हठयोग का अर्थ



हठयोग (Hatha Yoga) के बारे में लोगों की धारणा है कि हठ शब्द के हठ् + अच् प्रत्यय के साथ प्रचण्डता या बल अर्थ में प्रयुक्त होता है। हठेन या हठात् क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त करने पर इसका अर्थ बलपूर्वक या प्रचंडता पूर्वक अचानक या दुराग्रह पूर्वक अर्थ में लिया जाता है । हठ विद्या स्त्रीलिंग अर्थ में बल पूर्वक मनन करने के विज्ञान के अर्थ में ग्रहण किया जाता है । इस प्रकार सामान्यतः लोग हठयोग को एक ऐसे योग के रूप में जानते हैं जिसमें हठ पूर्वक कुछ शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को किया जाता है । इसी कारण सामान्य शरीर शोधन की प्रक्रियाओं से हटकर की जाने वाली शरीर शोधन की षट् क्रियाओं (नेति, धौति, कुंजल वस्ति, नौलि, त्राटक, कपालभाति) को हठयोग मान लिया जाता है। जबकि ऐसा नहीं है, षट्कर्म तो केवल शरीर शोधन के साधन है वास्तव में हठयोग तो शरीर एवं मन के संतुलन द्वारा राजयोग प्राप्त करने का पूर्व सोपान के रूप में विस्तृत योग विज्ञान की चार शाखाओं में से एक शाखा है।
हठयोग (Hatha Yoga)
साधना के क्षेत्र में हठयोग शब्द का यह अर्थ बीज वर्ण ‘‘ह‘‘ और ‘‘ठ‘‘ को मिलाकर बनाया हुआ शब्द के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है । जिसमें ह या हं तथा ठ या ठं (ज्ञ) के अनेको अर्थ किये जाते हैं उदाहराणार्थ ह से पिंगला नाड़ी दहिनी नासिका (सूर्य स्वर) तथा ठ से इड़ा नाडी बाॅंयी नासिका (चन्द्रस्वर) इड़ा ऋणात्मक (-) उर्जा शक्ति एवं पिगंला धनात्मक (+) उर्जा शक्ति का संतुलन एवं इत्यादि इत्यादि। इन दोनों नासिकाओं के योग या समानता से चलने वाले स्वर या मध्यस्वर या सुषुम्ना नाड़ी में चल रहे प्राण के अर्थ में लिया जाता है । इस प्रकार ह और ठ का योग प्राणों के आयाम से अर्थ रखता है । इस प्रकार की प्राणायाम प्रक्रिया ही ह और ठ का योग अर्थात हठयोग है, जो कि सम्पूर्ण शरीर की जड़ता को सप्रयास दूर करता है प्राण की अधिकता नाड़ी चक्रों को सबल एवंचैतन्य युक्त बनाती है ओर व्यक्ति विभिन्न शारीरिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों का विकास करता है। स्थूल रूप से हठ योग अथवा प्राणायाम क्रिया तीन भागों में पूरी की जाती है -
(1) रेचक - अर्थात श्वास को सप्रयास बाहर छोड़ना ।
(2) पूरक - अर्थात श्वास को सप्रयास अन्दर खींचना।
(3) कुम्भक - अर्थात श्वास को सप्रयास रोके रखना कुम्भक दो प्रकार से संभव है - (1) बर्हि कुम्भक - अर्थात श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना तथा (2) अन्तःकुम्भक - अर्थात श्वास को अन्दर खींचकर श्वास को अन्दर ही रोके रखना।
इस प्रकार सप्रयास प्राणों को अपने नियंत्रण से गति देना हठयोग है। यह हठयोग राजयोग की सिद्धि के लिए आधारभूमि बनाता है। अतः यहाॅं स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि बिना हठयोग की साधना के राजयोग (समाधि) की प्राप्ति बड़ा कठिन कार्य है। अतः हठयोग की साधना सिद्ध होने पर राजयोग की ओर आगे बढ़ने में सहजता होती है।


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हरतालिका तीज



मनुष्य स्वभावतः प्रकृति प्रेमी एवं उत्सव प्रिय है। प्रायः ऋतु-परिवर्तन पर प्रकृति की मनभावन सुषमा एवं सुरम्य परिवेश को मानव मन आनंदित होकर पर्वोत्सव मनाने लगता है। ग्रीष्म अवसान पर काले-कजरारे मेघों को आकाश में घुमड़ता देखकर पावस के प्रारम्भ में पपीहे की पुकार और वर्षा की फुहार से आभ्यन्तर आप्लावित एवं आनंदित होकर भारतीय लोक जीवन श्रावण शुक्ल तृतीया (तीज) को कजली तीज का लोकपर्व मनाता है। समस्त उत्तर भारत में तीजपर्व बड़े उत्साह और धूमधाम से मनाया जाता है। इसे श्रावणी तीज, हरियाली तीज तथा कजली तीज के नाम से भी जाना जाता है। बुन्देलखण्ड के जालौन, झाँसी, दतिया, महोबा, ओरछा आदि क्षेत्रों में इसे हरियाली तीज के नाम से व्रतोत्सव रूप में मनाते हैं। प्रातःकाल उद्यानों से आम-अशोक के पत्तों सहित टहनियाँ, पुष्पगुच्छ लाकर घरों में पूजास्थल के पास स्थापित झूले को इनसे सजाते हैं और दिनभर उपवास रखकर भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह को झूलें में रखकर श्रद्धा से झुलाते हैं, साथ में लोक गीतों को मुधर स्वर में गाते हैं।

ओरछा, दतिया और चरखारी का तीजपर्व श्रीकृष्ण के दोला रोहण के रूप में वृन्दावन-जैसा दिव्य दृश्य उत्पन्न कर देता है। बनारस, जौनपुर आदि पूर्वांचल के जनपदों में तीजपर्व (कजली तीज) ललनाओं के कजली गीतों से गुंजायमान होकर अद्भुत आनन्द देता है। प्रायः विवाहिता नवयुवतियाँ श्रावणी तीज को अपने मातृगृहों (पीहर) में अपने भाइयों के साथ पहुँचती हैं, यहाँ अपनी सखी-सहेलियों के साथ नव वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर सांयकाल सरोवर तट के समीप उद्यानों में झूला झूलते हुए कजली तीज के गीत गाती हैं। राजस्थान में तीजपर्व ऋतुत्सव के रूप में सानन्द मनाया जाता है। सावन में सुरम्य हरियाली को पाकर तथा मेघ-घटाओं को देखकर लोकजीवन हर्षोल्लास से यह पर्व हिल-मिलकर मनाता है। आसमान में घुमड़ती काली घटाओं के कारण इस पर्व को कजली तीज (कज्जली तीज) अथवा हरियाली के कारण हरियाली तीज के नाम से पुकारते हैं। श्रावण शुक्ल तृतीया को बालिकाएँ एवं नवविवाहिता वधुएँ इस पर्व को मनाने के लिये एक दिन पूर्व से अपने हाथों तथा पाँवों में कलात्मक ढंग से मेहँदी लगाती हैं। जिसे मेहँदी-माँडणा के नाम से जाना जाता है। दूसरे दिन वे प्रसन्नता से अपने पिता के घर जाती हैं, जहाँ उन्हें नयी पोंशाकें, गहने आदि दिये जाते हैं तथा भोजन-पकवान आदि से तृप किया जाता है। हमारे लोकगीतों के अध्ययन से पता चलता है कि नवविवाहिता पत्नी दूर देश गये अपने पति की तीजपर्व पर घर आने की कामना करती है।
इस तीज त्योहार के अवसर पर राजस्थान में झूले लगते है और नदियों या सरोवरों के तटों पर मेलों का सुन्दर आयोजन होता है। इस त्योहार के आस-पास खेतों में खरीफ फसलों की बोआई भी शुरू हो जाती है। अतः लोकगीतों में इस अवसर को सुखद, सुरम्य और सुहावने रूप में गाया जाता है। मोठ, बाजरा, फली आदि की बोआई के लिये कृषक तीज पर्व पर वर्षा की महिमा मार्मिक रूप में व्यक्त करते हैं। प्रकृति एवं मानव हृदय की भव्य भावना की अभिव्यक्ति तीजपर्व में निहित है। तीजपर्व (कजली तीज, हरियाली तीज, श्रावणी तीज) की महत्ता स्वतः सिद्ध है।
हरतालिका तीज का पर्व भादो माह की शुक्‍ल पक्ष तृतीया को यानि गणेश चतुर्थी से एक दिन पहले मनाया जाता है। महिलाएं इस दिन निर्जला उपवास रखकर रात में शिव-पर्वती की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजा करती हैं और पति के दीर्घायु होने की कामना करती हैं। इस पूजा में प्रसाद के तौर पर अन्य फल तो रहते ही हैं, लेकिन पिडुकिया' (गुझिया) का रहना अनिवार्य माना जाता है। इस दिन औरतें 24 घंटे का निर्जला व्रत रखती हैं और रात भर जागरण करती हैं। इसके बाद सुबह पूजा पाठ करके इस व्रत को खोलती हैं। उत्तर भारत में इस त्यौहार को प्रमुख्ता से मनाया जाता है। तीज में महिलाओं के श्रृंगार का खास महत्व होता है। पर्व नजदीक आते ही महिलाएं नई साड़ी, मेहंदी और सोलह श्रृंगार की सामग्री जुटाने लगती हैं और प्रसाद के रूप में विशेष पकवान 'पिड़ुकिया' (गुझिया) बनाती हैं।
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को भी तीज मनाई जाती है, जिसे छोटी तीज या 'श्रावणी तीज' कहा जाता है, जबकि भाद्रपद महीने में मनाई जाने वाली तीज को बड़ी तीज या 'हरितालिका तीज' कहते हैं। इस पूजा में भगवान को प्रसाद के रूप में पिडुकिया' अर्पण करने की पुरानी परंपरा है। आमतौर पर घर में मनाए जाने वाले इस पर्व में महिलाएं एक साथ मिलकर प्रसाद बनाती हैं। पिडुकिया बनाने में घर के बच्चे भी सहयोग करते हैं। पिडुकियां मैदा से बनाई जाती हैं, जिसमें खोया, सूजी, नारियल और बेसन अंदर डाल दिया जाता है। पूजा के बाद आस-पड़ोस के घरों में प्रसाद बांटने की भी परंपरा है। यही कारण है किसी भी घर में बड़ी मात्रा में प्रसाद बनाया जाता है।
धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक, इस पर्व की परंपरा त्रेतायुग से है। इस पर्व के दिन जो सुहागिन स्त्री अपने अखंड सौभाग्य और पति और पुत्र के कल्याण के लिए निर्जला व्रत रखती हैं, उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। धार्मिक मान्यता है कि पार्वती की तपस्या से खुश होकर भगवान शिव ने तीज के ही दिन पार्वती को अपनी पत्नी स्वीकार किया था। इस कारण सुहागन स्त्रियों के साथ-साथ कई क्षेत्रों में कुंवारी लड़कियां भी यह पर्व करती हैं।
एक बार व्रत रखने पर जीवनभर रखना पड़ेगा
इस व्रत की पात्र कुमारी कन्याएं या सुहागिन महिलाएं दोनों ही हैं। लेकिन एक बार व्रत रखने बाद जीवनभर इस व्रत को रखना पड़ता है। यदि व्रती महिला गंभीर रोगी हालात में हो तो उसके बदले में दूसरी महिला या उसका पति भी इस व्रत को रख सकता है।

