राष्ट्रवादी ओजस्वी वक्ता पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ



 Pushpendra Kulshrestha
Pushpendra Kulshrestha

आज इंटरनेट की वायरल दुनिया में पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ किसी परिचय का मोहताज नहीं है। हर किसी राष्ट्रवादी के मोबाइल में व्हाट्सएप, फेसबुक और यूट्यूब में पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ जी के ओजस्वी वाणी की गूंज सुनाई पड़ती है। आज समय में युवा के प्रेरणास्रोत रूप में पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ विद्यमान है। उनके ओजस्वी भाषण आज नयी पीढ़ी में भारतीयता के प्रति आस्था को जागृत कर रही है। पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ का जन्म 2 दिसंबर 1960 उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में हुआ था। उन्होंने भारत के उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में मिंटो सर्किल हाई स्कूल (आधिकारिक तौर पर सैयदना ताहिर सैफुद्दीन स्कूल) से स्कूली शिक्षा पूरी की। उन्होंने भारत के उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में स्नातक की पढ़ाई पूरी की। उनकी परवरिश अलीगढ़ में हुई जहां अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी छांव में किसी अन्य मजहब का उन्नयन सम्भव ही नहीं था। शायद यही कारण है कि अपने देश और धर्म के प्रति इनके विचारों में ओजस्विता समय के साथ बढ़ती गई और आज उसी कट्टरता के विरोध में विस्फोट कर रही है।

Pushpendra Kulshrestha Biography in Hindi


पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ जी पेशे के पत्रकार है और इन्‍होने पाकिस्तान के कराची में स्थित एएजे न्यूज़ के साथ काम किया है। इसके साथ ही साथ उन्होंने सहारा न्यूज़, बीबीसी वर्ल्ड, ज़ी न्यूज़ आदि सहित कई अन्य चैनलों के साथ काम किया है। उन्होंने तीन बार प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया के महासचिव के रूप में कार्य किया है। जैसा कि हम जानते हैं भारत में कांग्रेसी विचारधारा और वामपंथियों का वर्चस्व मीडिया के क्षेत्र में अधिक है। ऐसे में पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ राष्ट्रवादी विचारधारा के होते हुए कार्य कर रहे थे। उन्होंने अपनी सेवाएं सुचारू रूप से लगभग चार वर्ष दिया। उसके पश्चात उन पर गलत आरोप लगाते हुए प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया से बरखास्त कर दिया गया। पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ पर धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया था तथा उनके ऊपर प्रमुख तीन धाराओं 420, 406 और 120 बी में केस दर्ज कराया गया। जांच प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के पांच सदस्यों ने किया। पुलिस और अन्य ब्यूरो एजेंसियों ने भी किया, किंतु कोई भी अपराध पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ पर साबित नहीं हो सके। यह केवल उनके छवि पर दाग लगाने का प्रयास मात्र था।

Pushpendra Kulshrestha

पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ निश्चित रूप से एक प्रखर वक्ता है। यह गुण उनमें जीवन के आरंभिक शिक्षा से ही ग्रहण किया था। जब उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई की , उस समय उन्हें कई मंच प्राप्त हो चुके थे। जिसके माध्यम से उनमें प्रखर वक्ता के गुण आने लगे। पत्रकारिता के क्षेत्र में जब उन्होंने अपने कदम जमा लिए तब वह निश्चित रूप से एक गुण शील प्रखर वक्ता के रूप में प्रसिद्ध हुए। उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना अहम योगदान दिया। इस कार्य के क्षेत्र में उन्हें अनेकों-अनेक मंचों पर अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित किया गया। विभिन्न कार्यक्रमों में वह मुख्य अतिथि के रूप में सम्मानित हुए। उनके विचारों शब्दों को सुनने के लिए पत्रकार जगत के लोग तथा युवा विशेष रूप से उत्सुक रहते थे। पत्रकारिता के बाद उन्होंने स्वतंत्र रूप से लोगों के साथ सीधा संवाद किए। वे पाकिस्तान के एएजे न्यूज में कार्यकारी संपादक और भारत के प्रमुख थे। उन्होंने सहारा न्यूज, बीबीसी वर्ल्ड और ज़ी न्यूज़ के साथ विभिन्न पदों पर काम किया है। उन्होंने 2017 में इस्तीफा दे दिया। वह पब्लिक 24 ×7 नामक YouTube चैनल के चला रहे हैं जिसके माध्‍यम से वह भारतीयों और विशेष रूप से कश्मीरी हिंदूओं की बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं। वह कश्मीर संघर्ष, कश्मीर घाटी में कश्मीरी हिंदुओं के पुनर्वास, इस्लामी चरमपंथ और इस्लामी आतंकवाद जैसे विवादास्पद मुद्दों पर कुशल बौद्धिक वक्ता हैं।

Pushpendra Kulshrestha
पुष्पेंद्र ने अपने दो अन्य मित्रों के साथ एक नागरिक संगठन वी द सिटीजन गठन किया। उन्होंने एनजीओ वी द सिटिजन्स के अध्यक्ष संदीप कुलकर्णी के साथ भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की, जिसमें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35 ए और अनुच्छेद 370 की वैधता और दोनों अनुच्छेद को रद्द करने के सवाल उठाया गया था। जम्मू-कश्मीर के लिए विशेष रूप से बने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35ए और 370 से भारत के लोग अनभिज्ञ थे और पिछले 70 वर्षों से, अमानवीय कानूनों के इस अवैध हिस्से के कारण क्षेत्र के विकास और एकीकरण में बाधा आ रही थी। पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ के प्रयासों कश्मीर में अनुच्छेद 35ए और 370 के नाम पर क्रूरता और अनैतिक कानून को समझने के लिए भारतीय समाज में जन जागरूकता पैदा की। जब लोगों ने भारत सरकार से चर्चा और विरोध करना शुरू किया तो देश में इसे कानूनन लड़ने की हिम्मत मिली। मोदी और अमित शाह भले ही इस धारा को खत्म किया हों किन्तु इसका श्रेय पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ और उनकी टीम को मिलना चाहिए।

पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ सम्पूर्ण जीवनी
Pushpendra Kulshrestha Biography in Hindi



Share:

गंगा दशहरा का महत्व और पूजन की विधि



गंगा भारत की सबसे पवित्र नदी है, यह उत्तराखंड राज्य के गंगोत्री नामक स्थान से निकलते हुए गढ़मुकेश्वर, हरिद्वार, ऋषिकेश, कानपुर, प्रयागराज, वाराणसी, पटना सहित विभिन्न नगरों से निकलते हुए गंगासागर नामक तीर्थ स्थान पर समुद्र से मिल जाती है कई महत्वपूर्ण स्थानों से होकर गुजरती है। हिन्दू धर्म में इसे अत्यंत पवित्र माना जाता है और मां का स्थान प्राप्त है। मान्यता है कि राजा भगीरथ के पूर्वजों को श्राप मिला था, जिसकी वजह से उन्होंने गंगा को धरती पर लाने के लिए घोर तप किया। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर माता गंगा ने उन्हें दर्शन दिए। राजा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न ने कहा मां गंगा ने कहा कि जिस समय मैं पृथ्वीतल पर गिरूं, उस समय मेरे वेग को कोई संभालने वाला होना चाहिए। ऐसा न होने पर पृथ्वी को फोड़कर मैं रसातल में चली जाऊंगी। इसके बाद भगीरथ ने भगवान शिव की तपस्या की। भगवान शिव प्रसन्न होकर गंगाजी को अपनी जटाओं में रोकने के लिए तैयार हो जाते हैं। गंगा को अपनी जटाओं में रोककर एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड़ देते हैं। इस प्रकार गंगा के जल से भगीरथ अपने पूर्वजों को मुक्ति दिलाने में सफल हो जाते हैं। पृथ्वी पर आने से पहले, मां गंगा भगवान ब्रह्मा के कमंडल में रहती थीं। मान्यता है कि इस दिन गंगा में स्नान करने से मनुष्य के सभी पाप धुल जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगा का जल पुण्य देता है और पापों का नाश करता है।
ganga-dussehra-celebration
प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा दशहरा मनाया जाता है, इस लिए इसे जेठ का दशहरा भी कहा जाता है। स्कंदपुराण के अनुसार, गंगा दशहरे के दिन व्यक्ति को निकट की किसी भी पवित्र नदी में स्नान करना चाहिए। इस दिन ध्यान व दान करना चाहिए। इससे सभी पापों से मुक्ति मिलती है। यह मान्यता है कि ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हस्त नक्षत्र में भागीरथी की तपस्या के फलस्वरूप स्वर्ग से गंगा का धरती पर आगमन हुआ था। इसे हम गंगावतरण के नाम से भी जानते हैं। यह तिथि उनके नाम पर गंगा दशहरा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस दिन गंगा में स्नान, अन्न-वस्त्रादि का दान, जप-तप-उपासना और उपवास किया जाय तो समस्त पाप दूर होते हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि भगवान विष्णु के चरणों से निकली और शिव की जटाओं में लिपटी गंगा के जल में डुबकी लगाने से मनुष्य को विष्णु और शिव का आशीर्वाद एक साथ प्राप्त होता है। इस दिन सत्तू, मटका और हाथ का पंखा दान करने से दोगुना फल प्राप्त होता है। गंगा दशहरा के दिन सभी गंगा मंदिरों में भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। मोक्षदायिनी मां गंगा की पूजा-अर्चना की जाती है। गंगा दशहरे के दिन श्रद्धालु जिस भी वस्तु का दान करें उनकी संख्या दस होनी चाहिए। दस वस्तुओं से ही पूजन भी करना चाहिए। गंगा ध्यान एवं स्नान से प्राणी दस प्रकार के दोषों- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर, ईर्ष्या, ब्रह्महत्या, छल, कपट, परनिंदा जैसे पापों से मुक्त हो जाता है। इतना ही नहीं अवैध संबंध, अकारण जीवों को कष्ट पहुंचाने, असत्य बोलने व धोखा देने से जो पाप लगता है, वह पाप भी गंगा 'दसहरा' के दिन गंगा स्नान से धुल जाता है।


