नास्तिक की भक्ति



हरिराम नामक एक आदमी शहर की एक छोटी-सी गली में रहता था। वह एक मेडिकल स्टोर का मालिक था। सारी दवाइयों की उसे अच्छी जानकारी थी। दस साल का अनुभव होने के कारण उसे अच्छी तरह पता था कि कौन-सी दवाई कहाँ रखी है। वह इस पेशे को बड़े ही शौक से, बहुत ही निष्ठा से करता था उसकी दुकान में सदैव भीड़ लगी रहती थी, वह ग्राहकों को वांछित दवाइयाँ सावधानी से और पूरे इत्मीनान के साथ देता था। पर उसे भगवान पर कोई भरोसा नहीं था। वह एक नास्तिक था। भगवान के नाम से ही वह चिढ़ने लगता था। घर वाले उसे बहुत समझाते, पर वह उनकी एक न सुनता था। खाली वक्त मिलने पर वह अपने दोस्तों के संग मिलकर घर या दुकान में ताश खेलता था।

एक दिन उसके दोस्त उसका हालचाल पूछने दुकान में आये और अचानक बहुत जोरसे बारिश होने लगी, बारिश की वजह से दुकान में भी कोई नहीं था। बस फिर क्या, सब दोस्त मिलकर ताश खेलने लगे। तभी एक छोटा लड़का उसकी दुकान में दवाई लेने के लिये पर्चा लेकर आया। उसका पूरा शरीर भीगा था। हरिराम ताश खेलने में इतना मशगूल था कि बारिश में आये हुए उस लड़के पर उसकी नजर ही नहीं पड़ी। ठण्ड से ठिठुरते हुए उस लड़के ने दवाई का पर्चा बढ़ाते हुए कहा-'साहब जी! मुझे ये दवाइयाँ चाहिये, मेरी माँ बहुत बीमार है, उसको बचा लीजिये, बाहर और सब दुकानें बारिश की वजह से बंद हैं। आपकी दूकान को देखकर मुझे विश्वास हो गया कि मेरी माँ बच जायगी। यह दवाई उनके लिये बहुत जरूरी है।'
इसी बीच लाइट भी चली गयी और सब दोस्त जाने लगे। बारिश भी थोड़ा थम चुकी थी, उस लड़के की पुकार सुनकर ताश खेलते-खेलते ही हरिराम ने दवाई के उस पर्चे को हाथ में लिया और दवाई लेने को उठा। ताश के खेल को पूरा न कर पाने के कारण अनमने मन से अपने अनुभव के आधार पर अँधेरे में ही दवाई की
उस शीशी को झट से निकाल कर उसने लड़के को दे दिया। उस लड़के ने दवाई का दाम पूछा और उचित दाम देकर बाकी के पैसे भी अपनी जेब में रख लिये। लड़का खुशी-खुशी दवाई की शीशी लेकर चला गया। वह आज दूकान को जल्दी बन्द करने की सोच रहा था। थोड़ी देर बाद लाइट आ गयी और वह यह देखकर दंग रह गया कि उसने दवाई की शीशी समझकर उस लड़के को जो दिया था, वह चूहे मारने वाली जहरीली दवा है, जिसे उसके किसी ग्राहक ने थोड़ी ही देर पहले लौटाया था और ताश खेलने की धुन में उसने अन्य दवाइयों के बीच यह सोचकर रख दिया था कि ताश की बाजी के बाद फिर उसे अपनी जगह पर वापस रख देगा।
अब उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसकी दस साल की नेकी पर मानो जैसे ग्रहण लग गया। उस लड़के के बारे में सोचकर वह तड़पने लगा। सोचा यदि यह दवाई वह अपनी बीमार माँ को देगा, तो वह अवश्य मर जाएगी। लड़का भी बहुत छोटा होने के कारण उस दवाई को तो पढ़ना भी नहीं जानता होगा। उस पल वह अपनी इस भूल को कोसने लगा और उसने ताश खेलने की अपनी आदत को छोड़ने का निश्चय कर लिया। पर यह बात तो बाद में देखी जाएगी। अब क्या किया जाय? उस लड़के का पता-ठिकाना भी तो वह नहीं जानता। कैसे उस बीमार माँ को बचाया जाय? सच, कितना विश्वास था उस लड़के की आँखों में। हरिराम को कुछ सूझ नहीं रहा था। घर जाने की उसकी इच्छा अब ठंडी पड़ गयी। दुविधा और बेचैनी उसे घेरे हुए थी। घबराहट में वह इधर-उधर देखने लगा।
पहली बार उसकी दृष्टि दीवार के उस कोने में पड़ी, जहाँ उसके पिता ने जिद करके भगवान श्रीकृष्ण की तस्वीर दूकान के उद्घाटन के वक्त लगायी थी। हरिराम से हुई बहस में एक दिन उसके पिता ने हरिराम से भगवान को कम से कम एक शक्ति के रूप मानने और पूजा की मिन्नत की थी। उन्होंने कहा था कि भगवान की भक्ति में बड़ी शक्ति होती है, वह हर जगह व्याप्त है और हमें सदैव अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देता है। हरिराम को यह सारी बात याद आने लगी। आज उसने इस अद्भुत शक्ति को आज़माना चाहा। उसने कई बार अपने पिता को भगवान की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर, आँखें बन्द करके ध्यान करते हुए देखा था। उसने भी आज पहली बार कमरे के कोने में रखी उस धूल भरी कृष्ण की तस्वीर को देखा और आँखें बन्द कर दोनों हाथों को जोड़कर वहीं खड़ा हो गया। इसके थोड़ी ही देर बाद वह छोटा लड़का फिर दूकान में आया। हरिराम को पसीना छूटने लगा। वह बहुत अधीर हो उठा। पसीना पोंछते हुए उसने कहा क्या बात है बेटा! तुम्हें क्या चाहिये?
लड़के की आँखों से पानी छलकने लगा। उसने रुकते-रुकते कहा-बाबूजी" बाबूजी! माँ को बचाने के लिये मैं दवाई की शीशी लिये भागा जा रहा था, घर के करीब पहुंच भी गया था, बारिश की वजह से आँगन में पानी भरा था और मैं फिसल गया। दवाई की शीशी गिरकर टूट गया। क्या आप मुझे वही दवाई की दूसरी शीशी दे सकते हैं बाबूजी? लड़के ने उदास होकर पूछा।
हाँ! हाँ! क्यों नहीं? हरिरामने राहत की साँस लेते हुए कहा। लो, यह दवाई! पर उस लड़के ने दवाई की शीशी लेते-लेते हिचकिचाते हुए बड़े ही भोलेपन से कहा 'बाबूजी! मेरे पास दवा के लिये पूरे पैसे अभी नहीं हैं।' हरिराम को उस बेचारे पर दया आयी। वह बोला 'कोई बात नहीं- तुम यह दवाई ले जाओ और अपनी माँ को बचाओ। जाओ, जल्दी करो और हाँ, अबकी बार जरा सँभल के जाना।'
लड़का 'अच्छा बाबूजी!' कहता हुआ खुशी से चल पड़ा। अब हरिराम की जान में जान आयी। वह भगवान को धन्यवाद देता हुआ अपने हाथों से उस धूल भरी तस्वीर को लेकर अपनी धोती से पोंछने लगा और उसे अपने सीने से लगा लिया। अपने भीतर हुए इस परिवर्तन को वह सबसे पहले अपने घरवालों को सुनाना चाहता था, इसलिये जल्दी से दुकान बन्द करके वह घर को रवाना हुआ। उसकी नास्तिकता की घोर अँधेरी रात भी अब बीत गयी थी और अगले दिन की नयी सुबह एक नये हरिराम की प्रतीक्षा कर रही थी।