हरतालिका तीज व्रत कैसे करें 
 इस व्रत पर सौभाग्यवती स्त्रियां नए लाल वस्त्र पहनकर, मेंहदी लगाकर, सोलह श्रृंगार करती हैं और शुभ मुहूर्त में भगवान शिव और मां पार्वती की पूजा आरम्भ करती हैं। इस पूजा में शिव-पार्वती की मूर्तियों का विधिवत पूजन किया जाता है और फिर हरतालिका तीज की कथा को सुना जाता है। माता पार्वती पर सुहाग का सारा सामान चढ़ाया जाता है। मान्यता है कि जो सभी पापों और सांसारिक तापों को हरने वाले हरतालिका व्रत को विधि पूर्वक करता है, उसके सौभाग्य की रक्षा स्वयं भगवान शिव करते हैं।

व्रत का समापन
 इस व्रत के व्रती को शयन का निषेध है इसके लिए उसे रात्रि में भजन कीर्तन के साथ रात्रि जागरण करना पड़ता है प्रातः काल स्नान करने के पश्चात् श्रद्धा और भक्ति पूर्वक किसी सुपात्र सुहागिन महिला को श्रृंगार सामग्री, वस्त्र, खाद्य सामग्री, फल, मिठाई और यथा शक्ति आभूषण का दान करना चाहिए।

कैसे पड़ा हरतालिका तीज नाम
 हरतालिका दो शब्दों से बना है, हरित और तालिका। हरित का अर्थ है हरण करना और तालिका अर्थात सखी। यह पर्व भाद्रपद की शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है, जिस कारण इसे तीज कहते है। इस व्रत को हरितालिका इसलिए कहा जाता है, क्योकि पार्वती की सखी (मित्र) उन्हें पिता के घर से हरण कर जंगल में ले गई थी।

हरतालिका तीज व्रत कथा
 लिंग पुराण की एक कथा के अनुसार मां पार्वती ने अपने पूर्व जन्म में भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए हिमालय पर गंगा के तट पर अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया। इस दौरान उन्होंने अन्न का सेवन नहीं किया। कई वर्षों तक उन्होंने केवल हवा पीकर ही व्यतीत किया। माता पार्वती की यह स्थिति देखकर उनके पिता अत्यंत दुखी थे। इसी दौरान एक दिन महर्षि नारद भगवान विष्णु की ओर से पार्वती जी के विवाह का प्रस्ताव लेकर मां पार्वती के पिता के पास पहुंचे, जिसे उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया। पिता ने जब मां पार्वती को उनके विवाह की बात बताई तो वह बहुत दुखी हो गईं और जोर-जोर से विलाप करने लगीं। फिर एक सखी के पूछने पर माता ने उसे बताया कि वह यह कठोर व्रत भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कर रही हैं, जबकि उनके पिता उनका विवाह विष्णु से कराना चाहते हैं। तब सहेली की सलाह पर माता पार्वती घने वन में चली गई और वहां एक गुफा में जाकर भगवान शिव की आराधना में लीन हो गईं। भाद्रपद तृतीया शुक्ल के दिन हस्त नक्षत्र को माता पार्वती ने रेत से शिवलिंग का निर्माण किया और भोलेनाथ की स्तुति में लीन होकर रात्रि जागरण किया। तब माता के इस कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिए और इच्छानुसार उनको अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया। मान्यता है कि इस दिन जो महिलाएं विधि-विधानपूर्वक और पूर्ण निष्ठा से इस व्रत को करती हैं, वह अपने मन के अनुरूप पति को प्राप्त करती हैं। साथ ही यह पर्व दांपत्य जीवन में खुशी बरकरार रखने के उद्देश्य से भी मनाया जाता है। उत्तर भारत के कई राज्यों में इस दिन मेहंदी लगाने और झूला-झूलने की प्रथा है।

हरितालिका तीज के दिन महिलाएं न करें यह काम
  1. इस दिन घर के बुजुर्गों को किसी तरह से नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए और उन्हें दुखी नहीं करना चाहिए। ऐसा करने वाले लोगों को अशुभ फल मिलता है।
  2. तीज का व्रत रखने वाली महिलाओं को अपने गुस्से पर काबू रखना चाहिए। अपने गुस्से को शांत रखने के लिए महिलाएं अपने हाथों पर मेंहदी लगाती हैं। जिससे मन शांत रहता है।
  3. निर्जला व्रत के दौरान अगर कोई महिला रात में दूध पी लेती है तो पुराणों के अनुसार अगला जन्म उसका सर्प का होता है।
  4. पूजा के पश्चात सुहाग की समाग्री को किसी जरूरतमंद व्यक्ति या मंदिर के पुरोहित को दान करने का चलन है।
  5. मान्यता है कि यह व्रत विधवा महिलाओं को नहीं करना होता।
  6. मान्यता है कि व्रत रखने वाली महिलाओं को रात को सोना नहीं चाहिए। पूरी रात जगकर महिलाओं के साथ मिलकर भजन कीर्तन करना चाहिए। अगर कोई महिला रात की नींद लेती है तो ऐसी मान्यता है कि वह अगले जन्म अजगर का जन्म लेती है।
  7. यदि आप एक बार हरतालिका तीज का व्रत रखती हैं, तो फिर आपको यह व्रत हर साल रखना होता है। किसी कारण यदि आप व्रत छोड़ना चाहते हैं तो उद्यापन करने के बाद अपना व्रत किसी को दे सकते हैं।
  8. हरतालिका तीज व्रत के दौरान महिलाएं बिना अन्न और जल ग्रहण किए 24 घंटे तक रहती हैं। हलांकि कुछ इलाकों में इसके दूसरे नियम भी हो सकते हैं।