गंगा पूजन की विधि
गंगा दशहरा के दिन गंगा तटवर्ती प्रदेश में अथवा सामर्थ्य न हो तो समीप के किसी भी जलाशय या घर के शुद्ध जल से स्नान करके सुवर्णादि के पात्र में त्रिनेत्र, चतुर्भुज, सर्वावयवभूषित, रत्नकुम्भधारिणी, श्वेत वस्त्रादि से सुशोभित तथा वर और अभयमुद्रा से युक्त श्रीगंगा जी की प्रशान्त मूर्ति अंकित करें। अथवा किसी साक्षात् मूर्ति के समीप बैठ जाएं। फिर 'ऊँ नमः शिवायै नारायण्यै दशहरायै गंगायै नमः' से आवाहनादि षोडषोपचार पूजन करें। इसके उपरान्त 'ऊँ नमः शिवायै नारायण्यै दशहरायै गंगायै स्वाहा' से हवन करें। तत्पश्चात 'ऊँ नमो भगवति ऐं ह्रीं श्रीं (वाक्-काम-मायामयि) हिलि हिलि मिलि मिलि गंगे मां पावय पावय स्वाहा।' इस मंत्र से पांच पुष्पाञ्जलि अर्पण करके गंगा को भूतल पर लाने वाले भगीरथ का और जहाँ से वे आयी हैं, उस हिमालय का नाम- मंत्र से पूजन करें। फिर 10 फल, 10 दीपक और 10 सेर तिल- इनका 'गंगायै नमः' कहकर दान करें। साथ ही घी मिले हुए सत्तू और गुड़ के पिण्ड जल में डालें। सामर्थ्य हो तो कच्छप, मत्स्य और मण्डूकादि भी पूजन करके जल में डाल दें। इसके अतिरिक्त 10 सेर तिल, 10 सेर जौ, 10 सेर गेहूँ 10 ब्राह्मण को दें। इतना करने से सब प्रकार के पाप समूल नष्ट हो जाते हैं और दुर्लभ-सम्पत्ति प्राप्त होती है।

जेठ/गंगा दशहरा स्नान कब है - 1 जून 2020
गंगा दशहरा कब मनाया जाता है - प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा दशहरा मनाया जाता है।


Share:

नारियल का दूध



आज विश्व में दूध का प्रचलन इतना अधिक बढ़ गया है कि लोग गाय, भैंस, बकरी, भेड़ यहां तक कि पैकेट बंद सिंथेटिक दूध का प्रयोग अधिक से अधिक करने लगे हैं जहां आज शरीर में बीमारियां पैदा करने के लिए यह दूध काफी हद तक जिम्मेदार है, वहीं नारियल का दूध ना केवल सेहत के लिए अच्छा है बल्कि स्वाद में भी दूध से कहीं बेहतर है। नारियल की अपनी कहानी है। जब यह पहले-पहल अमेरिका पहुंचा, तो उसके रेशेदार और फिर कठोर आवरण को देखकर लोगों ने मान लिया कि यह बेकार फल है। अमेरिका में जिन दिनों यह उपेक्षा की दृष्टि से देखा जा रहा था, उन्हीं दिनों हवाई द्वीप में माताएं नारियल का दूध अपने स्वस्थ बच्चों को पिला रहीं थी।

नारियल के दूध को मां के दूध जितना फायदेमंद होता है। मां के दूध को सर्वाधि‍क पोषक माना गया है लेकिन इसके बाद नारियल के दूध को दुनिया के सर्वाधिक फायदेमंद पेय के रूप में स्वीकार किया गया है। नारियल के दूध का इस्तेमाल खाना पकाने में भी किया जाता है। मलेशिया, थाईलैंड, श्रीलंका और वियतनाम जैसे देशों में शिशु को मां का दूध न मिल पाने की स्थिति में गाय के दूध की जगह नारियल का दूध दिया जाता है। सीडीबी अब नारियल के दूध को प्राकृतिक स्वास्थ्य पेय के रूप में पेश करने की तैयारी कर रहा है। पके हुए नारियल के गूदे से नारियल का दूध बनाया जाता है। कई देशो में इसे नारियल का दूध कहते हैं, जबकि कई अन्य देशों में इसे नारियल रस भी कहा जाता है।

अब विश्व भर के पोषण विज्ञानी यह स्वीकार करने लगे हैं कि नारियल का दूध पोषण की दृष्टि से पूर्ण आहार है। उसकी समानता में बहुत कम चीजें ठहर पाती हैं। इसके साथ ही, लोग यह भी मानने लगे हैं कि पेट के अल्सर, कब्ज, कोलाइटिस और कमजोर पाचन-शक्ति वालों के लिए यह बड़ा ही हितकारी है। प्राœतिक आहारों में ऐसे बहुत कम आहार मिलेंगे जिनमें इतना विटामिन बी-1 होता, जितना नारियल के दूध में होता है। यह सभी जानते हैं कि पाचन-क्रिया की स्वस्थ यांत्रिकता में इस विटामिन का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। जहां-जहां भी नारियल होता है, वहां के मूलवासियों के लिए यह एक अनिवार्य आहार माना जाता है। लोग इसे सर्वरोगहारी फल मानते हैं।

यौवन बनाये रखने की आकांक्षा रखने वालों के लिए यह एक बड़े महत्व की बात है कि नारियल का दूध विटामिन-ए का बहुत अच्छा स्रोत है। रसायन विज्ञान वेत्ताओं की मान्यता है कि नारियल और नारियल के दूध के आहार से आदमी पूरी तरह स्वस्थ हो सकता है परन्तु, सभ्यता ने हमारे जीवन में जो गुत्थियां उत्पन्न कर दी हैं, उनके कारण सभ्य कहे जाने वाले लोगों के लिए यह शक्य नहीं हैं कि वे मात्र नारियल अथवा उसके उत्पादों पर रह जायें, पर उष्ण कटि बंधीय प्रदेशों के निवासियों के लिए नारियल का आहार एक स्वाभाविक आहार है।

प्रायः सभी आवश्यक खनिज लवण, कैल्शियम, फोस्फोरस, सोडियम, क्लोरीन, आयोडीन, सल्फर इसमें उपलब्ध हैं। खनिज लवणों के साथ ही विटामिनों की दृष्टि से भी यह फल किसी से कम नहीं है। पेड़ का पका नारियल धूप के सम्पर्क के कारण भी एक स्वास्थ्यदायक आहार हो जाता है। उष्ण कटिबंध की कड़ी धूप इतने कठोर आवरण के बावजूद, इसके ॉदय तक प्रविष्ट हो जाती है और गूदे को स्वास्थ्य के लिए हितकारी बनाती है। नारियल के दूध ने अनेक शोधकर्ताओं का ध्यान अपनी ओर आœष्ट किया है। उनके विश्लेषण से यह बात ज्ञात हुई है कि नारियल के दूध में 5 प्रतिशत पानी होता है और 25 प्रतिशत चिकनाई। इसके अतिरिक्त इसमें 19 प्रतिशत कार्बोहाइडेट तथा 4 प्रतिशत प्रोटीन होता है। यहां ध्यान देने लायक यह बात है कि नारियल के दूध में प्रोटीन और कोर्बोहाइड्रेट भले ही कम हो, पर खनिज लवणों की मात्रा बहुत अधिक होती है।

नारियल के दूध में अपेक्षाकृत कम प्रोटीन होने और स्वास्थ्यदायक खनिज लवणों के आधिक्य के कारण अधिक प्रोटीन से होने वाले नुकसानों का डर नहीं होता। इस दूध में महत्वपूर्ण एमिनो-एसिड भी होते हैं। अन्य खनिज लवणों के अतिरिक्त नारियल में कैल्शियम और फोस्फोरस की अधिक मात्रा होती है। कैल्शियम का दांतों, हड्डियों और मांसपेशियों को सशक्त करने में बड़ा महत्व पूर्ण योगदान होता है। यह रक्त के गाढ़ेपन के लिए भी उत्तरदायी होता है। पर, शरीर इसे तभी आत्मसात् कर पाता है, जब इसे पर्याप्त फोस्फोरस का सहयोग मिले। जो स्वास्थ्याकांक्षी स्वास्थ्य की दृष्टि से कैल्शियम बहुल आहार लेते हैं, उनको जान लेना चाहिये कि पर्याप्त मात्रा में फोस्फोरस के अभाव में उनका प्रयास निष्फल ही होने वाला है। यह एक महत्वपूर्ण बात है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिये। पर्याप्त मात्रा में नारियल का दूध पीने वाला बबुद्धिमान आदमी इस बात पर परम आश्वस्त होता है कि उसे कैल्शियम और फोस्फोरस का संयोग परम सुस्वादु रूप में मिल रहा है। पशुजन्य दूध से होने वाले नुकसान जैसे कफ विकार, यूरिक एसिड, कोलेस्ट्रोल तथा दूध से होने वाली एलर्जी आदि का खतरा नारियल के दूध में नहीं है। इसके दूध के खट्टा होने की कोई आशंका नहीं रहती। अतः यह अपेक्षाकृत अधिक समय तक ताजा बना रहता है। 

नारियल दूध कैसे बनाएं?
 पानी वाला कच्चा नारियल तोड़कर इसकी गिरी निकाल लें। इसके छोटे-छोटे टुकड़े करके पानी के साथ मिक्सी में चला ले। चलनी में छान लें। नारियल दूध तैयार है। चिकनाई एवं गाढ़े पतले के हिसाब से पानी की मात्रा डालें। इस दूध को मीठा करने के लिए भीगे हुए खजूर का प्रयोग करें। इस दूध की खीर बनाने के लिए पानी की मात्रा कम रखकर नारियल का दूध बनाएं इसमें फल एवं मेवा डालकर खीर तैयार करें। बच्चों के लिए इसी दूध में केला, आम, पपीता, चीकू आदि फल डालकर बेहतरीन शेक तैयार किया जा सकता है। नारियल का जल भी शीतल, स्वादिष्ट, ह्रदय के लिए हितकर, अग्निदीपक, शुक्रजनक, लघु अत्यंत वस्तिशोधक एवं प्यास तथा पित्त को शांत करने वाला होता है।

