राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साहित्य एवं साहित्यकार



माधवराव सदाशिव गोलवलकर का चिंतन सर्वदा राष्ट्र, समाज एवं ग्रंथों पर चलता रहता था। इससे चिंतन में एक दिन उनके मन में विचार आया कि साहित्य के क्षेत्र में कार्य प्रारम्भ करना चाहिए, जिससे ग्रंथों का संरक्षण किया जा सके। दूसरी ओर साहित्य में दो कमियाँ थी, भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता को नकारना व सभी भारतीय भाषाओं का एक साझा मंच नहीं था। इन कारणों को देखते हुए सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र जी के साथ मिलकर, 1966 में ‘अखिल भारतीय साहित्य परिषद’ की स्थापना की गई।

Sangh Sahitya
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख हिन्दी साहित्यकारों के विकास के लिए प्रचार माध्यम की व्यवस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा की गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति का चरित्र-निर्माण और समाज का संगठन तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार को सारे समाज में पहुँचाना, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य है। इस कार्य का प्रमुख साधन है स्वयंसेवक, जो व्यक्तिगत सम्पर्क और बंधुभाव का विस्तार करते हुए यह कार्य सम्पन्न करता है। फिर भी इसमें उसकी सहायता के लिए जनसंचार माध्यमों और लिखित साहित्य की भी अपनी उपयोगिता है। अतएव 1947 में कुछ स्वयंसेवकों ने दिल्ली में ‘भारत प्रकाशन’ नामक संस्था स्थापित कर ‘ऑर्गेनाइजर’ साप्ताहिक पत्र प्रारंभ किया। फिर ‘पाञ्चजन्य’ साप्ताहिक और ‘राष्ट्र धर्म’ मासिक (लखनऊ) का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। बाद के वर्षों में विभिन्न प्रान्तों से ‘मदरलैण्ड’, ‘स्वदेश’, ‘युगधर्म’, ‘तरुण भारत’ इत्यादि दैनिक समाचार-पत्र तथा कुछ पत्रिकाएँ भी प्रकाशित होने लगी। अनेक वर्षों तक ‘हिन्दुस्तान’ नामक समाचार अभिकरण भी चलाया गया। कतिपय कारणों से व्यवधान के उपरान्त अब पुनः कार्यरत है। वर्तमान में आधुनिक सूचना-माध्यमों से युक्त विश्व संवाद केन्द्र भी अनेक स्थानों पर स्थापित किये गये हैं।

पुस्तक रूप में राष्ट्रवादी साहित्य के प्रकाशन हेतु दिल्ली में सुरुचि प्रकाशन, लखनऊ में लोकहित प्रकाशन, जयपुर में ज्ञानगंगा प्रकाशन, भोपाल में अर्चना प्रकाशन, मुम्बई, नागपुर, पूणे में भारतीय विचार साधना, विजयवाड़ा में साहित्य निकेतन, कुरुक्षेत्र में विद्याभारती प्रकाशन व जालन्धर में अपना साहित्य इत्यादि संस्थाओं की स्थापना की गयी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख हिन्दी साहित्यकारों का परिचय इस प्रकार हैः-

1. डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नींव रखने के कारण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अनेक भाषण, संवाद के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों को आगे बढ़ाया। आपकी पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तत्व और व्यवहार में आपने हिन्दुओं का भविष्य, संगठन व स्वयंसेवकों के गुणों को बड़े ही प्रभावशाली लेखों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। यह लेख सुरुचि प्रकाशन के द्वारा संकलित है।

Dr. Keshav Baliram Hedgewar

2. माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख साहित्यकारों में इनका नाम लिया जाता है, इन्हें श्री गुरुजी के नाम से लोग अधिक जानते हैं। श्री गुरुजी की पुस्तक ‘विचार नवनीत’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आधार कही जा सकती है। इसमें अनेक लेखक व भाषणों का संग्रह है। इसमें उन्होंने राष्ट्र, संस्कृति, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का परिचय अधिकतर सभी विषयों से ये हमें परिचित कराते हैं। इनकी दूसरी पुस्तक ‘गुरु दक्षिणा’ में इन्होंने गुरु, दक्षिणा, यज्ञ, गुरुपूर्णिमा के विषयों को बड़े ही अच्छे ढंग से स्पष्ट किया है। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग इनकी पुस्तक में देखने को मिलता है।

Professor Madhavrao Sadashiv Golwalkar

3. श्री चन्द्रशेखर परमानन्द भिशीकर - श्री चन्द्रशेखर परमानन्द जी मूलतः नागपुर निवासी है। दैनिक ‘तरुण भारत’ का सम्पादन 1949 में किया। इसी की एक शाखा पुणे में खुल गई वहाँ पर आपने कार्यकारी सम्पादन किया। आगे चलकर 1964 से 1978 में आप ‘तरुण भारत’ के मुख्य संपादक रहे। विगत लगभग 12 वर्षों से वे रविवार के तरुण भारत में चिंतनशील साहित्यिक स्तम्भ लिखते रहे हैं। आप ने दो ग्रंथ ‘केशवः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ निर्माता’ और ‘श्री गुरुजी’, ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय के विचार दर्शनः राष्ट्र की अवधारणा’ एक से अधिक भाषाओं में प्रकाशित हुई है। ‘डॉ. हेडगेवार परिचय एवं व्यक्तित्व’ पुस्तक में भी आपने डॉ. हेडगेवार के व्यक्तित्व को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से दिखाया है। आपके विचारों में आध्यात्मिकता देखने को मिलता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघप्रणीत जनकल्याण-समिति के आप प्रांतीय उपाध्यक्ष है।

4. पंडित दीनदयाल उपाध्याय - पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर 1916 में एक गरीब परिवार में प्रसिद्ध ज्योतिषी पं. हरिराम उपाध्याय के वंश में उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में, नाग्ला चन्द्रभान ग्राम में हुआ। स्वयंसेवक, वक्ता, लेखक, पत्रकार, 1951 के बाद राजनीतिज्ञ साथ में चिंतक। जीवन भर देश, जनता और उसकी समस्या इन्ही चिन्ता में मग्न। आजन्म ब्रह्मचारी, स्नेहशील विनोदप्रिय व्यक्ति थे। उनकी रचनाएँ- ‘पोलिटिकल डायरी’, ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’, ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’, लघु उपन्यास (मात्र 16 घण्टे में रचित)- ‘चन्द्रगुप्त मौर्य’ आदि हैं। दीनदयाल जी की भाषा सरल व स्पष्ट थी। यह भी संस्कृतनिष्ठ भाषा के पक्षधर थे। इन्होंने हर समसामायिक परिस्थितियों के अनुसार लेख भी ‘आर्गनाईजर’ में लिखे हैं, जिनका संकलन ‘पोलिटिकल डायरी’ में है। राष्ट्र को दिशा देने के, राष्ट्र, राज्य, व्यक्ति व समाज जैसे विषयों को उन्होंने ‘राष्ट्र जीवन की दिशा’ में स्पष्ट किया है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का स्वरूप भी स्पष्ट किया है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रमुख साहित्यकारों में से इनका नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है।

Pandit Deendayal Upadhyay

5. श्री दत्तोपंत बालकृष्ण ठेंगड़ी - राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों तथा स्वर्गीय श्री गुरुजी के निकट सहवास से जिस गुण समृद्ध नेतृत्व का अनेक क्षेत्रों में निर्णय हुआ, उनमें श्री दत्तोपंत बालकृष्ण ठेंगड़ी का उल्लेख प्रमुखता से करना होगा कुशाग्र मेधा के अध्ययनशील तत्वचिन्तक, कुशल संगठन और राष्ट्र समर्पित जीवन के तपस्वी थे। श्री ठेंगड़ी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आजीवन प्रचारक थे। संगठन के कार्य को, उलझाये रखने वाले दायित्व संभालते हुए भी ठेंगड़ी ने सैद्धान्तिक लेखन पर्याप्त मात्रा में किया है। उन्होंने अपने गं्रथ ‘दत्तोपंत बापूराव ठेंगड़ी के विचार दर्शन’ व ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शनः तत्व जिज्ञासा’ में दीनदयाल के दार्शनिक विचारों को, पाठकों तक सम्प्रेषित करने में सफल हुए हैं। जिसका अनुभव पाठक कर सकते हैं।

Dattopant Thengadi

6. श्री भालचंद्र कृष्णा जी केलकर - सिद्धस्त पत्रकार, लेखक तथा दिल्ली में ‘महाराष्ट्र परिचय केंद्र’ के संस्थापक-संचालक श्री भालचंद्र कृष्ण जी केलकर ने ‘नवशक्ति’, ‘विवेक’, ‘तरुण भारत’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में भरपूर लेखन किया है। 1983 में सरकारी सेवा से निवृत्त हो गये थे व स्वतंत्र लेखन शुरू किया है। इनकी रचनाएँ ‘सुभाष चरित्र’, ‘तिलक विचार’, ‘समाज-सुधारक सावरकर’, ‘सावरकर दर्शन’ व ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शनः राजनीतिक चिन्तन’ आदि लिखे हैं। दीनदयाल जी का राजनीतिक दृष्टिकोण, उनके अनुभव के साथ लिखा है जो पाठकों को पढ़ने के लिए आकर्षित करता है।

7. डॉ. जागेश्वर पटेल - डॉ. जागेश्वर पटेल का जन्म मध्य प्रदेश के बालाघाट जिले में बैहर तहसील के चीनी ग्राम में 25 जून, 1977 को हुआ। इन्होंने ‘माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर’ के राजनीति चिन्तन पर पी.एच-डी. की। 1999 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बने। आप विभिन्न अकादमिक संस्थाओं के आजीवन सदस्य हैं एवं लेखन कार्य में सतत् संलग्न है। इनकी रचनाएँ हैं- ‘श्री गुरुजी-एक राष्ट्रवादी संगठक’, ‘श्री गुरुजी एक बहुआयामी व्यक्तित्व’ है, जिसमें इन्हेांने ‘श्री गुरुजी’ के व्यक्तित्व, दर्शन, उनके दृष्टिकोण को उदाहरणों सहित अपनी पुस्तक में प्रस्तुत किया है। ‘श्री गुरुजी’ को जानने के लिए यह पुस्तकें बहुत उपयोगी हैं।

8. श्री आनन्द आदीश - उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ अन्तर्गत ग्राम खेकड़ा के संभ्रान्त, सुशिक्षित, समाजसेवी, जमींदार, वैष्णव परिवार में इनका जन्म हुआ। हिन्दी, अंग्रेजी में स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की। आप पूर्व प्राचार्य, निदेशक, ब्यूरो आॅफ टैक्स्ट बुक्स, हिन्दी अकादमी के सदस्य व अखिल भारतीय साहित्य परिषद के राष्ट्रीय महासचिव पद पर कार्य किया। आप का काव्य संकलन ‘‘राष्ट्र-मंत्र के हे उद्गाता!’’ में आपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जन्म, विचारधारा व केशव जी का जन्म का वर्णन प्रभावशाली व आकर्षक ढंग से किया है।

9. डॉ. कृष्ण कुमार बवेजा - 24 सितम्बर, 1949 में सोनीपत, हरियाणा में डॉ. कृष्ण कुमार बवेजा जी का जन्म हुआ। पिता का नाम श्री हिम्मत राम बवेजा व माता का नाम भागवंती देवी जी था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कार घर से ही मिले। गणित विषय में आपने पी.एच.-डी. की थी। हिन्दू कॉलेज, रोहतक में आप प्राध्यापक थे। उसके बाद आप प्रचारक बने। आपातकाल में आपको जेल भी भेजा गया, जहां पर आपको भीषण यातनाएं दी गयीं। पंजाब प्रांत में बौद्धिक प्रमुख, दिल्ली में सह प्रान्त प्रचारक, हरियाणा के प्रान्त प्रचारक व अनेक वर्षों तक उत्तर क्षेत्र के बौद्धिक प्रमुख भी रहे। इनकी पुस्तक ‘‘श्री गुरुजी व्यक्तित्व एवं कृतित्व’’ इन्होंने गुरुजी के जन्म शताब्दी के वर्ष में इस पुस्तक की रचना करके राष्ट्रीय स्तर के साहित्य में सहयोग किया। इस पुस्तक में गुरु जी की अनेक विचारधारा का वर्णन लेखक ने किया है।

10. श्री रूप सिंह भील - श्री रूप सिंह भील का जन्म 12 जुलाई 1934 को राजस्थान के उदयपुर जिले के खैरवाड़ा तहसील के बनवासी गाँव विलख में हुआ। ‘राजस्थान में भूमि सुधार’ में आदिवासियों के अधिकार और वननीति संबंधी इनका लेख सम्मिलित है। सन् 1996 में काॅमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स एण्ड माइनोरिटी ग्रुप द्वारा नई दिल्ली में आयोजित जनजाति व आदिम जातियों के अधिकार विषयक कार्यशाला में अपना प्रपत्र प्रस्तुत किया, जो संगठन द्वारा प्रकाशित पुस्तक में सम्मिलित है। जनजाति व अंग्रेजी शासन पर रचित उनकी पुस्तक ‘‘अंग्रेजी शासन में सामग्री शोषण एवं जनजातिय भगत आन्दोलन’’ एक सराहनीय पुस्तक है। 1998 में इन्हें जनजाति समाज की उल्लेखनीय सेवा के लिए ‘महाराणा मेवाड़ फाउन्डेशन का राणा पूजा अवार्ड से नवाजा गया।

11. श्री शरद अनन्त कुलकर्णी - महाराष्ट्र प्रान्त में जलगाँव के निवासी श्री शरद अनंत कुलकर्णी आर्थिक विषयों के अध्येता और अधिकारी लेखक है। बाल्यावस्था से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक रहते हुए अनेक वर्षों तक उन्होंने जिला कार्यवाह का दायित्व संभाला। आपकी पुस्तक ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन एकात्मक अर्थनीति’ दीनदयाल जी के आर्थिक दृष्टिकोण को समझने सहायक पुस्तक है।

12. श्री विश्वनाथ नारायण देवधर - श्री देवधर जी, आरम्भ से ही पत्रकार थे। इन्होंने ‘दैनिक भारत’ तथा केसरी से शुरुआत की थी। 1978 से 1984 तक पुणे के ‘तरुण भारत’ के मुख्य संपादक रहे। सटीकता, स्नेहपूर्ण स्वभाव, उत्तम व्यक्तित्व, राष्ट्रवादी विचारों का ठोस अधिष्ठान आदि गुणों एवं आकर्षक लेखन शैली के कारण आपने उल्लेखनीय प्रभाव अर्जित किया है। आप के द्वारा रचित पुस्तक ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन व्यक्ति दर्शन’ एक सराहनीय पुस्तक है, जिसमें आपने अनेक लोगों से भेंट कर, विविध स्मृतियों के रूप में पं. दीनदयाल जी का उत्कृष्ट व्यक्ति दर्शन कराया है।

13. श्री बलवंत नारायण जोग - मुम्बई, के रहने वाले श्री बलवंत जोग, पत्रकारिता से जुड़े हुए थे। ‘विवेक’ साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादक के रूप में आपने काम किया। आपने मुस्लिम समस्या का गहन अध्ययन किया है, जिस पर ‘भारत का यक्ष-प्रश्न’ शीर्षक से पुस्तक भी लिखी। आपके द्वारा रचित ‘पं. दीनदयाल उपाध्याय विचार दर्शन राजनीति राष्ट्र के लिए’ में दीनदयाल जनसंघ में क्यों गये, राजनीति, राष्ट्र के लिए ऐसे विषयों पर दीनदयाल के अनुभव हमारे साथ बाटें। जिससे दीनदयाल को जानने में सहायता मिलती है।

14. विजय कुमार गुप्ता - विजय कुमार गुप्ता का जन्म 1937 में उत्तर प्रदेश में हुआ। बाल्यावस्था में ही 1946 में आपका राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रवेश हुआ। मा. भाऊराव देवरस व दीनदयाल जी के सम्पर्क से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समझ आया। स्नातक, बरेली काॅलेज से पास की। अगस्त 1961 में आप ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’ से जुड़ गये। आजकल आप सुरुचि प्रकाशन से जुड़़े हैं। आपको लिखने की प्रेरणा मा. राजपाल वासन जी ने दी। आपके द्वारा रचित पुस्तक ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रार्थना’, ‘भारत की महान् क्रान्तिकारी महिलाएँ’ दोनों ही सराहनीय पुस्तक है। ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रार्थना’ में आपने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रार्थना की व्याख्या, उच्चारण के नियम बड़े ही अच्छे ढंग से स्पष्ट किये हैं। ‘भारत की महान् क्रान्तिकारी महिलाएँ’ में आपने भारत की 36 नारियों की वीरता का वर्णन ओजमयी व प्रभावशाली ढंग से किया है।

15. सिद्धार्थ शंकर गौतम - 2 फरवरी, 1986 में महरौनी, जिला ललितपुर उत्तर प्रदेश में सिद्धार्थ शंकर गौतम का जन्म हुआ। आपने एम.ए. जन संचार तक शिक्षा ग्रहण की है। आप पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। वर्तमान में आप ‘नई दुनिया’ से सम्बद्ध हो। गौतम जी की पुस्तक है- ‘वैचारिक द्वन्द्व’, ‘लोकतन्त्र का प्रधानसेवक’ व ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्र भावना का जागृत प्रहरी’। इस पुस्तक में इन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति लोगों की गलत सोच पर कटाक्ष करते हुए उनका सही उत्तर देने की कोशिश की है।

16. सुरेश सोनी - गुजरात प्रान्त के सुरेन्द्र नगर जिला स्थित चूड़ा गाँव में एक सामान्य परिवार में जन्मे श्री सुरेश सोनी 16 वर्ष की आयु में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सम्पर्क में आये 1973 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बने। आपातकालीन की परिस्थितियों का सामना किया व प्रताड़ना का शिकार भी हुआ। मध्य भारत प्रान्त प्रचारक व अखिल भारतीय भी हुआ। मध्य भारत प्रान्त प्रचारक व अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख भी रहे। इनकी रचनाएँ हैं- ‘भारत में विज्ञान की उज्ज्वल परम्परा’, ‘हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्त्रोत’, ‘भारत-अतीत वर्तमान और भविष्य’ ‘गुरुत्व याने हिन्दुत्व।’ इसमें इन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में गुरु का क्या महत्व है, उसे स्पष्ट किया है। ‘हिन्दुत्व सामाजिक समरसता’ में इन्होंने जैन, बौद्ध और सिक्ख धर्मों के मूल चिन्तन के बारे में बड़े ही अच्छे ढंग से स्पष्ट किया है।

17. डॉ. मोहनराव भागवत - वर्तमान सरसंघचालक मोहन भागवत जी जो आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मार्गदर्शन कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में समय-समय पर अपने विचारों की प्रस्तुति देते रहते हैं, जैसे राष्ट्र निर्माण में युवाओं की भूमिका, संगठित हिन्दू समर्थ भारत, समन्वय संकल्पना, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आह्वान जगे राष्ट्र-पुरुषार्थ, इनका संकलन सुरुचि प्रकाशन ने किया है। ‘हिन्दुत्व हिन्दू राष्ट्र’, हिंदुत्व सामाजिक समरसता’ दो भागों में ‘हिंदुत्व’ नाम से स्वयंसेवकों के उपयोग के लिये लिखी है, जिसमें हिंदुत्व की अवधारणा को समझने में सहायता मिलती है।

RSS chief Mohan Bhagwat

18. डॉ. हरिश्चन्द्र बड़थ्वाल - डॉ. हरिश्चन्द्र बड़थ्वाल ने ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक परिचय’ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का परिचय, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समाज में भूमिका, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संगठन का वर्णन स्पष्ट किया है।

इन साहित्यकारों के अतिरिक्त संघ के अनेकों साहित्यकार है जिन्होंने हिन्दी में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केे विचारों को प्रस्तुत किया है, उनमें नरेंद्र ठाकुर, डॉ. बजरंग लाल गुप्ता, श्री सुभाष सरवटे, मा.गो. वैद्य, हो.वे. शेषाद्रि, एकनाथ रानडे, उमाकान्त केशव आप्टे, विनोद बजाज, यशवंत गोपाल भावे, दामोदर शाण्डिल्य, मोहनलाल रुस्तगी, प्रशांत बाजपेई, अमरनाथ डोगरा, कुप. सी. सुदर्शन, प्रो. राजेन्द्र सिंह, बालासाहब देवरस जी, स्वामी विज्ञानानंद, कुलदीप चन्द अग्निहोत्री, डॉ. के.वी. पालीवाल, लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े, महामहोपाध्याय बाल शास्त्री हरदास, अनिल कुमार, श्री सुरेश जोशी, डॉ. कृष्ण गोपाल, आशा धानकी, लज्जाराम तोमर आदि है, जिनके कारण आज समाज में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वरूप स्पष्ट हो सका है। इन व्यक्तिगत साहित्यकारों के अतिरिक्त सुरुचि प्रकाशन, शरद प्रकाशन, विद्या भारतीय प्रकाशन, ज्ञान गंगा प्रकाशन आदि भी व्यक्तिगत रूप से अपनी पुस्तकों का निर्माण करते रहते हैं, जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों का विकास हो सके। पत्रिकाओं का योगदान भी बराबर है, जैसे- ‘पान्चजन्य’, ‘म्हारा देश-म्हारी माटी’, ‘सेवा साधना’ आदि।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक सांस्कृतिक संगठन है, न कि राजनीतिक। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज में फैल रही कुरीतियों के खिलाफ खड़ा एक संगठन है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का वर्तमान स्वरूप अर्थात् शुन्य से विराट स्वरूप तक पहुँचने का एकमात्र कारण ‘संगठन का स्वरूप है। इस व्यवस्था का स्वरूप अन्य संगठनों के प्रचलित स्वरूप से भिन्न अर्थात् ‘पारिवारिक’ है। परिवार संविधान के आधार पर नहीं अपितु परम्परा, कर्तव्य पालन, त्याग, सभी के कल्याण-विकास की कामना व सामूहिक पहचान के आधार पर चलता है। परिवार के हित में अपने हित का सहज त्याग तथा परिवार के लिये अधिक से अधिक देने का स्वभाव व परस्पर आत्मीयता ही ‘परिवार’ का आधार है। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आधार शिला ही एक पारिवारिक ढंग से की है। यहाँ सब मिल कर रहते हैं। कोई जाति-पाति का यहाँ भेद नहीं है। सारे कार्यक्रम व्यवस्थित ढंग से चलते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में स्वयंसेवकों को प्रतिज्ञा, प्रार्थना, यज्ञ, एकात्म मंत्रों का उच्चारण आदि कराया जाता है, जिससे स्वयंसेवकों को भारत की संस्कृति की रक्षा करने का अपना कर्तव्य याद रहता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने देश को आजाद कराने में भी अपनी अहम भूमिका निभाई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिज्ञा में भी देश को आजाद कराने की बात कही गयी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्राकृतिक आपदाओं में भी सहायता कर यह दिखा दिया है कि वह राष्ट्र जीवन के हर क्षेत्र में सहायता करने का अग्रसर रहेगा। कश्मीर की समस्या हो या आतंकवाद की, हर समस्या में वह राष्ट्र के साथ खड़ा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने हिन्दू संस्कृति की रक्षा करने का अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए भी ‘विश्व हिन्दू परिषद’ की भी स्थापना की। भैय्या जोशी ने भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धारणा को स्पष्ट करने के लिए संगोष्ठी की। मोहन भागवत जी भी हिन्दू धर्म की रक्षा करने में सदा अग्रसर रहे हैं। श्री गुरुजी, बाला साहब देवरस, सुदर्शन जी, रज्जू भैया जी ने भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा को आगे बढ़ाया है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि हिन्दी साहित्यकारों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संकल्पना को इतने अच्छे ढंग से स्पष्ट किया है कि पाठक उसे पढ़कर एक बार सोचने पर विवश अवश्य हो जाता है। हिन्दी साहित्य में ऐसे ही साहित्यकारों की आवश्यकता अधिक है, जिनके साहित्य को पढ़कर पाठकों के अन्दर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना पैदा हो और देश के प्रति कुछ कर गुजरने की चाह। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साहित्यकार अपने इसी दृष्टिकोण के विकास में अग्रसर हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे।



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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 6 प्रमुख उत्सव



राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक देश व्यापी सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन है। देश भर में सभी राज्यों के सभी जिलों में 58967 हजार से शाखाओं के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य चल रहा है। प्रत्येक समाज में देशभक्त, अनुशासित, चरित्रवान और निस्वार्थ भाव से काम करने वाले लोगों की आवश्यकता रहती है। ऐसे लोगों को तैयार करने का, उनको संगठित करने का काम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज में एक संगठन न बनकर सम्पूर्ण समाज को ही संगठित करने का प्रयास करता है।

Rashtriya Swayamsevak Sangh

हमारे सामाजिक जीवन में अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक एवं राष्ट्रीय महत्व के प्रसंगों से हमारा समाज अनुप्राणित होता है। प. पू. डाॅक्टर जी ने समाज में जिन गुणों की आवश्यकता अनुभव की उन्हीं के अनुरूप उत्सवों की योजना की। प्रत्येक उत्सव किसी विशेष गुण की ओर इंगित करता है। यथा गुरु पूर्णिमा आत्म निवेदन एवं समर्पण भाव, रक्षाबन्धन के द्वारा समरसता एवं समानता का प्रकटीकरण, विजयादशमी, वर्ष प्रतिपदा एवं हिन्दु साम्राज्य दिवस के द्वारा विजीगीषु वृत्ति, पुरुषार्थ, राष्ट्र भाव एवं आत्म गौरव वृत्ति जागरण, पराभूत मानसिकता में परिवर्तन एवं मकर संक्रान्ति द्वारा सही दिशा में सम्यक क्रांति एवं संगठन का भाव निर्माण करना। उत्सवों के माध्यम से आत्म केन्द्रित स्वभाव बदलकर सामाजिक बोध का जागरण करना है।

उत्सवों के माध्यम से कार्यकर्ताओं को पास से देखने व समझने का मौका मिलता है। वह समाज में एक अच्छा संदेश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर जाता है, जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नये व्यक्तियों को संगठन से जोड़ने का स्वर्णिम अवसर मिल जाता है। उत्सव को मनाने के लिए, सादगी ढंग से तैयारी की जाती है। सभी स्वयंसेवकों की भी उचित व्यवस्था की जाती है। समाज को ही संगठित करने का प्रयास में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में छः उत्सव प्रमुख रूप में वर्ष प्रतिपदा, हिन्दु साम्राज्य दिवस, श्री गुरु पूर्णिमा, रक्षाबन्धन, विजया दशमी और मकर संक्रान्ति पर्व मनाये जाते हैंः-

1. वर्ष प्रतिपदा - चैत्र शुक्ल प्रतिपदा ‘भारतीय काल गणना’ का प्रथम दिन अर्थात् नववर्ष का प्रथम दिन होता है। इसी दिन से नवरात्रे प्रारम्भ होते हैं, स्वामी दयानन्द द्वारा आर्य समाज की स्थापना हुई। विक्रमादित्य द्वारा शकों पर पूर्ण विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में विक्रमी सम्वत् प्रारम्भ हुआ था। वर्ष प्रतिपदा के ही दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डाॅ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म हुआ था। स्वयंसेवकों के लिए यह दिन और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इस दिन स्वयंसेवक ध्वज लगाने से पूर्व आद्य सरसंघचालक को प्रमाण करते हैं। इस दिन गणवेश व समय का ध्यान रखना स्वयंसेवक के लिए अपेक्षित है। इसी दिन सभी नागरिकों के द्वारा मिलकर नववर्ष भी मनाया जाता है तथा कार्यक्रम कराये जाते हैं।

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2. हिन्दु साम्राज्य दिवस - ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1731 (1674 ई.) के दिन छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक तथा हिन्दु पद पाद शाही की स्थापना हुई, जिसने ‘हिन्दु राज्य’ नहीं बन सकता, इस हीन भाव को दूर किया। छत्रपति शिवाजी महाराज ने सीमित साधनों से ही सिद्ध किया कि हिन्दू सभी दृष्टि से श्रेष्ठ, स्वतंत्र व स्वयं शासक बनने योग्य है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का यह उत्सव मनाने के पीछे उद्देश्य भी यही है कि हमारे अन्दर की शक्ति निकालकर शिवाजी की तरह दिखाना की तुम भी योग्य शासक बन सकते हो।

3. श्री गुरु पूर्णिमा - यह उत्सव आषाढ़ पूर्णिमा को मनाया जाता है। व्यास महर्षि ने हमारे राष्ट्र जीवन के श्रेष्ठतम गुणों को निर्धारित करते हुए, उनके महान् आदर्शों को हमे दिखाया है। इस तरह वेद व्यास जगत गुरु हैं। उसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अपना एक गुरु भगवा ध्वज को बनाया है, जो हमें देश के प्रति समर्पण भाव को जगाता है और इसी दिन स्वयंसेवक गुरु दक्षिण के रूप में भेंट भी देते हैं, जिससे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य सुचारू रूप से चलता है।

4. रक्षाबंधन - श्रावण की पूर्णिमा को यह उत्सव मनाया जाता है। इस दिन को समाज में जाति का भेद मिटाकर समानता, समरसता युक्त समाज का स्वरूप खड़ा करने का प्रयास किया जाता है। रक्षाबंधन का त्योहार जहाँ भाई-बहन की रक्षा करता है, यह कथा है। वही स्कन्द पुराण में यह भी लिखा है कि- ‘‘राजाओं एवं अन्य बन्धु-बन्धवों तथा यजमानों के हाथ में शुद्ध स्वर्णिम सूत्र बांधते हुए शुभ कामनाएँ करते थे।’’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में भी परम वंदनीय भगवा ध्वज को रक्षा-सूत्र बांध कर संकल्प करते हैं कि इस ध्वज की रक्षा का भार हम पर है। जिस समाज, राष्ट्र व संस्कृति का यह पवित्र ध्वज प्रतीक है, हम उसकी रक्षा करेंगे। यह समाज का परस्परावलंबी व अन्योन्याश्रित न्याय का पर्व है। आज के दिन सभी स्वयंसेवक एक-दूसरे को व बस्तियों में जाकर लोगों को राखी बांधते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प करते हैं।

5. विजयादशमी - आश्विन शुक्ल दशमी को यह दिन मनाया जाता है। यह दिन भी स्वयंसेवक के लिए बहुत महत्व का है। क्योंकि आज के ही दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की गई थी। यह दिन शक्ति की उपासना के लिए भी मनाया जाता है। आज के दिन राम ने सामान्य लोगों को संगठित कर, अत्याचारी व साधन सम्पन्न रावण पर विजय प्राप्त की। विजय की आकांक्षा को जगाना ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उद्देश्य है। स्वयंसेवकों के गणवेश में कार्यक्रम व पथ संचलन भी किया जाता है। इसके माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शक्ति तथा अनुशासन का प्रदर्शन होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक भी संगठित होकर इस देश की समस्याओं को हल करेंगे।

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6. मकर संक्रान्ति - यह उत्सव चन्द्र मास गणना के अनुसार लेकिन यह उत्सव सौर मास गणना के अनुसार माघ 1 सौर मास सामान्यतः 14 जनवरी को होता है। इसी दिन सूर्य मकर राशि में संक्रमण कर दक्षिणायन से उत्तरायण में प्रवेश करता है, जिसके कारण दिन बड़े होने शुरू हो जाते हैं। एक सकारात्मक परिवर्तन होता है। इस दिन खिचड़ी बनाई जाती है, जिसमें सामूहिक दालों का मेल होता है। उसी तरह हमारे समाज में भी भिन्नता होते हुए एकता है उसी का भाव जगाना है। गुड़, तिल का मिश्रण भी बनाया जाता है, जिससे गुड़ में सबको चिपकाने की शक्ति यानी समाहित की उसी तरह हमें भी सभी को एक साथ लेकर चलना है। तिल की तरह स्नेह दिखाना। यह उत्सव हमें समाज में समरसता व समाज में सशक्तिकरण की भावना को बढ़ाता है।

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इस प्रकार उत्सव के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में कार्यक्रमों की व्यवस्था बनी रहती है। जिससे लोग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ते हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य को अपना ध्येय मानकर करते हैं। वह हिन्दू संस्कृति की रक्षा करते हैं।



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श्री शुकदेवजी की शंकाओं का विदेहराज जनक द्वारा समाधान



हे महाराज! मैं उन्ही के आदेश से आपकी पुरी में आया हूँ। हे राजेन्द्र! हे अनघ! मैं मोक्ष का अभिलाषी हूँ, अतः जो कार्य मेरे लिये उचित हो, वह बताइये।

हे राजेन्द्र! तप, तीर्थ, व्रत, यज्ञ, स्वाध्याय, तीर्थसेवन और ज्ञान-इनमें से जो मोक्ष का साक्षात् साधन हो, वह मुझे बताइये।

जनक जी बोले-मोक्षमार्गावलम्बी विप्र को जो करना चाहिये, उसे सुनिये। उपनयन संस्कार के बाद सर्वप्रथम वेदशास्त्र का अध्ययन करने हेतु गुरू के सांनिध्य में रहना चाहिए। वहाँ वेद-वेदान्तों का अध्ययन करके दीक्षान्त, गुरूदक्षिणा देकर वापस लौटे विप्र को विवाह करके पत्नी के साथ गृहस्थी में रहना चाहिये। {गृहस्थाश्रम में रहते हुए} न्यायोपार्जित धन से सर्वदा सन्तुष्ट रहे और किसी से कोई आशा न रखे। पापों से मुक्त होकर अग्निहोत्र आदि कर्म करते हुए सत्यवचन बोले और मन, वचन, कर्म से सदा पवित्र रहे। पुत्र-पौत्र हो जाने पर {समयानुसार} वानप्रस्थ-आश्रम में रहे। वहाँ तपश्चर्याद्वारा काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य-इन छहों शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके अपनी स्त्री रक्षा का भार पुत्र को सौंप देने के पश्चात्, वह धर्मात्मा सब अग्नियों का अपने में न्यायपूर्वक आधान कर ले और सांसारिक विषयों के भोग से शान्ति मिल जाने के बाद हृदय में विशुद्ध वैराग्य उत्पन्न होने पर चैथे आश्रम का आश्रय ले ले। विरक्त को ही संन्यास लेने का अधिकार है, अन्य किसी को नहीं- यह वेदवाक्य सर्वथा सत्य है, असत्य नहीं-ऐसा मेरा मानना है।

Muni Shukdev and Janak

हे शुकदेवजी! वेदों में कुल अड़तालीस संस्कार कहे गये हैं। उनमें गृहस्थ के लिये चालीस संस्कार महात्माओं ने बताये हैं। मुमुक्षु के लिये शम, दम आदि आठ संस्कार कहे गये हैं। एक आश्रम से ही क्रमशः दूसरे आश्रम में जाना चाहिये, ऐसा शिष्टजनों का आदेश है।

शुकदेवजी-चित्त में वैराग्य और ज्ञान-विज्ञान उत्पन्न हो जाने पर अवश्य ही गृहस्थादि आश्रमों में रहना चाहिये अथवा वनों में।

जनकजी-हे मानद! इन्द्रियाँ बड़ी बलवान् होती हैं, वे वश में नही रहतीं। वे अपरिपक्व बुद्धिवाले मनुष्य के मन में नाना प्रकार के विकार उत्पन्न कर देती है।

यदि मनुष्य के मन में भोजन, शयन, सुख और पुत्र की इच्छा बनी रहे तो वह सन्यासी होकर भी इन विकारांे के उपस्थित होने पर क्या कर पायेगा।

वसनाओं का जाल बड़ा ही कठिन होता है, वह शीघ्र नही मिटता। इसलिये उसकी शान्ति के लिये मनुष्य को क्रम से उसका त्याग करना चाहिये।

ऊँचे स्थान पर सोने वाला मनुष्य ही नीचे गिरता है, नीचे सोनेवाला कभी नही गिरता। यदि सन्यास-ग्रहण कर लेने पर भ्रष्ट हो जाय तो पुनः वह कोई दूसरा मार्ग नही प्राप्त कर सकता।

जिस प्रकार चींटी वृक्ष की जड़ से चढ़कर शाखा पर चढ़ जाती है और वहाँ से फिर धीरे-धीरे सुखपूर्वक पैरों से चलकर फलतक पहुँच जाती है। विघ्न-शंका के भय से कोई पक्षी बड़ी तीव्र गति से आसमान में उड़ता है और परिणामतः थक जाता है, किंतु चींटी सुखपूर्वक विश्राम ले-लेकर अपने अभीष्ट स्थानपर पहुँच जाती है।

मन अत्यन्त प्रबल है; यह अजितेन्द्रिय पुरूषों के द्वारा सर्वथा अजेय है। इसलिये आश्रमों के अनुक्रम से ही इसे क्रमशः जीतने का प्रयत्न करना चाहिये।

गृहस्थ-आश्रम में रहते हुए भी जो शान्त, बुद्धिमान् एवं आत्मज्ञानी होता है, वह न तो प्रसन्न होता है और न खेद करता है। वह हानि-लाभ में समान भाव रखता है।

जो पुरूष शास्त्र प्रतिपादित कर्म करता हुआ, सभी प्रकार की चिन्ताओं से मुक्त रहता हुआ आत्मचिन्तन से सन्तुष्ट रहता है; वह निःसन्देह मुक्त हो जाता है।

हे अनघ! देखिये, मैं राजकार्य करता हुआ भी जीवन मुक्त हूँ मैं अपने इच्छानुसार सब काम करता हूँ, किन्तु मुझे शोक या हर्ष कुछ भी नही होता।

जिस प्रकार मैं अनेक भोगों को भोगता हुआ तथा अनेक कार्यो को करता हुआ भी अनासक्त हूँ, उसी प्रकार हे अनघ! आप भी मुक्त हो जाइये।

ऐसा कहा भी जाता है कि जो यह दृश्य जगत् दिखायी देता है, उसके द्वारा अदृश्य आत्मा कैसे बन्धन में आ सकता है? पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश-ये पंचमहाभूत और गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्द-ये उनके गुण दृश्य कहलाते हैं।

आत्मा अनुमानगम्य है और कभी भी प्रत्यक्ष नहीं होता। ऐसी स्थिति में है ब्रह्मन्! वह निरंजन एवं निर्विकार आत्मा भला बन्धन में कैसे पड़ सकता है? हे द्विज! मन ही महान् सुख-दुःख का कारण है, इसी के निर्मल होने पर सब कुछ निर्मल हो जाता है।

सभी तीर्थों में घूमते हुए वहाँ बार-बार स्नान करके भी यदि मन निर्मल नही हुआ तो वह सब व्यर्थ हो जाता है। हे परन्तप! बन्धन तथा मोक्ष का कारण न यह देह है, न जीवात्मा है और न ये इन्द्रियाँ ही हैं, अपितु मन ही मनुष्यों के बन्धन एवं मुक्ति का कारण है।

आत्मा तो सदा ही शुद्ध तथा मुक्त है, वह कभी बँधता नही है। अतः बन्धन और मोक्ष तो मन के भीतर हैं, मन की शान्ति से ही शान्ति है।

शत्रुता, मित्रता या उदासीनता के सभी भेदभाव भी मनमें ही रहते हैं। इसलिये एकात्मभाव होने पर यह भेदभाव नहीं रहता; यह तो द्वैतभाव से ही उत्पन्न होता है।

’मैं जीव सदा ही ब्रह्म हूँ-इस विषय में और विचार करने की आवश्यकता ही नही है। भेदबुद्धि तो संसार में आसक्त रहने पर ही होती है।

हे महाभाग! बन्धन का मुख्य कारण अविद्या ही है। इस अविद्या को दूर करने वाली विद्या है। इसलिये ज्ञानी पुरूषों को चाहिये कि वे सदा विद्या तथा अविद्या का अनुसन्धान पूर्वक अनुशीलन किया करें।

जिस प्रकार धूप के बिना छाया के सुख का अनुभव नही होता, उसी प्रकार अविद्या के बिना विद्या का अनुभव नही किया जा सकता।

गुणों में गुण, पंचभूतों में पंचभूत तथा इन्द्रियों के विषय में इन्द्रियाँ स्वयं रमण करती हैं; इसमें आत्मा का क्या दोष है।

हे पवित्रात्मन्! सबकी सुरक्षा के लिये वेदों में सब प्रकार से मर्यादा की व्यवस्था की गयी है। यदि ऐसा न होता तो नास्तिकों की भाँति सब धर्मों का नाश हो जाता। धर्म के नष्ट हो जाने पर सब नष्ट हो जायेगा और सब वर्णों की आचार-परम्परा का उल्लंघन हो जायेगा। इसलिये वेदोपदिष्ट मार्ग पर चलने वालों का कल्याण होता है।

शुकदेवजी-हे राजन्! आपने जो बात कही उसे सुनकर भी मेरा सन्देह बना हुआ है; वह किसी प्रकार भी दूर नही होता।

हे भूपते! वेदधर्मों में हिंसा का बाहुल्य है, उस हिंसा में अनेक प्रकार के अधर्म होते हैं। {ऐसी दशा में} वेदोक्त धर्म मुक्तिप्रद कैसे हो सकता है? हे राजन्! सोमरस-पान, पशुहिंसा और मांस-भक्षण तो स्पष्ट ही अनाचार है। सौत्रामणियज्ञ में तो प्रत्यक्षरूप से सुराग्रहण का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार द्यूतक्रीड़ा एवं अन्य अनेक प्रकार के व्रत बताये गये है।

सुना जाता है कि प्राचीन काल में शशबिन्दु नाम के एक श्रेष्ठ राजा थे। वे बड़े धर्मात्मा, यज्ञपरायण, उदार एवं सत्यवादी थे। वे धर्मरूपी सेतु के रक्षक तथा कुमार्गगामी जनों के नियन्ता थे। उन्होने पुष्कल दक्षिणवाले अनेक यज्ञ सम्पादित किये थे।

{उन यज्ञों में} पशुओं के चर्म से विन्ध्यपर्वत के समान ऊँचा पर्वत-सा बन गया। मेघों के जल बरसाने से चर्मण्वती नाम की शुभ नदी बह चली।

वे राजा भी दिवंगत हो गये, किन्तु उनकी कीर्ति भूमण्डल पर अचल हो गयी। जब इस प्रकार के धर्मों का वर्णन वेद में है, तब हे राजन्! मेरी श्रद्धाबुद्धि उनमें नहीं है।

स्त्री में साथ भोग में पुरूष सुख प्राप्त करता है और उसके न मिलने पर वह बहुत दुःखी होता है तो ऐसी दशा में भला वह जीवन्मुक्त कैसे हो सकेगा?

जनकजी-यज्ञों में जो हिंसा दिखायी देती है, वह वास्तव में अहिंसा ही कही गयी है; क्योंकि जो हिंसा उपाधियोग से होती है वही हिंसा कहलाती है, अन्यथा नहीं-ऐसा शास्त्रों का निर्णय है।

जिस प्रकार {गीली} लकड़ी के संयोग से अग्नि से धुआँ निकलता है, उसके अभाव में उस अग्नि में धुआँ नही दिखायी देता, उसी प्रकार हे मुनिवर! वेदोक्त हिंसा को भी आप अहिंसा की समझिये। रागीजनों द्वारा की गयी हिंसा ही हिंसा है, किंतु अनासक्त जनों के लिये वह हिंसा नही कही गयी है।

जो कर्म राग, तथा अंहकार से रहित होकर किया जाता हो, उस कर्म को वैदिक विद्वान, मनीषीजन न किये हुए के समान ही कहते हैं।

हे द्विजश्रेष्ठ! रागी गृहस्थों के द्वारा यज्ञ में जो हिंसा होती है; वही हिंसा है। हे महाभाग! जो कर्म रागरहित तथा अहंकार शून्य होकर किया जाता है, वह जितात्मा मुमुक्षुजनों के लिये अहिंसा ही है।



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राष्ट्रवाद मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है- महर्षि अरविन्द घोष




जीवन जीवन है, चाहे वह एक बिल्ली का हो, एक कुत्ते का या मनुष्य का। एक बिल्ली या एक आदमी में कोई अंतर नही है। अंतर का यह विचार दरअसल मनुष्य के स्वयं के लाभ के लिए एक मानवीय अवधारणा है। व्यक्तियों में सर्वथा नवीन चेतना का संचार करो, उनके अस्तित्व के समग्र रूप को बदलो, जिससे पृथ्वी पर नए जीवन का समारंभ हो सके। जिस व्यक्ति में त्याग की मात्रा जितने अंश में हो, वह व्यक्ति उतने ही अंश में पशुत्व से ऊपर है। गुण कोई किसी को सिखा नही सकता। दूसरों के गुण लेने या सीखने की भूख जब मन में जागती है, तब गुण आने आप सीख लिए जाते हैं। यदि तुम किसी का चरित्र जानना चाहते हो, उसके महान कार्य न देखो, उसके जीवन के साधारण कार्यो का सूक्ष्म निरीक्षण करो। जहां तक भारत का बात है, तो यद्यपि वह भौतिक समृद्धि से हीन है, लेकिन उसके जर्जर शरीर में आध्यात्मिकता का तेज वास करता है। जैसे सारा संसार बदल रहा है, वैसे ही अब भारत को भी बदलना चाहिए। युगो का भारत मृत नही हुआ है और न उसने अपना अंतिम सृजनात्मक संवाद उच्चारित ही किया है। वह जीवित है और उसे अब भी स्वयं अपने लिए और मानवता के लिए बहुत कुछ करना है। इसका जाग्रत होना अब आवश्यक है।

यह देश यदि पश्चिम की शक्तियों को ग्रहण करे और अपनी शक्तियों का भी विनाश नही होने दें, तो उसके भीतर से जिस संस्कृति का उदय होगा, वह अखिल विश्व के लिए कल्याणकारिणी होगी। वास्तव में वही संस्कृति विश्व की अगली संस्कृति बनेगी। राष्ट्रवाद ऐस धर्म है, जिसे तुम्हें अपने जीवन का आधार बनाना होगा। वह ईवरीय शक्ति का प्रतीक है। राष्ट्र अमर है, वह मर नही सकता, क्योकिं यह कोई भौतिक वस्तु नही है, बल्कि ईश्वरीय देन है, युग की आवश्यकता है। राष्ट्रवाद देशवासियों को एकता का संदेश देता है। यह हो सकता है कि उसके कार्य भिन्न-भिन्न हों, किन्तु मूलतः वे एक हैं। वास्तव में सच्चा और आदर्श राष्ट्रवाद वह है, जो मनुष्य-मनुष्य में, जाति-जाति में, वर्ग-वर्ग में कोई भेदभाव न रखता हो, वहां समानता ही समानता हो। राष्ट्रवाद मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है, न कि तोड़ता है। मानव, चाहे वह जिस देश, जाति या धर्म का हो, एक दूसरे का बंधु है। विश्व बंधुत्व की भावना का विकास केवल हिंदू राष्ट्रवाद में ही संभव है। राष्ट्रवाद एकता के स्वर का संवाहक है, संपूर्ण विश्व को एकत्व में बांधने का पक्षधर है।

प्रभु जिसे मुक्ति देना चाहते हैं, उसे ही राष्ट्र की भक्ति की ओर उन्मुख करते हैं। राष्ट्र की भक्ति जन-जन की आराधना है, पूजा है, वंदना है। व्यक्ति की पूजा ही तो ईश्वर की पूजा है। मनुष्य की पूजा करना भगवान की पूजा करना है। भगवान की व्याप्ति कण-कण में है, इसलिए हमें भगवान की पूजा करने के लिए मानव की पूजा करनी चाहिए। स्वदेशी वस्तुओं से ही हमारा कल्याण होगा, विदेशी से नही। हमें स्वदेश में निर्मित वस्तुओं को स्वीकार करना चाहिए, भले ही वह गुणवत्ता में विदेशी वस्तु के सामने लचर पड़ती हो। जब हम स्वदेशी की मूल भावना को आत्मसात करेंगे, तो हममें आत्मविश्वास, आत्मनिष्ठा, आत्मगौरव और आत्मश्रेष्ठता की भावनाएं आ जाऐंगी। आत्मगौरव का भाव ही अध्यात्म शिखर की ओर ले जाता है, जिससे व्यक्ति और राष्ट्र, दोनो का कल्याण होता है।


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प्रार्थना - आत्मा का भोजन




प्रार्थना-सभा के बाद एक वकील ने महात्मा गांधी से पूछा, 'आप प्रार्थना में जितना समय व्यतीत करते हैं, अगर उतना ही समय देश-सेवा में लगाया होता, तो अभी तक कितनी सेवा हो जाती?'
गाँधीजी गम्भीर हो गये और बोले-'वकील साहब, आप भोजन करने में जितना समय बर्बाद करते हैं, अगर वही समय काम काज में लगाया होता तो अभी तक आपने अनेक अतिरिक्त मुकदमों की तैयारी कर ली होती।'
वकील चकित होकर बोला, 'महात्मा जी! अगर भोजन नहीं करूँगा तो मुकदमों की तैयारी कैसे करूँगा?' तब महात्मा गांधी बोले, 'जैसे आप भोजन के बिना मुकदमे की तैयारी नहीं कर सकते, वैसे ही मैं बिना प्रार्थना के देश की सेवा नहीं कर सकता। प्रार्थना मेरी आत्मा का भोजन है। इससे मेरी आत्मा को शक्ति मिलती है, जिससे कि मैं देशकी सेवा कर सकूँ।'
चीज जितनी सूक्ष्म होती जाती है, उसकी दृश्यता घटती जाती है, किंतु प्रभाव बढ़ता जाता है, ठीक इसी प्रकार प्रार्थना का सूक्ष्म प्रभाव की दृश्यता कम, किंतु प्रभाव अत्यधिक होता है।


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विष्णु सहस्रनाम



 Vishnu Sahasranamam
विष्णु सहस्रनाम भगवान विष्णु के हजार नामों से युक्त एक प्रमुख स्तोत्र है। इसके अलग अलग संस्करण महाभारत, पद्म पुराण व मत्स्य पुराण में उपलब्ध हैं। स्तोत्र में दिया गया प्रत्येक नाम श्री विष्णु के अनगिनत गुणों में से कुछ को सूचित करता है। विष्णु जी के भक्त प्रातः पूजन में इसका पठन करते है।

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रूप बड़ा या गुण



मेघदूत, रघुवंष और अभिज्ञान शाकुन्तलम् जैसे महान ग्रन्थों के रचयिता महाकवि कालिदास को कौन नहीं जानता? उज्जैन के महाराजा विक्रमादित्य अपनी वीरता और न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके दरबार में नौरत्न थे। उनमें से एक थे कालिदास।
 Kalidas
एक बार महाकवि कालिदास राजा विक्रमादित्य के साथ बैठे हुए थे। गर्मियों के दिन थे। राजा और महाकवि कालिदास गर्मी से बेहद परेशान थे। दोनों के षरीर पसीने से लथपथ थे। प्यास के मारे बार-बार कंठ सूखा जा रहा था। दोनों के पास मिट्टी की एक-एक सुराही रखी हुई थी। प्यास बुझाने के लिये थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें पानी पीना पड़ रहा था।
राजा विक्रमादित्य बहुत ही सुन्दर व्यक्ति थे, जबकि कालिदास उतने सुन्दर नहीं थे। विक्रमादित्य का ध्यान महाकवि के चेहरे की ओर गया। वे चुटकी लेने के लिये बोल पड़े- ‘‘महाकवि, इसमें संदेह नहीं कि आप अत्यंत विद्वान, चतुर और गुणी हैं, लेकिन ईश्वर ने यदि आपको सुन्दर रूप भी दिया होता तो कितना अच्छा होता’’?
‘‘महाराज, इसका उत्तर मैं आपको आज नहीं, कल दूँगा।’’ कालिदास ने कहा।
संध्या होते ही कालिदास सीधे सुनार के पास गए। उन्होंने उसे रातों-रात सोने की एक सुन्दर सुराही तैयार करने का आदेश दिया और घर लौट गए।
अगले दिन कालिदास ने पहले ही पहुँच कर राजा की मिट्टी की सुराही हटा दी और उसके स्थान पर सोने की सुराही कपड़े से ढक कर रख दी।
ठीक समय पर राजा विक्रमादित्य कक्ष में पधारे। राजा विक्रमादित्य और महाकवि कालिदास वार्तालाप करने लगे।
कल की तरह आज भी बहुत गर्मी थी। राजा को प्यास लगी। उन्होंने पानी के लिए संकेत किया। एक सेवक ने उनकी सुराही से पानी निकाल कर दिया। पानी होंठों से लगाते ही वे सेवक पर बरस पड़े- ‘‘क्या सुराही में उबला पानी भर के रखा है?’’ सेवक की तो घिग्घी बँध गई।
महाकवि कालिदास ने सुराही का कपड़ा हटाया। सोने की सुराही देखकर राजा विक्रमादित्य दंग रह गये।
राजा विक्रमादित्य ने कहा- ‘‘हद हो गई। पानी भी कहीं सोने की सुराही में रखा जाता है? कहाँ गई मिट्टी की सुराही? सोने की सुराही यहाँ किस मूर्ख ने रखी है?
कालिदास ने शान्त स्वर में कहा -‘‘वह मूर्ख मैं ही हूँ श्रीमान!’’
‘‘महाकवि आप?’’
‘‘जी हाँ, महाराज! आप सुन्दरता के पुजारी हैं न? आपकी यह सुराही साधारण मिट्टी की थी सो उसे हटा कर मैंने सोने की यह सुन्दर सुराही रख दी। क्या यह अच्छी नहीं है?’’ सोने की सुराही में तो पानी और भी अधिक ठंडा और स्वादिष्ट होना चाहिए?
महाराज, महाकवि का आशय समझ गए। उन्होंने महाकवि से क्षमा माँगी और कहा कि ‘‘आपने मेरी आँखें खोल दीं। अब मुझे समझ में आ गया कि महत्व बाहरी सुंदरता का नहीं, बल्कि आंतरिक गुणों का होता है।’’


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