठा, शायद इतना किसी और साहित्यिक रचना पर हुआ हो। चाॅकलेट के विरूद्ध 'घासलेट आन्दोलन' चला। महात्मा गांधी ने 'चाॅकलेट' को अनेक बार पढ़ा एवम् सराहा, लेकिन आलोचकों ने इन्हें मानसिक पीड़ा पहुँचाई, जिससे ये विरक्त हो गए। उग्र के शब्दों में - "मैंने सोचा - परे करो इस हिन्दी को। चरने दो उन्हें, चरा रही है मेरी चर्चा, चलो बम्बई चलो।"

    जब इनका साहित्य से जी उचाट हो गया, तब ये फिल्मी दुनिया से जुड़ गए और सन् 1930 से 1938 तक फिल्मों में लेखन का कार्य करते रहे। फिल्मी निर्माता, निर्देशक इनके पास आते और इनसे कहानी, संवाद, गीत लिखवा ले जाते। "राम विलास, सजीव मूर्ति, पतित पावन, अहिल्योद्धार, राधामोहन, जन्म के लाल आदि चित्र इन्हीं की लेखनी से उतरे थे।" सिनेमा जगत् में रहते हुए इन्होंने कहानी, संवाद, गीत लेखक की हैसियत से जीवनयापन किया। जीवन के कटु सत्य एवम् सिनेमा जगत् के घृणित कृत्य और खोखलेपन को इन्होंने बड़ी निकटता से देखा। साहित्य के प्रति पुनः इनका रूझान सन् 1938 में जागृत हुआ, जब ये इन्दौर में थे। वहाँ रहकर इन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक जीवन की विद्रूपताओं का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया। जितने साल ये फिल्मी दुनिया में रहे, उतने साल ये साहित्यिक दुनिया से कटे रहे। यह हिन्दी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा। सन् 1929 से 38 के बीच इनके दो उपन्यास 'शराबी' और 'सरकार तुम्हारी आँखों में' मिले। सन् 1945 में वे पुनः बम्बई चले गए और भारत स्वतन्त्र होने तक वहीं रहे। सन् 1950-53 तक ये कलकत्ता रहे एवम् अनेक घृणित कृत्य देखे। इन्होंने अपने उपन्यासों में कलकत्ता को 'भोग भरी रखेली' भी कहा है। जब इनका मन यहाँ से भी उचाट हो गया, तब ये दिल्ली चले गए और यहाँ आकर 'कढ़ी में कोयला' और 'फागुन के दिन चार' उपन्यास लिखे।

    सन् 1953 में जब ये दिल्ली आए थे, तब ये पंजाबी बस्ती सब्जी मण्डी में रहे। उग्र अपनी रचनाओं के स्वयं प्रकाशक भी बने। इन्होंने 'उग्र प्रकाशन' की स्थापना की और इस सम्बन्ध में अपनी कटु अनुमूर्तियों को बताते हुए कहा - "ये पंक्तियाँ लिखते समय मेरी उम्र 54 वर्ष चार महीने और चार दिन है। मैं तो ठीठ या निर्लज्ज या क्रूर या उग्र होने से अभी भी तगड़ा हूँ, नहीं तो मेरे बराबर वाले अनेक मित्र न जाने कभी के निज कर्मानुसार नरक या स्वर्ग की राह लग गए, लेकिन मैं आपसे पूछूँ कि इस अर्थ युग में, ऐसी आर्थिक दुव्र्यवस्था में मेरे जैसे कटु-कषाय उग्र यदि दिनों के लिए, खुदा न करें, बीमार पड़ जाए या कलम घिसकर चना चबेना जुटाने में असमर्थ हो जाए तो क्या होगा ? ...अस्तु अब सिवा इसके कि मैं सारी पुस्तकें स्वयं छाप लूँ और ब्रिक्री का प्रबन्ध करूँ। मेरे लिए दूसरा कोई चारा नहीं।" सन् 1957 से ये यमुना पार कृष्णनगर में रहने लगे। वहाँ इन्होंने 'हिन्दी पंच' पत्र का सम्पादन किया। 23 मार्च 1967 को प्रातः 3 बजे इन्होंने अपने जीवन की अन्तिम साँस ली। उग्र पुरानी पीढ़ी के विशिष्ट लेखक रहे एवम् अपनी कलम के माध्यम से समाज के गले-सड़े रूप को चित्रित किया। ये जीवन भर उपेक्षित रहे। अन्तिम समय में भी इन्हें उपेक्षा ही मिली। डाॅव्म् प्रभाकर माचवे के कथनानुसार - "उनके शव के साथ बीस-पच्चीस साहित्यकार, मुहल्ले के थोड़े से लोग एवं नए-पुराने कुछ ही पत्रकार उपस्थित थे। विश्वविद्यालय, हड़ताली अखबारों आदि से कोई न गया। यह कैसी दिल्ली है ? पैंतीस लाख में दो तिहाई तो हिन्दी भाषी होंगे और शमशान में पच्चीस-तीस लेखक, चार प्रकाशक और उतने ही लोग।"

    उग्र ने साहित्य की अनेक विधाएँ - कहानियाँ, उपन्यास, एकांकी नाटक, संस्मरण, लिखकर हिन्दी साहित्य को भी सम्पन्न किया। जिनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है - 