नारियल के दूध के त्वचा संबंधी फ़ायदे
  1. जब बात सनबर्न को ठंडक पहुंचाने की हो तो नारियल का दूध एक अच्छा नैसर्गिक विकल्प हो सकता है। यह त्वचा को ठंडक का एहसास कराता है और साथ ही यह त्वचा पर काफ़ी सौम्य होता है। ताज़ा तैयार किए गए नारियल के दूध में कॉटन पैड डुबोएं और इसे प्रभावित हिस्से पर लगाएं।
  2. नारियल का दूध त्वचा को गहराई से मॉइस्चराइज़ करता है और शुष्क त्वचा से छुटकारा दिलाता है। नारियल का ताज़ा दूध निकालें और कॉटन पैड्स की मदद से इसे अपने पूरे चेहरे पर लगाएं। चेहरा धोने से पहले इसे कई बार लगाने की कोशिश करें, क्योंकि यह बहुत जल्दी सूख जाता है। एक कप नारियल दूध में, आधा कप गुलाब जल मिलाएं और इसे अपने नहाने के पानी में मिलाएं। यह निश्चित तौर पर आपकी त्वचा के खोए हुए मॉइस्चर को वापस लौटाएगा।
  3. नारियल का दूध हर तरह की त्वचा के लिए नॉन-ड्राइंग मेकअप रिमूवर बन सकता है। कॉटन बॉल को ताज़ा नारियल दूध में डुबोकर हल्के हाथों से मेकअप निकालें। दूध में मौजूद फ़ैटी एसिड्स ज़िद्दी से ज़िद्दी मेकअप के निशानों को हटाएंगे और त्वचा को पोषित करेंगे।
  4. नारियल के दूध में बड़े पैमाने पर विटामिन सी और ई होता है, जो त्वचा के लचीलेपन को बनाए रख सकता है। नारियल के दूध से चेहरे पर मसाज करने से त्वचा मुलायम बनती है और झुर्रियों से छुटकारा मिलता है।
  5. संवेदनशील से लेकर ऑयली त्वचा तक नारियल का दूध हर तरह की त्वचा के लिए उपयुक्त है। अपने मॉइस्चराइज़िंग और ठंडक देनेवाले गुणों की वजह से यह शुष्क त्वचा और एक्ज़िमा, सोराइसिस जैसी समस्याओं से भी छुटकारा पाने में मदद करता है।
  6. नारियल के दूध में मौजूद ऐसे कई सारे पोष्टिक आहार होते हैं जो बालों को पोषण देते हैं। बालों को धोने से पहले 20- 30 मिनट तक अच्छे से मालिश करें।
  7. समय-समय पर नारियल के दूध को बालों में लगाने से पोषण वापस आ सकता है। इसके साथ ही एंटी- इंफ्लामेट्री खूबी होने के कारण रूसी से भी राहत मिलती है। नारियल का दूध त्वचा को पोषण देता है।
  8. यह एंटीऑक्सीडेंट जैसे कि विटामिन सी और मिनरल्स जैसे कि कॉपर से भरपूर है, नारियल के दूध से मालिश करने से त्वचा में खिंचाव बना रहता है और फ्री रेडिकल से भी त्वचा का बचाव रहता है। चेहरे पर नारियल के दूध की कुछ बूंदों को फेस मास्क 15 मिनट तक लगाएं। ऐसा हफ्ते में 2 से 3 बार करें और आपको अपनी त्वचा में फर्क अपने आप नज़र आ जाएगा।
  9. रोजाना लेकिन नियमित रूप से नारियल के दूध का सेवन करने से कोलेस्टॉल कंट्रोल में रहता है। इसका सेवन करने से खराब कोलेस्टॉल की मात्रा कम रहती है और अच्छे कोलेस्टॉल का लेवल बढ़ जाता है। सही मात्रा में नारियल के दूध का सेवन करने से आपके लिपिड लेवल पर कोई बुरा असर नहीं पड़ता है।


Share:

योगाभ्यास के लिए सामान्य दिशा निर्देश




yogabhyas ke liye samanya dishanirdesh

योगाभ्यास करते समय योग के अभ्यासी को नीचे दिए गए दिशा निर्देशों एवं सिद्धांतों का पालन अवश्य करना चाहिए:
अभ्यास से पूर्व

  1. शौच - शौच का अर्थ है शोधन, यह योग अभ्यास के लिए एक महत्वपूर्ण एवं पूर्व अपेक्षित क्रिया है। इसके अन्तर्गत आसपास का वातावरण, शरीर एवं मन की शुद्धि की जाती है।
  2. योग अभ्यास शांत वातावरण में आराम के साथ शरीर एवं मन को शिथिल करके किया जाना चाहिए।
  3. योग अभ्यास खाली पेट अथवा अल्पाहार लेकर करना चाहिए। यदि अभ्यास के समय कमजोरी महसूस हो तो गुनगुने पानी में थोड़ी सी शहद मिलाकर लेना चाहिए।
  4. योग अभ्यास मल एवं मूत्र का विसर्जन करने के उपरान्त प्रारम्भ करना चाहिए।
  5. अभ्यास करने के लिए चटाई, दरी, कंबल अथवा योग मैट का प्रयोग करना चाहिए।
  6. अभ्यास करते समय शरीर की गतिविधि आसानी से हो, इसके लिए सूती के हल्के और आरामदायक वस्त्र पहनना चाहिए।
  7. थकावट, बीमारी, जल्दबाजी एवं तनाव की स्थिति में योग नहीं करना चाहिए।
  8. यदि पुराने रोग, पीड़ा एवं हृदय संबंधी समस्याएं हों तो ऐसी स्थिति में योग अभ्यास शुरू करने के पूर्व चिकित्सक अथवा योग विशेषज्ञ से परामर्श लेना चाहिए।
  9. गर्भावस्था एवं मासिक धर्म के समय योग करने से पहले योग विशेषज्ञ से परामर्श लेना चाहिए।
अभ्यास के समय

  1. अभ्यास सत्र प्रार्थना अथवा स्तुति से प्रारम्भ करना चाहिए क्योंकि प्रार्थना अथवा स्तुति मन एवं मस्तिष्क को विश्रांति प्रदान करने के लिए शान्त वातावरण निर्मित करते हैं।
  2. योग अभ्यास आरामदायक स्थिति में शरीर एवं श्वास-प्रश्वास की सजगकता के साथ धीरे-धीरे प्रारम्भ करना चाहिए।
  3. अभ्यास के समय श्वास-प्रश्वास की गति नहीं रोकनी चाहिए, जब तक कि आपको ऐसा करने के लिए विशेष रूप से कहा न जाए।
  4. श्वास-प्रश्वास सदैव नासारन्ध्रों से ही लेना चाहिए, जब तक कि आपको अन्य विधि से श्वास प्रश्वास लेने के लिए न कहा जाए।
  5. शरीर को सख्त नहीं करें अथवा शरीर को किसी भी प्रकार के झटके से बचाएं।
  6. अभ्यास के समय शरीर को शिथिल रखें, शरीर को किसी भी प्रकार के झटके से बचाएं।
  7. अपनी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता के अनुसार ही योग अभ्यास करना चाहिए। अभ्यास के अच्छे परिणाम आने में कुछ समय लगता है, इसलिए लगातार और नियमित अभ्यास बहुत आवश्यक है।
  8. प्रत्येक योग अभ्यास के लिए ध्यातव्य निर्देश एवं सावधानियां तथा सीमाएं होती हैं। ऐसे ध्यातव्य निर्देशों को सदैव अपने मन में रखना चाहिए।
  9. योग सत्र का समापन सदैव ध्यान एवं गहन मौन तथा शांति पाठ से करना चाहिए।
अभ्यास के बाद
 अभ्यास के 20-30 मिनट के बाद स्नान करना चाहिए।
अभ्यास के 20-30 मिनट बाद ही आहार ग्रहण करना चाहिए, उससे पहले नहीं।

सात्विक विचार के लिए भोजन
आहार संबंधी दिशा निर्देश - सुनिश्चित करें कि अभ्यास के लिए शरीर एवं मन ठीक प्रकार से तैयार हैं। अभ्यास के बाद आमतौर पर शाकाहारी आहार ग्रहण करना श्रेयस्कर माना जाता है। 30 वर्ष की आयु से ऊपर के व्यक्ति के लिए बीमारी या अत्यधिक शारीरिक कार्य अथवा श्रम की स्थिति को छोड़कर एक दिन में दो बार भोजन ग्रहण करना पर्याप्त होता है।
General guidelines for yoga practice
योग किस प्रकार सहायता कर सकता है?
 योग निश्चित रूप से सभी प्रकार के बंधनों से मुक्ति प्रदान करने का साधन है। वर्तमान समय में हुए चिकित्सा शोधों ने योग से होने वाले कई शारीरिक और मानसिक लाभों के रहस्य प्रकट किए हैं। यही नहीं लाखों योग अभ्यासियों के अनुभव के आधार पर इस बात की पुष्टि की जा सकती है कि योग किस प्रकार सहायता कर सकता है।
  • योग शारीरिक स्वास्थ्य, स्नायुतंत्र एवं कंकाल तन्त्र को सुचारू रूप से कार्य करने और हृदय तथा नाडियों के स्वास्थ्य के लिए हितकर अभ्यास है।
  • यह मधुमेह, श्वसन संबधी विकार, उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप और जीवन शैली संबंधी कई प्रकार के विकारों के प्रबंधन में लाभकर है।
  • योग अवसाद, थकान, चिंता संबंधी विकार और तनाव को कम करने में सहायक है।
  • योग मासिक धर्म को नियमित बनाता है।
  • संक्षेप में यदि यह कहा जाए कि योग शरीर एवं मन के निर्माण की ऐसी प्रक्रिया है, जो समृद्ध और परिपूर्ण जीवन की उन्नति का मार्ग है, न कि जीवन के अवरोध का।


Share:

अधोमुखश्वानासन योग - परिचय, विधि एवं लाभ



अधोमुखश्वानासन (Adhomukhswanasana) 3 शब्दों से मिलकर बना है। पहला शब्द है 'अधोमुख' जिसका अर्थ होता है नीचे की तरफ मुंह करना। जबकि दूसरा शब्द है 'श्वान' जिसका अर्थ कुत्ता होता है। तीसरा शब्द है 'आसन' जिसका अर्थ है बैठना। अधोमुख श्वानासन को डाउनवर्ड फेसिंग डॉग पोज भी कहा जाता है। अधोमुख श्वानासन को भारतीय योग में बड़ा ही अहम स्थान हासिल है। अधोमुख श्वानासन को अष्टांग योग का बेहद महत्वपूर्ण आसन माना जाता है। ये आसन सूर्य नमस्कार के 7 आसनों में से एक है। योग की सबसे बड़ी खूबी यही है कि इसके आसन प्रकृति में पाई जाने वाली मुद्राओं और आकृतियों से प्रभावित होते हैं। योग विज्ञान ने अधोमुख श्वानासन को कुत्ते या श्वान से सीखा है। कुत्ते अक्सर इसी मुद्रा में शरीर की थकान मिटाने के लिए स्ट्रेचिंग करते हैं। यकीन जानिए, शरीर में स्ट्रेचिंग के लिए बताए गए सर्वश्रेष्ठ आसनों में से एक है। इस योगासन को करने की प्रक्रिया बहुत आसान है और कोई भी ऐसा व्यक्ति जिसने योगाभ्यास करना शुरू ही किया है, यह आसान कर सकता है। यह योगासन अत्यंत लाभदायक है और इसे प्रतिदिन के योगाभ्यास में अवश्य जोड़ना चाहिए।
Adhomukhswanasana
अधोमुख श्वानासन करने के फायदे/ अधोमुखश्वानासन के लाभ
  1. इंसोमेनिया दूर करने में - अधोमुख श्वानासन करने से पीठ दर्द और कमर का दर्द, थकान, सिर दर्द और अनिद्रा की बीमारी दूर हो जाती है। इसके अलावा यह आसन उच्च रक्तचाप, अस्थमा, साइटिका आदि रोग भी दूर करने में सहायक होता है।
  2. एंग्जाइटी को करे कंट्रोल - ये आसन आपकी रिलैक्स रहने में मदद करता है और दिमाग को शांति प्रदान करता है। अधोमुख श्वानासन एंग्जाइटी से लड़ने में भी बहुत मददगार साबित हो सकता है। इस आसन के अभ्यास के दौरान गर्दन और सर्वाइकल स्पाइन में खिंचाव पड़ता है। ये स्ट्रेस को दूर करने में काफी मदद करता है।
  3. एनर्जी प्रदान करने में - अधोमुख श्वानासन करने से शरीर में अतिरिक्त ऊर्जा का संचार होता है। इसके अलावा यह पूरे शरीर का कायाकल्प करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके अलावा यह आसन महिलाओं में मेनोपॉज के लक्षणों को दूर करने में मदद करता है।
  4. चिंता दूर करने में - अधोमुख श्वानासन करने से दिमाग शांत रहता है और हर तरह की चिंता से मुक्ति मिलती है। इस आसन को करने से गर्दन और गर्दन की हड्डी में खिंचाव उत्पन्न होता है जिसके कारण मस्तिष्क से चिंता दूर हो जाती है।
  5. पाचन सुधारने में - हालांकि अधोमुख श्वानासन में शरीर को आधा ही मोड़ा जाता है लेकिन इससे पेट की मांसपेशियां पाचन तंत्र के अंगों जैसे लिवर, किडनी और प्लीहा पर दबाव डालकर इसे संकुचित करती हैं जिसके कारण पाचन क्रिया बेहतर होती है।
  6. पेट की निचली मांसपेशियों को मजबूत बनाए - अधोमुख श्वानासन में बनने वाली शरीर की स्थिति को अगर ठीक उल्टा किया जाए तो नौकासन बन जाता है। हम सभी जानते हैं कि नौकासन शरीर में पेट की निचली मांसपेशियों को मजबूत करने के साथ ही रीढ़ को भी सहारा देता है। ये योगाभ्यास करने वालों को भी वैसे ही लाभ मिलते हैं। ये इन मांसपेशियों को मजबूत बनाने और खिंचाव पैदा करने में मदद करता है।
  7. रक्त संचार बढ़ाए - इस बात की तरफ शायद ही आपका ध्यान जाए। लेकिन अधोमुख श्वानासन में सिर दिल से नीचे की तरफ होता है जबकि आपके हिप्स ऊपर की तरफ उठे हुए होते हैं। इस आसन के अभ्यास से गुरुत्व बल की मदद से सिर की ओर नए रक्त की आपूर्ति बढ़ती है। इसीलिए ये आसन रक्त संचार बढ़ाने में मदद कर पाता है।
  8. सुधरता है पाचन तंत्र - अधोमुख श्वानासन में भले ही शरीर पूरी तरह से न मुड़ता हो, लेकिन फिर भी इस आसन से शरीर के भीतरी अंगों को अच्छी मसाज मिलती है। टांगें मुड़ने के कारण हमारे पाचन तंत्र पर दबाव बढ़ता है। इस आसन से प्रभावित होने वाले अंगों में लीवर, किडनी और स्पलीन या तिल्ली शामिल हैं।
  9. हाथों और पैरों को टोन करने में - अधोमुख श्वानासन को करने के दौरान शरीर का पूरा भार हाथों और पैरों पर आकर टिकता है। इसलिए यह हाथों, पैरों एवं अन्य अंगों को टोन करने का काम करता है और उन्हें संतुलन की अवस्था में रखता है। यह आसन हाथ, पैरों के अलावा कंधे, बांहों और सीने को भी टोन करने के साथ मजबूती प्रदान करता है।
अधोमुखश्वानासन योग - Adho Mukha Svanasana
अधोमुख श्वानासन करने का सही तरीका
  1. अधोमुख श्वानासन देखने में बिल्कुल वैसा ही दिखता है जब कोई कुत्ता आगे की तरफ झुकता है। इस आसन को करने से हमें कई जबरदस्त फायदे होते हैं, जिन्हें पाने के लिए ये जरूरी है कि आप रोज इस आसन का नियमित रूप से अभ्यास करें। इस आसन की सबसे अच्छी बात यही है कि इस आसन को बेहद आसानी से कोई भी कर सकता है।
  2. सबसे पहले जमीन पर एकदम सीधे खड़े हो जाएं और उसके बाद दोनों हाथों को आगे करते हुए नीचे जमीन की ओर झुक जाएं।
  3. झुकते समय आपके घुटने सीधे होने चाहिए और कूल्हों के ठीक नीचे होने चाहिए जबकि आपके दोनों हाथ कंधे के बराबर नहीं बल्कि इससे थोड़ा सा पहले झुका होना चाहिए।
  4. अपने हाथों की हथेलियों को झुकी हुई अवस्था में ही आगे की ओर फैलाएं और उंगलियां समानांतर रखें।
  5. श्वास छोड़ें और अपने घुटनों को अधोमुख श्वानासन मुद्रा के लिए हल्का सा धनुष के आकार में मो़ड़े और एड़ियों को जमीन से ऊपर उठाएं।
  6. इस पॉइंट पर अपने कूल्हों को पेल्विस से पर्याप्त खींचें और हल्का सा प्यूबिस की ओर दबाएं।
  7. हाथों को पूरी तरह जमीन पर कंधों के नीचे से आगे की ओर फैलाए रखें, लेकिन उंगलियां जमीन पर फैली होनी चाहिए।
  8. इसके बाद अपने घुटनों को जमीन पर थोड़ा और झुकाएं और कूल्हों को जितना संभव हो ऊपर उठाएं।
  9. सिर हल्का सा जमीन की ओर झुका होना चाहिए और पीठ के लाइन में ही होनी चाहिए। अब आप पूरी तरह अधोमुख श्वानासन मुद्रा में हैं।
अधोमुख श्वान आसन की सावधानियाँ - अगर आप उच्च रक्तचाप, आँखों की केशिकाएँ कमजोर है कंधे की चोट या दस्त से पीड़ित हैं तो यह आसन न करें रक्तचाप

अधोमुख श्वानासन करने से पहले ध्यान रखने वाली बातें -
  1.  अधोमुख श्वानासन का अभ्यास सुबह के वक्त ही किया जाना चाहिए। लेकिन अगर आप शाम के वक्त ये आसन कर रहे हों तो जरूरी है कि आपने भोजन कम से कम 4 से 6 घंटे पहले कर लिया हो।
  2. ये भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि आसन करने से पहले आपने शौच कर लिया हो और पेट एकदम खाली हो।
अधोमुख श्वान आसन से पहले किये जाने वाले आसन
धनुरासन और दण्डासन
अधोमुख श्वान आसन के बाद किये जाने वाले आसन

इसे भी पढ़े
  1. पश्चिमोत्तानासन योग विधि, लाभ और सावधानी
  2. नौकासन योग विधि, लाभ और सावधानियां
  3. सूर्य नमस्कार की स्थितियों में विभिन्न आसनों का समावेष एवं उसके लाभ
  4. अनुलोम विलोम प्राणायामः एक संपूर्ण व्यायाम
  5. प्राणायाम और आसन दें भयंकर बीमारियों में लाभ
  6. वज्रासन योग : विधि और लाभ
  7. सूर्य नमस्कार का महत्त्व, विधि और मंत्र
  8. ब्रह्मचर्यासन से करें स्वप्नदोष, तनाव और मस्तिष्क के बुरे विचारों को दूर
  9. प्राणायाम के नियम, लाभ एवं महत्व
  10. मोटापा घटाने अचूक के उपाय


Share:

गुटनिरपेक्षता



द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के स्वरूप में परिवर्तन लाने वाले तत्वों में ‘गुटनिरपेक्षता’ का विशेष महत्व है। गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की उत्पत्ति का कारण कोई संयोग मात्र नहीं था, अपितु यह सुविचारित अवधारणा थी। इसका उद्देश्य नवोदित राष्ट्रों की स्वाधीनता की रक्षा करना एवं युद्ध की सम्भावनाओं को रोकना था। गुटनिरपेक्ष अवधारणा के उदय के पीछे मूल धारणा यही थी कि साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने वाले देशों को शक्तिशाली गुटों से अलग रखकर उसकी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखा जाय। आज एशिया, अफ्रिका, और लैटिंन अमेरिका के अधिकांश देश गुटनिरपेक्ष होने का दावा करने लगे है।