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प्रेम ही ईश्वर है



सरल विश्वास और निष्कपटता रहने से भगवत प्राप्ति का लाभ होता है। एक व्यक्ति की किसी साधु से भेंट हुई। उसने साधु से उपदेश देने के लिये विनय पूर्वक प्रार्थना की। साधू ने कहा-'भगवान से ही प्रेम करों तब उस व्यक्ति ने कहा भगवान को न तो मैंने कभी देखा है और न उनके विषय में कुछ जानता ही हूँ, फिर उनसे कैसे प्रेम करूँ?' साधु ने पूछा 'अच्छा, तुम्हारा किससे प्रेम है ?' उसने कहा-'इस संसार में मेरा कोई नहीं है, केवल एक *मेढ़ा है, उसी को मैं प्यार करता हूँ।' साधु बोले-'उस मेढ़े के भीतर ही नारायण विद्यमान हैं, यह जानकर उसी की जी लगाकर सेवा करना और उसी को हृदय से प्रेम करना।' इतना कहकर साधु चले गये।

 
उस आदमी ने भी, उस मेड में नारायण है, यह विश्वास कर तन मन से उसकी सेवा करना शुरू कर दिया। बहुत दिनों बाद उस रस्ते से लौटते समय साधु ने उस आदमी को खोज कर उससे पूछा- क्यों जी, अब कैसे हो? उस आदमी ने प्रणाम कर के कहा- गुरुदेव! आपकी कृपा से मैं बहुत अच्छा हूँ आपने जो कहा था, उसके अनुसार भावना रखने से मेरा बहुत कल्याण हुआ है। मैं मेड के भीतर कभी- कभी एक अपूर्व मूर्ति देखता हूँ- उसके चार हाथ है, उस विष्णु रूपा चतुर्भुज मूर्ति का दर्शन कर परमानन्द में डूब जाता हूँ कहा भी गया है- हरि व्यापक सर्वत्र सामना। प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना।।

* मेढ़ा - सींग वाला एक चौपाया जो लगभग डेढ़ हाथ ऊँचा और घने रोयों से ढका होता है ।


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प्रेरक कहानी - कर्म की जड़ें



एक हरा-भरा चरागाह था, जहाँ भगवान श्री कृष्ण की गाय चरा करती थीं। आश्चर्य की बात यह थी कि उस चरागा हमें अन्य कोई अपने पशु लेकर नहीं जाता था। यदि कोई अपने पशु लेकर वहाँ जाता, तो वहाँ की सारी घास भूरी हो जाती और सूख जाती। फलत: ऐसी घास को पशु न खाते। इन पशुओं के स्वामी भी निराश होते, जब वे देखते कि हरी घास न मिलने के कारण उनके पशु दूध नहीं दे रहे हैं। एक दिन श्रीकृष्ण के गायों से ईर्ष्या रखने वाले कुछ लोग उनकी गायों के पीछे-पीछे चरागाह चले गये। वहाँ श्री कृष्ण अपने सखाओं के साथ बातचीत करते हुए एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे पशुओं के पीछे जाते हुए इन लोगों ने वहाँ एक चमत्कार देखा।

Krishna Balaram milking cows

उन्होंने देखा कि श्री कृष्ण की गौएँ घास की पत्तियों के साथ बातचीत कर रही हैं। घास की पत्तियाँ गायों से कह रही थीं-'प्यारी गायों, हमें खाओ, हमें चबाओ, हमारे दूध को मक्खन में बदल दो, ताकि यशोदा और गोपियाँ श्रीकृष्ण के सामने उसे खाने के लिये अर्पित करें। घास की पत्तियों की बातें सुनकर गौएँ भी बड़ी उत्सुक हुई और उनसे बोली 'हम कितनी घास खा सकती हैं, तुम तो बड़ी जल्दी उगती हो।' घास की पत्तियों ने इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा-'हम इस तरह उगकर अपनी जड़ तक पहुँचना चाहती हैं। हम इतनी जल्दी उगकर यह चाहती हैं कि श्रीकृष्ण के लिये हम अर्पित हो जाये। हमारा जीवन शीघ्र ही समाप्त हो जाय और फिर बाद में हमें जीने की आवश्यकता न हो। यही कारण है कि हम श्रीकृष्ण की गायों की प्रतीक्षा करती हैं; क्योंकि श्रीकृष्ण गोशाला में अपनी प्रत्येक गाय का दूध पीते हैं।'

Sri Krishna Balaram

श्रीकृष्ण की गाय का पीछा करनेवाले लोग पहले स्तब्ध रह गये, किंतु बाद में उन्हें बोध हुआ। हे परमेश्वर! हमें भी घास की हरी-भरी पत्तियाँ बना दो। हम अपने को बिना किसी भेदभाव के आपके श्रीचरणों में पूर्णतया समर्पित कर देंगे। आप हमारे कर्मों की जड़ों पर इस तरह प्रहार करें कि जीवन के उपवन या चरागाह की हमें फिर कोई आवश्यकता न पड़े। आपके बिना हमारा जीवन नीरस है, निष्फल है, भूरा और सूखा है। जब आप हमारे साथ होंगे, तब हम हरे-भरे प्रकाश मान होकर आपके श्रीचरणों में विनयावनत हो जाएंगे।