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ओणम पर्व का महत्व और कथा



 
भार‍त विविध धर्मों, जातियों तथा संस्कृतियों का देश है। भारत भर के उत्सवों एवं पर्वों का विश्व में एक अलग स्थान है। सर्वधर्म समभाव के प्रतीक केरल प्रांत का मलयाली पर्व 'ओणम' समाज में सामाजिक समरसता की भावना, प्रेम तथा भाईचारे का संदेश पूरे देश में पहुंचा कर देश की एकता एवं अखंडता को मजबूत करने की प्रेरणा देता है। ओणम केरल का सबसे बड़ा त्योहार है। केरल में इस त्योहार का वही महत्त्व है जो उत्तर भारत में विजयादशमी या दीपावली का या पंजाब में वैशाखी का। ओणम का त्योहार प्रतिवर्ष अगस्त-सितम्बर में मनाया जाता है। मलयाली सम्वत् के अनुसर यह महीना सावन का होता है।
पुराणों के अनुसार जब विष्णु भगवान ने वामन का अवतार धारण किया उस समय मलयालम प्रदेश राजा बलि के राज्य में था। बलि के राज में चोरी नहीं होती थी। बलि को अपने अच्छे शासन पर तथा अपनी शक्ति पर गर्व था। विष्णु भगवान ने उसका घमंड तोडने के लिए वामन का रूप धारण किया और भिक्षा मांगने के लिए वे बलि के पास पहुँचे। बलि ने कहा, ‘‘जो चाहो, मांग लो।’’ वामन ने तीन पग पृथ्वी मांगी। बलि ने तुरन्त प्रार्थना स्वीकार कर ली। अब विष्णु भगवान ने अपना विराट रूप प्रकट किया। उन्होंने दो पगों में सारा ब्रह्माड नाप लिया। अभी एक पग पृथ्वी उन्हें चाहिए थी। बलि को अपनी भूल का अहसास हुआ तो उसका घमंड जाता रहा। लेकिन अपने वचन से वह नहीं डिगा। एक पग पृथ्वी के बदले उसने अपना सिर नपवा दिया तथा विष्णु भगवान के चरणों से दब कर पाताल लोक चला गया। किन्तु पाताल जाने से पूर्व उसने भगवान से एक वरदान मांगा कि उसे हर वर्ष एक बार अपने प्रिय मलयालम क्षेत्र मेंआने की स्वीकृति दी जाये। माना जाता है कि तभी से बलि ओणम पर्व के अवसर पर मलयालम की यात्रा पर आता है। उसके स्वागत में केरल निवासी हंसी-खुशी से यह त्योहार मनाते हैं।
ओणम त्योहार के विषय में एक दूसरी कथा भी प्रचलित है। उसके अनुसार परशुराम ने सारी पृथ्वी जीतकर ब्राह्मणों को दान दे दी। अपने रहने के लिये भी स्थान नहीं रखा। तब सहयाद्रि पर्वत की एक कंदरा में बैठकर उन्होंने जल के स्वामी वरूण की आराधना की। उनके कठिन तप से वरूण देवता प्रसन्न हो गये। उन्होंने प्रकट होकर परशुराम से कहा, ‘‘तुम यहीं से अपना परशु समुद्र में फेंको, जहाँ वह गिरेगा वहाँ तक की भूमि तुम्हारी हो जायेगी।’’ परशुराम ने ऐसा ही किया। इस प्रकार जो भूमि उन्होंने समुद्र से प्राप्त की उसका नाम परशुक्षेत्र हुआ। उसी को आज केरल या मलयालम कहते हैं। परशुराम ने वहाँ भगवान का एक मंदिर बनवाया। वह आजकल तिरूक्कर अप्पण ने नाम से प्रसिद्ध है। जिस दिन परशुराम ने मंदिर में विष्णु भगवान की मूर्ति स्थापित की थी, उसकी पुण्य स्मृति में ओणम का पर्व मनाया जाता है।
पौराणिक कथाओं के अतिरिक्त ओणम का त्योहार ऋतु परिवर्तन से भी संबंधित है। यह त्योहार ऐसे समय आता है जब वर्षा के बाद केरल की भूमि हरी-भरी हो जाती है। नारियल और ताड़ के वृक्षों के झुरमुटों के बीच बड़े-बड़े सरोवर जल से भर कर लहराते रहते हैं। चाय, इलायची, काली मिर्च के अतिरिक्त धान के खेत भी कटने को तैयार हो जाते हैं। चारों तरफ रंग बिरंगे सुगंधित पुष्पों की निराली छटा मन को प्रसन्न करती है। वर्षा के बाद नई फसल को घर में लाने की तैयारियों में किसान प्रसन्न मन से लगे होते हैं। केरल में सबके लिये वर्ष का यह समय सर्वोत्तम होता है। हरेक के मन में नई आशा और उत्साह का राज्य होता है।
ओणम का मुख्य त्योहार तिरू ओणम के दिन मनाया जाता है। उसकी तैयारियाँ दस दिन पहले से होने लगती है। सांयकाल बच्चे ढेर सारे फूल इकट्ठे करके लाते हैं। अगले दिन प्रातः काल गोरब से लिपे हुये स्थान पर इन फूलों को गोलाई में सजा दिया जाता है। घर को फूल मालाओं से सजाते हैं। ओणम त्योहार प्रारम्भ होने के पहले ही दिन घर में विष्णु भगवान की प्रतिमा स्थापित की जाती है। इस अवसर पर लोग विशेष प्रकार का भोजन करते हैं। इस भोज को पूवक कहते हैं। स्त्रियां थपत्ति कलि नाम के नृत्य से मनोरंजन करती हैं। वृत का आकार बनाकर स्त्रियां ताली बजाती हुई नाचती जाती हैं तथा विष्णु भगवान की प्रार्थना के गीत गाती जाती हैं। बच्चे वामन भगवान की आराधना के गीत गाते हैं। इन गीतों को ओनलप्पण कहते हैं। ज्यों-ज्यों तिरूओणम का दिन पास आता है त्यों-त्यों घर के सामने सजाये जाने वाले फूलों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। उनसे जो वृत बनाया जाता है वह भी बड़ा होता जाता है। आखिर के चार दिन बड़ी चहल-पहल रहती है। तिरूओणम के एक दिन पहले परिवार का सबसे वृद्ध व्यक्ति परिवार के सदस्यों को बड़े सवेरे स्नान के बाद पहनने के लिये नये वस्त्र देता है। रात मे सावन देव की मिट्टी की मूर्ति तैयार की जाती हैं उसके सामने मंगल दीप जलाये जाते हैं।
दूसरे दिन तिरूओणम का मुख्य त्योहार होता है। तब सावन देव और फूलों की देवी का विधि के साथ पूजन होता है। लड़कियाँ उन्हें वाल्लसन नाम के पकवान की भेंट चढाती हैं और लड़के तीर चलाकर इस भेंट को प्रसाद रूप में वापस प्राप्त करते हैं। इस दिन हर घर में विशेष भोजन बनाया जाता है। प्रातःकाल जलपान में भुने हुए या भाप में पकाये हुए केले खाये जाते हैं। जिसे नेन्द्रम कहते हैं। यह जलपान नेन्द्रकाय नाम के विशेष केले से तैयार किया जाता है जो केवल केरल में ही पैदा होता है। भोजन में चावल, दाल, पापड़ और केले के व्यजंन मुख्य रूप से बनाये जाते हैं।
ओणम के अवसर पर केरल के लोग गणेश जी की आराधना भी करते है। संध्या समय विष्णु भगवान की सभी मूर्तियाँ तख्ते पर रखी जाती है और पूजन के बाद उन्हें आदर के साथ किसी निकट के जलाशय में विसर्जित कर दिया जाता है। इस अवसर पर घरों में धार्मिक कार्य, पूजा पाठ होते हैं तथा स्वादिष्ट पकवान बनाये जाते हैं। इसके साथ ही सार्वजनिक मनोरंजन के क्रियाकलाप भी होते हैं। जिसमें नौका दौड़ का प्रमुख स्थान है। मलयालम भाषा में इसे वल्लुमकली कहते है। विविध आकृतियों की नावें जैसे मछली के आकार की, सर्प के आकार की नावें दौड़ में भाग लेती हैं। नावों के ऊपर लाल रेशमी छत्र तने रहते हैं। नाव खेने वाले नाव खेते समय एक विशेष प्रकार का गीत गाते हैं जिसे बाॅची पटक्कल कहते हैं अर्थात् नाव का गीत। केरल के सागर तट पर हजारों दर्शक नौका दौड़ देखने के लिये खडे़ रहते हैं। दीपावली, दशहरा, सरस्वती पूजा, और नागपूजा के त्योहार भी केरल में मनाये जाते हैं पर ओणम का त्योहार वहाँ का सर्व-प्रमुख त्योहार है।

ओणम पर्व पर क्या-क्या होता है खास
  1. इस अवसर पर मलयाली समाज के लोगों ने एक-दूसरे को गले मिलकर शुभकामनाएं देते हैं। साथ ही परिवार के लोग और रिश्तेदार इस परंपरा को साथ मिलकर मनाते हैं।
  2. इसके साथ ही ओणम नई फसल के आने की खुशी में भी मनाया जाता है।
  3. इसके साथ ही कई तरह की सब्जियां, सांभर आदि भी बनाया जाता है।
  4. ओणम पर्व पर राजा बलि के स्वागत के लिए घरों की आकर्षक साज-सज्जा के साथ तरह-तरह के पकवान बनाकर उनको भोग अर्पित करती है।
  5. हर घर के सामने रंगोली सजाने और दीप जलाने की भी परंपरा हैं।
  6. हर घर में विशेष पकवान बनाए जाते हैं। खास तौर पर चावल, गुड़ और नारियल के दूध को मिलाकर खीर बनाई जाती है।


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मुख्यमंत्री पीड़ित सहायता कोष (Chief Minister Distress Relief Fund)



मुख्यमंत्री पीड़ित सहायता कोष खाता विवरण
(Chief Minister Distress Relief Fund Account Details)

  1. ACCOUNT NAME : CHIEF MINISTER'S DISTRESS RELIEF FUND
  2. BANK NAME : CENTRAL BANK OF INDIA
  3. BRANCH NAME : C.B.I. CANTT. ROAD, LUCKNOW
  4. ACCOUNT NUMBER : 1378820696
  5. IFSC : CBIN0281571
  6. BRANCH CODE : 281571
  7. TEL. PHONE : 0522-2226359


Donate to Chief Minister's Distress Relief Fund-COVID CARE FUND: Online Collection Facility

  1. [SBI] "Chief Minister's Distress Relief Fund-COVID CARE FUND" [Click Here]
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  2. QR Code UPI Payment (Use BHIM, SBI Pay, SBI UPI,Google Pay then Scan below QR Code) दानकर्ता इस क्यू आर (QR) कोड को किसी भी यूपीआई एप्प के द्वारा स्कैन करके दान दे सकते हैं।
    Scan the QR Code to donate funds easily through any UPI Payment app.
  3. Account Detail
    UTTAR PRADESH CIVIL SECRETARIAT BRANCH, LUCKNOWSTATE BANK OF INDIA
    A/c No - 39245983072
    A/c. Name - Chief Minister's Distress Relief Fund-COVID CARE FUND
    IFSC CODE - SBIN0006893


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धारा 44 आईपीसी मजिस्ट्रेट द्वारा गिरफ्तारी



मजिस्ट्रेट द्वारा गिरफ्तारी

 
मजिस्ट्रेट द्वारा गिरफ्तारी
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 44 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट को गिरफ्तार करने संबंधी शक्तियां दी गई हैं। इन शक्तियों के अधीन मजिस्ट्रेट गिरफ्तारी कर सकता है। धारा 44 में वर्णित उपबंध के अधीन कार्य पालक मजिस्ट्रेट तथा न्यायिक मजिस्ट्रेट को गिरफ्तारी करने के लिए विशेष रूप से अधिकृत किया गया है।

  1.  जब कार्यपालक या न्यायिक मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में उसकी अधिकारिता के अन्दर कोई अपराध किया जाता है तब वह अपराधी को स्वयं गिरफ्तार कर सकता है या गिरफ्तार करने के लिए किसी व्यक्ति को आदेश दे सकता है और तब, जमानत के बारे में इसमें अन्तर्विष्ट उपबन्धों के अधीन रहते हुए, अपराधी को अभिरक्षा के लिए सुपुर्द कर सकता है।
  2. कोई कार्यपालक या न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी भी समय अपनी स्थानीय अधिकारिता के भीतर किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है, या अपनी उपस्थिति में उसकी गिरफ्तारी का निर्देश दे सकता है, जिसकी गिरफ्तारी के लिए वह उस समय और उन परिस्थितियों में वारण्ट जारी करने के लिए सक्षम है। मजिस्ट्रेट की धारा 44(1) के अधीन शक्तियाँ प्रशासकीय अथवा कार्यपालक है, यद्यपि इनका प्रयोग न्यायिकतः ही किया जाना चाहिए। यदि मजिस्ट्रेट अन्तरस्थ (अल्टिरियर मोटीव) हेतु से अपनी स्थानीय अधिकारिता से बाहर शक्ति का प्रयोग करता है तो वह मिथ्या कारावास की गलती करता है तथा अपकृत्य (टार्ट्स) विधि में हरजाना देने के लिए उत्तरदायी है तथा उसे न्यायिक अधिकारी संरक्षण अधिनियम की धारा 1 के अधीन पूर्ण संरक्षण प्राप्त नहीं है।