द्वितीय विश्व युद्ध के समय दो विरोधी गुटों सोवियत गुट और अमेरिकी गुटों में विभक्त हो चुका था और दूसरी तरफ एशिया एवं अफ्रिका के राष्ट्रों का स्वतन्त्र आस्तित्व उभरने लगा। अमेरिकी गुट एशिया के इन नवोदित राष्ट्रों पर तरह-तरह के दबाव डाल रहा था ताकि वे उसके गुट में शामिल हो जाय, लेकिन एशिया के अधिकांश राष्ट्र पश्चिमी देशों की भाॅति गुटबन्दी मे विश्वास नही करते है। वे सोवियत साम्यवाद और अमेरिकी पूॅजीवाद दोनों को अस्वीकार करते थें। वे अपने आपको किसी ‘वाद’ के साथ सम्बद्ध नही करना चाहते थे और उनका विश्वास था कि उनके प्रदेश ‘तीसरी शक्ति’ हो सकते है जो गुटोंके विभाजन को अधिक जाटिल सन्तुलन में परिणत करके अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में सहायक हो सकते है। गुटों से अलग रहने की नीति - गुटनिरपेक्षतावाद एशिया के नव जागरण की प्रमुख विशेषता थी। सन् 1947 में स्वतन्त्र होने के उपरान्त भारत ने इस नीति का पालन करना शुरू किया; उसके बाद एशिया के अनेक देशों ने इस नीति में अपनी आस्था व्यक्त की। जैसे-जैसे अफ्रीका के देश स्वतन्त्र होते गये, वैसे-वैसे उन्होंने भी इस नीति का अवलम्बन करना शुरू किया। भारत के जवाहर लाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति नासिर तथा यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो ने ‘तीसरी शक्ति’ की इस धारणा को काफी मजबूत बनाया।
शीत युद्ध के राजनीतिक ध्रुवीकरण ने गुटनिरपेक्षता की समझ तैयार करने में एक उत्पे्ररक का कार्य किया। लम्बे औपनिवेशिक आधिपत्य सें स्वतन्त्र होने के लम्बे संघर्ष के बाद किसी दूसरे आधिपत्य को स्वीकार कर लेना नवोदित राष्ट्रों के लिए एक असुविधाजनक स्थिति थी। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में वे एक ऐसी भूमिका की तलाश में थे जो उनके आत्मसम्मान और क्षमता के अनुरूप हो। क्षमता स्तर पर किसी एक राष्ट्र के लिए ऐसी स्वतंन्त्र भूमिका अर्जित कर पाना एक भागीरथी प्रयत्न होता, जिसकी सम्भावनाएं भी अत्याधिक सन्दिग्ध बनती। अतः आत्मसम्मान की एक अन्तर्राष्ट्रीय भूमिका के लिए सामूहिक पहल न सिर्फ वांछित थी, अपितु आवश्यक थी। स्वतन्त्रता और सामूहिकता की इस मानसिकता ने गुटनिरपेक्षता की वैचारिक और राजनीतिक नींव रखी। इस प्रक्रिया को शीत युद्ध के तात्कालिक वातावरण ने गति प्रदान की।

गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का उदय व विकास 
गुटनिरपेक्ष आन्दोलन का जन्म नव साम्राज्यवादी ताकतो के विरूद्ध तीसरी दुनिया के राष्ट्रों के संगठित होने के प्रयासो से हुआ। यद्यपि आधिकारिक रूप से इसकी स्थापना वर्ष 1961 मे बेलग्रेड में आयोजित गुटनिरपेक्ष देश के प्रथम सम्मेलन के साथ हुई परन्तु इसके बीज द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ही अंकुरित हो चुके थे। इसकी एक झलक हमें एशियाई संबंध सम्मेलन से दिखाई पड़ती है।


Share:

वारसा पैक्ट



जब पश्चिमी जर्मनी भी 9 मई 1955 को नाटो का सदस्य बना लिया गया और पश्चिमी राष्ट्रों ने जर्मनी का पुनः शस्त्रीकरण कर दिया तो इसमें सोवियत संघ तथा अन्य पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों के लिए चिन्तित होना स्वाभाविक था। पश्चिमी शाक्तियों ने नाटो, सीटो, सेण्टो, द्वारा सोवियत संघ के इर्द-गिर्द घेरे की स्थिति पैदा कर दी थी। अतः यह स्वभाविक था कि सोवियत संघ सैनिक गठबन्धनों का उत्तर सैनिक गठबन्धन से देता।

साम्यवादी राष्ट्रों का एक सम्मेलन 11 से 14 मई 1955 को वारसा में बुलाया गया। इस सम्मेलन में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के सात राष्ट्रों अल्बानिया, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, पूर्वी जर्मनी हंगरी, पोलैण्ड तथा रोमानिया ने भाग लिया। यूगोस्लाविया ने इसमें भाग नहीं लिया। 14 मई 1955 को सम्मेलन में भाग लेने वाले राष्ट्रों ने मित्रता एवं पारस्पारिक सहयोग की सन्धि पर हस्ताक्षर किये जिसे ‘वारसा पैक्ट‘ कहा जाता है।
इस पैक्ट की मुख्य व्यवस्था धारा 3 में हैं। इसके अनुसार यदि किसी सदस्य पर सशस्त्र आक्रमण होता है तो अन्य देश उसकी सैनिक सहायता करेंगे। इसके लिए धारा 5 में एक ‘संयुक्त सैनिक कमान’ बनायी गयी। सैनिक सहयोग के अतिरिक्त वारसा पैक्ट हस्ताक्षरकर्ता राष्ट्रों में आर्थिक राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सहयोग की व्यवस्था भी करती है। इसमें संन्धिकर्ता राष्ट्र पारस्पारिक संबंधों में शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिमय साधनों से सुलझाने का प्रयास करेंगे।
वारसा पैक्ट का मुख्य अंग राजनीतिक परामर्शदात्री समिति है। आवश्यकता पड़ने पर यह सहायक अंगो की स्थापना कर सकती है। प्रत्येक सदस्य राज्य का एक एक प्रतिनिधि राजनीतिक परामर्शदात्री समिति का सदस्य होता है। इसकी बैठक वर्ष में दो बार होती है। दूसरे कार्यों में सहायता करने के लिए सचिवालय है जिसका सर्वोच्च पदाधिकारी महासचिव होता है। 1989-90 में पूर्वी यूरोप में साम्यवादी व्यवस्थाओं के पतन तथा लोकतन्त्रात्मक व्यवस्थाओं के आगमन के बाद तथा शीतयुद्ध कें अंत की प्रक्रिया के साथ 31 मार्च 1991 को वारसा पैक्ट समाप्त कर दिया गया।


Share:

उत्तर प्रदेश गुण्डा नियन्त्रण अधिनियम 1970



 UP Control of Goondas Act, 1970
UP Control of Goondas Act, 1970
 
धारा-1, इसका प्रसार सम्पूर्ण उ0प्र0 में होगा।
धारा-2, परिभाषायें -  क. जिला मजिस्ट्रेट- जिला मजिस्ट्रेट के अन्तर्गत राज्य सरकार द्वारा अधिकृत कोई अपर जिला मजिस्ट्रेट भी होगा अधिसूचना सं0 1528/6-पु0-9-30(2)(1)/83 दिनाॅंक 4 जुलाई 1991 के द्वारा राज्यपाल महोदय समस्त अपर जिला मजिस्ट्रेट (प्रशासन तथा वित्त राजस्व)को क्रमशः अपनी अपनी तैनाती के जिले की सीमा के भीतर उक्त अधिनियम के अधीन जिला मजिस्ट्रेट की समस्त शक्तियों का प्रयोग करने के लिये शक्ति प्रदान करते हैं।