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प्रेरक प्रसंग - माया का मुखौटा



रामपुर नामक गाँव नगर से कुछ मील की दूरी पर स्थित था। दिसंबर का उत्तरार्ध चल रहा था। हर साल की तरह इस साल भी हरि रामपुर में आया हुआ था। वह बहुरूपिये का काम करता था। प्रतिदिन अपराह्न का समय वह विभिन्न प्रकार के वेश धारण करके गांव में निकलता किसी दिन संन्यासी का, तो किसी दिन भिखारी का, किसी दिन राजा का तो किसी दिन सिपाही का विशेष कर बच्चों में उसका अभिनय बड़ा ही लोकप्रिय था। वह अपने पास तरह-तरह के पोशाक, मुखौटे तथा रंग रखता था। दिसम्बर माह के अंतिम रविवार को रामपुर के दो प्रमुख स्कूलों-मॉडल स्कूल और आदर्श स्कूल के बीच क्रिकेट-मैच आयोजित हुआ था। दोनों टीमें तगड़ी थीं और मैच के संभावित नतीजे को लेकर छात्रों में बड़ी उत्सुकता फैली हुई थी। मैच में बच्चों का इतना आकर्षण देखकर उस दिन हरि ने भी छुट्टी मनाने की सोची। आखिरकार मैच समाप्त हुआ। मॉडल स्कूल की जीत हुई थी। तब तक संध्या का धुंधलका भी घिरने लगा था। मॉडल स्कूल के छात्र अपनी टीम की सफलता पर फूले नहीं समा रहे थे। उनमें से कुछ लड़के अँधेरा हो जाने तक मैदान में खुशी मनाते रहे। विपिन बाकी बच्चों से थोड़ा बड़ा था। उसने बच्चों को घर लौट जाने की सलाह दी। बच्चे तब भी मैच की ही चर्चा में मशगूल होकर मैदान के कोने की एक झाड़ी के पास से होकर गुजर रहे थे।

सहसा विपिन ने देखा कि चमकीली आँखों और बड़े बड़े पंजों वाला एक धारी दार बाघ झाड़ियों में छिपा बैठा है। वह चिल्ला उठा-'ठहरो! बाघ है!' निश्चय ही वह किसी असावधान राहगीर को पकड़ने के लिये वहाँ घात लगाये बैठा है। कुछ लड़के सहमकर वहीं बैठ गये, कुछ भागने लगे और कुछ वहीं जड़ी भूत होकर खड़े रह गये। उस पूरी टोली में यतीन सबसे साहसी था। वह सबके पीछे-पीछे आ रहा था, इसलिये उसने थोड़ी दूरी से सारा वाक़या देखा। उसे सूर्यास्त के बाद इतनी जल्दी बाघ का निकलना थोड़ा अस्वाभाविक-सा लगा। अपनी सुरक्षित दूरी से उसने ध्यान पूर्वक उस जानवर का निरीक्षण किया। उसने देखा कि बाघ के पाँवों के पीछे मनुष्य के हाथ-पांव छिपे हुए हैं। साहस जुटा कर वह तत्काल झाड़ी के पास जा पहुँचा और हरि से अपना मुखौटा उतार देने को कहा। झाड़ी की ओर से जोरकी हँसी की आवाज आयी। अब सभी बच्चों ने हरि का खेल समझ लिया था। अब उन्हें पूरी घटना इतनी मजेदार लग रही थी कि हँसते-हँसते उनके पेट में बल पड़ गये। हरि का खेल पूरा हो चुका था। अब लड़कों को और डराना सम्भव नहीं था, इसलिये वह चलता बना। यही खेल माया का है, एक बार यदि हम माया का खेल समझ जायँ, तो वह हमें दोबारा बुद्धू नहीं बना सकती।


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एक तत्त्वबोधक प्रेरक कथा



 प्रतिष्ठानपुर नामक एक अत्यन्त विख्यात नगर था। वहॉ पर पृथ्वीरूप नामक एक अत्यन्त सुन्दर राजा था। एक बार वहाँ से कोई तत्त्वज्ञ भिक्षु जा रहा था। उसने पृथ्वीरूप राजा को देखा। उसको अत्यन्त सुन्दर देखकर उसने विचार किया कि इसके लायक ही कोई लड़की मिले और यह उससे ही विवाह करे तो ठीक होगा। उसने राजा के लोगों से कहा-'मैं राजा से मिलना चाहता हूँ, समय बता दिया जाय।' वह राजा से मिला तो राजा ने कहा- 'आपको क्या चाहिए?' उसने समझा कि भिक्षु है, कुछ लेने आया होगा। भिक्षु ने  कहा-'राजन्! मुझे तो कुछ नहीं चाहिए, परंतु तुम्हें कुछ बताने आया हूँ। तुम्हारे लायक एक कन्या है। उसका नाम है 'रूपलता' और वह अद्वितीय सुन्दरी है। वह मुक्तिपुर में रहती है। उसके पिता का नाम रूपधर' है और माता का नाम 'हेमलता' है वही तुम्हारी रानी बनने योग्य है; क्योंकि जैसी तुम्हारी सुन्दरता है, वैसी ही उसकी सुन्दरता है।'

राजा उसकी बात से प्रभावित हो गया। राजा ने मुक्तिपुर का पता लगाकर उस लड़की के साथ बात करने के लिये अपने मंत्रियों से कहा मुक्तिपुर  समुद्र का एक टापू था, अत: बहुत ढूँढ़ने के बाद ही उसका पता लग सका। उधर वह ज्ञानी भिक्षु विचारने लगा कि जैसे ही उस राजा की तरफ से मुक्तिपुर में विवाह-प्रस्ताव आयेगा तो क्या पता! रूप लता और यहाँ के लोग स्वीकार करें या न करें। वह भिक्षु एक सिद्धहस्त चित्रकार भी था। उसने राजा पृथ्वीरूप का बड़ा सुन्दर आकर्षक चित्र बनाया और मुक्तिपुर जाकर रूप लता को दिखा दिया और कह दिया-'यह प्रतिष्ठान पुरका राजा है और तुम्हारे लायक यही पति है।' इस पर रूपलता ने भी उससे ही विवाह करने की अपनी चाह माता-पिता को बता दी। इधर राजाने भी मुक्तिपुर का पता लगाकर अपने विवाह प्रस्ताव वहाँ भिजवाया। रूपलता तो उसका चित्र पहले ही देख चुकी थी। माता-पिता ने भी प्रस्ताव को स्वीकार कर रूपलता का विवाह पृथ्वीरूप राजा के साथ कर दिया। वहाँ से विवाह कर नवविवाहिता पत्नी को लेकर राजा जब प्रतिष्ठानपुर आया तो देखा कि प्रतिष्ठानपुर की जितनी युवतियाँ थीं, वे नाराज हुई बैठी हैं, वे कहती थीं कि क्या हमारे यहाँ कोई सुन्दर स्त्री नहीं है, जो हम सबको छोड़कर राजा दूर देश से विवाह करके आ रहे हैं?' परंतु हाथी पर बैठकर जब उसकी सवारी नवविवाहिता पत्नी के साथ निकली, तो सारी स्त्रियों का गर्व समाप्त हो गया और उन्होंने कहा कि राजा ने ठीक ही किया। तब दोनों सुख से रहने लगे।

प्रसंग का भावार्थ - इस दृष्टान्त का अर्थ यह है कि वह 'प्रतिष्ठानपुर' कोई नगर विशेष नहीं है, अपितु जिसमें सब चीजें प्रतिष्ठित हैं, उसका ही नाम प्रतिष्ठानपुर है और उसमें 'पृथ्वीरूप' राजा यह जीव है-यह पार्थिव देहवाला है। पृथ्वी के विकार का यह शरीर धारण किये हुए है, इसलिये यह पृथ्वीरूप राजा है। उससे वेदरूप भिक्षु जब मिलता है तो वह कहता है कि 'हे जीव! तेरे प्राप्त करने लायक पराविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या ही है, वही तुम्हारी पत्नी (जीवनसंगिनी) बनने योग्य है। इस पृथ्वीलोक के अन्दर जितने भी पदार्थ हैं, पार्थिव पदार्थ हैं, वे तेरे योग्य नहीं हैं, क्योंकि तेरी सुन्दरता चेतन की सुन्दरता है, मुक्तिपुर में रहनेवाली रूपलता ही तुम्हारी पत्नी बनने के योग्य है। पराविद्या ही रूपलता है। तत्त्वज्ञ भिक्षु (सद्गुरु) दोनों को मिलाने का काम करता है, सो यह साधन स्वरूप बुद्धि ही तत्व वेत्ता भिक्षु है, जिससे वेद के अर्थ का ज्ञान होता है। बुद्धि के द्वारा जिसको समझा जाय अर्थात् शुद्ध बुद्धि के द्वारा प्राप्त किया जाय, वही शास्त्र ज्ञान है। ब्रह्मविद्या तो पहले से ही जानती है कि मैं किसका विषय हूँ अर्थात् चेतन का ही विषय हूँ, इसलिये यह कभी नहीं समझना चाहिये कि मैं तो ब्रह्मविद्या को चाहता हूँ, क्या पता वह मुझे वरण करे या न करे परंतु जब तक तुम उसके समक्ष नहीं जाओगे, तब तक विवाह तो होगा नहीं। रास्ते में अनेक विघ्न आयेंगे, जैसे प्रतिष्ठानपुर की कोई स्त्री नहीं चाहती कि राजा दूसरे देश में जाएँ और वहां की लड़की से विवाह करें। उसी प्रकार तुम्हारे अन्तःकरण में रहने वाले जितने काम, क्रोध, मोह, मद, मात्सर्य आदि विकार हैं, वे भी कोई नहीं चाहते कि तुम उनसे विमुख होकर शुद्ध ब्रह्मविद्या (पराविद्या) प्राप्त करो। परंतु एक बार पराविद्या आ गयी, तो ये काम, क्रोध, मोह, मद, मात्सर्य आदि जो विकृतियाँ हैं, उनका गर्व समाप्त हो जायगा अर्थात् ये विकृतियाँ म्लान हो जाएगी। आत्मज्ञान के उदय होने पर तो ये सारे विकार सर्वथा म्लान हो जाते हैं। इनमें फिर कोई सामर्थ्य नहीं रहती। एक बार जहाँ पराविद्या की प्राप्ति हो गयी, वहाँ हमेशा के लिये सारे दुःखों से निवृत्ति हो जाती है अर्थात् अन्त:करण निर्मल हो जाता है।

#बोध_कथा #प्रेरक_प्रसंग


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मोह में दुःख



रामनगर के एक शाहजी ने एक सफेद चूहा पाल रखा था। उसे वे बड़े प्यार से खिलाते-पिलाते तथा देख भाल किया करते थे। शाहजी जब दुकानपर जाते, तो उसे अपने साथ ही ले जाते और जब वे दुकान से घर लौटते, तो उसे भी लौटा लाते थे। शाहजी की दुकान आटा-दाल की थी। उनकी दुकान में चूहे बहुत पैदा हो गये थे, इसलिये चूहों को मारने के वास्ते शाहजी ने एक बिल्ली पाल ली। जब बिल्ली बड़ी हुई, तब दुकान के चूहों का शिकार करने लगी, 4-6 चूहे नित्य मारकर खा जाती थी। शाहजी उसके चूहा पकड़ने पर बड़े प्रसन्न होते थे।
एक दिन की बात है कि बिल्ली को शिकार करने के लिये एक भी चूहा न मिला। बिल्ली भूखी थी, उसे अपने-बिराने का ज्ञान तो था ही नहीं। उसने झट शाहजी का पाला हुआ सफेद चूहा मारकर खा लिया। शाहजी अब करते क्या, देखते रह गये। जब बिल्ली को मारने दौड़े, तब वह भाग गयी। शाहजी दुःख में निमग्न बैठे कुछ सोच रहे थे कि इतने में उधर से उनके गुरु महाराज आ निकले। शाहजी को चिन्तित देखकर बोले-'क्यों, क्या हुआ? कुशल तो है?' शाहजी बोले महाराज! वैसे तो आपकी कृपा से सब कुशल-मंगल है, परंतु मेरे एक पाले हुए सफेद चूहे को बिल्ली खा गया।' गुरुजी ने कहा कि 'जब तुमने चूहा पाला था तो फिर बिल्ली क्यों पाल ली?' शाहजी ने कहा कि 'मैंने तो बिल्ली को दुकान से चूहों को मारने के वास्ते पाला था।' महात्मा जी ने कहा कि 'क्या और चूहों में जान नहीं थी?' तब शाहजी बोले 'हुआ करे जान, मुझे क्या, मुझे तो इसी चूहे से प्रेम था। मैंने इसे बड़ी मोहब्बत से पाला था। तब महात्माजी ने कहा कि 'भाई! तुम्हारे दुख का कारण चूहा नहीं है, बल्कि ममता है (यह मेरा है ऐसा भाव)।' शाहजी ने कहा-'हाँ महाराज!'
महात्माजी ने कहा कि संसार की समस्त वस्तुएँ नाशवान् हैं और प्रत्येक प्राणी को मृत्यु रूपी बिल्ली अवश्य खायेगी। यदि तुम सांसारिक पदार्थों में ममता करोगे तो दुःख से सताये जाओगे इन पदार्थों और स्त्री, पुत्र, धन आदि की ममता (मोह) छोड़कर अपने कर्तव्य का धैर्य के साथ पालन करो और सब में आत्मवत् भाव करो तभी दुख से छुटकारा पा सकोंगे।
यस्मिन् सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद् विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः॥
जिस ज्ञानी मनुष्य की दृष्टि में सभी प्राणी अपनी आत्मा के तुल्य हो जाते हैं, उसको फिर शोक, मोह नहीं होता।

#बोध_कथा #प्रेरक_प्रसंग


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रस्सी में सर्प का भ्रम



घड़ी ने अभी-अभी नौका घण्टा बजाया था। हिरेन 'सुन्दरवन के बाघ' फिल्म देखने के बाद वापस अपने घर लौट रहा था। रॉयल बंगाल बाघों के अंचल में जाकर इस फिल्म का निर्माण किया गया था। हिरेन उस फिल्म के दृश्यों के बारे में सोचता हुआ चला जा रहा था। चलते-चलते वह सहसा चौंक गया। सामने सड़क पर एक सांप लेटा हुआ था। उस पर उसका पाँव पड़ते-पड़ते रह गया था। बड़े भाग्य से ही उसकी जान बच गयी थी। वह थोड़ा पीछे हटकर और भी अच्छी तरह सांप को देखने लगा। यह एक वैसा ही नाग लग रहा था, जैसा कि उसने कुछ दिनों पूर्व सँपेरे की टोकरी में देखा था।

हिरेन ने सांप से बचने के लिये बगल का एक दूसरा रास्ता पकड़ने की सोची। तभी उसने देखा कि एक व्यक्ति हाथ में टार्च लिये उस सांप की ओर ही चला जा रहा है।हिरेन चिल्लाया-'उधरसे मत जाओ, सड़क पर एक नाग लेटा है।'
वह व्यक्ति बोला-'डरो मत। मेरे साथ आओ। घण्टे भर पहले मैं इसी सड़क से होकर गया था। मैंने तुम्हारे साँप को देख लिया है। वह नाग नहीं, रस्सी का एक टुकड़ा मात्र है।' वह हीरेन को उस जगह ले गया। हिरेन ने टार्च से आलोकित सड़क को स्पष्ट रूपसे देखा तो उसे पता चला कि वहाँ कोई नाग नहीं, बल्कि एक रस्सी पड़ी है। दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े। हिरेन का भय जा चुका था।
कभी-कभी हम एक वस्तु को कुछ दूसरा समझ बैठते हैं और इस कारण हम भ्रमित या भयभीत हो जाते हैं। वेदान्त की मतानुसार रस्सी में सर्प के भय के समान ही हमारे सुख-दुःख, हमारी समस्या, आशंका और चिन्ताएँ एक तरहके भ्रम पर आधारित होती हैं। मूलत: हम पूर्ण और आनन्दमय हैं, तथापि हम अपनेको श्मशान की ओर अग्रसर हो रहे एक लाचार मत्स्य प्राणी के रूपमें देखते हैं। हम लोग ऐसा व्यवहार करते हैं, मानो हमपर जादू कर दिया गया हो और इसीको वेदान्त में माया कहते हैं। जब मायाका जादू टूट जाता है, तब हमें अपने वास्तविक स्वरूपका ज्ञान होता है।

#बोध_कथा #प्रेरक_प्रसंग


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12 राशि नाम और अक्षर - 12 Rashi Naam



 Rashi Name | 12 Rashi Akshar | 12 Rashi Name | 12 Rashi Ke Naam.

1    मेष राशि (Aries)     अ     *     ल     *     ई
2    वृषभ राशि (Taurus)    ब     *     व     *     उ
3    मिथुन राशि (Gemini)    क     *     छ     *     घ
4    कर्क राशि (Cancer)    ड     *     ह
5    सिंह राशि (Leo)     म     *     ट
6    कन्या राशि (Virgo)     प     *     ठ     *     ण
7    तुला राशि (Libra)     र     *     त
8    वृश्चिक राशि (Scorpio)     न     *     य
9    धनु राशि (Sagittarius)     फ     *     ध     *     भ     *     ढ
10    मकर राशि (Capricorn)     ख     *     ज
11    कुंभ राशि (Aquarius)     ग     *     स     *     श     *     ष
12    मीन राशि (Pisces)     द     *     च     *     झ     *     थ

Rashi Name | 12 Rashi Akshar | 12 Rashi Name | 12 Rashi Ke Naam.

Tag - Rashi Name,  12 Rashi Akshar,  12 Rashi Name,  12 Rashi Ke Naam



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वेदों और श्रुतियों की जननी देवी गायत्री की जयंती और अवतरण



Gayatri Mantra

कौन हैं गायत्री माता कैसे हुआ अवतरण
मान्यता है कि चारों वेद, शास्त्र और श्रुतियां सभी गायत्री से जन्मी हैं। वेदों की उत्पत्ति कारण इन्हें वेद माता कहा जाता है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवताओं की आराध्य भी इन्हें ही माना जाता है इसलिए इन्हें देवमाता भी कहा जाता है। समस्त ज्ञान की देवी भी गायत्री हैं इस कारण गायत्री को ज्ञान-गंगा भी कहा जाता है। इन्हें भगवान ब्रह्मा की दूसरी पत्नी भी माना जाता है। माना जाता है कि सृष्टि के आदि में ब्रह्मा जी पर गायत्री मंत्र प्रकट हुआ। मां गायत्री की कृपा से ब्रह्मा जी ने गायत्री मंत्र की व्याख्या अपने चारों मुखों से चार वेदों के रूप में की। आरंभ में गायत्री सिर्फ देवताओं तक सीमित थी लेकिन जिस प्रकार भगीरथ कड़े तप से गंगा मैया को स्वर्ग से धरती पर उतार लाए उसी तरह विश्वामित्र ने भी कठोर साधना कर मां गायत्री की महिमा अर्थात गायत्री मंत्र को सर्वसाधारण तक पहुंचाया।

मां गायत्री को माना गया है पंचमुखी
हिंदू धर्म में मां गायत्री को पंचमुखी माना गया है, जिसका अर्थ है यह संपूर्ण ब्रह्मांड जल, वायु, पृथ्वी, तेज और आकाश के पांच तत्वों से बना है। संसार में जितने भी प्राणी हैं, उनका शरीर भी इन्हीं पांच तत्वों से बना है। इस पृथ्वी पर प्रत्येक जीव के भीतर गायत्री प्राण-शक्ति के रूप में विद्यमान है। यही कारण है गायत्री को सभी शक्तियों का आधार माना गया है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में आस्था रखने वाले हर प्राणी को प्रतिदिन गायत्री उपासना अवश्य करनी चाहिए।

गायत्री जयंती
पुराणों के अनुसार गायत्री जयंती ज्येष्ठ माह के शुक्ल पक्ष में 11 वें दिन मनाई जाती है। कहते हैं कि महागुरु विश्वामित्र ने पहली बार गायत्री मंत्र को ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की ग्यारस को बोला था, जिसके बाद इस दिन को गायत्री जयंती के रूप में जाना जाने लगा। तो कह सकते हैं कि गायत्री जयंती की उत्पति महर्षि विश्वामित्र द्वारा हुई थी, उनका दुनिया में अज्ञानता दूर करने में विशेष योगदान रहा है, वैसे गायत्री जयंती ज्यादातर गंगा दशहरे के दूसरे दिन आती है। कुछ लोगों के अनुसार इसे श्रवण पूर्णिमा के समय भी मनाया जाता है। गायत्री जयंती पर गायत्री मंत्र जपने से यश, प्रसिद्धि, धन व ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। यदि आप गायत्री मंत्र का पूरा लाभ चाहते हैं तो इसको सही विधि विधान तथा पूरी पवित्रता के साथ बोलना चाहिये।


गायत्री माता की महिमा
हिंदू धर्म में मां गायत्री को वेद माता कहा जाता है अर्थात सभी वेदों की उत्पत्ति इन्हीं से हुई है। पुराणों के अनुसार इन गायत्री देवी को ब्रह्मा, विष्णु, महेश (त्रिमूर्ति) के बराबर माना जाता है और त्रिमूर्ति मानकर ही इनकी आराधना की जाती है। देवी गायत्री को सभी देवी-देवता की माता माना जाता है व देवी सरस्वती, पार्वती और देवी लक्षमी का अवतार माना जाता है। गायत्री के 5 सिर और 10 हाथ माने जाते हैं। उनके स्वरूप में चार सिर चारों वेदों के प्रतीक हैं और उनका पाँचवाँ सिर सर्वशक्तिमान शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। वे कमल पर विराजमान हैं, गायत्री के 10 हाथ भगवान विष्णु के प्रतीक हैं, इन्हें भगवान ब्रह्मा की दूसरी पत्नी भी माना जाता है। माता गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी भी कहा जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार, ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मां गायत्री का अवतरण माना जाता है। इस दिन को हम गायत्री जयंती के रूप में मनाते हैं। धर्म ग्रंथों में यह भी लिखा है कि मां गायत्री की उपासना करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं और किसी वस्तु की कमी नहीं होती है। मां गायत्री से आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, धन एवं ब्रह्मवर्चस के सात प्रतिफल अथर्ववेद में बताए गए हैं।
गायत्री की महिमा में प्राचीन भारत के ऋषि-मुनियों से लेकर आधुनिक भारत के विचारकों तक अनेक बातें कही हैं। वेद, शास्त्र और पुराण तो गायत्री मां की महिमा गाते ही हैं। अथर्ववेद में मां गायत्री को आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्मतेज प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। महाभारत के रचयिता वेद व्यास कहते हैं गायत्री की महिमा में कहते हैं जैसे फूलों में शहद, दूध में घी सार रूप में होता है वैसे ही समस्त वेदों का सार गायत्री है। यदि गायत्री को सिद्ध कर लिया जाए तो यह समस्त इच्छाओं की पूर्ति पूरी करने वाली दैवीय गाय कामधेनु के समान है। जैसे गंगा शरीर के पापों को धो कर तन मन को निर्मल करती है उसी प्रकार गायत्री रूपी ब्रह्म गंगा से आत्मा पवित्र हो जाती है। गायत्री को सर्वसाधारण तक पहुंचाने वाले विश्वामित्र कहते हैं कि ब्रह्मा जी ने तीनों वेदों का सार तीन चरण वाला गायत्री मंत्र निकाला है। गायत्री से बढ़कर पवित्र करने वाला मंत्र और कोई नहीं है। जो मनुष्य नियमित रूप से गायत्री का जप करता है वह पापों से वैसे ही मुक्त हो जाता है जैसे केंचुली से छूटने पर सांप होता है। गायत्री माता भक्त देवी गायत्री को आदि शक्ति मानते हैं और इसी रूप में उनकी आराधना करते हैं। प्रतीकात्मक रूप से गायत्री देवी को ज्ञान की देवी माना जाता है, कहते हैं कि इनके रहने से अज्ञानता दूर होती है, इस ज्ञान को विश्वमित्र द्वारा पूरी दुनिया में फैलाया गया है।

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क्यों कहा जाता है वेदमाता
गायत्री संहिता के अनुसार, ‘भासते सततं लोके गायत्री त्रिगुणात्मिका’यानी गायत्री माता सरस्वती, लक्ष्मी एवं काली का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन तीनों शक्तियों से ही इस परम ज्ञान यानी वेद की उत्पत्ति होने के कारण गायत्री को वेद माता कहा गया है। गायत्री मंत्र के लिए शास्त्रों में लिखा है कि सर्वदेवानां गायत्री सारमुच्यते जिसका मतलब है गायत्री मंत्र सभी वेदों का सार है। इसलिए मां गायत्री को वेदमाता कहा गया है। मां गायत्री का उल्लेख ऋक्, यजु, साम, तैत्तिरीय आदि सभी वैदिक संहिताओं में है। कुछ उपनिषदों में सावित्री और गायत्री दोनों को एक ही बताया गया है। किसी समय ये सविता की पुत्री के रूप में प्रकट हई थीं, इसलिये इनका नाम सावित्री पड़ गया। कहा जाता है कि सविता के मुख से इनका प्रादुर्भाव हुआ था। भगवान सूर्य ने इन्हें ब्रह्माजी को समर्पित कर दिया। तभी से इनको ब्रह्माणी भी कहा जाता है। गायत्री ज्ञान-विज्ञान की मूर्ति हैं। ये ब्राह्मणों की आराध्य देवी हैं। इन्हें परब्रह्मस्वरूपिणी कहा गया है। वेदों, उपनिषदों और पुराणादि में इनकी विस्तृत महिमा का वर्णन मिलता है।

देवी गायत्री के विवाह की कथा
एक कथा के अनुसार ब्रह्मा किसी यज्ञ में जाते हैं। परंपरा के अनुसार किसी भी पूजा, अर्चना, यज्ञ में शादीशुदा इंसान को जोड़े में ही बैठना चाहिए। जोड़े में बैठने से उसका फल जल्दी व अवश्य मिलता है, लेकिन किसी कारणवश ब्रह्मा की पत्नी सावित्री को आने में देरी हो जाती है, इस दौरान ब्रह्मा जी वहां मौजूद देवी गायत्री से विवाह कर लेते हैं और अपनी पत्नी के साथ यज्ञ शुरू कर देते हैं।

गायत्री मंत्र और अर्थ
Gayatri Mantra
ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
अर्थ - सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परामात्मा के तेज का हम ध्यान करते हैं, वह परमात्मा का तेज हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करें।
इस मंत्र के जाप से ज्ञान की प्राप्ति होती है और मन शांत तथा एकाग्र रहता है। ललाट पर चमक आती है। गायत्री माता के विभिन्न स्वरूपों का उनके मंत्रों के साथ जाप करने से दरिद्रता, दुख और कष्ट का नाश होता है, नि:संतानों को पुत्र की प्राप्ति होती है।

गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षर
गायत्री मंत्र में चौबीस (24) अक्षर हैं। ऋषियों ने इन अक्षरों में बीज रूप में विद्यमान उन शक्तियों को पहचाना जिन्हें चौबीस अवतार, चौबीस ऋषि, चौबीस शक्तियां तथा चौबीस सिद्धियां कहा जाता है। गायत्री मंत्र के चौबीस अक्षर 24 शक्ति बीज हैं। गायत्री मंत्र की उपासना करने से उन मंत्र शक्तियों का लाभ और सिद्धियां मिलती हैं। गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षरों के चौबीस देवता हैं यह चौबीस अक्षर चौबीस शक्तियों-सिद्धियों के प्रतीक हैं। यही कारण है कि ऋषियों ने गायत्री मंत्र को भौतिक जगत में सभी प्रकार की मनोकामना को पूर्ण करने वाला बताया है। उन शक्तियों के द्वारा क्या - क्या लाभ मिल सकते हैं, उनका वर्णन इस प्रकार हैं–
  1. तत्: देवता - गणेश, सफलता शक्ति। फल : कठिन कामों में सफलता, विघ्नों का नाश, बुद्धि की वृद्धि।
  2. स: देवता - नरसिंह, पराक्रम शक्ति। फल : पुरुषार्थ, पराक्रम, वीरता, शत्रु नाश, आतंक - आक्रमण से रक्षा।
  3. वि: देवता - विष्णु, पालन शक्ति। फल : प्राणियों का पालन, आश्रितों की रक्षा, योग्यताओं की वृद्धि।
  4. तु: देवता - शिव, कल्याण शक्ति। फल : अनिष्ट का विनाश, कल्याण की वृद्धि, निश्चितता, आत्म परायणता।
  5. व: देवी - श्रीकृष्ण, योग शक्ति। फल : क्रियाशीलता, कर्मयोग, सौन्दर्य, सरसता, अनासक्ति, आत्म निष्ठा।
  6. रे: देवी - राधा, प्रेम शक्ति। फल : प्रेम - दृष्टि, द्वेष भाव की समाप्ति।
  7. णि: देवता - लक्ष्मी, धन शक्ति। फल : धन, पद, यश और भोग्य पदार्थों की प्राप्ति।
  8. यं: देवता - अग्नि, तेज शक्ति। फल : प्रकाश, शक्ति और सामर्थ्य की वृद्धि, प्रतिभाशाली और तेजस्वी होना।
  9. भ : देवता - इन्द्र, रक्षा शक्ति। फल : रोग, हिंसक चोर, शत्रु, भूत - प्रेतादि के आक्रमणों से रक्षा।
  10. र्गो : देवी - सरस्वती, बुद्धि शक्ति। फल: मेधा की वृद्धि, बुद्धि में पवित्रता, दूरदर्शिता, चतुराई, विवेकशीलता।
  11. दे : देवी - दुर्गा, दमन शक्ति। फल : विघ्नों पर विजय, दुष्टों का दमन, शत्रुओं का संहार।
  12. व : देवता - हनुमान, निष्ठा शक्ति। फल : कर्तव्यपरायणता, निष्ठावान, विश्वासी, निर्भयता एवं ब्रह्मचर्य - निष्ठा।
  13. स्य : देवी - पृथ्वी, धारण शक्ति। फल : गंभीरता, क्षमाशीलता, भार वहन करने की क्षमता, सहिष्णुता, दृढ़ता, धैर्य।
  14. धी : देवता - सूर्य, प्राण शक्ति। फल : आरोग्य - वृद्धि, दीर्घ जीवन, विकास, वृद्धि, उष्णता, विचारों का शोधन।
  15. म : देवता - श्रीराम, मर्यादा शक्ति। फल : तितिक्षा, कष्ट में विचलित न होना, मर्यादा पालन, मैत्री, सौम्यता, संयम।
  16. हि : देवी - श्रीसीता, तप शक्ति। फल: निर्विकारता, पवित्रता, शील, मधुरता, नम्रता, सात्विकता।
  17. धि : देवता - चन्द्र, शांति शक्ति। फल : उद्विग्नता का नाश, काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिन्ता का निवारण, निराशा के स्थान पर आशा का संचार।
  18. यो : देवता - यम, काल शक्ति। फल : मृत्यु से निर्भयता, समय का सदुपयोग, स्फूर्ति, जागरुकता।
  19. यो : देवता - ब्रह्मा, उत्पादक शक्ति। फल: संतान वृद्धि, उत्पादन शक्ति की वृद्धि।
  20. न: देवता - वरुण, रस शक्ति। फल : भावुकता, सरलता, कला से प्रेम, दूसरों के लिए दया भावना, कोमलता, प्रसन्नता, आर्द्रता, माधुर्य, सौन्दर्य।
  21. प्र :देवता - नारायण, आदर्श शक्ति। फल :महत्वाकांक्षा - वृद्धि, दिव्य गुण-स्वभाव, उज्ज्वल चरित्र, पथ - प्रदर्शक कार्यशैली।
  22. चो : देवता - हयग्रीव, साहस शक्ति। फल : उत्साह, वीरता, निर्भयता, शूरता, विपदाओं से जूझने की शक्ति, पुरुषार्थ।
  23. द : देवता - हंस, विवेक शक्ति। फल : उज्जवल कीर्ति, आत्म - संतोष, दूरदर्शिता, सत्संगति, सत् - असत् का निर्णय लेने की क्षमता, उत्तम आहार-विहार।
  24. यात् : देवता - तुलसी, सेवा शक्ति। फल : लोकसेवा में रुचि, सत्यनिष्ठा, पातिव्रत्यनिष्ठा, आत्म - शान्ति, परदु:ख - निवारण।
गायत्री उपासना से हर कार्य संभव
गायत्री, गीता, गंगा और गौ यह भारतीय संस्कृति की चार आधार शिलाएं हैं। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने इस बात का उल्लेख किया है कि मनुष्य को अपने कल्याण के लिए गायत्री और ॐ का उच्चारण करना चाहिए। वेदों में माँ गायत्री को आयु, प्राण, शक्ति, कीर्ति, धन और ब्रह्म तेज प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। इनकी उपासना से मनुष्य को यह सब आसानी से प्राप्त हो जाता हैं।

गायत्री मंत्र का लाभ
महाभारत के रचयिता वेद व्यास जी गायत्री की महिमा का यशोगान करते हुए कहते हैं कि जैसे फूलों में शहद, दूध में घी होता है, वैसे ही समस्त वेदों का सार देवी गायत्री हैं। यदि गायत्री को सिद्ध कर लिया जाए तो यह समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली काम धेनु गाय के समान हैं। गायत्री मंत्र से आध्यात्मिक चेतना विकास होता हैं एवं इस मंत्र का श्रद्धा पूर्वक निरंतर जप करने से सभी कष्टों का निवारण होता हैं एवं माँ उसके चारों ओर रक्षा-कवच का निर्माण स्वयं करती हैं। योग पद्धति में भी माँ गायत्री मंत्र का उच्चारण किया जाता हैं।


देवी और देवताओं के गायत्री मंत्र
  1. काली :- ॐ कालिकायै च विद्महे, स्मशानवासिन्यै धीमहि, तन्नो घोरा प्रचोदयात् ।।
  2. कृष्ण :- ॐ देवकीनन्दनाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि, तन्नो कृष्ण प्रचोदयात् ।।
  3. गणेश:- ॐ एकदन्ताय विद्महे, वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ।।
  4. दुर्गा :- ॐ कात्यायन्यै विद्महे, कन्याकुमार्ये च धीमहि, तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ।।
  5. राम :- ॐ दशरताय विद्महे, सीता वल्लभाय धीमहि, तन्नो रामा: प्रचोदयात् ।।
  6. रुद्र :- ॐ तत्पुरुषाय विद्महे, महादेवाय धीमहि, तन्नो रुद्र: प्रचोदयात् ।।
  7. लक्ष्मी:- ॐ महादेव्यै च विद्महे, विष्णुपत्न्यै च धीमहि, तन्नो लक्ष्मी प्रचोदयात् ।।
  8. विष्णु:- ॐ नारायणाय विद्महे, वासुदेवाय धीमहि, तन्नो विष्णु प्रचोदयात् ।।
  9. सरस्वती :- ॐ वाग्देव्यै च विद्महे, कामराजाय धीमहि, तन्नो देवी प्रचोदयात् ।
  10. हनुमान :- ॐ आञ्जनेयाय विद्महे, वायुपुत्राय धीमहि, तन्नो हनुमान् प्रचोदयात् ।।
इस तरह गायत्री मंत्र का जप
गायत्री मंत्र के जप से कई प्रकार का लाभ मिलता है। यह मंत्र कहता है 'उस प्रमाणस्वरूप, दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करें।' यानी इस मंत्र के जप से बौद्धिक क्षमता और मेधा शक्ति यानी स्मरण की क्षमता बढ़ती है। इससे व्यक्ति का तेज बढ़ता है साथ ही दुःखों से छूटने का रास्ता मिलता है। गायत्री मंत्र का जप सूर्योदय से दो घंटे पूर्व से लेकर सूर्यास्त से एक घंटे बाद तक किया जा सकता है। मौन मानसिक जप कभी भी कर सकते हैं लेकिन रात्रि में इस मंत्र का जप नहीं करना चाहिए। माना जाता है कि रात में गायत्री मंत्र का जप लाभकारी नहीं होता है। आर्थिक मामलों में परेशानी आने पर गायत्री मंत्र के साथ श्रीं का संपुट लगाकर जप करने से आर्थिक बाधा दूर होती है। छात्रों के लिए यह मंत्र बहुत ही फायदेमंद है। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि गायत्री सद्बुद्धि का मंत्र है, इसलिए उसे मंत्रों का मुकुट मणि कहा गया है। नियमित 108 बार गायत्री मंत्र का जप करने से बुद्धि प्रखर और किसी भी विषय को लंबे समय तक याद रखने की क्षमता बढ़ जाती है। यह व्यक्ति की बुद्धि और विवेक को निखारने का भी काम करता है।

गायत्री जयन्ती को क्या करें
  1. अन्न का दान करें।
  2. इस दिन भंडारा करायें। लोगों को शीतल जल पिलायें। घर की छत पर जल से भरा पात्र रखें जिससे चिड़ियों के कंठ तृप्त हो सकें।
  3. गायत्री मन्त्र का जप करके हवन करें।
  4. गुड़ और गेहूं का दान करें।
  5. धार्मिक पुस्तक का दान करें।
  6. पवित्र नदी में स्नान करें।
  7. फला हार व्रत रहें।
  8. श्री आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें।
  9. सत्य बोलने का प्रयास करें।
  10. सूर्य पूजा करें।


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