    कहानियाँ
    • पोली इमारत - इसमें 'चूनरी के साथ', 'चैड़ा छुरा', 'उरूज', 'आजादी के आठ दिन पहले', 'मूर्खा', 'वीभत्स', 'जल्लाद', 'बदमाश', 'आँखों में आँसू', 'जुआरी', 'बाजरा', 'दूध के कार्ड', 'नौ हजार नौ सौ निन्यानवे', 'समाज के चरण', 'ब्राह्मण के चरण', 'ब्राह्मण द्रोही', 'घोड़े की जीवनी', 'पोली इमारत' बीस कहानियों को संग्रहीत किया गया है। 
    • चित्र-विचित्र - इसमें 'पिशाची', 'ब्लैक एण्ड व्हाइट', 'जब सारा आलम रोता है', 'मूसल ब्रह्म', 'गंगा गंगदत्त और गांगी', 'सोसायटी ऑफ डेविल्स', 'काने का ब्याह', 'मूर्खों का मीना बाजार', 'सनकी अमीर', 'प्राइवेट इंटरव्यू', 'न्यूल रील', 'कम्युनिस्ट दरवाजे पर', 'चित्र-विचित्र' नामक 13 कहानियाँ हैं। 
    • यह कंचन सी काया - इसमें 12 कहानियाँ हैं - 'कला का पुरस्कार', 'चाँदनी', 'मलंग', 'दितवारिया', 'प्रस्ताव स्वीकार', 'करूण कहानी', 'हत्यारा समाज', 'स्वदेश के लिए', 'संगीत समाधि', 'सुधारक' और 'कंचन सी काया।' 
    • कालकोठरी - इसमें चौदह कहानियां है - 'पंजाब की महारानी', 'देशद्रोह', 'रेन आफ टेरर', 'एक भीषण स्मृति', 'सिख सरदार', 'प्यारी पताका', 'पागल', 'कर्तव्य' और 'प्रेम', 'वीर कन्या', 'पत्रिका पताका', 'नादिरशाही', 'निहिलिस्ट', 'भीष्म संतोष' और 'काल कोठरी। 
    • ऐसी होली खेलो लाल - इसमें चैदह कहानियाँ है - 'उसकी माँ', 'टाम डिक, हैरी एण्ड कम्पनी लिमिटेड', 'मेरी माँ', 'दिल्ली की बात', 'दोजख नरक', 'ईश्वर द्रोही', 'खुदा के सामने', 'शाप', 'खुदाराम', 'नागा परसिंहदास', 'वह दिन', 'माँ कैसे मरी', 'जैतू में' और 'ऐसी होली खेलो लाल' आदि। 
    • मुक्ता - इस संग्रह में 'प्रार्थना', 'रिसर्च', 'भ्रम', 'मुक्ता', 'टीला और गड्ढा', 'दोजख की आग', 'नेता का स्थान', 'देशभक्त', 'रेशमी', 'लाइन पर', 'फुलझड़ी', 'आचार्य लाल बुझक्कड़', 'प्यारी तलवार', 'तीन कलाकारों की एक भूल', 'तब महाराजकुमारी को नींद आई', 'घूंघट के पट खोल री', 'अवतार' और 'महाराजाधिराज' आदि 18 कहानी हैं। 
    • चॉकलेट - 'हे सुकुमार', 'व्यभिचारी प्यार', 'जेल में', 'पालट', 'हम फिदाये लखनऊ', 'कमरिया नागिन सी बल खाये' और 'चॉकलेट चर्चा' आदि 8 कहानी है।
    नाटक - 'सनकी अमीर', 'महात्मा ईसा', 'गंगा का बेटा', 'डिक्टेटर', 'आवारा', 'अन्नदाता माधव महाराज महान्' आदि नाटक है।
    एकांकी - 'राम करै सौ होय'।
    कविता - इनकी कविताओं के नाम 'कंचन घट', 'चन्द्रोदय', 'राष्ट्रीय गान', 'चमकीली चर्चाएँ', 'पर घूँघट का टार', 'साघ', 'साहित्य' और 'मृत्यु गीत' है। उपर्युक्त रचनाओं में से अधिकांश अभी तक उपलब्ध नहीं है क्योंकि इनकी अनेक रचनाओं पर ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था।
    संस्मरण: व्यक्तिगत, यह चरित्र-चित्रणों का एक संग्रह है। इसमें 13 स्कैच संकलित हैं- 1. शिवोह्म-शिवोउहम्, 2. मैं और भगवतीचरण वर्मा, 3. होशियार पागल, 4. आदरणीय श्री कृष्ण दत्त पालीवाल, 5. काटजू और कल्चर,
    6. सिंहल विजय, 7. नौ वर्ष बाद मैं संयुक्त प्रदेश में, 8. बम्बई बनाम बनारस, 9. हमारा पीड़ित पत्रकार, 10. देवालय और वेश्यालय, 11. पायल झनक-झनक बाजे, 12. बनारस फिर से बसे तो बेहतर और 13. प्रदर्शनी
    आत्मकथा: अपनी खबर, जीवन के कड़वे मीठे अनुभवों को इन्होंने बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है।
    आलोचना -  इन्होंने पं. रामनरेश त्रिपाठी रचित 'तुलसीदास और उनकी कविता', 'डाॅ. श्यामसुन्दर दास कृत 'मेरी आत्मकहानी', भारती भंडार द्वारा प्रकाशित 'ईरान के सूफी कवि', 'दिनकर आदि पर निर्भीक व कटु आलोचनाएँ लिखी हैं।
    उग्र के उपन्यासों का सर्वेक्षण - सन् 1923 से 1963 तक उग्र ने हिन्दी जगत् को उपन्यास साहित्य प्रदान कर समृद्ध किया। इन्होंने दस उपन्यास 'चन्द हसीनों के खुतूत', 'दिल्ली का दलाल', 'बुधुआ की बेटी', 'शराबी', 'सरकार तुम्हारी आँखों में', 'घण्टा', 'जी जी जी', 'कढ़ी में कोयला', 'फागुन के दिन चार', 'जुहू' लिखे। ग्यारहवां अधूरा उपन्यास 'गंगा माता' है।


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