ख. गुण्डा-गुण्डा का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है-
  1. जो स्वयं या किसी गिरोह के सदस्य या सरगना के रुप में भा0द0सं0 की धारा 153 या धारा 153-ख, या धारा 294 या उक्त संहिता के अध्याय 16,17,22 के अधीन दंडनीय अपराध को अभ्यस्तः करता है या करने का प्रयास करता है या करने के लिये दुष्प्रेरित करता है या
  2. जो स्त्री तथा लड़की अनैतिक व्यापार दमन अधिनियम 1956 के अधीन दंडनीय अपराध के लिये न्यायालय से सिद्धदोष हो चुका है।
  3. जो उ0प्र0 आबकारी अधिनियम 1910 या सार्वजनिक जुआ अधिनियम या आयुध अधिनियम 1959 की धारा 25,27,या धारा 29 के अधीन दंडनीय अपराध के लिये कम से कम तीन बार दंडित हो चुका हो।
  4. जिसकी सामान्य ख्याति दुस्साहसिक और समाज के लिये एक खतरनाक व्यक्ति की है या
  5. जो अभ्यस्तः महिलाओं या लड़कियों को चिढाने के लिये अश्लील टिप्पणियां करता हो।
  6. जो दलाल हो- इसके अन्तर्गत वे व्यक्ति आयेगें जो अपने लिये या दूसरों के लिये लाभ प्राप्त करते हों, प्राप्त करने के लिये सहमत होते हो या प्रयास करते हों जिससे वह किसी लोक सेवक को या सरकार, विधान मंडल, संसद के किसी सदस्य को किसी पक्षपात के द्वारा कोई कार्य करने या न करने के लिये प्रेरित करते हों।
  7. जो मकानों पर अवैध कब्जा करते हैं।
स्पष्टीकरण-‘‘मकानों पर कब्जा करने वाले से’’ तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो नाजायज/बिना अधिकार कब्जा ग्रहण करता है या ग्रहण करने का प्रयास करता है या करने के लिये सहायता करता है या दुष्प्रेरित करता है या वैध रुप से प्रवेश करके भूमि, बाग, गैरेजो को शामिल करके भवन या भवन से संलग्न बाहरी गृहों के कब्जा में अवैध रुप से बना रहता है।
धारा-3, गुण्डों का निष्कासन आदि- यदि जिला मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति गुण्डा है और जनपद में या उसके किसी भाग में उसकी गतिविधियाॅं या कार्य व्यक्तियों की जान या उनकी सम्पत्ति के लिये संत्रास,संकट अथवा नुक्सान उत्पन्न कर रही हैं या यह विश्वास करने का आधार है कि वह जनपद में या उसके किसी भाग में धारा-2, में वर्णित खण्ड-ख, के उपखण्ड-1 से 3 तक वर्णित अपराधों में लगा हुआ है अथवा उसके लगने की संभावना है और गवाह उसके डर के मारे उसके विरुद्ध गवाही देने के लिये तैयार नही है तो जिला मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को एक लिखित नोटिस के द्वारा उसके विरुद्ध लगाये आरोपों से सूचित करेगें और उसे अपना उत्तर देने के लिये अवसर प्रदान करेगें।
2. जिस व्यक्ति को नोटिस जारी किया गया है उसको किसी अधिवक्ता के द्वारा अपनी प्रतिरक्षा करने का अधिकार है और यदि वह चाहता है तो उसको व्यक्तिगत रुप से सुने जाने का भी अवसर दिया जायेगा और वह अपनी प्रतिरक्षा में गवाह भी पेश कर सकता है।
3. यदि जिला मजि0 का यह समाधान हो जाता है कि उस व्यक्ति की गतिविधियाॅं धारा-3 की उपधारा-1, के अन्तर्गत आती हैं तो वह उस व्यक्ति को अपने जनपद के किसी क्षेत्र से या जनपद से 6 माह तक के लिये निष्कासन का आदेश कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह यह भी आदेश कर सकते हैं कि वह आदेश में निर्दिष्ट प्राधिकारी या व्यक्ति को अपनी गतिविधियों की सूचना देने अथवा उसके समक्ष उपस्थित होने अथवा उक्त दोनों कार्य करने की अपेक्षा कर सकते है।
धारा-4, निष्कासन के पश्चात अस्थाई रुप से वापिस आने की अनुमति-जिला मजि0 किसी गुण्डे के निष्कासन के बाद उसे अस्थाई रुप से उस क्षेत्र में आने की अनुमति दे सकते है जहाॅं से वह निष्कासित किया गया था।
धारा-5, आदेश की अवधि में बढ़ोत्तरी-जिला मजि0 धारा 3 के अधीन दिये गये आदेश में निर्दिष्ट अवधि को,सामन्य जनता के हित में समय-समय पर बढा सकतें है,किन्तु इस प्रकार बढायी गयी अवधि किसी भी दशा में कुल मिलाकर दो वर्ष से अधिक न होगी।
धारा-6 , अपील- धारा 3 या 4 या 5 के अधीन दिये गये किसी आदेश से क्षुब्ध व्यक्ति ऐसे आदेश के दिनांक से 15 दिन के भीतर आयुक्त के पास अपील कर सकता है। आयुक्त अपील का निस्तारण होने तक आदेश के प्रवर्तन को स्थगित कर सकते है।
धारा-10, धारा 3 से 6 के अधीन दिये गये आदेशों का उल्लंघन करने पर- यदि कोई गुडां धारा 3,4,5,6 के अधीन दिये गये आदेशों का उल्लंघन करे तो न्यूनतम 6 माह से जो 3 वर्ष तक का हो सकता है के कठिन कारावास से और जुर्माने से दंडित किया जायेगा।
धारा-11, निष्कासित गुंडे द्वारा आदेशों का उल्लंघन करते हुये पुनः प्रवेश आदि पर उसका बल प्रयोग द्वारा हटाया जाना-
1. जिला मजिस्ट्रेट उसे गिरफतार करा सकता है और पुलिस की अभिरक्षा में उक्त आदेश में निर्दिष्ट क्षेत्र के बाहर किसी ऐसे स्थान के लिये,जैसा वह निर्देश दे हटवा सकता है।
2.कोई पुलिस अधिकारी ऐसे व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार कर तुरंत निकटतम मजिस्ट्रेट के पास अग्रसारित करेगा,जो उसे जिला मजिस्ट्रेट के पास अग्रसारित करायेगा जो पुलिस अभिरक्षा में उसे हटवा सकेगा।
3. इस धारा के उपबन्ध धारा 10 के उपबन्धों के अतिरिक्त है और धारा 10 के प्रभाव को कम नही करते।


Share:

सूरदास का जीवन परिचय Surdas Biography in Hindi



हिन्दी साहित्य के इतिहास में मध्यकाल की अपनी अलग महत्व और पहचान है। मध्यकाल को दो भागों में बांटा गया है भक्ति काल और रीति काल। भक्ति काल का संवत् 1375 से संवत् 1700 तक माना जाता है और इसे हिन्दी साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। इसको भी दो भागों में विभाजित किया गया हैं -
  1. सगुण भक्ति धारा
  2. निगुर्ण भक्ति धारा। 
सगुण भक्ति धारा के अंतर्गत राम भक्तिषाखा है, जिसके प्रतिनिधि हिन्दी के महान कवि गोस्वामी तुलसी दास है, जिन्होंने रामचरित मानस और अनेक ग्रंथ रचे थे। दूसरी धारा कृष्ण भक्ति की है जिसके प्रतिनिधि कवि सूरदास है। कृष्ण के जीवन को आधार बनाकर गीति तत्वों से युक्त, उदात्त भावों से युक्त रचे गये काव्य जिसमें भक्ति भावना भी कूट-कूट कर भरी है। कृष्ण का जीवन जीवन की यथार्थ भूमि से जुड़ा है और उसमें जीवन की तमाम विसंगतियाँ और अंतर्विरोध भी दिखाई देते हैं। अतः उनका जीवन मानव को अपने जीवन के निकट दिखाई देता है। सूरदास ने इसी निकटता को अपने काव्य में स्थान दिया है।
सूरदासजी के संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। सूरदास कब पैदा हुए? इसका स्पष्ट उल्लेख किसी भी ग्रंथ में नहीं है। सूरसारावली और साहित्य लहरी के एक एक पद के आधार पर विद्वानों ने सूर की जन्मतिथि निश्चित करने का प्रयत्न किया है। ’’सूरसारावली’ का पद है - गुरू परसाद होत यह दरसन सरसठ बरस प्रवीन। शिवविधान तप कियो बहुत दिन तऊ पार नहिं लीन।।’’ इस पद के आधार पर समस्त विद्वान सूर सारावली की रचना के समय सूरदास की आयु 67 वर्ष निश्चित करते हैं।
साहित्य लहरी के पद- मुनि मुनि रसन के रस लेख। श्री मुंशीराम शर्मा इस पद के आधार पर साहित्य लहरी का रचनाकाल संवत् 1627 मानते है। सूर सारावली के समय उनकी आयु 67 वर्ष मानी जाये तो सूर का जन्म विक्रम संवत् 1540 के आस पास माना जाना चाहिए। मिश्र बंधुओं ने ही सबसे पहले इस तिथि की ओर ध्यान दिलाया था। बाह्य साक्ष्य की दृष्टि से विचार किया जाये तो सूरदास का जन्म संवत् 1535 के आसपास माना जा सकता है। पुष्टि संप्रदाय की मान्यता के अनुसार सूरदास वल्लभाचार्य से आयु में 10 दिन छोटे थे। इसका सर्वाधिक प्राचीन प्रमाण निजवार्ता है। श्री वल्लभाचार्य जी की जन्म तिथि संवत् 1535 वैशाख कृष्ण 15 रविवार है। इस आधार पर सूर की जनमतिथि संवत् 1535 वैशाख शुक्ल 5 को ठहरती है। इन तथ्यों के आधार पर सूरदास की जन्म तिथि संवत् 1535 मानी जा सकती है। सूरदास की मृत्यु के संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना है कि संवत् 1620 उनके स्वर्ग वास की तिथि हो सकती है। श्री मुंशीराम शर्मा एवं द्वारिकाप्रसाद मिश्र के विभिन्न तर्को, सूर और अकबर की भेंट की तिथि आदि के आधार पर सूर का संवत् 1628 तक जीवित रहना सिद्ध होता है। इस आधार पर कछु विद्वान उनकी मृत्यु संवत् 1640 में गोवर्धन के निकट पारसोली ग्राम में मानते है। कुछ विद्वान सूरदास का जन्म मथुरा और आगरा के बीच स्थित रूनकता नामक ग्राम को मानते है। पर अधिकांश विद्वान चौरासी वैष्णव के वार्ता जो सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ है, के आधार पर दिल्ली के पास स्थित सीही नामक ग्राम को मानते हैं। सूरदास जनमान्ध थे अथवा बाद में अन्धे हुए , इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। वार्ता साहित्य में सूरदास को केवल जन्म से अन्धे ही नही अपितु आँखों में गड्डे तक नही वाला बताया है। इसके अतिरिक्त सूरदास के समकालीन कवि श्रीनाथ भट्ट ने संस्कृत मणिबाला ग्रंथ में सूर को जनमान्ध कहा है - जन्मान्धों सूरदासों भूत। इनके अतिरिक्त हरिराय एवं प्राणनाथ कवि ने भी सूर को जन्मान्ध बताया है।
वल्लभाचार्य ने सूर को पुष्टि मार्ग में दीक्षित किया और कृष्णलीला से अवगत कराया। उनके पदों का संकलन सूर सागर के नाम से जाना जाता है। वल्लभाचार्य के निधन के पश्चात् गोस्वामी विट्ठल नाथ पुष्टि संप्रदाय के प्रधान आचार्य बने। संप्रदाय के सर्वश्रेष्ठ कवियों को लेकर उन्होंने संवत् 1602 में अष्टछाप की स्थापना की । इन आठ भक्त कवियों में सूरदास का स्थान ही सबसे ऊँचा था। अष्टछाप में चार आचार्य वल्लभाचार्य के और चार विट्ठलनाथ जी के शिष्य थे। इनके नाम है- 1. सूरदास 2. कुम्भनदास 3. कृष्णदास 4. परमानंद दास 5. गोविन्द स्वामी 6. नंददास 7. छीतस्वामी 8. चतुभुर्जदास ।
सूरदास की रचनाएं
सूरदास द्वारा लिखित निम्न कृतियाँ मानी जाती हैं - 1. सूर सारावली 2. साहित्य लहरी 3. सूर सागर 4. भागवत भाषा 5. दशमस्कन्ध भाषा 6. सूरसागर सार 7. सूर रामायण 8. मान लीला 9. नाग लीला 10. दान लीला 11. भंवर लीला 12. सूर दशक 13. सूर साठी 14. सूर पच्चीसी 15. सेवाफल 16. ब्याहलो 17. प्राणप्यारी 18. दृष्टि कूट के पद 19. सूर के विनय आदि के पद 20. नल दमयंती 21. हरिवंश टीका 22. राम जन्म 23. एकादशी महात्म्य। कुछ आधुनिक आलोचकों ने सूरदास के तीन ग्रंथ ही प्रामाणिक माने हैं। ये तीन प्रसिद्ध हैं - 1. सूर सारावली 2. साहित्य लहरी 3. सूरसागर।
सूर सारावली - सूर सारावली नाम से ऐसा लगता है मानो यह सूर सागर की भूमिका, सारांश या अन्य कुछ है। ग्रंथ के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि यह रचना ऐसी न होकर वल्लभाचार्य के दार्शनिक एवं धार्मिक सिद्धांतों का लौकिक रूप है, जो एक वृहत् होली गान के रूप में प्रकट किया गया है। सूर सारावली में विषय की दृष्टि से कृष्ण के कुरूक्षेत्र से लौटने के बाद के समय से जुडे संयोग लीला, वसंत हिंडोला और होली आदि प्रसंग अभिव्यक्त हुए है।
साहित्य लहरी - साहित्य लहरी सूरदास की दूसरी प्रमुख रचना है। इसमें कुल 118 पद हैं। साहित्य लहरी का विषय सूर सागर से कुछ भिन्न एवं तारतम्यविहीन दिखाई देता है। इसके पदों में रस, अलंकार, निरूपण एवं नायिका भेद तो है ही, साथ ही कुछ पदों में कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन भी है। साहित्य लहरी में अनेक पद दृष्टिकूट पद है, जिनमें गुह्य बातों का दृष्टिकूटों के रूप में वर्णन किया गया है। कृष्ण की बाल लीलाओं के साथ ही नायिकाओं के अनेक भेद के साथ राधा का वर्णन भी है तो अनेक प्रकार के अलंकारों जैसे -दृष्टांत , परिकर, निदर्शना, विनोक्ति, समासोक्ति , व्यतिरेक का भी उल्लेख है।
सूरसागर -सूरदास की काव्य यात्रा का यह सर्वोत्कृष्ट दिग्दर्षन है। ऐसा माना जाता है कि इसमें सवा लाख पद थे, किंतु वर्तमान में प्राप्त और प्रकाशित सूरसागर में लगभग चार से पाँच हजार पद संकलित है। सूरसागर की रचना का मूल आधार श्रीमद्भागवत है। इसमें सूरदास ने श्रीमद्भागवत् का उतना ही आधार ग्रहण किया है, जितना कि कृष्ण की ब्रज लीलाओं की रूपरेखाओं के निर्माण के लिए आवश्यक था। सूरसागर प्रबंध काव्य नहीं है। यह तो प्रसंगानुसार कृष्ण लीला से संबंधित उनके प्रेममय स्वरूप को साकार करने वाले पदों का संग्रह मात्र है। सूरसागर की कथा वस्तु बारह स्कन्धों में विभक्त है। इनमें दशम् स्कन्ध में ही कृष्ण की लीलाओं का अत्यंत विस्तार से वर्णन है। सूरसागर में आये पदों को विषय के अनुसार निम्नांकित वर्गों में रखा जा सकता है-
  1. कृष्ण की बाल लीलाओं से संबंधित पद
  2. कृष्ण कीद प्रेम और मान लीलाओं से संबंधित पद 
  3. दान लीला के पद 
  4. मान लीला के पद और भ्रमर गीत5. विनय, वैराग्य, सत्संग एवं गुरू महिमा से संबंधित पद
  5. श्रीमद्भागवत के अनुसार रखे गये पद
भ्रमरगीत काव्य परम्परा एवं सरूदास
भ्रमरगीत का शाब्दिक अर्थ है- भ्रमर का गान अथवा गुंजन। भ्रमरगीत काव्य परम्परा का मूल एवं आधारभूत ग्रंथ श्रीमद्भागवत है। भागवत में कृष्ण कथा के अन्य प्रसंगों के साथ सेंतालीसवें अध्याय में भ्रमरगीत का प्रसंग आया है। इसमें भ्रमरगीत का प्रारम्भ श्रीकृष्ण के गोकुल लीला के स्मरण से होता है। उन्हें बचपन के ग्वाल’- बाल सखाओं की याद आती है, साथ ही गोपिकाओं की भी। वे अपने मित्र उद्धव को गोपियों को सांत्वना देने के लिये ब्रज भेजते है। ब्रज पहुँचते ही उद्धव नंद- यशोदा से मिलते हैं और अपने उद्गारों से कृष्ण के ब्रह्म स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। श्रीकृष्ण के इसी स्वरूप की प्राप्ति के लिये वे ज्ञान का उपदेश नंद-यशोदा को देते हैं। बाद में गोंपियां उन्हें एकांत में ले जाती है। इसी वक्त एक भ्रमर उडता हुआ वहाँ आ जाता है। गोपियाँ भ्रमर के बहाने श्रीकृष्ण के प्रति उलाहनै, उपालम्भ आरम्भ कर देती है। इस प्रकार गोपियों का भ्रमर को लक्ष्य करके उपालम्भ करना ही भ्रमर गीत के नाम से पुकार जाता है। गोपियों ने भ्रमर को लक्ष्य करके उद्धव और श्रीकृष्ण दोनों को उल्हाने दिये, अथवा व्यंग्य किया और अनेक तरह से फटकार लगाई। इस बात के आधार बनाते हुए कहा जा सकता है कि भ्रमरगीत का तात्पर्य भ्रमर को इंगित करके गाया जाने वाला गीत भी है।
सूर का भ्रमर गीत - सूरदास ने श्रीकृष्ण की अन्याय लीलाओं की भांति भ्रमरगीत का प्रसंग भी श्रीमद्भागवत से लिया है। हिन्दी में सर्वप्रथम सूर ने ही भ्रमरगीत की रचना की और इन्हीं के कारण भ्रमरगीत की लोकप्रियता भी बहुत अधिक हुई ।
सूरदास के आधार पर कहा जा सकता है कि भ्रमरगीत लिखने के पीछे मुख्य उद्देश्य निर्गुण पर सगुण की विजय एवं ज्ञान पर भक्ति की विजय को प्रमाणित करना था। चूंकि सूरदास के समय में ज्ञान और भक्ति में श्रेष्ठता को लेकर विवाद था। शायद यही कारण है कि उन्होंने इसमें निर्गुण का तर्क और भाव से खंडन करते हुए सगुण का मंडन किया है। ज्ञान के समक्ष भक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। सूर का भ्रमर गीत वाग्वैदग्धता, वचनवक्रता और उपालम्भ का काव्य है।
सूर के भ्रमरगीत की विशेषताएं
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भ्रमरगीत को सूरसागर का सार कहा है- ’’भ्रमरगीत सूरसागर के भीतर का एक सार रत्न है।’’
काव्य को दो तरह से समीक्षित किया जा सकता है - काव्य का अनुभूति पक्ष और उसका अभिव्यक्ति पक्ष। प्रथम का सम्बन्ध वर्णित विषय से है यानी क्या कहा गया है, इसका उत्तर देना अनुभूति पक्ष है। दूसरे का संबंध कैसे कहा गया से है अर्थात् इस अनुभूति की अभिव्यक्ति कितनी कलात्मक तरीके से की गई है, इसका विवेचन अभिव्यक्ति पक्ष है। समीक्षा के बिन्दु निम्नलिखित है- वर्ण्य विषय, मर्मस्पर्शी स्थल, कल्पना सौन्दर्य, प्राकृतिक सुषमा, रसाभिव्यक्ति, भाषा और काव्यरूप, अलंकार योजना, बिम्बयोजना, लक्षण शक्ति।
सूर के भ्रमरगीत की विषय वस्तु - ब्रजभूमि में विहार करतै, लीला दिखाते श्रीकृष्ण कंस के निमंत्रण पर अक्रुर जी के साथ मथुरा चले जाते हैं। वहाँ से वापस आने की कोई संभावना न पाकर गोपियाँ उनके लिए संदेष भेजती हैं। पथिक संदेशों के डर से मथुरा जाने वाले रास्ते पर जाने से भी घबराने लगते हैं, क्योंकि संदेशों की संख्या बेहिसाब बढ चली थी। इस पद में संदेश भेजने की विवषता और विसंगति को देखा जा सकता है -
’’ संदेसनि मधुबन कूप भरे।
अपने तौ पठवत नहिं मोहन , हमरे फिरि न फिरे।
जिते पथिक पठाए मधुबन कौ बहुरि न सोध करे।
कै वै स्याम सिखाइ प्रमोधै, कै कहुं बीच मरे।
कागद गरे मेघ,मसि खूटी, सर दव लागि जरे।
सेवक सूर लिखन कौ आंधौ, पलक कपाट अरे।’’
कृष्ण चाहकर भी गोपियों के प्रति अपने अनुराग को विस्मृत कर सकते थे। इसी चिन्ता में उद्धव नामक एक ब्रह्म ज्ञानी महापुरूष को कृष्ण ने गोपियों के प्रति अपने मन की व्यथा बताई, तो उन्होने कृष्ण से कहा कि यदि आप कहें तो मैं ब्रज जाकर उन सबकों समझा दूं कि वे आपके लिये दुःखी न हों, निर्गुंण निराकार ब्रह्म का ध्यान आरंभ करें। कृष्ण इसकी अनुमति दे देते हैं और इस संदर्भ में सूरदास ने इस संपूर्ण प्रसंग को एक अत्यंत अनूठे काव्य का रूप दिया है। जिसमें आदि से अंत तक व्यथा- कथा कही गई है। इस कथा के दो भाग हैं। एक तो उद्धव के संदेश देने जाने से पहले की वियोग कथा, जिसमें विरह दशा के प्रायः सभी वर्णन हैं और दूसरा उद्धव तथा गोपियों का वार्तालाप, जिसमें प्रेम की अनन्यता प तन्मयता सर्वत्र ध्वनित हुई है और इसी में निर्गुण का खण्डन व सगुण का मंडन उभरा है।
’’ काहे को रोकत मारग सूधो?
सुनहु मधुप निर्गुण कटक तें राजपंथ क्यौं रूधौ?
कै तुम सिखै पठाए कुब्जा, कै कही स्यामधन जू धौ।।’’
वाग्वैदधता- वाग्वैदग्धता का अर्थ है वाणी का चार्तुय अर्थात् एक बात जो सीधे ढंग से कहने पर उतना प्रभाव नहीं दिखती है वही बात यदि किसी वाक्चातुर्य से अलग ढंग से व्यक्त की जाये तो बहुत अधिक प्रभावशाली हो जाती है। सूर ने अनपढ़ गोपियों के माध्यम से वाणी की जिस प्रदग्धता का प्रयोग किया है वह अच्छे-अच्उे पढ़े लिख लोगों को भी पानी पिलाने वाला है। वे कहती कुछ हैं और उसका अर्थ कुछ और ही होता है। यह कुछ और अर्थ पाठक तक भी संप्रेषित होता है और वह वाह! वाह! कर उठता है।
यहाँ देखिए गोपियां श्रीकृष्णर के पिछले कार्यों का वर्णन करना चाहती हैं, क्योंकि उन्हें स्मरण करने में अच्छा लगता है, परन्तु सूरदास ने उनकी स्मृति को दूसरे ही रूप में व्यक्त किया है। वे कहते हैं कि कृष्ण ब्रज में इसलिये नहीं आ रहे कि वहाँ पर मुझसे गोपियाँ बहुत सारे काम करायेंगी। दरअसल वे कह कुछ रही हैं परन्तु उनका मन्तव्य कुछ और है, यह सूर की वागवैदग्धता के कारण ही संभव हो सका है, देखिए है-
यदि डर बहुनि गोकुल आए।
सुनी री सखी! हमारी करनी समुझि मधुपुरी छाए।
अधरातिक तै उठि बाल बस मोहि जगैहैं आये।
बिनु पद त्रान बहुरि पठवैंगी बनहि चरावन गाय।।
सूनो भवन आनि रोकेंगी चोरत दधि नवनीत।
पकरि जसोदा पै ले जैहैं, नाचत मावत गीत।।
ग्वालिनी मोहि बहुरि बाँधेगी केते वचन लगाय।
ऐते दुःखन सुमरि सूर मन, बहुरि सकै को जाये।।
और देखिए जब गोपियां अपने विरह की अभिव्यक्ति करती है तो सीधे यह न कहकर कि हमारा वियोग बढ़ रहा है या हमें कामदेव सता रहा है, वे इस तरह की बातें करती हैं मानो कुछ और ही वर्णन कर रही हैं। ऐसा कहना है कि यह ब्रजभूमि इन्द्र पर से कामदेव ने जागीर के रूप में ले ली है। इस बहाने से भी वर्णन हुआ है। वह कवि की वचन-चातुरी को समझने में पर्याप्त सहायक है-
कोई सखि नई चाह सुनि आई।
यह ब्रजभूमि सकल सुरपति पै मदन मिलिक कर पाई।
धन धावन बग पांति पटो सिर बैरख तड़ित सुहाई।
बोलिक पिक चातक ऊँचे सुर, मनो मिलि देत दुहाई।
निर्गुण पर सगुण की विजय- सूरदास ने अपने भ्रमरगीत में निर्गुण ब्रह्य के स्थान पर सगुण की प्रतिष्ठा करने का प्रयास किया है। गोपियों और उद्धव के बीच का सारा संवाद प्रेम की प्रतिष्ठा के बहाने सगुण की प्रतिष्ठा का प्रयत्न करना ही रहा है। उद्धव निर्गुण ब्रह्य की उपासना की बात कहना चाहते हैं, परन्तु गोपियों उनकी बात को अपने तर्कों के सामने ठहरने नहीं देतीं हैं। जिस समय उद्धव मथुरा लौटकर वापस जाते हैं और श्रीकृष्ण को ब्रज के समाचार देते हैं उस समय के उनके वचनों द्वारा स्पष्ट रूप से निर्गुण ब्रह्म के सामने सगुण की प्रतिष्ठा का आख्यान होता है।उद्धव कृष्ण से कहते हैं-
कहिबे मैं न कछू सक राखी।
बुधि विवेक अनुमान आपने मुख आई सो भाखी।।
हौं पचि कहतो एक पहर में, वै छन माहिं अनेक।
हारि मानि उठि चल्यो दीन हैं छाँड़ि आपनो टेक।।
उद्धव के कथन में सर्वत्र ही अपने तर्कों की पराजय का स्वीकार है। इस तरह सूरदास ने अनेक स्थलों पर निर्गुण पर सगुण की विजय का वर्णन किया गया है। एक उदाहरण और भी देखा जा सकता है-
मैं समुझाई अति अपनी सो।
तदपि उन्हें परतीति न उपजी सबै लखो सपनो सो।
कही तिहारी सबै कही मैं और कछू अपनी।
श्रवन न बचन सुनत हैं उनके जो पट मह अकनी।।
कोई कहै बात बनाइ र्पचासक उनकी बात जु एक।
धन्य-धन्य सो नारी ब्रज की दिन दरसन इहि टेक।।
प्रेममार्ग की उत्कृष्टता- सूरदास ने अपने भ्रमरगीत में ईश्वर की साधना के लिए प्रेममार्ग की महत्ता प्रदर्शित की है। वे गोपियों के माध्यम से यह कहना चाहते हैं कि उन्हें तो एकमात्र कृष्ण के साथ बिताये हुए सुख के क्षणों की ही चाह है। उन्हें ऐसा ब्रह्म नहीं चाहिये जो उनके साथ रस-क्रीड़ा न कर सके। वे उद्धव से कहती हैं-
रहु रे, मधुकर, मधु मत वारे।
कहा करौ, निर्गुन लै कै हौं जीवहु कान्ह हमारे।।
सूरदास ने गोपियों के माध्यम से प्रेम की उत्कृष्टता की अभिव्यक्ति की है। वे कई प्राकृतिक परिवेष में रचे बसे प्रसंगों का उदाहरण देकर अपनी बात सिद्ध करतीं हैं, जैसे पतंग, चातक, चकोर, मौन, मृग आदि का प्रेम प्रसिद्ध हैं उसी तरह वे अपना कृष्ण के प्रति प्रेम भी मानती हैं। अब चाहे वे मरे या रहें जो व्यक्ति प्रेममार्ग में अग्रसर होता है वह मरने-जीने की चिंता नहीं करता है। इसका कथन अनेक उदाहरणों द्वारा करते हुए गोपियां उद्धव से कहती हैं-
ऊधो-प्रीति न मरन विचारे।
प्रीति पंतग जरै पावक परि जरत अंग नहिं टारै।।
प्रीति परेवा उड़त गगन चहि गिरत न आप प्रहारै।।
प्रीति जानू जैसे पय पानी जारि उपनपो जारै।।
प्रीति कुरंग नाद रस लुब्धक तानि तानि सर मारै।
प्रीति जान जननी सुत कारन को न अपनपो हारै।
सूर स्याम सों प्रीति गोपिन की कहु कैसे निरुवरै।।
सूर के काव्य में प्रेम की उत्कृष्टता को प्रतिष्ठित करने वाले बहुत से पद आये हैं। वे गोपियों के माध्यम से हर बार इसी बात पर बल दिया है कि प्रेम के मार्ग में ही अपना बलिदान, दुःख, त्याग और सहिष्णुता का भाव रहता है। प्रेम तो मन की बात है तभी तो- ’दाख छुहारा छाड़ि अमृत फल विषकीरा विष खात’ वाली बात भी ठीक लगती है। इस तरह के कथन गोपियों के वचनों में बार-बार देखने को मिलते हैं। सूरदास ने अनेक पदों द्वारा प्रेममार्ग की उत्कृष्टता का प्रतिपादन किया है। यहां पर बस एक उदाहरण और पठनीय है-
ऊधो मन माने की बात।
जरत पतंग दीप में जैसे और फिरि फिरि लपटात।।
रहत चकोर पुहुमि पर मधुकर! ससि अकाश भरमात।
ऐसो जतन धरो हरि जू पै छन इन उत नहिं जात।।
दादुर रहत सदा जल भीतर कमलसिंह नहिं नियरात।
काठ फोरि घर कियो मधुप पैं बंधे अम्बुज के पात।।
वरषा बरसत निसदिन ऊधो : पुहुमि पूरि अघात।
रवाति बूंद के काज पपीहा छन-छन रटत रहात।।
सेनि न खात अमृत फल भोजन तोमरि को ललचात।
सूरज कृस्न कूबरी रीझे गोपिन देख लजात।

