हठयोग (Hatha Yoga) के बारे में लोगों की धारणा है कि हठ शब्द के हठ् + अच् प्रत्यय के साथ प्रचण्डता या बल अर्थ में प्रयुक्त होता है। हठेन या हठात् क्रिया विशेषण के रूप में प्रयुक्त करने पर इसका अर्थ बलपूर्वक या प्रचंडता पूर्वक अचानक या दुराग्रह पूर्वक अर्थ में लिया जाता है । हठ विद्या स्त्रीलिंग अर्थ में बल पूर्वक मनन करने के विज्ञान के अर्थ में ग्रहण किया जाता है । इस प्रकार सामान्यतः लोग हठयोग को एक ऐसे योग के रूप में जानते हैं जिसमें हठ पूर्वक कुछ शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को किया जाता है । इसी कारण सामान्य शरीर शोधन की प्रक्रियाओं से हटकर की जाने वाली शरीर शोधन की षट् क्रियाओं (नेति, धौति, कुंजल वस्ति, नौलि, त्राटक, कपालभाति) को हठयोग मान लिया जाता है। जबकि ऐसा नहीं है, षट्कर्म तो केवल शरीर शोधन के साधन है वास्तव में हठयोग तो शरीर एवं मन के संतुलन द्वारा राजयोग प्राप्त करने का पूर्व सोपान के रूप में विस्तृत योग विज्ञान की चार शाखाओं में से एक शाखा है।
साधना के क्षेत्र में हठयोग शब्द का यह अर्थ बीज वर्ण ‘‘ह‘‘ और ‘‘ठ‘‘ को मिलाकर बनाया हुआ शब्द के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है । जिसमें ह या हं तथा ठ या ठं (ज्ञ) के अनेको अर्थ किये जाते हैं उदाहराणार्थ ह से पिंगला नाड़ी दहिनी नासिका (सूर्य स्वर) तथा ठ से इड़ा नाडी बाॅंयी नासिका (चन्द्रस्वर) इड़ा ऋणात्मक (-) उर्जा शक्ति एवं पिगंला धनात्मक (+) उर्जा शक्ति का संतुलन एवं इत्यादि इत्यादि। इन दोनों नासिकाओं के योग या समानता से चलने वाले स्वर या मध्यस्वर या सुषुम्ना नाड़ी में चल रहे प्राण के अर्थ में लिया जाता है । इस प्रकार ह और ठ का योग प्राणों के आयाम से अर्थ रखता है । इस प्रकार की प्राणायाम प्रक्रिया ही ह और ठ का योग अर्थात हठयोग है, जो कि सम्पूर्ण शरीर की जड़ता को सप्रयास दूर करता है प्राण की अधिकता नाड़ी चक्रों को सबल एवंचैतन्य युक्त बनाती है ओर व्यक्ति विभिन्न शारीरिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों का विकास करता है। स्थूल रूप से हठ योग अथवा प्राणायाम क्रिया तीन भागों में पूरी की जाती है -
(1) रेचक - अर्थात श्वास को सप्रयास बाहर छोड़ना ।
(2) पूरक - अर्थात श्वास को सप्रयास अन्दर खींचना।
(3) कुम्भक - अर्थात श्वास को सप्रयास रोके रखना कुम्भक दो प्रकार से संभव है - (1) बर्हि कुम्भक - अर्थात श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना तथा (2) अन्तःकुम्भक - अर्थात श्वास को अन्दर खींचकर श्वास को अन्दर ही रोके रखना।
इस प्रकार सप्रयास प्राणों को अपने नियंत्रण से गति देना हठयोग है। यह हठयोग राजयोग की सिद्धि के लिए आधारभूमि बनाता है। अतः यहाॅं स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि बिना हठयोग की साधना के राजयोग (समाधि) की प्राप्ति बड़ा कठिन कार्य है। अतः हठयोग की साधना सिद्ध होने पर राजयोग की ओर आगे बढ़ने में सहजता होती है।
साधना के क्षेत्र में हठयोग शब्द का यह अर्थ बीज वर्ण ‘‘ह‘‘ और ‘‘ठ‘‘ को मिलाकर बनाया हुआ शब्द के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है । जिसमें ह या हं तथा ठ या ठं (ज्ञ) के अनेको अर्थ किये जाते हैं उदाहराणार्थ ह से पिंगला नाड़ी दहिनी नासिका (सूर्य स्वर) तथा ठ से इड़ा नाडी बाॅंयी नासिका (चन्द्रस्वर) इड़ा ऋणात्मक (-) उर्जा शक्ति एवं पिगंला धनात्मक (+) उर्जा शक्ति का संतुलन एवं इत्यादि इत्यादि। इन दोनों नासिकाओं के योग या समानता से चलने वाले स्वर या मध्यस्वर या सुषुम्ना नाड़ी में चल रहे प्राण के अर्थ में लिया जाता है । इस प्रकार ह और ठ का योग प्राणों के आयाम से अर्थ रखता है । इस प्रकार की प्राणायाम प्रक्रिया ही ह और ठ का योग अर्थात हठयोग है, जो कि सम्पूर्ण शरीर की जड़ता को सप्रयास दूर करता है प्राण की अधिकता नाड़ी चक्रों को सबल एवंचैतन्य युक्त बनाती है ओर व्यक्ति विभिन्न शारीरिक, बौद्धिक एवं आत्मिक शक्तियों का विकास करता है। स्थूल रूप से हठ योग अथवा प्राणायाम क्रिया तीन भागों में पूरी की जाती है -
(1) रेचक - अर्थात श्वास को सप्रयास बाहर छोड़ना ।
(2) पूरक - अर्थात श्वास को सप्रयास अन्दर खींचना।
(3) कुम्भक - अर्थात श्वास को सप्रयास रोके रखना कुम्भक दो प्रकार से संभव है - (1) बर्हि कुम्भक - अर्थात श्वास को बाहर निकालकर बाहर ही रोके रखना तथा (2) अन्तःकुम्भक - अर्थात श्वास को अन्दर खींचकर श्वास को अन्दर ही रोके रखना।
इस प्रकार सप्रयास प्राणों को अपने नियंत्रण से गति देना हठयोग है। यह हठयोग राजयोग की सिद्धि के लिए आधारभूमि बनाता है। अतः यहाॅं स्पष्ट तौर पर समझ लेना चाहिए कि बिना हठयोग की साधना के राजयोग (समाधि) की प्राप्ति बड़ा कठिन कार्य है। अतः हठयोग की साधना सिद्ध होने पर राजयोग की ओर आगे बढ़ने में सहजता होती है।
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