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निबंध - योग का महत्व




 निबंध - योग का महत्व
 
प्राचीन काल मे योग विद्या सन्यासियों या मोक्ष मार्ग के साधको के लिए ही समझी जाती थी तथा योगाभ्यास के लिए साधक को घर को त्याग कर वन मे जाकर एकांत में वास करना होता था । इसी कारण योगसाधना को बहुत ही दुर्लभ माना जाता था। जिससे लोगो में यह धारणा बन गयी थी कि यह योग सामाजिक व्यक्तियों के लिए नही है। जिसके फलस्वरूप यह योगविद्या धीरे-धीरे लुप्त होती गयी। परन्तु पिछले कुछ वर्षो से समाज में बढते तनाव, चिन्ता, प्रतिस्पर्धा से ग्रस्त लोगों को इस गोपनीय योग से अनेको लाभ प्राप्त हुए और योग विद्या एकबार पुनः समाज मे लोकप्रिय होती गयी। आज भारत में ही नही बल्कि पूरे विश्व भर में योगविद्या पर अनेक शोध कार्य किये जा रहे है और इससे लाभ प्राप्त हो रहे है। योग के इस प्रचार-प्रसार में विशेष बात यह रही कि यहां यह योग जितना मोक्षमार्ग के पथिक के लिये उपयोगी था, उतना ही साधारण मनुष्य के लिए भी महत्व रखता है। आज के आधुनिक एवं विकास के इस युग में योग में अनेक क्षेत्रों में विशेष महत्व रखता है जिसका उल्लेख निम्नलिखित विवरण से किया जा रहा हैं-
  1. स्वास्थ्य क्षेत्र में - वर्तमान समय में भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी योग का स्वास्थ्य के क्षेत्र में उपयोग किया जा रहा है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में योगाभ्यास पर हुए अनेक शोधों से आये सकारात्मक परिणामों से इस योग विद्या को पुनः एक नयी पहचान मिल चुकी है आज विश्व स्वास्थ्य संगठन भी इस बात को मान चुका है कि वर्तमान में तेजी से फैल रहे मनोदैहिक रोगो में योगाभ्यास विशेष रूप से कारगर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि योग एक सुव्यवस्थित व वैज्ञानिक जीवन शैली है। जिसे अपना कर अनेक प्रकार के प्राणघातक रोगों से बचा जा सकता है। योगाभ्यास के अंतर्गत आने वाले षट्कर्मो से व्यक्ति के शरीर में संचित विषैले पदार्थों का आसानी से निष्कासन हो जाता है। वहीं योगासन के अभ्यास से शरीर मे लचीलापन बढता है व नस- नाड़ियो में रक्त का संचार सुचारु होता है। प्राणायामों के करने से व्यक्ति के शरीर में प्राणिक शक्ति की वृद्धि होती है, साथ -साथ शरीर से पूर्ण कार्बन डाई ऑक्साइड का निष्कासन होता है। इसके अतिरिक्त प्राणायाम के अभ्यास से मन की स्थिरता प्राप्त होती है जिससे साधक को ध्यान करने मे सहायता प्राप्त होती है और साधक स्वस्थ मन व तन को प्राप्त कर सकता है।
  2. रोगोपचार के क्षेत्र में- निस्संदेह आज के इस प्रतिस्पर्धा व विलासिता के युग में अनेक रोगो का जन्म हुआ है जिन पर योगाभ्यास से विशेष लाभ देखने को मिला है। संभवतः रोगो पर योग के इस सकारात्मक प्रभाव के कारण ही योग को पुनः प्रचार -प्रसार मिला। रोगों की चिकित्सा में इस योगदान में विशेष बात यह है कि जहाँ एक ओर रोगों की एलौपैथी चिकित्सा में कई प्रकार के दुष्प्रभाव के लाभ प्राप्त करता है वहीं योग हानि रहित पद्धति है। आज देश ही नही बल्कि विदेशों में अनेको स्वास्थ्य से सम्बन्धित संस्थाएं योग चिकित्सा पर तरह - तरह के शोध कार्य कर रही है। आज योग द्वारा दमा, उच्च व निम्नरक्तचाप, हृदय रोग, संधिवात, मधुमेह, मोटापा, चिन्ता, अवसाद आदि रोगों का प्रभावी रूप से उपचार किया जा रहा है। तथा अनेकों लोग इससे लाभान्वित हो रहे है।
  3. खेलकूद के क्षेत्र में - योग अभ्यास का खेल कूद के क्षेत्र में भी अपना एक विशेष महत्त्व है। विभिन्न प्रकार के खेलो में खिलाड़ी अपनी कुशलता, क्षमता व योग्यता आदि बढाने के लिए योग अभ्यास की सहायता लेते है। योगाभ्यास से जहाँ खिलाड़ी में तनाव के स्तर, में कमी आती है, वहीं दूसरी ओर इससे खिलाड़ियों की एकाग्रता व बुद्धि तथा शारीरिक क्षमता भी बढती है। क्रिकेट के खिलाड़ी बल्लेबाजी में एकाग्रता लाने, शरीर में लचीलापन बढाने तथा शरीर की क्षमता बढाने के लिए रोजाना योगाभ्यास को समय देते है। यहाँ तक कि अब तो खिलाड़ियों के लिए सरकारी व्यय पर खेल-कूद में योग के प्रभावों पर भी अनेको शोध हो चुके हैं जो कि खेल-कूद के क्षेत्र में योग के महत्त्व को सिद्ध करते है।
  4. शिक्षा के क्षेत्र में - शिक्षा के क्षेत्र में बच्चों पर बढते तनाव को योगाभ्यास से कम किया जा रहा है। योगाभ्यास से बच्चों को शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी मजबूत बनाया जा रहा है। स्कूल व महाविद्यालयों में शारीरिक शिक्षा विषय में योग पढ़ाया जा रहा है। वहीं योग-ध्यान के अभ्यास द्वारा विद्यार्थियों में बढ़ते मानसिक तनाव को कम किया जा रहा है। साथ ही साथ इस अभ्यास से विद्यार्थियों की एकाग्रता व स्मृति शक्ति पर भी विशेष सकारात्मक प्रभाव देखे जा रहे है। आज कम्प्यूटर, मनोविज्ञान, प्रबंधन विज्ञान के छात्र भी योग द्वारा तनाव पर नियंत्रण करते हुए देखे जा सकते है। शिक्षा के क्षेत्र में योग के बढ़ते प्रचलन का अन्य कारण इसका नैतिक जीवन पर सकारात्मक प्रभाव है आजकल बच्चों में गिरते नैतिक मूल्यों को पुनः स्थापित करने के लिए योग का सहारा लिया जा रहा है। योग के अंतर्गत आने वाले यम में दूसरों के साथ हमारे व्यवहार व कर्तव्य को सिखाया जाता है, वहीं नियम के अंतर्गत बच्चों को स्वंय के अन्दर अनुशासन स्थापित करना सिखाया जा रहा है। विश्व भर के विद्वानों ने इस बात को माना है कि योग के अभ्यास से शारीरिक व मानसिक ही नहीं बल्कि नैतिक विकास होता है। इसी कारण आज सरकारी व ग़ैरसरकारी स्तर पर स्कूलों में योग विषय को अनिवार्य कर दिया गया है।
  5. पारिवारिक महत्त्व- व्यक्ति का परिवार समाज की एक महत्त्वपूर्ण इकाई होती है तथा पारिवारिक संस्था व्यक्ति के विकास की नींव होती है। योगाभ्यास से आये अनेकों सकारात्मक परिणामों से यह भी ज्ञात हुआ है कि यह विद्या व्यक्ति में पारिवारिक मुल्यों एवं मान्यताओं को भी जागृत करती है। योग के अभ्यास व इसके दर्शन से व्यक्ति में प्रेम, आत्मीयता, अपनत्व एवं सदाचार जैसे गुणों का विकास होता है और निःसंदेह ये गुण एक स्वस्थ परिवार की आधारशिला होते हैं। वर्तमान में घटती संयुक्त परिवार प्रथा व बढ़ती एकल परिवार प्रथा ने अनेकों प्रकार की समस्याओं को जन्म दिया है आज परिवार का सदस्य संवेदनहीन, असहनशील, क्रोधी, स्वार्थी होता जा रहा है जिससे परिवार की धुरी धीरे-धीरे कमजोर होती जो रही है। लेकिन योगाभ्यास से इस प्रकार की दुष्प्रवृत्तियां स्वतः ही समाप्त हो जाती है। भारतीय शास्त्रों में तो गुहस्थ जीवन को भी गृहस्थयोग की संज्ञा देकर जीवन में इसका विशेष महत्त्व बतलाया है। योग विद्या में निर्देशित अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय व ईश्वर प्रणिधान पारिवारिक वातावरण को सुसंस्कारित और समृद्ध बनाते है।
  6. सामाजिक महत्त्व- इस बात में किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि एक स्वस्थ नागरिक से स्वस्थ परिवार बनता है तथा एक स्वस्थ व संस्कारित परिवार से एक आदर्श समाज की स्थापना होती है। इसीलिए समाजोत्थान में योग अभ्यास का सीधा देखा जा सकता है। सामाजिक गतिविधियाँ व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक दोनों पक्षों को प्रभावित करती है। सामान्यतः आज प्रतिस्पर्धा के इस युग में व्यक्ति विशेष पर सामाजिक गतिविधियों का नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। व्यक्ति धन कमाने, व विलासिता के साधनों को संजोने के लिए हिंसक, आतंकी, अविश्वास व भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति को बिना किसी हिचकिचाहट के अपना रहा है। ऐसे यौगिक अभ्यास जैसे- कर्मयोग, हठयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, अष्टांग योग आदि साधन समाज को नयी रचनात्मक व शान्तिदायक दिशा प्रदान कर रहे है। कर्मयोग का सिद्धांत तो पूर्ण सामाजिकता का ही आधार है “सभी सुखी हो, सभी निरोगी हो” इसी उद्देश्य के साथ योग समाज को एक नयी दिशा प्रदान कर रहा है।
  7. आर्थिक दृष्टि से महत्त्व - प्रत्यक्ष रूप से देखने पर योग का आर्थिक दृष्टि से महत्त्व गौण नजर आता हो लेकिन सूक्ष्म रूप से देखने पर ज्ञात होता है कि मानव जीवन में आर्थिक स्तर और योग विद्या का सीधा सम्बन्ध है। शास्त्रों में वर्णित “पहला सुख निरोगी काया, बाद में इसके धन और माया” के आधार पर योग विशेषज्ञों ने पहला धन निरोगी शरीर को माना है। एक स्वस्थ्य व्यक्ति जहाँ अपने आय के साधनांे का विकास कर सकता है, वहीं अधिक परिश्रम से व्यक्ति अपनी प्रति व्यक्ति आय को भी बढ़ा सकता है। जबकि दूसरी तरफ शरीर में किसी प्रकार का रोग न होने के कारण व्यक्ति का औषधियों व उपचार पर होने वाला व्यय भी नहीं होता है। योगाभ्यास से व्यक्ति में एकाग्रता की वृद्धि होने के साथ -साथ उसकी कार्य क्षमता का भी विकास होता है। आजकल तो योगाभ्यास के अंतर्गत आने वाले साधन आसन, प्रणायाम, ध्यान द्वारा बड़े-बड़े उद्योगपति व फिल्म जगत के प्रसिद्ध लोग अपनी कार्य क्षमता को बढ़ाते हुए देखे जा सकते है। योग जहाँ एक ओर इस प्रकार से आर्थिक दृष्टि से अपना एक विशेष महत्त्व रखता है, वहीं दूसरी ओर योग क्षेत्र में काम करने वाले योग प्रशिक्षक भी योग विद्या से धन लाभ अर्जित कर रहे है। आज देश ही नहीं विदेशों में भी अनेको योगकेन्द्र चल रहे है जिनमे शुल्क लेकर योग सिखाया जा रहा है। साथ ही साथ प्रत्येक वर्ष विदेशों से सैकड़ों सैलानी भारत आकर योग प्रशिक्षण प्राप्त करते है जिससे आर्थिक जगत् को विशेष लाभ पहुँच रहा है।
  8. आध्यात्मिक क्षेत्र में - प्राचीन काल से ही योग विद्या का प्रयोग आध्यात्मिक विकास के लिए किया जाता रहा है। योग का एकमात्र उद्देश्य आत्मा-परमात्मा के मिलन द्वारा समाधि की अवस्था को प्राप्त करना है। इसी अर्थ को जानकर कई साधक योग साधना द्वारा मोक्ष, मुक्ति के मार्ग को प्राप्त करते है। योग के अंतर्गत यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि को साधक चरणबद्ध तरीके से पार करता हुआ कैवल्य को प्राप्त कर जाता है। योग के विभिन्न महत्त्वो देखने से स्पष्ट हो जाता है कि योग वास्तव में वैज्ञानिक जीवन शैली है, जिसका हमारे जीवन के प्रत्येक पक्ष पर गहराई से प्रभाव पड़ता है। इसी कारण से योग विद्या सीमित तौर पर संन्यासियों की या योगियों की विद्या न रह कर, पूरे समाज तथा प्रत्येक व्यक्ति के लिए आदर्श पद्धति बन चुकी है। आज योग एक सुव्यवस्थित व वैज्ञानिक जीवन शैली के रूप् में प्रमाणित हो चुका है। प्रत्येक मनुष्य अपने स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए,रोगो के उपचार हेतु, अपनी कार्य क्षमता को बढ़ाने, तनाव - प्रबंध, मनोदैहिक रोगो के उपचार आदि में योग पद्धति को अपनाते हुए देखा जा रहा है। प्रतिदिन टेलीविजन कार्यक्रमों में बढ़ती योग की मांग इस बात को प्रमाणित करती है कि योग वर्तमान जीवन में एक अभिन्न अंग बन चुका है। जिसका कोई दूसरा पर्याय नहीं हैं। योग की लोकप्रियता और महत्त्व के विषय में हजारों वर्ष पूर्व ही योगशिखोपनिषद् में कहा गया है- "योगात्परतंरपुण्यं यागात्परतरं शित्रम्।योगात्परपरंशक्तिं योगात्परतरं न हि।।"
    अर्थात् योग के समान कोई पुण्य नहीं, योग के समान कोई कल्याणकारी नही, योग के समान कोई शक्ति नही और योग से बढ़कर कुछ भी नही है। वास्तव में योग ही जीवन का सबसे बड़ा आश्रम है।


