मुस्लिम संत हरिदास ठाकुर यवन की कृष्ण भक्ति



श्री हरिदास जी का जन्म वर्तमान जैसोर जिले के बूढ़न नामक ग्राम में एक संभ्रान्त मुसलमान के घर हुआ था। किसी पूर्व संस्कार के कारण बाल्यकाल से ही हरिदास को हरि नाम बड़ा प्यारा लगता था, श्रीकृष्ण की लीलाओं को वे बड़े चाव से सुना करते, धीरे-धीरे हरिदास का मन मुसलमानी मजहब से (कुछ लोगों का कहना है कि हरिदास जी का जन्म हिन्दू कुल में हुआ था और वे पीछे से मुसलमान हो गये थे) हट गया और उन्होंने अपना जीवन श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों में समर्पण कर दिया, दिन रात उच्च स्वर से हरिनाम कीर्तन करने लगे। उनका विश्वास था कि जो भूल से भी हरिनाम ले लेता या सुन लेता है वह नरक से बच जाता है। मनुष्य की तो बात ही क्या है यदि नीच से नीच पशुओं के कानों में भी हरिनाम सुना दिया जाय तो उनका भी उद्धार हो सकता है। इसी कारण वे जोर जोर से हरि कीर्तन किया करते थे। यही तो सच्ची शुद्धि है। जो विश्वास पूर्वक सच्चे मन से भगवद् भक्त होकर हिन्दू धर्म को मानना चाहता है उसे जगत्‌ में कौन रोक सकता है ? अस्तु !


बेफायोल के वन में हरिदास जी ने कुटिया बना रखी थी, हरिनाम अधिक लेने के कारण इनका नाम हरिदास पड़ गया था, चारों ओर इस बात की ख्याति हो गयी थी। भक्त की बड़ी कठिन परीक्षा हुआ करती है। इंद्रिय भोगों के बड़े बड़े लुभावने पदार्थ उसके सामने आकर उसके मन को डिगाना चाहते हैं, इसी के अनुसार उस देश के दुरात्मा जमीदार रामचंद्र खां के मन में हरिदास का तप नाश करने की प्रवृत्ति हुई और उसने इस काम के लिये एक परम सुन्दरी वेश्या को हरिदास की कुटिया पर भेजा। वेश्या ने तीन रात तक लगातार बड़ी चेष्टा की परन्तु वह हरिदास के हरि चरण लीन चित्त में जरा सी भी चंचलता उत्पन्न नहीं कर सकी। जिसका मन एक बार उस अलौकिक रूप सुधा का रस आस्वादन कर चुका है वह विलास रसिका के रसालाप की ओर कैसे खींच सकता है ? हरिदास जी प्रतिदिन तीन लाख नाम जप किया करते थे, वेश्या ने तीन रात तक कीर्तन किया। उसके पापों का बहुत सा संचित नष्ट हो गया। मन में शुभ स्फुरणा हुई। वेश्या ने सोचा कि मेरे बिना बुलाये ही सैकड़ों मनुष्य मेरे रूप दर्शन की लालसा से मेरे घर पर आ और मेरे रूप पर मोहित होकर अपना सर्वस्व दे जाते हैं, पता नहीं हरिदास किस रस में डूब रहा है, न मालूम किस अनूप रूप पर मोहित हो रहा है जो इतनी चेष्टा करने पर भी मेरी ओर नहीं ताकता। धन्य है इस हरिदास को जो भोगों की वासना को इस प्रकार पददलित कर भगवन्नाम अमृत पान में उन्मत्त हो रहा है, मैंने तो अपना जीवन केवल पापों के बटोरने में लगाया, मेरी क्या गति होगी ? यों सोचते सोचते वेश्या का अंतर पिघल गया। उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे और वह तुरंत दौड़कर संत के चरणों में गिर पड़ी और बोली कि प्रभो ! बिना समझे प्रमाद से मैंने बड़ा अपराध किया हैं, मेरा उद्धार कीजिये 1 वेश्या पर इतनी भगवत् कृपा देखकर भक्त हरिदास का हृदय भर आया, उन्होंने उसे हरिनाम मन्त्र देकर कहा कि जाओ, अपनी धन-सम्पति गरीबों को लुटा दो और इसी कुटिया में बैठकर साधन करो। मैं जाता हूँ। वेश्या साधन में लग गयी उसका नरक हृदय साक्षात् वैकुण्ठ धाम बन गया। भगवान उसमें निवास करने लगे, साधु सङ्ग से सूखा वृक्ष हरा भरा हो गया। वेश्या परम भक्तिमती होकर परमात्मा को पा गयी।

वहाँ से हरिदास जी चांदपुर के जमीदार के कुल पुरोहित बलरामाचार्य के घर पर आये; बलराम और उनके दोनों जमींदार शिष्य हरिदास जी की भक्ति देखकर मुग्ध हो गए और उनको गुरु सदृश मानने लगे। भक्त को कौन नहीं मानता ? जिसको भगवान ने अपनाया उसको जगत् ने अपना लिया।
गरल सुधा रिपु करै मिताई।
गोपद सिन्धु अनल सितलाई ॥
जमीदार पुत्र रघुनाथ ने इसी समय भक्ति प्राप्त की और आगे चलकर वे परम भक्त हुए। हरिदास जी एक दिन कह रहे थे कि हरि नाम से मुक्ति होती हैं, हरिनाम के आभास से ही मुक्ति होती है। इस बात को सुनकर गोपाल चक्रवर्ती नामक एक मनुष्य ने ब्यङ्ग करके कहा कि इसकी बात किसी को नहीं माननी चाहिये, जो फल योग और तप से नहीं मिलता वह केवल हरिनाम से कभी नहीं मिल सकता, यदि ऐसा हो तो मेरी नाक कट जाये। हरिदास जी ने कहा कि 'यदि ऐसा न होता होगा तो मेरी नाक कट जायेगी' बड़े आश्चर्य की बात है कि थोड़े ही दिनों बाद कुष्ठ रोग से गोपाल की नाक गलकर गिर पड़ी। हरिदास जी चांदपुर से आकर फुलिया नामक ग्राम में रहने लगे। यहाँ के मुसलमान काजी को मालूम हुआ कि हरिदास मुसलमान होकर भी काफिरों के आचरण करता है। अतएव उसने हरिदास को अपने मत के अनुसार सीधे रास्ते पर लाना चाहा, हरिदास की दूसरी कठोर परीक्षा का प्रारम्भ हुआ। हरिदास जी पकड़े जाकर विचार के लिये काजी साहब के सामने लाये गये। काजी ने कहा "तैंने मुसलमान होकर काफिरों का मजहब कैसे मंजूर किया ? जाओ, इस बेवकूफी को छोड़कर फिर कलमा पढ़ लो नहीं तो कड़ी से कड़ी सजा दी जाएगी।" इन शब्दों को सुनकर हरिदास जी को जरा सा भी भय नहीं हुआ। भयहारी भगवान के भक्त-सुलभ चरण कमलों की आश्रित यमराज से भी नहीं डरता, प्राणों की आहुति तो वह पहले दे चुकता है। भगवान ने गीता में कहा है" यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणानि विचाल्यते। "जिसमें स्थित होकर वह बड़े भारी दुःख से भी विचलित नहीं होता।
हरिदास जी ने निर्भयता परन्तु स्वभाव सुलभ नम्रता के साथ काजी से कहा “भाई ! ईश्वर एक है, अखण्ड और अव्यय है, वह हिंदू मुसलमान के लिये अलग अलग नहीं होता, उसकी जैसी प्रेरणा होती है मनुष्य वैसे ही करता है, मुझे कृष्ण नाम प्यारा लगता है इसी से मैं इसे लेता हूँ इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ता है? ”
हरिदास जी की इन बातों से काजी कुछ नरम हुआ परन्तु उसके मंत्रियों ने कहा कि यदि इसको दंड नहीं दिया जाएगा तो इसकी देखा देखी और भी मुसलमान हिंदू हो जायेंगे। अतएव काजी ने हरिदास के बाइस बाजारों में बेंत लगाने का दंड दिया। दुष्ट मन्त्रियों ने सोचा कि बेतों की मार से भी यदि हरिदास बच जायगा और नाम नहीं छोड़ेगा तब समझेंगे कि इसका हरिनाम सत्य है। काजी ने हरिदास जी को फिर समझाकर हरिनाम छोड़ने के लिये कहा। परन्तु हरिदास ने स्वीकार नहीं किया वे बोले टुकड़े टुकड़े देह हो प्राण जाय सुर धाम। तब भी मैं छाँड़ों नहीं पावन हरि का नाम। काजी को यह सुनकर बड़ा क्रोध हुआ और उसने प्राण दण्ड की आज्ञा दे दी। फाँसी पर चढ़ाकर या गोली मारकर प्राण लेने की जगह निर्दयतापूर्वक बाजारों में घुमा घुमा कर बेंते मार मारकर प्राण लेने की व्यवस्था की गयी। हरिदास जी किंचित भी नहीं घबराये ! एक बाजार में लाकर उनको बांध दिया गया और बड़ी निर्दयता से उन पर कोड़े लगने लगे। परंतु हरिदास जी का हरिनाम संकीर्तन ज्यों का त्यों जारी रहा उधर हरिदास जी बड़े जोर से बोलते "हरि"। उधर दुष्ट बड़े जोर से बेंत मारता। यों एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे करके बाइस बाजारों में हरिदास जी की पीठ पर बेतें मारी गयी। चमड़ा उड़ गया, रक्त की धारा से सारा शरीर भीज गया और लाल हो गया। इधर प्रेमाश्रुओं की धारा भी बह चली, पीठ से काजी के पाप की नदी और आगे से भक्त के प्रेम की निर्मल नदी बहने लगी। हरिदास जी नामोच्चारण और भी बड़े जोर जोर से करने लगे, गाँव भर में हाहाकार मच गया। बड़ी भीड़ हो गयी, सब लोग शाप देने लगे। कोई कहता था ईश्वर इस अन्याय को नहीं सहेंगे। कोई कहता था इस अन्याय से पृथ्वी काँप उठेगी, कोई कहता था काजी का समूल वंश नाश हो जाएगा। इधर हरिदास जी का मन दूसरी ही चिंता में मग्न था। उन्हें अपने ऊपर मार पड़ने और कष्ट पाने के लिये क्षोभ नहीं था उन्हें यह विश्वास था कि अभी ये लोग मुझ पर जितना अत्याचार कर रहे हैं समय आने पर न्यायकर्ता परमेश्वर की ओर से इन लोगों को इससे भी अधिक कष्टदायक दण्ड भोगना पड़ेगा। उनके भावी कष्ट की भावना से संत हरिदास का चित्त द्रवित हो गया। पापों से हटाने के लिये हरिदास जी ने उन लोगों से कहा कि भाई ! शांत हो ओ, मुझे मारने से तुम्हें क्या लाभ होगा ? तुम मुझे क्यों मार रहे हो ? मैंने तुम्हारा कोई नुकसान नहीं किया, हिंदू हो या मुसलमान परन्तु यह तो सभी को मानना पड़ेगा कि निर्दोष जीव को सताना पाप है, भगवान साक्षी हैं मैं ये बातें इसलिए नहीं होता कि: बेतों की चोट से मुझे दर्द हो रहा है परन्तु इसीलिए कहता हूं कि तुम लोग भ्रम से अपना भविष्य बड़ा दुःख मय बना रहे हो !
हरिदास जी के इन शब्दों से उन लोगों पर कुछ असर तो हुआ परन्तु उन्होंने अपना काम छोड़ा नहीं। हरिदास जी को बड़ी दया आयी। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी, उन्होंने अपना हृदय खोलकर दयामय भगवान के सामने रखा और बड़े जोर से बोले, कि हे मेरे कृष्ण ! हे मेरे स्वामी ! हे दयासिन्धु ! इन गरीबों पर दया करो, इनके इस अपराध को क्षमा कर दो, बेचारे भूले हुए जीव हैं अपना भला बुरा सोचने में असमर्थ हैं इन पर कृपा करो यों कहकर हरिदास जी रोने लगे, भीड़ के लोगों ने कहा कि हरिदास क्या कह रहे हैं ? पागल तो नहीं हो गये ? मारने वाले के लिये ईश्वर से क्षमा याचना करना कहाँ का धर्म है ? यूं कहते कहते लोग भक्त की महिमा से प्रेम में भर गये और हरि नाम ले लेकर नाचने लगे। इधर हरिदास जी को प्रेम-मूर्च्छा हो गयी। भगवान ! धन्य है क्या आपने इसलिए कहा है तजता नहीं मुझे जो हरिजन पाकर भी अतिशय संतान। पदवी अपनी देव दुर्लभ देता हूं उसको मैं आप प्रेममत्त हरिदास जी के भावावेश से काजी के सेवकों ने समझा कि इसकी मृत्यु हो गयी। इसलिये उसी अवस्था में उन्हें उठाकर गङ्गा जी में बहा दिया। गंगा में बहते बहते हरिदास को चेत हो गया और वे किनारे पर आकर बाहर निकल आये। लोगों की अपार भीड़ लगी हुई थी। काजी ने जब इनके जीने की बात सुनी तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। वह दौड़कर आया और सन्त हरिदास जी के चरणों में गिर पड़ा। उसने क्षमा प्रार्थना की और अन्त में वह परम भक्त बन गया। हरिदास जी हरि ध्वनि करते हुए चल दिये।
इसके बाद श्री हरिदास जी नवद्वीप में आये और वहाँ अद्वैताचार्य से मिले, इसी समय नवद्वीप में भगवान चैतन्य प्रकट हुए और बंगाल के हरि भक्ति की सुधा-धारा में प्लावित कर दिया। हरिदास का शेष जीवन श्री चैतन्य महाप्रभु के संग में बीता ! बोलो भक्त और उनके भगवान की जय !


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श्रीराम की पुनः लंका - यात्रा और सेतु भंग



पद्म पुराण के अनुसार एक समय भगवान श्रीराम को राक्षस राज विभीषण का स्मरण हो आया। उन्होंने सोचा कि ‘विभीषण धर्म पूर्वक शासन कर रहा है कि नहीं ? देव - विरोधी व्यवहार ही राजा के विनाश का सूत्र है। मैं विभीषण को लंका का राज्य दे आया हूँ, अब जाकर उसे सम्हालना भी चाहिए। कहीं राज मद में उससे अधर्माचरण तो नहीं हो रहा है। अतएव मैं स्वयं लंका जाकर उसे देखूँगा और हितकर उपदेश दूँगा, जिससे उसका राज्य अनन्त काल तक स्थायी रहेगा। ' श्रीराम यों विचार कर ही रहे थे कि भरतजी आ पहुँचे। भरत जी  के नम्रता से पूछने पर श्रीराम ने कहा -‘भाई ! तुमसे मेरा कुछ भी गोपनीय नहीं है, तुम और यशस्वी लक्ष्मण मेरे प्राण हो। मैंने निश्चय किया है कि मैं लंका जाकर विभीषण से मिलूँ, उसकी राज्य - पद्धति को देखूँ और उसे कर्तव्य का उपदेश दूँ। 'भरत ने कभी लंका नहीं देखी थी, इससे उसने भी साथ चलने की इच्छा प्रकट की, श्रीराम ने स्वीकार कर लिया और लक्ष्मण को सारा राज्य का कार्यभार सौंप कर दोनों भाई पुष्पक विमान पर चढ़ लंका के लिये विदा हुए।

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पहले भरत के दोनों पुत्रों की राजधानी में जाकर उनसे मिले और उनके कार्य का निरीक्षण किया, तदनंतर लक्ष्मण के पुत्रों की राजधानी में गये और वहाँ छः दिन ठहर कर सब कुछ देखा - भाला। इसके बाद भारद्वाज और अत्रि के आश्रमों को गये। फिर आगे चलकर श्रीराम ने चलते हुए विमान पर से वह सब स्थान दिखलाये जहाँ श्री सीताजी का हरण हुआ था, जटायु की मृत्यु हुई थी, कबन्ध को मारा था और बालि का वध किया था। तत्पश्चात किष्किंधापुरी में जाकर राजा सुग्रीव से मिले। सुग्रीव ने राजघराने के सब स्त्री पुरुषों, नगरी के समस्त नर नारियों समेत श्री राम और भरत का बड़ा भारी स्वागत किया। फिर सुग्रीव को साथ लेकर विमान पर से भरत को विभिन्न स्थान दिखाया और उनकी कथा सुनाते हुए लंका में जा पहुंचे, राजा विभीषण को उनके दूतों ने यह शुभ समाचार सुनाया।

श्री राम के लंका पधारने का संवाद सुनकर विभीषण को बड़ी प्रसन्नता हुई | सारा नगर बात की - बात में सजाया गया और अपने मंत्रियों को साथ लेकर विभीषण अगवानी के लिये चला। सुमेरु स्थित सूर्य की भांति विमानस्थ श्रीराम को देखकर साष्टांग प्रणाम पूर्वक विभीषण ने कहा —'प्रभो ! आज मेरा जन्म सफल हो गया, आज मेरे सारे मनोरथ सिद्ध हो गये। क्योंकि आज मैं जगद्बन्ध अनिन्द्य आप दोनों स्वामियों के चरण - दर्शन कर रहा हूँ। आज स्वर्गवासी देवगण भी मेरे भाग्य की श्लाघा कर रहे हैं। मैं आज अपने को त्रिदश पति इन्द्र की अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझ रहा हूँ। ' सर्वरत्न सुशोभित उज्ज्वल भवन में महोत्तम सिंहासन पर श्रीराम विराजे, विभीषण अर्घ्य देकर हाथ जोड़ भरत और सुग्रीव की स्तुति करने लगा। लंका निवासी प्रजा की राम दर्शनार्थ भीड़ लग गयी। प्रजा ने विभीषण को कहलाया, ' प्रभो ! हमको इस अनोखी रूप माधुरी को देखे बहुत दिन हो गये। युद्ध के समय हम सब देख भी नहीं पाए थे। आज हम दीनों पर दया का हमारा हित करने के लिये करुणामय हमारे घर पधारे हैं, अतएव शीघ्र ही हम लोगों को उनके दर्शन कराइये। ' विभीषण ने श्रीराम से पूछा और दयामय की आज्ञा पाकर प्रजा के लिये द्वार खोल दिये। लंका के नर-नारी श्री राम-भरत की झांकी देखकर पवित्र और मुग्ध हो गये। यों तीन दिन बीते। चौथे दिन रावण माता कैकसी ने विभीषण को बुलाकर कहा, ' बेटा ! मैं भी श्रीराम के दर्शन करूँगी। उनके दर्शन से महामुनि गण भी महा पुण्य के भागी होते हैं। श्रीराम साक्षात् सनातन विष्णु हैं, वही यहाँ चार रूपों में अवतीर्ण हैं। सीता जी स्वयं लक्ष्मी हैं। तेरे भाई रावण ने यह रहस्य नहीं जाना। तेरे पिता ने कहा था कि रावण को मारने के लिये भगवान विष्णु रघुवंश में दशरथ के यहाँ प्रादुर्भूत होंगे। ' विभीषण ने कहा – ' माता ! आप नये वस्त्र पहन कर कंचन - थाल में चंदन, मधु, अक्षत, दधि, दूर्वा का अर्घ्य सजाकर भगवान श्रीराम का दर्शन करें। सरमा ( विभीषण - पत्नी ) को आगे कर और अन्यान्य देव कन्याओं को साथ लेकर आप श्रीराम के समीप जाये। मैं पहले ही वहां चला जाता हूँ।'
विभीषण ने श्रीराम के पास जाकर वहाँ से सब लोगों को बिल्कुल हटा दिया और श्रीराम से कहा, ‘देव ! रावण, कुम्भ कर्ण और मेरी माता कैकसी आपके चरण कमलों के दर्शनार्थ आ रही हैं, आप कृपापूर्वक उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ करें। ' श्रीराम ने कहा, 'भाई ! तुम्हारी मां तो मेरी ' मां ' ही है। मैं ही उनके पास चलता हूँ, तुम जाकर उनसे कह दो, इतना कहकर विभु श्रीराम उठकर चले और कैकसी को देखकर मस्तक से उसे प्रणाम किया तथा बोले- आप मेरी धर्म माता हैं, मैं आपको प्रणाम करता हूँ। अनेक पुण्य और महान तप के प्रभाव से ही मनुष्य को आपके ( विभीषण - सदृश भक्तों की जननी के ) चरण - दर्शन का सौभाग्य मिलता है। आज मुझे आपके दर्शन से बड़ी प्रसन्नता हुई। जैसे श्री कौशल्या जी हैं, वैसे ही मेरे लिये आप हैं। ' बदले में कैकसी ने मातृ भाव से आशीर्वाद दिया और भगवान श्रीराम को विश्व पति जानकर उनकी स्तुति की। इसके बाद 'सरमा' ने भगवान की स्तुति की। भरत को सरमा का परिचय जानने की इच्छा हुई, उनके इशारे को समझ कर 'इङ्गित विद’ श्री राम ने भरत से कहा, ' यह विभीषण की साध्वी भार्या हैं, इनका नाम सरमा है। यह महाभागा सीता की प्रिय सखी हैं, और इनकी सखिता बहुत दृढ़ है। ' इसके बाद सरमा को समायोचित उपदेश दिया। फिर विभीषण को विविध उपदेश देकर कहा कि ' हे निष्पाप ! देवताओं का प्रिय कार्य करना, उनका अपराध कभी न करना। लंका में कभी मनुष्य आवे तो उनका कोई राक्षस वध न करने पावें। ' विभीषण ने आज्ञानुसार चलना स्वीकार किया।

तदनंतर वापस लौटने के लिये सुग्रीव और भरत सहित श्रीराम विमान पर चढ़े। तब विभीषण ने कहा ' प्रभु ! यदि लंका का पुल ज्यों - का - त्यों बना रहेगा तो पृथ्वी के सभी लोग यहाँ आकर हम लोगों को तंग करेंगे, इसलिए क्या करना चाहिये ? ' भगवान ने विभीषण की बात सुनकर पुलको बीच में से तोड़ डाला और दश योजन के बीच के टुकड़े के फिर तीन टुकड़े कर दिये। तदनंतर उस एक - एक टुकड़े के फिर छोटे - छोटे टुकड़े कर डाले, जिससे पुल टूट गया और यों लंका के साथ भारत का मार्ग पुनः विछिन्न हो गया।


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महाकाल लेटेस्‍ट सावन मैसेज और फोटो



 क्या करूँगा में अमीर बन कर
मेरा महाकाल तो फ़क़ीरों का
दीवाना है 

Kya karoonga mein ameer ban kar
Mera mahaankaal to fakeero ka
Deevaana hai

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नाकाम होगा हर वो मकसद

जिसमें महाकाल का नाम नहीं होंगे
पूरा होगा उसका हर मकसद
जो महाकाल के दीवाने होंगे

Naakaam hoga har vo makashad
jisame mahaankaal ka naam nahin honge
Poora hoga usaka har makashad
jo mahaankaal ke deevaane honge

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सबसे बड़ा तेरा दरबार हैं तू
ही सबका पालन हार हैं
सजा दे या माफी महाकाल तू
ही हमारी सरकार हैं Sabase bada tera darbar hain to
Hai sabka paalan haar hai
Saja de ya maape mahakaal too
Hee hamaaree sarakaar hain

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क्या खोया क्या नहीं पाया छोर के दुनिया
दारी को लग जा तू महाँकाल के भक्ति में
पता नहीं है शयद तुझको कितना दम है
महाँकाल के शक्ति में

Kya khoya kya nahin paaya chhor ke duniya
Daaree ko lag ja too mahaankaal ke bhakti mein
Pata nahin hai shayad tujhako kitana dam hai
Mahaankaal ke shakti mein

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किसी ने कहा लोहा है हम
किसी ने कहा फौलाद है हम
माँ कसम भाग दौड़ मच गई जब
हमने कहा महाकाल के भक्त है हम Kisee ne kaha loha hai ham
Kisee ne kaha phaulaad hai ham
Maan kasam bhaag daud mach gaee jab
Hamane kaha mahaankaal ke bhakt hai ham

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जो समय की चाल हैं
अपने भक्तों की ढाल हैं
पल में बदल दे सृष्टि को
वो महाकाल हैं Jo samay kee chaal hain
Apane bhakton kee dhaal hain
Pal mein badal de srshti ko
Vo mahaankaal hain

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माया को चाहने वाला बिखर जाता है
और मेरे महाकाल को चाहने वाला
निखर जाता है Maaya ko chaahane vaala bikhar jaata hai
Aur mere mahaankaal ko chaahane vaala
Nikhar jaata hai

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#महाकाल तेरी कृपा रही तो एक दिन अपना
भी मुकाम होगा
#1 करोड़ की #लंबोरहिनी कार होगा और शीशे
पे #महाकाल तेरा नाम होगा

#Mahakal teree kurpa rahee to ek din apana
Bhee mukaam hoga
#1 Crore kee #Lamborhini car hoga aur sheeshe
Pe #Mahakal tera naam hoga

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राजनीति वो करते है जिन्हें वोट चाहिए
महांकाल भक्त हूँ सिर्फ और सिर्फ
महाकाल का सपोट चाहिए 
Raajaneetee vo karate hai jinhe vot chaahie
Mahaankaal bhakt hoon sirph aur sirph
Mahaankaal ka saport chaahie

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जिद पर अड़ जाये तो रुख
मोर दे तूफानों का अभी
तूने तेवर ही कहां देखा हैं
महाकाल के दीवानों का अभी 
Jid par ad jaye to rukh
mod de toofano ka abhi
Tune tevar he kahaan dekha hai
mahakal ke divaanon ka abhee

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तेरे ही दम पर मेरा सफर जारी है
भटक ना जाऊँ कही महाकाल
ये तेरी ही जिम्मेदारी है 
Tere hee dam par mera saphar jaaree hai
Bhatak na jaoo kahee mahaankaal
Ye teree hee jimmedaaree hai

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जिनके रोम रोम में शिव है
वही विष पिया करते है
जमाना उन्हें क्या जलाएगा
जो श्रृंगार ही अंगार से किया करते है 
 Jinake rom rom mein shiv hai
Vahee vish piya karate hai
Jamaana unhen kya jalaega
Jo shingaar hee angaar se kiya karate hai

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तेरी चौखट पे सर रख दिया है
भार मेरा उठाना पड़ेगा
में भला हूँ बुरा हूँ मेरे महाकाल
तुझको अपना बनाना पड़ेगा

Teree chaukhat pe sar rakh diya hai
Bhaar mera uthaana padega
Mein bhala hoon bura hoon mere mahakal
Tujhako apana banaana padega

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कोई दौलत का दीवाना
कोई शोहरत का दीवाना
शीशे सा मेरा दिल
में तो सिर्फ महाकाल का दीवाना

Koee daulat ka deewana
koi shohrat ka deewana
Sheeshe sa mera dil
Mein to sirf mahakal ka deewana

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कौन कहता है भारत में FOGG
चल रहा है
यहाँ तो महाकाल के भक्तों का
ख़ौफ़ चल रहा है Kaun kahata hai bhaarat mein fogg
Chal raha hai
Yahaan to mahaankaal ke bhakton ka
Khauf chal raha hai

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भले ही मूर्ति बन कर बैठा है
पर मेरे साथ खड़ा है
जब भी संकट आए मुझ पर
मुझसे पहले मेरा महांकाल खड़ा है Bhale hee moorti ban kar baitha hai
Par mere saath khada hai
Jab bhee sankat aae mujh par
Mujhase pahale mera mahaankaal khada hai

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तुमने कैसे कह दिया अपने आपको रावण
वो तो महाकाल का ऐसा भक्त था
जिसने खुद शिव मंत्र लिख दियाTumane kaise kah diya apane aapako raavan
Vo to mahaankaal ka aisa bhakt tha
Jisane khud shiv mantr likh diya

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ना हुनर मेरे पास है ना

किस्मत मेरे पास है
बस रहता हूँ में बेफिक्र क्योंकि
महाकाल मेरे पास है

Na hunar mere paas hai na
kismat mere paas hai
Bas rahata hoon mein bephikr kyoonki
Mahaankaal mere paas hai

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ना जीने की खुसी ना मौत का गम
जब तक है दम महाकाल के
भक्त रहेंगे हम Na jeene kee khusee na maut ka gam
Jab tak hai dam mahaankaal ke
Bhakt rahenge ham

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चिता भस्म से तेरा नित
नित हो शृंगार
काल भी तेरे आगे हाथ
जोड़ खड़ा लाचारChita bhasm se tera nit
Nit ho shrngaar
Kaal bhee tere aage haath
Jod khada laachaar

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ना गिनकर देता है ना तोल कर देता है
जब भी मेरा महाकाल देता है तो
छप्पड़ फाड़ के देता है Na ginakar deta hai na tol kar deta hai
Jab bhee mera mahaakaal deta hai
To chhappad phaad ke deta hai

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घर पर रहते है ना घाट पर रहते है
हम तो उनकी सरण में रहते है
जिन्हें लोग महाकाल कहते हैं
Ghar par rahate hai na ghaat par rahate hai
Ham to unakee saran mein rahate hai
Jinhen log mahaankaal kahate hain

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जिंदगी जब महांकाल पे फिदा हो जाती है
सारी मुश्किलें अपने आप जीवन
से जुदा हो जाती है Jindagee jab mahaankaal pe phida ho jaatee hai
Saaree mushkilen apane aap jeevan
Se juda ho jaatee hai

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दुनिया पर किया गया भरोसा तो टूट सकता है
लेकिन दुनिया के मालिक महाकाल पर किया
गया भरोसा कभी नहीं टूटता है 
Duniya par kiya gaya bharosha to toot sakata hai
Lekin duniyaan ke maalik mahaankaal par kiya
Gaya bharosha kabhee nahin tootata hai

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जो अमृत पीते है उन्हें देव कहते है
जो बिष पीते है उन्हें देवों के देव
महादेव कहते है 
Jo amrt peete hai unhen dev kahate hai
Jo bish peete hai unhen devo ke dev
Mahaadev kahate hai

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राम उसका रावण भी उसका
जीवन उसका मरण भी उसका
ताण्डव है और ध्यान भी वो है
अज्ञानी का ज्ञान भी वो है 
Raam usaka raavan bhee usaka
Jeevan usaka maran bhee usaka
Taandav hai aur dhyaan bhee vo hai
Agyaanee ka gyaan bhee vo hai

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खुल चूका है नेत्र तीसरा
शिव शम्भु त्रिकाल का
इस कलियुग में वो ही बचेगा
जो भक्त होगा महाकाल का 

Khul chooka hai netr teesara
Shiv shambhu trikaal ka
Is kalayug mein vo hee bachega
Jo bhakt hoga mahaankaal ka

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शेरों वाली दहाड़ फिर सुनाने आए है
आग उगलने को फिर परवाने आए है
रास्ता भी छोड़ दिया स्वयं काल ने
जब उसने देखा महाकाल के दीवाने आए है S
hero vaalee dahaad phir sunaane aae hai
Aag ugalane ko phir paravaane aae hai
Raasta bhee chhod diya svayan kaal ne
Jab usane dekha mahaankaal ke deevaane aae hai

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आग लगे उस जवानी को जिसमें
महाकाल नाम की दीवानगी न हो 
Aag lage us jawani ko jisame
Mahakal naam ki diwangi na ho

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नीम का पेड़ कोई चन्दन से कम नहीं
दरभंगा जिला कोई London से कम नहीं
जहाँ बरस रहा है मेरे महाकाल का प्यार
वो दरबार भी कोई स्वर्ग से कम नहीं 
Neem ka ped koee chandan se kam nahin
Darabhanga jila koee London se kam nahin
Jahaan baras raha hai mere mahaankaal ka pyaar
Vo darabaar bhee koee svarg se kam nahin

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चिंता नही है काल की
बस कृपा बनी रहे
महाकाल की 
Chinta nahin hai kaal kee
Bas krpa banee rahe
Mahaakaal kee

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कष्ट मिटे जब सब ये बोले
नाम जपो तुम बम बम भोले 
Kasht mite jab sab ye bole
Naam japo tum bam bam bhole

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जँहा पर आकर लोगों की नवाबी
ख़त्म हो जाती है
बस वहीं से 
महाकाल के दीवानो
की बादशाही शुरू होती है 
Janha par aakar logon kee navaabee
Khatm ho jaatee hai
Bas vaheen se mahaankaal ke deevaano
Kee baadashaahee shuroo hotee hai

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तू भस्म का शृंगार है
मेरा पहला और आखरी प्यार है
सबके लिए तो देव है तू
लेकिन मेरे लिए संसार है 
Too bhasm ka shrngaar hai
Mera pahala aur aakharee pyaar hai
Sabake lie to dev hai too
Lekin mere lie sansaar hai

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झुकता नहीं महाकाल भक्त
किसी के आगे
वो काल भी क्या करेगा
महाकाल के आगे 
Jhukata nahin mahaankaal bhakt
Kisee ke aage
Vo kaal bhee kya karega
Mahaankaal ke aage

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इश्क़ दी गली विच कोई कोई पार हुआ
कई जन्म लगे सती को तब जाके
महाकाल को प्यार हुआ 
Ishq dee galee vich koee koee paar hua
Kaee janm lage satee ko tab jaake
Mahaankaal ko pyaar hua

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सिकरवार की वंशावली और कुलदेवी कालिका माता



सिकरवार एक सूर्यवंशी गोत्र है। सिकरवार वंश राजस्थान, मध्य प्रदेश के मुरैना भिंड ग्वालियर, बिहार और उत्तर प्रदेश के जिला आगरा और गाजीपुर के आसपास पाया जाता है आगरा जिला के खेरागढ तहसील में गांव जाजौ, बसई और अयेला सिकरवार वंश के बहुत प्राचीन गांव हैं। गांव अयेला में माँ कामाख्या देवी का बहुत प्राचीन मंदिर बना हुआ है। प्रत्येक वर्ष भादो (अगस्त) के महीने में भव्य और अद्भुत मेला लगता है। जहाँ पर लाखों श्रद्धालु भाव पूर्वक आते है और लक्ष्मण कुंड में नहा कर माँ कामाख्या के दर्शन पाते हैं! सिकरवार' शब्द राजस्थान के 'सीकर' (Sikar) जिले से बना है। यह जिला सिकरवार राजपूतों ने ही स्थापित किया था। इसके बाद इन्होंने 823 ई° में "विजयपुर सीकरी" की स्थापना की। बाद में साँचा:खानवा के युद्ध में जीतने के बाद 1524 ई° में बाबर ने "साँचा:फतेहपुर सीकरी" नाम रख दिया। इस शहर का निर्माण चित्तौड़ के महाराजा राणा छत्रपति के शासनकाल में 'खान्वजी सिकरवार' के द्वारा हुआ था।

Sikarwar Rajput History


1524 ई में 'राव धाम देव सिंह सिकरवार' ने "खनहुआ के युद्ध" में राणा सांगा (संग्राम सिंह) की साँचा:बाबर के विरुद्ध मदद की। बाद में अपने वंश को बाबर से बचाने के लिये सीकरी से निकल लिये।

राव जयराज सिंह सिकरवार के तीन पुत्र क्रमशः थे -- 1 - कामदेव सिंह सिकरवार(दलपति) 2 - धाम देव सिंह सिकरवार (राणा सांगा के पुत्र) 3 - विराम सिंह सिकरवार
काम देव सिंह सिकरवार जो दलखू बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुए, ने साँचा:मध्य प्रदेश के जिला साँचा:मुरैना में जाकर अपना वंश चलाया।

कामदेव सिकरवार (दलकू) सिकरवार की वंशावली
चंबल घाटी के सिकरवार राव दलपत सिंह यानी दलखू बाबा के वंशज कहलाते हैं, दलखू बाबा के गांव इस प्रकार हैं –
सिरसैनी – स्थापना विक्रम संवत 1404
भैंसरोली – स्थापना विक्रम संवत 1465
पहाड़गढ़ – स्थापना विक्रम संवत 1503
सिहौरी - स्थापना बिवक्रम संवत 1606

इनके परगना जौरा में कुल 70 गांव थे, दलखू बाबा की पहली पत्नी के पुत्र रतनपाल के ग्राम बर्रेड, पहाड़गढ़, चिन्नौनी, हुसैनपुर, कोल्हेरा, वालेरा, सिकरौदा, पनिहारी आदि 29 गॉंव रहे, भैरोंदास त्रिलोक दास के सिहोरी, भैंसरोली, "खांडोली" आदि 11 गॉंव रहे, हैबंत रूपसेन के तोर, तिलावली, पंचमपुरा बागचीनी, देवगढ़ आदि 22 गॉंव रहे , दलखू बाबा की दूसरी पत्नी की संतानें – गोरे, भागचंद, बादल, पोहपचंद खानचंद के वंशज कोटड़ा तथा मिलौआ परगना ये सब परगना जौरा के ग्रामों में आबाद हैं, गोरे और बादल मशहूर लड़ाके रहे हैं, राव दलपत सिंह (दलखू बाबा) के वंशजों की जागीरें – 1. कोल्हेरा 2. बाल्हेरा 3. हुसैनपुर 4. चिन्नौनी (चिलौनी) 5. पनिहारी 6. सिकरौदा आदि रहीं, मुरैना जिला में सिहौरी से बर्रेंड़ तक सिकरवार राजपूतों की आबादी है, आखरी गढ़ी सिहोरी की विजय सिकरवारों ने विक्रम संवत 1606 में की उसके बाद मुंगावली और आसपास के क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया, इनके आखेट और युद्ध में वीरता के अनेकों वृतांत मिलते हैं।

पहाड़गढ़ रियासत सिकरवार राजगद्दी
मुरैना जिला में पहाड़गढ़ के सिकरवार राजाओं की वंशवृक्ष रियासत इस प्रकार है
राव धन सिंह – विक्रम संवत 1503 से 1560
राव भारतीचंद – विक्रम संवत 1560 (उसी वर्ष देहांत हो गया )
राव नारायण दास – विक्रम संवत 1560 से 1597
राव पत्रखान सिंह –  1597 से 1641
राव जगत सिंह - 1641 से 1670
राव वीर सिंह - 1670 से 1703
राव दलेल सिंह - 1703 से 1779
राव कुअर राय - 1779 से 1782
राव बसंत सिंह - 1782 से 1791
राव पृथ्वीपाल सिंह - 1791 से 1801
राव विक्रमादित्य - 1801 से 1824
राव अपरवल सिंह - 1824 से 1860
राव मनोहर सिंह - 1860 से 1899
राव गणपत सिंह - 1899 से 1905 (चिन्नौनी से दत्तक पुत्र)
राव अजमेर सिंह 1905 से 1973 (निसंतान ) दत्तक लिया
राजा पंचम सिंह 1973 से 2004

इसके बाद में जमींदारी और जागीरदारी प्रथा समाप्त हो गयी और भूमि स्वामी किसान बन गये। राजा पंचम सिंह सिकरवार की पहली रानी से पुत्र निहाल सिंह व पद्म सिंह एवं एक पुत्री का जन्म हुआ, पदम सिंह को राय सिंह तोमर की पुत्री ब्याहीदूसरी रानी सिरसावाली से पुत्र हरी सिंह का जन्म हुआ, हरी सिंह को कश्मीरी डोगरा राजपूत ब्याही ..

सिकरवार क्षत्रियों की कुलदेवी कालिका माता
भवानीपुर गांव में कालिका माता का प्राचीन मंदिर है। क्षेत्र के सिकरवार क्षत्रियों ने कालिका माता को अपनी कुलदेवी का स्थान दिया है। भवानीपुर कोथावां ब्लाक का गांव है। सिकरवार क्षत्रियों के घरों में होने वाले मांगलिक अवसरों पर अब भी सबसे पहले कालिका माता को याद किया जाता है। यह मंदिर नैमिषारण्य से लगभग 3 किलोमीटर दूर कोथावां ब्लाक में स्थित है। बताते हैं कि कभी गोमती नदी मंदिर से सट कर बहती थी। अब गोमती अपना रास्ता बदल कर मंदिर से दूर हो गयी है, लेकिन नदी की पुरानी धारा अब भी एक झील के रूप में मौजूद है। यहां नवरात्र के दिनों में मेला लगता है। मेला में भवानीपुर के अलावा जियनखेड़ा, महुआ खेड़ा, काकूपुर, जरौआ, अटिया और कोथावां के ग्रामीण पहुंचते हैं। यहां सिकरवार क्षत्रिय एकत्र होकर माता कालिका की विशेष साधना करते हैं। बुजुर्ग बताते हैं कि पेशवा बाजीराव द्वितीय को 1761 में अहमद शाह अब्दाली ने युद्ध क्षेत्र में हरा दिया था। इसके बाद बाजीराव ने अपना शेष जीवन गोमती तट के इस निर्जन क्षेत्र में बिताया। चूंकि वह देवी के साधक थे। इस कारण मंदिर स्थल को भवानीपुर नाम दिया गया। पेशवा ने नैमिषारण्य के देव देवेश्वर मंदिर का भी जीर्णोद्धार कराया था। अब्दाली से मिली पराजय के बाद उनका शेष जीवन यहां माता कालिका की सेवा और साधना में बीता। उनकी समाधि मंदिर परिसर में ही स्थित है।


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विष्णु प्रभाकर: व्यक्तित्व और कृतित्व



विष्णु प्रभाकर का जन्म 21 जून 1912 ई0 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फर नगर जिले में एक छोटे से कस्बे ‘मीरापुर’ में हुआ था। अग्रवाल जाति की एक शाखा ‘राजवंश’ अग्रवाल से इनका सम्बन्ध था। साम्प्रदायिक सौहार्द, सांस्कृतिक क्रियाकलाप, मावे का पेड़ और रामलीला नाटक के लिए उनका कस्बा मशहूर था। उनके कस्बे के चारों ओर मन्दिर और तालाब थे। बचपन में विष्णु जी रामलीला नाटक बड़े चाव से देखने जाते थे, उनके परिवार के सदस्य नाटक में अभिनव भी किया करते थे। विभिन्न त्यौहारों के अवसर पर होने वाली सांस्कृतिक कार्यक्रमों में धार्मिक सौहार्द देखते ही बनता था, जिसका प्रभाव बचपन में ही विष्णु जी पर पड़ने लगा था।


प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जन्मभूमि से बेहद लगाव और प्रेम होता है, विष्णु जी को भी अपनी जन्मभूमि से बेहद लगाव और प्रेम था। विष्णु प्रभाकर अपनी जन्मभूमि में 12 वर्ष तक रहे और इन 12 वर्षों में ही उनके महान व्यक्तित्व की नींव पड़ी। विष्णु जी के पिता का नाम दुर्गाप्रसाद और माता का नाम महादेवी था, उनके पिताजी स्वभाव से बड़े धार्मिक थे, सनातन धर्म में आस्था रखते थे, पूजा-पाठ का कोई अंत नहीं था, तम्बाकू, की छोटी सी दुकान थी, परन्तु दुकान से ज्यादा पूजा-पाठ में उनका मन लगा रहता था। इनकी माँ महादेवी जिसे परिवार वाले प्यार से ‘माधो’ या ‘महादेई’ कहकर पुकारते थे। पिता के विपरीत ज्यादा पढ़ी लिखी सुशिक्षित और आदर्शवादी महिला थीं। पूरे गाँव में इनकी माँ ही एक-मात्र ज्यादा पढ़ी लिखी थी, जिसके कारण विष्णु जी को ज्यादा संस्कार अपनी माँ से ही मिल सका। पिता की तुलना में माँ को ही ज्यादा विष्णु जी के भविष्य की चिन्ता लगी रहती थी।उनकी माँ घर-गृहस्थी में भी परिपक्व थीं। विष्णु जी का परिवार संयुक्त परिवार था। एक ही छत के नीचे सारा परिवार रहता था। इनके पिताजी कई भाई बहन थे। परिवार बड़ा होने से सभी सदस्य एक दूसरे के सुख दुःख में भी भागीदार थे। परस्पर मानवता, संस्कृति तथा नैतिकता आदि मूल्य उनके परिवार की आधारशिला थे। दादा-दादी, माता-पिता, चाचा-चाची आदि से विष्णु जी को पूरा-पूरा सहयोग प्यार और अपनत्व तो मिला परन्तु माँ और छोटे चाचा विश्वम्भर सहाय से उन्हें बहुत अधिक प्रेम और आशीर्वाद मिला जिसने उनके भविष्य को निर्धारित करने में मुख्य भूमिका अदा की।
विष्णु जी को परिवार में अपने छोटे चाचा विश्वम्भर सहाय से बेहद लगाव रहा। उनकी माँ के बाद में चाचा ही परिवार में पढ़े लिखे थे और साथ ही साथ धन अर्जित करने में भी अधिक सक्षम थे। परिवार में उनके छोटे चाचा ही एक मात्र समृद्धि के आधार थे। विष्णु जी कहते हैं- ‘‘मेरे चाचा परिवार में सबसे अधिक प्रतिभाशाली और अर्जन की विद्या में सबसे अधिक निष्णात थे। मेरे पिता अत्यंत कर्मकाण्डी और अर्जन की विद्या में एकदम शून्य थे। उनके चाचा में देशभक्ति की भावना भी कूट-कूट कर भरी थी। विष्णु जी हमेशा अपने छोटे चाचा के साथ काँग्रेस की सभाओं में जाया करते थे। छोटे चाचा के सान्निध्य में रहकर विष्णु जी ने देश भक्ति का पहला पाठ सीखा था-‘‘स्वाधीनता संग्राम के प्रथम चरण में अक्सर मैं उन्हीं के साथ काँग्रेस की सभाओं में जाया करता था। उन्हीं के पास मैंने देशभक्ति का पहला पाठ पढ़ा था।’’ निःसंदेह विष्णु जी को अपने माँ और छोटे चाचा से जो प्यार और आशीर्वाद मिला उसने विष्णु जी के जीवन को एक नया आयाम दिया। उनके परिवार के गौरव स्तम्भ उनके चाचा प्लेग की महामारी में चल बसे। छोटे चाचा की मृत्यु ने विष्णु जी को झकझोर कर रखा दिया था। अब तक जिस घर-परिवार को छोटे चाचा का ही सहारा था, वे विष्णु जी के कंधों पर आ गया। लेकिन संयुक्त परिवार में रहकर जो प्यार, स्नेह और प्रेरणा विष्णु जी को मिलती रही उसने उनके महान व्यक्तित्व को निखारने में अहम भूमिका अदा की।
विष्णु प्रभाकर की आरम्भिक शिक्षा ‘मीरापुर’ की एक छोटी सी पाठशाला से आरम्भ हुई। बचपन में विष्णु जी को पढ़ने का बहुत शौक था और ये शौक उन्हें अपने पिताजी के तम्बाकू के दुकान पर बैठने से शुरू हुआ है। दुकान में रखे ढेर सारे टोकरों में एक टोकरा किताबों से भरा रहता था। किसी भी बच्चे को शिक्षित करने में माँ की भूमिका अहम होती हैं, क्योंकि बच्चे का पहला विद्यालय माँ ही होती है। विष्णु जी के सम्बन्ध में ठीक ऐसा ही है। माँ पढ़ी-लिखी थीं। स्वाभाविक है विष्णु जी पर उनका ही प्रभाव पड़ा था-‘‘मेरी माँ पढ़ी लिखी थीं। दहेज में बहुत सी चीजों के साथ-साथ किताबों से भरा एक बक्सा भी वे ले आई थीं। हिन्दी-उर्दू दोनों लिपियों में लिखी किताबें थीं उसमें। माँ ने बताया था कि उन किताबों से खलते-खेलते और फाड़ते-फाड़ते ही हम भाईयों का विद्यारम्भ संस्कार हुआ था।’’
प्रारम्भ में उन्हें गाँव के ही पाठशाला में दाखिल करवा दिया गया। उन दिनों पाठशाला जाने से पहले बच्चे का पट्टी-पूजन संस्कार करवाया जाता था। विष्णु जी का जब पाठशाला जाने का समय आया तो इनका भी ‘पट्टी-पूजन’, ‘संस्कार’ करवाया गया इस प्रकार कुछ दिनों तक विष्णु जी गाँव की ही पाठशाला में पढ़ते रहे। पाठशाला की पढ़ाई से अभिभावक संतुष्ट नहीं हुए और उनका प्रवेश सरकारी प्राइमरी स्कूल में करवा दिया गया। यहाँ पर विष्णु जी ने 4 वर्ष तक शिक्षा ग्रहण की। इसी स्कूल में तीसरी श्रेणी तक आते-आते विष्णु जी लगभग सभी विषयों से भली-भाँति परिचित हो गए। गणित जैसे विषयों के प्रश्न स्वयं हल करने लग गए। गाँव में आगे की पढ़ाई की व्यवस्था अच्छी न होने के कारण आगे पढ़ने के लिए उन्हें मामा के पास हिसार भेज दिया गया। हिसार में विष्णु जी का दाखिला (सी0ए0वी0 स्कूल) अर्थात् ‘चन्दूलाल एंग्लो वैदिक स्कूल’ में छठी कक्षा में करवा दिया गया और छठी कक्षा से लेकर मैट्रिक तक विष्णु जी ने इसी स्कूल में पढ़ाई की। मैट्रिक करने के बाद विष्णु जी ने इस स्कूल को छोड़ दिया। मैट्रिक पास करने के बाद विष्णु जी ने नौकरी करनी शुरू कर दी जिससे घर की आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार भी आने लगा, लेकिन आगे पढ़ने का शौक विष्णु जी ने नहीं छोड़ा। विष्णु जी लगातार उच्च-शिक्षा के लिए प्रयत्न कर रहे थे। एक तरफ नौकरी करने की विवशता और दूसरी तरफ उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए संघर्ष विष्णु जी के मन मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव डाल रहे थे।
आखिरकार सन् 1930 ई0 में उन्होंने ‘हिन्दी प्रभाकर’ की परीक्षा दी उन दिनों पंजाब विश्वविद्यालय में ये परीक्षा देने पर नियमित इण्टर और बी0ए0 की परीक्षा दी जा सकती थी। प्रभाकर की परीक्षा में विष्णु जी ने पूरे पंजाब में दूसरा स्थान प्राप्त किया। सन् 1944 ई0 में 32 वर्ष की अवस्था में विष्णु जी ने बी0ए0 की डिग्री प्राप्त की और आगे चलकर स्वतंत्र रूप से लेखन कार्य में जुट गए जो उनका लक्ष्य था। अपने शैक्षणिक जीवन में विष्णु जी ने जो उतार-चढ़ाव देखे उसने कहीं न कहीं उनके व्यक्तित्व को भी प्रभावित किया। अपने शैक्षणिक जीवन में उन्होंने बहुत कुछ खोया और बहुत कुछ पाया भी। एक तरफ जहाँ उन्हें अपना गाँव छोड़ना पड़ा तो वहीं हिसार आने के बाद उनके जीवन को एक नई दिशा मिली, यद्यपि विष्णु जी को लेखक बनने की प्रेरणा हिसार में रहकर ही मिली थी। 12 वर्ष तक अपने जन्म स्थान में और 20 वर्ष तक हिसार (पंजाब) में रहकर जितना अनुभव उन्हें मिला उसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव उनकी लेखनी पर भी पड़ा।
30 मई, 1938 ई0 को विष्णु जी का विवाह सुशीला नाम की कन्या के साथ हुआ जो स्वभाव से विनम्र, कोमल और सुशील थीं। सुशीला विष्णु जी के जीवन में नयी आशाओं और आकांक्षाओं की किरणें लेकर आईं। पत्नी के आ जाने से विष्णु जी के लेखन कार्य को बल मिला विवाह के बाद विष्णु जी के जीवन में जितने भी उतार-चढ़ाव आए पत्नी सुशीला ने उन्हें सहारा दिया और उनके मनोबल को बढ़ाया। एक पत्नी के रूप में सुशीला ने विष्णु जी को हमेशा प्रेरित किया। 8 जनवरी, 1980 ई0 को उनकी पत्नी का देहांत हो गया। लेकिन विष्णु जी के लेखन में उनकी पत्नी की भूमिका रहीं क्योंकि वे अपने जीवन काल में ही विष्णु जी से ‘आवारा मसीहा’ जैसी कालजयी जीवनी लिखवा गईं और मृत्यु के बाद ‘कोई तो’ और ‘अर्द्धनारीश्वर’ उपन्यास। उनकी पत्नी सुशीला संयुक्त परिवार से नहीं आई थीं, लेकिन फिर भी अपने स्वभाव से एक संयुक्त परिवार को संभाला और एक आदर्श पत्नी, माँ, बहू और सबसे महत्त्वपूर्ण एक आदर्श स्त्री की भूमिका भी निभाई और इस दुनिया से चल बसीं, परन्तु जाते-जाते उन्होंने विष्णु जी को एक महान लेखक बनने का रास्ता अवश्य दिखा दिया।
मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करते ही विष्णु जी सीधे ‘गवर्नमेन्ट कैटल फार्म’ के कार्यालय में दफ्तरी के पद पर काम करने लग गए। 1929 ई0 से लेकर 1944 ई0 तक वह इधर-उधर की सरकारी नौकरी रहते रहे लेकिन देश भक्ति का जुनून उन पर ऐसा सवार था कि उनको कभी सरकारी नौकरी रास ही नहीं आयी लेकिन घर की आर्थिक परिस्थितियाँ अच्छी नहीं होने के कारण विष्णु जी को नौकरी करनी पड़ी। हिसार में 15 वर्ष तक नौकरी करने के बाद विष्णु जी दिल्ली चले आए और वहाँ 1944 ई0 से लेकर 1946 ई0 तक उन्होंने ‘भारतीय आयुर्वेद महामण्डल’ नामक संस्था में कार्य किया, लेकिन उनका मन तो लेखक बनने की दिशा में  लगा हुआ था तो वह नौकरी कैसे करते। अतः वहाँ भी त्यागपत्र देकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और कुछ न कुछ लिखते रहे। आगे चलकर सन् 1955 ई0 में ‘आल इण्डिया रेडिया’ में 700 रू0 के मासिक आय पर उन्हें प्रोड्यूसर के पद पर नौकरी मिली लेकिन विष्णु जी तो सदैव दासता से मुक्ति चाहते थे। इसलिए दो वर्ष कार्य करने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्र रूप से लेखनी में लग गए।
नौकरी करते समय ही नवम्बर 1931 ई0 में ‘हिन्दी मिलाप’ नामक पत्रिका में उनकी पहली कहानी ‘दिवाली के दिन’ छपी जिसे विष्णु जी ने प्रेम बंधु उपनाम से लिखा था। अब तक विष्णु जी की लेखनी मन्द गति से ही चल रही थी परन्तु 1934 तक आते-आते उनमें गति और गम्भीरता दोनों आने लगीं और इसी वर्ष उन्होंने ‘प्रभाकर’ की परीक्षा भी उत्तीर्ण कर लिया उन्हीं के शब्दों में-‘‘मैं प्रभाकर की परीक्षा सन् 1934 ई0 में ही पास कर सका लिखने का काम भी गंभीरता से इसी वर्ष शुरू हुआ।’’
एक सृजनकर्ता के रूप में विष्णु जी पहले जिन दो महान कथा शिल्पियों से प्रभावित हुए उनमें प्रेमचन्द और शरत्चन्द जी का नाम आता है। इन दो महान कथा शिल्पियों का विष्णु जी के लेखन को प्रभावित करने में बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इसके साथ ही साथ रविन्द्रनाथ ठाकुर, बंकिमचन्द तथा जयश्ंाकर प्रसाद जैसे महान लेखकों से भी विष्णु जी को लिखने की प्रेरणा लगातार मिलती रही। 1936 ई0 में ‘हंस’ पत्रिका से जुड़ने के बाद हिन्दी जगत के प्रसिद्ध लेखकों से उनका परिचय होने लगा जिनमें अज्ञेय, जैनेन्द, प्रेमचन्द आदि उनके प्रिय लेखकों की सूची में शामिल होने लगे। सन् 1938 ई0 से लेकर 1943 ई0 के मध्य विष्णु जी की कई कहानियाँ प्रकाशित हुई जिनमें-‘छाती के भीतर’, ‘मन ग्रन्थियाँ’, ‘उलझन’, ‘अन्र्तचेतन’, ‘तजरबे’, ‘ये उलझने’, ‘बाहर भीतर’, ‘द्वन्द्व’, ‘अन्दर झांको’, ‘मकड़ी का जाला’, बुज़दिल, ‘कितनी झूठ’ आदि प्रमुख हैं। विष्णु जी की ये कहानियाँ साहित्यकारों और आलोचकों को बहुत पसंद आयी और इस तरह 1938 से 1943 ई0 तक आते-आते हिन्दी जगत के लगभग सभी महत्वपूर्ण साहित्यकारों से उनका परिचय हो गया।
विष्णु प्रभाकर गाँधीवादी विचारधारा से बहुत अधिक प्रभाावित थे। इसका कारण यह है कि विष्णु जी ने जब लिखना शुरू किया तो पूरे देश में गाँधी जी छाए हुए थे। स्वाधीनता आंदोलन चरम पर था। देशभक्ति की भावना जोरों पर थीं, ऐसे में विष्णु जी की लेखनी भी प्रभावित हुए बिना न रह सकीं। आगे चलकर विष्णु जी कई नामचीन संस्थाओं से जुड़ते चले गए, जिससे कि एक महान लेखक के रूप में उनकी पहचान बनी। एक साहित्यकार के रूप में विष्णु जी को जहाँ प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, अज्ञेय, सियारामशरण गुप्त, उपेन्द्रनाथ अश्क, चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, नगेन्द्र, यशपाल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, जैसे साहित्यकारों से प्रेरणा मिली, तो दूसरी ओर बाबू शरत्चन्द्र जी से इतने प्रभावित हुए कि अपने जीवन के 14 वर्ष ‘शरत्चन्द्र’ की जीवनी लिखने में लगा दिये जिसके परिणाम स्वरूप ‘आवारा मसीहा’ जैसी कालजयी कृति की रचना संभव हो सकी। व्यक्तित्व का निर्माण कर्म से होता है, कर्म संस्कार से प्रभावित होते हैं, और संस्कार घर-परिवार से मिलता है। व्यक्तित्व को प्रभावित करने में बचपन में मिलने वाले संस्कार का बहुत महत्त्व होता है। विष्णु जी के व्यक्तित्व को प्रभावित करने में घर-परिवार के साथ-साथ देश दुनिया में घट रही तत्कालीन परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं।
7 वर्ष की आयु में ही उनके भीतर देश-भक्ति की भावना जागने लगी। जलियांवाला बाग, रौलेट एक्ट, खिलाफत आंदोलन आदि घटनाएँ उसी अवस्था में चेतना में समा रहे थे। काँग्रेस की सभाओं में अपने चाचा के साथ जाने से देश भक्ति की भावना और प्रबल होने लगी। खद्दर पहनने का शौक बचपन में ऐसा जगा कि पूरे जीवन भर खद्दर को स्वयं से अलग न कर सके। गाँधीवादी विचारधारा बचपन में ही मस्तिष्क में छा चुकी थी। छुआ-छूत, जाति-पाति, ऊँच-नीच आदि के प्रति घृणा बचपन से ही मन को कचोट रहे थे। 17 वर्ष की आयु तक आते-आते देशभक्ति की भावना चरम पर पहुँचने लगी। देश के प्रति दीवानगी इस कदर बढ़ने लगी कि विष्णु जी ने निश्चय कर लिया कि वे स्वाधीनता संग्रााम में भाग लेकर रहेंगे और यदि ऐसा सम्भव न हुआ तो परोक्ष रूप से देश के लिए जो भी सेवा करनी होगी वो करेंगे। उन्हीं के शब्दों में-‘‘मैंने निश्चय किया था कि अगर मैं सीधे स्वाधीनता संग्राम में भाग नहीं ले सकता तो परोक्ष रूप से जो कुछ हो सकेगा वह मैं करूँगा। बहुत सोच-समझकर मैंने चार प्रतिज्ञायें ली-1. खद्दर पहनूँगा, 2. हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए प्रयत्न करूँगा, 3. छूतछात की लानत मिटाने के लिए जो कुछ हो सकेगा करूँगा, और 4. हिन्दी के प्रचार और प्रसार के लिए प्रयत्न करूँगा।’’ इस तरह माता-पिता से मिले संस्कार चाचा से मिली देशभक्ति, पत्नी से मिली प्रेरणा और देश में घट रही तत्कालीन घटनाओं ने विष्णु जी के व्यक्तित्व को निर्मित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

कृतित्व
बहुमुखी प्रतिभा के धनी विष्णु प्रभाकर जी का हिन्दी साहित्य में महत्त्वपूर्ण योगदान है विष्णु प्रभाकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। एक रचनाकार के रूप में वे नाटक, कहानी, उपन्यास, एकांकी और कथा साहित्य में तो अपनी पहचान बनाते ही हैं, साहित्य की अन्य विधाओं-संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, निबंध, यात्रा वृत्तान्त, बाल-साहित्य, लघु कथा आदि के क्षेत्र में भी अपनी योग्यता का लोहा मनवाते हैं। विष्णु प्रभाकर जी अपनी रचनाओं में‘मानवीय मूल्य’ की रक्षा और स्थापना करते हुए दिखायी देते हैं। उनका सरल स्वभाव, आदर्शवादी और गाँधीवादी विचारधारा उनकी कृतियों को गरिमामयी बनाती है। विष्णु जी के कृतित्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जिसके अन्तर्गत उनके कथा साहित्य, निबन्ध, नाटक, एकांकी की तो चर्चा की ही गयी है, गद्य की अन्य विधाओं जैसे-संस्मरण, आत्मकथा, जीवनी, रेखाचित्र, लघु कथा तथा बाल साहित्य आदि का परिचयात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है-

कहानी
विष्णु जी की पहली कहानी ‘दिवाली के दिन’ शीर्षक से सन् 1931 ई0 में ‘हिन्दी मिलाप’ नामक पत्रिका में छपी थी। यह विष्णु जी का प्रयास मात्र ही था। इस छोटे से प्रयास ने विष्णु जी के लिए आगे का मार्ग प्रशस्त कर दिया।सरकारी नौकर होने के कारण यह कहानी उन्‍होने ‘प्रेमबन्धु’ के नाम से लिखी थी और वह नवम्बर 1931 के ‘हिन्दी मिलाप’ के किसी रविवारीय संस्करण में प्रकाशित हुई थी।
सन् 1934 ई0 तक आते-आते विष्णु जी की रचनाओं में गम्भीरता आने लगी। ‘अलंकार’, ‘युगान्तर’, ‘प्रताप’, ‘आर्यमित्र’, ‘अभ्युदय’, हंस आदि पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ छपनी शुरू हो र्गइं। सन् 1939 ई0 से लेकर 1943 ई0 तक विष्णु जी की कुछ कहानियाँ काफी चर्चित र्हुइं जिनमें-‘मन ग्रन्थियाँ’, ‘छाती के भीतर’, ‘उलझन में’, ‘अन्दर झाँकों’, ‘कितनी झूठ’, ‘ये उलझने’, ‘तज़रबे’, ‘बाहर भीतर’, ‘मकड़ी का जाला’, ‘बुज़दिल’, ‘अन्तर्चेतन’, ‘द्वन्द्व’ आदि हैं। विष्णु जी ने 300 से अधिक कहानियाँ लिखी हैं जो निम्नलिखित संग्रहों में प्रकाशित हुईं- 1. आदि और अन्त (1945), 2. रहमान का बेटा (1947), 3. ज़िदगी के थपेड़े (1952), 4. संघर्ष के बाद (1968), 5. सफर के साथी (1960), 6. खण्डित पूजा (1960), 7. साँचे और कला (1962), 8. धरती अब भी घूम रही है (1970), 9. मेरी प्रिय कहानियाँ (1970), 10. पुल टूटने से पहले (1977), 11. मेरा वतन (1980), 12. खिलौने (1981), 13. मेरी कथा यात्रा (1984), 14. एक और कुन्ती (1985), 15. जिन्दगी एक रिहर्सल (1986), 16. एक आसमान के नीचे (1989), 17. मेरी प्रेम कहानियाँ (1991), 18. चर्चित कहानियाँ (1993), 19. कफ्र्यू और आदमी (1994), 20. आखिर क्यों (1998), 21. मैं नारी हूँ (दो खण्डों में) (2001), 22. जीवन का एक और नाम (2002), 23. सम्पूर्ण कहानियाँ (आठ भागों में) (2002), 24. ईश्वर का चेहरा (2003) और 25. मेरा बेटा (2005)
इन संग्रहों में संकलित 300 से ज्यादा कहानियाँ हैं, जो भाव और भाषा शैली की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कहीं जा सकतीं हैं, जिनमें युग-विशेष की झाँकियों का यथार्थ चित्रण स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

उपन्यास
विष्णु प्रभाकर जी एक उपन्यासकार के रूप में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं और हिन्दी साहित्य में अपने सात उपन्यासों के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। उनके उपन्यासों का उल्लेख इस प्रकार किया जा सकता है- 1. निशिकान्त (1955), 2. तट के बंधन (1955), 3. स्वप्नमयी (1956), 4. दर्पण का व्यक्ति (1968), 5. कोई तो (1980), 6. अर्द्धनारीश्वर (1992) (साहित्य अकादमी से सम्मानित) व 7. संकल्प (1993)

नाटक
विष्णु जी ने कई प्रकार के नाटक लिखे हैं जैसे-मनोवैज्ञानिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक आदि। इन नाटकों की भावभूमि यथार्थ से गहरा सम्बन्ध रखती है। घटनाएँ इनके नाटकों में अहम होती है जो पाठकों को यथार्थ के धरातल पर ले जाकर भाव बोध कराती हैं।विष्णु जी ने अपनी रचनाओं में उन्हीं विषय को आधार बनाया है जिससे वह प्रभावित हुए हैं। यही वजह है कि उनके नाटकों में भारतीय समाज और संस्कृति तथा मानवीय जीवन की विविध झांकियाँ स्पष्ट रूप से दिखायी देती हैं। विष्णु जी के लगभग 14 नाट्य संकलन है जिनमें उनके नाटक संकलित हैं , जो इस प्रकार हैं- 1. नव प्रभात (1951), 2. समाधि (1952), 3. डाॅक्टर (1961), 4. गान्धार की भिक्षुणी (1961), 5. युगे-युगे क्रान्ति (1969), 6. टूटते परिवेश (1974), 7. कुहासा और किरण (1975), 8. टगर (1977)
9. बन्दिनी (1979), 10. अब और नहीं (1981), 11. सत्ता के आर-पार (1981), 12. श्वेत कमल (1984), 13. केरल का क्रांतिकारी (1987) व 14. सूरदास (1997)

रेडियो नाटक
विष्णु प्रभाकर जी ने 200 से अधिक रेडियो नाटक लिखे हैं। उनके रेडियो रूपकों में तत्कालीन समसामयिक समस्याओं का यथार्थ चित्रण देखा जा सकता है। विष्णु जी ने रेडियों के लिए बहुत लिखा। छोटे-छोटे अंकों में उनके रूपक आकाशवाणी से प्रसारित होते थे। 1947 ई0 से 1957 तक उन्होंने रेडियो रूपकों का सृजन किया। ‘वीर पूजा’, ‘पूर्णाहुति’, ‘संस्कार और भावना’, ‘ऊँचा पर्वत गहरा सागर’, ‘मीना कहाँ है’, ‘मुरब्बी’, ‘सड़क’, ‘अशोक’, ‘दस बजे रात’, ‘दो किनारे’, ‘बदलते परिवेश’, ‘विषम रेखा’, ‘जहाँ दया पाप है’, ‘धुँआ’, ‘नहीं नहीं नहीं’, ‘साँप और सीढ़ी’, ‘संस्कार और भावना’, ‘मैं भी मानव हूँ’, ‘शरीर का मोल’, ‘डरे हुए लोग’, ‘लिपस्टिक की मुस्कान’, ‘ धनिया’, ‘नव प्रभात’, ‘सर्वोदय’, ‘शतरंज के मोहरे’, ‘रक्त चंदन’, ‘क्रान्ति का शंखनाद’, ‘मर्यादा’, ‘प्रतिशोध’, ‘यश के दावेदार’, ‘गाँधी जी का सपना’, ‘कमल और कैक्टस’, ‘दो किनारे’, ‘सीमा रेखा’, ‘समाजवादी बनो’, ‘रसोईघर में प्रजातंत्र’, ‘सवेरा’, ‘जज का फैसला’ आदि उनके प्रमुख रेडियो नाटक हैं। विष्णु प्रभाकर जी को एक सफल रेडियो नाटककार कहा जा सकता है-‘‘विष्णु जी के बहुआयामी कृतित्व में से उनका रेडियो नाटक साहित्य सर्वोत्कृष्ट है।

एकांकी
विष्णु जी ने अपना पहला एकांकी ‘हत्या के बाद’ शीर्षक से लिखा था। विष्णु जी का पहला एकांकी संग्रह 1947 में प्रकाशित हुआ था। उनके एकांकी संग्रह इस प्रकार हैं- 1. इंसान और अन्य एकांकी (1947), 2. स्वाधीनता संग्राम (1950), 3. प्रकाश और परछाई (1956), 4. अशोक तथा अन्य एकांकी (1956), 5. बारह एकांकी (1958), 6. दस बजे रात (1959), 7. ये रेखाएं ये दायरे (1963), 8. ऊँचा पर्वत गहरा सागर (1966), 9. मेरे प्रिय एकांकी (1970), 10. मेरे श्रेष्ठ एकांकी (1971), 11. तीसरा आदमी (1974), 12. अब और नहीं (1981), 13. डरे हुए लोग (1978), 14. नए एकांकी (1978), 15. मैं भी मानव हूँ (1982), 16. दृष्टि की खोज (1983), 17. मैं तुम्हें क्षमा करूँगा (1986) व 18. अभया (1987)

निबन्ध संग्रह
विष्णु जी ने कुछ निबन्धों की भी रचना की है। उनके निबन्ध संग्रहों के नाम इस प्रकार हैं- 1. जन समाज और संस्कृति (1981), 2. क्या खोया क्या पाया (1982), 3. कलाकार का सत्य (1991), 4. मेरे साक्षात्कार (1995) व 5. गाँधी समय समाज और संस्कृति (2003) विष्णु प्रभाकर के निबन्ध संग्रहों में संग्रहीत सभी निबन्धों को विचारात्मक निबन्ध कहा जा सकता है। इन निबन्धों में विष्णु जी ने समाज, संस्कृति और मानवीय संवेदनाओं पर विचार व्यक्त किया है।

संस्मरण
विष्णु जी का संस्मरण साहित्य भी अत्यंत समृद्ध है, जिसका विवरण इस प्रकार है- 1. जाने अनजाने (1961), 2. कुछ शब्द कुछ रेखाएँ (1965), 3. मेरे हम सफर (1978), 4. यादों की तीर्थ यात्रा (1981), 5. हम इनके ऋणी हैं (1984), 6. समानान्तर रेखाएँ (1984), 7. राह चलते-चलते (1985), 8. शब्द और रेखाएँ (1989), 9. सृजन के सेतु (1989), 10. हमारे पथ प्रदर्शक (1991), 11. यादों की छांव में (1996), 12. मिलते रहें (1996), 13. उनके जाने के बाद (1998), 14. आकाश एक है (1998), 15. साहित्य के स्वप्न पुरुष (2003) व 16. मेरे संस्मरण

जीवनी
निःसंदेह हिन्दी साहित्य में विष्णु जी की ख्याति उनकी ‘आवारा मसीहा’ को लेकर हुई है। शरत् चन्द्र की जीवनी पर आधारित कृति ‘आवारा मसीहा’ को जितनी लोकप्रियता मिली उतनी हिन्दी की किसी दूसरी जीवनी को नहीं मिली।सन् 1974 में प्रकाशित इस जीवनी को लिखने में विष्णु प्रभाकर जी को 14 वर्ष लग गए। ‘आवारा मसीहा’ के लिए विष्णु जी को कई सारे पुरस्कार भी मिले जिनमें ‘सोवियत लैण्ड नेहरू’ पुरस्कार महत्त्वपूर्ण है। इस जीवनी के लिये सबसे पहला पुरस्कार उन्‍हे लेखकों की एक संस्था ‘राइटर्स यूनियन आफ इंडिया’ की ओर से जनवरी 76 में मिला।दूसरा पुरस्कार अप्रैल 76 में उत्तर प्रदेश शासन की ओर से मिला, उसके साथ 3,000 रुपए की धनराशि भी थी। पुरस्कार का नाम था ‘तुलसी पुरस्कार’। इसके बाद जो तीसरा पुरस्कार अनेक कारणों से महत्त्वपूर्ण था। 15 नवम्बर, 1976 को मुझे ‘सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार’ देने की घोषणा की गई। इस प्रकार इस जीवनी का जैसा भव्य स्वागत हुआ वैसा किसी दूसरे के हिस्से में नहीं आया। इस कृति का महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। हिन्दी साहित्य में उसकी चमक बरकरार है। एक तरफ विष्णु जी जहाँ कथा साहित्य के क्षेत्र में अपनी योग्यता दर्ज करवाते हैं तो वहीं इस विधा में भी अपना लोहा मनवाते हैं। वैसे तो हिन्दी-साहित्य में और भी जीवनियाँ लिखी गयी हैं लेकिन जो प्रसिद्धि ‘आवारा मसीहा’ को मिली वैसी किसी और जीवनी के हिस्से में नहीं आयी। इसके अतिरिक्त विष्णु जी ने ‘सरदार वल्लभ भाई पटेल (1974)’, ‘अमर शहीद भगत सिंह (1976)’, ‘काका कालेलकर (1985)’ तथा ‘स्वामी दयानन्द सरस्वती (1989)’ की भी जीवनियाँ लिखी हैं।

यात्रा वृतांत
अपने जीवन में अनेक यात्रा करने वाले विष्णु प्रभाकर जी ने भारत की संस्कृति, सभ्यता तथा प्राकृतिक सुन्दरता को बहुत करीब से देखा है। आपने अपनी यात्रा से सम्बन्धित जो वृत्तान्त लिखे हैं वो भारतीय संस्कृति तथा प्राकृतिक सौंदर्य से साक्षात्कार कराता है- 1. गंगा जमुना के नैहर में (1964), 2. अभिमान और यात्रा (सं0) (1964) 3. हिमशिखरों की छाया में (1981) व 4. ज्योतिपुंज हिमालय (1982)

बाल-साहित्य
विष्णु प्रभाकर बाल-रचनाकार भी हैं उन्हें बच्चों से बेहद स्नेह और लगाव रहा। इन्होने बच्चों के मनोरंजन के लिए कई सारे नाटक एकांकी तथा कहानियाँ आदि लिखे हैं। जो मनोरंजन के साथ-साथ उन्हें संदेश भी देते हैं। उनके बाल-साहित्य इस प्रकार है-‘मोटे लाल (1955)’, ‘कुन्ती के बेटे (1958)’, ‘दादा की कचहरी (1959)’, ‘रामू की होली (1959)’, ‘अभिनव एकांकी (1969)’, ‘अभिनव बाल एकांकी (1968)’, ‘एक देश एक हृदय (1971)’, ‘हड़ताल (1972)’, ‘जादू की गाय (1972)’, ‘नूतन बाल एकांकी (1975)’, ‘हीरे की पहचान (1976)’, ‘ऐसे-ऐसे (1978)’, ‘गुड़िया खो गई (1981)’, ‘बाल वर्ष जिन्दाबाद (1984)’, ‘गजनंद लाल के कारनामे (2000)’, ‘मोती किसके (2000)’, ‘दो मित्र (2000)’, ‘घमण्ड का फल (1973)’, ‘शरतचन्द का बचपन (1990)’, ‘पाप का घड़ा (1976)’, ‘प्रेरक बाल कथाएँ (2003)’।
इसके साथ ही साथ विष्णु जी ने-‘बापू की बातें (1954)’, ‘बन्द्री नाथ (1959)’, ‘कस्तूरबा गाँधी (1955)’, ‘हजरत उमर (1955)’, ‘सरल पंचतंत्र (1955)’, ‘बाजी प्रभु देश पाण्डे (1957)’, ‘हमारे पड़ोसी (1957)’, ‘मन के जीते जीत (1957)’, ‘हरूँउल रसीद (1957)’, ‘मुरब्बी (1957)’, ‘ऐसे थे सरदार (1957) ‘शंकराचार्य (1959)’, ‘कुम्हार की बेटी (1959)’, ‘बद्री नाथ (1959)’, ‘मानव अधिकार (1960)’, ‘यमुना की कहानी (1960)’, ‘रविन्द्र नाथ टैगोर (1961)’, ‘पहला सुख निरोगी काया (1963)’, ‘मैं अछूत हूँ (1968)’, ‘नागरिकता की ओर पंचायत राज रूपक (1959)’ आदि भी लिखे जो विविधा के अन्तर्गत आते हैं।

विभिन्न पुरस्कार एवं सम्मान
विष्णु जी को साहित्य जगत में कई महत्त्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। एक तरफ ‘आवारा मसीहा’ के लिए जहाँ उन्हें ‘तुलसी पुरस्कार’ तथा ‘सोवियत लैण्ड पुरस्कार’ दिया गया तो वहीं ‘अर्द्धनारीश्वर’ उपन्यास के लिए ‘साहित्य अकादमी’ से सम्मानित किया गया जो विष्णु जी के ‘व्यक्तित्व और ‘कृतित्व’ की महानता का बोध कराता है। साहित्य जगत में उनके योगदान के लिए मिलने वाले पुरस्कारों की निम्न इस प्रकार है- 1. ‘‘इण्टर नेशनल ह्यूमनिस्ट अवार्ड, 2. पाब्लो नेरूदा, 3. सोवियत लैण्ड पुरस्कार, 4. तुलसी पुरस्कार, 5. सुर पुरस्कार, 6. राष्ट्रीय एकता पुरस्कार, 7. शब्द शिल्पी पुरस्कार, 8. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार, 9. साहित्य वाचस्पति, 10. साहित्यकार शिरोमणि, 11. मूर्तिदेवी पुरस्कार, 12. बेनीपुरी पुरस्कार, 13. शलाका सम्मान, 14. लघुकथा रत्न, 15. महाराष्ट्र भारती, 16. कॉफी हाउस सम्मान, 17. विशिष्ट सेवा सम्मान, 18. श्रेष्ठ कला आचार्य सम्मान, 19. मित्र रत्न, 20. हिन्दी भाषा साहित्यिक पुरस्कार, 21. साहित्य अकादमी पुरस्कार, 22. शरत पुरस्कार, 23. ताम्रपत्र, 24. महात्मा गांधी जीवन दर्शन एवं साहित्य सम्मान, 25. शरत् मेमोरियल मेडल, 26. राहुल सांकृत्यायन यायावरी पुरस्कार, 27. अनाम देवी सम्मान, 28. यशपाल जैन स्मृति पुरस्कार, 29. साहित्य मार्तण्ड, 30. राजेन्द्र बाबू शिखर सम्मान व 31. पद्म भूषण’’ है।
विष्णु प्रभाकर को इसके साथ-साथ न जाने कितने अनगिनत ‘सम्मान’, ‘पदक’ एवं पुरस्कारों से उन्हें नवाजा गया है। इसके अलावा साहित्य की विभिन्न संस्थाओं ने विष्णु प्रभाकर जी को आजीवन सदस्यता भी प्रदान की है। वे विश्व हिन्दी सम्मेलनों तथा भाषा शिक्षण संस्थाओं के प्रचार-प्रसार में विशेष प्रतिनिधि के तौर पर अपनी सदस्यता भी दर्ज करा चुके हैं। विष्णु जी का ‘कृतित्व’ बहुत विशाल व्यापक एवं समृद्ध है। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि हिन्दी साहित्य में विष्णु प्रभाकर जी का स्थान कितना महत्त्वपूर्ण है। विष्णु जी ने जब कलम पकड़ा देश में स्वाधीनता आन्दोलन चरम पर था। आर्य समाज तथा गाँधीवादी विचारधारा से वे प्रभावित थे अतः इन विचारधाराओं का पूरा प्रभाव उनकी रचनाओं पर भी पड़ा।


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