स्त्री अशिष्ट रूपण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986



 स्त्री अशिष्ट रूपण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986

Indecent Representation of Women (Prohibition) Act, 1986
Indecent Representation of Women (Prohibition) Act, 1986
Indecent Representation of Women (Prohibition) Act, 1986
Indecent Representation of Women (Prohibition) Act, 1986

स्त्री अशिष्ट रूपण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986
(1986 का अधिनियम संख्यांक 60)
[23 दिसम्बर, 1986] 
विज्ञापनों के माध्यम से या प्रकाशनों, लेखों, रंगचित्रों, आकृतियों में या किसी अन्य रीति से स्त्रियों के अशिष्ट रूपण का प्रतिषेध करने और उससे संबंधित या उसके आनुषंगिक विषयों के लिए
अधिनियम भारत गणराज्य के सैंतीसवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो :
1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारंभ—(1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम स्त्री अशिष्ट रूपण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986 है।
(2) इसका विस्तार, जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय, संपूर्ण भारत पर है। 
(3) यह उस तारीख! को प्रवृत्त होगा, जो केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे। 

2. परिभाषाएं इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,
(क) “विज्ञापन” के अन्तर्गत कोई सूचना, परिपत्र, लेबल, रैपर या अन्य दस्तावेज है और इसके अंतर्गत प्रकाश, ध्वनि, धुआं या गैस के माध्यम से किया गया कोई दृश्य रूपण भी है ;
(ख) “वितरण” के अंतर्गत नमूने के तौर पर, चाहे मुफ्त या अन्यथा, वितरण भी है ;
(ग) “स्त्री अशिष्ट रूपण” से किसी स्त्री की आकृति, उसके रूप या शरीर या उसके किसी अंग का, किसी ऐसी रीति से ऐसे रूप में चित्रण करना अभिप्रेत है जिसका प्रभाव अशिष्ट हो, अथवा जो स्त्रियों के लिए अपमानजनक या निन्दनीय हो, अथवा जिससे, लोक नैतिकता या नैतिक आचार के विकृत, भ्रष्ट या क्षति होने की संभावना है ;
(घ) “लेबल” से कोई लिखित, चिह्नित, स्टाम्पित, मुद्रित या चित्रित विषय-वस्तु अभिप्रेत है जो किसी पैकेज पर चिपकाई गई है या उस पर दिखाई दे रही है ;
(ङ) “पैकेज” के अंतर्गत कोई बाक्स, कार्टन, टिन या अन्य पात्र भी है;
(च) “विहित” से इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा विहित अभिप्रेत है। 

3. स्त्री अशिष्ट रूपण अंतर्विष्ट करने वाले विज्ञापनों का प्रतिषेध कोई व्यक्ति, कोई ऐसा विज्ञापन जिसमें किसी भी रूप में स्त्रियों का अशिष्ट रूपण अंतर्विष्ट है, प्रकाशित नहीं करेगा या प्रकाशित नहीं करवाएगा अथवा उसके प्रकाशन या प्रदर्शन की व्यवस्था नहीं करेगा या उसमें भाग नहीं लेगा।

4. स्त्री अशिष्ट रूपण अंतर्विष्ट करने वाली पुस्तकों, पुस्तिकाओं, आदि के प्रकाशन या डाक द्वारा भेजने का प्रतिषेध कोई व्यक्ति, कोई ऐसी पुस्तक, पुस्तिका, कागज-पत्र, स्लाइड, फिल्म, लेख, रेखा-चित्र, रंगचित्र, फोटोचित्र, रूपण या आकृति का, जिसमें किसी रूप में स्त्रियों का अशिष्ट रूपण अंतर्विष्ट है, उत्पादन नहीं करेगा या उत्पादन नहीं करवाएगा, विक्रय नहीं करेगा, उसको भाड़े पर नहीं देगा, वितरित नहीं करेगा, परिचालित नहीं करेगा या डाक द्वारा नहीं भेजेगा : परन्तु इस धारा की कोई बात,
(क) किसी ऐसी पुस्तक, पुस्तिका, कागज-पत्र, स्लाइड, फिल्म, लेख, रेखाचित्र, रंगचित्र, फोटोचित्र, रूपण या आकृति को लागू नहीं होगी,
(i) जिसका प्रकाशन लोक कल्याण के लिए होने के कारण इस आधार पर न्यायोचित साबित हो जाता है कि ऐसी पुस्तक, पुस्तिका, कागज-पत्र, स्लाइड, फिल्म, लेख, रेखाचित्र, रंगचित्र, फोटोचित्र, रूपण या आकृति विज्ञान, साहित्य, कला अथवा विद्या या सर्वसाधारण संबंधी अन्य उद्देश्यों के हित में हैं ; या
(ii) जो सद्भावपूर्वक धार्मिक प्रयोजनों के लिए रखी या उपयोग में लाई जाती है ; 
(ख) किसी ऐसे रूपण को लागू नहीं होगी जो
(i) प्राचीन संस्मारक तथा पुरातत्वीय स्थल और अवशेण अधिनियम, 1958 (1958 का 24) के अर्थ में किसी प्राचीन संस्मारक पर या उसमें ; या
(ii) किसी मंदिर पर या उसमें, या मूर्तियों के प्रवहण के उपयोग में लाए जाने वाले या किसी धार्मिक प्रयोजन के लिए रखे या उपयोग में लाए जाने वाले किसी रथ पर, तक्षित, उत्कीर्ण, रंगचित्रित या अन्यथा रूपित है;
(ग) किसी ऐसी फिल्म को लागू नहीं होगी जिसकी बाबत चलचित्र अधिनियम, 1952 (1952 का 37) के भाग 2 के उपबंध लागू होंगे।

5. प्रवेश करने और तलाशी लेने की शक्तियां (1) ऐसे नियमों के अधीन रहते हुए, जो विहित किए जाएं, राज्य सरकार द्वारा प्राधिकृत कोई राजपत्रित अधिकारी, उस क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर, जिसके लिए वह इस प्रकार प्राधिकृत है,
(क) किसी ऐसे स्थान में, जिसमें उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध किया गया है या किया जा रहा है, ऐसे सहायकों के साथ, यदि कोई हों, जिन्हें वह आवश्यक समझे, सभी उचित समयों पर, प्रवेश कर सकेगा और उसकी तलाशी ले सकेगा ;
(ख) कोई ऐसा विज्ञापन अथवा कोई ऐसी पुस्तक, पुस्तिका, कागज-पत्र, स्लाइड, फिल्म, लेख, रेखाचित्र, रंगचित्र, फोटोचित्र, रूपण या आकृति अभिगृहीत कर सकेगा, जिसके बारे में उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि वह इस अधिनियम के किन्हीं उपबंधों का उल्लंघन करती है।
(ग) खंड (क) में उल्लिखित किसी स्थान में पाए गए किसी अभिलेख, रजिस्टर, दस्तावेज या अन्य किसी भौतिक पदार्थ की परीक्षा कर सकेगा और, यदि उसके पास यह विश्वास करने का कारण है कि उससे इस अधिनियम के अधीन दंडनीय किसी अपराध के किए जाने का साक्ष्य प्राप्त हो सकता है तो उसे अभिगृहीत कर सकेगा : परन्तु इस उपधारा के अधीन कोई प्रवेश किसी प्राइवेट निवास-गृह में वारंट के बिना नहीं किया जाएगा :
परन्तु यह और कि इस उपधारा के अधीन अभिग्रहण की शक्ति का प्रयोग, किसी ऐसे दस्तावेज, वस्तु या चीज के लिए, जिसमें ऐसा कोई विज्ञापन अन्तर्विष्ट है, उस दस्तावेज, वस्तु या चीज की अन्तर्वस्तु सहित, यदि कोई हो, किया जा सकेगा, यदि वह विज्ञापन समुद्भुत होने के कारण या अन्यथा, उस दस्तावेज, वस्तु या चीज से, उसकी समग्रता, उपयोगिता या विक्रय मूल्य पर प्रभाव डाले बिना, अलग नहीं किया जा सकता है।
(2) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) के उपबंध इस अधिनियम के अधीन किसी तलाशी या अभिग्रहण को, जहां तक हो सके, वैसे ही लागू होंगे जैसे वे उक्त संहिता की धारा 94 के अधीन जारी किए गए वारंट के प्राधिकार के अधीन ली गई किसी तलाशी या किए गए किसी अभिग्रहण को लागू होते हैं।
(3) जहां कोई व्यक्ति उपधारा (1) के खंड (ख) या खंड (ग) के अधीन किसी वस्तु का अभिग्रहण करता है वहां वह यथाशक्य शीघ्र, निकटतम मजिस्ट्रेट को उसकी इत्तिला देगा और उस वस्तु की अभिरक्षा के संबंध में उससे आदेश प्राप्त करेगा।

6. शास्ति—कोई व्यक्ति, जो धारा 3 या धारा 4 के उपबंधों का उल्लंघन करेगा, प्रथम दोषसिद्धि पर दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से, जो दो हजार रुपए तक का हो सकेगा, तथा द्वितीय या पश्चात्वर्ती दोषसिद्धि की दशा में, कारावास से जिसकी अवधि छह मास से कम की नहीं होगी किन्तु जो पांच वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से भी, जो दस हजार रुपए से कम का नहीं होगा किन्तु जो एक लाख रुपए तक का हो सकेगा, दंडनीय होगा।

7. कंपनियों द्वारा अपराध—(1) जहां इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध किसी कम्पनी द्वारा किया गया है वहां प्रत्येक व्यक्ति जो उस अपराध के किए जाने के समय उस कम्पनी के कारबार के संचालन के लिए उस कम्पनी का भारसाधक और उसके प्रति उत्तरदायी था और साथ ही वह कम्पनी भी ऐसे अपराध के दोषी समझे जाएंगे और तदनुसार अपने विरुद्ध कार्यवाही किए जाने और दंडित किए जाने के भागी होंगे :
परन्तु इस उपधारा की कोई बात किसी ऐसे व्यक्ति को दंड का भागी नहीं बनाएगी यदि वह यह साबित कर देता है कि अपराध उसकी जानकारी के बिना किया गया था या उसने ऐसे अपराध के किए जाने का निवारण करने के लिए सभी सम्यक् तत्परता बरती थी। (2) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी, जहां इस अधिनियम के अधीन कोई अपराध किसी कम्पनी द्वारा किया गया है
जाता है कि वह अपराध कम्पनी के किसी निदेशक प्रबंधक, सचिव या अन्य अधिकारी की सहमति या मौनानुकूलता से किया गया है या उस अपराध का किया जाना उसकी किसी उपेक्षा के कारण माना जा सकता है वहां ऐसे निदेशक, प्रबंधक, सचिव या अन्य अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी और तदनुसार उसे दंडित किया जाएगा।
स्पष्टीकरण इस धारा के प्रयोजनों के लिए,
(क) “कम्पनी” से कोई निगमित निकाय अभिप्रेत है और इसके अन्तर्गत फर्म या व्यष्टियों का अन्य संगम भी है ; तथा
(ख) किसी फर्म के संबंध में, “निदेशक” से उस फर्म का भागीदार अभिप्रेत है। 

8. अपराधों का संज्ञेय और जमानतीय होना—(1) दंड प्रकिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी, इस अधिनियम के अधीन दंडनीय अपराध जमानतीय होगा।
(2) इस अधिनियम के अधीन दंडनीय कोई अपराध संज्ञेय होगा।

9. सद्भावपूर्वक की गई कार्रवाई के लिए संरक्षण—इस अधिनियम के अधीन सद्भावपूर्वक की गई या की जाने के लिए आशयित किसी बात के लिए कोई भी वाद, अभियोजन या अन्य विधिक कार्यवाही केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार अथवा केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार के किसी अधिकारी के विरुद्ध नहीं होगी।

10. नियम बनाने की शक्ति—(1) केन्द्रीय सरकार इस अधिनियम के उपबंधों को कार्यान्वित करने के लिए नियम, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, बना सकेगी।
(2) विशिष्टतया और पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, ऐसे नियमों में निम्नलिखित सभी या किन्हीं विषयों के लिए उपबंध किया जा सकेगा, अर्थात् :
(क) वह रीति जिससे विज्ञापनों या अन्य वस्तुओं का अभिग्रहण किया जाएगा और वह रीति जिससे अभिग्रहण-सूची तैयार की जाएगी और उस व्यक्ति को दी जाएगी जिसकी अभिरक्षा से कोई विज्ञापन या अन्य वस्तु अभिगृहीत की गई है;
(ख) कोई अन्य विषय जो विहित किया जाना अपेक्षित है या विहित किया जाए। 
(3) इस अधिनियम के अधीन बनाया गया प्रत्येक नियम, बनाए जाने के पश्चात् यथाशीघ्र, संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष, जब वह सत्र में हो, कुल तीस दिन की अवधि के लिए रखा जाएगा। यह अवधि एक सत्र में अथवा दो या अधिक आनुक्रमिक सत्रों में पूरी हो सकेगी। यदि उस सत्र के या पूर्वोक्त अनुक्रमिक सत्रों के ठीक बाद के सत्र के अवसान के पूर्व दोनों सदन उस नियम में कोई परिवर्तन करने के लिए सहमत हो जाएं तो तत्पश्चात् वह ऐसे परिवर्तित रूप में ही प्रभावी होगा। यदि उक्त अवसान के पूर्व दोनों सदन सहमत हो जाएं कि वह नियम नहीं बनाया जाना चाहिए तो तत्पश्चात् वह निष्प्रभाव हो जाएगा। किन्तु नियम के ऐसे परिवर्तित या निष्प्रभाव होने से उसके अधीन पहले की गई किसी बात की विधिमान्यता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।



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निर्मल पावन भावना, सभी के सुख की कामना - संघ गीत



 Nirma-Pawan-Bhawna
निर्मल पावन भावना, सभी के सुख की कामना
गौरवमय समरस जनजीवन, यही राष्ट्र आराधना
चले निरंतर साधना ... (2)
 
जहाँ अशिक्षा अंधकार है, वहाँ ज्ञान का दीप जलाये
स्नेह भरी अनुपम शैली से, संस्कार की जोत जगाये
सभी को लेकर साथ चलेंगे, दुर्बल का कर थामना
चले निरंतर साधना ... (2)
 
जहाँ व्याधियों और अभावों, में मानवता तडप रही
घोर विकारों अभिशापों से, देखो जगती झुलस रही
एक एक आँसू को पोछें, सारी पीड़ा लांघना
चले निरंतर साधना ... (2)
 
जहाँ विषमता भेद अभी है, नई चेतना भरनी है
न्यायपूर्ण मर्यादा धारें, विकास रचना करनी है
स्वाभिमान से खड़े सभी हों, करे न कोई याचना
चले निरंतर साधना ... (2)
 
नर सेवा नारायण सेवा, है अपना कर्तव्य महान
अपनी भक्ति अपनी शक्ति, ये करना जन जन का काम
अपने तप से प्रगटायेंगे, मा भारत कमलासन
चले निरंतर साधना ... (2)


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हम केशव के अनुयायी हैं - संघ गीत



हम केशव के अनुयायी हैं
हम केशव के अनुयायी हैं,
हमने तो बढ़ना सीखा है।
लक्ष्य दूर है पथ दुर्गम है,
किन्तु पहुँच कर ही दम लेंगे।
बाधाओं के गिरि शिखिरों पर,
हमने तो चढ़ना सीखा है॥1॥
 
ख्याति प्रतिष्ठा हमें न भाती,
केवल माँ की कीर्ति सुहाती।
माता के हित प्रतिपल जीवन,
हमने तो जीना सीखा है।
अंधकार में बन्धु भटकते,
पंथ बिना व्याकुल दुख सहते।
पथ दर्शन दीपक बन,
तिल-तिल हमने तो जलना सीखा है।।2।।
 
तृषित जनों को जीवन देंगे,
शस्य-श्यामला भूमि करेंगे।
सुरसरि देने हिमगिरि के सम,
हमने तो गलना सीखा है।
धरती को सुरभित कर देंगे,
हे माँ हम मधुऋतु लायेंगे।
शूलों में भी सुमनों के सम,
हमने तो खिलना सीखा है॥3॥


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देव दुर्लभ वीर व्रत ले, संगठित हो हिंदू सारा - संघ गीत





देव दुर्लभ वीर व्रत ले, संगठित हो हिंदू सारा
विश्व व्यापी ध्येय पथ पर धर्म विजयी हो हमारा ॥

सत्य पथ अपना सनातन, नित्य नूतन चिर पुरातन
व्यष्टि से परमेष्ठी तक है, चेतना का एक स्पंदन
वेद वाणी के स्वरों में, गुंजति संस्कार धारा ॥1॥

सब सुखी हो सब निरामय, इस धरा का मूल चिंतन
विश्व को मांगल्य देने, कर दिया सर्वस्व अर्पण
गरल पीकर शिव बने हम शक्ति का यह रूप न्यारा ॥2॥

जननी है वसुधा हमारी, मातृ मन का भाव जागे
एकता का मंत्र दे कर, जगति में एकात्म साधे
विश्व गुरु के परम पद पर, हो प्रतिष्ठित धर्म प्यारा ॥3॥

टैग - संघ गीत


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उठो जवानो हम भारत के स्वाभिमान सरताज़ है - संघ गीत



 

उठो जवानो हम भारत के स्वाभिमान सरताज़ है
अभिमन्यु के रथ का पहिया, चक्रव्यूह की मार है

चमके कि ज्यों दिनकर चमका है
उठे कि ज्यो तूफान उठे
चले चाल मस्ताने गज सी
हँसे कि विपदा भाग उठे

हम भारत की तरुणाई है
माता की गलहार है
अभिमन्यु के रथ का पहिया....

खेल कबड्डी कहकर
पाले में न घुस पाये दुश्मन
प्रतिद्वंदी से ताल ठोक कर
कहो भाग जाओ दुश्मन
मान जीजा के वीर शिवा हम
राणा के अवतार है
अभिमन्यु के रथ का पहिया....

गुरु पूजा में एकलव्य हम
बैरागी के बाण है
लव कुश की हम प्रखर साधना
शकुंतला के प्राण है
चन्द्रगुप्त की दिग्विजयों के
हम ही खेवनहार है
अभिमन्यु के रथ का पहिया....

गोरा, बादल, जयमल, पत्ता,
भगत सिंह, सुखदेव, आज़ाद
केशव की हम ध्येय साधना
माधव बन होती आवाज़
आज नहीं तो कल भारत के
हम ही पहरेदार है
अभिमन्यु के रथ का पहिया....

उठो जवानों हम भारत के स्वाभिमान सरताज है
अभिमन्यु के रथ का पहिया, चक्रव्यूह मार है

टैग - संघ गीत



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राही मासूम रज़ा का व्यक्तित्व एवं कृतित्व



एक तरफ राष्ट्रीय आंदोलन अपनी तीव्रता पर था और दूसरी तरफ सांप्रदायिकता की आग चारों ओर फैल रही थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में जिला गाजीपुर उत्तर प्रदेश के 'बुधही' नामक गाँव में सैयद मासूम रज़ा का जन्म हुआ। बुधही मासूम रज़ा का ननिहाल था। ददिहाल के गाँव का नाम है- गंगौली, जो कि ग़ाज़ीपुर शहर से लगभग 12 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। वास्तव में मासूम रज़ा के दादा आजमगढ़ स्थित 'ठेकमा बिजौली' नामक गाँव के निवासी थे। दादी गंगौली के राजा मुनीर हसन की बहन थी। वह राही के दादा के संग गंगौली में ही बस गई थीं। तदुपरांत धीरे-धीरे परिवार में गंगौली का रंग रचता-बसता गया। मासूम रज़ा की निगाहें गंगौली में ही खुली, 'ठेकमा बिजौली' से कोई संबंध नहीं रहा।

Rahi Masoom Raza

 मासूम रज़ा के पिता श्री बशीर हसन आब्दी, गाजीपुर जिला कचहरी के प्रसिद्ध वकील थे, इसलिए पूरे परिवार का रहना-सहना और शिक्षा-दीक्षा वहीं हुई ! परंतु मोहर्रम और ईद के कारण आब्दी परिवार गंगौली से जुड़ा हुआ था। श्री बशीर हसन आब्दी के वर्षों तक गाजीपुर में एक ख्याति प्राप्त वकील के रूप में कार्य करने के कारण परिवार में सुख-वैभव की कोई कमी नहीं थी। इसलिए मासूम रज़ा का बचपन बिना किसी कष्ट के व्यतीत हुआ। परिवार भी भरा-पूरा था। बड़े भाई मूनिस रज़ा के अलावा दो भाई एवं दो बहनें थी। मासूम रज़ा के बाल्यकाल में चंचलता अपेक्षाकृत अधिक थी, इसलिए घर के बड़े-बूढ़ों के साथ-साथ के भाई-बहनों को भी अपनी छेड़-छाड़ के द्वारा तंग करते रहते थे। पारिवारिक परंपरा के अनुसार पहले बिस्मिल्लाह के साथ मासूम की शिक्षा-दीक्षा प्रारंभ हुई। प्रारंभ में पढ़ाई-लिखाई में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए अपने मौलवी मुनव्वर साहब की पिटाई से बचने के लिए उन्हें अक्सर अपने जेब खर्च की इकन्नी दे देनी पड़ती थी। अभी मासूम रज़ा की शिक्षा सुचारू रूप से प्रारंभ भी नहीं हुई थी कि परिवार के सदस्यों ने यह महसूस करना शुरू किया कि मासूम लंगड़ाता है। प्रारंभ में लगड़ेपन को उनकी उद्दंडता समझकर नजर अंदाज कर दिया गया, लेकिन कुछ दिनों के पश्चात स्थिति की गंभीरता को ध्यान में रखकर जब परीक्षण पर परीक्षण प्रारंभ हुआ तो पता चला कि मासूम रज़ा को बोन टी. बी. है।

टी. बी. की बीमारी ने मासूम रज़ा के जीवन को एक नया मोड़ प्रदान किया। साथ ही उनकी संवेदनाओं को गहराई तक छोड़ते हुए उनके भविष्य के साहित्यकार जीवन की पृष्ठभूमि के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बीमारी के कारण उन्हें फिल्म देखने का शौक भी पूरा करने का भी मौका मिला। दोस्तों, हवेलियों-मवालियों के साथ पालकी पर बैठ कर फिल्म देखने जाते। शायद बीमार मासूम का मन फिल्मों से बहल जाये, संभवतः इसी कारण परिवार के बड़े-बूढ़ों ने उन्हें फिल्म देखने से रोकने के बजाय बढ़ावा ही दिया। उनके फिल्मी जीवन के प्रेरणा-स्रोत के रूप में उनके बचपन के फिल्म के शौक ने अवश्य कहीं-न-कहीं पृष्ठभूमि का कार्य किया।

अपनी उदासी और सूनेपन को दूर करने में फिल्म इत्यादि से असफल हो अंत में 'हसरत' या फिर अन्य उर्दू की पत्र-पत्रिकाओं की शरण में जाना पड़ता। परिवार के घरेलू कार्यों के लिए अली हुसैन साहब थे, जिन्हें सब कल्लू काका कहा करते थे। उनका अन्य कार्यों के अतिरिक्त एक प्रिय कार्य था किस्सागोई। कल्लू काका 'तिलिस्मे होशरूबा' सुनाने बैठ जाते। धीरे-धीरे अन्य बच्चों का मन उकता जाता, लेकिन मासूम रजा कभी नहीं थकते थे। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख कर देना आवश्यक है कि प्रेमचंद भी बचपन में तिलिस्मे होशरूबा के दीवाने थे। बाद में मासूम रज़ा द्वारा किये गये शोध कार्य 'तिलिस्मे होशरूबा में वहजती अनासिर' के प्रेरणा-स्रोत के रूप में उनके द्वारा बचपन में तिलिस्मे होशरूबा के किस्से को बार-बार सुनने की उत्कंठा को रेखांकित किया जा सकता है।

अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रवेश से पहले मासूम रज़ा ने किसी भी शिक्षण-संस्थान से औपचारिक रूप में शिक्षा नहीं प्राप्त की। बीमारी के कारण टांगे पहले टेढ़ी हो चुकी थीं। डॉक्टरों ने निरंतर इलाज की सलाह दी थी, इसलिए प्राइवेट परीक्षाओं के द्वारा धीरे-धीरे शिक्षा का क्रम आगे बढ़ता रहा। साथ ही उनके लिए गाजीपुर में एक कोआपरेटिव स्टोर खुलवा दिया गया। पर अब तक उनके आगामी जीवन की भूमिका के रूप में साहित्य ने अपनी जड़ों के लिए जमीन तैयार कर ली थी, अतः दुकान में मन लगाना आसान कार्य नहीं था।

मासूम रज़ा की शादी के साथ जीवन में उथल-पुथल एवं परिवर्तनों का एक नया दौर प्रारंभ हुआ साहित्य का बीज मासूम रज़ा के मस्तिष्क में पहले ही अपना स्थान बना चुका था, लेकिन उनकी वैचारिक दृढ़ता को दिशा प्रदान करने में शादी एवं उससे उत्पन्न स्थितियों का महत्वपूर्ण योगदान है। उनकी शादी उत्तर प्रदेश के जिला फैजाबाद (वर्तमान में अंबेडकर नगर) की टांडा तहसील में स्थित गाँव कलापुर के एक खानदानी व्यक्ति, जो कि पेशे से पोस्ट मास्टर की पुत्री मेहरबानो से संपन्न हुई। मेहरबानों एक पारंपरिक रूढ़िवादी परिवार से आयी थी, रंग-रूप भी औसत था जबकि मासूम रज़ा का घर बहुत हद तक रूढ़ि-मुक्ति एवं आधुनिक विचार वाला था। घर के स्वच्छंद एवं स्वतंत्र वातावरण का अनुमान इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उनके घर में बड़े भाई मूनिस रज़ा प्रगतिशील विचारधारा के समर्थक थे, तो पिता श्री बशीर हसन आब्दी कांग्रेसी थे।

कुछ साल तक मेहरबानो ने मासूम रज़ा के परिवार में अपना जीवन बड़ी कठिनाइयों के बीच व्यतीत किया। मासूम रज़ा के साथ ही उन्होंने प्राइवेट हाई स्कूल की परीक्षा पास की, पर उनको वहाँ फूटी आँख भी पसंद नहीं किया गया। सैयद जुहेर अहमद जैदी ने लिखा है कि, “एक सूत्र के अनुसार मासूम अत्यधिक क्रोध में आकर उस अबला को खूब पीटा करते थे।” संभवत्त: कम आयु में विवाह हो जाने, विकलांग होने और निरंतर बीमार रहने का प्रभाव उनके वैवाहिक जीवन पर पड़ा और आगे चलकर मासूम रज़ा का मेहरबानो से तलाक हो गया।

जीवन के छिट-पुट इन अंधेरे पक्षों एवं दुखद घटनाओं के अतिरिक्त उनके बचपन से ही, उनकी विरोधी प्रवृत्तियों का स्वर सकारात्मक रहा है। मासूम रजा पर बड़े भाई मूनिस रज़ा का बहुत प्रभाव था। यही कारण है कि मूनिस रजा के साथ-साथ मासूम रज़ा पर प्रगतिशील विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ा। फलस्वरूप उनकी विरोधी प्रकृति प्रगतिशील विचारधारा के माध्यम से समाज के निम्न वर्ग को स्वर प्रदान करती हुई साहित्य के माध्यम से मुखरित हुई।

मासूम रज़ा का बचपन विशिष्ट सामाजिक मान्यताओं, परंपराओं के बीच बीता, जहाँ सलाम और आदाब 'खालिस' (नस्लीय शुद्धता) पर आधारित था, परंतु इन रूढ़ियों को तोड़ने का प्रण मासूम ने जैसे बचपन से ही कर लिया था। धर्म और रोजी-रोटी के आपसी संबंधों की समझ संभवत: उन्हें बचपन से ही हो गयी थी। मासूम का बचपन जहाँ बीता वहाँ राकी, जुलाहों और सैयदों में अंतर तो था ही, उत्तर पट्टी के सैयदों में भी फर्क था। अहीर और चमारों की बस्तियाँ गाँव से दूर थी । मीर साहबानो के सामने सब निम्न थे, ऐसी दोनों पक्षों की धारणा थी कि मीर साहबानों के बच्चों को सख्त हिदायत थी कि नीचे समझे जाने वाले वर्ग के बच्चों के साथ खेलना तो क्या उनके साथ बातचीत भी नहीं करना चाहिए, परंतु मासूम ने कबड्डी का खेल उनके साथ खेलते हुए पहली बार इस परंपरा को क्रांतिकारी ढंग से तोड़ा।

सन्‌ 1948 तक मासूम रजा 'राही' उपनाम से उर्दू शायरी में प्रवेश पा चुके थे। धीरे-धीरे उनकी प्रतिभा से डॉ० एजाज़ हुसैन जैसे विद्वान भी प्रभावित होने लगे। उनकी साहित्यिक गतिविधियों का क्षेत्र विस्तृत होने लगा। एक-एक करके डॉ. अजमल अजमली, श्री मुजाविर हुसैन (इब्ने सईद), श्री जमाल रिज़वी (शकील जमाली), मसूद अख्तर जमाल, खामोश गाजीपुरी, तेग इलाहाबादी, असरार जैसे नवोदित शायरों के साथ-साथ बलवंत सिंह और फिराक गोरखपुरी जैसे स्थापित लोगों से उनका संपर्क होने लगा। इन मिलने-जुलने वाले अधिकांश साहित्यकारों का रुझान प्रगतिशील विचारों के प्रति थी। राही मासूम रजा का प्रगतिशील विचारधारा से पहले ही संबंध था, फलत: इन लोगों के संपर्क में आने के पश्चात उनके विचारों को और अधिक बल प्राप्त हुआ। स्वाभाविक रूप से उनकी दृष्टि भी साफ हुई। सब लोगों ने डॉ. एजाज़ हुसैन के संरक्षण में मिलकर “नकहत' क्लब की स्थापना किया। इसके गोरखपुर में होने वाले पहले अधिवेशन के साथ ही नियमित रूप से राही ने इसकी गतिविधियों में हिस्सा लेना प्रारम्भ दिया था। पटना के सम्मेलन तक राही मंझ चुके थे। आजमगढ़ का सम्मेलन होते-होते उनकी शायरी प्रसिद्धि के शिखर को छूने लगी थी। इसी बीच कथा-साहित्य के क्षेत्र में उन्होंने उर्दू के उपन्यास 'मुहब्बत के सिवा' के साथ प्रवेश किया पर वो एक रोमानी उपन्यास साबित हुआ। शायरी के समानांतर मुहब्बत के सिवा की तर्ज पर उन्होंने बहुत सारे उपन्यासों की रचना की। उपन्यासकार के रूप में उन्होंने 'शाहिद अख्तर' नाम अपनाया।

राही का इलाहाबाद में प्रगतिशील साहित्यकार वर्ग से जुड़ना स्वाभाविक था, क्योंकि साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव उन पर गाजीपुर में ही पड़ चुका था, परंतु गैर प्रगति वादियों से भी उन्हें कोई परहेज नहीं था। इलाहाबाद का तत्कालीन साहित्य संसार प्रतिवादियों के अतिरिक्त कांग्रेसी, महासभाई इत्यादि सभी विचारधारा के साहित्यकारों का गढ़ था। 'परिमल' नामक संस्था से बच्चन एवं धर्मवीर भारती इत्यादि हिंदी कवि सक्रिय थे। प्रत्येक विचारधारा के साहित्यकारों एवं संस्थाओं से संपर्क में आने के कारण उन्हें एक विस्तृत साहित्यिक फलक मिला, जहां उनकी प्रतिभा प्रस्फुटित हुई। 'हिंदोस्तां की मुकद्दस जीम, जैसे मेले में तन्हा हो नाजनी' नज़्म ने पहली बार उनकी इलाहाबाद के बाहर के साहित्यकारों के बीच प्रसिद्धि का कारण बनी।

डॉ० एजाज़ हुसैन के संपादकत्व में निकलने वाली पत्रिका “कारवाँ' में उनकी नज्में और लेख प्रकाशित होते रहे। 'फसाना' दिल्ली से प्रकाशित होती थी, उसमें भी राही का प्रकाशन लगभग नियमित था। राही मासूम रज़ा के तेवर बचपन से ही तेज़ थे, यही उनके साहित्यिक जीवन में स्पष्ट बयानी, दो टूक जवाब की प्रवृत्ति के रूप में और भी अधिक मुखरित हुई। राही मासूम रज़ा के जीवन का यह वह काल था जब भारत का विभाजन तो हो चुका था, लेकिन उसका प्रभाव अब तक था। सामाजिक विघटन, सांप्रदायिकता की सड़ांध अब भी वातावरण में बाकी थी। लेकिन इस विघटन और सड़ांध के प्रभाव से, गंगा की गोद में पल-बढ़ कर बढ़े हुए राही दूर रहे। फिर भी वे कहीं-न-कहीं से टूटने लगे थे। टूटने का कारण भी अपनों के बीच ही अजनबीपन का एहसास पैदा होना।

साहित्यिक गतिविधियों के बीच ही राही ने उर्दू में बी. ए. के समकक्ष परीक्षा पास कर ली थी। देश विभाजन के कारण डॉ. मुस्तफा, जिनके यहाँ वह रहते थे, भारत छोड़कर पाकिस्तान चले गये। फलस्वरूप राही का मन इलाहाबाद से उचाट हो गया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उनके बड़े भाई मूनिस रजा और दो छोटे भाई पहले से ही थे। मूनिस रज़ा की प्रेरणा से उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एम. ए. उर्दू में प्रवेश ले लिया। एम. ए. में प्रवेश से पहले ही उनका “रक्से मय' 'मौजे सबा” “नया साल' 'अजनबी शहर अजनबी रास्ते' इत्यादि काव्य संग्रह उर्दू में प्रकाशित हो चुके थे। जिस काल में अलीगढ़ में राही मासूम रज़ा आये, वह समय अलीगढ़ की साहित्यिक गतिविधियों के लिए महत्वपूर्ण रहा है। अनेक लेखक एवं शायरों की गतिविधियों प्रगतिशील झंडे के तले सक्रिय थी। राही को यहाँ मार्ग ढूँढने में कोई कठिनाई नहीं हुई। दूसरी तरफ 'उर्दू-ए-मुअल्ला' नामक कैंप भी था जिसके संचालक आले अहमद सुरूर एवं शहाब जैसे साहित्यकार थे।

अलीगढ़ आने से पहले ही राही के पास अपना एक निश्चित दृष्टिकोण था। बचपन से ही उनके अंदर “ईगो' की भावना भी विद्यमान थी, यहाँ के वातावरण ने उसे और अधिक पहले पलने बढ़ने का अवसर प्रदान किया। इसलिए उन्हें अकेलेपन एवं लोगों से अलगाव का एहसास होता था। अलीगढ़ में राही द्वारा अपने से सबको कमतर समझने का कारण भी था। जब तक साहित्यकार में प्रतिस्पर्धा की भावना हो उसका साहित्य तभी तक जीवित रह सकता है, जब वह ऐसे नये सवाल लेकर आये जिसका जवाब दूसरे साहित्यकार के पास न हो और वे सवाल साहित्य को झिंझोड़ने की क्षमता रखते हों। राही भी नये तेवर और नये सवालों के साथ साहित्य को झिंझोड़ रहे थे। राही रास्ते की खोज में लग गये। भाषिक सीमाओं तो तोड़ती हुई राही की खोजी प्रवृत्ति, उन्हें कला के एक दूसरे क्षेत्र 'फिल्म' तक घसीट ले गयी।

फिल्मों के प्रति अनुराग राही के अंदर बचपन से ही था। अलीगढ़ में एम. ए. के बाद शोध-कार्य में लग गये, परंतु उनका बहुमुखी व्यक्तित्व सक्रिय रहा। साहित्यिक गतिविधियों के अतिरिक्त राही विश्वविद्यालय के नाट्य मंच से भी कुछ दिन तक जुड़े रहे। राही के द्वारा नाटक 'एक पैसे का सवाल है बाबा” भी उस जमाने में अत्यधिक चर्चित हुआ। अलीगढ़-प्रवास काल में ही उनका संपर्क प्रसिद्ध अभिनेता भारत भूषण के भाई रमेश चंद्र से रहा। उनके साथ राही सन् 1963 में बंबई भी जा चुके थे। राही के फिल्मों के प्रति लगाव की पृष्ठभूमि के रूप में उनकी रंगमंचीय सक्रियता एवं रमेश चंद्र के संर्पक ने कार्य किया। दूसरी तरफ उनके निजी जीवन की उथल-पुथल ने भी उन्हें फिल्मों की तरफ जाने के लिए मजबूर कर दिया।

अलीगढ़ में राही को एक शायर के रूप में लोकप्रियता तो मिल ही चुकी थी किन्तु आधा गांव की लोकप्रियता ने उनके जीवन में एक नयी हलचल उत्पन्न कर दी। यह उपन्यास नागरी लिपि में प्रकाशित हुआ था। पहले के उपन्यास के लिए अपनाये गये नाम 'शाहिद अख्तर' को छोड़कर इस उपन्यास पर लेखक के नाम के स्थान 'राही' मासूम रजा लिखा गया। इसकी रचना 1964 ई0 में हुई। शोध समाप्त करने के बाद राही उर्दू विभाग में प्रवक्ता हो गये। कुछ ही दिनों बाद संपर्क एक अन्य महिला श्रीमती नैयर से हो गया। दोनों लोगों ने दिल्ली जाकर शादी कर ली। इस विवाह के कारण ही उनकी नौकरी छूट गई। उनके स्थान पर एक अन्य शोधार्थी अतीक अहमद सिद्दीकी की नियुक्ति कर दी गयी। राही का दिल टूट गया। दिल्‍ली में उन्हें आकाशवाणी से नौकरी का निमंत्रण मिला। लेकिन उन्होंने आकाशवाणी की नौकरी अस्वीकार करके, बंबई जाकर सिनेमा-संसार में भाग्य आजमाने का निर्णय किया। सन् 1968 से राही बम्बई रहने लगे थे। वह अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे, जिससे उनकी जीविका की समस्या हल होती थी। राही अपने सांप्रदायिकता-विरोध तथा धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण वहाँ अत्यंत लोकप्रिय हो गए। बंबई रहकर उन्होंने 300 फिल्मों की पटकथा और संवाद लिखे तथा दूरदर्शन के लिए 100 से अधिक धारावाहिक लिखे, जिनमें 'महाभारत” और “नीम का पेड़" अविस्मरणीय हैं। राही ने प्रसिद्ध टीवी सीरियल 'महाभारत' की स्क्रिप्ट भी लिखी। सन्‌ 1977 में आलाप', 1979 में “गोलमाल', 1980 में 'हम पाँच', 'जुदाई' और 'कर्ज', 1991 में 'लम्हें' तथा 1992 में 'परंपरा' आदि फिल्मों के संवाद उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त है सन्‌ 1979 में 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' फिल्‍म के लिए राही को बॉलीवुड का प्रतिष्ठित फिल्म फेयर बेस्ट डायलाग अवार्ड भी मिला। बंबई में रहते हुए राही लगातार विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट तथा नियमित स्तंभ भी लिखा करते थे, जो व्यक्ति, राष्ट्रीयता, भारतीय संस्कृति और समाज, धार्मिकता तथा मीडिया के विभिन्न आयामों पर केंद्रित रही। अपने समय में राही भारतीय साहित्य और संस्कृति के एक अप्रतिम प्रतिनिधि हैं। उनका पूरा साहित्य हिंदुस्तान की साझा विरासत का तथा भारत की राष्ट्रीय एकता का प्रबल समर्थक है। बंबई फिल्‍मी जीवन के संघर्ष में लगे राही के अंदर का साहित्यकार संघर्ष करता हुआ साहित्य-यात्रा के अनेक पड़ावों को तय करता रहा। 5 मार्च सन् 1992 में बंबई में ही राही ने इस नश्वर संसार से आखिरी विदाई ली।

कृतित्व - राही ने साहित्य में कदम 1945 में रखा। तब उन्होंने विधिवत उर्दू में शायरी आरंभ की। 1966 तक आते उनके 4 काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके थे- 'नया साल', 'मौजे गुल, मौजे सबा, 'रक़्से मय', 'अजनबी शहर अजनबी रास्ते' । बाद में 'शीशे के मकांवाले' तथा 'मैं एक फेरीवाला' दो काव्य-संग्रह और प्रकाशित हुए। 1857 पर लिखा उनका एक महाकाव्य 'क्रांति-कथा : 1857' हिंदी-उर्दू दोनों में प्रकाशित है। सन् 1966 में गाजीपुर के परमवीर चक्र विजेता शहीद अब्दुल हमीद पर उनकी जीवनी 'छोटे आदमी की बड़ी कहानी' प्रकाशित हुआ। उनका अंतिम काव्य-संग्रह 'ग़रीबे शहर' सन् 1993 में प्रकाशित हुआ।

सन्‌ 1964 ई0 में जब राही मासूम रज़ा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू प्रवक्ता पद के लिए तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप अयोग्य ठहराये गये, तो राही के भीतर का रचनाकार साहित्यिक तलवार लेकर बीच चौराहे पर खड़ा हो गया और ऐसा प्रतीत हुआ कि यह रचनाकार उर्दू साहित्य के महंतों के ही रक्त का प्यासा नहीं है, बल्कि उर्दू की विशिष्ट सामंती मानसिकता को भी सिरे से कत्ल कर देना चाहता है। उसकी आक्रोश पूर्ण दृष्टि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, उर्दू और मुस्लिम समाज की ज़मींदारी मनोवृत्ति के विरुद्ध सशक्त मोर्चा बनाने के लिए उसे तत्पर हुई। राही का प्रथम उपन्यास आधा गांव इसी आक्रोश के नतीजे में हिंदी में लिखा गया। वैसे तो राही के पास उर्दू कविता का सशक्त माध्यम था, किंतु कविता के पाठक सीमित थे, फिर कविता का फलक राही के आक्रोश को व्यक्त करने के लिए पर्याप्त नहीं था।

आधा गाँव' का रचना काल सन् 1964 ई0 के आस-पास का है। इस समय तक राही को हिंदी लिखने का ठीक-ठाक अभ्यास नहीं था। राही ने अपने दृढ़ संकल्प और लगन से न केवल हिंदी सीखी, बल्कि हिंदी में निरंतर लिखने का निश्चय कर लिया। उनके भीतर की आत्मा ने उनके इस निर्णय को अद्भुत शक्ति प्रदान की। इसी अद्भुत निर्णय का परिणाम था- आधा गाँव'। महाभारत जैसे अत्यंत लोकप्रिय टी. वी. सीरियल के पटकथा और संवाद लिखकर भी राही को अपार सफलता मिली। आधा गाँव' के बाद राही की अन्य उपन्यासिक कृतियाँ कालक्रम के अनुसार इस प्रकार आती हैं- 'टोपी शुक्ला (1968), हिम्मत जौनपुरी' 1969), ओस की बूंद” (1970), 'दिल का सादा काग्रज' (1973), 'सीन 75' (1977), 'कटरा बी आर्जू' 1978), 'असंतोष के दिन' (1986), तथा “नीम का पेड़' ।

राही की मृत्यु के बाद उनके मित्र और साथी तथा हिंदी के सुप्रसिद्ध मार्क्सवादी समीक्षक प्रो. कुँवर पाल सिंह ने उनकी अप्रकाशित रचनाओं को छह पुस्तकों में संपादित करके प्रकाशित कराया है। पुस्तकों के नाम इस प्रकार हैं- 'क्रांति कथा : 1857', “लगता है बेकार गये हम”, 'खुदा हाफिज कहने का मोड़', 'सिनेमा, समाज और संस्कृति', 'राही का रचना संसार' तथा राही मासूम रजा से दोस्ती'। अभिनव कृदम' पत्रिका ने भी राही विशेषांक नवंबर 2001-अक्टूबर 2002 निकाला, जिसमें राही के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर पर्याप्त सामग्री है। इन सभी संपादित पुस्तकों में विभिन्न विषयों पर लेख, भाषण, संस्मरण और पत्र संकलित हैं।



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बचपन में स्कूल में गयी जाने वाली प्रार्थना वह शक्ति हमें दो दयानिधे



Wah Shakti Hame Do Dayanidhe Lyrics

वह शक्ति हमें दो दयानिधे, कर्तव्य मार्ग पर डट जावें ।
पर सेवा पर उपकार में हम, निज जीवन सफल बना जावें ।।
 
हम दीन दुखी निबलों विकलों, के सेवक बन सन्ताप हरें ।
जो हों भूले भटके बिछुड़े, उनको तारें ख़ुद तर जावें ।।
 
छल-द्वेष-दम्भ-पाखण्ड- झूठ, अन्याय से निशदिन दूर रहें ।
जीवन हो शुद्ध सरल अपना, शुचि प्रेम सुधारस बरसावें ।।
 
निज आन मान मर्यादा का, प्रभु ध्यान रहे अभिमान रहे ।
जिस देश जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें ।।
 
 
बचपन में स्कूल में गयी जाने वाली प्रार्थना वह शक्ति हमें दो दयानिधे आज भी जब हम कहीं किसी स्कूल के पास से गुजरते सुनते है तो शरीर में गजब का संचार उत्पन्न कर देती है इसकी मधुर गान, यह प्रार्थना मानो सभी मनोरथ को सिद्ध करती प्रतीत होती है।


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रैकवार क्षत्रिय वंश कुल देवी



कुलदेवता - देवबाबा (भगवान राम जी), कुलदेवी - विंध्यावासिनी (दुर्गा माता), कुल - सूर्यवंशी, गुरु - शुक्राचार्य, गोत्र - भारद्वाज, नदी - सरयू माता, पंक्षी - बाज, पवित्र वृक्ष- नीम, प्रवर - भारद्वाज, बार्हस्पत्य, अंगिरस, मंत्र - गोपाल मंत्र, वेद - यजुर्वेद, शाखा - वाजसनेयि माध्यांदिन एवं सूत्र - पारस्कर गृह्यसूत्र इस प्रकार रैकवार क्षत्रिय वंश का विवरण क्षत्रिय इतिहास में प्राप्त होता है।

raikwar kuldevi durga mata
रैकवार क्षत्रिय वंश कुल देवी

रैकवार वंश के आदि पुरुष महाराजा राकादेव जी हैं। महाराजा राकादेव जी की इष्ट देवी माता दुर्गा जी है। रैकवार वंश की कुलदेवी दुर्गा जी को इसीलिए मानते हैं। महाराजा राकदेवजी ने रैकागढ़ बसाया था तथा अपनी कुलदेवी की पूजा भाद्रपद (भादों) मास के अंतिम बुधवार को पूजा किया करते थे। रैकवार वंश में बालक के जन्म व बालक-बालिका की शादी विवाह व सभी शुभ कामों में कुलदेवी की पूजा हल्दी, अच्छत, सुपाड़ी, लौंग तथा पीला चावल से परिवार,घर के कुलदेवी की पूजा कुल के क्रमशः जेष्ठ पुत्र, जेष्ठ पौत्र, जेष्ठ प्रपौत्र तथा जेष्ठ पड़पौत्र एवं उनकी धर्मपत्नीयों के द्वारा किया जाता है। रैकवार वंश का विस्तार धीरे धीरे महाराजा राका जी के वंशज रैकागढ़ स्टेट से महाराजा सल्देव जी, महाराजा बल्देव जी व भैरवानंद जी के रामनगर धमेढ़ी (बाराबंकी) एवं बहराईच बौड़ी, रेहुवा, चहलरी तथा हरिहरपुर में रैकवार वंशीय राज्य व तालुकेदारी स्थापित किया था।
रैकवार वंश की कुलदेवी माता दुर्गा की पूजा सदा से परिवार के कुलदेवी की पूजा कुल के क्रमशः जेष्ठ पुत्र, जेष्ठ पौत्र,  जेष्ठ प्रपौत्र तथा जेष्ठ पड़ पौत्र एवं उनकी धर्मपत्नीयों के द्वारा किया जाता है। वैसे भागीदारी पूरे परिवार की रहती है। हमारे पूर्वजों की यही परंपरा हर जगह आज भी मौजूद है, सभी शुभ दिनों में कुलदेवी दुर्गा माता की पूजा होती है। कुलदेवी, माता दुर्गा जी की अपार कृपा दृष्टि अपने भक्तों पर रहती है। अपने पूर्वजों ने जब युद्ध लड़े तो कुलदेवी की पूजा करके ही मोर्चा में मैदान पर जाते थे। महाराजा प्रताप शाह व महाराजा बाल भद्र सिंह व राजा नरपति सिंह व बख्तावर सिंह जी 1857 में अंग्रेजों से युद्ध लड़े थे, तो माता कुलदेवी दुर्गा जी की पूजा पहले किया था।
शास्त्रों में बताया गया है कि जिस कुल यानी वंश में कुलदेवी प्रसन्न रहती हैं, वहां की सात पीढ़ियों में खुशहाली जीवन व्यतीत करती हैं। शास्त्रों के अनुसार हर वंश की एक देवी होती है, जिसकी विशेष मौकों पर पूजा की जाती है। उन्हें खुश रखने का सबसे आसान तरीका होता है, विशेष मौकों पर पूरे परिवार द्वारा विधिपूर्वक पूजा करना। इसके अलावा श्राद्ध पक्ष के दौरान पितृ तर्पण की परम्परा का पालन भी जरूर करना चाहिए, इससे पितृ पक्ष का आशीर्वाद बना रहता है।


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