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कोरोना में केनरा बैंक की मनमानी



भारत की गरीब जनता आए दिन बैंक कर्मचारियों के अड़ियल रवैया और अनियमितताओं से रूबरू होती रहती है। ऐसे ही आज दिनांक 18 अप्रैल 2020 को लूकरगंज स्थित केनरा बैंक की शाखा में एक महिला जो अत्यंत जरूरत मंद, अनपढ़ और असहाय थी उसे उसके जनधन खाते से ₹700 निकालने के लिए पिछले 3 दिनों से 3 किलोमीटर से अधिक दूरी, दौड़ाया जा रहा था और इधर-उधर के नियम बता कर पैसे निकालने नहीं दिए जा रहे थे।

आज वह अपनी समस्या राष्ट्र रक्षक समूह के सचिव देवांशु मेहता के पास लेकर आई और कहा की भैया पैसा की बहुत जरूरत है बैंक वाले पिछले 3 दिन से दौड़ा रहे हैं और पैसा नहीं दे रहे हैं। उस असहाय महिला की स्थिति को देख देवांशु जी ने समूह के संरक्षक श्री देवेंद्र प्रताप सिंह जी और समूह के अन्य सदस्यों सर्वश्री बाबा हिंदुस्तानी, शिवांशु मेहता और मैं स्वयं जो बैंक के आसपास मौजूद थे उनको अवगत कराया।
हम सभी लोग बैंक पहुंचे और तत्काल 112 नंबर पर फोन कर पुलिस सहायता मांगी, बैंक में उपस्थित शाखा प्रबंधक को पिछले 3 दिन से महिला की हो रही दिक्कतों से अवगत कराया गया और महिला को हुई दिक्कत के लिए बैंक में स्थित कंप्लेंट रजिस्टर की मांग की गई।
कुछ लोगों की उपस्थिति और विधिक न्यायोचित बातों के आगे बैंक प्रबंधक अपने कर्मचारियों के दुर्व्यवहार के लिए क्षमा मांगने लगा और तत्काल महिला को मांगी जाने वाली राशि उपलब्ध करा दिया। हमारे द्वारा विरोध किया गया कि आप लोगों द्वारा इस महामारी की स्थिति में जबकि सरकार ने लोगों को घर में रहने का निर्देश दिया है एक महिला को अनावश्यक बार-बार दौड़ा रहे हैं और पता नहीं अब तक कितने लोगों को इसी प्रकार परेशान किया गया होगा।
निश्चित रूप से आज जो भी लोग अपनी सेवाएं दे रहे हैं वह साधुवाद के पात्र हैं किंतु इस प्रकार किसी को परेशान किए जाने वाली घटनाएं बिल्कुल बर्दाश्त करने योग्य नहीं है और मोदी सरकार के निर्देशों का उल्लंघन है। बैंक मैनेजर ने आगे से किसी प्रकार की ऐसी घटना की पुनरावृत्ति ना होने का वायदा करते हुए क्षमा मांगी और किसी प्रकार की कार्यवाही ना करने की बात कही।


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निबंध - जीवन परिचय क्रांतिकारी अशफ़ाक़ उल्ला खाँ



अशफ़ाक़ उल्ला खाँ का जन्म 22 अक्टूबर सन् 1900 ई. को शाहजहाँपुर के एक सम्पन्न पठान खानदान में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री शफीक उल्ला खाँ था। उनका खानदान कदैल खैल के नाम से प्रसिद्ध था। उनके पिता रईस जमींदार थे। अशफ़ाक़ उल्ला खाँ चार भाई थे तथा वे सबसे छोटे थे। उनसे बडे़ तीन भाई श्री सफी उल्ला खाँ, श्री रियासत उल्ला खाँ, श्री शहनशाह उल्ला खाँ थे। अशफ़ाक़ सबसे छोटे होने के कारण परिवार में सभी के लाड़ले थे। घर में उन्हें प्यार से सभी 'अच्छू' बुलाया करते थे। "लड़कपन से ही आप बड़ी मस्तानी तबियत के थे। नदी 'खन्नौत' में तैरना, घोडे़ की सवारी और भाई की बन्दूक से शिकार खेलना इन्हें बहुत प्रिय था। लड़कपन से ही देश की धुन समा गयी थी। आन्दोलन से दिलचस्पी रखते, उसे जानने समझने की कोशिश करते थे। उनका झुकाव विशेष तौर पर क्रांतिकारी आन्दोलन की ओर था।" शाहजहाँपुर के मिशन स्कूल में पढ़ने के समय ही अशफ़ाक़ की भेंट पं. रामप्रसाद बिस्मिल से हुई थी। "मूल रूप में आपके (अशफ़ाक़) पूर्वज अफगानिस्तान के थे जो लगभग 300 साल पहले भारत में आ गए थे। अशफ़ाक़ के परिवार में कई जज और मजिस्ट्रेट हुए थे। जमींदार घराना था। अंग्रेज सरकार में उनके कई खानदानी अहम पदों पर भी थे। आपके बडे़ भाई पं रामप्रसाद बिस्मिल के सहपाठी थे। यौवन आते ही जवानी ने मुल्क परस्ती का रंग दिखाना शुरू कर दिया। क्रांति की ओर कदम बढ़ाने के कारण आपकी पढ़ाई बिलकुल खत्म हो गई और देश सेवा के लिए सभी कामों को छोड़ दिया।" अशफ़ाक़ उल्ला खाँ बिस्मिल जी से बहुत प्रभावित थे तथा उनसे मित्रता कर क्रांतिकारी मार्ग पर अग्रसर होना चाहते थे। "गोरे रंग का हंसता झूमता, हट्टा-कट्टा सुन्दर सा यह नौजवान श्री बिस्मिल के साथ 1921 के आन्दोलन में स्कूल छोड़कर मैदान में कूद पड़ा। अनेक जिलों के गाँवों में पैदल घूम कर जनता को आज़ादी की जंग में शामिल होने का संदेश सुनाया।"
निबंध - जीवन परिचय क्रांतिकारी अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ
निबंध - जीवन परिचय क्रांतिकारी अशफ़ाक़ुल्लाह ख़ाँ
 
अशफ़ाक़ जब स्कूल में थे, तभी पं. रामप्रसाद बिस्मिल को उन्होंने देखा था। क्रांति की ओर अशफ़ाक़ का झुकाव होने के कारण उन्होंने भी क्रांतिकारी आंदोलन में भाग लेना चाहा। जब पं. रामप्रसाद बिस्मिल मैनपुरी षडयंत्र केस में आम माफी की घोषणा के पश्चात् शाहजहाँपुर आए तब वे आर्य समाज भवन शाहजहाँपुर में रहने लगे थे। बिस्मिल जी उस समय उत्तर भारत के शीर्षस्थ क्रांतिकारी थे। उनके पासबडे़-बडे़ क्रांतिकारी "देश को आज़ाद कराने के लिए क्रांति की नई रूपरेखा तैयार करते थे। उन दिनों शाहजहाँपुर में खन्नौत नदी के किनारे एक सभा के अन्त में बिस्मिल जी ने शेर पढ़ा-
बहे, बहरे फना में, जल्द, या खा लाश बिस्मिल की,
कि भूखी मछलियाँ हैं, जौहरे शमशीर कातिल की ।


बिस्मिल जी के व्यक्तित्व से प्रभावित अशफ़ाक़ उल्ला खां अपने स्कूली पढ़ाई के दौरान बिस्मिल जी से मिले भी परंतु बिस्मिल जी ने उन्हें नजर अंदाज कर दिया। बिस्मिल जी यह सोचते थे कि एक कट्टर मुसलमान युवक मेरे संपर्क में क्यों आना चाहता है? बिस्मिल जी कट्टर आर्यसमाजी थे। वहीं अशफ़ाक़ इस्लाम के पक्के पाबंद। बचपन में अशफ़ाक़ को उनके अध्यापक ने एक पुस्तक जो क्रांतिकारियों के जीवन के सम्बन्ध में थी, दी। उन्होंने उसे पढ़कर क्रांतिकारी आंदोलन को समझा। उनके अंदर देश भक्ति की भावना उत्पन्न हुई । "बिस्मिल के सम्पर्क में आते ही अशफ़ाक़ के अंदर का वतन परस्त खुलकर सामने आ गया और जल्दी ही उन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों से बिस्मिल के मन में जगह बना ली और वे अंग्रेज सरकार की नजरों में बिस्मिल के 'लेफ्टीनेंट' के रूप में पहचाने जाने लगे।" असहयोग आंदोलन में अशफ़ाक़ ने बिस्मिल जी के साथ प्राणपण से योगदान दिया था परंतु जब आंदोलन रुका, तब अशफ़ाक़ को गहरा धक्का लगा तत्पश्चात् अशफ़ाक़ ने बिस्मिल जी की ही भाँति ही क्रांति के पथ पर सक्रियता से कदम बढ़ाये। क्रांतिकारी इतिहास में अशफ़ाक़ का योगदान अभूतपुर्व है। बिस्मिल जी और अशफ़ाक़ की मित्रता इतनी गहरी थी कि सबको आश्चर्य होता था। इस जोड़ी ने क्रांतिकारी गतिविधियों में भी उतना समर्पण दिखाया जितना इनकी मित्रता में था। क्रांतिकारी दल में अशफ़ाक़ को 'कुँवर जी' के नाम से पुकारते थे। असहयोग आंदोलन के समय से ही पुलिस अशफ़ाक़ के पीछे पड़ी थी। बिस्मिल जी के मित्र तथा सहयोगी होने के कारण पुलिस की नजरें इन पर बनी रहती थी। काकोरी षड्यंत्र में भाग लेने के पश्चात् अशफ़ाक़ फरार हो गये थे। 26 सितम्बर 1925 ई. में इनके नाम का वारण्ट भी निकला पर श्रीअशफ़ाक़ हाथ न आए। श्री अशफ़ाक़ पुलिस को चकमा देकर छिपे रहे। श्री अशफ़ाक़ को उनके मित्रों ने सलाह दी कि वे छुपकर अफगानिस्तान चले जायें लेकिन श्री अशफ़ाक़ ने इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा कि 'उनका काम देश में है, बाहर जाकर आराम करना उनका काम नहीं है।' अन्त में 8 सितम्बर, 1926 ई. को देहली में रहने वाले एक महान हिन्दी साहित्यिक, लौह लेखनी के धनी की विशेष दया से पुलिस ने उन्हें दिल्ली में गिरफ्तार कर लिया। उधर शचीन्द्र नाथ बख्शी भागलपुर में गिरफ्तार हो गये। गिरफ्तारी के पश्चात् ब्रिटिश सरकार के गुर्गों ने अर्थात् पुलिस ने उन्हें मजहबी बातें कर देशद्रोही सिद्ध करने की कोशिश की, पर ब्रिटिश सरकार इसमें सफल न हो सकी। "काकोरी मुकदमें के इन्चार्ज तसद्दुक हुसैन डिप्टी सुपरिंटेंण्डेंट सी.आई.डी इम्पीरियल ब्रांच ने उनसे मिलकर कहा, "देखो अशफ़ाक़ तुम से हमारे कुछ खानदानी ताल्लुकात हैं। हम और तुम दोनों मुसलमान हैं। काफिर रामप्रसाद आर्यसमाजी है। हमारे मजहब का जानी दुश्मन है। वह मुल्क में हिन्दू राज कायम करना चाहता है, तुम पढ़े-लिखे समझदार हो, तुम्हें काफिर का साथ देकर मजहब को नुकसान न पहुँचाना चाहिए। पुलिस को सब मालूम हो चुका है। यह तो तुम्हें इतने दिनों मुकदमा चलने से मालूम ही हो चुका होगा। मेरा कहना मानकर जो कुछ बातें हो, वह साफ-साफ कह दो। उस काफिर रामप्रसाद की दोस्ती में अपने को तबाह न करो। गुस्से से श्री अशफ़ाक़ का चेहरा तमतमा उठा। आँखे लाल हो गयी। तेज सांस लेते हुए डपट कर उन्होंने कहा 'बस कीजिये जनाब! बहुत हो गया। मैं आपके मुँह से ऐसी बातें नहीं सुनना चाहता। आइन्दा इनका दोहराना आपके हक में अच्छा न साबित होगा। पण्डित जी सच्चे हिन्दुस्तानी हैं। वे सबके लिये एक हुकुम देने वाली पंचायती सरकार हिन्दोस्तान में कायम करना चाहते हैं। मुल्क की गुलामी को तबाह करना चाहते हैं। वे किसी फिरकेवार सल्तनत के हामी नहीं है उन्हें तो ऐसी सल्तनत से दिली नफरत है और जैसा आप कहते हैं, वह भी बात सही होती तो भी मैं पण्डित जी का साथ जरूर देता। मेरी नजर में गैर मुल्क के रहने वालों की गुलामी से अपने मुल्क के रहने वाले भाईयों की मातहती कहीं ज्यादा बेहतर है।' खान साहब के होश गुम हो गये, अपना सा मुँह लेकर वे लौट गये।" पहली बार जब श्री अशफ़ाक़ का मजिस्ट्रेट सैयद अईनुद्दीन से सामना हुआ तो श्री अशफ़ाक़ ने उनसे प्रश्न पूछा कि 'मजिस्ट्रेट साहब आप मुझे पहचानते हैं? मैंने तो कई बार आपके दर्शन किये हैं। मजिस्ट्रेट साहब ने आश्चर्यजनक तरीके से पूछा, "आपने मुझे देखा! कब और कहाँ? हँसकर श्री अशफ़ाक़ ने उत्तर दिया, जबसे आपकी अदालत में काकोरी का मुकदमा शुरू हुआ है, तबसे मैं कई बार राजपूतानी वेश में आकर मुकदमा देखा करता था। अशफ़ाक़ उल्ला खाँ और शचीन्द्र नाथ बख्शी पर काकोरी रेल डकैती का पूरक मुकदमा चलाया गया। अदालत ने श्री अशफ़ाक़ को पं. रामप्रसाद बिस्मिल का लेफ्टीनेंट ठहराया और फाँसी की सजा सुनायी गयी। फैसला सुनने के पश्चात् श्री अशफ़ाक़ ने जज साहब का शुक्रिया अदा किया तथा अदालत से कहा कि 'इससे कम सजा मेरे लिये बाय-से तौहीन (अपमान जनक) है।" फैसले के दिन वे बसन्ती रंग के पहनावे में अदालत पहुँचे थे। अदालत के फैसले के पश्चात् उन्हें फैजाबाद जेल की काल कोठरी में रखा गया। श्री अशफ़ाक़ को "फाँसी के एक दिन पहले कुछ दोस्त मिलने गये। आज श्री अशफ़ाक़ को अपने कपड़े पहनने को मिल गए थे। उन्होंने नहा-धोकर बड़ी सफाई के साथ इन कपड़ों को पहना था। लोगों ने उन्हें बहुत ही खुश पाया। हँसते हुए उन्होंने अपने दोस्तों से कहा, "सुबह मेरी शादी है। कहो, दूल्हे में कोई फर्क तो नहीं पाते हो? यह कहकर वह बड़ी जोर से हँस पड़े। दोस्तों के होंठों पर भी मुस्कुराहट आ गयी, पर उनके दिल को उसी वक्त मालूम हुआ जैसे किसी ने बड़ी बेदर्दी के साथ मसल दिया हो। सुबह फाँसी पर चढ़ने वाला इस मस्ताने ढंग से हंसकर बातें कर रहा है, हंस रहा है, यह उसके लिये तो मुमकिन था पर उसके सच्चे दोस्तों के लिये उसका साथ देना बहुत मुश्किल था।" अशफ़ाक़ अपनी सजा के विरूद्ध माफी की प्रार्थना भी नहीं करना चाहते थे अपितु वे उन जुर्मों को भी स्वीकार कर रहे थे जो उन्होंने नहीं किए थे जिससे वे बिस्मिल जी को बचा सकते परन्तु ऐसा हो न सका। श्री अशफ़ाक़ से इसी विषय में जब कृपा शंकर हजेला जो उनके वकील थे पूछा कि 'ऐसा क्यों कर रहे हो।' तब श्री अशफ़ाक़ ने उत्तर दिया कि 'बिस्मिल हमारे नेता हैं हम उनकी बराबरी नहीं कर सकते। उनका जिन्दा रहना देश की भलाई के लिये बहुत जरूरी है। बिस्मिल हमसे ज्यादा दिलो दिमाग तथा हौसलारखते हैं। जब काकोरी केस के चारों फाँसी की सजा प्राप्त अभियुक्तों की सजा कम करने हेतु अपीलें की जा रहीं थी तब उसी दौरान श्री अशफ़ाक़ के बड़े भाई रियासत उल्ला खां श्री गणेश शंकर विद्यार्थी से कानपुर में मिले। विद्यार्थी जी उस समय अत्यधिक बीमार थे, श्री अशफ़ाक़ की सजा के विषय में सुनकर बेहद दुःखी हुए। विद्यार्थी जी ने श्री अशफ़ाक़ के बड़े भाई को सलाह दी कि वकील कृपा शंकर हजेला से सरकार को तार दिलवा दीजिये, प्रिवी कौंसिल में अपील करेंगे। विद्यार्थी जी ने अपने आदमी के माध्यम से 1200/- रूपये मुकदमे के खर्च के लिये श्री रियासत उल्ला खां के पास शाहजहाँपुर भिजवाये लेकिन श्री रियासत उल्ला खां मुकदमे की फ़ीस जमा कर चुके थे अतः उन्होंने विद्ध्यार्थी जी के रूपये वापिस भिजवाने के साथ-साथ उन्हें धन्यवाद दिया। श्री अशफ़ाक़ ने अपने वकील कृपा शंकर हजेला से कहा कि "हजेला साहब मैं चाहता हूँ कि फाँसी के दिन यानी 19 दिसम्बर 1927 की सुबह को आप जेल में फाँसी के वक्त मेरे सामने मौजूद हों और देखें कि अशफ़ाक़ किस जाँनिसारी से फाँसी के फन्दे को चूमता है।"
अशफ़ाक़ उल्ला खां ने फैजाबाद जेल की काल कोठरी से एक पत्र अपनी माँ के नाम 13 दिसम्बर को लिखा तथा 16 दिसम्बर को एक पत्र अपने साथी क्रान्तिकारी शचीन्द्र नाथ बख्शी की बड़ी बहन नलिनी को भी लिखा था। श्री अशफ़ाक़ उन्हें (नलिनी) को अपनी बहन मानते थे। नलिनी भी क्रान्तिकारी थीं। 'बनारस बम काण्ड में गिरफ्तार हुई थीं। वे बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के क्रान्तिकारियों के मध्य कड़ी का काम करती थीं। उन्होंने तीन वर्ष का कारावास भी भोगा था। "19 दिसम्बर, 1927 को प्रातः 6 बजे वे (अशफ़ाक़) फैज़ाबाद जेल में फाँसी घर की ओर चल दिये। सुंदर घुंघराले लम्बे बाल पीछे की ओर लटक रहे थे। साफ सुथरे कुर्ते के ऊपर 'कुरान शरीफ' का बस्ता लटक रहा था और जुबान से 'कुरान' की आयतें पढ़ी जा रही थीं। सीढ़ियाँ चढ़कर फांसी के फन्दे के पा पहुँचे। रस्सी को चूम कर उन्होंने कहा, "मेरे हाथ कभी इन्सानी खून से नहीं रंगे गए जो इल्जाम मेरे ऊपर लगाया है वह गलत है। मेरा इन्साफ खुदा के यहाँ होगा।" फन्दा ले में पढ़ा। श्री अशफ़ाक़ ने शेर पढ़ा -
तंग आकर हम भी उनके जुल्म से बेदाद से।
चल दिये सूये अदम जिंदाने - फैजाबाद से।।
फना है सबके लिये हम कुछ पे नहीं मौकूफ।
बका है एक फकत जात किब्रिया के लिये।।

इशारा हुआ। जल्लाद ने हत्था खींचा था। श्री अशफ़ाक़ का शरीर रस्सी में झूल गया।" बहुत मुश्किल से श्री अशफ़ाक़ का शरीर शाहजहाँपुर ले जाने की आज्ञा मिली। "ट्रेन से उनका शरीर फैजाबाद से शाहजहाँपुर लाया गया। लखनऊ स्टेशन पर गणेश शंकर विद्यार्थी जी सहित भारी जनसमूह ने डिब्बे में रखे उनके शव पर श्रद्धासुमन अर्पित किए और उनकी लाश को डिब्बे से उतार कर फोटो खिंचवाया गया। इसके बाद शाहजहाँपुर में उनके घर के सामने वाले मुहल्ले के बगीचे (अब अशफ़ाक़ नगर) में दफन कर दिए गए। हजारों अश्रुपूरित नेत्रों ने भारत माँ के उस बेटे को श्रद्धाँजलि दी जो हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश देकर मादरे वतन की आजादी की खातिर फाँसी के तख्ते पर झूल गया।" "श्री अशफ़ाक़ एक जिंदा दिल शायर थे। 'हसरत' के नाम से शायरी लिखते थे। उनकी कुछ चीज नीचे दे रहे हैं-
यूं ही लिखा था किसमत में चमन पैराये आलम ने,
कि फस्ले गुल में गुलशन छूट कर है कैद जिन्दा की।
तनहाइये गुर्बत से मायूस न हो 'हसरत'
कब तक खबर न लेंगे याराने वतन तेरी।
बर्जुमें आरजू पै जिस कदर चाहे सजा दे लें,
मुझे खुद ख्वाहिशे ताजीर है मुल्जिम हूँ इकरारी।
कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो यह है,
रखदे कोई जरा सी, खाके वतन कफन में।।
ऐ पुख्ताकार-उल्फत, हुशियार! डिग न जाना,
मेराज आशंका है इस दार औ, रसन में,
सैयाद जुल्म पेशा आया है जब से 'हसरत'
हैं बुलबुले कफस में जागो जगन चमन में।
न कोई इंग्लिश, न कोई जर्मन,
न कोई रशियन, न कोई तुर्की।
मिटाने वाले हैं अपने हिन्दी,
जो आज हमको मिटा रहे हैं।।
जिसे फना वह समझ रहे हैं,
बका का राज इसमें मजमिर।
नहीं मिटाने से मिट सकेंगे,
वह लाख हमको मिटा रहे हैं।
खामोश 'हसरत' खामोश 'हसरत'
अगर है जज्बा वतन का दिल में।
सजा को पहुचेंगे अपनी बेशक।
जो आज हमको सता रहे हैं।।
बुजदिलों ही को सदा मौत से डरते देखा,
गोकि सौ बार उन्हें रोज ही मरते देखा।
मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा।
तख्तये मौत पे भी खेल को करते देखा।
मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है।
हम सदा खेल ही समझा किये मारना क्या है।।
वतन हमेशा रहे शाद काम और आजाद।
हमारी क्या है अगर हम रहे, रहे न रहे।।

फाँसी के पहले उन्होंने देश के नाम यह सन्देश दिया था:-
'भारतमाता के रंग-मंच पर हम अपना पार्ट अदा कर चुके। गलत या सही हमने जो कुछ किया, आजादी हासिल करने की भावना से प्रेरित होकर किया। हमारे अपने हमारी निंदा करें या प्रशंसा, पर हमारे दुश्मनों तक को हमारे साहस और वीरताकी प्रशंसा करनी पड़ी है। लोग कहते हैं, हम मुल्क में आतंक फैलाना चाहते थे, यह गलत है। इतने लम्बे अर्से तक मुकदमा चला, हममें से बहुत से बहुत दिनों इस मौके पर आजाद रहे और आज भी कुछ आजाद है, फिर भी हमने या हमारे किसी साथी ने किसी, अपने नुकसान पहुँचाने वाले पर गोली नहीं चलाई। हमारा यह उद्देश्य नहीं था। हम तो आजादी हासिल करने के लिये मुल्क में क्रांति कराना चाहते थे।

"जजों ने हमें निर्दय, बर्बर, मानव कलंक आदि नामों से याद किया है। हमारे शासकों की कौम के जनरल डायर ने निहत्थों पर गोलियाँ चलायी थीं और चलायी थीं स्त्री, पुरूष, बच्चे और बूढ़ों तक पर। न्याय के इन ठेकेदारों ने अपने इन भाई-बन्दों को किन विशेषणों से सम्बोधित किया है? फिर हमारे ही साथ ऐसा सलूक क्यों?हिन्दुस्तानी भाईयों! आप चाहे जिस मजहब या फिरके के मानने वाले हों, मुल्क के काम में साथ दीजिये। व्यर्थ में आपस में न लड़िए। रास्ते चाहे अलग हों, पर लक्ष्य सबका एक है सब धर्म एक ही लक्ष्य की पूर्ति के साधन है। फिर यह व्यर्थ के टण्टे-झगड़े क्यों? एक होकर आप मुल्क की नौकरशाही का सामना कीजिये और अपने मुल्क को आजाद बनाइये। मुल्क के सात करोड़ मुसलमानों में मैं पहला मुसलमान हूँ जो मुल्क की आजादी के लिये फाँसी चढ़ रहा हूँ। यह सोचकर मुझे फक्र होता है अन्त में मेरा सबको सलाम! हिन्दोस्तान आजाद हो। मेरे भाई खुश रहे!" श्री अशफ़ाक़ की यही इच्छा थी कि सभी देशवासी हिन्दू-मुसलमान का भेदभाव त्यागकर श्री अशफ़ाक़ तथा पं. रामप्रसाद बिस्मिल की भांति अंग्रेजी साम्राज्य का सामना करें।

श्री अशफ़ाक़ की फांसी के पश्चात् उनके भाई ने उनकी कब्र कच्ची बनवा दी। विद्यार्थी जी के भेजे पैसों से उनके भाई ने कब्र पुख्ता कर दी परन्तु मकबरा अभी तक न बन सका। श्री अशफ़ाक़ के बड़े भाई स्व. रियासत उल्ला खाँ ने अपने जीवन काल में संस्मरण लिखा था उसमें श्री अशफ़ाक़ का मकबरा न बन पाने पर शोक तथा विद्यार्थी जी के सहयोग का वर्णन करते हुये लिखते हैं कि, विद्यार्थी जीे ने "मुझसे कहा कि कब्र कच्ची बनवा देना। हम पुख्ता करा देंगे और उनका मकबरा हम ऐसाबनावाऐंगे कि जिसका नजीर यू.पी. में न होगी। लेकिन अफसोस कि मकबरा बनाने से पेशतर वे खुद ही शहीद हो गये लेकिन मोहनलाल सक्सेना वकील के जरिए उन्होंने 200 रूपये भेजे थे जिससे मैंने कब्र पुख्ता करा दी। मकबरा उनका आज तक न बन सका।

एक महीने के बाद उनका खत मेरे पास आया कि आप राजा मोती चन्द बनारस के पास चले जाएँ, वह 100 रूपये महावार और खाना देंगे, आप उनकी हिफाजत जान की तरह करते रहें और कोई काम न होगा लेकिन अशफ़ाक़ को शहीद हुए कुछ ही दिन गुजरे थे, मेरी माता ने मुझको जाने न दिया। मैंने गणेश शंकर जी को लिखा कि अभी ताजा जख्म हैं, वालिदा रोकती हैं। विद्यार्थी जी ने मुझको जवाब दिया "अच्छा हम दूसरा इन्तजाम करेंगे और आप कतई परेशान न हो, हम आपके खानदान की मद्द करेंगे और ख्याल करेंगे।" श्री अशफ़ाक़ ने अपनी फाँसी से एक दिन पहले एक पत्र श्री गणेश शंकर विद्यार्थी को लिखा जिसमें उन्होंने कहा था कि 19 दिसम्बर को लखनऊ स्टेशन पर दो बजे आखिरी मुलाकात जरूर कीजियेगा और मेरे भाई तबाह व बर्बाद हो चुके हैं। मेरी क़ब्र पुख्ता बनाने का इंतजाम करें तथा मेरे परिवार का ख्याल रखें। विद्यार्थी जी ने अशफ़ाक़ की इच्छा पूरी की तथा जब तक जीवित रहे, श्री अशफ़ाक़ के भाईयों का ख्याल रखा। विद्यार्थी जी, बिस्मिल जी तथा श्री अशफ़ाक़ को बहुत चाहते थे तथा उन्होंने दोनों के ही परिवार की बहुत सहायता की।


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महिला सशक्तिकरण पर निबंध



सर्वप्रथम उठने वाला प्रश्न यही है, कि महिला सशक्तिकरण (Mahila Sashaktikaran) क्या है? महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से सशक्त बनाना तथा स्वनिर्भर बनाना सशक्तिकरण कहा जा सकता है। स्त्रियों के पास एक महान शक्ति सोई हुई पड़ी है। दुनिया की आधी से बड़ी ताकत उनके पास है। आधी से बड़ी इसलिए कि बच्चे-बच्चियाँ उनकी छाया में पलते हैं और वे जैसा चाहे बच्चों को परिवर्तित कर सकती हैं। पुरुषों के हाथ में कितनी ही ताकत क्यों न हो लेकिन पुरुष एक दिन स्त्री की गोद में होता है, वहीं से अपनी जिन्दगी की यात्रा शुरू करता है और चाहे जितना बड़ा हो जाये या वृद्ध ही क्यों न हो जाये, वह अपनी पत्नी के सानिध्य में, अपनी पत्नी की निकटता में निरंतर अपनी माँ का अनुभव करता है। निरंतर अपनी माँ की छाया देखता ही है। माँ बचपन से उसके जीवन में छाया बनी रहती है। एक बार स्त्री की पूरी शक्ति जाग्रत हो जाये और वे निर्णय कर लें कि किसी प्रेम को निर्मित करेगी, जहाँ युद्ध नहीं होंगे, जहाँ हिंसा नहीं होगी, जहाँ राजनीति नहीं होगी, जहाँ जीवन में बुराई रूपी कोई बीमारियाँ नहीं होगी। जहाँ प्रेम है, जहाँ भी करूणा है, जहाँ भी दया है, वहीं महिला मौजूद है। इसलिए कह सकते है कि महिला सशक्तिकरण होने से महिला का शोषण तो दूर की बात होगी, परंतु महिलाओं द्वारा नया साम्राज्य होगा जिसमें केवल प्रेम, दया एवं करूणा होगी।
सशक्तिकरण (Mahila Sashaktikaran)

महिलाएं पुरुषों से भिन्न हैं। उनका व्यक्तित्व, उनका शरीर, उनका मन, उनकी चेतना किन्हीं अलग रास्तों से जीवन में गति करती है, किन्हीं अलग मार्गों से जीवन की खोज करती है। उनकी चेतना उनकी जागरूकता, पुरुषों की चेतना से भिन्न है। इसलिए उनकी शिक्षा-दीक्षा उनके वस्त्र, उनके चिंतन, उनके विचार सब भिन्न होने चाहिए, पुरुष जैसे नहीं, तब हम नारी शक्ति का मनुष्य की संस्कृति में उपयोग कर सकते हैं और वह उपयोग अत्यन्त मंगलदायी सिद्ध हो सकता है। महिलाएं प्राचीन समय से ही ताकतवर थी, परन्तु मध्यकाल में पुरुषों ने स्त्री को अबला एवं पुरुष पर निर्भर रहने के लिए कुछ ऐसे कठोर नियम बनाये, जिससे वे सिमटकर स्वयं की शक्ति को नहीं पहचान पाई। पुरुषों को डर था कि कहीं स्त्री, पुरुष से अव्वल न हो जाये, क्योंकि पुरुष स्वाभिमान के वश स्त्री के आगे झुकना नहीं चाहता।
mahila sashaktikaran

हमारे देश में ज्यादातर औरतें आजाद नहीं है। चाहे समाज में उनकी अहमियत का मामला हो या पैसों का, इन सभी के लिये उन्हें आदमियों का मुंह देखना पड़ता है। इस संबंध में समाज भी उन्हें बहुत थोड़ी छूट देता है। ज्यादातर परिवारों में लड़कियाँ शादी से पहले अपने पिता या भाईयों की निगरानी में रहती है और शादी के बाद पति या ससुराल वालों की निगरानी में। बचपन से ही लड़कियों को आज्ञाकारी और घरेलू बनाना सिखाया जाता है। उन्हें जीवन के किसी भी पहलू पर फैसले लेने का अधिकार नहीं दिया जाता। उन्हें सिखाया जाता है कि उनका मुख्य काम परिवार के बाकी सदस्यों के आराम का ध्यान रखना है। कर्तव्य पालन करने वाली बेटी, प्यार देने वाली माँ, आज्ञाकारी बहू और वफादार दब्बू पत्नी के रूप में पुरुष देखना चाहता है। लड़की होने की वजह से उसके घूमने-फिरने, पढ़ाई-लिखाई और व्यवसाय सीखने के पर रोक लगाई जाती है, क्योंकि वह अपने खर्च के लायक पैसा न कमा ले या पैसे के मामले में आजाद न हो जाएं। इसीलिए बहुत सी औरतों को बाहर का काम नहीं करने दिया जाता। जो बाहर काम करती हैं, उन्हें दुगुने घंटे कार्य करना पड़ता है। पुरुष-स्त्रियों के काम साफ तौर पर बंटे होते है। औरतें पुरुष के बदले बाहर का काम, परिवार को चलाने एवं पालन-पोषण में मदद या जिम्मेदारी के उद्देश्य से कर सकती है। परन्तु पुरुष घर के काम करने में अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। हर क्षेत्र में महिलाओं को सशक्त होना अत्यन्त आवश्यक है। किसी फैक्टरियों, कम्पनी या खेतों में एक जैसे काम के लिये महिलाओं को पुरुष से कम वेतन दिया जाता है। महिलाओं को सार्वजनिक कार्यों में सक्रिय रूप से भाग लेने में उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। एक पुरुष की तुलना में उन्हें दोगुनी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती है। यहाँ तक ऐसी महिलाओं को भी जो पुरुषों की तुलना में दुगुनी सक्षम और योग्य होती है। संसद, राज्य, विधायिका तथा मंत्रालयों में महिलाओं का कम होना ठीक नहीं लगता है। यह इसलिए भी असमर्थनीय है कि वर्ष 1992 में 73वें एवं 74वें संवैधानिक संशोधन के बाद महिलाओं ने पंचायतों और स्थानीय शासी-निकायों में आरक्षित सीटो पर उत्कृष्ट काम किया है।
महिला सशक्तिकरण के अनेक अन्य आयाम भी हैं, जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी देखभाल तथा रोजगार में आने वाली समस्याओं को दूर करना आदि। उसके साथ प्रेम तथा सार्वजनिक क्षेत्र में आदर एवं गरिमापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए। हमारी माँ-बहनें बिना किसी प्रकार के भय या आशंका के कभी भी और कहीं भी आने-जाने के लिए सुरक्षित महसूस कर सके। महिलाओं को निश्चित रूप से सुरक्षा का मूल मान दण्ड जीवन जीने का अधिकार है। हालांकि केवल कानून व सरकारी विनिमयों से ही इन सामाजिक कमियों को दूर नहीं किया जा सकता। हमें समुचित जन-शिक्षा द्वारा समर्थन प्राप्त कर सुदृढ़ एवं अनवरत सामाजिक स्तर पर कार्यवाही की आवश्यकता है। महिला सशक्तिकरण के बारे में समाज के विभिन्न वर्गों, व्यवसायों एवं आर्थिक स्तर से जुड़े व्यक्तियों (पुरुष एवं महिला दोनों) की नजर में अलग-अलग मायने और दृष्टिकोण है। एक ओर जहाँ यह महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता या आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता होना है, तो दूसरे रूप में पुरुषों के समान स्थिति को प्राप्त करना है। समाज की एक सोच के अनुसार पूरी तरह पश्चातता अथवा आधुनिकता को अपनाना ही सशक्तिकरण है, उपरोक्त सशक्तिकरण के कतिपय पहलू मात्र हैं। संपूर्ण एवं समग्र सशक्तिकरण वह स्थिति है, जब महिलाओं के व्यक्तित्व का विकास, शिक्षा प्राप्ति, समग्र सशक्तिकरण व्यवसाय परिवार, तथा परिवार में निर्णय का समान अवसर मिले, जब वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो, शारीरिक व भावनात्मक रूप से सुरक्षित महसूस करें तथा तमाम रूढ़िवादी व अप्रासंगिक रिवाजों, रूढ़िवादी बंधनों से पूरी तरह स्वतंत्र हो।
21वीं सदी में कदम रखने वाली भारतीय समाज की महिलाओं को आज भी वह दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है जो उसे पहले मिल जाना चाहिए था। वधु-दहन आज भी निर्भरता पूर्वक होता है। दहेज प्रथा से आज भी कई बहुओं का शोषण हो रहा है। तलाक तो आज आम बात हो गयी है, जो नारी के लिये तो कलंक के समान है और पुरुष के लिए आजादी। कन्या जन्म बुरा माना जाता है। सोनोग्राफी द्वारा पता लगाकर यदि कन्या भ्रूण है तो उसकी हत्या करवा दी जाती है। अथवा कन्या को जन्म होने के पश्चात कहीं झाड़ी के नीचे या कचरे के डिब्बे में मरने के लिये छोड़ दिया जाता है। प्रतिवर्ष ढाई से तीन लाख कन्या भ्रूण की हत्या करवा दी जाती है। समाज का बड़ा तबका आज भी कन्या शिक्षा को अच्छा नहीं मानता। ऐसे अमानवीय पतनशील समाज में स्त्री फिर भी जीवित है, यह क्या आश्चर्य से कम है। यदि महिलाएं बौद्धिक और आर्थिक रूप से सशक्त होगी तो वे प्रत्येक क्षेत्र में उचित निर्णय करने में सफल हो पायेगी।


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