व्यंग- सूरदास के भ्रमरगीत में व्यंगशैली की प्रचुरता है। वे जहां दूसरे भावों की व्यंजना करते हैं वहाँ उनके द्वारा कुब्जा के प्रति किये गये व्यंग्य विशेष रूप में दृष्टव्य हैं। गेपियां कृष्ण के न आने से व्यथित हैं। उन्हें कुब्जा का एक ऐसा उदाहरण मिल जाता है कि वे उसी पर घटाकर अनेक बातें कहती हैं। सूरदास ने गोपियों के असूया भाव को व्यक्त करने का यह अच्छा अवसर निकाल लिया है। वे दासी, कुबड़ी आदि कहकर नाना भांति से श्रीकृष्ण की प्रेम-भावना पर व्यंग करती है। व्यंग के सम्बन्ध में सूरदास के भ्रमरगीत में व्यंग वचनों के द्वारा विभिन्न भावों की व्यंजना को प्रमुखता दी गयी है।
उलाहने- व्यंग्य और उलाहने सूर दास के प्रमुख साधन हैं बात को नए ढंग से कहने के लिए। गोपियां भ्रमरगीत को देखकर श्रीकृष्ण को उसी के माध्यम से उलाहने देने लगती हैं। भ्रमर के माध्यम से, कहीं कुब्जा पर घटाकर, कहीं राजा बनने पर और कहीं अपने वंश का अधिक ध्यान रखने पर, इसी तरह की बातों पर गोपियों द्वारा उलाहने दिलाये गये हैं।

टैग - सूरदास का जीवन परिचय शॉर्ट में, सूरदास का जीवन परिचय भाव पक्ष कला पक्ष, सूरदास का जीवन परिचय वीडियो में, सूरदास का जीवन परिचय एवं रचनाएँ, सूरदास के जीवन परिचय, सूरदास का विवाह, सूरदास का काव्य सौन्दर्य


Share: